हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ कितनी और निर्भया ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “कितनी और निर्भया ”.     डॉ  मुक्ता जी ने  इस आलेख के माध्यम से यौन अपराध  और उससे सम्बंधित तथ्यों पर विस्तृत विमर्श किया है। यह समझ से परे है कि इस तथ्य को सामयिक कहें या असामयिक, यह निर्णय आप पर है। किन्तु,  दुखद यह है कि अगली दुर्घटना होते तक या दुखद ब्रेकिंग न्यूज़ आते तक समाज निष्क्रिय क्यों रहता है ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।  )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ कितनी और निर्भया

 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या, उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख, मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं, चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा, गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं। लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद-हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे अपराध की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए? संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा। और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं। वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे, तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि भय  बिनु होइहि न प्रीति तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा और बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए कठोर दंड व्यवस्था का प्रावधान करना हमारा प्रमुख दायित्व होगा, ताकि समाज में सत्यम्,  शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – परिचय ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  परिचय 

 

अपना परिचय

भेज दीजिए,

आयोजक ने कहा,

मैंने भेज दी

अपनी एक रचना,

कैसा परिचय भेजा है

बार-बार पढ़ता हूँ

हर बार अलग अर्थ

निकलकर आता  है,

शिकायत सुनकर

मेरा समूचा अस्तित्व

शब्दब्रह्म के आगे

दंडवत हो जाता है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 6 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 6 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

प्रश्न :- आप पश्चिमी सभ्यता को निकाल बाहर करने की बात कहते हैं, तब तो आप यह भी कहेंगे कि हमें कोई भी मशीन नहीं चाहिए।

उत्तर :-  मुझे जो चोट लगी थी उसे यह सवाल करके आपने ताजा कर दिया है। मि. रमेशचंद्र दत्त की पुस्तक ‘ हिन्दुस्तान का आर्थिक इतिहास’ जब मैंने पढी, तब भी मेरी ऐसी हालत हो गयी थी। उसका फिर से विचार करता हूँ, तो मेरा दिल भर आता है। मशीन  की झपट लगने से ही हिन्दुस्तान पागल हो गया है। मैंनचेस्टर ने जो हमें नुकसान पहुंचाया है, उसकी तो कोई हद ही नहीं है। हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब-करीब ख़तम हो गयी, वह मैनचेस्टर का ही काम है।

लेकिन मैं भूलता हूँ। मैनचेस्टर को दोष कैसे दिया जा सकता है? हमने उसके कपडे पहने तभी तो उसने कपडे बनाए। बंगाल की बहादुरी का वर्णन जब मैंने पढ़ा तब मुझे हर्ष हुआ। बंगाल में कपडे की मिलें नहीं हैं, इसलिए लोगों ने अपना असली धंधा फिर से हाथ में ले लिया। बंगाल बम्बई की मिलों को बढ़ावा देता है वह ठीक ही है; लेकिन अगर बंगाल ने तमाम मशीनों से परहेज किया होता, उनका बायकाट- बहिष्कार किया होता तब और भी अच्छा होता।

मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिन्दुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी हैं और वह महा पाप है, ऐसा मैं तो साफ़ देख सकता हूँ।

बम्बई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, वे गुलाम बन गए हैं। जो औरतें उनमे काम करती हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप उठेगा। जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थी। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिन्दुस्तान की बुरी दशा होगी। मेरी बात आपको कुछ मुश्किल मालुम होती होगी। लेकिन मुझे कहना चाहिए कि हम हिन्दुस्तान में मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि हम मैनचेस्टर को और भी रुपये भेजकर उसका सडा हुआ कपड़ा काम में लें; क्योंकि उसका कपड़ा लेने से सिर्फ हमारे पैसे ही जायेंगे। हिन्दुस्तान में अगर हम मैनचेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिन्दुस्तान में ही रहेगा, लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा; क्योंकि वह हमारी नीति को बिलकुल ख़त्म कर देगा। जो लोग मिलों में काम करते हैं उनकी नीति कैसी है, यह उन्ही से पूंछा जाय। उनमे से जिन्होंने रुपये जमा किये हैं, उनकी नीति दुसरे पैसेवालों से अच्छी नहीं हो सकती। अमेरिका के रॉकफेलरों से हिन्दुस्तान के राकफेलर कुछ कम हैं, ऐसा मानना निरा अज्ञान है। गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा।

मुझे तो लगता है कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी राज्य को यहाँ टिकाये रखने वाले यह धनवान लोग ही हैं। ऐसी स्थिति में ही उनका स्वार्थ सधेगा। पैसा आदमी को दीन बना देता है। ऐसी दूसरी चीज दुनिया में विषय-भोग है। ये दोनों विषय विषमय हैं। उनका डंक साँप के डंक से ज्यादा जहरीला है। जब साँप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड़ देता है। जब पैसा या विषय काटता है तब वह शरीर, ज्ञान, मन सब कुछ ले लेता है, तो भी हमारा छुटकारा नहीं होता। इसलिए हमारे देश में मिलें कायम हों, इसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है।

