हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – राजनीति… भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  आलेख  “राजनीति…“।)   

☆ आलेख # 64 – राजनीति  – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

राजनीति का ये तीसरा दौर, अधिनायकवादी सोच याने, तानाशाही जिसका परिष्कृत नाम “तंत्र को लोक और प्रजा से दूर करना है” के नाम हो जाता है. अगर राजनीति के दूसरे दौर को हम सिद्धांतों से जुड़े “वाद” याने पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद के अनुसार परिभाषित करें तो ये तीसरा दौर तंत्र और यंत्र से प्रभावित और प्रदूषित होता है. ये यंत्र अर्थात षडयंत्रों, और तंत्र याने खुद सब कुछ पाने के नाम पर तकनीक  दुरुपयोग का दौर है जो अक्सर इसलिए काम में आता है कि सत्ताभिलाषी और सत्तापरस्त अपने अपने प्रतिद्वंद्वियों की मिट्टीपलीद कर सके और उनको वो बना दे जो वे होते नहीं हैं. ये भी राजनीति की एक विधा है जो मेकअप, मेकओवर, इमेज बिल्डिंग और नेगेटिव इमेजिंग के आधार पर अपने आका की बुलंद इमारत खड़ी करती है. ये रावणों का वह दौर होता है जब सामान्य से दस गुनी बुद्धि और दसों दिशा के बराबर विज़न होने की क्षमता होने के बावजूद, व्यक्ति आत्मकेंद्रित होने की पराकाष्ठा प्राप्त करता है. इस तीसरे दौर में जब त्याग, सामाजिक सरोकार और बहुजन हिताय जैसे गुण सिर्फ शब्द बन जाते हैं तो व्यक्तित्व से आकर्षण, विश्वसनीयता और प्रबल आत्मविश्वास गायब हो जाते हैं. निस्वार्थ जनसेवा के नायक कब कुर्सीपरस्त खलनायक बन जाते हैं, पता नहीं चलता. जनता जो अब उनके वोट बैंक बन जाते हैं, हमेशा सपनों का झूला झुलाकर भ्रमित किये जाते हैं.

राजनीति का ये तीसरा दौर बहुत घातक होता है जब विकल्पहीनता के कारण सत्ताभिलाषी वंशवाद, तुष्टिकरण, सांप्रदायिकता और विभाजनकारी सोच प्रश्रय पाते हैं, फलते फूलते हैं. ये अपने अपने वोटबैंक को “मीरा की भक्ति से परे पर फिर भी मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई” के भाव में उलझा कर रखते हैं. सवाल हर बार यही होता है कि एक सौ तीस प्लस करोड़ के जम्बो जनसंख्या के इस देश में क्या 13000+ लोग ऐसे नहीं आ सकते जो राजनीति को गरिमामय बना सकें. हमें अवतारों की जरूरत न पहले कभी थी, न है और न ही आगे रहेगी, हम तो ऐसे लोग खोजते हैं. जो हमारे सपनों को नहीं बल्कि हमारी हकीकतों को ऐड्रेस कर सकें.

हम याने हम भारत के लोग, अपने में से ही हमेशा ऐसा विश्वस्त नेतृत्व चाहते हैं जो हमें निश्चिंत नहीं बल्कि हमेशा जागरूक करे. हमें रॉबिनहुड नहीं चाहिए, हमें धर्मात्मा या महात्मा नहीं चाहिए. शायद ये हममें से बहुत लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता हो. राजनीति के इस विश्लेषणात्मक समीक्षा के दौरान मैं अपने उन अश्रुमय पलों को कैसे भूल सकता हूँ जो वर्ष 2011 में सेल्युलर जेल, (पोर्टब्लेयर) के भ्रमण के दौरान आये. न जाने कैसे लोग थे वे, जो अपने वतन की आज़ादी के सपनों पर, अपने जीवन को कुर्बान कर बैठे. क्या वो प्रेक्टिकल नहीं थे, बेशक वो देशभक्त थे पर इस देशभक्ति की जो कीमत उन्होंने अदा की, हमारे आज के कितने राजनेता उस आज़ादी के बाद, जिसका सपना उन क्रांतिकारियों ने देखा था, कर पाये.वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता है पर उच्च मापदंडों का बदलना कभी भी सही नहीं होता.

वैसे तो ये इस श्रंखला का समापन भाग है पर कहानी का और अपेक्षाओं का अंत नहीं.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 187 ☆ आलेख – गूगल मैप को हमारे मोबाइल ही बताते हैं ट्रैफिक रश की जानकारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख  – गूगल मैप को हमारे मोबाइल ही बताते हैं ट्रैफिक रश की जानकारी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 187 ☆  

? आलेख – गूगल मैप को हमारे मोबाइल ही बताते हैं ट्रैफिक रश की जानकारी ?

