हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

मेरे प्रिय देशबंधुओं और बहनों,

आप सभी को ७६ वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! 🙏🇮🇳💐

१५ अगस्त २०२३ को भारत की आजादी के ७६ साल पूरे होने पर यह कहना होगा कि, हमारा देश 76 साल का युवा बन गया है। जिन युवा स्वतंत्रता सेनानियों ने परतंत्र की बेड़ियों, उत्पीड़न और यातनाओं का अनुभव किया है और जो स्वतंत्रता संग्राम में जी-जान से लड़ रहे हैं, वे अब अधिकतर नब्बे और शतक की उम्र के होंगे। इन गिने चुने प्रत्यक्षदर्शियों को छोड़कर ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि जिस आजादी का हम आनंद ले रहे हैं, वह अनगिनत स्वातंत्र्यसैनिकों के बहाये खून का परिणाम है। कुछ नाम तो निश्चित रूप से नेताओं के हैं, अधिकांश गुमनाम रह गए, जिनके लिए मुझे महान मराठी कवि कुसुमाग्रज के शब्द याद आते हैं:

अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्त

स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात! 

अर्थात –  हे अनाम वीर, जहाँ तुम्हारे जीवन का अंत हुआ, वहाँ न किसीने विजयस्तम्भ बाँधा, न ही वहाँ कोई चिराग रोशन हुआ। 

इस स्वतंत्रता दिवस का ‘समारोह’ बाकी सभी से क्यों और कैसे अलग है? हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने १५ अगस्त १९४७ को शून्य प्रहर को तिरंगा फहराया था| उनका विश्व प्रसिद्ध भाषण हर जगह उपलब्ध है। उसका एक वाक्य मुझे हमेशा याद आता है। नेहरूजी ने कहा था, ‘आज रात १२ बजे जब पूरी दुनिया सो रही होगी, भारत एक नया स्वतंत्र जीवन शुरू करेगा।’ शुरुआती कुछ सालों में इस नवोन्मेष में प्रगति का आलेख तेजी से ऊपर चढ़ते रहा| लेकिन इस तेजी का ज्वार जल्द ही थम सा गया| इस आशावाद पर भरोसा करना कठिन था कि, स्वतंत्रता सभी समस्याओं का समाधान कर देगी। नई बहू को जब तक घर की जिम्मेदारी नहीं मिलती तब तक वह बहुत जिज्ञासु रहती है। ‘मुझे राज्य तो मिल जाने दो, फिर देखना मैं क्या करती हूं’, कभी दिल में तो कभी होठों पर ये शब्द लाने वाली यहीं बहू, जिम्मेदारी का अहसास होते ही सास के जैसे कब व्यवहार करने लगती है, इसका उसे स्वयं भी पता नहीं चलता! यहीं बात बाद में शासकों को भी समझ में आ गई। 

मित्रों, जब हम अपनी स्वतंत्रता के प्रति इतने सचेत हैं, तो कहीं हम दूसरों की स्वतंत्रता को रौंद तो नहीं रहे हैं? क्या इसका एहसास करना ज़रूरी नहीं है? एक रोजमर्रा का उदाहरण! सड़क के दोनों और जो छोटीसी जगह बनी होती है, उसे ‘फुटपाथ’ कहा जाता है, अच्छी तरह से रंग दिया हुआ वगैरा होने के कारण, पैदल चलने वालों को बहुत आसानी से इसके दूर से ही दर्शन हो जाते हैं। लेकिन भीड़-भाड़ वाले समय में इस जगह पर स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि वाहनों का चतुराई से छिना हुआ कब्जा होता है। अफ़सोस, बेचारे कार वालों के लिए यह थोडीसी संकीर्ण सी रहती है! अब पैदल चलने वालों को कहाँ और कैसे चलना है, इसकी सीख कौन दे? संक्षेप में, ‘मेरी स्वतंत्रता तो मेरी है ही और तुम्हारी भी मेरी है’! संविधान ने मुझे जो अधिकार दिया है, वैसे ही वह दूसरों को भी दिया है, यह सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना कैसे आएगी, इस पर गंभीरता से विचार करना होगा!

जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं तो यह एक ‘इव्हेंट’ क्यों बन जाती है? लाउडस्पीकर कुछ निहित देशभक्ति के गीत प्रसारित करता रहता है। कभी-कभी छोटे-छोटे बच्चे स्कूलों में जाकर “आज़ादी” के बारे में भाषण दे रहे होते हैं, जो उनकी उम्र से काफी ‘बढ़चढ़’ कर होते हैं| उनकी स्मृति-शक्ति एवं शिक्षकों तथा अभिभावकों की कड़ी मेहनत की सराहना करना अति स्वाभाविक होना चाहिए! लेकिन साथ ही सम्बंधित बड़े बुजुर्गों का कर्तव्य होना चाहिए कि वे इन मासूम बच्चों को उस तालियाँ कमाने वाले भाषण का पूरा मतलब समझाएं! फिर यह तोते की तरह रटने की क्रिया से ऊपर उठकर वास्तव रूप में देशभक्ति होगी| कौन जाने इन्हीं में से कोई लड़का या लड़की राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर सेना में भर्ती होने का सपना देखने लगे!

 अंत में यहीं विचार मन में आता है, ‘इस देश ने मुझे क्या दिया?’ जिन्हें बार-बार यह सवाल परेशान करता है, वें ‘मैं देश को क्या दे रहा हूं?’ इस एक प्रश्न का उत्तर स्वयं को अत्यंत ईमानदारी से दें! बच्चे को शिक्षा देते समय माता-पिता उस पर केवल ५ से १० प्रतिशत ही खर्च करते हैं, बाकी सारा खर्च समाज वहन करता है। अगर हम याद रखें कि हमारे देश के गुमनाम नागरिक हमारी प्रगति में कितनी भागीदारी निभा रहे हैं, तो हमें कुछ हद तक इस आज़ादी की कीमत पता चल जाएगी!

