हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 96 ☆ ’’नारी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “नारी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 97 ☆ नारी” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

 

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ “प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी”

 

परिवार की है प्रेरणा, जीवन का उत्स है

है प्रीति की प्रतिमूर्ति सहन शक्ति है नारी

 

ममता है माँ की साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

 

कोमल है फूल सी, कड़ी चट्टान सी भी है

आवेश, स्नेह, भावना, अनुरक्ति है नारी

 

सहधर्मिणी, सहकर्मिणी सहगामिनी भी है

है कामना भी, कामिनी भी, स्वामिनी भी है

 

संस्कृति का है आधार, हृदय की पुकार है

सावन की सी फुहार है, आसक्ति है नारी

 

नारी से ही संसार ये, संसार बना है

जीवन में रस औ” रंग का आधार बना है

 

नारी है धरा, चाँदनी अभिसार प्यार भी

पर वस्तु नही एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यक्ष प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

 ? संजय दृष्टि – यक्ष प्रश्न ??

किताब पढ़ना,

गाने सुनना,

टीवी देखना,

तेल लगाना,

औंधे पड़ना,

शवासन करना,

चक्कर लगाना,

दवाई खाना..,

नींद के लिए रोज़ाना

हज़ार हथकंडे

अपनाता है आदमी..,

जाने क्या है,

आजीवन सोने को उन्मत्त

पर अंतिम नींद से

घबराता है आदमी..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #147 ☆ भावना के मुक्तक… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के मुक्तक।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 147 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक… 

शहीदों ने जो फरमाया वतन के काम आया है।

लहू का तेरे कतरा तो यही पैगाम लाया है।

किए है प्राण निछावर देश की खातिर हमने तो।

हर घर में तिरंगा आज तो फिर से लहराया है।।

🇮🇳

वतन के काम आया है लहू का तेरे कतरा  तो

शहीदों की शहादत में लिखा है नाम  तेरा   तो

तुम्हें शत शत नमन मेरे वतन के हो चमन तो तुम

तेरा सम्मान करते है करे  एलान तेरा तो।।।।

🇮🇳

वतन की याद आती है हमारा मन नहीं लगता।

हरा भरा है ये जीवन हमें सावन नहीं लगता।

वतन के वास्ते तुमने किया अपने को ही अर्पण।

तुम्हारे बिन ये जीवन तो हमें उपवन नहीं लगता।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #134 ☆ संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 134 ☆

☆ संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सारे बंधन टूटते, खुलें प्रेम के द्वार

कृष्ण प्रकट होकर करें, खुशियों का संचार

 

रक्षा करते धर्म की, करें दुष्ट संहार

हर्षित हैं माँ देवकी, पा कृष्णा उपहार

 

चकित हुईं माँ देवकी, देख चतुर्भुज रूप

शिशु रूप में आईये, हे प्रभु जी सुर भूप

 

बाल रूप में प्रकट हो, भरें खूब किलकार

मुदित हुईं माँ देवकी, अनुपम रूप निहार

 

बजी श्याम की बाँसुरी, झंकृत मोहक तान

राधा बेसुध दौड़तीं, संध्या निशा विहान

 

बाल कन्हैया के दिखें, नित नित अभिनव रूप

अंगुली चूसें पाँव की, अनुपम लगे स्वरूप

 

यमुना जी यह चाहतीं,  प्रभु पद रख लूँ माथ

चरण कमल स्पर्श कर, मैं भी बनूँ सनाथ

 

चंदन सी महके सदा, ब्रज की रज शृंगार

अवसर जब हमको मिले, ब्रज रज करें पखार

 

धन्य धन्य ब्रज भूमि है, श्याम लिए अवतार

मन में भरिये आस्था, रखिये दिव्य विचार

 

श्याम चरण रज चाहते, दूर करें सब दोष

हम अज्ञानी स्वार्थी, हमको दें “संतोष”

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बंधन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – बंधन  ??

खुला आकाश,

रास्तों की आवाज़

बहता समीर,

गाता कबीर,

सब कुछ मौजूद है

चलने के लिए..,

पर ठिठके पैर,

खुद से बैर,

निढाल तन,

ठहरा मन..,

हर बार सांकल,

पिंजरा या क़ैद

ज़रूरी नहीं होते

बांधे रखने के लिए !

© संजय भारद्वाज

प्रातः 11.57 बजे, 5.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 124☆ बाल रचना – कृष्णावतार और मुन्ना जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 124 ☆

☆ बाल रचना – कृष्णावतार और मुन्ना जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

 (बच्चों के लिए रचना कैसे हुआ भगवान कृष्ण का जन्म ?) 