यदि भगवान राम के समय मोबाइल होते तो शायद सीता माता का हरण ही नहीं होता। आज गूगल मैप हम आप की ऐसी जरूरत बन चुका है जिसके साथ हम अनजान पते पर भी आत्म विश्वास और सहजता से पहुंच जाते हैं। पर क्या आपको पता है कि आखिर गूगल को लाइव ट्रैफिक की इतनी सटीक जानकारी मिलती कैसे है?

 दुनियां भर में क्या सड़को पर ट्रैफिक की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए कोई गूगल डिवाइस लगाई गई है, पर ऐसा नहीं है। किंतु हर वक्त आपको गूगल मैप लाइव ट्रैफिक की सटीक जानकारी से अपडेट कराता है। अब आप सोच सकते है कि ऐसा सैटेलाइट की मदद से किया जाता है। लेकिन यह भी सही नही है। सच तो यह है की हमांरे मोबाइल ही गूगल सर्च इंजन को यह जानकारी देते हैं, जिसे समुचित तरीके से एनालाइज और स्टोर करके गूगल मैप हम को विश्व के मानचित्र पर हर गली हर स्थान की ट्रैफिक स्तिथि बताता है। आपके एंड्राइड और iOS यूजर की लोकेशन को गूगल लगातार ट्रैस करता रहता है। Google को रोड के जिस हिस्से में ज्यादा मोबाइल फोन की लोकेशन मिलती है, उस जगह को Google ट्रैफिक जाम के तौर पर मार्क कर देता है और उस खास जगह को रेड कलर के साथ मार्क कर देता है, जिससे लोगों को लाइव ट्रैफिक की जानकारी मिलती है। मतलब यदि फेक ट्रैफिक रश दिखाना हो तो एक ट्रक में ढेर से मोबाइल रखकर गूगल सर्च इंजिन को हम धोखा दे सकते हैं। लाइव मोबाइल्स के अतिरिक्त  कई अन्स सोर्स से भी गूगल लाइव ट्रैफिक की जानकारी हासिल करता है। इसमें गूगल मैप कम्यूनिटी भी है।मतलब सामूहिक ज्ञान  का सर्वजन हिताय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उपयोग है गूगल मैप, जो समय की आवश्यकता बन चुका है। आने वाले समय में  त्रिआयामी चित्र गूगल मैप को और भी सकारात्मकता देंगे यह तय है।

 © विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 16 – लकड़ी उपयोग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “  परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 156– लकड़ी उपयोग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कुछ दशक पूर्व रेल यात्रा के द्वितीय श्रेणी में यात्रा करते हुए मानव जीवन में लकड़ी के उपयोग के बारे में जन्म से अंतिम यात्रा तक की महत्ता पर आधारित “रेल गायक” से इस बाबत गीत सुना था। हमारे देश में तो अब लकड़ी के स्थान पर अन्य वैकल्पिक व्यवस्था हो चुकी है। हो सकता है, आने वाले समय में  लकड़ी को बैंक लॉकर में भी सुरक्षित ही रखा जा सकता हैं।

अमेरिका में लकड़ी का सर्वाधिक उपयोग किया जाता हैं। घर के आंगन, बगीचे आदि में लकड़ी का फर्नीचर बारह माह गर्मी, वर्षा और बर्फबारी को सह लेता हैं। घरों की सीमांकन दीवार भी लकड़ी की ही बनती हैं। सार्वजनिक स्थानों पर भी फर्नीचर पूर्णतः लकड़ी निर्मित होता है।

विगत दिन एक श्वान को बिजली के खंबे के पास देखा तो ध्यान देने पर पता चला कि बिजली का बीस फुट से लंबा खंबा भी लकड़ी का ही हैं। एक दम सीधे और सपाट पेड़ों का प्रयोग किया जाता हैं। निजी घर में भी दीवारें, सीढियां, छत सब कुछ लकड़ी से निर्मित हैं।

भोजन बनाते समय विद्युत या गैस का ही उपयोग होता हैं। प्रकृति के संसाधन का उचित प्रबंधन से ही यहां लकड़ी की बहुतायत हैं। साठ के दशक में  जबलपुर शहर के घरों में लकड़ी के उपयोग से “जाफरी नुमा” डिजाइन का उपयोग किया जाता था, यहां उसके दीदार साधारण सी बात हैं। हमारे देश में भी संसाधनों की कमी नहीं थी, परंतु जनसंख्या नियंत्रण में असफल होने के कारण हम बहुत कुछ गवां बैठे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 170 ☆ संतत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 भास्कर साधना संपन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी ।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 170 ☆ संतत्व ?