 फिर एक बार आजके पावन अवसर पर सबको अनेक बधाइयाँ,

 धन्यवाद आपका! 🙏🇮🇳💐

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

दिनांक १५ ऑगस्ट २०२3

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 127 ⇒ जीवन संगीत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जीवन संगीत।)  

? अभी अभी # 127 ⇒ जीवन संगीत? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन है मधुवन ! जिस वन में मधु भी हो और मधुर संगीत भी हो, कल्पना का तो कोई अंत नहीं, जीवन में झिलमिल सितारों का आंगन भी हो, रिमझिम बरसता सावन भी हो, तो क्यों न बृज की भूमि पर ही चला जाए। वहां मधुवन में राधिका भी है और गिरधर की मुरलिया भी। बाल गोपाल और छोटी छोटी गैया जहां हो तो क्या जीवन संगीतमय नहीं हो जाए।

सुना है, सुर के बिना, जीवन सूना है, और सुर के सात स्वर होते हैं, जब कि प्रेम तो सिर्फ ढाई अक्षर का ही होता आया है। मोहन की मुरली की तान छिड़ती है

तो कानों में मानो शहनाई गूंजने लगती है। सबसे ऊंची प्रेम सगाई। मीरा लोक लाज छोड़ती है, तो राधा के तो मानो प्राण ही उस मुरलिया में बसे हों।।

लेकिन हमारे जीवन में आज कहां गंगा, जमना और वृंदावन की गलियां हैं। हमारे जीवन में भी बाल लीला होती है, रास लीला होती है, हमारे भी बचपन के साथी थे। हम भी धूप और धूल में खेले हुए हैं। लेकिन नियति हमें भी हमारी ब्रज की भूमि से दूर धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र के महासमर में प्रविष्ट करवा ही देती है।

हम इस जीवन समर में बिना सारथी के अर्जुन हैं, बिना द्रोणाचार्य के एकलव्य हैं। हममें ही कभी दुर्योधन प्रकट हो जाता है तो कभी शकुनि। हमने भी धर्मराज बन यहां कई दांव खेले हैं, कई बार द्रोपदी हारी भी है तो कई बार उस नाथों के नाथ श्रीनाथ ने हमारी द्रोपदी की लाज भी बचाई है।।

जीवन में हमें भी सांदीपनी जैसे गुरु भी मिले हैं और कई सुदामा से मित्र भी, लेकिन बस अफसोस यही, हममें सदा कृष्ण तत्व का अभाव रहा। बचपन में हो सकता है, हमने भी माखन ना सही, बिस्किट के पैकेट से बिस्किट चुराया हो, दाऊ भैया की जेब से कभी पांच का नोट भी निकाला हो, लेकिन कृष्ण की तरह हम भी आज अपनी सभी बाल लीलाएं छोड़, बीवी बच्चों के साथ सुख में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

हमारे जीवन में आज रस भी है और संगीत भी। पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, पंडित कुमार गंधर्व, लता रफी और जगजीत कभी तानसेन की याद ताजा कर देते हैं तो कभी स्वामी हरिदास की।

एक अदना सा भजन गायक विनोद अग्रवाल, जब आंख मूंद कृष्ण को, हे गोविन्द हे गोपाल को अंसुअन जल से अश्रु भिगोकर हमें गोविंद की गली पहुंचाता है, तो काल की मर्यादाएं समाप्त हो जाती हैं। पिया मिलन की प्यास अधूरी नहीं रह जाती, प्यास पूरी हो जाती है, जब श्री हरी कीर्तन में भाव समाधि में प्रकट हो जाते हैं। यह गूंगे का गुड़ है। न बहरे को सुनाई देता है और न अंधे को दिखाई देता है।।

जीवन में सिर्फ देखा जाता है, कुछ दिखाया नहीं जाता। अनुभव, महसूस किया जाता है, उसका बखान नहीं किया जाता। जो प्रज्ञा चक्षु हैं केवल वे ही अधिकारी होते हैं उस लीला के महिमामंडन और गुणगान के। नर सत्संग से क्या से क्या हो जाए। डोंगरे महाराज की कथा जिसने सुनी, वह तर गया। समझिए भव सागर से उतर गया।

दुख दर्द तो जीवन में होंगे ही। जरा प्राचीन संतों के कष्ट देखें, महान व्यक्ति कांटों की राह पर ही जीवन में आगे बढ़े हैं फिर भी उन्होंने दुनिया को ज्ञान का संदेश ही दिया है, सत्य ने हमेशा उनका साथ दिया है। आज इनका संदेश भी शायद कुछ इस प्रकार का ही हो ;

तुम आज मेरे संग हंस लो

तुम आज मेरे संग गा लो।

और हंसते गाते, इस जीवन की

उलझी राह संवारो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हॉलीवुड के सुप्रसिद्ध निर्देशक जेम्स केमरून की हिट फिल्म थी टाइटैनिक. उसका एक दृश्य बहुत हृदयस्पर्शी था. जब जहाज डूब रहा होता है तब डूबते टाइटैनिक जहाज के कप्तान बजाय भागने के, जाकर अपने नियंत्रण कक्ष में बैठ जाते हैं. ये संदेश था कि कैप्टन अंत तक अपने जहाज के साथ होता है. जिम्मेदारियां, लोगों के कर्मक्षेत्र का हिस्सा होती हैं जिन्हें निभाना खुद की पसंद नहीं बल्कि अनिवार्य होता है. युद्ध चाहे कारगिल का हो या महाभारत का, युद्ध में वापस जाने का विकल्प योद्धाओं के पास होता नहीं है. जब परम वीर चक्र विजेता विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व शहादत की ओर बढ़ते हैं तो ये किसी मैडल के लिये नहीं होता. किन्हीं कारणों से पराजित को दिया गया अभयदान, आत्मविश्वास तोड़ने वाला दान ही होता है जिसके साथ शर्मिंदगी जीवनपर्यंत झेलनी पड़ती है. हर व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपनी क्षमताओं का आकलन करते हुये ही बड़े उत्तरदायित्वों को स्वीकारने की प्रतिस्पर्धा का प्रत्याशी बने. अवसरवादिता से किसी व्यक्ति को कोई भी संस्था उपकृत नहीं करती. अभिमन्यु अपने अधूरे ज्ञान के बावजूद द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में चले गये क्योंकि उनका मनोबल, युद्ध से पीछे हटने की इजाज़त नहीं दे रहा था.

