हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 158 ⇒ सुखासन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुखासन”।)

?अभी अभी # 158 ⇒ सुखासन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब घरों में सोफे कुर्सियां नहीं थीं, तब आगंतुक को सबसे पहले बैठने के लिए आसन दिया जाता था। अगर बैठक हो, तो बैठने की व्यवस्था होती थी, अगर किसी गरीब के घर में तखत चारपाई अथवा टूटी फूटी कुर्सी भी ना हो, तो जमीन पर ही आसन, दरी, अथवा चटाई बिछा दी जाती थी।

किसी भी आरामदायक स्थिति को आसन कहते हैं। नंगी जमीन पर बैठना अशुभ माना जाता है। यही आसन योगासन का भी एक प्रमुख अंग है। अष्टांग योग यम, नियम और आसन प्राणायाम से ही तो शुरू होता है, लेकिन सच तो यही है कि आसन प्राणायाम को ही लोग योग समझ बैठे हैं। वैसे प्राणायाम भी अतिशयोक्ति ही है, थोड़े हाथ पांव हिला लिए, और हो गया योगा।।

तो क्यों न हम भी आज सिर्फ आसन की ही बात करें। अगर आसन में ही सुख नहीं हो, तो काहे का आसन! हमारे महर्षि पातंजल इस बात को भली भांति जानते थे, इसलिए उन्होंने आसन की परिभाषा में ही लिख दिया, स्थिरसुख आसनम् ! यानी जिस स्थिति में आप सुखपूर्वक स्थिर हो बैठे रहें, वही आसन है। शुद्ध हिंदी में इसे any comfortable posture कहते हैं। कितनी आसान परिभाषा है आसन की।

योग की भाषा में आसन को पोश्चर यानी योगासन कहा जाने लगा है। कुछ आसन तो जीव गर्भ में ही कर लेता है, और एक नवजात शिशु की हर क्रिया भी आसन ही होती है। प्रकृति उसकी गुरु होती है। बड़े होते होते वह पांव का अंगूठा भी मुंह में ले लेता है, अगर हम बड़े लोग अगर यह करने जाएं, तो सिर्फ दांतों तले उंगलियां ही दबाते रह जाएं।।

इंसान योग करे ना करे, हर व्यक्ति के कुछ प्रिय आसन होते हैं। मेरा प्रिय आसन सुखासन है। यह मैं जमीन पर बैठकर भी कर सकता हूं, और कुर्सी पर बैठकर भी। इसे हमारी देसी भाषा में पालकी मारकर बैठना कहते हैं। वैसे रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए आप स्वस्तिकासन और सिद्धासन भी कर सकते हैं और अभ्यासोपरान्त पद्मासन भी लगा सकते हैं। अजी, पद्मासन को तो आसनों का राजा कहा गया है।

अगर आप अपने घुटनों पर ही बैठ गए, तो यह वज्रासन हो गया। वज्रासन में एक खूबी और है, यह आप भर पेट भोजन करने के बाद भी कर सकते हैं। लोगों ने आजकल जमीन पर बैठना ही बंद कर दिया है। जिसका जमीन पर बैठना एक बार छूट गया फिर वह खाना भी टेबल पर ही खाएगा और पाखाने के लिए भी कमोड को ही अपनाएगा।।

खैर, हम तो सुख की बात कर रहे थे। मेरा एक और प्रिय आसन शवासन है।

मरना कहां हमारे हाथ में है, लेकिन शव जैसे पड़े रहने में क्या हर्ज है। मुर्दा कहां कुछ बोलता और सोचता है, बस बिना हाथ पांव हिलाए डुलाए, पड़ा रहता है। आप भी मुर्दे के समान कुछ मत सोचो, कुछ मत बोलो, मस्त शरीर को शिथिल छोड़कर पड़े रहो।

नहीं मरा, तो मरकर देख।

सांस तो फिर भी चल रही है। अहा, कितना सुख है, कितना आनंद है, जीते जी मरने में।

और अगर इसी में नींद लग गई तो ! अरे नेकी और पूछ पूछ, अजी आप कहां इतनी जल्दी मरने वाले हो। आप तो जिंदगी की झंझटों को भूल आराम से पड़े हो। अगर आपकी आंख लग गई, तो समझो यही योगनिद्रा हो गई। विचार शून्य होना तो ध्यान की अवस्था है। लो जी, पड़े पड़े ही ध्यान भी लग गया। बस, जब तंद्रा टूटे, आप उठ बैठो। आप एक बार मर भी गए, और समझो आपका पुनर्जन्म भी हो गया।।

बस इसी तरह रोज जीते, मरते रहें। रोज रात को करवटें बदलना भूल जाएंगे। घोड़े बेचकर सोने वाली, साउंड स्लीप, जो आपकी पूरे दिन भर की थकान दूर कर देगी और आप पुनः दिन भर के लिए तरो ताजा हो जाएंगे।

कितना सुख है इन आसान आसनों में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #200 ☆ समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 200 ☆

