हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 236 ⇒ मुझको मेरे बाद ज़माना ढूँढेगा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…।)

?अभी अभी # 236 ⇒ मुझको मेरे बाद ज़माना ढूँढेगा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ज़माने ने मारे जवां कैसे कैसे, जमीं खा गई आसमां कैसे कैसे। जहां पल दो पल का साथ हो, वहां कौन किसको याद करता है, किसी की याद में दो आंसू बहाता है। देखी जमाने की यारी, बिछड़े, सभी बारी बारी।

हम एक साधारण व्यक्ति को आम कहते हैं, और असाधारण को खास। एक साधारण व्यक्ति में हमें कुछ भी असाधारण नजर नहीं आता, जिसके बारे में कबीर कह भी गए हैं ;

पानी केरा बुदबुदा

अस मानस की जात।

देखत ही छुप जाएगा

ज्यों तारा परभात।।

लेकिन होते हैं कुछ लोग असाधारण, जिनमें लोग साधारण ढूंढा करते हैं। कितना बड़ा आदमी, लेकिन इत्ता भी घमंड नहीं। एक साधारण इंसान की अच्छाई किसी को नजर नहीं आती, पहले असाधारण बनिए, उसके बाद ही आपके गुण दोष नजर आएंगे। लेकिन कोई व्यक्ति महान यूं ही नहीं बन जाता।।

कुछ देश के लिए, कुछ समाज के लिए, कुछ इंसानियत के लिए, और कला, संगीत और साहित्य के अलावा भी जब कुछ असाधारण किया जाता है, तब ही दुनिया आपको याद करती है, सलाम करती है, और आपका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है।

महानता अथवा प्रसिद्धि काजल की कोठरी भी है। यहां कालिख का दाग बहुत जल्द लगता है। यहां अगर चंद रायचंद हैं तो कुछ जयचंद भी! जलने वाले और टांग खींचने वाले, हर दो कदम पर मौजूद हैं यहां। गला काट स्पर्धा में, आगे बढ़कर नाम कमाना, और अपनी नेकी और काबिलियत से इल्म और शोहरत की दुनिया में नाम कमाना इतना आसान भी नहीं।।

कौन था मोहम्मद रफी! एक पेशेवर फिल्मी गायक ही तो था। खूब पैसा और शोहरत कमाई बाकी फिल्मी हस्तियों की तरह।

बड़ा आदमी इंसान यूं ही नहीं बन जाता। कुछ ऐब, कुछ ठाठ-बाट और कुछ विचित्र आदतें, उसे और खास बना देती है।

वह एक कलाकार है, कोई संत महात्मा नहीं। वैसे असली ठाठ-बाट तो आजकल राजनेता, अभिनेता, क्रिकेट खिलाड़ी और संत महात्माओं के ही हैं।

ऐसे असाधारण और महान व्यक्तियों की भीड़ में अगर कोई एक अदना सा गायक यह कह जाए, कि मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा, तो एकाएक यकीन नहीं होता। क्या ऐसा खास था, इस इंसान में जो आम से भी अलग, खासमखास था।

क्या यह नेकी और सादगी का ही नूर था उस कोहिनूर में, जो आज उसके चले जाने के ४३ बरस बाद भी हमें यह कहने को मजबूर करता है, वो जब याद आए, बहुत याद आए।।

दीवाना मुझ सा नहीं

इस अंबर के नीचे।

आगे है कातिल मेरा

और मैं पीछे पीछे।।

पाया है, दुश्मन को

जब से प्यार के काबिल।

तब से ये आलम है,

रस्ता याद ना मंजिल,

नींद में जैसे चलता है

कोई

चलना यूं ही आँखें मींचे।।

पूरी इंसानियत को अगर आज एक छत के नीचे देखना हो तो बस रफी को सुन लो, गुनगुना लो। छल, स्वार्थ, राजनीति और नफरत से परे एक दुनिया है मोहब्बत की, जिसका नाम मोहम्मद रफी है।

मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे। लेकिन, है अगर दुश्मन दुश्मन जमाना, गम नहीं। कोई आए, कोई जाए, हम किसी से कम नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 235 ⇒ सौ बार जनम लेंगे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौ बार जनम लेंगे।)

?अभी अभी # 235 ⇒ सौ बार जनम लेंगे… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज हम नहीं कहेंगे, बहारों फूल बरसाओ, क्योंकि दुनिया जानती है, आज से सौ साल पहले, आज ही के दिन, यानी 24 दिसंबर 1924 को आसमान से एक फरिश्ता हमें प्यार का सबक सिखलाने आया था। आओ तुम्हें मैं प्यार सिखा दूं, वह खुद बहारों की बारात साथ लेकर साथ आया था। जैसी मुस्कुराहट उसके हंसते हुए नूरानी चेहरे पर जन्म के समय थी, वही मुस्कुराहट और ढेर सारी नेकी और प्यार वह अपने नगमों के जरिए हम सबमें लुटा गया ;