फूटी आँख विवेक की, लखे ना संत असंत।

जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ||

महंत होना सरल है, संत होना कठिन। संत यात्रा करता है, संत यात्रा करवाता भी है। यात्रा में भटका ऐसा ही एक पथिक कबीरदास जी के पास पहुँचा। वह अपने गृहस्थ जीवन में रोज़ाना होने वाले कलह और तर्क-वितर्क से बहुत दुखी था। अपना दुखड़ा बयान करता हुआ कबीरदास जी से बोला, “महाराज मेरा गृहस्थ जीवन बहुत दुखी है। हम पति-पत्नी में ज़रा भी नहीं पटती। रोज़ झगड़ा, रोज़ कलह। वह भी दुखी, मैं भी दुखी। तंग आ गया हूं इस जीने से। जीवन में अंधेरा ही अंधेरा है।” कबीर ् समय सूत बुन रहे थे। पथिक की बात सुनी-अनसुनी कर अपनी पत्नी लोई से बोले,”इतना अंधेरा है कि सूत बुनने में दिक्कत हो रही है। तनिक दीया तो बाल लाओ।” लोई एक दीप प्रज्ज्वलित करके ले आई। पति के पास रखकर चली गई। कबीर के इस व्यवहार से प्रश्नकर्ता किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया। वह भरी दोपहर का समय था। सूर्य सिर पर था और प्रकाश प्रखर था। आशंका व्यक्त करते हुए कबीरदास जी से बोला, “महाराज, सूरज तप रहा है। दोपहर का समय है। इतना तेज़ प्रकाश है और आपको सूत कातने के लिए दीया मंगवाना पड़ा। क्या आपकी आँखें खराब हो गई हैं?” कबीर मुस्करा कर बोले, “यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी है। अपनी आँखों को ठीक करो। गृहस्थ जीवन में विश्वास करना सीखो। अपने साथी के विचार का, उसकी सोच का, उसके निर्णय का सम्मान करो। व्यर्थ के तर्क-वितर्क एक दूसरे का मान समाप्त करते हैं। तुमने देखा कि दिन के प्रकाश में मैंने लोई से दीया मंगवाया। बिना कोई प्रश्न किए वह दीया रख गई। उसका विश्वास है कि मैंने दीया मंगवाया है तो कुछ सोच कर ही मंगवाया होगा। …तुम अपनी पत्नी को अपने जैसा कर देना चाहते हो। खाना-पीना तुम्हारे जैसा, बोलना-चालना तुम्हारे जैसा, सोचना-विचारना तुम्हारे जैसा। तुम्हारी  आँखें खराब हो गई हैं। तुम जानते हो पर देखते नहीं कि धरती पर कोई भी दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते।

….और सुनो, यह दीया मैंने अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए मंगवाया था। जैसे इसकी ज्योति जल रही है अपने भीतर भी ज्योति जलाओ। अग्नि पवित्र होती है। भीतर एक बार ज्योति जल गई तो जीवन में प्रकाश ही प्रकाश होगा।”

सच्चा संत खुद जलता है, खुद तपता है आत्मदीप बनता है। वह पोथी का ज्ञान नहीं जताता, अनुभव से मिला ज्ञान बताता है। संतत्व में ‘कागज की लेखी’ नहीं बल्कि ‘आँखन की देखी’ महत्वपूर्ण है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #164 ☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अपेक्षा व उपेक्षा । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 164 ☆

☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆

‘अत्यधिक अपेक्षा मानव के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित कर मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’ महात्मा बुद्ध मन में पलने वाली अत्यधिक अपेक्षा की कामना को इच्छा की परिभाषा देते हैं। विलियम शेक्सपीयर के मतानुसार ‘अधिकतर लोगों के दु:ख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा करना है। यह पारस्परिक रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ वास्तव में हमारे दु:ख व मानसिक तनाव हमारी ग़लत अपेक्षाओं के परिणाम होते हैं। सो! दूसरों से अपेक्षा करना हमारे दु:खों का मूल कारण होता है, जब हम दूसरों की सोच को अपने अनुसार बदलना चाहते हैं। यदि वे उससे सहमत नहीं होते, तो हम तनाव में आ जाते हैं और हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है; जो हमारे विघटन का मूल कारण बनता है। इससे पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है और हमारे जीवन से शांति व आनंद सदा के लिए नदारद हो जाते हैं। सो! मानव को अपेक्षा दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए।