☆ समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार 

आधुनिक युग में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता की भावना ने बच्चों, परिवारजनों व समाज में आत्मकेंद्रिता के भाव को जहां पल्लवित व पोषित किया है; वहीं इसके भयावह परिणाम भी सबके समक्ष हैं। माता-पिता की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा ने, जहां पति-पत्नी में अलगाव की स्थिति को जन्म दिया है; वहीं उनके हृदय में उपजे संशय, शंका, संदेह व अविश्वास के भाव अजनबीपन का भीषण-विकराल रूप धारण कर मानव-मन को आहत-उद्वेलित कर रहे हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप ‘लिव-इन व सिंगल पेरेंट’ का प्रचलन निरंतर बढ़ रहा है… जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चे भुगतने को विवश हैं और वे निरंतर एकांत की त्रासदी से जूझ रहे हैं। भौतिकतावाद की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रवृत्ति ने तो बच्चों से उनका बचपन ही छीन लिया है, क्योंकि एक ओर तो उनके माता-पिता अपने कार्य-क्षेत्र में प्रतिभा-प्रदर्शन कर एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहते हैं, दूसरी ओर वे अपनी अतृप्त इच्छाओं व सपनों को अपने आत्मजों के माध्यम से साकार कर लेना चाहते हैं। इस कारण वे उनकी रूचि व रूझान की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते।

इस प्रकार माता-पिता भले ही धन-संपदा से सम्पन्न होते हैं और उनका जीवन भौतिक सुख-सुविधाओं व ऐश्वर्य से लबरेज़ होता है, परन्तु समयाभाव के कारण वे अपने आत्मजों के साथ चंद लम्हे गुज़ार कर उन्हें जीवन की छोटी-छोटी खुशियां भी नहीं दे सकते; जो उनके लिए अनमोल होती हैं, प्राणदायिनी होती हैं। यह कटु सत्य है कि आप पूरी दौलत खर्च करके भी न तो समय खरीद सकते हैं; न ही बच्चों का चिर-अपेक्षित मान-मनुहार और उस अभाव की पूर्ति तो आप लाख प्रयास करने पर भी नहीं कर सकते। सो! अत्यधिक व्यस्तता के कारण माता-पिता से अपने आत्मजों को सुसंस्कृत करने की आशा करना तो दूर के ढोल सुहावने जैसी बात है। वास्तव में यह कल्पनातीत है, बेमानी है।

चिन्तनीय विषय तो यह है कि आजकल न तो माता-पिता के पास समय है; न ही शिक्षण संस्थानों में अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया जाता है और न ही जीवन- मूल्यों की महत्ता, सार्थकता व उपादेयता का पाठ पढ़ाया जाता है। सो! उनसे नैतिकता व मर्यादा-पालन की शिक्षा देने की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, मदिरा व ड्रग्स  का आदी होना, क्लब व रेव-पार्टियों में उनकी सहभागिता-सक्रियता को देख हृदय आक्रोश से भर उठता है; जो उन मासूमों को अंधी गलियों में धकेल देता है। इसका मूल कारण है– पारस्परिक मनमुटाव के कारण अभिभावकों का बच्चों की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में रुचि न लेना। दूसरा मुख्य कारण है–संयुक्त परिवार-व्यवस्था  के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था का प्रचलन। वैसे भी परिवार आजकल माता-पिता व बच्चों तक सिमट कर रह गए हैं… संबंधों की गरिमा तो बहुत दूर की बात है। रिश्तों की अहमियत भी अब तो रही नहीं… मानो उस पर कालिख़ पुत गयी है।

यह तो सर्वविदित है कि बच्चों को मां के स्नेह के साथ-साथ, पिता के सुरक्षा-दायरे की भी दरक़ार रहती है और दोनों के सान्निध्य के बिना उनका सर्वांगीण विकास हो पाना असम्भव है। इन विषम परिस्थितियों में पोषित बच्चे भविष्य में समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं। अक्सर अपने-अपने द्वीप में कैद माता-पिता बच्चों को धन, ऐश्वर्य व भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान कर अपने कर्त्तव्य-दायित्वों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसलिए स्नेह व सुरक्षा का उनकी नज़रों में कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे बच्चे सभ्यता-संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं– हैलो-हाय के वातावरण में पले-बढ़े बच्चे मान-सम्मान के संस्कारों से कोसों दूर हैं… भारतीय संस्कृति में उनकी तनिक भी आस्था नहीं है…. बड़े होकर वे अपने माता- पिता को उनकी ग़लतियों का आभास-अहसास कराते हैं और उन्हें अकेला छोड़ अपने परिवार में मस्त रहते हैं। इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में उनके माता-पिता प्रायश्चित करने हेतु उनके साथ रहना चाहते हैं; जो उन्हें स्वीकार नहीं होता, क्योंकि उन्हें उनसे लेशमात्र भी स्नेह-सरोकार नहीं होता।

सच ही तो है ‘गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। सो! वक्त वह अनमोल तोहफ़ा है, जो आप किसी को देकर, उसे आपदाओं के भंवर से मुक्त करा सकते हैं। इसलिए बच्चों व बुज़ुर्गों को समय दें, क्योंकि उन्हें आपके धन की नहीं– समय की, साथ की, सान्निध्य व साहचर्य की ज़रूरत होती है… अपेक्षा रहती है। आप चंद लम्हें उनके साथ गुजारें…अपने सुख-दु:ख साझा करें, जिसकी उन्हें दरक़ार रहती है। वास्तव में यह एक ऐसा निवेश है, जिसका ब्याज आपको जीवन के अंतिम सांस तक ही प्राप्त नहीं होता रहता, बल्कि मरणोपरांत भी आप उनके ज़हन में स्मृतियों के रूप में ज़िन्दा रहते हैं। यही मानव जीवन की चरम-उपलब्धि है; सार्थकता है; जीने का मक़सद है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 156 ⇒ दिवा-स्वप्न (फैंटेसी)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिवा-स्वप्न (फैंटेसी) “।)

?अभी अभी # 156 ⇒ दिवा-स्वप्न (फैंटेसी)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