प्रश्न:- तब क्या मिलों को बंद कर दिया जाय।

उत्तर:- यह बात मुश्किल है। जो चीज स्थायी या मजबूत हो गयी है, उसे निकालना मुश्किल है। इसलिए काम न शुरू करना पहली बुद्धिमानी है। मिल मालिकों की ओर हम नफरत की निगाह से नहीं देख सकते। हमें उनपर दया करनी चाहिए। वे यकायक मिलें छोड़ दें यह तो मुमकिन नहीं है; लेकिन हम उनसे ऐसी बिनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहस को बढाए नहीं। अगर वे देश का भला करना चाहे, तोखुद अपना काम  धीरे धीरे कम कर सकते हैं। वे खुद पुराने, प्रौढ़, पवित्र चरखे देश के हज़ारों घरों में दाखिल कर सकते हैं और लोगों से बुना हुआ कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।

अगर वे ऐसा न करें तो भी लोग खुद मशीनों का कपड़ा इस्तेमाल करना बंद कर सकते हैं।

मेरी टिप्पणी : मशीनों को लेकर गांधीजी के विचार आज से चार दिन तक चलेंगे फिर पांचवे दिन मैं कोशिश करूंगा कि आज के सन्दर्भ में गांधीजी के विचारों की उपयोगिता पर कुछ लिख सकूँ । मैं इस पोस्ट के पाठकों से भी अनुरोध करूंगा कि वे अपने विचार लिखें.।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #26 – विज्ञापनवादी अभियान ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “विज्ञापनवादी अभियान”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 26 ☆

☆ विज्ञापनवादी अभियान

 

इन दिनो राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता अभियान के लिये शहरो के बीच कम्पटीशन चल रहा है. किसी भी शहर में चले जायें बड़े बड़े होर्डिंग, पोस्टर व अन्य विज्ञापन दिख जायेंगे जिनमें उस शहर को नम्बर १ दिखाया गया होगा, सफाई की अपील की गई होगी. वास्तविक सफाई से ज्यादा व्यय तो इस ताम झाम पर हो रहा है, कैप, बैच, एडवरटाइजमेंट, भाषणबाजी खूब हो रही है. किसी सीमा तक तो यह सब भी आवश्यक है जिससे जन जागरण हो, वातावरण बने, आम आदमी में चेतना जागे. किन्तु इस सबका अतिरेक ठीक नही है. यह गांधी वादी सफाई नहीं है. शायद यह बढ़ती आबादी और विज्ञापनवादी आधुनिकता के लिये जरूरी बन चला हो पर है गलत.

यह जुमलेबाजी और ढ़ेर से विज्ञापन राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा अनावश्यक खर्च है, राष्ट्रीय अपव्यय है. थोड़ा अंदर घुसकर विवेचना करें तो सफाई की जो मूल आकांक्षा है इस सबसे उसे ही हानि हो रही है, पोस्टर फटकर कचरा ही बनेंगे. पोस्टर बैनर बनाने में लगी उर्जा पर्यावरण को हानि ही पहुंचा रही है.

इससे तो विज्ञापन का कोई इलेक्ट्रानिक तरीका जैसे टी वी, रेडियो पर चेतना अभियान हो तो वह बेहतर हो. न केवल स्वच्छता अभियान के लिये बल्कि हर अभियान में कागज की बर्बादी गलत है. यदि इस तरह पोस्टरबाजी से जनता के मन में संस्कार पैदा किये जा सकते तो अब तक कई क्रातियां हो चुकी होती. वास्तव में हर शहर अपनी तरह से नम्बर वन ही होता है.

जरूरत है कि शहर की अस्मिता की पहचान हो, सादगी से भी स्थाई व वास्तविक सफाई हो सकती है. देश में तरह तरह के अभियान चल रहे हैं आगे भी अनेक जनचेतना अभियान चलेंगे, उनके संचालन हेतु बौद्धिक विष्लेशण करने के बाद ही नीति तय करके तरीके व संसाधन निर्धारित किये जाने चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – डॉ.भावना शुक्ल

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर चरण स्पर्श है जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं एवं हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एकआलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ इस रविवार से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि आपको प्रत्येक रविवार एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

इस शृंखला की पुनः शुरुआत गुरुवर डॉ राजकुमार सुमित्र जी से प्रारम्भ कर रहे हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में उनकी सुपुत्री एवं प्रसिद्ध साहित्यकार  डॉ भावना शुक्ल से बेहतर कौन लिख सकता है। आज प्रस्तुत है “डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र – व्यक्तित्व एवं कृतित्व”

☆ डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र – व्यक्तित्व एवं कृतित्व

संस्कारधानी जबलपुर के यशस्वी साहित्यकार, साहित्याकाश के जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र, संवेदनशील साहित्य सर्जक, अनुकरणीय, प्रखर पत्रकार, कवि, लेखक, संपादक, व्यंग्यकार, बाल साहित्य के रचयिता, प्रकाशक अनुवादक, धर्म, अध्यात्म, चेतना संपन्न, तत्वदर्शी चिंतक, साहित्यिक-सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं के प्रणेता डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। सुमित्र जी में सेवा भावना, सहानुभूति, विनम्रता, गुरु-गंभीरता तथा सहज आत्मीयता की सुगंध उनके व्यक्तित्व में समाहित है।

