हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 31 ☆ गीत – अपने अम्बर का छोर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  द्वारा रचित एक गीत अपने अम्बर का छोर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 31 ☆ 

☆ गीत – अपने अम्बर का छोर ☆ 

मैंने थाम रखी

अपनी वसुधा की डोर

तुम थामे रहना

अपने अंबर का छोर.…

*

हल धर कर

हलधर से, हल ना हुए सवाल

पनघट में

पन घट कर, पैदा करे बवाल

कूद रहे

बेताल, मना वैलेंटाइन

जंगल कटे,

खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल

पजर गयी

अमराई, कोयल झुलस गयी-

नैन पुतरिया

टँगी डाल पर, रोये भोर.…

*

लूट सिया-सत

हाय! सियासत इठलायी

रक्षक पुलिस

हुई भक्षक, शामत आयी

अँधा तौले

न्याय, कोट काला ले-दे

शगुन विचारे

शकुनी, कृष्णा पछतायी

युवा सनसनी

मस्ती मौज मजा चाहें-

आँख लड़ायें

फिरा, न पोछें भीगी कोर….

*

सुर करते हैं

भोग प्रलोभन दे-देकर

असुर भोगते

बल के दम पर दम देकर

संयम खो,

छलकर नर-नारी पतित हुए

पाप छिपायें

दोष और को दे-देकर

मना जान की

खैर, जानकी छली गयी-

चला न आरक्षित

जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर….

*

सरहद पर

सर हद करने आतंक डटा

दल-दल का

दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा

बढ़ी अमीरी

अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी

अंतर में पलता

अंतर, बढ़ नहीं पटा

रमा रमा में

मन, आराम-विराम चहे-

कहे नहीं ‘आ

राम’ रहा नाहक शोर….

*

मैंने थाम रखी

अपनी वसुधा की डोर

तुम थामे रहना

अपने अंबर का छोर.…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 17 ☆ रामचरितमानस ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  raamcharitmanas।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 17 ☆

☆ रामचरितमानस 

रामचरित मानस कथा आकर्षक वृतांत

श्रद्धापूर्वक पाठ से मन होता है शांत

 

शब्द भाव अभिव्यक्ति पै रख पूरा अधिकार

तुलसी ने इसमे भरा है जीवन का सार

 

भव्य चरित्र श्री राम का मर्यादित व्यवहार

पढे औ समझे मनुज तो हो सुखमय संसार

 

कहीं न ऐसा कोई भी जिसे नही प्रिय राम

निशाचरों ने भी उन्हें मन से किया प्रणाम

 

दिया राम ने विश्व को वह जीवन आदर्श

करके जिसका अनुकरण जीवन में हो हर्ष

 

देता निश्छल नेह ही हर मन को मुस्कान

धरती पै प्रचलित यही शाश्वत सहज विधान

 

लोभ द्वेष छल नीचता काम क्रोध टकरार

शत्रु है वे जिनसे मिटे अब तक कई परिवार

 

सदाचार ही संजीवनी है समाज का प्राण

सत्य प्रेम तप त्याग से मिलते है भगवान

 

भक्ति प्रमुख भगवान की देती सुख आंनद

निर्मल मन मंदिर मे भी बसे सच्चिदानंद

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक मत… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता एक मत…।)

☆ कविता  ☆ एक मत … ☆

आप भी यहीं में भी यहीं,

बहुत कुछ घट रहा, यहाँ,

घरोँ से देखते हम, सभी,

दृश्य सूंदर लगे सबको,

कुछ खटकते मन में कभी,

 

इस चेहरों की किताब में,

कई पन्ने चेहरे,

चिपके कुछ अभी,

कुछ, नमस्ते कर मिले,

अब पीठ किये सभी,

 

तेरी सोच, मेरी सोच,

सोच का अंतर, ही सही,

तेरी बात, मेरी बात,,

बातों में बहस ही सही,

 

सोच का अंतर,

बहस का मुद्दा,

सही हो, ना सही,

इतना तो कीजे जनाब,

कहें अपनी,

मेरी सही हो ना सही,

 

विचारधाराओं के झंडों से परे,

एक, जहां औऱ भी है,

इंसानियत का,

जहां रहते सभी हैं, एकमत..