मनचाहे स्थानों और मनचाहे असाइनमेंट मिलने का वचन किसी पदोन्नति में नहीं मिलता. पर अगर ये लगे कि गल्ती तो हो ही गई है और जो असाइनमेंट वहन करना पड़ रहा है उसे पूरा करना खुद के बस की बात नहीं है तो विकल्प क्या है? जुगाड़ करके वहाँ से पतली गली पकड़ के निकल जाना या फिर अक्षमता स्वीकारने का साहस दिखाकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का रास्ता पकड़ना. एक व्यवहारिक गली और भी है कि इंतजार करना कि जिनका टाइटैनिक है वो खुद विकल्प ढूंढ ही लेंगे. अगर टाइटैनिक किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है तो वो तो कप्तान बदलने में देर नहीं करेगा पर संस्थागत निर्णय, हमेशा देर से अवगत होने और फिर विलंब से निर्णय होने की परंपरागत प्रक्रिया में बंधे होते हैं. उनके पास भी योग्य पात्र का चयन और उपलब्धता की समस्या बनी रहती है इसलिए स्थानापन्न याने ऑफीशियेटिंग का विकल्प ज्यादा प्रयुक्त होता है.

पदोन्नति का महत्वपूर्ण घटक अंक आधारित मूल्यांकन है जो अधिकतर शतप्रतिशत या 95 से 99 अंक पाये व्यक्ति को ही सफलता का पात्र बनाता है. क्या इस प्रकरण में इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि शतप्रतिशत अंक पाना, मूल्यांकन रहित ऐसी औपचारिकता बन गई है जो सिर्फ संबंधों और सबजेक्टिव ओपीनियन के आधार पर अमल में लाई जाती है??? व्यवहारिक और वैयक्तिक आंतरिक शक्तियों और दुर्बलताओं का कोई आकलन नहीं होता. शायद संभव भी न हो जब तक कि ऐसा मौका न आये. हर जगह सब कुछ या कुछ भी धक नहीं पाता, कभी कभी कुछ प्रकरणों में ये साफ साफ दिख जाता है.

पानीपत सदृश्य शाखा के मुखिया का, सारे दरवाजे खटखटाने के बाद भी मनमाफिक अनुकंपा नहीं मिलने से, मन बदलते जा रहा था. हर सुबह “ये शाखा मेरे बस की नहीं है” के साथ शुरु होती और अपनी इस भावना को वो अपने निकटस्थ अधिकारियों से शेयर भी करते रहे. उनके पास ऐसी टीम थी जो उनका मनोबल मजबूत करने के साथ साथ संचालन में भी अतिरिक्त ऊर्जा के साथ काम करती रही. इस जटिल शाखा में काम और कस्टमर्स का दबाव, किसी को भी आराम करने की सुविधा का लाभ उठाने की अनुमति नहीं देता था. यहाँ पर कुछ बहुत ही एक्सट्रा आर्डिनरी स्टाफ थे जिनकी कार्यक्षमता और काम सीखने की ललक प्रशंसनीय थी. लोन्स एंड एडवांसेस पोर्टफोलियो बेहद प्रतिभाशाली प्राबेशनरी अधिकारियों, ट्रेनी ऑफीसर्स और मेहनती अधिकारियों से सुसज्जित था. आज प्रायः सभी सहायक महाप्रबंधक/उपमहाप्रबंधक जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं. शाखा से उसी अवधि के लगभग एक वर्ष बाद ही, सात युवा अवार्ड स्टाफ, सहायक प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हुये. शाखा स्तर पर कभी ऐसा मनमुटाव या मतभेद नहीं था जो प्रबंधन को तनावग्रस्त करे. ऐसे कर्मशील लोग होने के बावजूद, उनकी ये खूबियाँ मुखिया की उदासीनता और तनाव को दूर नहीं कर पा रही थी. उन्होंने अपनी मंजिल “स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति” की तय कर ली थी और वो इसी दिशा में शनैः शनैः बढ़ रहे थे.

पानीपत में अभी बहुत कुछ बाकी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 225 ☆ आलेख – क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त 🇮🇳 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखक्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 225 ☆

? आलेख – क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त 🇮🇳?

क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त – जिन्होने भगत सिंह के संग संसद में बम फेंका .. 