मैं तो एक ख्वाब हूं, इस ख्वाब से तू प्यार ना कर ! गोपियों के तो मन दस बीस नहीं थे, लेकिन जब हम सो जाते हैं, तब भी स्वप्न में हमारा मन जागता रहता है, लेकिन क्योंकि हम सोये हुए रहते हैं, इसलिए यह मन अवचेतन मन कहलाता है। हमारे चेतन होते ही यह अवचेतन मन सो जाता है।

अब उनका क्या, जो उठते जागते भी सपने देखा करते हैं। आप इन्हें दिवा स्वप्न भी कह सकते हैं और खयाली पुलाव भी। मन की गति को कोई नाप नहीं पाया।

कल्पना लोक में विचरने के लिए यह स्वतंत्र है। जहां रवि की नहीं पहुंच, वहां पहले से ही मौजूद,पहुंचे हुए कवि। अगर आपको शुगर है तो खयाली पकवान में तबीयत से शकर डालें, आपका बाल भी बांका नहीं होगा।।

हमारा भारतीय दर्शन नैतिकता, आत्म संयम, अनुशासन, तितिक्षा,ब्रह्मचर्य, यम नियम और चिंतन, मनन, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान पर आधारित है जब कि पाश्चात्य संस्कृति फ्रायड के मनोविज्ञान को अधिक महत्व देती है। ओशो भारतीय दर्शन और फ्रायड का कॉकटेल है, जहां

काम, क्रोध के विकारों को दबाया नहीं जाता, उनका विरेचन (catharsis)किया जाता है। हमारी विश्व गुरु की छवि राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर,विवेकानंद से होती हुई, महर्षि रमण,ओशो, कृष्णमूर्ति,मार्केटिंग योग गुरु बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और जग्गी वासुदेव के हाथों में आज भी सुरक्षित है।

बाल मन बड़ा कोमल होता है। कच्ची मिट्टी का एक ऐसा खिलौना होता है बचपन, जिसे जैसा चाहा स्वरूप दिया जा सकता है। गुड्डे गुड़िया का खेल ही तो होता है बचपन, जहां कल्पना लोक में परियों का संसार, घोड़े पर राजकुमार और एक सुंदर राजकुमारी भी होती है। एडवेंचर्स ऑफ रॉबिनहुड भी होते हैं और गुलिवर्स ट्रैवल भी। कल के सिंदबाद के जहाजी लुटेरे आज एंड्रॉयड की दुनिया के ब्ल्यू व्हेल जैसे खतरनाक खेल हो गए हैं। बच्चे तो बच्चे बड़े बूढ़े भी सेक्स टॉयज से खेलने लगे हैं। मन्नू भंडारी का आपका बंटी अब और वयस्क हो चला है।।

हिंसा, युद्ध और आधुनिक हथियार आज की युवा पीढ़ी को बहुत लुभा रहे हैं। बच्चों की पोगो की दुनिया ने आजकल एलियंस के सपने देखना शुरू कर दिए हैं। स्टार वॉर और स्टीफन हॉकिंग पर बच्चे बहस करते हैं। कल का शक्तिमान आज का स्टीफन रोबोट है, सूर्यवंशम है। कितने सपने देख रही है आज की बच्चों की दुनिया, कल इनका भविष्य कितना उज्ज्वल और यथार्थपरक होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

फैंटेसी में बिंब भी है, और प्रतीक भी। वहां प्रश्न है, जिज्ञासा है, शंका तो है, लेकिन समाधान नहीं। यह फैंटेसी हर युग में,हर उम्र में विद्यमान रही है,हमारे अंदर का देवासुर संग्राम है फैंटेसी। अच्छे बुरे सपने हैं फैंटेसी। किसी को कभी ना बताई गई बातें हैं फैंटेसी,अपने आप से छुपाई गई सच्चाई है फैंटेसी। आईने की तरह साफ है फैंटेसी, लेकिन आईने से मुंह छुपाना है फैंटेसी। ऐसी है फैंटेसी, कैसी कैसी है फैंटेसी।।

अगर दाग अच्छे हैं, तो फैंटेसी भी बुरी नहीं ! क्या है यह फैंटेसी, यथार्थ और कल्पना के बीच का एक पर्दा, जिसके आरपार देखा तो जा सकता है, लेकिन कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। तारे ही नहीं, फिल्मी सितारे भी जमीं पर। देवानंद और राजेश खन्ना में ऐसा क्या था, जो लड़कियां उनकी दीवानी थी। दक्षिण भारत में तो फिल्मी अभिनेताओं की तस्वीर लोग घरों में लगाते थे। युवा पीढ़ी के कमरों में, कहीं ब्रूस ली की तस्वीर तो कहीं जेम्स बॉन्ड की। क्या कहें इसे फैंटेसी अथवा पागलपन।

यह फैंटेसी समाज के लिए घातक और अभिशाप तब बन जाती है जब यह नैतिकता की वर्जनाओं को तोड़ती हुई अपराध जगत में प्रवेश कर जाती है। फैंटेसी बाल अपराध की जनक भी है और मानसिक विक्षिप्तता की भी। फैंटेसी मनोविज्ञान है, मनोरंजन,मनोविनोद ही बना रहे,भले ही मन में लड्डू फूटते रहें, लेकिन कभी अपराध मनोविज्ञान का हिस्सा ना बने।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष 🇮🇳 राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष 🇮🇳 राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ? – संजय भारद्वाज, अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे ?

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं?

