हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #185 ☆ अपनी यही कहानी… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण कविता  अपनी यही कहानी।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 185 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – अपनी यही कहानी… ☆

तेरी मैं दिवानी

अपनी यही कहानी।

 

मिला तेरा प्यार

बीती है जवानी

 

साथ तेरा प्यारा

प्यारी है निशानी

 

जिंदगी सही है

जीवन है रवानी

 

बातें तेरी मीठी

सबको है सुनानी

 

कहते सबको सुनते

अपनी ही कहानी

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #171 ☆ “एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 171 ☆

 ☆ “एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया☆ श्री संतोष नेमा ☆

भैया सोच समझ  खें  बोलो

तुरत न मन की  बातें खोलो

बड़ो  कठिन है  जो समईया

तन्नक  मिसरी  मुंह में  घोलो

सबकी  करो   खूब  चिन्हारी

अपनों  खों  कबहुँ  ने  तोलो

जो  हांकत   थे   ढींगे   भारी

वो भी  भीतर  निकरो  पोलो

अबे   बखत  है   जागो  भैया

नाहिन  लुटिया   खुदै  डुबोलो

पीर    पराई   देख   पिघलियो

औरन  के  भी  दुख  में  रो लो

समझ सको ने  बहरूपियों खों

संतोष    है     बहुतई     भोलो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “संत कबीर पर दोहे…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

“संत कबीर पर दोहे…☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

सद्गुरु प्रखर कबीर थे, दे जग को आलोक।

परे किया अज्ञान का, फैला था जो शोक।।

ऊँचनीच के भेद को, किया सभी से दूर।

हे!कबीर गुरुदेव तुम, बने जगत के नूर।।

ढोंग और पाखंड पर, करके सतत प्रहार।

सामाजिक समरूपता, का फैलाया सार।।

हे!कबीर तुम युगपुरुष, सारे जग की शान।

मानवता का कर सृजन, किया सतत उत्थान।।

झूठ, कपट को मारकर, हरण किया अविवेक।

ढाई आखर से किए, मानव सारे नेक।।

सबके हित की बात कर, दिखलाई नव राह।

वैसा हो संसार यह, जस कबीर की चाह।।

कालजयी थे युगपुरुष,  समकालिक आवेश।

थे कबीर आवेग इक, किया नवल यह देश।।

संत खरे थे, गुरु प्रवर, कबिरा बहुत महान।

युगों-युगों तक सूर्य हे ! , पाओगे तुम मान।।

जैसे संत कबीर थे, दिखा न अब तक और ।

उनकी बातें चेतना, नव सुधार का दौर।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चिरंजीव ??

(वटसावित्री उत्तर भारत में अमावस्या को होती है। महाराष्ट्र में इसे ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस संदर्भ में यह कविता देखिए।🙏)

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

पुराने बरगद के

चारों ओर..,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति,

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से 

बरगदों को 

चिरंजीव रखती आई है!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 163 ☆ बाल कविता – मोर और गुड़िया ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 163 ☆

☆ बाल कविता – मोर और गुड़िया ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मोर अकेला गुड़िया के सँग

बातें करता बड़ी निराली।

धरा , गगन भी हैं मुस्काए

भगवान कर रहे रखवाली।।

 

गुड़िया बोली प्रिय मोर तुम

मेरे प्यारे दोस्त बने।

कितना सुंदर रूप रंग है

अनुपम अदभुत रंग भरे।।

 

दाना तुमको रोज खिलाऊँ

मुझको नृत्य दिखाओ तुम।

दोनों ही हम भोले – भाले

मीठा गीत सुनाओ तुम।।

 

सैर कराओ बाग बगीचे

सैर कराओ घर – परिवार।

राष्ट्रीय पक्षी तुम हो प्यारे

तुमसे खुश रहता संसार।।

 

मोर बोला यूँ प्यारी गुड़िया

सैर करो मेरे संग – संग।

कहना मानो सभी बड़ों का

मन में भर लो नई उमंग।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #185 – कविता – एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय पर्यावरण विषयक कविता  एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम)

☆  तन्मय साहित्य  #185 ☆

एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(पर्यावरण विषयक)

आदरणीय मानव जी,

तुम को नमस्कार है

लिखने वाला वृक्षों का प्रतिनिधि मैं

जिसका जल जंगल से सरोकार है।

 

