हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एक पाठ ऐसा भी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  एक पाठ ऐसा भी

मनुष्य का जीवन घटनाओं का संग्रह है। निरंतर कुछ घट रहा होता है। इस अखंडित घट रहे को हरेक अपने दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। मेरे जीवन में घटी इस सामान्य-सी घटना ने  असामान्य सीख दी। यह सीख आज भी पग-पग पर मेरा मार्गदर्शन कर रही है।

वर्ष 1986 की बात है। बड़े भाई का विवाह निश्चित हो गया था। विवाह जयपुर से करना तय हुआ। जयपुर में हमारा मकान है जो सामान्यत: बंद रहता है। पुणे से वहाँ जाकर पहले छोटी-मोटी टूट-फूट ठीक करानी थी, रंग-रोगन कराना था। पिता जी ने यह मिशन मुझे सौंपा। मिशन पूरा हुआ।

4 दिसम्बर का विवाह था। कड़ाके की ठंड का समय था। हमारे मकान के साथ ही बगीची (मंगल कार्यालय) है। मेहमानों के लिए वहाँ बुकिंग थी पर कुटुम्ब और ननिहाल के सभी  सभी परिजन स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुके। मकान काफी बड़ा है, सो जगह की कमी नहीं थी पर इतने रजाई, गद्दे तो घर में हो नहीं सकते थे। अत: लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित सुभाष चौक से मैंने 20 गद्दे, 20 चादरें और 20 रजाइयाँ किराये पर लीं।

उन दिनों सायकलरिक्शा का चलन था। एक सायकलरिक्शा पर सब कुछ लादकर बांध दिया गया। दो फुट ऊँचा रिक्शा, उस पर लदे गद्दे-रजाई, लगभग बारह फीट का पहाड़ खड़ा हो गया। जीवन का अधिक समय पुणे में व्यतीत होने के कारण इतनी ऊँचाई तक सामान बांधना मेरे लिए कुछ असामान्य था।

…पर असली असामान्य तो अभी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।  रिक्शेवाला सायकल पर सवार हुआ और मेरी ओर देखकर कहा, ‘भाईसाब बेठो!” मेरी मंथन चल रहा था कि इतना वज़न यह अकेली जान केसे हाँकेगा! वैसे भी रिक्शा में तो तिल रखने की भी जगह नहीं थी सो मैं रिक्शा के साथ-साथ पैदल चलूँगा। दोबारा आवाज़ आई, “भाईसाब बेठो।” इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं आश्चर्यचकित हो गया। ” कहाँ बैठूँ?” मैंने पूछा। “ऊपरली बैठ जाओ”, वह ठेठ मारवाड़ी में बोला। फिर उसने बताया कि वह इससे भी ऊँचे सामान पर ग्राहक को बैठाकर दस-दस किलोमीटर गया है। यह तो आधा किलोमीटर है। “भाईसाब डरपो मनि। कोन पड्स्यो। बेठो तो सही।” मैंने उसी वर्ष बी.एस्सी. की थी। उस आयु में कोई चुनौती दे, यह तो मान्य था ही नहीं। एक दृष्टि डाली और उस झूलते महामेरु पर विराजमान हो गया। ऊपर बैठते ही एक बात समझ में आ गई कि चढ़ने के लिए तो मार्ग मिल गया, उतरने के लिए कूदना ही एकमात्र विकल्प है।

रिक्शावाले ने पहला पैडल लगाया और मेरे ज्ञान में इस बात की वृद्धि हुई कि जिस रजाई को पकड़कर मैं बैठा था, उसका अपना आधार ही कच्चा है। अगले पैडल में उस कच्ची रस्सी को थामकर बैठा जिससे सारा जख़ीरा बंधा हुआ था। जल्दी ही आभास हो गया कि यह रस्सी जितनी  दिख रही है, वास्तव में अंदर से है उससे अधिक कच्ची। उधर गड्ढों में सड़क इतने कलात्मक ढंग से धंसी थी कि एक गड्ढे से बचने का मूल्य दूसरे गड्ढे में प्रवेश था।   फलत: हर दूसरे गड्ढे से उपजते झटके से समरस होता मैं अनन्य यात्रा का अद्भुत आनंद अनुभव कर रहा था।