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला – नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।

बटुकेश्वर दत्त  भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था।

8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।

इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।

आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला में किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची हैं।

बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार कहते हैं कि ‘स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।’

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मैं, मेरा गांव और स्वतंत्रता दिवस 🇮🇳 ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक प्रेरक संस्मरणात्मक प्रसंग ‘मैं, मेरा गांव और स्वतंत्रता दिवस…’।)

☆ आलेख – मैं, मेरा गांव और स्वतंत्रता दिवस 🇮🇳 ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

स्वतंत्रता दिवस समारोहपूर्वक खुशियां मनाने और शहीदों को याद करने का दिन होता है। साथ ही यह किसी राष्ट्र या समुदाय की उपलब्धियों और चुनौतियों का लेखा जोखा जुटाने का अवसर भी होता है। राष्ट्र की उपलब्धियों और चुनौतियों के बारे में इन दिनों मीडिया और गोष्ठियों में विस्तृत चर्चा हो रही है। मैं आज अपने गांव के संबंध में इसी हवाले से बातचीत करना चाहता हूं।

मेरा जन्म देश की आज़ादी से चंद महीने पहले हरियाणा में करनाल जिले के एक छोटे से गांव हरसिंहपुरा में हुआ था। गांव यमुना नदी से करीबन चार किलोमीटर की दूरी पर था और हर दूसरे तीसरे साल आने वाली बाढ़ गांव के कच्चे घरों को गिरा देती या नुकसान पहुंचाती। गांव में केवल दो घर पक्के थे। दो अन्य घरों की केवल आगे की दीवार पक्की थी, पीछे का पूरा घर कच्चा होता था।

आज मेरे गांव में कोई घर कच्चा नहीं है। शहरी तरह के अनेक मकान हैं। पहले किसी भी घर में शौचालय या बाथरूम नहीं थे, आज सभी में हैं। कुछ घरों में बिजली दो अक्टूबर 1969 गांधी जन्मशताब्दी पर आ गई थी। अब सभी घरों में बरसों से बिजली है।

लगभग सब घरों में कलर टीवी हैं। अनेकों में फ्रिज भी हैं। लगभग सभी घरों में एलपीजी गैस कनेक्शन हैं। ट्रैक्टर, कार, जीप, मोटरसाइकिल और स्मार्टफोन बड़ी संख्या में हैं।

अब मेरे गांव में बाढ़ नहीं आती। पचास के दशक में यमुना के आस पास के हर गांव से बारी बारी 20 जवान किसान रोज़ाना अपना तस्ला व कस्सी लेकर यमुना पर बांध बनाने के लिए  जाते थे।  हजारों आदमी काम करते थे। महीनों काम चला।  उन्हें किसी तरह की मजदूरी नहीं मिलती थी। कोई मांगता भी नहीं था। उन्हें बस यमुना का रुख मोड़ कर बाढ़ से बचाव की उम्मीद थी और यह पूरी भी हुई।

मेरे गांव में कोई स्कूल नहीं था। पास के गांव में मैने पढ़ाई शुरू की। तीसरी कक्षा में पहुंचा तो हमारे गांव में सरकारी प्राइमरी स्कूल खुला जो आज मिडिल स्तर का हो चुका है।  अब गांव में सीनियर सेकेंडरी स्तर का एक केंद्रीय विद्यालय और एक प्राइवेट स्कूल भी काम कर रहे हैं।

1. स्वतंत्रता दिवस पर हरियाणवी लोकनृत्य पेश करती लड़कियां। 2. हरियाणा के लोकगायक जंगम जोगी। 3. करनाल के पास कोस मीनार 4. अपने गांव के खेतों में लेखक, पत्नी व बेटी के साथ।

सुबह सवेरे अनेक पीली बसें गांव में आती हैं और बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई के लिए ले जाती हैं। मैं गांव से पहला ग्रेजुएट था। अब बहुत हैं पर उनका स्टैंडर्ड बहुत नीचे है और अधिकतर उपयुक्त रोज़गार  योग्य नहीं हैं। सरकारी नौकरी में गांव के बहुत कम युवा हैं। एक दर्जन से भी कम। पानीपत के आसपास बड़ी संख्या में छोटे बड़े अनेक उद्योग कायम हुए हैं। वहां अधिकतर युवा कम वेतन के बावजूद काम करते हैं।

खेती की जोत बहुत छोटी हो गई है। केवल खेती से गुजारा नहीं हो सकता। पशुपालन भी करते हैं। पिछले तीन चार साल से विदेशों में जाने का रुझान बना है। गांव से 10 युवा अमरीका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जा चुके हैं। वे पचास लाख रुपए में एक एकड़ ज़मीन बेचते हैं और एजेंटों के जरिए डंकी रूट से अमेरिका पहुंच जाते हैं। घर डॉलर भेजते हैं, परिवार वाले आलीशान मकान बना लेते हैं।

मेरे गांव में शराब व नशे का चलन नहीं था, अब खूब है। कई परिवार तबाह हो चुके हैं। मेरे एक छोटा भाई और उसके दो बेटों को नशे ने लील लिया। शुक्र है कि घर की महिलाओं ने घर को संभाल लिया।

मेरे गांव में अनुसूचित जाति के स्थानीय लोग अब कम ही मजदूरी करते हैं। वे मनरेगा की दिहाड़ी जरूर करते हैं।

खेती अब बिहार, यूपी, झारखंड से आए मजदूरों पर ही आधारित है।

अक्सर मीडिया में खबर आती है कि हरियाणा में देश में सबसे अधिक बेरोजगारी है, 30% से अधिक. इस आंकड़े पर कुछ यकीन नहीं होता। अगर यहां इतनी बेरोजगारी है तो लाखों की तादाद में यहां बाहरी राज्यों के मजदूर किस लिए आते हैं। बिहार यूपी से लाखों की संख्या में मजदूर अन्य राज्यों में रोजगार के लिए जाते हैं। हरियाणा से तो इस तरह का माइग्रेशन नही होता। यहां का स्थानीय युवा मजदूरी नहीं करना चाहता, वो तो सरकारी नौकरी चाहता है जो बड़ी संख्या में नहीं हैं।