खूब तरक्की की है तुमने

अंतरिक्ष तक पहुँच रहे हो

चाँद और मंगल ग्रह से संपर्क बनाए

पहुँचे जहाँ,

वहाँकी मिट्टी लेकर आए

होना तो यह था

धरती की मिट्टी और कुछ बीज

हमारे लेकर जाते

और वहाँ की मिट्टी में यदि हमें उगाते

तो शायद हो जाती परिवर्तित जलवायु

और वहाँ भी तुम उन्मुक्त साँस ले पाते।

 

लगता है वृक्षों का वंश मिटाने का

संकल्प लिया मानव जाति ने

जब कि हमने उपकारी भावों से

मानव जाति के हित

आरी और कुल्हाड़ी के

सब वार सहे हँस कर छाती में।

 

अपने सुख स्वारथ के खातिर

हे मनुष्य! तुम अपनी आबादी तो

निशदिन बढ़ा रहे हो

और जंगलों वृक्षों की बलि

आँख बंद कर चढ़ा रहे हो,

नई तकनीकों से विशाल वृक्षों को

बौने बना-बना कर

फलदाई उपकारी वृक्षों को घर पर

अपने गमलों में लगा रहे हो।

 

भला बताओ बोनसाई पेड़ों से

मनचाहे फल तुम कैसे पाओगे

क्या इन गमलों के पेड़ों से

सावन के झूलों का वह आनंद

कभी भी ले पाओगे,

 

सोचा है तुमने वृक्षों से वनस्पति से

कितना कुछ तुमको मिलता है

औषधि जड़ी बूटियाँ

पौष्टिक द्रव्य रसायन

विविध सुगंधित फूलों से

सुरभित वातायन।

 

अमरुद, अंगूर आम

आँवले केले जामुन

सेब, संतरे, सीताफल

और नीम की दातुन

सबसे बड़ी बात

हम पर्यावरण बचाएँ

और प्रदूषण से होने वाले

रोगों को दूर भगाएँ।

 

हम हैं तो,

संतुलित सभी मौसम हैं सारे

सर्दी गर्मी वर्षा से संबंध हमारे

इस चिट्ठी को पढ़कर मानव!

सोच समझकर कदम बढ़ाना

नहीं रहेंगे हम तो निश्चित ही

तुमको भी है मिट जाना।

 

पानी बोतल बंद लगे हो पीने

रोगों से बचने को,

आगे शुद्ध हवा भी

बिकने यदि लगेगी

तब साँसें कैसे ले पाओगे

मानव! जीवन जीने को।

 

सोचो! जल जंगल वृक्षों की

रक्षा करके

तुम अपने

मानव समाज की रक्षा भी

तब कर पाओगे

और प्रकृति के प्रकोप से

विपदाओं से

खुद को तभी बचा पाओगे।

 

आबादी के अतिक्रमणों से हमें बचाओ

बदले में हमसे जितना भी चाहो

तुम उतना सुख पाओ

नमस्कार जंगल का

सब मानव जाति को

जरा ध्यान से पढ़ना

लेना गंभीरता से इस पाती को

चिट्ठी पढ़ना,

पढ़कर तुम सब को समझाना

और शीघ्र संदेश

सुखद हमको पहुँचाना।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 10 ☆ आदमी तो आदमी है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी तो आदमी है।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 10 ☆ आदमी तो आदमी है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कुछ पुकारो

नाम कोई भी रखो

आदमी तो आदमी है।

 

जाति मज़हब

दगा दंगे

फसादों में

बँट गया है

अस्मिता से

और अपनी

ज़िंदगी से

कट गया है

 

ख़ालीपन को

लाख कितना ही भरो

लगता कुछ न कुछ कमी है।

 

भीड़ बनकर

हादसों में

जीता मरा

आजकल है

शक्ल ओढ़े

जुलूसों की

चल रहा हो

बेदखल है

 

यहाँ जब भी

मसीहा बनकर चलो

सलीब ढोना लाज़मी है।

 

सिर्फ़ सुनना

कुछ न कहना

चुप्पियों का

ज़हर पीता

भाग पढ़ता

स्वप्न गढ़ता

ले उमीदें

रोज़ जीता

 

सतह छोड़ो

ज़रा गहराई में उतरो

हर तरफ़ काई जमी है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 66 ☆ वृक्ष की पुकार… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय कविता – “वृक्ष की पुकार

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 66 ✒️

?  वृक्ष की पुकार… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई ,

सांसो के मध्य ,

कल सुना था मैंने ,

कि तुमने कर दी ,

फिर एक वृक्ष की ,

” हत्या “

इस कटु सत्य का ,

हृदय नहीं ,

कर पाता विश्वास ,

” राजन्य “

तुम कब हुए ,नर पिशाच ।।

 

अंकित किया ,एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो ,

तो बताओ ?क्यों त्यागा ,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा ,

रम्य वन को ?क्यों किया ,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम ,जगती में

