हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 111 ☆ सॉनेट ~ दशहरा… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट ~ दशहरा…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 111 ☆ 

☆ सॉनेट ~ दशहरा ☆

दश हरा, मन जीत जाता

पंच ज्ञानेंद्रिय न रीतें

पंच कर्मेंद्रिय न बीतें

ईश पद सिर सिर नवाता।

 

नाद प्रभु का गान करता

ताल हँस संगति निभाता

थाप अविचल संग आता

वाक् लहरित तान भरता।

 

शब्द आप निशब्द होते

अर्थ अपने अर्थ खोते

जागते नहिं, नहीं सोते।

 

भाव हो बेभाव जाता

रसिक रस में डूब जाता

खुद खुदी को, खुदा पाता।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संवस

६-१०-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #143 ☆ कविता – क्या रावण जल गया? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 143 ☆

☆ ‌कविता – क्या रावण जल गया? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हर साल जलाते हैं रावण को, फिर भी अब-तक जिंदा है।

वो लंका छोड़ बसा हर मन में, मानवता शर्मिंदा हैं।

 

हर साल जलाते रहे उसे, फिर भी वो ना जल पाया।

जब हम लौटे अपने घर को, वो पीछे पीछे घर आया।

 

मर्यादाओं की चीर हरे वो, मानवता चीत्कार उठी।

कहां गये श्री राम प्रभु, सीतायें  उन्हें पुकार उठी।

 

अब हनुमत भी लाचार हुए, निशिचरों ने उनको फिर बांधा।

शूर्पणखायें घूम रही गलियों में, है कपट वेष अपना‌ साधा।,

 

कामातुर जग में घूम रहे, आधुनिक बने ये नर-नारी।

फिर किसे दोष दे हम अब, है फैशन से सब की यारी।

 

आधुनिक बनी जग की नारी, कुल की मर्यादा लांघेगी।

फैशन परस्त बन घूमेगी, लज्जा खूंटी पर टांगेगी।

 

जब लक्ष्मण रेखा लांघेगी, तब संकट से घिर जायेगी।

फिर हर लेगा कोई रावण, कुल में दाग लगायेगी।

 

कलयुग के  लड़के राम नहीं, निशिचर,बन सड़क पे ‌घूम रहे।

अपनी मर्यादा ‌भूल गये, नित नशे में वह अब झूम रहे।

 

रावण तो फिर भी अच्छा था, राम नाम अपनाया था।

दुश्मनी के चलते ही उसने, चिंतन में राम बसाया था।

 

श्री राम ने अंत में इसी लिए, शिक्षार्थ लखन को भेजा था।

सम्मान किया था रावण का, अपने निज धाम को भेजा था।

 

अपने चिंतन में हमने क्यों, अवगुण रावण का बसाया है।

झूठी हमदर्दी दिखा दिखा, हमने अब तक क्या पाया है।

 

उसके रहते  अपने मन में, क्या राम दरस हम पायेंगे।

फिर कैसे पीड़ित मानवता को, न्याय दिला हम पायेंगे।

 

इसी लिए फिर ‌बार‌ बार, मन के रावण को मरना होगा।

उसकी पूरी सेना का, शक्ति हरण अब करना ‌होगा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #160 – 46 – “चश्मे मुहब्बत सजाए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “चश्मे मुहब्बत सजाए …”)

? ग़ज़ल # 46 – “चश्मे मुहब्बत सजाए …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

बहुत पापड़ बेले हैं ऐसे ही तेरे सनम नहीं हुए

हमारी खोपड़ी पर बाल बेवजह कम नहीं हुए। 

उस्तादों के ख़ूब नाज़ उठाए और गालियाँ खाईं

फ़क्त रियाज़ करके बलिश्त दमख़म नहीं हुए।

हम तक आते-आते खुट जाती उनकी बख़्शीश,

हौसले इम्तिहान के फिर भी कम नहीं हुए। 

चश्मे मुहब्बत सजाए इन रहे हसीन वादियों में,

लद्दाख़ के वीरान पहाड़ों से तेरे बलम नहीं हुए। 

मुहब्बत में हर दम बेचैनी बेसबब नहीं है ‘आतिश’

रूह भटकेगी जब तलक मशवरे बाहम नहीं हुए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 37 ☆ मुक्तक ।।मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 37 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मानवता की  जीत दानवता की हार हो जाये।

प्रेम    से  दूर   अपनी  हर  तकरार हो जाये।।

महोब्बत    हर    जंग    पर    होती    भारी  है।

यह दुनिया बस इतनी सी समझदार हो जाये।।

[2]

संवेदना बस हर किसी का सरोकार हो जाये।

हर   कोई   प्रेम   का   खरीददार  हो    जाये।।

नफ़रतों    का    मिट    जाये   हर  गर्दो  गुबार।

धरती  पर  ही  स्वर्ग  सा  यह  संसार  हो जाये।।

[3]

काम  हर किसी का परोपकार हो जाये।

हर मदद को आदमी दिलदार हो जाये।।

जुड़ जाये हर दिल से हर दिल का ही तार।

तूफान खुद नाव  की पतवार हो  जाये।।

[4]

