हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 106 – कविता – बेटी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है / कन्या पर एक सारगर्भित एवं भावप्रवण कविता “बेटी ” । इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 106 ☆

? बेटी ?

धन्य धन्य यह भारत भूमि, जो संस्कारों का जतन करें।

बेटी ही वो सृष्टि है, मां बनकर कन्यादान करें।

 

जब हुआ धर्म का हनन, देवों ने मिलकर किया मनन।

बेटी रूप में शक्ति ने, सृष्टि को किया वरन।

 

सृष्टि की अनुपम माया है, बेटी की सुंदर काया है।

पुन्यात्मा वो मनुष्य बहुत, जिन्होंने बेटी धन पाया है।

 

नभ से आई गंगा धन, भूलोक समाई समाई सरिता बन।

सबको तारण करती है, हैं गंगा जल बेटी का तन।

 

सदियों से रीत चली आई, बेटियां होती सदा पराई।

नवजीवन जीवित रखने को, बेटियां दो कुलों में समाई।

 

रीत रिवाज सजाती बेटी, मां के संग बनाती रोटी।

बाबुल के घर आंगन में, रहती जैसे जन्म घुटी।

 

दिन बहना के सुनी कलाई, बिन बेटी अधूरी विदाई।

समय आ गया अब देखो, चांद में पांव बेटी धर आई।

 

बेटियां होती अनमोल धन, सदैव इसका इनका करें जतन।

दया धर्म करुणा ममता, खुशियों से भरा बेटी का मन।

 

धन्य धन्य यह भारत भूमि, जो संस्कारों का जतन करें।

बेटी ही वो सृष्टि है, मां बनकर कन्यादान करें।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (81-85)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (81-85) ॥ ☆

पर करने पर प्रार्थना कि वह थी निष्पाप

‘‘ दिव्य पुष्प दर्शन ” तक ही सीमित रक्खा श्शाप ॥ 81॥

 

क्रथि कैशिक कुल की वही इन्दु तुम्हारी रानी

श्शाप निवृति के पुष्प छू कर न सकी मनमानी ॥ 82॥

 

अतः न उसका श्शोक कर धरें धरा का ध्यान

नृप पृथ्वी पति है सदा, हर जन है प्रियमान ॥ 83॥

 

वैभव के मद से यथा रहे सदा तुम दूर

तज मन की दुख शिथिलता कर पौरूष भरपूर ॥ 84॥

 

रोने से क्या, मरण से ही अब वह अप्राप्य

मरण बाद कमनिुगत होते हैं पथ प्राप्य ॥ 85॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 67 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 67 –  दोहे ✍

आँसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविंद ।

विद्यापति का अश्रु दल, खिला गीत अरविंद।।

 

सत्य प्रेम से कर सके, जो सच्चा अनुबंध ।

जो पूजे श्रम देवता, भरे अश्रु सौगंध ।।

 

प्रियवर आये द्वार पर, मना लिया त्यौहार ।

पलक पावडे बिछ गए, आँसू वंदनवार ।।

 

नयन नयन से भर रहे, आँसू को अँकवार।

पूछ रहे कब मिले थे, हम तुम पिछली बार ।।

 

आँसू आए आंख में, पाहुन आए द्वार ।

आँसू पूछें  करोगे, कब तक अत्याचार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 67 – कड़क लहजे में सलीके… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कड़क लहजे में सलीके…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 67 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || कड़क लहजे में सलीके….. || ☆

बिम्ब जैसे दस बजे की इस किशोरी धूप का 

लगा आँचल को बताने जा रही है

एक हिस्सा गाँव  के प्रारूप का  

 

लग रही हो पेड़ कोई

सम्हलता अखरोट का

या नई खपरैल से

तिरता हुआ हो टोटका

 

कड़क लहजे में सलीके

से उभरता है रुका

अर्थ सांची के सुनहले से

किसी स्तूप का

 

किसी शासक की बसाई

राजधानी का नहीं

है तजुर्वा सूर्य की यह

बादशाहत का कहीं

 

लोग पूछें यह बसाहट क्यों

यहाँ  किस बात की है

तो बताना यह इलाका

रहा दिन के भूप का

 

बहुत मामूली लगे पर

है नहीं यह तय यहाँ

खोजना गर खोजियेगा

आप फिर चाहे जहाँ

 

आपकी मर्जी कदाचित

जो समझना समझिये

यह नहीं पनघट पुराना

गाँव के उस कूप का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी…. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – चुप्पी…. ??