मेरे गांव में  पंचायत चुनाव जो पहले सर्वसम्मति से होते थे अब लाखों रुपए खर्च करते हैं। हर चुनाव में गांव जाति आधार पर बंट जाता है। पंचायत के पास तीस एकड़ जमीन हैं। इसकी सालाना नीलामी से अच्छी आमदनी होती है जो विकास कार्यों पर लगाई जाती है। सरकार ने गांव के सभी बड़े विकास कार्य ऑनलाइन टेंडर के जरिए कराने का फैसला किया है। इसका प्रदेश भर में विरोध हो रहा है। एक सरपंच का कहना था कि अगर उन्हें इस फैसले का पता होता तो वे चुनाव में इतना पैसा न लगाते। विरोधी पार्टी वादा कर रही है कि उसकी सरकार आने पर वह ऑनलाइन टेंडर सिस्टम समाप्त कर देगी।

गांव की आबादी एक हज़ार से बढ़ कर लगभग दो हज़ार हो चुकी है। अब ठहराव सा आ गया है। वर्तमान पीढ़ी में अधिकतर घरों  में दो से ज्यादा बच्चे नहीं हैं। लड़के ज्यादा पैदा हो रहे हैं, लड़कियां कम। युवाओं की शादी की बड़ी समस्या है। लड़कियां नहीं मिल रही।

गांव में जाता हूं तो लोग अक्सर यही कहते हैं कि उनके लड़के की नौकरी लगवा दो, उसकी शादी हो जायेगी। उनके पास अच्छी मेरिट नहीं है। मैं तैयारी करने की बात कहता हूं तो वे कुछ ले दे के सौदा कराने की बात कहने लगते हैं। वे मुझसे निराश होकर ही चले जाते हैं। भाई तो ये भी उलहाना दे देते हैं कि तूने अपने बच्चे भी तो नौकरी लगवाए हैं, हमारे क्यूं नही?

मेरिट में उनका यकीन नहीं है।

लोग मोदी के प्रशंसक हैं पर इस बार मुख्य मंत्री को हराने की बात करते हैं यह कह कर कि वह लोगों के काम नहीं करता। और काम एक ही है, बच्चों को नौकरी दिलाना।

मुख्य मंत्री करनाल से विधायक हैं और मेरा गांव निकटवर्ती विधानसभा क्षेत्र में आता है। सार्वजनिक काम काफी हुए हैं, पर लोगो की मुख्य समस्या तो पर्सनल है, रोजगार की।

मेरे गांव के सेन नाई ओबीसी वर्ग के अति गरीब परिवार के दो भाई निजी कंपनियों में मैनेजर हैं। विदेशों की यात्राएं करते हैं। काश ऐसी और कहानियां होती।

टमाटर की महंगाई का मेरे गांव में कोई जिक्र नहीं है। कहते हैं ये शहर वालों की प्रोब्लम है। वे कहते हैं इससे किसानों का फायदा ही है। अगले साल वे भी टमाटर लगाने की कह रहे हैं। दूध, अनाज, घी घर का है। घीया तोरी सब्जी भी लगा लेते हैं।

मेरा गांव बदल रहा है, बड़ी तेज़ी से।

उन्नत बीजों और ट्यूबवेल की सिंचाई के विस्तार से पैदावार कई गुना बढ़ी है पर जल स्तर गिरता जा रहा है।   रेत और मिट्टी की खदाने कृषि के भविष्य पर सवाल खड़े कर रही हैं। रसायनिक खाद और पेस्टीसाइड का उपयोग फूड चेन में आ चुका है। मेरे गांव में डायबिटीज के एक दर्जन से ज्यादा केस हैं। कैंसर के तीन मरीज़ हैं। इनमें एक मेरा अपना भाई है जिसका केस एडवांस स्टेज पर है।

आज़ादी के बाद गांव बदल गया है। समृद्धि आई है पर साथ ही बीमारी और बेरोजगारी भी बढ़ गई हैं। पहले कुछ न होते हुए भी संतोष था, आज बहुत कुछ होते हुए भी निराशा और असंतोष है। करीबन ऐसी ही स्थिति उत्तर भारत के अधिकतर गांवों की है।

पचास के दशक में मेरी याद के पहले स्वतंत्रता दिवस पर तत्कालीन सरपंच पंडित रामकिशन तिरंगा लेकर गांव की गलियों से घूमे थे और हम भारत माता की जय के नारे लगाते हुए गांव के भूमिया खेड़ा पर पहुंचे थे जहां झंडे को टांग दिया गया था। हमें कुछ पताशे मिले थे। भूमिया खेड़ा वह स्थान होता है जहां गांव बसाने के समय भूमि पूजन किया गया होता है। यह एक ग्राम देवता की तरह ही होता है। सभी शुभ कार्यों पर भूमिया खेड़े की पूजा की जाती है।

गांव में अब स्वतंत्रता दिवस तीन बड़े स्कूलों में धूमधाम से मनाया जाता है।

मेरे सभी ग्रामवासियों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई। नए ज़माने की नई चुनौतियों का सामना अपने आप ही करना होगा। अवसरों की जानकारी लें, उनका लाभ उठाएं।  बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाएं, बुरी संगत व आदतों से खुद भी बचें और बच्चों को भी बचाएं।

आप सभी ग्रामवासियों के लिए स्वतंत्रता दिवस शुभ हो।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 126 ⇒ श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा”।)  

? अभी अभी # 126 ⇒ श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा ?श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान को तो खैर, आज भी बच्चा बच्चा जानता है, लेकिन तारकेश्वरी सिन्हा नाम कुछ सुना सुना सा लगता है। देश की आजादी के पश्चात् पहली लोकसभा (१९५२) की बिहार से लोकसभा की सदस्या थी श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा। जन्म 26 दिसंबर 1926 अवसान 14 अगस्त 2007।

 एक भारतीय राजनीतिज्ञ एवं भारत छोड़ो आंदोलन की सक्रिय सदस्या।

जो आवाजें कई वर्षों तक संसद में गूंजी, इस नई संसद में उनकी सिर्फ यादें ही बाकी रह जाएंगी। जिस तरह परिवार में पुराने सदस्यों की चर्चा होती है, उम्मीद नहीं, कभी आज की संसद में इन भूले बिसरे चेहरों की कभी चर्चा भी हो पाएगी।।