यात्रा में बाधाएँ आती ही हैं। कुछ लोगों का तो जन्म ही बाधाएँ उत्पन्न करने के लिए हुआ होता है। ये वे विघ्नसंतोषी हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर ने मनुष्य को टांग  दूसरों के काम में अड़ाने के लिए ही दी है। सायकलरिक्शा मुख्य सड़क से हमारे मकानवाली गली में मुड़ने ही वाला था कि गली से बिना ब्रेक की सायकल पर सवार एक विघ्नसंतोषी प्रकट हुआ। संभवत: पिछले जन्म में भागते घोड़े से गिरकर सिधारा था। इस जन्म में घोड़े का स्थान सायकल ने ले लिया था। हमें बायीं ओर मुड़ना था। वह गली से निकलकर दायीं ओर मुड़ा और सीधे हमारे सायकलरिक्शा के सामने। अनुभवी रिक्शाचालक के सामने उसे बचाने के लिए एकसाथ दोनों ब्रेक लगाने के सिवा कोई विकल्प नहीं था।

मैंने जड़त्व का नियम पढ़ा था, समझा भी था पर साक्षात अनुभव आज किया। नियम कहता है कि प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में  एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। ब्रेक लगते ही मैंने शरीर की गति में परिवर्तन अनुभव किया। बैठी मुद्रा में ही शरीर विद्युत गति से ऊपर से नीचे आ रहा था। कुछ समझ पाता, उससे पहले चमत्कार घट चुका था। मैंने अपने आपको सायकलरिक्शा की सीट पर पाया। सीट पर विराजमान रिक्शाचालक, हैंडल पर औंधे मुँह गिरा था। उसकी देह बीच के डंडे पर झूल रही थी।

सायकलसवार आसन्न संकट की गंभीरता समझकर बिना ब्रेक की गति से ही निकल लिया। मैं उतरकर सड़क पर खड़ा हो गया। यह भी चमत्कार था कि मुझे खरोंच भी नहीं आई थी…पर आज तो चमत्कार जैसे सपरिवार ही आया था। औंधे मुँह गिरा चालक दमखम से खड़ा हुआ। सायकलरिक्शा और लदे सामान का जायज़ा लिया। रस्सियाँ फिर से कसीं। अपनी सीट पर बैठा। फिर ऐसे भाव से कि कुछ घटा ही न हो, उसी ऊँची जगह को इंगित करते हुए मुझसे बोला,” बेठो भाईसाब।”

भाईसाहब ने उसकी हिम्मत की मन ही मन दाद दी लेकिन स्पष्ट कर दिया कि आगे की यात्रा में सवारी पैदल ही चलेगी। कुछ समय बाद हम घर के दरवाज़े पर थे। सामान उतारकर किराया चुकाया। चालक विदा हुआ और भीतर विचार की शृंखला चलने लगी।

जिस रजाई पर बैठकर मैं ऊँचाई अनुभव कर रहा था, उसका अपना कोई ठोस आधार नहीं था। जीवन में एक पाठ पढ़ा कि क्षेत्र कोई भी हो, अपना आधार ठोस बनाओ। दिखावटी आधार औंधे मुँह पटकते हैं और जगहँसाई का कारण बनते हैं।

आज जब हर क्षेत्र विशेषकर साहित्य में बिना परिश्रम, बिना कर्म का आधार बनाए, जुगाड़ द्वारा रातोंरात प्रसिद्ध होने या पुरस्कार कूटने की इच्छा रखनेवालों से मिलता हूँ तो यह पाठ बलवत्तर होता जाता है।

अखंडित निष्ठा, संकल्प, साधना का आधार सुदृढ़ रहे तो मनुष्य सदा ऊँचाई पर बना रह सकता है। शव से शिव हो सकता है।

 कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

संध्या 7:28 बजे, 12.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 18 ☆ जरा सोचिए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “जरा सोचिए।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी ने दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं।  हम राज्य के नागरिक हैं या देश के और हम अपने ही देश में प्रवासी कैसे हो गए ? इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 18 ☆

☆ जरा सोचिए

आज सोशल मीडिया पर एक पंक्ति पढ़ी- बड़ा गुमान था ये सड़क तुम्हें अपनी लंबाई पर देश के मजदूरों ने तुम्हें पैदल ही माप दिया।