क्या ? कहीं भी ना ,

मिल सकी ,तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम ,अपनी

आवश्यकताएं ,

तो बताते ,

शून्य ,- शुष्क ,

प्रदूषित वन जीवन ,

की व्यथा देख ,

रोती है प्रकृति ,

जो तुमने किया ,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें ,

छाती पर बिठाए ,

यह धरती ,

तुम्हारे चरण चूमती ,

रही बार-बार ,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष ,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे ,

सुकुमार ,

अपनी अनन्त-असीम ,

तृष्णाओं के लिए ,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे ,

निर्विकार ,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार ,

तभी वृद्ध ,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार ,

आयु से पूर्व ,

उन्हें छोड़ा मझधार ,

रिक्त जीवन दे ,

चल पड़े

अज्ञात की ओर ,

बनाने नूतन ,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया ,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है ,

किसी को काट डालना ,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते ,

प्रकृति के संजोए ,

पर्यावरण को बुनते ,

प्रमाद में  विस्मृत कर ,

अपना इतिहास ,

केवल बनकर रह

लगए ,उपहास ।।

 

काश !तुमने सुना होता ,

धरती का ,करुण क्रंदन ,

कटे वृक्षों का ,

टूट कर बिखरना ,

गिरते तरु की चीत्कार ,

पक्षियों की आंखोंका ,सूनापन ,

आर्तनाद करता , आकाश ,

तब संभव था ,कि तुम फिर ,

व्याकुल हो उठते ,

पुनः उसे ,रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास ,

बनाने का करते प्रयास ,

तब तुम ,वृक्ष हत्या ,

ना कर पाते अनायास ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रकृति ने हमको बहुत कुछ दिया है… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ कविता – प्रकृति ने हमको बहुत कुछ दिया है ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

प्रकृति ने हमको बहुत कुछ दिया है

तेरा शुक्रिया है प्रभु तेरा शुक्रिया है

प्रकृति ने…

 

रो रो के कहते है वृक्ष ये सारे

हम ही जगत के अंत और सहारे

निर्णय तुम्हारा है, काटो या बचालो

हरा भरा रख कर जीवन संभालो

 

हम ही तुम्हें अमृत पान कराते

औषधि देकर सबकी जान बचाते

फल फूल हवा ताज़ा हम तुम्हें देते

प्रेम रंग की खुशबू हम महकाते।

 

जन जन से रिश्ता है प्यारा हमारा

शुद्ध प्राणवायु देकर जीवन संवारा

कुल्हाड़ी ,कटारी से, हमको ना काटो

सावन के महीना में, हम ही झुलाते

 

बहुत मुश्किलों से तुमने, हमको है पाला

हमें काट कर खुद को, मुसीबत में डाला

मत करो जुल्म अब, धरा रो रही है

प्राकृतिक शीतलता से दुनिया, मुक्त हो रही है

 

दिन रात एक करके काटकर रुलाया

रक्तस्राव से भीगा है तना अब हमारा

तेज आंधियों ने भी हमको है तोड़ा

धरती से अलग करके, दूर हमको छोड़ा

 

आओ बचालो हमको रक्षक हम तुम्हारे

जीने की सांसें हम ही, जीने के सहारे

लेलो प्रतिज्ञा यारो, पर्यावरण सुरक्षा का

यही एक जरिया है खुद को स्वस्थ रखने का।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 06 – हम बेघर बञ्जारे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हम बेघर बञ्जारे हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 06 – हम बेघर बञ्जारे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

जन्मजात हम रहे घुमन्तू

हम बेघर बन्जारे हैं

ठिगधर अपना नहीं ठिकाना

जहाँ जगह मिल जाती खाली

वहीं विवश हो तम्बू ताना

व्याकुल अनपढ़ भूखे बच्चे

हम अपने उद्यम के सच्चे

यद्यपि कर्मठ कर्मवीर हम

पर विपदा के मारे हैं

दौलत ने हमको दुत्कारा

यूँ तो रहे उपेक्षित लेकिन

हमें स्वार्थियों ने पुचकारा

जब चुनाव के दिन आते हैं

तब हम भी पूछे जाते हैं

जिन्हें जिताते रहे हमेशा

हम उनसे ही हारे हैं

रहा पीठ पर पूरा डेरा

अपना भी कुछ स्वाभिमान है

किन्तु आपदाओं ने घेरा

हम पर अँधियारे का पहरा

उजयारा तो दुश्मन ठहरा

आँच आन पर यदि आये तो

बन जाते अंगारे हैं

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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