१४ अगस्त श्रीमति तारकेश्वरी की पुण्यतिथि भी है, मौका भी है और दस्तूर भी, इस अवसर पर उन्हें सिर्फ याद ही किया जा सकता है।

वे केवल सोलह वर्ष की अवस्था में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई, और केवल २६ वर्ष की उम्र में बिहार से १९५२ का लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद में उनका पदार्पण हुआ। लगातार सन् १९५७, १९६२ और १९६७ तक वे लोकसभा की सदस्या रही लेकिन १९७१ में वे चुनाव हार गई। ।

वे एक झुहारू राजनेता थी। बॉब कट बाल और स्लीवलेस ब्लाउज पहने वह बेबी ऑफ हाउस, ग्लैमर गर्ल ऑफ इंडियन पार्लियामेंट, और ब्यूटी विद ब्रेन जैसे विशेषण से नवाजी जाने वाली श्रीमती सिन्हा नेहरूजी के पहले मंत्रिमंडल में भी वित्त राज्य मंत्री के रूप में शामिल थी। मोरारजी देसाई तब देश के वित्त मंत्री थे। वे सुंदरता में इंदिरा जी से उन्नीस नहीं थी और इंदिरा जी फिरोज गांधी को लेकर बहुत पजेसिव थी। जहां भी ब्यूटी विद ब्रेन होगा, वहां सहज आकर्षण तो होगा ही। शायद इसीलिए तारकेश्वरी सिन्हा कभी इंदिरा जी की पसंद नहीं रही।

संसद की बहस में तब तारकेश्वरी सिन्हा के शेर गूंजा करते थे। लोहिया हों या स्व. अटल बिहारी बाजपेई, तब की नोंक झोंक, विट, ह्यूमर और शालीनता की तुलना आज के माहौल से नहीं की जा सकती। ।

सन् १९७१ का चुनाव तारकेश्वरी सिन्हा हार गई, क्योंकि इंदिरा लहर में वे कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेस (old) के टिकट से चुनाव लड़ी थी। विनाश काले विपरीत बुद्धि के कारण में वे भी इंदिरा जी के साथ हो गई और साथ साथ सन् 1977 का चुनाव भी हार गई और उनका राजनैतिक कैरियर हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

राजनीति में ग्लैमर भी जरूरी है, इसीलिए फिल्मी सितारों की राजनीति में प्रविष्टि हुई। संसद में नर्गिस, सुनील दत्त, दिलीप कुमार, विनोद खन्ना और बाद में तो क्रिकेट खिलाड़ी और धर्मेंद्र, हेमा और सनी तीनों ही लोकसभा में चले आए। उधर जया और जयाप्रदा तो इधर भोजपुरी अभिनेताओं की तिकड़ी। ।

अस्त होते सूरज को कौन नमन करता है। गुमनामी का जीवन गुजारती श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा वर्ष 2007 में आज ही के दिन, चुपचाप इस संसार से रुखसत हो गई।

अनायास ही १४ अगस्त को उनकी याद आ गई, उन्हें सादर श्रद्धांजलि ..!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 47 – देश-परदेश – समोसा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 47 ☆ देश-परदेश – समोसा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में हमारे शहर में “मौसा के समोसे” बहुत प्रसिद्ध होते थे। साठ के दशक के मध्य में दस पैसे का समोसा क्रय करने के लिए मित्र से भागीदारी में इसका बटवारां थोड़ा कठिन होता था। इसकी बनावट तिकोनी होने के कारण हलवाई से ही इसके दो टुकड़े कर मित्र से भागीदारी पूरी हो जाती थी।

उपरोक्त चित्र एक “बाहुबली समोसे” का है। इसका वज़न मात्र आठ किलो हैं। इसका निर्माण मेरठ शहर में हुआ हैं। इसे विश्व का सबसे वजनी समोसा होने का गौरव प्राप्त हुआ हैं।

कुछ हट के करने की दौड़ में जयपुर में एक विक्रेता ने अपना नाम ही “ठग्गू के समोसे” रख लिया हैं। पुरानी कहावत है, जैसा नाम वैसा ही काम! झूट/ठग्गी का जीवन भी छोटा होता हैं, जब उन्होंने अपने नाम को ही अपना काम बना लिया, तो भगवान ( ग्राहक) ने भी उनका साथ नहीं दिया।

“स्वीगी” जो देश के सबसे बड़े खाद्य दूत की श्रेणी में आते है, ने भी समोसे को सबसे अधिक बिकने वाला खाद्य घोषित किया हैं। उनको मिलने वाले ऑर्डर में हर पांचवा ऑर्डर समोसे का ही रहता हैं।

देश के पूर्वी भाग में इसकी बनावट से मिलते जुलते फल सिंगाढ़ा के नाम से जाना जाता हैं। पश्चिमी भाग में इसको “पंजाबी समोसा” कह कर ग्रहण किया जाता हैं। वैसे वडा पाव में वड़े के स्थान पर भी यदा कदा समोसे को स्थान दे दिया जाता हैं। देश के उत्तर और मध्य भाग में तो समोसा ही राजा हैं।

मांसाहारी भोजन के शौकीन भी समोसे में आलू के स्थान पर कीमा के समोसे का आनंद लेते हैं। वैसे, समोसा हर  मोसम में खाया जाता हैं, परंतु शीत ऋतु में इनका पाचन सरल होता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 202 ☆ “पीड़ा का नाम परसाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पीड़ा का नाम परसाई)