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है।  एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा।’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें वर्षों कूड़े-दानों में पड़ी रहीं। नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। यह सराहनीय है।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषाई षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषाई बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों, अधिकारियों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  विवाद खड़ा करने वाले और अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासित समाज जन्म लेता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे  सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

भारतीय युवाओं से वांछित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शुरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। नई  शिक्षानीति भारतीय भाषाओं की उन्नति की दृष्टि से दूरगामी सिद्ध होगी। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो या उच्चस्तर पर विशेषकर तकनीकी और रोजगारान्मुख पाठ्यक्रमों का  भारतीय भाषाओं में अध्ययन, प्रदीर्घ रात्रि के बाद अरुणोदय हो रहा है। आशा  है कि इन किरणों के आलोक में ‘इंडिया’की केंचुली उतारकर ‘भारत’ शीघ्रतिशीघ्र बाहर आएगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माधव साधना- 11 दिवसीय यह साधना  बुधवार दि. 6 सितम्बर से शनिवार 16 सितम्बर तक चलेगी💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र होगा- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 155 ⇒ संन्यासियों का राजयोग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संन्यासियों का राजयोग”।)

?अभी अभी # 155 ⇒ संन्यासियों का राजयोग? श्री प्रदीप शर्मा  ?

संन्यास मनुष्य जीवन की वह श्रेष्ठतम अवस्था है, जहां ज्ञान, विवेक और वैराग्य अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाते हैं।

एक संन्यासी का कोई अतीत नहीं होता, कोई रिश्तेदार नहीं होता, अस्मिता अहंकार से परे उसके लिए मोक्ष के द्वार सदा खुले रहते हैं।

चार वर्णों के आश्रम में संन्यास का स्थान अंतिम है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के बाद की अवस्था है संन्यास। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति को ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य माना गया है। अगर ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हुए संन्यास का भाव जागृत हो जाए तो अर्थ और काम से मुक्त हो साधक धर्म और मोक्ष का मार्ग भी अपना सकता है।।

इस जीव का क्या भरोसा ! इसमें कब कौन सा भाव जागृत हो जाए। मन को बैरागी होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता और हमने तो बैरागियों को भी माया के इस संसार में उलझते देखा है। संसार छोड़ संन्यास लेना एक बार फिर भी आसान है, लेकिन राजनीति से कभी कोई संन्यास नहीं लेता।

कर्म का क्षेत्र संन्यास से बहुत बड़ा है, और शायद इसीलिए देवता भी इस धरती पर अवतरित होते हैं, अपनी लीला का विस्तार करते हैं और जगत के कल्याण के पश्चात् पुनः अपनी लीला समेट लेते हैं। सुख और दुख की तरह कर्म और वैराग्य जीवन के दो विपरीत छोर हैं, और दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।।

संन्यास एक मन का एक ऐसा भाव है जिसमें विरक्ति और वैराग्य की प्रमुखता है। राजा जनक, महात्मा विदुर और उद्धव इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। लेकिन विधिवत संन्यास ग्रहण किए एक संन्यासी की बात अलग है।

निष्काम कर्म का भाव, और संसार के कल्याण का संकल्प जब प्रबल हो जाता है, और संसारी जीवों के दुख दर्द से मन की करुणा जाग उठती है, तो इधर तो कोई राजकुमार सिद्धार्थ राजसी सुखों का त्याग कर बुद्ध बन जाता है तो उधर कोई रामकृष्ण परमहंस का शिष्य स्वामी विवेकानंद सोई हुई हिंदू संस्कृति को जगाने सात समुन्दर पार चला जाता है।।

जब भी धर्म और नैतिकता का ह्रास हुआ है, देश का साधु कभी चुप नहीं बैठा है। चाहे संत कबीर हो गुरु गोविंदसिंह हो या शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास।

धर्म ध्वजा फहराने का काम आजकल धार्मिक चैनल कर रहे हैं। सत्संग, प्रवचन और कथा का निरंतर प्रसारण चल रहा है। कई बाबाओं और पूंजीपतियों ने इन चैनलों को खरीद लिया है। कौन बाबा है और कौन पूंजीपति, कुछ समझ में नहीं आता।

इसे कहते हैं संन्यासियों का राजयोग। संत महंत तो छोड़िए, साध्वियों का भी राजयोग जागा है। उनका राजयोग आज भी कितना प्रबल है, आप अपने आप से ही पूछकर देख लीजिए।।

विधि के विधान से बड़ा कोई संविधान नहीं होता। आचार्य पहले भी राजाओं के मंत्री और सलाहकार होते थे, आज लोकतंत्र में तो मंत्री ही राजा है। विज्ञान और धर्म संसार में साथ साथ चले हैं। जब भी धर्म का पलड़ा कमजोर हुआ है, अधर्म ने सर उठाया है, हमें कोई हिटलर नजर आया है।

मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं। एक लोकसेवक का जन्म केवल मानवता की सेवा के लिए होता है। संतों की कृपा और आशीर्वाद हमारे राजनेताओं को सद्बुद्धि प्रदान करे। विश्व का कल्याण तो बाद में, पहले देश के जन जन का कल्याण तो हो। राजनीति में महात्मा तो कई हैं, लेकिन किसी संत का आज भी अभाव ही है। ऐसे में साबरमती के संत की याद आना स्वाभाविक ही है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #150 – आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  ओजोन कवच की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 149 ☆

 ☆ आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मैं हूं ओजोन कवच, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद हूं, जहां से मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करता हूं। ये विकिरण मनुष्यों, पौधों और जानवरों के लिए बहुत ही हानिकारक होते हैं। वे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान और अन्य कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं।

मेरी खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। उन्होंने सूर्य से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कुछ काले रंग के क्षेत्रों को देखा, जो पराबैंगनी विकिरण के अवशोषण के कारण थे।