मानते यही ..हैं..

 

रँगे रहो मन, रंगरेज़ ले जेहैं,

अब्बई कह लेव, सुन लेव, सब,

कोनों को भरोसों नईये…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लेखन ☆

नित जागरण,

नित रचनाकर्म,

किस आकांक्षा से

इतना सब लिखा है..?

उसकी नादानी हँसा गई,

ऊहापोह याद दिला गई,

पग-पग पर, दुनियावी

सपनों से लड़ा है,

लेखक तो बस

लिखने के लिए बना है!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उमंग ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव

सुश्री अंजली श्रीवास्तव

☆ कविता ☆ उमंग ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव☆

बहुत दिनों से जीवन मेरा था लगता सूना सूना सा,

धड़क रहा था हृदय यूँ मेरा बस,जैसे मरा मरा सा।

 

यूँ तो काम सभी करती थी मानो बोझ हो कोई,

प्रत्यक्ष में तो जगती रहती थी,लेकिन सोई सोई।

 

न तो कोई आस थी हृदय में, न ही कोई उमंग थी,

विचारों की धारा थी मानो लक्ष्य विहीन पतंग थी।

 

तन से तो कुछ ही अस्वस्थ थी,मन पूरा विदीर्ण था,

कोई बात भाती न थी, मस्तिष्क इतना संकीर्ण था।

 

यूँ  तो इस स्थिति का कारण कुछ भी विशेष न था,

विश्व महामारी में सामाजिक जीवन ही शेष न था।

 

बात अगर सोचो तो बस,बात तो बहुत जरा सी है,

हर आत्मा अकेली है और अपनेपन की प्यासी है।

 

नगरबंद समाप्त हुआ,कुछ आशा का संचार हुआ,

कुछ तन और मन के मेरे, स्वास्थ्य में सुधार हुआ।

 

प्रियजनों से मिलने की, हृदय में जाग उठी उमंग,

हुआ उल्लसित हृदय, तन मन में उठने लगी तरंग!

 

© सुश्री अंजली श्रीवास्तव

26/11/2020

संपर्क – सी-767सेक्टर-सी, महानगर, लखनऊ – 226006

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 70 ☆ गीत – मुझको दो प्यारी सौगातें ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  भावप्रवण गीत  “गीत – मुझको दो प्यारी सौगातें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 70 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – मुझको दो प्यारी सौगातें ☆

मन की पीड़ा सुन लो अब तुम,

मुझको दो प्यारी सौगातें।

जीवन के खालीपन को तुम,भर  दो सुख से प्यारी रातें।।

 

झेली हमने अब तक पीड़ा,

जीवन में अब सुख बरसाओ।

मैं सपनों का शहजादा हूं

अपनी पीड़ा मुझे सुनाओ।

 

बार बार में कहता तुमसे,दे दो मुझको बीती बातें।।

 

मुझे सौंप दो आंसू सागर,

कंटक सारे दुख के बादल

चहक उठेंगी तेरी खुशियां

छटे सारे दुख के बादल।

 

खुशी तुम्हारे कदम चूमती,ले लो मुझसे सारी रातें।।

 

किया समर्पित अपनेपन को,

पूजा के सब भाव सजाकर।

दिया जलाया मन के अंदर

आरत की थाली ही बनकर।

 

विरहाग्नि शांत हुई अब तो,

कर दो  प्यार की बरसातें।

मन की पीड़ा सुन लो अब तुम,मुझको दो प्यारी सौगातें।

 

डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 61 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 61 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

अंतस दीपक जब जले, हो मन में उजियार

रखिये दीपक देहरी, रोशन हों घर द्वार

 

धर्म-कर्म ही बढ़ाता, अंतस का आलोक

यही लगाता है सदा, बुरे कर्म पर रोक

 