बा होशो हवास मैं दीवाना

ये आज वसीयत करता हूं।

ये दिल ये जाॅं मिले तुमको,

मैं तुमसे मोहब्बत करता हूं।।

आज रफी साहब का जन्म दिन ही नहीं, उनके जन्म शताब्दी महोत्सव का आज

पहला दिन है। पूरे साल उनके नगमे आसमान में वैसे ही गूंजेंगे, जैसे उनकी आवाज हमेशा हमारे कानों में गूंजती आई है। साल में दो बार इस इंसान को याद किया जाता है, आज के दिन, यानी 24 दिसंबर और 31 जुलाई 1980, जिस दिन यह पंछी अपने बाग को छोड़ आसमान में उड़ गया था।

मुझे अच्छी तरह याद है, रफी साहब की 25 वीं पुण्यतिथि पर रेडियो सीलोन ने पूरा जुलाई माह इस गायक को श्रद्धापूर्वक समर्पित कर दिया था। 1जुलाई से 31 जुलाई तक रेडियो सीलोन पर केवल रफी साहब की ही आवाज गूंजी थी। वो जब याद आए, बहुत याद आए। क्या दिन, महीना और साल, क्योंकि ;

जनम जनम का साथ है, हमारा तुम्हारा।

अगर मिले ना इस जीवन में

लेंगे जनम दोबारा।।

क्योंकि उनका ही यह वादा था ;

सौ बार जनम लेंगे

सौ बार फना होंगे।

ऐ जाने वफा फिर भी

हम तुम ना ज़ुदा होंगे।।

जन्मदिन खुशी का मौका होता है, आज किसी के गम में आंसू नहीं बहाते, लेकिन खुशी में भी कहां बाज आते हैं ये आंसू। क्योंकि ये आंसू मेरे दिल की जुबान है।।

हमारा दिल भी तो एक मंदिर ही है। रफी साहब का तो इबादत का अंदाज भी निराला ही था ;

एक बुत बनाऊंगा और पूजा करूंगा।

अरे मर जाऊंगा यार

अगर मैं दूजा करूंगा।

जिसकी अंखियां हरि दर्शन को प्यासी हों, जिसकी आंखों में हमने प्यार ही प्यार बेशुमार देखा हो, जो बस्ती बस्ती, परबत परबत, एक बंजारे की तरह, दिल का इकतारा लेकर गाता रहता हो, और प्यार के गीत सुनाता हो, अपने दिल का दर्द बयां करता हो, आज उसके जन्मदिन पर यही कह सकते हैं :

बार बार दिन ये आए…

और हजारों सालों तक यह दुनिया आपके गीत गुनगुनाएं। आप जब भी याद आए, बहुत याद आए। बिछड़ने का तो सवाल ही नहीं, क्योंकि जन्म शताब्दी का तो आज फकत आगाज़ ही है ;

मेरी आवाज सुनो,

प्यार का राज़ सुनो।

दिल का भंवर करे पुकार,

प्यार का राग सुनो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 234 ⇒ ठंड, धूप और भूख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ठंड, धूप और भूख…।)

?अभी अभी # 234 ⇒ ठंड, धूप और भूख… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह मनुष्य की मूल भूत तीन आवश्यकताएं, रोटी, कपड़ा और मकान हैं, उसी तरह उसके स्वस्थ रहने की केवल तीन अवस्थाएं हैं, सर्दी का मौसम हो, जम से ठंड पड़ रही हो, सुबह सुबह आसमान साफ हो, और खूब तेज धूप निकल रही हो, और पेट में चूहे कबड्डी खेल रहे हों। यानी जोरदार ठंड, कड़कती धूप और जबरदस्त भूख की अगर सुबह सुबह जुगलबंदी हो जाए, तो तन, मन और उपवन में राग मस्ती और तंदुरुस्ती का आनंद लिया जा सकता है।

तेज धूप ठंड को रोशन तो करती ही है, ठंड में पेट की जठराग्नि को और भी बढ़ाती है। जो उबलती चाय का स्वाद, बर्फीली ठंड में जुबां को नसीब होता है, वही गुनगुना स्पर्श, नख से लेकर शिख तक, यानी तलवों से चोटी तक, उजल धूप से इस शरीर को प्राप्त होता है।।