मेरा निर्माण सूर्य से आने वाले ऑक्सीजन के अणुओं से होता है। ये अणु वायुमंडल में ऊपर उठते समय, उच्च तापमान और ऊर्जा के कारण टूट जाते हैं और ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बने ओजोन अणुओं में बदल जाते हैं।

मैं पृथ्वी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच हूं। मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके, जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं।

अंतर्राष्ट्रीय ओजोन परिषद की स्थापना 1985 में हुई थी। इस परिषद ने ओजोन परत के संरक्षण के लिए कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत, दुनिया भर के देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करने या समाप्त करने पर सहमत हुए हैं।

ओजोन परत के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप, ओजोन परत में क्षरण की दर में कमी आई है। हालांकि, ओजोन परत पूरी तरह से ठीक होने में अभी भी कई वर्षों का समय लगेगा।

मैं पृथ्वी के लिए एक अनिवार्य हिस्सा हूं। मैं जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। मैं सभी लोगों से मेरा संरक्षण करने का आग्रह करता हूं।

मेरा संदेश

मैं ओजोन कवच हूं, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं आप सभी को याद दिलाना चाहता हूं कि मैं आपके लिए कितना महत्वपूर्ण हूं। मैं आपके जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। कृपया मेरा संरक्षण करें।

मैं आपसे निम्नलिखित बातें करने का अनुरोध करता हूं:

मुझे यानी ओजोन परत के बारे में जागरूकता बढ़ाएं।

मुझको नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करें या समाप्त करें।

अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें।

मैं आपके सहयोग की सराहना करता हूं। मिलकर हम मुझे यानी ओजोन परत को बचा सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

12-09-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 230 ☆ आलेख – जीवन एक सचित्र सीढ़ी… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख   – जीवन एक सचित्र सीढ़ी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 230 ☆

? आलेख – जीवन एक सचित्र सीढ़ी… ?

जीवन की सुंदर सचित्र सीढ़ी का प्रत्येक चरण एक नए अध्याय का प्रतिनिधित्व करती है।जैसे-जैसे आप ऊपर उठते हैं, आप कल की कहानियाँ पीछे छोड़ देते हैं, और प्रत्येक नए कदम के साथ, आप आने वाले कल की इबारत लिखते हैं।

उद्देश्य की ओर पहला कदम आशा और जिज्ञासा से भरी आपकी यात्रा की शुरुआत का प्रतीक है।जब आपने सपने देखने का साहस किया और अज्ञात जोखिम उठाया।

दूसरा चरण विकास और सीखने का प्रतिनिधित्व करता है।सूरज की ओर बढ़ते एक युवा अंकुर की तरह, आप ज्ञान, बुद्धिमत्ता और अनुभव संजोते हैं।

तीसरा चरण रिश्तों और संबंधों का होता है।यह वह जगह है जहां आप ऐसे लोगों से मिलते हैं जो आपकी कहानी को आकार देते हैं, आपकी कहानी में पात्रों का निर्माण करते हैं।बिना टीम के बड़े लक्ष्य पाना संभव नहीं होता।

चौथा चरण रचनात्मकता और अभिव्यक्ति का है।यहां, आप अपने जीवन के कैनवास को अपने जुनून और प्रतिभा के जीवंत रंगों से अपने तरीके से रंगते हैं।

अगला चरण प्रेम का चरण है।यह वह जगह है जहां आप उन गहन भावनाओं का अनुभव करते हैं जो जीवन को वास्तव में सार्थक बनाती हैं।यह अन्वेषण और रोमांच के बारे में है।यह वह जगह है जहां आप अपने आराम क्षेत्र से परे यात्रा करते हैं, नए क्षितिज और संस्कृतियों की खोज करते हैं।

फिर जीवन की चुनौतियों और सफलताओं के उतार-चढ़ाव का समय चित्र अगला पायदान दर्शाता है।कभी आप चढ़ते हैं, कभी लड़खड़ाते हैं, लेकिन आप आगे बढ़ते रहते हैं।

उपलब्धि पूर्णता का प्रतीक है।यह वह जगह है जहां आप अपने लक्ष्यों तक पहुंचने की संतुष्टि का आनंद लेते हैं।

सफलता की सिद्धि के चरण कृतज्ञता परिचायक चित्र होते है।यह वह जगह है जहां आप यात्रा की सराहना करने, सीखे गए आशीर्वाद और सबक को स्वीकार करने के लिए रुकते हैं।

दसवां चरण भविष्य के लिए आपकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है।यह वह जगह है जहां आप सितारों को लक्ष्य करते हुए अपने सपनों को अनंत ब्रह्मांड में देखते हैं।

और इस सीढ़ी के शीर्ष पर, आपको एक चमकीला सितारा मिलता है, जो ब्रह्मांड में आपके अद्वितीय स्थान का प्रतीक है।यह एक अनुस्मारक है कि आपकी कहानी, चरण दर चरण लिखी गई, अस्तित्व की भव्य टेपेस्ट्री में एक तारामंडल है।

इस विचारशील सचित्र सीढ़ी पर आपकी यात्रा आश्चर्य, उद्देश्य और अटूट विश्वास से भरी हो कि हर कदम आपकी खूबसूरत कहानी का एक हिस्सा है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 154 ⇒ || छवि || ∆ image ∆… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| छवि || ∆ image ∆।)

?अभी अभी # 154 ⇒ || छवि || ∆ image ∆? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

जब भी हम छवि की बात करते हैं, कोई ना कोई चेहरा अनायास ही हमारी आंखों के सामने आ जाता है, और वही चेहरा आता है, जो हमारा देखा हुआ है और हमें न केवल प्रिय है, अपितु उसकी छवि पहले से ही हमारे मन में अंकित है। सांवरी सूरत, मोहिनी मूरत ! जी हां, वह कोई गोरा चिकना चेहरा भी नहीं, केवल उसकी सूरत ही सुंदर नहीं, उसकी तो मूरत भी मोहक है।