अपेक्षा व उपेक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं। यह दोनों हमें अवसाद के गहरे सागर में भटकने को छोड़ देते हैं और मानव उसमें डूबता-उतराता व हिचकोले खाता रहता है। उपेक्षा अर्थात् प्रतिपक्ष की भावनाओं की अवहेलना करना; उसकी ओर तवज्जो व अपेक्षित ध्यान न देना दिलों में दरार पैदा करने के लिए काफी है। यह सभी दु:खों का कारण है। अहंनिष्ठ मानव को अपने सम्मुख सब हेय नज़र आते हैं और  इसीलिए पूरा समाज विखंडित हो जाता है।

मनुष्य इच्छाओं, अपेक्षाओं व कामनाओं का दास है तथा इनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। अक्सर हम दूसरों से अधिक अपेक्षा व उम्मीद रखकर अपने मन की शांति व सुक़ून उनके आधीन कर देते हैं। अपेक्षा भिक्षाटन का दूसरा रूप है। हम उसके लिए कुछ करने के बदले में प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं और बदले में अपेक्षित उपहार न मिलने पर उसके चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं। वास्तव में यह एक सौदा है, जो हम भगवान से करने में भी संकोच नहीं करते। यदि मेरा अमुक कार्य सम्पन्न हो गया, तो मैं प्रसाद चढ़ाऊंगा या तीर्थ-यात्रा कर उनके दर्शन करने जाऊंगा। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि वह सृष्टि-नियंता सबका पालनहार है; उसे हमसे किसी वस्तु की दरक़ार नहीं। हम पारिवारिक संबंधों से अपेक्षा कर उनकी बलि चढ़ा देते हैं, जिसका प्रमाण हम अलगाव अथवा तलाक़ों की बढ़ती संख्या को देखकर लगा सकते हैं। पति-पत्नी की एक-दूसरे से अपेक्षाओं की पूर्ति ना होने के कारण उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते और तलाक़ ले लेते हैं। परिणामत: बच्चों को एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हुए अपने-अपने हिस्से का दर्द महसूसते हैं, जो धीरे-धीरे लाइलाज हो जाता है। इसका मूल कारण अपेक्षा के साथ-साथ हमारा अहं है, जो हमें झुकने नहीं देता। एक अंतराल के पश्चात् हमारी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं।

मानव को अपेक्षा अथवा उम्मीद ख़ुद से करनी चाहिए, दूसरों से नहीं। यदि हम उम्मीद ख़ुद से रखते हैं, तो हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं और स्वयं को लक्ष्य की पूर्ति हेतू झोंक देते हैं। हम असफलता प्राप्त होने पर भी निराश नहीं होते, बल्कि उसे सफलता की सीढ़ी स्वीकारते हैं। विवेकशील पुरुष अपेक्षा की उपेक्षा करके अपना जीवन जीता है। अपेक्षाओं का गुलाम होकर दूसरों से उम्मीद ना रखकर आत्मविश्वास से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहता है। वास्तव में आत्मविश्वास आत्मनिर्भरता का सोपान है।

क्षमा से बढ़ कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा सबसे बड़ा धन है, जो पाप को पुण्य में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। क्षमा अपेक्षा और उपेक्षा दोनों से बहुत ऊपर होती है। यह जीने का सर्वोत्तम अंदाज़ है। हमारे संतजन व सद्ग्रंथ इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कहते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लेंगे, तो हमें किसी से अपेक्षा भी नहीं रहेगी और ना ही नकारात्मकता का हमारे जीवन में कोई स्थान होगा। नकारात्मकता का भाव हमारे मन में निराशा व दु:ख का सबब जगाता है और सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे जीवन को सुख-शांति व आनंद से आप्लावित करता है। सो! हमें इन दोनों मन:स्थितियों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि हम अपना सारा जीवन लगा कर भी आशाओं का पेट नहीं भर सकते। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण व नज़रिए को बदलना होगा; चिंतन-मनन ही नहीं, मंथन करना होगा। वर्तमान स्थिति पर विभिन्न आयामों से दृष्टिपात करना होगा, ताकि हम अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सकें तथा अपेक्षा उपेक्षा के जंजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकें। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें तथा निराशा को अपने हृदय मंदिर में प्रवेश ने पाने दें तथा प्रभु कृपा की प्रतीक्षा नहीं, समीक्षा करें, क्योंकि परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। सो! हमें उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देनी चाहिए और सदा उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमें हर घटना को एक नई सीख के रूप में लेना चाहिए, तभी हम मुक्तावस्था में रहते हुए जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। इस स्थिति में हम केवल अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन को भी सुख-शांति व अलौकिक आनंद से भर सकेंगे। ‘संत पुरुष दूसरों को दु:खों से बचाने के लिए दु:ख सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने का हर उपक्रम करते हैं।’ बाल्मीकि जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। सो! अपेक्षा व उपेक्षा का त्याग कर जीवन जीएं। आपके जीवन में दु:ख भूले से भी दस्तक नहीं देगा। आपका मन सदा प्रभु नाम की मस्ती में खोया रहेगा–मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाएगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 186 ☆ आलेख – नए साल की चुनौतियां और हमारी जिम्मेदारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख  – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 186 ☆  

? आलेख – नए साल की चुनौतियां और हमारी जिम्मेदारी ?

