हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 164 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बच्चे…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “बच्चे..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बच्चे” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

हर देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं बच्चे

कल के स्वरूप की छुपी अभिव्यक्ति हैं बच्चे ॥

“कल देश कैसा ही सपने उभारिये

अनुरूप उसके ही कदम अपने संवारिये।

जैसा इन्हें बनायेंगे, वैसा ये बनेंगे

वातावरण जो पायेंगे वैसे ही ढलेंगे ॥

पौधों की भाँति होते हैं कोमल, सरल, सच्चे।

हर देश की सबसे बड़ी संपत्ति हैं बच्चे ॥1॥

इनको सहेजिये इन्हें बढ़ना सिखाइये

पुस्तक ही नहीं जिन्दगी पढ़ना सिखाइये।

शिक्षा सही न मिली तो ये जायेंगे बिगड़

अपराध की दुनिया में पड़ेंगे ये लड़-झगड़ ॥

इनमें अभी समझ नहीं, अनुभव के हैं कच्चे

 हर देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं बच्चे ॥ 2 ॥

 *

इनके विकास की है बड़ी जिम्मेदारियाँ

शासन-समाज को सही करती तैयारियाँ।

शालाएँ हो, सुविधाएँ हो, अवसर विकास के

सद्भाव हों, सद्बुद्धि हो, साधन प्रकाश के ॥

परिवेश मिले सुखद जहाँ ढल सकें अच्छे

हर देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं बच्चे ॥3॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क्रौंच (3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – क्रौंच (3) ? ?

वध नहीं रचता कविता,

वध तो रचता है

निर्मम शब्द,

शब्द-

युद्ध के पक्ष में,

हिंसा के पक्ष में,

शोषण और

विलाप के पक्ष में,

कविता तो

उर्वरा माटी में

सद्भाव के पुष्प खिलाती है,

सदाशयता के

कपोत उड़ाती है,

वध में

कविता ढूँढ़नेवालो!

पहले झेलो

बहेलिए का तीर

अपनी छाती पर,

उस रूधिर को रोकने

दौड़ेंगे जो हाथ;

वे हाथ

कविता के होंगे,

तुम्हारी पीड़ा की

समानुभूति में

बहेंगी जो आँखें;

वे आँखें कविता की होंगी,

जो कर गुज़रेगी कुछ ऐसा

कि जीने के लिए

आखेट की

आवश्यकता ही न रह जाए;

वह समूची

कविता होगी,

सुनो मित्रो!

आओ साथ बैठें

और रचें कविता!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #220 ☆ – भावना के दोहे… – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 220 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तेरे आनन पर लिखा, प्रिय का प्यारा नाम।

अधरों की मुस्कान ने, पिया प्यार का जाम।।

*

बिखरी  अलकें देखकर, खोए हमने होश।

छटा सुहानी लग रही, भरता इनमें जोश।।

*

मौसम तो अभिसार का, हुई सुहानी शाम।

दर्शन दे दो प्रभु मुझे, आए तेरे धाम।।

*

अरुणिम आभा की छटा, बिखर रही है खूब।

गोरी की मुस्कान में, जैसे खिलती दूब।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #201 ☆ अवध  में  आए  राम  लला… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है अवध  में  आए  राम  ललाआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 201 ☆

☆ अवध  में  आए  राम  लला.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

करेंगे  सब  का  काम  भला

अवध  में  आए  राम  लला

*

लगी  दरश  की आस  हमारी

झूम   उठी   सारी    फुलवारी

हुईं  सब  निष्फल  विघ्न-बला

अवध  में  आए   राम  लला

*

राम  हृदय  में  जिनके  बसते

वही  अवध  का मर्म समझते

देखता  अग-जग   राम-कला

अवध  में  आए  राम  लला

*

रघुनंदन   जगती   के   स्वामी

घट-घट   वासी  अन्तर्यामी

राम  से जग जीवन उजला

अवध  में  आए   राम   लला

*

राम   शरण   संतोष   पड़ा   है

द्वार  राम  के  जगत   खड़ा  है

कई जन्मों का पुण्य फला

अवध  में  आए   राम   लला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेम – दो कविताएं – 1. “प्रेम की महक?” ☆ 2. “क्या नाम दूँ?” ☆ श्री केशव दिव्य ☆

श्री केशव दिव्य

 

☆ कविता ☆ प्रेम – दो कविताएं – 1. “प्रेम की महक?” ☆ 2. “क्या नाम दूँ?” ☆ श्री केशव दिव्य ☆

(काव्य संग्रह – स्नेहगंधा माटी मेरी” – से दो कविताएं)  

☆ 1. “प्रेम की महक?” ☆ 

सच पूछो तो

मुझको

नहीं लगती अच्छी

मिक्सी की पिसी

चटनी

 

क्योंकि

इसमें नहीं

तुम्हारे श्रम का

नमक

 

तुम्हारी नरम-नरम

उंगलियों का

जस

 

इसमें

मिलती नहीं

तुम्हारे

प्रेम की महक

सच पूछो तो।

 

—केशव दिव्य

☆ 2. “क्या नाम दूँ?” ☆

प्रिय!