यह एक सात्विक, इस लोक में अलौकिक, ऐसा सुख है, जिसमें इंसान की ना कौड़ी खर्च होती है, और ना एक धेला। इस धूप समाधि पर हर जड़ चेतन, कीड़े मकौड़े से लगाकर पशु, पक्षी, वन वनस्पति, पेड़ पौधे और फल फूलों का भी उतना ही अधिकार है। ठंड में खुली धूप का सुख, हर अमीर गरीब इंसान और कुत्ते बिल्ली तक के लिए, मुफ्त में उपलब्ध है। ठंड में जहां भी धूप फैली है, आप भी फैल जाइए। धूप में विटामिन डी जो है।

कड़ाके की ठंड हो, आसमान से धूप बरस रही हो, और ऐसे में भूख ना लगे, ऐसा हो ही नहीं सकता। जब चैन, संतुष्टि और सुख से पेट भर जाता है तो इंसान की भूख और भी बढ़ जाती है। धूप में कोई गन्ना चूस रहा है तो कोई सब्जी सुधारते सुधारते, गाजर मूली ही खा रहा है। बस दिन भर खाते रहो, चबाते रहो, पचाते रहो।।

ठंड में गर्म चीजें, तो गर्मी में ठंडी चीजें। कितने काढ़े, गर्मागर्म सूप ही नहीं,

सर पर टोपा, बदन पर शॉल, मफलर, कोट और गर्म जैकेट भी ! सुबह अगर पूरी कायनात को धूप का इंतजार होता है, तो रात होते ही, कंबल, बिस्तर और रजाई की याद आने लगती है। जो मजा सिगड़ी और अलाव की आग का है, वह रूम हीटर वालों को कहां नसीब।

ईश्वर ने ठंड केवल धूप खाने के लिए ही नहीं बनाई, हाजमे और स्वास्थ्य का खयाल रखते हुए सुबह सुबह दूध जलेबी के

सेवन के लिए भी बनाई है। गुड़, तिल्ली और मूंगफली खाने के लिए कोई मुहूर्त नहीं निकाला जाता। छोड़िए आलू की कचोरी को, भुट्टे और मटर, यानी बटले की कचोरी खाइए। किस को नहीं पसंद, अपनी पत्नी के हाथ का बना भुट्टे का किस और उसमें ढेर सारा नींबू और जिरावन !

अब गराडू़ की बात तो बस रहने ही दो। ताजा घर का बिलोया हुआ मक्खन और मक्के की रोटी और सरसों के साग का प्रोग्राम है आज।।

खूब जमेगी, जब मिल बैठेंगे हम चार यार, ठंड, धूप, तगड़ी भूख और आप सबका ढेर सारा प्यार। जलूल जलूल से आप भी आइए, लेकिन हां, धूप साथ लेकर आइए ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 63 – देश-परदेश – उल्लुनामा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 63 ☆ देश-परदेश – उल्लुनामा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में घर के बड़े बजुर्ग, शिक्षक आदि और जवानी में उच्च अधिकारी उल्लू, गधा इत्यादि की उपाधि से हमें नवाज़ा करते थे।

इन दोनों जीवों को समाज ने हमेशा तिस्कृत दृष्टि से ही दुत्कारा है। व्यापार जगत में भी इनके नाम से कोई भी वस्तु (ब्रैंड) नहीं बन सकी है।

शेर, ऊंट, मुर्गा इत्यादि के नाम से तो बीड़ी भी खूब प्रसिद्ध हुई हैं। लेकिन कभी भी उल्लू या गधे के नाम से कोई भी प्रतिष्ठान कार्यरत सुनने में नहीं आया।

“यहां गधा पेशाब कर रहा है” कुछ इस प्रकार के लिखे हुए शब्द दीवार पर अवश्य देखने को मिल जाते हैं। समय की मांग को देखते हुए, हो सकता है, इस वाक्य को हवाई जहाज के अंदर भी लिखा जा सकता है।

उपरोक्त फोटू में प्रथम बार “समझदार उल्लू (wise owl)” के नाम से पेड़ पर बांधे जाने वाले झूले विक्रय के लिए उपलब्ध देखने को मिला, वैसे उल्लू भी अधिकतर पेडों पर ही पाए जाते हैं। लक्ष्मी देवी की सवारी भी तो उल्लू ही है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 233 ⇒ मेहनत का मोती… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेहनत का मोती…।)

?अभी अभी # 233 ⇒ मेहनत का मोती… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां मेहनत है, वहां पसीना है, पसीने की हर बूंद किसी मोती से कम नहीं होती।