नया साल प्रारंभ हो चुका है. आज जन मानस के जीवन  में मोबाईल इस कदर समा गया है कि अब साल बदलने पर कागज के कैलेंडर बदलते कहां हैं ?अब साल, दिन, महीने, तारीखें, समय सब कुछ टच स्क्रीन में कैद हाथो में सुलभ है. वैसे भी अंतर ही क्या होता है, बीतते साल की आखिरी तारीख और नए साल के पहले दिन में, आम लोगों की जिंदगी तो वैसी ही  बनी रहती है.

हां दुनियां भर में नए साल के स्वागत में जश्न, रोशनी, आतिशबाजी जरूर होती है. लोग नए संकल्प लेते तो हैं, पर निभा कहां पाते हैं?  कारपोरेट जगत में गिफ्ट का आदान प्रदान होता है, डायरी ली दी जाती है, पर सच यह है की अब भला डायरी लिखता भला कौन है ? सब कुछ तो मोबाइल के नोटपैड में सिमट गया है.देश का संविधान भी सुलभ है, गूगल से फरमाइश तो करें. समझना है की संविधान में केवल अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी तो दर्ज हैं.  लोकतंत्र के नाम पर आज स्वतंत्रता को स्वच्छंद स्वरूप में बदल दिया गया है.

इधर मंच से स्त्री सम्मान की बातें होती हैं उधर भीड़ में कुत्सित लोलुप  दृष्टि मौका मिलते ही चीर हरण से बाज नहीं आती. स्त्री समानता और फैशन के नाम पर स्त्रियां स्वयं फिल्मी संस्कृति अपनाकर संस्कारों का उपहास करने में पीछे नहीं मिलती. 

देश का जन गण मन तो वह है, जहां फारूख रामायणी अपनी शेरो शायरी के साथ राम कथा कहते हैं. जहां मुरारी बापू के साथ ओस्मान मीर, गणेश और शिव वंदना गाते हैं. पर धर्म के नाम पर वोट के ध्रुवीकरण की राजनीति ने तिरंगे के नीचे भी जातिगत आंकड़े की भीड़ जमा कर रखी है.

इस समय में जब हम सब मोबाइल हो ही गए हैं, तो आओ नए साल के अवसर पर  टच करें हौले से अपने मन, अपने बिखर रहे संबंध, और अपडेट करें एक हंसती सेल्फी अपने सोशल मीडिया स्टेटस पर नए साल में, मन में स्व के साथ समाज वाले भाव भरे सूर्योदय के साथ.

यह शाश्वत सत्य है कि भीड़ का चेहरा नहीं होता पर चेहरे ही लोकतंत्र की शक्तिशाली भीड़ बनते हैं. सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर सेल्फी के चेहरों वाली  संयमित एक दिशा में चलने वाली भीड़ बहुत ताकतवर होती है. इस ताकतवर भीड़ को नियंत्रित करना और इसका रचनात्मक हिस्सा बनना आज हम सब की जिम्मेदारी है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 63 – राजनीति… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  आलेख  “राजनीति…“।)   

☆ आलेख # 63 – राजनीति  – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

राजनीति के दूसरे दौर में जो कुछ हद तक प्रारंभिक लक्ष्यप्राप्ति से प्रभावित था, इसे बदलाव का बहुत बड़ा कारक समय बना. जब सफलता की पुष्पमालाओं से सज्जित यात्रा, कर्मठता और निरंतरता से दूर जाने लगे तो ऐसी राजनीति का पहला पड़ाव हमेशा उपेक्षित नैतिकता ही होती है.