ग्यारह न. की बस का प्रयोग  अक्सर बात- चीत में  सुविधाभोगी लोग करते हुए दिखते हैं। थोड़ा सा भी पैदल चलने पर पसीना – पसीना हो जाते हैं तो सोचिए ये भी इंसान ही हैं।

लॉक डाउन के दौरान सबसे ज्यादा अगर कोई परेशान हुआ तो वो मजदूर जो सबके लिए घर बनाते थे पर स्वयं बेघर रहे। लंबी यात्रा पर चल दिये बिना सोचे कि कैसे पहुँच पायेंगे। ताजुब होता है कि चुनावी रैलियों में जिनको संख्या बल बढ़ाने हेतु खाना- पानी और 500 रुपये देकर दिनभर घुमाया जाता है ,क्या उनको बिना स्वार्थ भोजन नहीं दिया जा सकता था। अरे भई जल्दी तो चुनाव होना नहीं तो कौन इन्वेस्ट करे इन पर। सामाजिक संस्थाओं से तो मदद मिली पर सब कुछ फ्री पाने का लेखा जोखा कहीं न कहीं भारी पड़ गया। सबसे बड़ा आश्चर्य तो जहाँ एक भी घर से निकले तो उसका पिछवाड़ा लाल कर दिया जा रहा था वहाँ पूरे मजदूर चल दिये कोई रोकने वाला नहीं वो तो सोशल मीडिया पर हड़कम्प मचा तो प्रशासन की नींद खुली और जो जहाँ था वहीं उसे रोका गया व उसके भोजन – पानी, आवास की व्यवस्था हुई। राज्य सरकारें भी जागीं और अपने- अपने नागरिकों की मदद हेतु आगे आयीं।

ऐसे ही समय के लिए सभी नागरिकों का पंजीकरण आवश्यक होता है। इस दौरान एक प्रश्न और उठा कि हम भारत के निवासी हैं या राज्यों के, कोई भी संकट पड़ने पर कौन आगे आयेगा ?  प्रवासी कहलाने लगे ये अपने ही देश में।

नगर को महानगर बनाने में सबसे अधिक योगदान मजदूरों का ही होता है। इनसे ही बड़ी- बड़ी बिल्डिंगें, कारखाने व जनसंख्या बढ़ती व पनपती है तो इनकी व्यवस्था करें। लोकतंत्र में संख्या बल ही महत्वपूर्ण होता है। फ्री की योजना सरकार बना सकती है, ये तो देखा पर समय पर फ्री समान देने के समय;  खुद को लॉक डाउन करके केवल मीडिया पर फ्री में वितरण करते रहे। अरे भाई सोशल डिस्टेंसिंग भी तो मेन्टेन करनी है सो करो कम गाओ ज्यादा।

ऐसे समय में जब जान की पड़ी थी तभी  कुछ लोग अर्थ व्यवस्था की चिंता का रोना लेकर अपना अलग ही राग अलापने लगे । ऐसा लगा कि सबसे बड़े अर्थशास्त्री यही हैं,  बस इन दिनों में ही देश आर्थिक मजबूत बन जायेगा। ट्विटर पर आर्थिक चिंतन का एक बिंदु दिया नहीं कि समर्थकों की लाइन लग गयी।  अच्छे दिनों में दो खेमों का होना तो अच्छी बात है किंतु संकट के दौर में जब वैश्विक महामारी मुह बाये खड़ी है तब भी सरकारी नीतियों को कोसना तो बिल्कुल वैसे ही है जैसे प्यास लगने पर कुंआ खोदने का विचार करना।

खैर सोच विचार तो चलता ही रहेगा , यही तो मानवता का तकाजा है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 28 – बापू के संस्मरण-2 आटा पीसना तो अच्छा है ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – आटा पीसना तो अच्छा है”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 28 – बापू के संस्मरण – 2 आटा पीसना तो अच्छा है ☆ 