☆ आलेख ☆ “पीड़ा का नाम परसाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

इस वर्ष हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म शती वर्ष है। आप जानते हैं कि हिंदी साहित्य में हरिशंकर परसाई जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ। परसाई के तीखे व्यंग्य बाणों ने सत्ता के अन्तर्विरोधों की पोल खोल दी और अपने युग की राजनीतिक सामाजिक विडंबनाओं को तीखे ढंग से पेश किया। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस

नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोकशिक्षण का काम किया।

तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है – “परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”

परसाई जी जीवन के अंतिम समय तक पीड़ा ही झेलते रहे, यह व्यक्तिगत पीड़ा भी थी, पारिवारिक पीड़ा भी थी, समाज और राष्ट्र की पीड़ा भी थी, इसी पीड़ा ने व्यंग्यकार को जीवन दिया। उनका व्यंग्य कोई हंसने हंसाने, हंसी – ठिठोली वाला व्यंग्य नहीं, वह आम जनमानस में गहरे पैठ कर मर्मांतक चोट करता है, वह उत्पीड़ित समाज में नई चेतना का संचार करता है, उन्हें कुरीतियों, अज्ञान के खिलाफ जेहाद छेड़ने बाध्य करता है, वह सरकारी अमले को दिशानिर्देश देता प्रतीत होता है, यह साहस हर कोई नहीं जुटा सकता। समाज से, सरकार से, मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते हैं, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी । व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लम्बी गाथा है।अब उनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो चुकी है। दिनों दिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे। 

जो परसाई की “पारसाई” को जानता है, वही परसाई जी को असल में जानता है, उनके लिखे ‘गर्दिश के दिन’ पढ कर हर आंख नम हो जाती है, हर व्यक्ति के अंदर करूणा की गंगा बह जाती है। ‘गर्दिश के दिन’ पढ़कर एक युवा लेखक ने परसाई के नाम पत्र लिखा, जो उस समय गंगा पत्रिका में छपा था…..

जनाब परसाई जी, 

मैं नया जवान हूं। कुछ साल पहले मैंने लिखना शुरू किया था। मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं हरिशंकर परसाई बनूंगा पर आपका लिखा “गर्दिश के दिन” पढ़कर और आपके द्वारा भोगे गये घोर कष्टों का वर्णन पढ़कर मैंने यह विचार त्याग दिया है। मैं हरिशंकर परसाई अब नहीं बनूंगा। हरिशंकर परसाई बनना आपको ही मुबारक हो। मैं हमदर्दी भेजता हूं।

परसाई दुनिया के ऐसे अकेले लेखक हैं जिनके जीते जी उनकी “रचनावली” प्रकाशित हुई थी, उनकी रचनाओं में धारदार हथियार करूणा के रस में डूबा रहता था,   उनकी रचनाओं में ऐसा धारदार सच होता है, एक बार उनकी रचना पढकर कुछ लोगों ने उनको इतना पीटा और उनकी दोनों टांग तोड दी, पर वे टूटी टांग लिए जीवन भर लिखते रहे। आजादी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लोकप्रिय लेखक श्री हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं के मार्फत सामाजिक सुधार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है, उनकी रचनाओं को पढ़कर भ्रष्टाचारियों ने भ्रष्टाचार छोड़ा, गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली मनोवृत्ति वालों ने अपना स्वाभाव बदला, पुलिस वाले सुधरे, सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था और व्यवहार में कुछ हद तक सुधार हुआ और होता जा रहा है, लाखों लोग उनकी रचनाओं से प्रेरणा लेकर समाज सुधार में लगे हैं। वास्तव में ऐसे समाज सुधारक लोकप्रिय,लोक शिक्षक लेखक भारत रत्न के हकदार होते हैं। परसाई अपने आसपास बिखरे साधारण से विषय को अपनी कलम से असाधारण बना देते थे, उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक पकड़े रहतीं हैं। हाईस्कूल के पंडित जी तो सबको मुहावरे और सुभाषित पढ़ाते हैं पर उनकी गहराई में जाकर परसाई जी हंसाते हुए आम आदमी की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। ऐसी सहज सरल भाषा में जो आमतौर पर सब तरफ हर कान में सुनाई देती है। राजनीति परसाई जी को मुख्य विषय रहा है, राजनैतिक बदलाव की इतनी सारी स्थिति के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी सबसे ताजा लगतीं हैं, उनकी घटना प्रधान रचनाएं कहीं से भी बासी नहीं लगती। वाह परसाई,गजब परसाई, हां परसाई …. तेरी गजब पारसाई।

परसाई जी की पहली रचना 1947 में ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, और परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी। कालेज के दिनों से हम परसाई जी के सम्पर्क में रहे और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे दर्द को महसूस किया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 125 ⇒ उड़न किस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उड़न किस।)  

? अभी अभी # 125 ⇒ उड़न किस? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

इस नश्वर संसार में उड़न खटोले से लगाकर उड़न परी और उड़न सिख के बीच इतनी उड़ती उड़ती चीजें हैं, कि इन्हें देखकर एक साधारण इंसान का तो सर ही चकरा जाए। क्या पता, कब कोई एलियन उड़न परी, उड़न तश्तरी से इस धरती पर उतर आए, जिसे देख उड़न दस्ता भी आश्चर्य में पड़ जाए और उसका एक एलियन किस, हमारे धरती के फ्लाइंग किस पर भारी पड़ जाए।

जब एक मक्खी उड़ती हुई, आपके मुंह पर फ्लाइंग किस मारकर उड़ जाती है, तो आप उसका क्या बिगाड़ लेते हो। हमने वे दिन भी देखे हैं जब खटमल हमारा खून चूस रहे हैं, और डैंड्रफ के कारण हम अपना सर खुजा रहे हैं। भला हो, ऑल आउट, काला हिट, मच्छरदानी, पैंटीन शैंपू और लक्ष्मण रेखा का, जो हमें इन उड़ते मक्खी, मच्छर और रेंगती छिपकली, चींटी मकोड़े और कॉकरोचों से हमारा और हमारी बालों की रूसी का भी बचाव करती रहती हैं।।