यूं ही नहीं किसी को लौह पुरुष और विकास पुरुष कहा जाता है, अरे कोई कारण होगा। श्रम में कैसी शर्म।

दफ्तर में हमारे एक सहयोगी थे मालवीय जी। सीधे सादे, गंभीर किस्म के, काम से काम रखने वाले, संकोची इंसान ! जो व्यक्ति जल्दी खुलता नहीं, उसके रोचक किस्सों का पिटारा बहुत जल्द खुल जाता है। कुछ साथी उन्हें दबी जुबान से मेहनत का मोती कहते थे। ऐसे रहस्य बहुत जल्द उजागर नहीं होते।।

देखादेखी हमने भी उनमें रुचि लेना शुरू कर दिया।

कुछ लोग परिश्रम से उपाधि हासिल करते हैं और कुछ को उपाधि मुफ्त में ही प्रदान कर दी जाती है। दादा, पंडित जी, गुरु जी, खलीफा पहलवान और डॉक्टर जैसी सम्मानजनक उपाधियां हमारे दफ्तरों में खुले आम बांटी जाती है, बिना हींग और फिटकरी के। और वे भी इसे ससम्मान ग्रहण कर लेते हैं।

लेकिन कुछ दबी जुबान की उपाधियां सार्वजनिक नहीं होती। बहुत हिटलर, खड़ूस, कंजूस मक्खीचूस, और दिलफेंक रोमियो होते हैं दफ्तरों में जिनमें कोई श्याणा कौआ होता है, तो कोई बहुत चलती रकम।।

हमारे रहस्यमयी मेहनत के मोती, मालवीय जी पर भी रिसर्च की गई तो पता चला, मोती उनका बचपन का नाम था, क्योंकि घर में एक हीरा पहले ही पैदा हो गया था। जन्म से ही उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे, जिनका मेहनत से कोई सरोकार नहीं था। उन्हें मोती नाम पसंद नहीं था, क्योंकि मोहल्ले में सड़क पर और भी उनके हमनाम घूमा करते थे। शायद इसीलिए दफ्तर के रेकॉर्ड में उनका नाम एम. एल.मालवीय, यानी मांगीलाल मालवीय था। इस नाम और संबोधन से उन्हें रत्ती भर भी आपत्ति नहीं थी।

जब भी हम मालवीय जी को देखते, हमें हमारे सामने मेहनत का मोती नजर आता, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई, उनसे पूछने की, उन्हें दबी जुबान से मेहनत का मोती क्यूं कहते हैं। लेकिन आखिरकार एक दिन वह भी आ ही गया, जब हमें इस मेहनत के मोती का राज भी पता चल गया।।

हुआ यूं, कि अचानक शाम को दफ्तर खत्म होने पर हम साथ साथ बाहर निकले। कुछ ही दूर पर उनका दुपहिया वाहन खड़ा था, जिस पर शुद्ध हिंदी में मेहनत का मोती लिखा हुआ था। हम तो एकाएक उछल ही पड़े, मालवीय जी

यह गाड़ी आपकी है ? वे हमारा आशय समझ गए !

हां शर्मा जी, यह गाड़ी हमारी है, और हमारे खरे पैसे की कमाई है। अगर हमने इस पर मेहनत का मोती लिखवा दिया तो

आपको क्या आपत्ति है !हमने संभलकर जवाब दिया, नहीं मालवीय जी,

किसने कहा। यह तो बहुत अच्छी बात है। वह आश्वस्त हुए या नहीं, पता नहीं, लेकिन मेहनत के मोती का राज़ तो खुल चुका था। फिर भी मजाल है, कोई उन्हें खुले आम मेहनत का मोती कहकर पुकार ले। अब उन्हें कौन समझाए, जब वे अपने वाहन पर गुजरते हैं, सब यही तो कहते हैं, देखो, वह मेहनत का मोती जा रहा है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 220 – यथार्थ की कल्पना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 220 ☆ यथार्थ की कल्पना ?