मैंने

आज फिर

तुम्हारे हिस्से के पल

चुराए हैं

जैसा कि

अक्सर

चुराया करता हूँ

 

और

इसे जानती हो तुम

अच्छी तरह

 

फिर भी

कहा कुछ नहीं

हमेशा की तरह

 

क्या कहूँ इसे ?

सहनशीलता

उदारता

या सहभागिता

तुम्हारी

 

मेरे सृजन-उत्सव में

जो तुम

आदि से

करती आई हो ।

© श्री केशव दिव्य

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क्रौंच (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – क्रौंच (2)  ? ?

तुम नहीं सुन सकोगे

रक्तरंजित क्रौंच की

पीड़ा के स्वर,

ना ही

तुम तक पहुँचेगा

शिकार होने का

खतरा उठाए;

अपनी जगह

स्थिर बैठे

युगल के जीवित बचे

क्रौंच का

हृदय चीरता विलाप,

कविता के सूक्ष्म धागे

तीर और कमान से

नहीं बुने जाते बहेलिए!

© संजय भारद्वाज 

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 193 ☆ गीत – सफल सुखी जीवन हो जाए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 194 ☆

☆ गीत – सफल सुखी जीवन हो जाए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मिटे तमिस्रा जन –  गण – मन की

सफल सुखी जीवन हो जाए।

सेवा ही तो परम धर्म है

हर प्राणी ही हँसे – हँसाए।।

 *

सेवा , सत्य , समर्पण , श्रम से

मिलता मंत्र सफलताओं का।

संस्कार , संस्कृति थाती से

दम घुटता है जड़ताओं का।।

 *

शिशिर गया वसंत ऋतु आई

धरा , प्रकृति नवगीत सुनाए।।

 *

उजली रातें हरें तिमिर को

तारों की है टिमटिम – टिमटिम।

पर्वत – गिरि संगीत सुनाएँ

झरनों की है झिमझिम – झिमझिम।

 *

नव ऊर्जा है , नई तरंगें

हर्षित तन – मन खिल – खिल जाए।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #34 ☆ कविता – “आत्मज्ञान…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 34 ☆

☆ कविता ☆ “आत्मज्ञान…☆ श्री आशिष मुळे ☆

ओये इश्क कर मीरेया

सपणे इश्क के ना कर

नींद होवे तो सपणे होवे

नींद भगावे सो आत्मज्ञान होवे

 *

वे मीर तू होवे कोण

दादा बुआ पड़ोसी जो बनावे

ख़ुद को देख करीब से मीरेया

सच में तू कौन होवे

 *

क्या सही क्या ग़लत

कोई दूसरा क्या बतावे

तू भी इंसान ख़ुदा का बनाया

तुझे क्या चाहिए तुझे मालूम होवे

 *

भीड़ ने दी पहचान तुझे

उससे तू भला क्या पावे

सदियों से पहन कर कपड़ा

अंदर से तो तू नंगा होवे

 *

क्या बुरा और क्या ज़रूरी

पता जब इनका मिल जावे

झुंड से निकलकर ख़ुद को पाना

आत्मज्ञान आत्मज्ञान और क्या होवे

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #217 – कविता – ☆ कुछ मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय रचना  “आज के संदर्भ में – षड्यंत्रों का दौर…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #217 ☆

☆ कुछ मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

[1]

अपेक्षाएँ ये

दुखों की खान हैं

अपेक्षाएँ

हवाई मिष्ठान्न हैं

बीज इसमें हैं

निराशा के छिपे,

छीन लेती ये

स्वयं का मान हैं।

[2]

अब नहीं आता, किसी का फोन है

चुप्पियों से घिरे, विचलित मौन हैं

स्वयं बतियाते, स्वयं ही पूछते,

सुख-दुखों का,अनुभवी यह कौन है।

[3]

है कहाँ सिद्धांत नीति, अब कहाँ आदर्श है

चल रहा है झूठ का ही, झूठ से संघर्ष है

ओढ़ सच का आवरण, है ध्येय केवल एक ही

बस हमीं हम ही रहें, यह एक ही निष्कर्ष है।

[4]

पहले जैसे शेखचिल्ली के, सपनों से दिन रहे नही

जाग्रत जनता बाँच रही है, सब के खाते और बही

मुफ्त रेवड़ीऔर शिगूफे, समझ रहा है जनमानस,

हुक्कामों से अब हिसाब, माँगेंगे वोटर सही-सही।

 ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 41 ☆ फिर भरमाया मौसम ने… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “फिर भरमाया मौसम ने…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 41 ☆ फिर भरमाया मौसम ने… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

लो बसंत में

फिर भरमाया मौसम ने।

*

अभी-अभी तो धूप

ज़रा इठलाई थी

हवा ख़ुशी में

थोड़ी सी पगलाई थी,

*

असमय बादल

राग सुनाया मौसम ने।

*

नदी हिलोरों पर बैठी

कुछ गाती थी

मनुहारों की डोर

पकड़ इतराती थी

*

कर दी मैली

कंचन काया मौसम ने।

*

अमराई की देह

तनिक बौराया मन

कोयल रही अलाप

सुरों में अपनापन,

*

घर ठिठुरन का

फिर सुलगाया मौसम ने। 

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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