अंधकार की आदतें, रोकें सदा उजास

सूरज की पहली किरण, करतीं तम का नाश

 

सामाजिक सौहार्द्र में, रहे प्यार सहकार

सच्चे मानव धरम का, एक यही उपहार

 

लिए वर्तिका प्रेम की, दीप देहरी द्वार

दीवाली में हो रही, खुशियों की बौछार

 

धरती-सूरज-आसमाँ, सबका अपना मोल

इनके ये उपकार सब, होते हैं अनमोल

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विलुप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विलुप्त ☆

आती-जाती

रहती हैं पीढ़ियाँ

जादुई होती हैं

उम्र की सीढ़ियाँ,

जैसे ही अगली

नज़र आती है

पिछली तपाक से

विलुप्त हो जाती है,

आरोह की सतत

दृश्य संभावना में

अवरोह की अदृश्य

आशंका खो जाती है,

जब फूलने लगे साँस

नीचे अथाह अँधेरा हो

पैर ऊपर उठाने को

बचा न साहस मेरा हो,

चलने-फिरने से भी

देह दूर भागती रहे

पर भूख-प्यास तब भी

बिना लांघा लगाती डेरा हो,

हे आयु के दाता! उससे

पहले प्रयाण करा देना

अगले जन्मों के हिसाब में

बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना!

मैं जिया अपनी तरह

मरुँ भी अपनी तरह

आश्रित कराने से पहले

मुझे विलुप्त करा देना!

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 8:01 बजे, 21.4.19
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 50 ☆ छह मुक्तक ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “छह मुक्तक.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 50 ☆

☆ छह मुक्तक ☆ 

बाग- बाग मन रहे।

जिंदगी सुमन रहे।

छोड़िए उदासियाँ,

हर तरफ अमन रहे।।1

 

प्राण के भी अर्थ हों।

हम कभी न व्यर्थ हों।

जिंदगी है आइना,

दिखा सकें समर्थ हों। 2

 

शिष्ट है अशिष्ट है।

आदमी क्लिष्ट है।

अब सभी बदल रहा,

आज सब विशिष्ट है।। 3

 

उमंग हों, तरंग हो।

लय कभी न भंग हो।

प्राण पुष्प से खिलें

सुगंध ही सुगंध हो।। 4

 

सोचता अमन रहे।

जेब में कफ़न रहे।

जुड़ रहा मैं टूटकर

सच कोई सपन रहे।।5

 

वक्त एक- सा नहीं,

क्या गलत है क्या सही।

रोज ही सुकाम की

लिख रहे हम बही।।

आप स्वयं  जानिए

कुछ समय निकालिए।

सोच योग से बढ़ी

हो रही कुछ अनकही।। 6

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं और मेरा घर ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव

सुश्री अंजली श्रीवास्तव

(सुश्री अंजली श्रीवास्तव जी का ई – अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – मैं और मेरा घर।)

☆ कविता ☆ मैं और मेरा घर ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव☆

जब मायके की ड्योढ़ी छोड़ कर,

कुछ दाने चावल के फेंके थे मैंने,

नैनों में एक प्यारे से अपने घर के,

तभी मधुर स्वप्न भी देखे थे मैंने!

 

पति गृह आ कर फिर मैंने अपने ,

नए घर को हृदय से अपनाया,

किन्तु मेरे इस हठी नए घर ने,

मुझको सदा ही समझा पराया!

 

जब दो हठी जन टकराते रहे,

तो आनंद बहुत ही आता रहा,

मैं घर पर अधिकार जताती रही,

वह हरदम मुझे ठुकराता रहा!

 

अब त्रियाहठ के आगे आखिर,

इस घर की जीत कहाँ संभव भला,

इस घर को हृदय बड़ा करके,

फिर मुझको भी अपनाना पड़ा!

 

© सुश्री अंजली श्रीवास्तव

मकान नम्बर-सी-767सेक्टर-सी, महानगर, लखनऊ – 226006

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