नेतृत्व जब सफलता के जश्न के शोर में अंतरात्मा की आवाज सुनने में चूकने लगे तो ये निमंत्रण होता है सामयिक बदलाव का जिसमें सभी प्रभावित होते हैं. इस बदलाव को जो पहचान लेते हैं वो सतर्क होकर बढ़ जाते हैं पर अधिकांश प्रारंभिक सफलता के मायाजाल में उलझ जाते हैं जैसे कि बालि वध के बाद सुग्रीव सब भूलकर राजरंग में मगन हो गये थे और अपने मित्र मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी विस्मृत कर गये थे. भ्राता लक्ष्मण और हनुमान हर युग में, हर दौर में नहीं मिलते जो पथभ्रष्ट राजा को सही मार्ग दिखा सकें. हो सकता है कि नेतृत्व के नैसर्गिक गुण के पैकेज में आत्मविश्लेषण नहीं आता हो या फिर प्रारंभिक सफलता के बाद आत्मविश्लेषण क्षमता में कमी आती हो, पर कारण जो भी हो यह तो तय है कि बदलाव तो आते ही हैं और नजरअंदाज भी होते हैं. सफल होने का एहसास नेतृत्व और सहयोगियों दोनों के नजरिए में बदलाव लाता है, अब कुछ देने और कुछ करने के अलावा कुछ पाने की नैसर्गिक भावना भी प्रविष्ट होती है.

असीमित अनंत में मानवक्षमतायें कहीं न कहीं सीमित होती ही हैं. अगर व्यक्ति के माइंड सेट में कुछ आ रहा है तो उसके लिए जगह खाली करने वाले तत्व या जीवनमूल्य भी होते हैं जो “त्याग, और निर्मोह “ही होते हैं. बहुजन हिताय के साथ साथ स्वयं और फिर स्वजन हिताय की दिशा में सोच बदलती है. शायद इसीलिये ही “Power corrupt leader and absolute power corrupt absolutely” जैसी लोकोक्ति चलती है. अमृत पाने की लालसा देवों में भी थी और असुरों में भी.

तो राजनीति इस दूसरे दौर में कर्मठता की जगह लालसा प्रबल होती जाती है. “हमने हर दौर में नेताओं को बदलते देखा, जो दिया करते थे बहुत कुछ सबको, उनको अक्सर ही कुछ लिये देखा”. राजनीति के इस दूसरे दौर में, सुधार और बदलाव की बयार के नाम पर उभरा नेतृत्व यथास्थिति को बरकरार करने में लगा रहता है. ये स्थिति और ये मनोस्थिति शायद अपरोक्ष रूप से नेतृत्व की अगली पीढ़ी के अंकुरित होने की संभावना भी बलवती करती है. जनमानस की असंतुष्टि, नेतृत्व की अगली पीढ़ी के लिये खाद का काम करती है. पहले दौर की निष्ठा, त्याग और सेवाभावना के बाद दूसरे दौर में लालसा और कुछ पाने कमाने की चाहत तो होती है पर नैतिकता बरकरार रहती है और नेतृत्व की आदत में शालीनता और सहजभाव बना रहता है. राजनीति के अगले दौर में आगाज होता है षडयंत्रों का.

राजनीति के इस तीसरे दौर की समीक्षा अगले चरण में

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “  परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यात्रा के अगले चरण में शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध शहर बोस्टन जाने के लिए घर बैठे ऑनलाइन टिकट बुक कर, विमानतल में स्कैन द्वारा स्वचलित बोर्डिंग पास प्राप्त करने का प्रथम अवसर था, तो पुराने समय की याद आ गई, जब प्रथम बार एटीएम से राशि प्राप्त कर जो खुशी मिली थी, आज भी कुछ ऐसा ही आभास हुआ।

एक छोटे संदूक को विमान के अंदर ले जाने के अलावा बड़े संदूक का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा, जो हमारे जैसे यात्रियों के लिए अचंभा था।

विमानतल पर  देश के भीतर यात्रा पर भी कड़ी जांच के मद्दे नज़र” जूता उतार” जांच से बचने के लिए हमने अपनी बाटा की हवाई चप्पल का ही उपयोग किया, क़मर बेल्ट जांच से भी बचने के लिए नाड़े वाले पायजामा के साथ कुर्ता पहन कर देशी परिधान ग्रहण कर लिया।                      श्रीमतीजी ने आपत्ति उठाते हुए कहा आप अकेले व्यक्ति विमानतल पर ऐसे परिधान पहन कर अलग से दिख रहें हैं। तभी वहां प्रतीक्षा रत एक अस्सी वर्ष की उम्र वाले व्यक्ति  पुस्तक पढ़ते हुए दिख गए,वो भी सब से अलग दिख रहे थे।

सबसे आश्चर्य हुआ एक युवती ऊन से कुछ बुनाई कर रही थी। हमारे यहां तो अब ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं भी हाथ में ऊन और सलाई लिए हुए भी नहीं नज़र आती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में हवाई यात्रा के समय नवयुवती के हाथ में ये देखकर लगा कि हस्तकला कभी समाप्त नहीं हो सकती।

बोस्टन उतरने के पश्चात जब बड़े संदूक का इंतजार करते हुए, वहां उपलब्ध ट्रॉली खींची, तो उसको दीवार से अटका हुआ पाया, क्योंकि छः डॉलर शुल्क भुगतान के पश्चात ही सुविधा का उपयोग संभव था। हमारे पास खींचने के लिए अब छोटा और बड़ा दो संदूक थे, वो तो अच्छा हुआ जो नीचे चक्के लगे हुए थे। वैसे हम लोग तो “चमड़ी चली जाय पर दमड़ी ना जाय” को मानने वाली पीढ़ी से जो हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 169 ☆ श्वेतपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-

💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 169 ☆ श्वेतपत्र ?