गांधीजी ने जब दक्षिण अफ्रीका में आश्रम खोला था, तब उनके पास जो कुछ भी अपना था, सब दे दिया था । स्वदेश लौटे तो कुछ भी साथ नहीं लाये, सबका वहीं ट्रस्ट बना दिया और ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि उसका उपयोग सार्वजनिक कार्य के लिए होता रहे।  भारत लौटने पर पैतृक सम्पत्ति का प्रश्न सामने आया, पोरबन्दर और राजकोट में उनके घर थे उनमें गांधी-वंश के दूसरे लोग रहते थे । उन सबको बुलाकर गांधीजी ने कहा, “पैतृक सम्पत्ति में मेरा जो कुछ भी हिस्सा है, उसे मैं आपके लिए छोड़ता हूँ” वह केवल कहकर ही नहीं रह गये, लिखा-पढ़ी करवाने के बाद अपने चारों पुत्रों के हस्ताक्षर भी उन कागजों पर करवा दिये इस प्रकार वे कानूनी हो गये । गांधीजी की एक बहन भी थीं उनका नाम रलियातबहन था, लेकिन सब उनको गोकीबहन कहकर पुकारते थे । उनके परिवार में कोई भी नहीं था ।  प्रश्न उठा कि उनका खर्च कैसे चले ? अपने निजी काम के लिए गांधीजी किसी से कुछ नहीं मांगते थे, फिर भी उन्होंने अपने पुराने मित्र डाँ प्राणजीवनदास मेहता से कहा कि वह गोकीबहन को दस रुपये मासिक भेज दिया करें।  भाग्य की विडम्बना देखिये! कुछ दिन बाद गोकीबहन की लड़की भी विधवा हो गई और माँ के साथ आकर रहने लगी । उस समय बहन ने गांधीजी को लिखा, “अब मेरा खर्च बढ़ गया है उसे पूरा करने के लिये हमें पड़ोसियों का अनाज पीसना पड़ता हैं” ।  गांधीजी ने उत्तर दिया,”आटा पीसना बहुत अच्छा है दोनों का स्वास्थ्य ठीक रहेगा हम भी आश्रम में आटा पीसते हैं ।  तुम्हारा जब जी चाहे, तुम दोनों आश्रम में आ सकती हो और जितनी जन-सेवा कर सको, उतना करने का तुम्हें अधिकार है जैसे हम रहते हैं,वैसे ही तुम भी रहोगी मैं घर पर कुछ नहीं भेज सकता और न अपने मित्रों से ही कह सकता हूँ”।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #47 ☆ कुछ नहीं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # कुछ नहीं ☆

हर मनुष्य को चाहे वह कितना ही आलसी क्यों न हो,  शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा 24×7 कार्यरत रहना पड़ता है। जब हम ‘कुछ नहीं’ करना चाहते तो वास्तव में क्या करना चाहते हैं? अपने शून्य में उपजे अपने ‘कुछ नहीं’ में छिपी संभावना को खुद ही पढ़ना होता है। जिस किसीने इस ‘कुछ नहीं’ को पढ़ और समझ लिया, यकीन मानना, वह जीवन में ‘बहुत कुछ’ करने की डगर पर निकल गया।

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 7 ☆ तुलसी, मानस और कोविद ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका शोधपूर्ण आलेख  “तुलसी, मानस और कोविद”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 7 ☆ 

☆  तुलसी, मानस और कोविद ☆ 

भविष्य दर्शन की बात हो तो लोग नॉस्ट्राडेमस या कीरो की दुहाई देते हैं। गो. तुलसीदास की रामभक्ति असंदिग्ध है, वर्तमान कोविद प्रसंग तुलसी के भविष्य वक्ता होने की भी पुष्टि करता है। कैसे? कहते हैं ‘प्रत्यक्षं किं प्रमाणं’, हाथ कंगन को आरसी क्या? चलिए मानस में ही उत्तर तलाशें। कहाँ? उत्तर उत्तरकांड में न मिलेगा तो कहाँ मिलेगा? तुलसी के अनुसार :

सब कई निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।

सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोग।। १२० / १४

वाइरोलोजी की पुस्तकों व् अनुसंधानों के अनुसार कोविद १९ महामारी चमगादडो से मनुष्यों में फैली है।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।  तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। १२० / १५