क्या सूरत और मूरत अलग अलग है ? कहीं बिना सूरत के भी कहीं कोई मूरत बनी है। एक बुत बनाऊंगा तेरा, और पूजा करूंगा, अरे मर जाऊंगा यार, अगर मैं दूजा करूंगा। मंदिर और मूर्ति की आवश्यकता ही इसीलिए होती है, क्योंकि हमारे मन को एक आधार चाहिए। रात दिन जब एक ही सूरत की मूरत का दीदार करेंगे, तो कभी ना कभी तो उसकी छवि हमारे मन मंदिर में अंकित हो जाएगी। फिर तो स्थिति ऐसी हो जाएगी, जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली तस्वीरे यार। ।

आखिर तस्वीर क्या है, तस्वीर तेरी दिल में, जिस दिन से उतारी है। दुनिया का सबसे बड़ा कैमरा हमारी आंखों में लगा है, बाहरी कैमरा तो अब जाकर बाजार में आया है। एक कलाकार तो अपनी उंगलियों और रंगों से ही किसी की तस्वीर कैनवास पर उतार देता है, लेकिन हमारी आंखें तो अपने आराध्य की एक झलक पाकर ही उसे मन के पिंजरे में जन्म जन्मांतर के लिए कैद कर लेती है।

सूरदास जी तो जन्मांध थे, लेकिन कृष्ण की बाल

लीलाओं का सजीव और सचित्र वर्णन उन्होंने किया है, वाकई उसके लिए उनके आराध्य ने उन्हें अवश्य ही दिव्य दृष्टि प्रदान की होगी। एक ऐसी दृष्टि जो केवल किसी विरले प्रज्ञाचक्षु को ही प्राप्त होती है, जहां अंदर से बाहर का आंखों देखा हाल बयां किया जाता है।

छवि किसी बाहरी आंखों की मोहताज नहीं होती। यह एक अंदरूनी मामला है। ।

इस संसार में किसे अपनी छवि की चिंता नहीं ! अंग्रजी में हम इसे भी इमेज ही कहते हैं। अच्छी इमेज के लिए इंप्रेशन भी मारना पड़ता है। भाई, यह तो मायावी संसार है। यहां तो किसी के बारे में गलत बोलने अथवा सोचने से ही उसकी छवि खराब हो जाती है। वह अच्छा आदमी नहीं है, वह औरत बहुत बुरी है, लो जी, आईएसआई मार्का प्रमाण पत्र।

यहां आस्तिक ही नहीं, नास्तिक के भी देवी देवता होते हैं। फिल्मी कलाकार और आजकल तो क्रिकेट खिलाड़ी भी किसी भगवान से कम नहीं। लड़कियां देवानंद और साधना की तस्वीरें अपनी किताबों में रखती थी। अपने जमाने में राजेश खन्ना के भी यही हाल थे। ।

इनका भी छवि गृह होता था, जिसे टॉकीज अथवा सिनेमा घर कहते थे। वे भी किसी मंदिर से कम नहीं थे। इन देवी देवताओं को पर्दे पर देखने के लिए कितनी भीड़ उमड़ती थी, यहां सभी आस्तिक थ, नास्तिक कोई नहीं।

जो किसी से प्यार करता है, वह नास्तिक हो ही नहीं सकता। महबूबा तेरी तस्वीर, किस तरह मैं बनाऊं ! यह संसार भले ही नश्वर हो, हमारे माता पिता की छवि क्या कभी हमारी आंखों से ओझल हो सकती है। वे तो सपनों में भी चले आते हैं, बिन बुलाए, बिन दस्तक दिए। जरूर हमारे अवचेतन मन में भी उनकी ही छवि अवश्य मौजूद होगी। ।

ईश्वर को आज तक किसी ने नहीं देखा, यह गूंगे का गुड़ है, जिसे आप चख तो सकते हो, लेकिन बता नहीं सकते। भक्त और भगवान के बीच केवल यह छवि, उसकी सूरत और उसकी मूरत ही सेतु का काम करती है।

सिमर सिमर उतरै पारा। उसकी एक छवि, एक झलक ही वह आधार है, वह विश्वास है, वह बल है। आज कोई भक्त प्रह्लाद नहीं, जिसके लिए भगवान नरसिह खंभा फाड़कर प्रकट हो जाएं, उसके लिए तो छप्पन इंच का सीना ही काफी है। उस विराट की छवि के प्रति समर्पण और शरणागति ही एकमात्र उपाय है, उसे पाने का, उसमें समा जाने का। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी।

☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये मेरी पोस्ट, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypothetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है। ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