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है-

 शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं,

 इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #163 ☆ प्रार्थना और प्रयास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रार्थना और प्रयास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 163 ☆

☆ प्रार्थना और प्रयास ☆

प्रार्थना ऐसे करो, जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है और प्रयास ऐसे करो कि जैसे सब कुछ आप पर निर्भर है–यही है लक्ष्य-प्राप्ति का प्रमुख साधन व सोपान। प्रभु में आस्था व आत्मविश्वास के द्वारा मानव विषम परिस्थितियों में कठिन से कठिन आपदाओं का सामना भी कर सकता है…जिसके लिए आवश्यकता है संघर्ष की। यदि आप में कर्म करने का मादा है, जज़्बा है, तो कोई भी बाधा आपकी राह में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। आप आत्मविश्वास के सहारे निरंतर बढ़ते चले जाते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है। दूसरे शब्दों में इसे कर्म की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘संघर्ष नन्हे बीज से सीखिए, जो ज़मीन में दफ़न होकर भी लड़ाई लड़ता है और तब तक लड़ता रहता है, जब तक धरती का सीना चीरकर वह अपने अस्तित्व को साबित नहीं कर देता’– यह है जिजीविषा का सजीव उदाहरण। तुलसीदास जी ने कहा है कि यदि आप धरती में उलटे-सीधे बीज भी बोते हैं, तो वे शीघ्रता व देरी से अंकुरित अवश्य हो जाते हैं। सो! मानव को कर्म करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्म का फल मानव को अवश्य प्राप्त होता है।

कर्म का थप्पड़ इतना भारी और भयंकर होता है कि जमा किया हुआ पुण्य कब खत्म हो जाए, पता ही नहीं चलता। पुण्य खत्म होने पर समर्थ राजा को भी भीख मांगने पड़ सकती है। इसलिए कभी भी किसी के साथ छल-कपट करके उसकी आत्मा को दु:खी मत करें, क्योंकि बद्दुआ से बड़ी कोई कोई तलवार नहीं होती। इस तथ्य में सत्-कर्मों पर बल दिया गया है, क्योंकि सत्-कर्मों का फल सदैव उत्तम होता है। सो! मानव को छल-कपट से सदैव दूर रहना चाहिए, क्योंकि पुण्य कर्म समाप्त हो जाने पर राजा भी रंक बन जाता है। वैसे मानव को किसी की बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए, बल्कि प्रभु का शुक्रगुज़ार रहना चाहिए, क्योंकि प्रभु जानते हैं कि हमारा हित किस स्थिति में है? प्रभु हमारे सबसे बड़े हितैषी होते हैं। इसलिए हमें सदैव सुख में प्रभु का सिमरन करना चाहिए, क्योंकि परमात्मा का नाम ही हमें भवसागर से पार उतारता है। सो! हमें प्रभु का स्मरण करते हुए सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए, क्योंकि वही आपका भाग्य-विधाता है। उसकी करुणा-कृपा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। दूसरी ओर मानव को आत्मविश्वास रखते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। इस स्थिति में मानव को यह सोचना चाहिए कि वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं है तथा उसमें असीम शक्तियां संचित हैं।  अभ्यास के द्वारा जड़मति अर्थात् मूढ़ व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है, जिसके अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। कालिदास के जीवन-चरित से तो सब परिचित हैं। वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। परंतु प्रभुकृपा प्राप्त होने के पश्चात् उन्होंने संस्कृत में अनेक महाकाव्यों व नाटकों की रचना कर सबको स्तब्ध कर दिया। तुलसीदास को भी रत्नावली के एक वाक्य ने दिव्य दृष्टि प्रदान की और उन्होंने उसी पल गृहस्थ को त्याग दिया। वे परमात्म-खोज में लीन हो गए, जिसका प्रमाण है रामचरितमानस  महाकाव्य। ऐसे अनगिनत उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘तुम कर सकते हो’– मानव असीम शक्तियों का पुंज है। यदि वह दृढ़-निश्चय कर ले, तो वह सब कुछ कर सकता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। सो! हमारे हृदय में शंका भाव का पदार्पण नहीं होना चाहिए। संशय उन्नति के पथ का अवरोधक है और हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। हमें संदेह, संशय व शंका को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