उन्होंने लगभग छह दशकों तक जन मन को आकर्षित एवं प्रभावित किया। साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की है और अनवरत करते जा रहे हैं। नगर ही नहीं देश तथा विदेशों तक उनकी यश पताका लहरा रही है।

जबलपुर के राष्ट्र सेवी साहित्यकार एवं पत्रकार स्वर्गीय पंडित दीनानाथ तिवारी के पौत्र तथा भोपाल के ख्याति लब्ध अधिवक्ता “ज्ञानवारिधि” स्वर्गीय पंडित ब्रह्म दत्त तिवारी के सुपुत्र डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” का जन्म 25 अक्टूबर 1938 को जबलपुर नगर में हुआ।

साहित्य और पत्रकारिता के संस्कार उत्तराधिकार में प्राप्त हुए. मानस मर्मज्ञ डॉ ज्ञानवती अवस्थी की प्रेरणा से सन 1952 से काव्य रचना प्रारंभ की। मध्य प्रदेश के अनेक शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करते हुए पीएचडी तक की उपाधियाँ ससम्मान प्राप्त की। शिक्षकीय अध्यापन-कर्म से जीवनारंभ कर सुमित्र जी बहुमुखी प्रतिभा साहित्य साधना तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में सतत गतिशील रहे…

सुमित्र जी के शब्दों में…

मित्रों के मित्र सुमित्र का व्यक्तित्व ‘यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करता है, धन से ना सही किंतु मन से तो वे ‘राजकुमार’ ही है। उन्होंने लिखा है…

” मेरा नाम सुमित्र है, तबीयत राजकुमार।

पीड़ा की जागीर है, बांट रहा हूँ प्यार।”

जबलपुर से प्रकाशित नवीन दुनिया के साहित्य संपादक के रूप में उन्होंने समर्पित होकर पत्रकारिता और साहित्य की सेवा की और ना जाने कितने नवोदित सृजन-धर्मी पत्रकार, कवि, लेखक सुमित्र जी के निश्चल स्नेह और आशीष की छाया तले पल्लवित पुष्पित हुए. जो आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में एक समर्थ रचनाकार के रूप में गिने जाते हैं।

साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा है जिसमें सुमित्र जी ने अपनी लेखनी को ना चलाया होगा इनका कौशल बुंदेली काव्य सृजन में भी देखने को मिलता है।

आपके शब्दों में…वीणा पाणि की आराधना- सुफलित  नाद

“शब्द ब्रह्म आराधना, सुरभित सफेद नाद।

उसका ही सामर्थ्य है, जिसको मिले प्रसाद।“

सुमित्र जी की रचनात्मक उपलब्धियाँ अनंत है। पत्रकार साहित्यकार डॉ राजकुमार तिवारी सुमित्र ने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी गौरवान्वित किया वहीं दूसरी ओर आपने हिन्दी साहित्य के कोष की श्री वृद्धि भी की है। छंद बद्ध कविता, छंद मुक्त कविता, कहानी, व्यंग, नाटक आदि सभी विधाओं में आपने लिखा है इसके साथ ही आपने श्री रमेश थेटे की मराठी कविताओं का रूपांतर‘अंधेरे के यात्री’ तथा पीयूष वर्षी विद्यावती के मैथिली गीतों का हिन्दी में गीत रूपांतर आपको मूलतः रस प्रवण साहित्यकार सिद्ध करता है आपकी इस साहित्य साधना और साहित्यिक पत्रकारिता अक्षुण्ण  है।

सुमित्र जी के काव्य रस की बौछार …

प्रिय के सौंदर्य को लौकिक दृष्टि से देखते हुए भी उसमें अलौकिकता कैसे आभास किया जा सकता है इस भाव को बड़े ही पवित्र प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया।

नील झील से नयन तुम्हारे

जल पाखी-सा मेरा मन है….

दांपत्य जीवन में रूठना मनाना का क्रम चलता है ऐसे में पत्नी की पति को कुछ कहने के लिए विवश करती है… गीत की कुछ पंक्तियाँ

 

बिछल गया माथे से आंचल

किस दुनिया में खोई हो

लगता है तुम आज रात भर

चुपके चुपके रोई हो।

रोना तो है सिर्फ़ शिकायत

इसकी उम्र दराज नहीं

टूट टूट कर जो ना बजा हो

ऐसा कोई साज नहीं

मैं तुमसे नाराज नहीं।

 

दूसरों के सुख दुख में अपने सुख-दुख की प्रतिछाया…

 

दूसरों के दुख को पहचान

उसे अपने से बड़ा मान

तब तुझे लगेगा कि तू

पहले से ज़्यादा सुखी है

और दुनिया का एक बड़ा हिस्सा

तुझ से भी ज़्यादा दुखी है…

 

नई कविता के तेवर को अत्यंत मार्मिक ढंग से कविता में प्रस्तुत किया है…

 