 – अरुण श्रीवास्तव 

प्रस्तावना

ये किस्सा जिला मुख्यालय स्थित किसी ब्रांच का है जिसे तब तक मुख्य शाखा का दर्जा नहीं मिला जब तक कि उस शहर में बैंक की दूसरी ब्रांच नहीं खुली. जाहिर है कि ये एक करेंसी चेस्ट ब्रांच थी और है भी पर ये बात पुराने जमाने की है या फिर हमारे जमाने की है जब शाखायें बिना कंप्यूटर के भी चला करती थीं और बहुत खूब चला करती थीं. इस शाखा के सामने ही एक प्रतिद्वंद्वी बैंक की भी शाखा थी जो बिल्कुल 180 डिग्री जैसी आमने सामने स्थित थीं. इसे उनके सीनियर ब्रांच मैनेजर चलाते थे. इस तरफ की बैंक वालों ने बहुत कोशिश की ये पता लगाने की कि जूनियर शाखाप्रबंधक क्या करते हैं पर लाख कोशिशों के बावजूद यह पता नहीं चल पाया कि जूनियर शाखाप्रबंधक कौन हैं और क्या वो भी शाखा चलाते हैं. दोनों बैंकों में काम करने वाले लोग फुरसत के समय सामने वाली शाखा को यथासंभव और यथाशक्ति बहुत अंदर तक देखने की कोशिश करते रहते थे. हमारी शाखा मजबूत थी क्योंकि हमारे पास स्ट्रांग रूम था, जो उनके पास नहीं था. पर उनके पास बैंक के ऊपर ही शाखाप्रबंधक आवास था जो हमारे पास नहीं था. हमारे शाखाप्रबंधक शहर में कहीं और ही निवास करते थे. और इस कारण भी दोनों प्रतिद्वंद्वी बैंकों के शाखाप्रबंधकों में कोई प्रतिद्वंदिता नहीं थी और उन लोगों के औपचारिक ही सही पर बहुत मधुर संबंध थे।

ये वो दौर था जब स्टाफ के आपस में और कस्टमर के स्टाफ से बड़े मधुर संबंध हुआ करते थे. अब इसका यह मतलब मत निकाल लीजिएगा कि “क्यों, क्या अब नहीं है, कैसी बात करते हैं “. उस दौर में और उस शहर में व्यापारी वर्ग के लिए इन्हीं बैंकों पर आश्रित होना आवश्यक भी था और व्यवहारिक भी. अतः नगरीय दादा होने के बाद भी इस तरह के कस्टमर्स अपना यह गुण शहर के अन्य स्थानों पर आजमाने के लिये रिजर्व रखते थे.

शहर में जो नगर सेठ माने जाते थे, वो रोजाना के बैंक के कामों के लिये या तो अपने मुनीम को भेजते थे या फिर परिवार के किसी जूनियर सदस्य को और उसे यह कहकर रवाना करते कि “जा पहले बैंक का काम तो सीख ले, फिर गद्दी पर बैठना”. यह गद्दी भी परिवार का राजसिंहासन कहलाती थी जिस पर बैठने का अधिकार सबसे बड़े और सक्रिय सदस्य को ही मिल पाता था और बाकी लोग बड़े भैया के रिटायरमेंट का इंतजार करते रहते थे. ये रिटायरमेंट न तो साठ वर्ष की आयुसीमा से बंधा था न ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से. ये तो मुखिया के दमखम और वणिक बुद्धि के हिसाब से चलता था. यही वणिक-कुल की रीत थी कि” जब तक प्राण न जाये गद्दी भी न जाई. “जब तक बड़े भैया गद्दी नशीन रहते, अपने खानदान की अर्श से फर्श तक उठाने की खुद के पराक्रम की कहानी सुनाना उनका प्रिय शौक हुआ करता था. जिनको गद्दी से कुछ फायदा मिलने की उम्मीद होती वो हरिकथा सुनने जैसी ही बड़ी आस्था के साथ सेठजी की आंयबांयशांय सुनने का सफल अभिनय करते रहते. हालांकि बाद में बाहर निकल कर इन श्रोताओं की सारी भक्ति, अंदर बैठी राक्षसी प्रवृत्ति का साथ पाकर सेठ के लिये चुनी हुई गालियों का सारा खजाना खाली कर जाती. ऐसा इसलिए भी होता था कि सेठजी पक्के दुनियादार और चतुर कंजूस बनिए थे और ये असंभव था कि कोई भी ऐरागैरा उनको राह चलते या उनके घर में बैठकर बना ले.

इस श्रंखला को भी शुरू करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ व्यंग्य में लिपटा मनोरंजन ही है. कुछ अलग मतलब निकल जाये इसलिए पहले से ही यह कहना जरूरी है कि यह शाखा, घटनाएं और शाखा के सभी वर्णित पात्र कल्पना से रचे गये हैं, किसी दुर्भावना से नहीं. सम्मोहक लेखन तभी संभव हो पाता है जब यह यथार्थ, भोगा हुआ या देखा हुआ हो, थोड़ी बहुत कल्पना श्रंखलाओं को प्रभावी मोड़ दे सकती हैं पर अनुभव और ऑब्सरवेशन का कोई मुकाबला नहीं है. ये अनुभव खुद के भी हो सकते हैं या किसी और के भी पर इन कारकों से ही अपने में समाहित करने योग्य रचनाओं का सृजन संभव हो पाता है. अतः शौक से पढ़िए और आनंदित होने का प्रयास करिये. आज के युग में सेवानिवृत्त होने के बाद भी तनावमुक्त और हास्ययुक्त जीवन जीना कठिन हो गया है इसलिए प्रयास यही रहता है कि गाड़ी रिवर्स गेयर में डालकर वहाँ ले जाइ जाये जहाँ उतरकर यात्रीगण पुराने पर खूबसूरत वक्त की खुशियों को फिर से जी सकें, मुस्कुरा सकें. किसी को दुखी करने या “लेगपुलिंग” का पाप करने का दूर दूर तक कोई इरादा नहीं है.

आध्यात्मिक, भावनात्मक, पारिवारिक, चिकित्सीय, यूट्यूबीय फारवर्डेड संदेश पढ़ते रहिये पर हमारी गारंटी है कि हमारी श्रंखलाओं का आनंद, जब भी ये चलती हैं, बिल्कुल अलग और अनूठा रहता है. फिर भी यदि आनंदित नहीं हो पाते हैं तो फिर आपको डॉक्टर की आवश्यकता है और ये डॉक्टर मनमोहन सिंह भी हो सकते हैं.