कल्पनालोक.., एक शब्द जो प्रेरित करता है अपनी कल्पना का एक जगत तैयार कर उसमें विचरण करने के लिए। यूँ देखें तो कल्पना अभी है, कल्पना अभी नहीं है। इस अर्थ में इहलोक भी कल्पना का ही विस्तार है। कहा गया है, ‘ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या’ किंतु घटता इसके विपरीत है। सामान्यत: जीवात्मा, मोहवश ब्रह्म को विस्मृत कर जगत को अंतिम सत्य मानने लगता है। सिक्के का दूसरा पक्ष है कि वर्तमान के अर्जित ज्ञान को आधार बनाकर मनुष्य भविष्य के सपने गढ़ता है। सपने गढ़ना अर्थात कल्पना करना। कल्पना अपनी प्रकृति में तो क्षणिक है पर उसके गर्भ में कालातीत होने की संभावना छिपी है। 

शब्द और उसके अर्थ के अंतर्जगत से निकलकर खुली आँख से दिखते वाह्यजगत में लौटते हैं।

वाह्यजगत में सनातन संस्कृति जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में परिक्रमा कराती है। लख चौरासी के संदर्भ में पद्मपुराण कहता है,

जलज नव लक्षाणि, स्थावर लक्ष विंशति:, कृमयो रुद्रसंख्यक:।

पक्षिणां दश लक्षाणि त्रिंशल लक्षाणि पशव: चतुर्लक्षाणि मानव:।

अर्थात 9 लाख जलचर, 20 लाख स्थावर पेड़-पौधे, 11 लाख सरीसृप, कीड़े-मकोड़े, कृमि आदि, 10 लाख पक्षी/ नभचर, 30 लाख पशु/ थलचर तथा 4 लाख मानव प्रजाति के प्राणी हैं।

सोचता हूँ जब कभी घास-फूस-तिनका बना तब जन्म कहाँ पाया था? किसी घने जंगल में जहाँ खरगोश मुझ पर फुदकते होंगे, हिरण कुलाँचे भरते होंगे, सरीसृप रेंगते होंगे। हो सकता है कि फुटपाथ पर पत्थरों के बीच से अंकुरित होना पड़ा हो जहाँ अनगिनत पैर रोज मुझे रौंदते होंगे। संभव है कि सड़क के डिवाइडर में शोभा की घास के रूप में जगत में था, जहाँ तय सीमा से ज़रा-सा ज़्यादा पनपा नहीं कि सिर धड़ से अलग।

जलचर के रूप में केकड़ा, छोटी मछली से लेकर शार्क, ऑक्टोपस, मगरमच्छ तक क्या-क्या रहा होऊँगा! कितनी बार अपने से निर्बल का शिकार किया होगा, कितनी बार मेरा शिकार हुआ होगा।

पेड़-पौधे के रूप में नदी किनारे उगा जहाँ खूब फला-फूला। हो सकता है कि किसी बड़े शहर की व्यस्त सड़क के किनारे खड़ा था। स्थावर होने के कारण इसे ऐसे भी कह सकता हूँ कि जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ से सड़क निकाली गई। कहने का तरीका कोई भी हो, हर परिस्थिति में मेरी टहनियों ने जब झूमकर बढ़ना चाहा होगा, तभी उनकी छंटनी कर दी गई होगी। विकास से अभिशप्त मेरा कभी फलना-फूलना न हो सका होगा। स्वाभाविक मृत्यु भी शायद ही मिली होगी। कुल्हाड़ी से काटा गया होगा या ऑटोमेटिक आरे से चीर कर वध कर दिया होगा।

सर्प का जीवन रहा होगा, चूहे और कनखजूरे का भी। मेंढ़क था और डायनासोर भी। केंचुआ बन पृथ्वी के गर्भ में उतरने का प्रयास किया, तिलचट्टा बन रोशनी से भागता रहा। सुग्गा बन अनंत आकाश में उड़ता घूमा था या किसी पिंजरे में जीवन बिताया होगा जहाँ से अंतत: देह छोड़कर ही उड़ सका।

माना जाता है कि मनुष्य जीवन, आगमन-गमन के फेरे से मुक्ति का अवसर देता है। जानता हूँ कि कर्म ऐसे नहीं कि मुक्ति मिले। सच तो यह है कि मैं मुक्ति चाहता भी नहीं।

चाहता हूँ कि बार-बार लौटूँ इहलोक में। हर बार मनुज की देह पाऊँ। हर जन्म लेखनी हाथ में हो, हर जन्म में लिखूँ, अनवरत लिखूँ, असीम लिखूँ।

इतना लिखूँ कि विधाता मुझे मानवमात्र का लेखा लिखने का काम दे। तब मैं मनुष्य के भीतर दुर्भावना जगाने वाले पन्ने कोरे छोड़ दूँ। दुर्भावनारहित मनुष्य सृष्टि में होगा तो सृष्टि परमात्मा के कल्पनालोक का जीता-जागता यथार्थ होगी।

चाहता हूँ कि इस कल्पना पर स्वयं ईश्वर कहें, ‘तथास्तु।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 232 ⇒ पकड़ लो, हाथ गिरधारी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पकड़ लो, हाथ गिरधारी।)