तुमने

मेरी पिनकुशन-सी

जिंदगी से

सारे ‘पिन’ निकाल लिए

बोलो।

इन खाली जख्मों को लिए

आखिर कोई कब तक जिए;

काव्य शिल्प लिए…

 

अंतहीन गंधहीन मरुस्थल में

भटकता

मेरा तितली मन

दिवास्वप्न देखता देखता

मृग हो जाता है।

कल्पना का वैशिष्ट…

मेरी दृष्टि

मलबे को कुरेद रही है-

आह! लगता है-

गांधी के रक्त स्नात वस्त्र

काले पड़ गए हैं

पंचशील के पांव में

छाले पड़ गए हैं।

 

यादें नामक कविता का अंश…

 

जैसे बिजली कौंधती है

घन में,

यादें कौंधती हैं

मन में।

 

प्रेम तो ईश्वरीय वरदान है। इनको केंद्रित कर दोहे…

 

“नहीं प्रेम की व्याख्या, नहीं प्रेम का रूप।

कभी चमकती चांदनी, कभी देखती धूप।“

0000

“स्वाति बिंदु-सा प्रेम है, पाते हैं बड़भाग।

प्रेम सुधा संजीवनी, ममता और सुहाग।“

 

प्रिय की दूरी की पीड़ानुभूति—-

 

“तुम बिन दिन पतझड़ लगे, दर्शन है मधुमास।

एक झलक में टूटता, आंखों का उपवास.. ।”

सुमित्र जी ने स्मृति को, याद को विभिन्न कोणों से चित्रित किया है———

 

“याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बनी लिबास।”

0000

“फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।”

अहंकार के विसर्जन के बिना प्रेम का कोई औचित्य नहीं है।

 

“सांसो में तुम हो रचे, बचे कहाँ हम शेष।

अहम समर्पित कर दिया, करें और आदेश।”

“फूल अधर पर खिल गए, लिया तुम्हारा नाम ।

मन मीरा-सा हो गया, आँख हुई घनश्याम।“

 

साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सुमित्र जी ने जो जीवन जिया वह घटना पूर्ण चुनौतीपूर्ण रहा। सुमित्र के जीवन को सजाया संवारा और उसे गति दी …जीवनसंगिनी स्मृति शेष डॉ.गायत्री तिवारी ने। सुमित्र जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के इन गुणों का प्रवाह निरंतर बना रहे ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि वह दीर्घायु हो। मैं अपने आप को बहुत ही सौभाग्यशाली मानती हूँ कि मैं डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ और डॉ गायत्री तिवारी की पुत्री हूँ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #23 – परिदृश्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 23☆

☆ परिदृश्य ☆

मुंबई में हूँ और सुबह का भ्रमण कर रहा हूँ। यह इलाका संभवत: ऊँचे पहाड़ को काटकर विकसित किया गया है। नीचे समतल से लेकर ऊपर तक अट्टालिकाओं का जाल। अच्छी बात यह है कि विशेषकर पुरानी सोसायटियों के चलते परिसर में हरियाली बची हुई है। जैसे-जैसे ऊँचाई की ओर चलते हैं, अधिकांश लोगों की गति धीमी हो जाती है, साँसें फूलने लगती हैं। लोगों के जोर से साँस भरने की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही हैं।

लम्बा चक्कर लगा चुका। उसी रास्ते से लौटता हूँ। चढ़ाव, ढलान में बदल चुका है। अब कदम ठहर नहीं रहे। लगभग दौड़ते हुए ढलान से उतरना पड़ता है।

दृश्य से उभरता है दर्शन, पार्थिव में दिखता है सनातन। मनुष्य द्वारा अपने उत्थान का प्रयास, स्वयं को निरंतर बेहतर करने का प्रवास लगभग ऐसा ही होता है। प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक एक -एक कदम रखकर, व्यक्ति जीवन में ऊँचाई की ओर बढ़ता है। ऊँचाई की यात्रा श्रमसाध्य, समयसाध्य होती है, दम फुलाने वाली होती है। लुढ़कना या गिरना इसके ठीक विपरीत होता है।  व्यक्ति जब लुढ़कता या गिरता है तो गिरने की गति, चढ़ने के मुकाबले अनेक गुना अधिक होती है। इतनी अधिक कि अधिकांश मामलों में ठहर नहीं पाता मनुष्य।    मनुष्य जाति का अनुभव कहता है कि ऊँचाई की यात्रा से अधिक कठिन है ऊँचाई पर टिके रहना।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, विषयभोगों के पीछे भागने की अति, धन-संपदा एकत्रित करने  की अति, नाम कमाने की अति। यद्यपि कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, तथापि अति अनंत है। हर पार्थिव अति मनुष्य को ऊँचाई से नीचे की ओर धकेलती है और अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ मनुज गिरता-गिरता पड़ता रसातल तक पहुँंच जाता है।

