हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्रिकालदर्शी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – त्रिकालदर्शी ? ?

भविष्य से

सुनता है

अपनी कहानी,

जैसे कभी

अतीत को

सुनाई थी

उसकी कहानी,

वर्तमान में जीता है

पर भूत, भविष्य को

पढ़ सकता है,

प्रज्ञाचक्षु खुल जाएँ तो

हर मनुज

त्रिकालदर्शी हो सकता है!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 9.31 बजे, 9.4.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #44 – गीत –  प्रेम रंग डालें कान्हा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतप्रेम रंग डालें कान्हा

? रचना संसार # 44 – गीत – प्रेम रंग डालें कान्हा…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

नटखट कान्हा बीच डगर,

करता बरजोरी।

डूब रही है श्याम रंग,

ब्रज की भी छोरी।।

 

 शोर मचाती निकली है,

 मस्तों की टोली।

 कान्हा मारे पिचकारी,

 भीग गयी चोली।

 रंग की फुहारें चलतीं,

 जैसे हो गोली।।

 तन मन भी भीगा राधे,

 कैसी ये होरी।

 

 प्रेम रंग डालें कान्हा,

 छाईं है लाली।

 राधे मदहोश रंग में,

 मीरा मतवाली।।

 चुपके से आती ललिता,

 है भोली भाली।

 हँसी ठिठोली करतीं सब

 ब्रज की तो गोरी।।

 

मनहर मूरत मोहन की,

जादू है डाला।

चंचल चितवन कान्हा के

गले मणिक माला।।

छैल छबीला रसिया है,

गोकुल का ग्वाला।

मोहित ब्रज की हैं बाला,

पकड़ गई चोरी।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #271 ☆ भावना के मुक्तक – नारी ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के मुक्तक – नारी )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 271 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक – नारी ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चांदनी जैसी प्यारी है उसकी हंसी । ।।

सांस महके गुलाबों की गुल में बसी।

छू गई जो हवा बन के पागल कहीं,

धड़कनें बजती है रागिनी सी फंसी।

*

चाहे चलती हैं जोरो से भी आंधियां ।

मुश्किलों में भी रुकती नहीं नारियां ।

उसके हिम्मत के चर्चे बहुत है मगर ,

ऊंचा इतिहास रचती है  ये नारियां।।

*

जो धरा की तरह सब सहती रही

जो जल की तरह सिर्फ बहती रही

जो समझता है कमजोर दुनिया में,

लौह बनकर मजबूत होती रही।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #253 ☆ संतोष के दोहे… मोह-माया ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 253 ☆

☆ संतोष के दोहे… मोह-माया ☆ श्री संतोष नेमा ☆

दो रोटी दो जून की,खाकर शांति होय

पर माया में लिपट के,मन का आपा खोय

*

मन का आपा खोय,लालसा पड़ती भारी

धन दौलत का मोह,अज़ब है दुनियादारी

*

कहते कवि “संतोष”,लालची होता है जो

वक्त सिखाता सीख,माया बन्धन तोड़ दो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दुनिया ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – दुनिया ? ?

उसे दुनिया चाहिए थी,

वह दुनियावी न था,

दोनों ने बसा ली

अपनी-अपनी दुनिया,

सुनते हैं, अब उसे

दुनिया से वितृष्णा है,

वह अपनी दुनिया में

भरपूर खोया हुआ है,

एक बार फिर अलग-अलग हैं,

दोनों की अपनी-अपनी दुनिया…!

?

© संजय भारद्वाज  

7 अप्रैल 2025, दोपहर 3:39 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 239 ☆ सुखद भविष्य की राह… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सुखद भविष्य की राह। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 239 ☆ सुखद भविष्य की राह

अपने भविष्य का निर्माता व्यक्ति स्वयं होता है, यदि आप में  लगनशीलता का गुण नहीं है तो कुछ दिनों तक जोर शोर से कार्य करेंगे फिर अचानक से बंद कर देंगे, इससे आप अन्य लोगों की तुलना में जो अनवरत कुछ न कुछ कर रहे हैं उनकी अपेक्षा पिछड़ जाते हैं। इस सब में धैर्य का बहुत महत्व होता है, अधीर प्रवृत्ति वाले लोग जल्दी ही टूट जाते हैं और जो  भी हासिल करते हैं उसे तोड़- फोड़ कर नष्ट कर देते हैं।

अन्य लोगों की अपेक्षा भले ही आप बौद्धिक व शारीरिक रूप से कमजोर हों पर  आप में यदि  सबके प्रति स्नेह व मिल – बाँट कर रहने की  आदत है तो आप जितना दूसरों को देते हैं उससे कई गुना आपको वापस मिल जाता है। अतः निःस्वार्थ देने की प्रवृत्ति को अपनाएँ जिससे सबके साथ – साथ आपका भी कल्याण हो और अपने सुखद भविष्य के निर्माता स्वयं बन सकें।

आस के संग विश्वास जब आयेगा।

पुष्प बागों में सुंदर नज़र  आयेगा।।

साथ श्रद्धा व नेकी  की डोरी बँधे।

सत्य कर्मों से जीवन निखर आयेगा।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ महावीर जयंती विशेष – महावीर स्वामी के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