मेरी चुप्पियाँ पढ़कर,

चुप्पी के किसी

नये आयाम की

जब-जब उन्होंने

नयी परिभाषा रची,

तब-तब मैंने

चुपचाप

एक नयी चुप्पी गढ़ी…!

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 12:11 बजे, 4 दिसंबर 2021

(प्रकाशनाधीन आगामी कवितासंग्रह ‘चुप्पियाँ’ से।)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #57 ☆ # महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 57 ☆

☆ #महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 # ☆ 

(बाबासाहेब के परिनिर्वाण पर आचार्य अत्रे जी के एक लेख से प्रेरित श्रद्धांजलि स्वरुप कविता)

शोषितों का उध्दारक

भ्रमितों का उपदेशक

अंधेरों का प्रकाशपुंज

आज अस्त हो गया

 

अंबर झुक गया

समय रूक गया

दिशाओं ने क्रंदन किया

मानव पस्त हो गया

 

गली गली में हाहाकार मच गया

घर घर में अंधकार बस गया

विधाता ने छीन लिया

हम सबका “बाबा “

अनाथों का दुःखी

संसार रच दिया

 

दौड़ पड़े मुंबई रेले के रेले

सुध नहीं थी कि

रूककर दम भी ले लें

आंखों से बहती धारा

हर एक था दुःख का मारा

आर्तनाद कर रहे थे

तू हमको भी उठाले

 

हर गली, गांव,कस्बा, शहर

वीरान हो गया

पल भर में एक शमशान हो गया

चूल्हें नहीं जले,

दीयें नहीं जलें

सर पटकर बिलखता

हर इंसान हो गया

 

मुंबई में जैसे

जन सैलाब आ गया

हर वर्ग के लोगों का

“सहाब” आ गया

पथ पर दौड़ते

दर्शन को प्यासे लोग

उनके आंखों का

टुटता हुआ ख्वाब आ गया

 

दादर की चैत्यभूमी पर है वो सोया

जिस व्यक्ति के निर्वाण पर

हर कोई है रोया

आज ही के दिन

हर वर्ष

यहां लगता है मेला

यहीं पर हम सबने

अपना “भीम” है खोया

 

ऐसे निर्वाण के लिए

“देव “भी तरसते होंगे

उनके हाथों से आकाश से

पुष्प बरसते होंगे

जीते जी जो इन्सान

” भगवान ” बन गया

उसके स्वर्ग आगमन से

वे भी लरजतें होंगे /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सोशल मीडिया ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – सोशल मीडिया ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

सोशल मीडिया आया रे भैया,

सोशल मीडिया आया रे।

सूचनाओं का भंडार है लाया,

सबका जोश जगाया रे।।

 

भारी बस्ता उतर कमर से,

पलकों पर आ ठहरा है।

बच्चों के तन मन पर देखो,

रेडिएशन का पहरा है।।

 

किसको अपना जख्म बताऊं,

जख्म बहुत ही गहरा है।

खुद को बैद्य समझ रहा है,

ये संसार तो बहरा है।।

 

सवाल उठ रहे रोज है इस पर,

युवा ,मीडिया को उछाल रहे।

मनमर्जी चेहरे की सेल्फी,

पोस्ट मीडिया पर कर रहे।।

 

कौन कहां है,किधर बिजी है,

खबर दे रहा सबकी ये।

प्रतिस्पर्धी सनसनी खेज न्यूज़

सबकी मीडिया पर परोस रहे।।

 

चमक रहे धुंधले चेहरे,

भले ही हों उस पर पहरे।

मिले सूचना जब कोई तो,

राज खोलता ये गहरे।।

 

क्या खाया, क्या पीया

सबका हो रहा प्रचार यहां।

फेक न्यूज़ और ट्रोल का

गज़ब हो रहा प्रसार यहां।।

 

सोशल मीडिया बदल रहा है,

हर एक बन्दे की सोच।

वाट्सएप, ट्विटर, फ़ेसबुक, इंस्टा

सब पर कर रहा एप्रोच।।

 