विशेष बात यह है कि ऊँचाई और ढलान एक ही विषय के दो रूप हैं। इसे संदर्भ के अनुसार समझा जा सकता है। आप कहाँ खड़े हैं, इस पर निर्भर करेगा कि आप ढलान देख रहे हैं या ऊँचाई। अपनी आँखों में संतुलन को बसा सकने वाला न तो ऊँचाई  से हर्षित होता है,  न ढलान से व्यथित। अलबत्ता ‘संतुलन’ लिखने में जितना सरल है, साधने में उतना ही कठिन। कई बार तो लख चौरासी भी इसके लिए कम पड़ जाते हैं..,इति।

संतुलन साधने की दिशा में हम अग्रसर हो सकें। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सोम. 18.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 19 – अंहकार चूर ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अंहकार चूर।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 19 ☆

☆ अंहकार चूर 

 

रावण के लिए यह आखरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़ा भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानारों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनों लोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुँचने के लिए उनका उपयोग नहीं करंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आपलोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋतीमृ त्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति, रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाती है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ कली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।
रावण ने उत्तर दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु का नहीं”।

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध लड़े की आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”।

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ ज़िन्दगी : एक हादसा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी : एक हादसा ”.   यह सच है कि स्त्री – पुरुष  जीवन के दो पहिये हैं। किन्तु, अक्सर जीवन में यह हादसा किसी एक पहिये के ही साथ क्यों ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी : एक हादसा

 

अखबार की सुर्खियों या टी•वी• पर प्रतिदिन दिखाए जाने वाले हादसों को देख अंतर्मन उद्वेलित हो उठता है…आखिर कब बदलेगी इंसान की सोच? कब हम हर लड़की में बहन-बेटी का अक्स देखेंगे? कब इस समाज में सामंजस्य स्थापित होगा? कब दिल दहला देने वाली घटनाएं, हमारे मनोमस्तिष्क पर प्रहार नहीं करेंगी… हमें झिंझोड़ कर नहीं रख देंगी?

स्त्री-पुरुष सृजन-कर्त्ता हैं…एक-दूसरे के पूरक हैं… गाड़ी के दो पहियों के समान हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। नियंता की अर्धनारीश्वर की कल्पना इसी का प्रमाण है। परन्तु पुरुष निरंकुश शासक की भांति सदैव सत्ता पर काबिज़ रहना  चाहता है। उसने औरत का हर रूप में शोषण किया है। जन्म से मृत्यु-पर्यन्त वह जुल्मों का शिकार होती है। आजकल तो मानव सृष्टि-नियंता की प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने लगा है। सोनोग्राफी द्वारा लिंग की जांच करवा कर, कन्या-भ्रूण को  मिटा डालना सामान्य सी बात हो गई है। लड़कियों की घटती संख्या इसी का दुष्परिणाम है।

लड़की के जन्म होने पर सबके चेहरे लटक जाते हैं, घर में मातम-सा पसर जाता है… जिसका सबसे अधिक हर्ज़ाना प्रसूता को भुगतना पड़ता है। उस निर्दोष पर हर पल व्यंग्य-बाणों की बौछार की जाती है।वैसे भी उपेक्षा,अवमानना,प्रताड़ना और तिरस्कार तो औरत को धरोहर रूप में प्रदत्त हैं…जो उसे जन्म से ही सहन करने पड़ते हैं और अंतिम सांस तक वह सब स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। उसे तो केवल सहना है, कहना नहीं।

जन्म लेते ही उस बच्ची के साथ सौतेला व्यवहार प्रारम्भ हो जाता है। लड़के के जन्म पर हमारे यहां ताली बजाने की प्रथा है। गांव भर में मिठाई बांटी जाती है और घर-परिवार के लोगों का सीना फूल कर चौड़ा हो जाता है। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता और उनका मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। बच्ची के पिता के साथ-साथ उसकी माता को भी घर-परिवार में सम्मान मिलता है क्योंकि उन्होंने उस परिवार को वारिस दिया है… वंश बढ़ाने वाले को जन्म देकर, उन पर अहसान किया है। वे भूल जाते हैं कि मां को उस अवसर पर समान प्रसव पीड़ा होती है, चाहे वह लड़का हो या लड़की। परन्तु उसके दर्द का अहसास किसे होता है? लड़की की मां को न तो आराम मिलता है, न ही अच्छा भोजन। उसे तो दी जाती हैं…सूखी रोटियां और कहा जाता है कि इसने तो पत्थर पैदा किया है… हमारे हाथ में भीख का कटोरा थमा कर रख दिया है और हमारा मस्तक सब के समक्ष झुका दिया है।

ऐसे कटु वचन उसे हरदम सहन करने पड़ते हैं। आप  ज़रा उस प्रसूता की मन: स्थिति का अनुमान लगाइए क्या गुज़रती होगी उस निरीह पर…जो उनकी बातों का उत्तर भी नहीं दे पाती। सो! उसे घुट- घुट कर मरना पड़ता है। तस्वीर का दूसरा पक्ष भी किसी से छिपा नहीं है।उस मासूम बच्ची की परवरिश मजबूरी समझ कर की जाती है।रूखा-सूखा उसकी परवरिश के लिए काफी समझा जाता है। वहीं फटे-पुराने वस्त्र उसके अलंकार होते हैं। अक्सर तो वह भाइयों की उतरन से ही गुज़ारा कर लेती है।घर-परिवार के लोगों की आंखें सदैव उस पर लगी रहती हैं। छोटे से छोटे काम के लिए भी उसकी सेवाएं ली जाती हैं। रसोई के काम से लेकर छोटे भाई-बहिन को संभालने तक का दारोमदार उसके कंधों पर होता है।