हर इंसान को उड़ती खबर और उड़ती नज़र से सावधान रहना चाहिए। कोई अच्छी बुरी खबर उड़ते उड़ते कहां पहुंच जाए, कहा नहीं जा सकता। वे दिन हवा हुए, जब उड़ते हुए शांतिदूतों के जरिए प्रेम संदेश और मित्रता संदेश भेजे जाते थे। सरकारी आदेश तो डुगडुगी पीटकर ही सुनाया जाता था। सुनो, सुनो, सुनो ! और सबको सुनना भी पड़ता था।

फिर काम की खबरें भी बेतार के तारों के जरिए भेजी जाने लगी। बेतार की भाषा किसी गागर में सागर से कम नहीं होती थी। शब्द और अक्षरों में कोई भेद नहीं होता था। कई बार तो अर्थ का अनर्थ भी हो जाता था।।

फिर आया सरस्वतीचंद्र का जमाना, जब “फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है“, जैसे संदेश फूलों के जरिए भेजे जाने लगे। किसी भी पुरानी किताब में सूखा, मुरझाया कोई गुलाब का एक फूल कोई भूली दास्तान बयां करता नजर आता था।

हमारे नीरज जी तो फूलों के रंग से, और दिल की कलम से रोज ही पाती लिखते थे।

आज तो स्थिति यह है कि इधर व्हाट्सएप पर संदेश लिखा जा रहा है, और उधर उन्हें उसकी भी खबर प्रसारित हो रही है। किस टाइप का प्रेम संदेश है यह,

जो लिखने से पहले ही बयां होने को लालायित है, उत्सुक है।।

आसमान में उड़ते बादल भी विरही प्रेमियों के दिल का हाल जानते हैं। सावन के बादलों, उनसे ये जा कहो, और ;

जा रे कारे बदरा,

सजना के पास।

वो हैं ऐसे बुद्धू,

कि समझे ना प्यार।।

हमारे आनंद बक्षी जी ने सावन को लाखों का बताया है, और नौकरी को दो टकियाॅं की। ऐसे फुल टाइम फूल, गुलदस्ता और फ्लाइंग किस भेजने वालों से भगवान हम शरीफों को बचाए। हम तो चाहते हैं, इस अधिक मास के सावन में दाल रोटी खाएं, और प्रभु के गुण गाकर कुछ पुण्य कमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 204 – 🇮🇳 भारत की बात सुनाता हूँ..! 🇮🇳 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 204 🇮🇳 भारत की बात सुनाता हूँ..! 🇮🇳 ?

देश के स्वतंत्रता दिवस की वर्षगाँठ सन्निकट है। अन्यान्य कारणों से पिछले कुछ समय से देश के नाम ‘भारत’ और ‘इंडिया’ को लेकर चर्चा हो रही है। इन कारणों की चर्चा इस स्तम्भ का विषय नहीं है। तथापि हम अपने राष्ट्र के नामकरण के संदर्भों पर इस लघु  आलेख के माध्यम से पुनः प्रकाश डालना चाहते हैं।

विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक कहता है, 

उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं

वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।

अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।

माना जाता है कि महाराज भरत ने इस भूभाग का नामकरण ‘भारत’ किया था। हम सिंधु घाटी सभ्यता के निवासी हैं। बाद में तुर्कों का इस भूभाग में प्रवेश हुआ। तुर्क ‘स’ को ‘ह’ बोलते थे। फलत: यहाँ के निवासी हिंदू कहलाए। फिर अंग्रेज आया। स्वाभाविक था कि उस समय इस भूभाग के लिए चलन में रहे  ‘हिंदुस्तान’ शब्द का उच्चारण उनके लिए कठिन था। सिंधु घाटी सभ्यता के लिए ‘इंडस वैली सिविलाइजेशन’ का प्रयोग किया जाता था। इस नाम के चलते अंग्रेजों ने देश का नामकरण इंडिया कर दिया।

शेक्सपियर ने कहा था, ‘नाम में क्या रखा है?’ अनेक संदर्भों में यह सत्य भी है। तब भी राष्ट्र का संदर्भ भिन्न है। राष्ट्र  का नाम नागरिकों के लिए चैतन्य और स्फुरण का प्रतीक होता है। राष्ट्र का नाम अतीत, वर्तमान और भविष्य को अनुप्राणित करता है। भारत हमारे लिए चैतन्य, स्फुरण एवं प्रेरणा है।

‘भा’ और ‘रत’ के योग से बना है ‘भारत।’ इसका अर्थ है, जो निरंतर प्रकाश में रत हो। ‘भारत’ नाम हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है, अपने अस्तित्व का भान कराता है, अपने कर्तव्य का बोध जगाता है। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के बालकांड में भरत के नामकरण के प्रसंग में लिखा है,

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

जो संसार का भरण-पोषण करता है, वही भरत कहलाता है। इसे भारत के संदर्भ में भी ग्रहण किया जा सकता है।

शत्रु को भी अपनी संतान की तरह देखनेवाली इस धरती पर मनुष्य जन्म पाना तो अहोभाग्य ही है।

दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।

अर्थात भारत में जन्म लेना दुर्लभ है। उसमें भी मनुष्य योनि पाना तो दुर्लभतम ही है।

भारतीय कहलाने का हमारा जन्मजात अधिकार और सौभाग्य है। भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी के भाषण का प्रसिद्ध अंश है-

“भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएँ हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकड़-कंकड़ शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जिएँगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए।”

भारत के एक नागरिक द्वारा सभी साथी नागरिकों को स्वाधीनता दिवस की वर्षगाँठ की अग्रिम बधाई एवं शुभकामनाएँ। 🇮🇳

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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