सोशल मीडिया पर हर किसी का,

हंसी का सफर है जारी ।

कुछ शादी शुदा लोग बता रहे ,

खुद को बाल ब्रह्मचारी ।।

 

लोकतंत्र का पंचम स्तंभ,

बन बैठा सोशल मीडिया।

गलत फैंसले गवर्नमेंट के,

बदल रहा सोशल मीडिया।।

 

जो ना कह पाते थे कभी,

टी वी चैनल ,अखबार में अपनी बात।

आज सोशल मीडिया पर

बड़ी सहजता से रख रहे अपने जज्बात।।

 

बच्चे ,बूढ़े सब हो रहे ,

सोशल मीडिया पर बिजी।

कोई सुनाए अपनी व्यथा,

तो कोई सुनाए बत्तीसी।।

 

आधुनिकता के रंग में रंग,

हक़ीक़त से बना बैठे हम दूरी।

नकली दुनिया की अंधी दौड़ में,

दिखाबे की ये हाय कैसी मज़बूरी।।

 

सदुपयोग करें वरदान है ये,

दुरुपयोग से बनता अभिशाप है ये।

सोशल मीडिया आया है तब से,

लोगों के दिलों में छाया ये।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (76-80) ॥ ☆

कहा अधूरा है अभी यज्ञ अतः सब जान

यह दुराह्रा दुख घटाने आ न सके धीमान ॥ 76॥

 

उनका लघु संदेश कुछ मुझसे सुन सम्राट

घैर्य हृदय में धारिये हे विख्यात विराट ॥ 77॥

 

हैं त्रिकालदर्शी गुरू, ज्ञात उन्हें है त्रिकाल

सदा ज्ञानमय नयन से लखते सब तत्काल ॥ 78॥

 

करते तप, तृण बिन्दु ऋषि से शंकित देवेश

ने भेजी तपभंग हित ‘हरिणी’ परी सुवेश ॥ 79॥

 

मुनि ने उसको, शांति में जो थी प्रलय समान

क्रोधित हो शापित किया बनने नारि अजान ॥ 80॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 69 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 69 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 69) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 69☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कितना मुश्किल है, इस अंदाज़

में जिंदगी बसर करना

तुम्हीं से फ़ासला रखना

और तुम्हीं से इश्क़ करना…

 

How difficult it is to

live in this manner

To keep distance from

you and love you too…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तेरे  वजूद  में  मैं

काश यूँ उतर जाऊँ

तू  देखे आईना और

मैं  तुझे  नज़र  आऊँ…

 

Wish if I could merge in

your existence so much

That you see the mirror

and I should  appear..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कभी परखना नहीं अपनों को,

परखने से कोई अपना नहीं रहता

वैसे भी देर तलक किसी आईने में

कभी कोई चेहरा नहीं रहा करता …..

 

Never put your loved ones to test,

if done, no one remains your own

As such, a face never stays

for a long time in a mirror…..!

 

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

चली आती है तेरी याद

अक्सर  मेरे  ज़ेहन में

तुझे हो ना हो तेरी यादों को

जरूर मुझसे मोहब्बत है…!

 

Your memories often knock

at the door of my mind

You may or may not but

your memories do love me…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 69 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘दोहा सलिला … ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 69 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆

भौजी सरसों खिल रही, छेड़े नंद बयार।

भैया गेंदा रीझता, नाम पुकार पुकार।।

समय नहीं; हर किसी पर, करें भरोसा आप।

अपना बनकर जब छले, दुख हो मन में व्याप।।

उसकी आए याद जब, मन जा यमुना-तीर।

बिन देखे देखे उसे, होकर विकल अधीर।।

दाँत दिए तब थे नहीं, चने हमारे पास।

चने मिले तो दाँत खो, हँसते हम सायास।।

पावन रेवा घाट पर, निर्मल सलिल प्रवाह।

मन को शीतलता मिले, सलिला भले अथाह।।

हर काया में बसा है, चित्रगुप्त बन जान।

सबसे मिलिए स्नेह से, हम सब एक समान।।

*

मुझमें बैठा लिख रहा, दोहे कौन सुजान?

लिखता कोई और है, पाता कोई मान।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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