?अभी अभी # 232 ⇒ पकड़ लो, हाथ गिरधारी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बात आज की नहीं, कई बरसों पुरानी है, एक फिल्म आई थी शहनाई, जिसमें राजेंद्र कृष्ण का एक गीत रफी साहब की आवाज में था, जो सुनते सुनते, जबान पर चढ़ गया था ;

ना झटको, जुल्फ से पानी,

ये मोती फूट जाएंगे।

तुम्हारा कुछ ना बिगड़ेगा

मगर दिल टूट जाएंगे।।

सन् १९६४ की यह फिल्म थी, और हमने ज़ुल्फ और हुस्न जैसे शब्द केवल सुन ही रखे थे, इनके अर्थ के प्रति हम इतने गंभीर भी नहीं थे। आप चाहें तो कह सकते हैं, हम उदासीन की हद तक मंदबुद्धि थे। ऐ हुस्न, जरा जाग तुझे इश्क जगाए, जैसे गीत हमें जरा भी जगा ना सके, और शायद इसीलिए ये गीत हमें सुनने में तो अच्छे लगते थे, लेकिन हम कभी सुर में गा न सके। फिर भी हम यह मानते हैं कि सुर की साधना भी परमेश्वर की ही साधना है।

तब अखबारों में भी विज्ञापन आते थे, और जगह जगह लाउडस्पीकर पर फिल्मी कथावाचक फिल्मी धुनों पर अच्छे अच्छे भजन प्रस्तुत किया करते थे। संगीत अगर कर्णप्रिय हो, तो सुधी श्रोता के कानों में प्रवेश कर ही जाता है।।

महिलाएं कामकाजी हों या घरेलू, पूजा पाठ, व्रत उपवास और भजन सत्संग के लिए समय निकाल ही लेती है। शादी ब्याह हो या कोई मंगल प्रसंग, सत्य नारायण की कथा अथवा कम से कम भजन कीर्तन तो बनता ही है। महिलाओं की शौकिया और कम खर्चीली भजन मंडलियाॅं भी होती हैं, जो केवल एक ढोलक की थाप पर ऐसा समाॅं बाॅंधती हैं, कि देखते ही बनता है।

भजन और आरती संग्रह का साहित्य ही इनकी जमा पूंजी होता है। रात दिन गाते गाते इन्हें सभी भजन कंठस्थ हो चुके होते हैं।

गृह कार्य से निवृत्त हो, जब इनकी मंडली जमती है, तो कुछ ही समय में सभी देवताओं का आव्हान कर लिया जाता है। राम जी भी आना, सीता जी को भी साथ लाना। करना ना कोई बहाना बहाना।।

महिला संगीत तो आजकल विवाह समारोहों का एक आवश्यक अंग बन चुका है। खुशी का मौका होता है, गाना बजाना और डांस तो बनता ही है।

परिवार वालों की महीनों प्रैक्टिस होती है, एक एक गीत के लिए। इवेंट मैनेजमेंट का एक प्रमुख हिस्सा है महिला संगीत, कोई मजाक नहीं।

जो पुरुष ताउम्र कहीं नहीं नाचा, उसे उसकी पत्नी और बच्चे सबके सामने नचाकर ही मानते है। और गीत भी कैसा, लाल छड़ी, क्या खूब लड़ी, क्या खूब लड़ी।

पिछली रात आसपास की महिलाएं यूं ही घर में मिल बैठी तो बिना ढोलक के ही सुर निकलने लगे। महिलाओं का स्वर पुरुष के स्वर से अधिक मीठा और अधिक सुरीला होता है। अचानक एक भजन पर मेरा ध्यान चला गया, वही मेरी प्यारी धुन लेकिन कितने खूबसूरत बोल ;

पकड़ लो हाथ बनवारी

नहीं तो डूब जाएंगे।

तुम्हारा कुछ ना बिगड़ेगा

तुम्हारी लाज जाएगी।।

 

धरी है, पाप की गठरी

हमारे सर पे ये भारी।

वजन पापों का है भारी

इसे कैसे उठाएंगे।।

 

तुम्हारे ही भरोसे पर

जमाना छोड़े बैठे हैं।

जमाने की तरफ देखो

इसे कैसे निभाएंगे।।

 

दर्दे दिल की कहें किससे

सहारा ना कौन देगा।

सुनोगे आप ही मोहन

और किसको सुनाएंगे।।

 

फॅंसी है, भॅंवर में नैया

प्रभु अब डूब जाएगी।

खिवैया आप बन जाओ

तो बेड़ा पार हो जाए।।

 

पकड़ लो हाथ गिरधारी ..