बोला मुन्ना मात से , कृष्ण लिए अवतार।

कैसे जन्मे कृष्ण जी , मुझे बताओ सार ।।

 

सुनो पुत्र पावन कथा, श्री कृष्ण  भगवान।

अपने ही वरदान से , दिया देवकी – मान।।

 

उग्रसेन ने पुत्र का , नाम रखा था कंस।

अतिशय ही वह क्रूर था, देता सबको दंश।।

 

उग्रसेन राजा हुए, मथुरा ब्रज के धाम।

वे उदार प्रभु भक्त थे, करते जनहित काम।।

 

उग्रसेन के भ्रात थे, देवक उनका नाम।

पुत्री उनकी देवकी, जने उसी ने श्याम।।

 

हुआ ब्याह वसुदेव से, जो कुंती के भ्रात।

मंत्री मथुरा राज के, बँधी देवकी साथ।।

 

विदा हुई जब देवकी, रथ को हाँके कंस।

बहुत खुशी था आज वह, जैसे मानस हंस।।

 

रथ लेकर आगे बढ़ा , आई यह आवाज।

कंस काल सुत आठवाँ, छीने तेरा ताज।।

 

जैसे ही उसने सुना, बहना का सुत काल।

गुस्से में वह भर गया, हुआ चेहरा  लाल।।

 

तुरत – फुरत वापस हुआ, डाला उनको जेल।

जंजीरों में जकड़कर , नहीं करा फिर मेल।।

 

उग्रसेन क्रोधित हुए , किया कंस प्रतिरोध।

कंस न माना एक भी, भूल गया सब बोध।।

 

कैद किए अपने पिता, डाला कारागार।

मद , घमण्ड में भूलकर , खूब किया प्रतिकार।।

 

राजा मथुरा का बना, बढ़ गए अत्याचार।

मनमानी वह नित करे, बढ़े पाप के भार।।

 

भद्र अष्टमी व्योम घन, छाईं खुशी अपार।

मातु देवकी गर्भ से , हुआ कृष्ण अवतार।।

 

पुत्र आठवें कृष्ण थे, सत्य हुई यह बात।

बरसे जमकर मेघ तो, थी अँधियारी रात।।

 

ताले टूटे जेल के , हुआ कृष्ण अवतार।

प्रहरी सोए नींद में, मातु कर रही प्यार।।

 

वासुदेव गोकुल चले, सुत को लेकर साथ।

शेषनाग अवतार ने , ढका कृष्ण का गात।।

 

यमुना जी भी घट गईं, किया कृष्ण को पार।

घर आए वह नन्द के, प्रभु की कृपा अपार।।

 

लिटा पलँग पर कृष्ण को, हो वसुदेव निहाल।

प्रभु की लीला चल रही, अदभुत मायाजाल।।

 

मातु यशोदा नींद में , रिमझिम है बरसात।

बेटी उनकी साथ ले, लौटे रातों – रात।।

 

जन्मे माता रोहिणी , सुंदर से बलराम।

जग में प्यारे नाम हैं, बलदाऊ औ’ श्याम।।

 

धन्य यशोदा हो गईं , पाकर के गोपाल।

गोकुल में खुशियाँ बढ़ीं, उच्च नन्द का भाल।।

 

अत्याचारी कंस के , बढ़े पाप आचार।

चली एक कब कंस की, ईश लिए अवतार।।

 

बलदाऊ सँग कृष्ण ने, किए अनेकों खेल।

गोकुल रसमय हो गया, बढ़ा प्रेम अरु मेल।।

 

गाय चराईं कृष्ण ने, ग्वालों के नित संग ।

कभी चुराते मधु , दही , सभी देखकर दंग।।

 

मिश्री , माखन, दही प्रिय, उनको भाए खूब।

रोज करें नाटक नए , कभी न आए ऊब।।

 

हँस – हँस बीता बालपन, किए चमत्कृत काम।

देख चकित गोकुल हुआ, मनमोहन – बलराम।।

 

कंस किया मलयुद्ध को, मिला निमंत्रण श्याम।

साथ – साथ दोनों चले, कृष्ण और बलराम।।

 

छोटे से ही कृष्ण ने, मल्ल भी दिए पछाड़।

अत्याचारी कंस को, दिया उसी दिन मार।।

 

कैद से छूटे मातु – पित, और नानु उग्रसेन।

खुशियाँ घर – घर बढ़ गईं, प्रेम में भीगे नैन।।

 

मातु देवकी खुश बहुत, और पिता वसुदेव।

कृष्ण सभी को प्रिय हैं, हैं देवों के देव।।

 

मुन्ना भी खुश बहुत था, सुनकर कृष्णावतार।

भक्तों का करते रहे, सदा कृष्ण उद्धार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#147 ☆ हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके कुछ यथार्थवादी दोहे  हो यथार्थ पर ध्यान…”)

☆  तन्मय साहित्य # 147 ☆

☆ हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

यश-अपयश के बीच में, बहती जीवन धार।

निश्छल मन करता रहे,  जीव मात्र से प्यार।।

 

अति वर्जित हर क्षेत्र में, अति का नशा विचित्र।

अति से  दुर्गति ही  सदा,  छिटके सभी सुमित्र।।

 