हां! आजकल अनिवार्य शिक्षा योजना के अंतर्गत लड़कियों को स्कूल में दाखिल कराना, माता-पिता की मजबूरी बन गया है, परन्तु उसके हाथ में किताब देखते ही सबको आवश्यक काम याद आ जाते हैं और एक लम्बी फेहरिस्त उसके हाथों में थमा दी जाती है। वह बेचारी दिन भर सबका हुक्म बजाती रहती है। यदि वह मासूम किसी पल, किसी तरह का प्रतिरोध करती है या भाई से कोई काम न करवाने की शिकायत करती है, तो उसे डांट-फटकार कर या पीटकर चुप करा दिया जाता है।

‘तुम भाई से मुकाबला करती हो…अरे! वह तो घर का चिराग है। परिवार का नाम रोशन करेगा वह और तू तो थोड़े दिन की मेहमान है यहां, दूसरे घर चले जाना है तुझे। जानती है…तू पराई अमानत है।’ बचपन से ही उसे यह सब उसे समझा दिया जाता है कि इस घर से उसका स्थाई संबंध नहीं है। थोड़े दिनों के पश्चात् वह मासूम वहां से रुख्सत हो जाती है, यह सोच कर कि पति का घर अब उसका अपना घर होगा। विवाह संपन्न होने के पश्चात्, विदाई के समय यह शब्द उसके हृदय पर कुठाराघात करते हैं कि ‘जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से नहीं उठती। सो! अब उसे उस घर की चौखट से बाहर कदम नहीं रखना है… अपनी सीमाओं में रहकर उस दहलीज़ को कभी नहीं लांघना है। वह उस घर में मेहमान की तरह आ सकती है, अपने पति के साथ …अन्यथा उसके लिए घर के द्वार खुले नहीं हैं।

वह मासूम एक नए माहौल में अजनबियों के मध्य, अपने अस्तित्व को नकार, सबकी इच्छाओं पर खरा उतरने में आजीवन प्रयासरत रहती है।वह कठपुतली की भांति सब के आदेशों की अनुपालना करती है, परन्तु फिर भी पराई समझी जाती है। उसका पति, जिसके साथ वह सात फेरों के बंधन में बंध कर आयी थी, वह उसे समझने का तनिक भी प्रयास नहीं करता। वह हर समय उसका तिरस्कार करता है क्योंकि पहले दिन ही उस अबला को स्पष्ट शब्दों में बतला दिया जाता है कि ‘वह अपने माता-पिता को भगवान से बढ़कर मानता है, उनकी पूजा-आराधना करता है और उससे भी यही अपेक्षित है।’

वह उसके परिजनों को एक भी ऐसा अवसर प्रदान नहीं करना चाहती, जिसके कारण उसे या उसके घर वालों को नीचा देखना पड़े। परन्तु उस घर में तो सी•सी•,टी•वी• कैमरे लगे होते हैं, परिवारजनों के रूप में…जिनकी आंखें हर पल उस पर लगी होती हैं…दोषारोपण करने में प्रतीक्षारत रहती हैं। उसकी हर क्रिया-प्रतिक्रिया व गतिविधि उन में कैद हो जाती है और अवसर मिलते ही अनेक उदाहरण देकर, उस पर असंख्य आक्षेप लगा दिए जाते हैं। यदि वह किसी अवसर पर अपना पक्ष रखना या प्रत्युत्तर देना चाहती है तो उसे एक भी शब्द न बोलने की हिदायत जारी कर दी जाती है। कई बार तो ऐसे अवसर पर पति लात-घूंसों का प्रयोग कर, अपने पुरुषत्व का प्रदर्शन करने में तनिक भी संकोच नहीं करता। धीरे- धीरे वह उसकी आदत बन जाती है और चुप रहकर सब कुछ सहना, उस मासूम की नियति।

वह समझ जाती है कि औरत को बचपन से लेकर अंतिम सांस तक, पहले पिता, फिर पति और जीवन के अंतिम पड़ाव में पुत्र के अंकुश में रहना है। वह अतीत में झांकती है, जहां अनगिनत हादसे उसके मनोमस्तिष्क को झिंझोड़ कर रख देते हैं और वह निष्कर्ष निकालती है कि सल्तनतें बदल जाती हैं, परंतु हालात वही रहते हैं। पिता,पति और पुत्र उसे अपनी बपौती समझ, क्रमानुसार मनमाना व्यवहार करते हैं। इन तीनों का प्रारम्भ ‘प’ से होता है। सो! उनकी  विचारधारा एक-दूसरे से अलग कैसे हो  सकती है?उनके व्यवहार को देखकर तो ऐसा लगता    है कि वे सब एक ही सांचे में निकाले गये हैं।इसलिये उनकी सोच व नज़रिया एक-सा होना स्वाभाविक है …वह भिन्न कैसे हो सकती है?