कोई बुद्धि, दिखावे और प्रपंच का खेल नहीं, कोई बहस, विवाद, तर्क वितर्क नहीं, बस कुछ पल का बिना शर्त समर्पण है यह ;

सौंप दिया अब जीवन का सब भार तुम्हारे चरणों में।

अब जीत भी तुम्हारे चरणों में

और हार भी तुम्हारे चरणों में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 231 ⇒ घुसपैठ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घुसपैठ।)

?अभी अभी # 231 ⇒ घुसपैठ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहले तो बिना इजाजत कहीं भी घुस जाना और फिर धूनी जमाकर बैठ जाना आखिर घुसपैठ नहीं तो और क्या है। यह तो वही हुआ, चोरी और सीना जोरी।

जितने सुरक्षित हम आज हैं, उतने पहले कभी नहीं थे। गए वो जमाने, जब हमसे पहले हमारे पलंग और बिस्तर पर खटमलों का राज था। अरे, उनकी दीवारों से तो क्या, खिड़की दरवाजों तक से मिलीभगत थी। इन खून चूसने वाले घुसपैठियों को रात रात भर जाग जागकर घासलेट की पिचकारी से नहलाना पड़ता था और कुछ को तो जीते जागते ही जल समाधि देनी पड़ती थी। आज अगर खाट नहीं, तो खटमल भी नहीं।।

आज के मच्छरों और मक्खियों को भी आप चाहें तो घुसपैठिया कह सकते हैं। लेकिन वास्तव में आज भी हमारे देश में मक्खी मच्छरों का ही साम्राज्य है। इन्हें भगाने के लिए पहले हमें गंदगी को भगाना पड़ता है, भारत को स्वच्छ ही नहीं रखना पड़ता, अपने घरों के दरवाजों और खिड़कियों में जाली भी लगवानी पड़ती है। फिर भी आप नाना पाटेकर को यह डायलॉग मारने से नहीं रोक सकते ;

एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है।

कार के बंद शीशों में जब एक मक्खी अथवा मच्छर घुस जाता है, तो वह भी किसी घुसपैठिए से कम नहीं होता। एक अकेला सब पर भारी ! खिड़की खोलो, फिर भी बाहर जाने को तैयार नहीं। उसे कार से बेदखल करने के बाद सबके चेहरे पर विजयी मुस्कान आसानी से देखी जा सकती है।।

सीसीटीवी कैमरे, और अन्य महंगे सुरक्षा उपकरण, जिनमें वफादार कुत्ते भी शामिल हैं, चोर, डाकू, और बिन बुलाए मेहमान से तो आपकी सुरक्षा कर सकते हैं, लेकिन बिना इजाजत घुसी एक मक्खी से आपको नहीं बचा सकते। मच्छरदानी से mosquito bat तक की यात्रा इसकी गवाह है।

बिना मुंह लगाए, वह हमारे मुंह पर मंडराया करती है, प्रेयसी की तरह चिपकने की कोशिश करती है। ना जाने कहां कहां से मुंह काला करके आई होती है कलमुंही।

कभी कभी परिचित सज्जनों के साथ कुछ ऐसे अनचाहे, अनवांटेड व्यक्ति भी जीवन में प्रवेश कर जाते हैं, जो घुसपैठ में माहिर होते हैं। थोड़ी सी पहचान ही काफी होती है उन्हें, घुसपैठ करने के लिए। साहित्य, संगीत, घर परिवार, कथा सत्संग और राजनीति सभी क्षेत्रों में इनकी तगड़ी घुसपैठ होती है।।

हर शादी ब्याह, उठावना, पुस्तक मेला, परिचय सम्मेलन, में आपको इनके दर्शन हो जाएंगे। आप कितना भी मुंह फेरें, वे तपाक से आपसे मिलेंगे और आपके साथ वाले से हाथ मिला लेंगे। ये लोग परिचय के मोहताज नहीं होते। इन्हें सब जानते हैं।

थोड़ी बहुत घुसपैठ और मेल मिलाप भी जीवन में जरूरी है। लेकिन अगर किसी ने मक्खी की तरह चिपकने की कोशिश की तो उसे दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंकना भी जरूरी है।

घुसपैठियों से सावधान।

मक्खी, मच्छरों, अब तुम्हारी खैर नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #211 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 211 ☆

बहुत तकलीफ़ होती है…

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 230 ⇒ होना, और कुछ नहीं होना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “होना, और कुछ नहीं होना…।)

?अभी अभी # 230 ⇒ होना, और कुछ नहीं होना… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ ना कुछ तो जरूर होना है।