महावीर जयंती विशेष – महावीर स्वामी के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

वर्धमान महावीर को, सौ-सौ बार प्रणाम।

जैन धर्म का कर सृजन, रचे नवल आयाम।।

*

तीर्थंकर भगवान ने, फैलाया आलोक।

परे कर दिया विश्व से, पल में सारा शोक।।

*

महावीर ने जीतकर, मन के सारे भाव।

जीत इंद्रियाँ पा लिया, संयम का नव ताव।।

*

कुंडग्राम का वह युवा, बना धर्म दिनमान।

रीति-नीति को दे गया, वह इक चोखी आन।।

*

वर्धमान साधक बने, और जगत का मान।

जैनधर्म के ज्ञान से, किया मनुज-कल्याण।।

*

पंच महाव्रत धारकर, दिया जगत को सार।

करुणा, शुचिता भेंटकर, हमको सौंपा प्यार।।

*

जैन धर्म तो दिव्य है, सिखा रहा सत्कर्म।

धार अहिंसा हम रखें, कोमलता का मर्म।।

*

तीर्थंकर चोखे सदा, धर्म प्रवर्तक संत।

अपने युग से कर गए, अधम काम का अंत।।

*

मातु त्रिशला धन्य हैं, दिया अनोखा लाल।

जो करके ही गया, सच में बहुत कमाल।।

*

आओ ! हम सत् मार्ग के, बनें पथिक अति ख़ूब।

मानवता की खोज में, जाएँ हम सब डूब।।

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 246 ☆ बाल गीत – हो अपना मधुर व्यवहार… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 246 ☆ 

☆ बाल गीत – हो अपना मधुर व्यवहार ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सहज , सरल जीवन बने

मानव कर उपकार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

बिगड़े अपने काम बनेंगे

जीवन को हम महकाएँ ।

सत्यनिष्ठ , आचरण सुगंधित

फूलों – सा हम मुस्काएँ।

 *

मन पावन हो आचरण

बाँटें जग में प्यार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

द्वेष , कपट सब मिट जाते हैं

मन निर्मल हो जाता है ।

सोच  – समझकर मीठा बोलें

जटिल प्रश्न हल हो जाता है।।

 *

सदाचार का पाठ ही

है जीवन का सार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

जो भी मधु – सा मीठा बोलें

अपना ही उपकार करें।

गन्ने का रस मीठा बनकर

तन – मन में संस्कार भरें।

 *

भोजन शाकाहार का

करें प्रचार – प्रसार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

कोमल मन पहचान बनाए

मधुर नेह को उपजाता।

शौर्य पराक्रम स्वयं मिलेगा

मानव अंबर छू पाता।

 *

सदभावों , गुण,  प्रेम से

खुद का हो उपकार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #275 – कविता – ☆ हम जो समझ रहे अपना है ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता हम जो समझ रहे अपना है” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #275 ☆

☆ हम जो समझ रहे अपना है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हम जो समझ रहे अपना है

केवल सपना है

मृगमरीचिकाओं के भ्रम में

नाहक तपना है।

 

मौज मजे हैं साज सजे हैं

रोम-रोम संगीत बजे हैं

हो उन्मुक्त व्यस्त मस्ती में

दिन निद्रा में रात जगे हैं,

यही लालसा जग के

सब स्वादों को चखना है।….

 

साँझ-सबेरे लगते फेरे

दायें-बायें चित्र घनेरे

कुछ हँसते गाते मुस्काते

कुछ रोते चिल्लाते चेहरे,

द्वंद्व मचा भीतर अब

इनसे कैसे बचना है। ….

 

प्रश्नचिह्न है हृदय खिन्न है

अब उदासियाँ भिन्न-भिन्न है

भ्रमित भावनाओं के सम्मुख

खड़ा स्वयं का कुटिल जिन्न है,

बीती बर्फीली यादों में

कँपते रहना है।….

 

शिथिल शिराएँ बादल छाए

भटकन का अब शोक मनाए

फिसल रही है उम्र हाथ से

कौन साँझ को अर्घ्य चढ़ाए,

बीते पल-छिन गिनती गिन-गिन,

मन में जपना है

मृग-मरिचिकाओं के भ्रम में

नाहक तपना है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 99 ☆ झूठा भरम ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झूठा भरम” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 99 ☆ झूठा भरम ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

ख़ालिश देशीपन छूटा,

बस झूठा भरम लिए।।

 

शहर उनींदा

आलस ओढ़े,

आँखें मींज रहा।

धूप अल्गनी

पर टाँगे मन,

दिवस पसीज रहा।

 

सूरज का छप्पर टूटा,

संझा ने कदम छुए।

 

गंध सुरमयी

नहीं चूमती,

फूलों का मस्तक।

खारेपन से

हुई कसैली,

रिश्तों की पुस्तक।

 

अपनापन लगता जूठा,

लज्जा बेशरम जिए।

 

देहरी पर आ

पसर गया,

बाज़ारों का जादू।

सिमट गये हैं

अंकल अंटी,

में दादी दादू।

 

नानी का बचपन रूठा,

घाव सभी बेरहम हुए।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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