अहम   हर  जिंदगी  में  बस  बेजार  हो  जाये।

धार  भी  हर  गुस्से  की   बेकार   हो   जाये।।

खुशी  खुशी  बाँटे  आदमी  हर  इक सुख को।

गले से गले लगने को आदमी बेकरार हो जाये।।

[5]

हर    जीवन   से   दूर  हर    विवाद   हो   जाये।

बात घृणा की जीवन में कोई अपवाद हो जाये।।

राष्ट्र  की  स्वाधीनता  हो   प्रथम   ध्येय   हमारा।

देश  हमारा  यूँ  खुशहाल  आबाद   हो   जाये।।

[6]

वतन  की  आन  ही  हमारा  किरदार  हो   जाये।

दुश्मन के लिए जैसे हर बाजू ललकार हो जाये।।

राष्ट्र  की   गरिमा    और    सुरक्षा   हो  सर्वोपरि।

बस  इस  चेतना  का  सब में  संचार  हो  जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आँखें ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – आँखें ??

देखती हैं वर्तमान,

बुनती हैं भविष्य,

जीती हैं अतीत,

त्रिकाल होती हैं आँखें…!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 103 ☆’’हासिल नहीं होता कुछ भी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक रचना “हासिल नहीं होता कुछ भी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #103 ☆’’हासिल नहीं होता कुछ भी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

औरों के हर किये की खिल्ली उड़ाने वालो

अपनी तरफ भी देखो, खुद को जरा संभालों।

 

बस सोच और बातें देती नहीं सफलता

खुद को बड़ा न समझों, अभिमान को निकालो।

 

हासिल नहीं होता कुछ भी, डींगे हाँकने से

कथनी के साथ अपनी करनी पै नजर डालो।

 

सुन-सुन के झूठे वादे पक गये हैं कान सबके

जो कर न सकते उसके सपने न व्यर्थ पालो।

 

सब कर न पाता पूरा कोई भी कभी अकेला

मिलकर के साथ चलने का रास्ता निकालो।

 

आशा लगाये कब से पथरा गई हैं ऑखें

चाही बहार लाने के दिन न और टालो।

 

जो बीतती है मन पै किससे कहो बतायें

बदरंग हुये घर को नये रंग से सजालो।

 

कोई ’विदग्ध’ अड़चन में काम नहीं आते

कल का तो ध्यान रख खुद बिगड़ी तो बना लो।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नकार☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – नकार ??

असंख्य जीवों को

काल के गाल में समाते

निहार रहा हूँ मैं..,

ये फोटो, ये क्लिक,

प्रशंसागीत, महिमामंडन,

बार्टर के समीकरण,

सविनय नकार रहा हूँ मैं…!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:57 बजे, 12.9.2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #153 ☆ भावना के दोहे… आँखें ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे…आँखें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 153 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… आँखें ☆

तिनका लगता आँख में, होती है जब पीर।

आँखों के इस दर्द से, बहता है जब नीर।।

आँखों के इस दर्द का, न है कोई इलाज।

नीर-नीर बहता रहे, दर्द है लाइलाज ।

आँखें तेरी देखकर, है सुख का आभास।

बहे कभी भी नीर तो, रहूँ सदा मैं पास ।।

आँखों-आँखों  ने कहा, तू है मेरा कौन।

अनुरागी संकेत से, आँखें होती मौन।।

आँखों ने अब पढ़ लिया, तू है मेरा मीत।

कैसे तुझसे कब मिलूँ, झरता है संगीत।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #140 ☆ संतोष के दोहे – भ्रष्टाचार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – भ्रष्टाचार। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 140 ☆

 ☆ संतोष के दोहे – भ्रष्टाचार ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नैतिकता जब सुप्त हो, जागे भ्रष्टाचार

बेईमानी भरी तो, बदल गए आचार

 

हरड़ लगे न फिटकरी, खूब करें वे मौज

अब के बाबू भ्रष्ट हैं, इनकी लम्बी फ़ौज

 

कौन रोकता अब किसे, शासक, नेता भ्रष्ट

अंधा अब कानून है, जनता को बस कष्ट

 

हुआ समाहित हर जगह, किसको दें हम दोष

बन कर पारितोषिक वह, दिला रहा परितोष

 

दया-धर्म सब भूलकर, निष्ठुर होता तंत्र

भ्रष्टाचारी जानते, बस दौलत का मंत्र

 

आमदनी है अठन्नी, खर्च करें दस बीस

महल घूस का बना कर, बनते मुफ्त रईस

 

फैशन सा अब बन गया, देखो भ्रष्टाचार

मानवता अब सिसकती, देख भ्रष्ट आचार

 

लालच में जो बेचते, अपना स्वयं जमीर

किये बिना संघर्ष ही, चाहें  बनें अमीर

 

चुने कौन संतोष अब, संघर्षों की राह

पैसे जल्दी बन सकें, बस रखते यह चाह

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रतौंध☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संजय दृष्टि – रतौंध ??

रतौंध की मारी

निकली पीड़ाएँ,

मुझे देह समझ,

निशाना बनाती रहीं,

देह के आर-पार बसी

मेरी जिजीविषा,

इस नादानी पर

मुस्कराती रही।

© संजय भारद्वाज

(बुधवार 20 सितम्बर 2017, प्रातः 6:37 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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