सामना आज उनसे होना है।।

जब जब, जो जो होना होता है, तब तब सो सो होता है, बिंदु की मां ! क्या कुछ होने के लिए किसी का सामना होना जरूरी है।

जब कि हमने तो सुना है कि होता वही है, जो मंजूरे खुदा होता है और शुद्ध हिंदी में, ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह तो वही हुआ कि पत्ता अगर किसी के डर के मारे हिल गया, तो उसमें भी डराने वाले की मर्जी शामिल हो गई।

जिसकी मर्जी होती है, उसका हमारे सामने रहना भी जरूरी नहीं।

हमने न तो डर को देखा और न ही उस रब को। बस महसूस किया और या तो काम हो गया, अथवा काम तमाम हो गया। कहते हैं, डर के आगे जीत है और उस यारब के आगे तो हार ही हार है। उनसे मिली नज़र, तो मेरे होश उड़ गए।।

होना हमारी नियति है और होना ही प्रकृति भी। अगर हम नहीं होते तो क्या होता और अगर यह दुनिया ही नहीं होती तो क्या होता, जैसे प्रश्न हमारे मन में इसलिए नहीं आते, क्योंकि हम हैं और हमारे कारण ही यह कायनात भी। हमारे नहीं होने का प्रश्न तब पैदा होता, जब हम नहीं होते। अगर हम नहीं होते, तो इस कायनात का भी प्रश्न पैदा नहीं होता। हमसे है जमाना, जमाने से हम नहीं। हम किसी से कम नहीं।

क्या कभी इस सृष्टि में ऐसा भी वक्त आया होगा, जब कुछ भी नहीं होगा। जब कुछ भी नहीं होगा, तो न चांद होगा, न सूरज होगा, और न ये आसमान होगा। तब तो फिर इस धरती का भी अस्तित्व नहीं रहा होगा, हमारी आपकी तो खैर बात ही छोड़िए।

दर्शन, ज्ञान विज्ञान और हमारी कई धार्मिक मान्यताएं आदम हव्वा, adam eve और मनु और श्रद्धा से हमारी उत्पत्ति बताते हैं तो इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिए तो हमारे ब्रह्मा जी ही काफी हैं। थ्री इन वन ब्रह्मा विष्णु और महेश, फिर क्या रह जाता शेष।।

होने को ही हम होनी भी कहते हैं। जो नहीं होना चाहिए, उसे हमने अनहोनी नाम दिया है। जो हो रहा है, जो अस्तित्व में है उसे हम मैनिफेस्टेशन, प्रकृति,

कायनात, मजहर अथवा व्यक्त मानते हैं। अव्यक्त, अशेष, ही अनादि, अनंत, अजन्मा, निराकार ओंकार स्वरूप है। एक महामानव ने इसका नाम ब्लैक होल दे दिया। कितनी आसान अभिव्यक्ति है शून्य, जिसमें सब कुछ समाया हुआ है।

कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी। निदा फाजली तो यहां तक कहते हैं ;

दुनिया जिसे कहते हैं

जादू का खिलौना है।

मिल जाए तो मिट्टी

खो जाए तो सोना है।।

हम भी तो यही चाहते हैं। जो हो, अच्छा ही हो। हम भी बस पाना ही पाना तो चाहते हैं, कौन यहां कुछ खोना चाहता है। हमारा होना ही हमारा अस्तित्व है, हम नहीं जानते, हमारे नहीं होने पर क्या होना जाना है।

हमारे जीवन में बहुत कुछ घटता है, चाहा, मनचाहा, अनचाहा। घटना, बढ़ना जीवन की आम घटना है। हमारी घटती उम्र को हम बढ़ती उम्र समझते हैं। बहुत कुछ हुआ है, अभी बहुत कुछ होना बाकी है। जहां अभी और अपेक्षा है, वहां उत्साह, उमंग और महत्वाकांक्षा है, जहां संतोष, तसल्ली और संतुष्टि है, वहां, बाकी भी इसी तरह, गुजर जाए तो अच्छा, ऐसी भावना है।

फिर भी एक अंदेशा है, आंतरिक संकेत है कि कुछ ना कुछ तो जरूर होना है, सामना आज उनसे होना है। यह आज कब आता है, बस उस कल की, उस पल की प्रतीक्षा है, सामना किससे होना है, यह हम नहीं बताएंगे।।

जब वह साक्षात सामने प्रकट हो जाएगा, आप जान जाएंगे, लेकिन फिर किसी को बताने लायक नहीं रह जाएंगे। अभी बहुत कुछ होना बाकी है;

हम इंतजार करेंगे,

तेरा कयामत तक।

खुदा करे, कि कयामत हो

और तू आए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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