ज़रा ग़ौर कीजिए गोपियों की उन पंक्तियों पर, जो उन्होंने कृष्ण के मित्र उद्धव से कही थीं ‘यह मथुरा काजर की कोठरी, जे आवहिं ते कारे।’ परन्तु सतयुग से लेकर इक्कीसवीं सदी तक पुरुष की सोच में तनिक भी अंतर नहीं आया। सतयुग में इन्द्र का अप्सराओं संग काम-क्रीड़ा करना, गौतम ऋषि का अहिल्या को श्राप देना, त्रेता युग में भगवान राम का सीता को, एक धोबी के कहने पर राजमहल से निष्कासित करना, द्वापर युग में दुर्योधन और दु:शासन द्वारा द्रौपदी को भरी सभा में बालों से खींच कर लाना व उसका चीरहरण करना और कलयुग में तो औरत की अस्मत चौराहे पर ही नहीं, घर-घर में लूटा जाना… पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा करता है। वास्तव में यह उसकी दूषित मानसिकता का परिणाम है।

इस तथ्य से तो सामान्यजन परिचित ही होंगे कि हमारे संविधान के कानून-निर्माता, वेदों-शास्त्रों के रचयिता पुरुष ही थे। सो! पुरुष के हितों को नज़र- अंदाज़ होने की कल्पना करना दूर की बात थी। सभी कायदे-कानून पुरुष की सुख-सुविधा के लिए बनाए गए थे। पुरुष को श्रेष्ठ व सामान्य औरत को दोयम दर्जे का समझा गया था। आधुनिक युग में भी औरत पुरुष के शिकंजे से मुक्त कहां हो पाई है? उसे तो आजीवन पुरुष के ज़ुल्मों का शिकार बनना पड़ता है और ओंठ सीकर सब कुछ चुपचाप सहना, उसकी नियति बन गई है। वह पुरुष द्वारा रचित चक्रव्यूह से लाख प्रयास करने पर भी आज तक मुक्त नहीं हो पाई है।

समय परिवर्तनशील है और ‘मौसम भी बदलते हैं/ /दिन रात बदलते हैं /यह समां बदलता है /ज़ज़्बात बदलते हैं / यादों से महज़ / दिल को मिलता नहीं सुक़ून /ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं / हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ मुझे तो इन पंक्तियों में तनिक भी सच्चाई का आभास नहीं होता।अपनी सोच व अपनी काव्य पंक्तियों में तनिक भी सच्चाई का आभास नहीं होता, बल्कि काल्पनिकता का आभास होता है। जहां तक औरत के अस्तित्व और अस्मिता का प्रश्न है, वह-कल भी गुलाम थी, अस्तित्वहीन थी और आज भी उपेक्षित ही नहीं, प्रताड़ित व तिरस्कृत है।

अक्सर विचार-गोष्ठियों में चर्चा होती है, नारी सशक्तीकरण की… उसकी दशा के विषय में मैं तो यही कहना चाहूंगी कि विश्व की 90% औरतों की आज भी वही स्थिति है, जो हज़ारों वर्ष पहले थी। हां! उस पर आकर्षक आवरण चढ़ा दिया गया है,

उसे समानाधिकार का लॉलीपॉप थमा दिया गया है। परन्तु औरत के जीवन का कटु यथार्थ, उसकी परिस्थितियां, पुरुष के मन में उसके प्रति सोच, भावनाएं व अपेक्षाएं वही हैं…उनमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आया है।

अन्तत: मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि वास्तव में ज़िन्दगी एक हादसा है। कौन,कब, कहां, किस मोड़ पर मिल जाये… मानव इस तथ्य से अनभिज्ञ है…भविष्य में क्या होने वाला है…वह किस जन्म के कर्मों का फल, इस जन्म में भुगत रहा है, यह भी कोई नहीं जानता। परंतु जन्म-जन्मांतर का यह सिलसिला निरंतर चला आ रहा है। लाख प्रयास करने पर भी वह इन बंधनों से मुक्ति नहीं पा सकता क्योंकि’समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता’ यह सृष्टि का अटल नियम है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(आज का दैनिक स्तम्भ ☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆  अपने आप में विशिष्ट है। ई- अभिव्यक्ति परिवार के सभी सम्माननीय लेखकगण / पाठकगण श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी के इस महायज्ञ में अपने आप को समर्पित पाते हैं। मेरा आप सबसे करबद्ध निवेदन है कि इस महायज्ञ में सब अपनी सार्थक भूमिका निभाएं और यही हमारा दायित्व भी है।)

☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध

नागरिकों की रक्षा के लिए आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए सशस्त्र बलों के सैनिकों और आतंकी वारदातों में प्राण गंवाने वाले  नागरिकों को श्रद्धांजलि।

मित्रो!