सब रोगों की जड़ ‘मोह’ है। कोरोना की जड़ अभक्ष्य जीवों  (चमगादड़ आदि) का को खाने का ‘मोह’ और भारत में फैलाव का कारण विदेश यात्राओं का ‘मोह’ ही है। इन मोहों के कारण बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं।  आयर्वेद के त्रिदोषों वात, कफ और पित्त को तुलसी क्रमश: काम, लोभ और क्रोध जनित बताते हैं। आश्चर्य यह की विदेश जानेवाले अधिकांश जन या तो व्यापार (लोभ) या मौज-मस्ती (काम) के लिए गए थे। यह कफ ही कोरोना का प्रमुख लक्षण देखा गया। जन्नत जाने का लोभ पाले लोग तब्लीगी जमात में कोरोना के वाहक बन गए। कफ तथा फेंफड़ों के संक्रमण का संकेत समझा जा सकता है।

प्रीती करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।

विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब स्कूल नाम को जाना।। १२०/ १६

कफ, पित्त और वात तीनों मिलकर असंतुलित हो जाएँ तो दुखदायी सन्निपात (त्रिदोष = कफ, वात और पित्त तीनों का एक साथ बिगड़ना। यह अलग रोग नहीं ज्वर / व्याधि  बिगड़ने पर हुई गंभीर दशा है। साधारण रूप में रोगी का चित भ्रांत हो जाता है, वह अंड- बंड बकने लगता है तथा उछलता-कूदता है। आयुर्वेद के अनुसार १३ प्रकार के सन्निपात – संधिग, अंतक, रुग्दाह, चित्त- भ्रम, शीतांग, तंद्रिक, कंठकुब्ज, कर्णक, भग्ननेत्र, रक्तष्ठीव, प्रलाप, जिह्वक, और अभिन्यास हैं।) मोहादि विषयों से उत्पन्न शूल (रोग) असंख्य हैं। कोरोना वायरस के असंख्य प्रकार वैज्ञानिक भी स्वीकार रहे हैं। कुछ ज्ञात हैं अनेक अज्ञात।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।१२० १९

इस युग (समय) में मत्सर (अन्य की उन्नति से जलना) तथा अविवेक के कारण अनेक विकार उत्पन्न होंगे। देश में राजनैतिक नेताओं और सांप्रदायिक शक्तियों के अविवेक से अनेक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विकार हुए और अब जीवननाशी विकार उत्पन्न हो गया।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥१२१ क

एक ही व्याधि (रोग कोविद १९)  से असंख्य लोग मरेंगे, फिर अनेक व्याधियाँ (कोरोना के साथ मधुमेह, रक्तचाप, कैंसर, हृद्रोग आदि) हों तो मनुष्य चैन से समाधि (मुक्ति / शांति) भी नहीं पा सकता।

नेम धर्म आचार तप, ज्ञान जग्य जप दान।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं, रोग जाहिं हरिजान।। १२१ ख

नियम (एकांतवास, क्वारेंटाइन), धर्म (समय पर औषधि लेना), सदाचरण (स्वच्छता, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजेशन,गर्म पानी पीना आदि ), तप (व्यायाम आदि से प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना), ज्ञान (क्या करें या न करें जानना), यज्ञ (मनोबल हेतु ईश्वर का स्मरण), दान (गरीबों को या प्रधान मंत्री कोष में) आदि अनेक उपाय हैं तथापि व्याधि सहजता से नहीं जाती।

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।

मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेहिं पाए।।१२१ / १

इस प्रकार सब जग रोग्रस्त होगा (कोरोना से पूरा विश्व ग्रस्त है) जो शोक, हर्ष, भय, प्यार और विरह से ग्रस्त होगा। हर  देश दूसरे देश के प्रति शंका, भय, द्वेष, स्वार्थवश संधि, और संधि भंग आदि से ग्रस्त है। तुलसी ने कुछ मानसिक रोगों का संकेत मात्र किया है, शेष को बहुत थोड़े लोग (नेता, अफसर, विशेषज्ञ) जान सकेंगे।

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।

बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।  मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।। १२१ / २

जिनके बारे में पता च जाएगा ऐसे पापी (कोरोनाग्रस्त रोगी, मृत्यु या चिकित्सा के कारण) कम हो जायेंगे , परन्तु विषाणु का पूरी तरह नाश नहीं होगा। विषय या कुपथ्य (अनुकूल परिस्थिति या बदपरहेजी) की स्थिति में मुनि (सज्जन, स्वस्थ्य जन) भी इनके शिकार हो सकते हैं जैसे कुछ चिकित्सक आदि शिकार हुए तथा ठीक हो चुके लोगों में दुबारा भी हो सकता है।