कब बैठे सुख चैन से, नहीं  किसी को याद।

कल के सुख की चाह में, आज हुआ बर्बाद।।

 

फुर्सत मिलती है कहाँ, सबके मुख यह बोल।

बीते  समय  प्रमाद में,  कहाँ समय का मोल।।

 

फैल रही चारों तरफ, यश की मुदित बयार।

पेड़ सहेगा क्यों भला, म्लान पुष्प का भार।।

 

ज्यों-ज्यों खिलता पुष्प है, महके रस स्वच्छंद।

रसिक भ्रमर  मोहित  हुए,  पीने को  मकरंद।।

 

कागज के सँग कलम का, है अलिखित अनुबंध।

प्रीत  पगी   स्याही  मिले,  महके   शब्द   सुगंध।।

                    

आदर्शों की  बात अब,  करना है  बेकार।

छल-छद्मों से घिर गए, हैं आचार-विचार।।

 

सजा मिले सच बोलते, झूठों की जय कार।

हवा  भाँपकर  जो चले, उसका  बेड़ा  पार।।

 

जाति धर्म औ’ पंथ के, भेदभाव  को  त्याग।

समता भावों में छिपा, जीवन-सुख अनुराग।।

 

चिह्न  समय की  रेत पर, बनते मिटते मौन।

पल-पल परिवर्तन करे, वह अबूझ है कौन।।

 

कौन भरे रस नारियल, सरस संतरे, आम।

एक बीज हो सौ गुना, है ये किसका काम।।

 

बुद्धि विलास बहुत हुआ,  तजें कागजी ज्ञान।

कुछ पल साधे मौन को, हो यथार्थ पर ध्यान।।

 

खुद ही खुद को छल रहे, बन कर के अनजान।

भटक रहे  हैं  भूल कर,  खुद की  ही  पहचान।।

 

अहंकार मीठा जहर, नई-नई नित खोज।

व्यर्थ लादते गर्व को, अपने सिर पर रोज।।

                      

अनुत्तरित हम ही रहे, जब भी किया सवाल।

हमें  मिली  अवमानना,  उनको  रंग  गुलाल।।

 

चमकदार    संवेदना,    बदल    गया   प्रारब्ध।

अधुनातन गायन रुदन, नव तकनिक उपलब्ध।।

 

हुआ अजीरण  बुद्धि का,  बढ़े घमंडी बोल।

आना है फिर शून्य पर, यह दुनिया है गोल।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 35 ☆ गीत – आज फिर तुमने रुलाया… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत  “आज फिर तुमने रुलाया… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 35 ✒️

? गीत – आज फिर तुमने रुलाया… — डॉ. सलमा जमाल ?

आज फिर तुमने रुलाया।

मुझसे बिछुड़ा मेरा साया।।

 

है अमावस का अंधेरा,

देर से होगा सवेरा,

झींगुरों ने लय बद्ध होकर,

सोये भावों को जगाया।

आज फिर —————-।।

 

बादलों की गड़गड़ाहट,

उस पर पवन की सरसराहट,

उजड़ न जाए नीड़ साथी,

था जतन से हमने बनाया।

आज फिर —————-।।

 

क्या कहा तुमने अभी,

समझूं तुम्हें मैं अजनबी,

सात जन्मों के बंधन को,

कटु शब्दों ने क्षण में भुलाया।

आज फिर —————-।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 47 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे किले पर खड़ा तिरंगा….। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 47 – मनोज के दोहे …. 

अधर फड़कते रह गए, प्रियतम आए द्वार।

प्रेम-पियासे ही रहे, मिला न कुछ उपहार।।

 

रच-हाथों में मेहँदी, बाँधा बिखरे -केश।

पावों में अलता लगा, चली सजन के देश।।

 

अलकें लटकीं गाल पर, सपन सलोना रूप।

आँखों में साजन बसे, ऋतु बसंत की धूप।।

 

कंपन करते ओष्ठ हैं, पिया-सेज-शृंगार ।

नव जीवन की कल्पना, खड़े प्रेम के द्वार।।

 

अलि के कानों में कहा, जाती बाबुल देश।

रक्षाबंधन आ रहा, भाई का संदेश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क्षण-क्षण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

 ? संजय दृष्टि – क्षण-क्षण ??

मेरे इर्द-गिर्द

बिखरे पड़े

हज़ारों क्षण,

हर क्षण खिलते,

हर क्षण बुढ़ाते क्षण,

मैं उठा,

हर क्षण को तह कर,

करीने से समेटने लगा,

कई जोड़ी आँखों में

प्रश्न भी उतरने लगा,

क्षण समेटने का

दुस्साहस कर रहा हूँ,

मैं यह क्या कर रहा हूँ?

अजेय भाव से मुस्कराता,

मैं निशब्द,

कुछ कह न सका,

समय साक्षी है,

परास्त वही हुआ जो,

अपने समय को

सहेज न सका।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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