संशय मित्रता में सेंध लगा देता है और हंसते-खेलते परिवारों के विनाश का कारण बनता है। इससे निर्दोषों पर गाज़ गिर पड़ती है। सो! मानव को कानों-सुनी पर नहीं; आंखिन- देखी पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि अतीत में जीने से उदासी और भविष्य में जीने से तनाव आता है। परंतु वर्तमान में जीने से आनंद की प्राप्ति होती है। कल अर्थात् बीता हुआ कल हमें अतीत की स्मृतियों में जकड़ कर रखता है और आने वाला कल भविष्य की चिंताओं में उलझा लेता है और उस व्यूह से हम चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में मानव सदैव इसी उधेड़बुन में उलझा रहता है कि उसका अंजाम क्या होगा और इस प्रकार वह अपना वर्तमान भी नष्ट कर लेता है। सो! वर्तमान वह स्वर्णिम काल है, जिसमें जीना सर्वोत्तम है। वर्तमान आनंद- प्रदाता है, जो हमें संधर्ष व परिश्रम करने को प्रेरित करता है। संघर्ष ही जीवन है और जो मनुष्य कभी बीच राह से लौटता नहीं; वह धन्य है। सफलता सदैव उसके कदम चूमती है और वह कभी भी अवसाद के घेरे में नहीं आता। वह हर पल को जीता है और हर वस्तु में अच्छाई की तलाशता है। फलत: उसकी सोच सदैव सकारात्मक रहती है। हमारी सोच ही हमारा आईना होती है और वह आप पर निर्भर करता है कि आप गिलास को आधा भरा देखते हैं या खाली समझ कर परेशान होते हैं। रहीम जी का यह दोहा ‘जै आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ आज भी समसामयिक व सार्थक है। जब जीवन में संतोष रूपी धन आ जाता है, तो उसे धन-संपत्ति की लालसा नहीं रहती और वह उसे धूलि समान भासता है। शेक्सपीयर का यह कथन ‘सुंदरता व्यक्ति में नहीं, दृष्टा की आंखों में होती है’ अर्थात् सौंदर्य हमारी नज़र में नहीं, नज़रिए में होता है इसलिए जीवन में नज़रिया व सोच को बदलने की शिक्षा दी जाती है।

जीवन में कठिनाइयां हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि हमारी छुपी हुई सामर्थ्य व  शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। ‘कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उनसे भी कठिन हैं। कठिनाइयां हमारे अंतर्मन में संचित सामर्थ्य व शक्तियों को उजागर करती हैं;  हमें सुदृढ़ बनाती हैं तथा हमारे मनोबल को बढ़ाती हैं।’ इसलिए हमें उनके सम्मुख पराजय नहीं स्वीकार नहीं चाहिए। वे हमें भगवद्गीता की कर्मशीलता का संदेश देती हैं। ‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते- निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फ़रिश्ते बन जाते।’ गुलज़ार की ये पंक्तियां मानव को आत्मावलोकन करने का संदेश देती हैं। परंतु मानव दूसरों पर अकारण दोषारोपण करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है और निंदा करने में उसे अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह पथ-विचलित हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अगर ज़िन्दगी में सुक़ून चाहते हो, तो फोकस काम पर रखो; लोगों की बातों पर नहीं। इसलिए मानव को अपने कर्म की ओर ध्यान देना चाहिए; व्यर्थ की बातों पर नहीं।’ यदि आप ख़ुद को तराशते हैं, तो लोग आपको तलाशने लगते हैं। यदि आप अच्छे कर्म करके ऊंचे मुक़ाम को हासिल कर लेते हैं, तो लोग आपको जान जाते हैं और आप का अनुसरण करते हैं; आप को सलाम करते हैं। वास्तव में लोग समय व स्थिति को प्रणाम करते हैं; आपको नहीं। इसलिए आप अहं को जीवन में पदार्पण मत करने दीजिए। सम भाव से जीएं तथा प्रभु-सत्ता के सम्मुख समर्पण करें। लोगों का काम है दूसरों की आलोचना व निंदा करना। परंतु आप उनकी बातों की ओर ध्यान मत दीजिए; अपने काम की ओर ध्यान दीजिए। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती।’ सो!  निरंतर प्रयासरत रहिए– मंज़िल आपकी राहों में प्रतीक्षारत रहेगी। प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए तथा सत्कर्म करते रहिए…यही जीवन जीने का सही सलीका है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print