तुलसी यहीं नहीं रुकते, संकेतों में निदान भी बताते हैं।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ १२१ / ३

ईश्वर की कृपा से संयोग (जिसमें रोगियों की चिकित्सा, पारस्परिक दूरी, स्वच्छता, शासन और जनता का सहयोग) बने, सद्गुरु (सरकार प्रमुख) तथा बैद (डॉक्टर) की सलाह मानें, संयम से रहे, पारस्परिक संपर्क न करें तो रोग का नाश हो सकता है।

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥

ईश्वर की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

आलेख के शोधपरक विचार लेखक के व्यक्तिगत  विचार हैं। 

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 42 – मंत्र ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “मंत्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 42 ☆

☆ मंत्र 

मन’ का अर्थ है मस्तिष्क का वह भाग जो सबसे ज्यादा तेजी से बदलता है और किसी भी एक बिंदु पर स्थिर नहीं रह सकता है और ‘त्र’ का अर्थ है स्थिर, तो मंत्र का अर्थ है मस्तिष्क के बदलने वाले विचारों को एक बिंदु पर स्थिर करना और मस्तिष्क को निर्देशित करके भगवान तक पहुँचना । मंत्र ब्रह्माण्डीय ध्वनियां हैं, जो अस्तित्व या भगवान के स्रोत की खोज में ऋषियों द्वारा ध्यान की उच्च अवस्थाओं में खोजे गए थे । आम तौर पर, ध्यान में शारीरिक स्तर से आगे जाना मुश्किल होता है, लेकिन ध्यान केंद्रित करने के निरंतर प्रयास के साथ, कोई भी मानसिक और बौद्धिक स्तर तक जा सकता है । किन्तु बहुत कम ऋषि अनंत या शाश्वत ध्वनि की आवाज़ सुनने में सक्षम होते हैं जो कि मस्तिष्क और बौद्धिक स्तर से भी परे है । ध्यान की स्थिति में, योगियों ने अनुभव किया कि शरीर के चक्र एक विशेष ध्वनि के जप पर उत्तेजित होते हैं । जब किसी विशेष आवृत्ति की आवाज को श्रव्य या मानसिक रूप से दोहराया जाता है तो कंपन की तरंगें ऊपर जाकर मानसिक केंद्र या चक्रों को सक्रिय करती हैं । इसलिए, योगियों ने चेतना की एक विशेष स्थिति बनाने के लिए उन प्राकृतिक ध्वनियों में कुछ ध्वनियों को जोड़ दिया ।

मंत्र चेतना के विभिन्न क्षेत्रों को जगाने और चेतना के किसी विशेष क्षेत्र में ज्ञान और रचनात्मकता विकसित करने के लिए उपकरण हैं । प्रत्येक मंत्र में दो महत्वपूर्ण गुण होते हैं, वर्ण और अक्षर । वर्ण का अर्थ है ‘रंग’ और अक्षर का अर्थ है ‘पत्र’ या ‘रूप’ । एक बार जब मंत्र कहा जाता है तो यह शाश्वत आकाशिक अभिलेख का भाग बन जाता है, या हम कह सकते हैं कि यह ब्रह्मांड के महा या सुपर कारण शरीर में संग्रहीत हो जाते हैं । प्रत्येक मंत्र में छह भाग होते हैं :

पहला ‘ऋषि’ है, जिसने उस विशिष्ट मंत्र के माध्यम से आत्म-प्राप्ति प्राप्त की, और मंत्र को अन्य लोगों को दिया । गायत्री मंत्र के ऋषि विश्वामित्र हैं ।

दूसरा ‘छंद’ (पैमाना), मंत्र में उपयोग की जाने वाली शर्तों की संरचना है ।

मंत्र का तीसरा भाग ‘इष्ट देवता’ है ।

चौथा भाग ‘बीज’ है जो मंत्र का सार होता है ।

पाँचवां भाग उस मंत्र की अपनी ‘शक्ति’ या ऊर्जा होता है ।

और छठा भाग ‘किलका’ या ‘कील’ है, जो मंत्रों में छिपी चेतना को खोलता है ।

आशीष क्या आप गायत्री मंत्र की महानता जानते हो ?

गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और वाल्मीकि रामायण में 24,000 श्लोक हैं । रामायण के प्रत्येक 1000 वे श्लोक का पहला अक्षर गायत्री मंत्र बनाता है, जो इस सम्मानित मंत्र को महाकाव्य का सार बना देता है । इसके अतरिक्त इस मंत्र में 24 अक्षर हैं । इस दुनिया में चलने योग्य और अचल वस्तुओं की 19 श्रेणियाँ हैं और यदि 5 तत्व जोड़े जाये तो संख्या 24 प्राप्त हो जाती है । राक्षस ‘त्रिपुरा’ दहन के समय, भगवान शिव ने इस गायत्री मंत्र को अपने रथ के शीर्ष पर एक धागे के रूप में लटका दिया था ।

त्रिपुरा कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरा राक्षस का वध किया था । त्रिपुरा राक्षस ने एक लाख वर्ष तक तीर्थराज प्रयाग में भारी तपस्या की । स्वर्ग के राजा इंद्र सहित सभी देवता भयभीत हो उठे । तप भंग करने के लिए अप्सराओं को भेजा गया । अप्सराओं ने सभी प्रयत्न किए तप भंग करने के, पर त्रिपुरा उनके जाल में नहीं फंसा । उसके आत्मसंयम से प्रसन्न होकर ब्रह्म जी प्रगट हुए और उससे वरदान माँगने को कहा । उसने मनुष्य और देवता के हाथों न मारे जाने का वरदान प्राप्त किया । एक बार देवताओं ने षडयंत्र कर उसे कैलाश पर्वत पर विराजमान शिवजी के साथ युद्ध में लगा दिया । दोनों में भयंकर युद्ध हुआ । अंत में शिवजी ने ब्रह्माजी और विष्णुजी की सहायता से त्रिपुरा का वध किया । कार्तिक स्नान सर्दी के मौसम के लिए अपने शरीर को आध्यात्मिक रूप से तैयार करने के लिए ही होता है (जिसमें सूर्योदय से पूर्व स्नान करने का विधान है), आज ही के दिन समाप्त होता है ।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 45 ☆ सुकून की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  जीवन में सत्य की महत्ता को उजागर करता एकआलेख सुक़ून की तलाश।  यह सत्य है कि मनुष्य सारे जीवन सुकून की तलाश में दौड़ता रहता है और सारा जीवन इसी दौड़ में निकल जाता है।  जीवन में कई बाते हम अनुभव से सीखते हैं और जब हमें अनुभव होता है तो समय निकल चुका होता है।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 45 ☆

☆ सुक़ून की तलाश

‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम- शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान- परेशान रहता है और लख चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ /ऐसे घटि-घटि राम हैं/ दुनिया देखे नांही ‘ सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध व ईर्ष्या-भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।

हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रितता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों व नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूलते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब अंतर्मन की भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता होगी अर्थात् अधिकाधिक समय चिंतन- मनन में लगाना होगा और सृष्टि-नियंता के ध्यान में चित्त एकाग्र करना होगा। यही है… आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग।

यदि आप एकाग्र होकर शांत भाव से चिंतन-मनन नहीं कर सकते हैं, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा। यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है तथा आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो ! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखायी पड़ता है।

सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैदखाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटि शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।

मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्श, स्वाद, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां  प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा आवश्यकतानुसार नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अथवा संग्रह- दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी, हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए,  क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर, उनके प्रति करुणा-भाव दर्शाना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है, उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उसके दु:ख को अनुभव कर, उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा सबके प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।

स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। खामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें खामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द खामोशी की भाषा का अनुवाद तो नहीं कर सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’  मानव की खामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।

वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर,  प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग-तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते, हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए, संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को, संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन-मूल्यों को अपनाइए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख, उनकी टांग खींच कर, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह  तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है। हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है। अंतत: मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है। इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबसे स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 46 ☆ व्यंग्य – फेक न्यूज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “फेक न्यूज।  वास्तव में  मीडिया में उपस्थिति का क्रेज़ इतना कि रचना के साथ मानदेय के चेक की कॉपी भी  सोशल मीडिया में चिपकाना नहीं भूलते । श्री विवेक जी  का यह व्यंग्य समाज को आइना दिखता है, किन्तु समाज है कि देखने को तैयार ही नहीं है । उसे तो फेक न्यूज़ ही रियल न्यूज़ लगती है ।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 46 ☆ 