26/11/2008 से शुरू हुई अगली तीन भयावह रातें शायद ही कोई भारतीय भूला होगा। भारत की औद्योगिक राजधानी मुम्बई विदेशी खूनियों के मानो कब्जे में थी। भारतीय होने के नाते मैं और सुधा जी भी करोड़ों देशवासियों की तरह व्यथा और आक्रोश में थे। निरंतर विचार चल रहा था कि एक आम नागरिक की हैसियत से आतंक के विरुद्ध इस लड़ाई में हम सहयोग कैसे कर सकते हैं? लेखक होने के नाते मुझे शस्त्र के रूप में कलम दिखी। डिजाइनर सुधा जी ने ग्राफिक्स को चुना। शब्द और चित्र के इस संगम ने जन्म दिया संभवतः एक अनन्य प्रदर्शनी-‘शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’ को।

*’शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’* में लगभग 150 पोस्टर हैं। इनमें मुम्बई हमले के बाद भारतीय और अप्रवासी भारतीयों की कविताओं पर आधारित पोस्टर, आतंक को लेकर नागरिक द्वारा अपेक्षित सतर्कता, आतंक से लड़ने में  आम आदमी की भूमिका, आतंकी हमलों के चित्र, आतंकवाद के दूरगामी परिणाम जैसे अनेक विषय शब्द और चित्र के माध्यम से दर्शाये गए हैं।    

मित्रो! 26 जनवरी 2009 को पुणे के यशवंतराव आर्ट गैलरी से आरम्भ यह यात्रा मुम्बई के रवीन्द्र नाट्य मंदिर होते हुए अब तक हजारों नागरिकों तक पहुँच चुकी है।  पिछले कुछ वर्षों से इसे सीधे महाविद्यालयीन छात्र- छात्राओं तक पहुँचाने के लिए हमने इसका एक लघु संस्करण तैयार किया है। अनेक महाविद्यालयों में इसे प्रदर्शित किया जा चुका है।

यदि आप किसी महाविद्यालय/ कार्यालय/ सोसायटी/ क्लब/ बड़े समूह के लिए इसे आयोजित करना चाहें तो आतंक के विरुद्ध  जन -जागरण के इस अभियान में आपका स्वागत है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

: 5.04 बजे, 23.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

( गौ रक्षा)

प्रश्न:- अब गौरक्षा के बारे में अपने विचार बताइये।

उत्तर :- मैं खुद गाय को पूजता हूँ यानी मान देता हूँ । गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।

लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी- फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू- उपयोगी है।तब क्या गाय को बचाने के लिये मैं मुसलमान से लडूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनुंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिये समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है । अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक क़ानून है, ऐसा मैं तो मानता हूँ।

हाँ और नहीं के बीच हमेश वैर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद करूँगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमुंगा तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर वह न भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलायेगा। जब हमने जिद्द की तब गोकुशी बढी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गौ वध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पडी होगी।

मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पडूँगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए तो मुझे मुसलमान भाई के भी पाँव पड़ना चाहिए।

गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है? जो हिन्दू गाय की औलाद को पैना (आर) भोंकता है, उस हिन्दू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।

मेरी टिप्पणी :- गांधीजी की बात गौ रक्षा को लेकर सत्य ही है। हमारे शहर भोपाल में नवाबों का शासन रहा, तब आयोजनों में गौ मांस का प्रयोग खूब होता था, पर अब जब देश के विभिन्न शहरों से गौ तस्करों के पकडे जाने और उनपर प्राणघातक हमले की खबरें प्राय: सुनने में आती है तब भोपाल जो चारों ओर से कृषि आधारित गाँवों, कस्बों से घिरा है और मुस्लिम बहुल है वहाँ गौकुशी की खबर सुनाई नहीं देती, अखबारों में नहीं छपती। यह परिवर्तन आपसी समझ बूझ बढ़ने का ही परिणाम है।मुझे ऐसे दो अवसर याद हैं जब मैं मुसलमानों द्वारा ही गौ या भैंस का मांस खाने से बचाया गया। 1985  की घटना है मैं माँसाहार के लिए एक मुस्लिम होटल में गया, उसके संचालक ने मुझे माँस खिलाने से मना कर दिया। मेरे पूछने पर बोला आज भैस के पड़े का मटन है आप हिन्दू हैं आपको मैं यह कैसे खिला सकता हूँ ।दूसरी घटना दुबई की है, होटल में हम नाश्ता करने गए, मैंने चूकवश बीफ का टुकडा उठाया ही था कि वेटर जो कि पाकिस्तानी था उसने मुझे उसे लेने से रोका बताया यह बीफ है और आप हिन्दू है। इस प्रकार मैं दो बार धर्म च्युत होने से विधर्मियों द्वारा ही बचाया गया। जब हम गौ ह्त्या को रोकने की बात करते है तब हमें इसके आर्थिक पहलु की ओर भी ध्यान देना होगा। गरीब किसान बूढ़े मवेशी जो ना तो दूध देने की क्षमता रखता है और ना मेहनत की, उसको पालने का बोझ नहीं उठा सकता। गौशालाएं भी ऐसे जानवरों की उचित देखभाल नहीं करती और यह पशु आवारा हो सड़कों पर घूमते रहते हैं। आखिर इस समस्या का हल क्या है।  गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है?महात्मा गांधी की इसी बात में इस समस्या का हल है शायद।

अरुण कुमार डनायक , भोपाल

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