वैसे फर्ज बनता है कि बेतहाशा और मुफ्त ऐसी लेखन सामग्री “नहीं’ पढ़ने की हिदायत दी जाये जिनको पढ़कर इस तरह की आत्मिक ग्लानि हो जाये कि:

  1. भाई हम तो बहुत पापी हैं, दूसरे लोक के लिये हमने तो कोई भी प्वाइंट नहीं कमाये, स्वर्ग या मोक्ष के चांस तो मेरिट चैनल में टॉप करने के सपने जैसे हैं जो नहीं मिल सकते.
  2. अरे इतना सरल इलाज वाट्सएप पर था और हमने बेकार ही अस्पतालीय इलाज में लाखों खर्च कर दिये. ये बात अलग है कि पॉलिसी ए/बी से काफी कुछ वापस मिल गया पर स्वास्थ्य की तो बैंड बज ही गई.
  3. काश कि ऐसे श्रवणकुमार और श्रवणकुमारी संताने/भाई/बहन हमारी भी होतै जो इन वाट्सएपीय कहानियों के परिजनों जैसी हमारी भी पूजा करते बाकायदा रोज सुबह शाम फिल्मी भजनों के साथ (वैसे ये अंदर की बातें हैं, बताई नहीं जातीं, वाट्सएप पर शेयर जरूर की जाती हैं.
  4. जीवन में गुरुजन तो बहुत मिले जो हमें गुरुदीक्षा देना चाहते थे पर तब तो हमको बैंक की पड़ी थी. काम सीखना है, खूब काम करना है, बॉस को नाराज नहीं करना है और दनादन प्रमोशन लेना है पूरी तैयारी के साथ. तो उस वक्त तो बस यही सब चलता था. अब पता चलता है कि भाई हमने तो वो किया ही नहीं जिसके लिये यह मानव जीवन मिला है. पर अब तो सत्तर प्लस पार कर चुकी गाड़ी सिग्नलपोस्ट पर खड़ी है. सिग्नल का इंतजार है. सिग्नल जहाँ लाल से हरा हुआ फिर जय श्री राम ही है. अब जो भी है वही संभालेंगे.

प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 153 ⇒ विराजमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विराजमान।)

?अभी अभी # 153 ⇒ विराजमान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

एक अंदाज़ होता है लखनऊ का, जिसे हम आइए पधारिए कहते हैं, उसे वे आइए तशरीफ लाइए कहते हैं। चलिए साहब, तशरीफ तो हम ले आए, अब तशरीफ कहां रखी जाए, यह भी तो बताइए ! जी क्यों शर्मिंदा करते हैं, पूरा घर आपका है।

जब कि हमारी देसी परम्परा देखिए कितनी सहज है, पधारो सा, और विराजो सा। पधारिए, और कहीं भी विराजमान हो जाइए। चलिए साहब मेहमाननवाजी, खातिरदारी, आदर सत्कार, चायपान, स्वल्पाहार सब कुछ हो गया, अब विदाई में आप क्या कहेंगे। अब आप तशरीफ ले जाइए तो नहीं कह सकते। हां, फिर तशरीफ लाइए, जरूर कह सकते हैं। यानी मेहमान खुद ही तशरीफ लाए भी और ले जाए भी। और अगर गलती से तशरीफ लाना ही भूल गया, तो आप तो उसे अपने दौलतखाने में अंदर आने की इजाजत भी नहीं देंगे। ।

अब हमारा आतिथ्य देखिए, जब अतिथि आया तो हमने उसे उचित आसन पर विराजमान किया और अतिथि, मेहमान यानी पाहुना ने जब विदाई ली, तो हमने उसे हाथ जोड़कर विदा करते, पधारो सा, और आवजो कहा।

अपनी अपनी तहजीब है, मैनर्स हैं, लोग तो आजकल प्लीज वेलकम और बाय से भी काम चला लेते हैं। जब कि हमारे सा शब्द में तो साहब, सर, श्रीमान और जनाब सभी शब्द शामिल है।

विराजमान शब्द इतना आसान नहीं, इसके कई गूढ़ अर्थ हैं। इसमें सुशोभित करने का भाव भी निहित है। किसी की उपस्थिति का जब विशेष अहसास होता है, तब ही इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। पहले पधारो, फिर विराजो। ।

जो सर्व शक्तिमान है, किसी को नजर आता है, किसी को नजर भले ही नहीं आता, लेकिन वह जो घट घट व्यापक है, वह हमारे हृदय में भी तो विराजमान है। जिसके बारे में साफ साफ शब्दों में कहा गया है ;

मो को कहां ढूंढे रे बंदे

मैं तो तेरे पास रे।

कितना मान सम्मान है इस शब्द विराजमान में ! शोभायमान का विकल्प ही तो है विराजमान। मान ना मान, जो सर्वोच्च पद पर विराजमान है, उसका ही तो सदा गुणगान है। उस स्थान और उसके महत्व को जानते हुए, आपकी नजरों में जो भी वहां विराजमान है, उस अदृश्य सर्वत्र व्यापक सर्व शक्तिमान को हमारा प्रणाम है।

कोई कहीं भी विराजे, हमारे आराध्य प्रभु श्रीराम तो अयोध्या में ही विराजेंगे।

जगजीत चित्रा भी शायद उसी भाव से श्रीकृष्ण का गुणगान करते नजर आते हैं ;

कृष्ण जिनका नाम है

गोकुल जिनका धाम है

ऐसे श्री भगवान को

बारम्बार प्रणाम है

बारम्बार प्रणाम है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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