☆ व्यंग्य – फेक न्यूज 

आज का समय स्व संपादित सोशल मीडीया का समय है. वो जमाने लद गये जब हाथ से कलम घिसकर सोच समझ कागज के एक ओर लिखा जाता था. रचना के साथ ही स्वयं का पता लिखा लिफाफा रचना की अस्वीकृति पर वापसी के लिये रखकर, संपादक जी को डाक से  रचना भेजी जाती थी. संपादक जी रचना प्रकाशित करते थे तो पहले स्वीकृति, फिर प्रकाशित प्रति और फिर मानदेय भी भेजते थे. या फिर अस्वीकृति की सूचना के खेद सहित रचना वापस लौटा दी जाती थी. अब सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये  मतलब ई मेल से रचना भेजो, फिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये. अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी ही फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस.सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

किसी के धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का ध तक नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं. इन महान लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि  आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

फेक न्यूज ने अपना बाजार इतनी तेजी से फैलाया है कि हर चैनल वायरल टेस्ट का कार्यक्रम ही करने लगा है, जिसमें वायरल खबरो के सच या झूठ होने का प्रमाण ढ़ूंढ़ कर एंकर दर्शको को वास्तविकता से परिचित करवाता है. और इसी बहाने चैनल की टी आर पी का टारगेट पूरा करता है. फेक न्यूज के भारी दुष्परिणाम भी समाज को अनेक बार दंगो, कटुता, वैमनस्य के रूप में भोगने पड़े हैं. विदेशी ताकतें भी हमारी इस कमजोरी का लाभ उठाने से बाज नही आतीं. इसलिये जरूरी है कि मौलिक लिखें, मौलिक रचें, न कि फारवर्ड करें. सोशल मीडिया संवाद संजीवनी है, यदि इसका सदुपयोग किया जावे तो बहुत अच्छा है, किन्तु यदि इसका दुरुपयोग हुआ तो यह वह अस्त्र है जो हमारे समाज के स्थापित मूल्यो का विनाश कर सकता है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण-1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज से  हम बापू के संस्मरण श्रृंखला  प्रारम्भ करने जा रहे हैं । आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – महात्मा गांधी और सरला देवी”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण – 1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ 

लन्दन में 1901 में जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे 1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और अपना नाम सरला देवी रखा। बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 से अल्मोडा में स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया। सरला देवी भी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को जब उन्हें रिहा किया गया तो वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनस पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी I मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है। लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया।  कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थेI साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली।  हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी।  हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी।  इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था।  बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे।  वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे। पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे। उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा। मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता। तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है। तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है।  इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी।   यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया। हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं, और  हम फिर दुबारा वही गलती नहीं करते।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी।  जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा।  पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बदला घर का माहौल ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

( आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष समसामयिक आलेख “बदला घर का माहौल. यह सत्य है कि जो हम नहीं कर पाते वह समय कर देता है या सिखा देता है। डॉ ज्योत्सना जी ने इस तथ्य को बेहद सहज तरीके से प्रस्तुत किया है। इसके लिए उनके लेखनी को सदर नमन। )

☆ बदला घर का माहौल ☆

हमारे धर्म ग्रन्थों में ‘जीवेत शरद: शतम् …’ कहकर ईश्वर से सौ वर्ष आयु की कामना की गई है। व्यवस्थित दिनचर्या के साथ यम नियम आसन धैर्य और संयम द्वारा ही 100 वर्ष की गिनती तक पहुंचने की कोशिश की जा सकती है जरा से कष्ट से हिम्मत हार कर हम अपने अन्तिम पड़ाव पर कैसे पहुँच पायेंगे, सुख का चरम सुख, आनन्दायी सुखमय अन्तिम पड़ाव ही है। मनुष्य की वास्तविक शक्ति दृढ़  इच्छा शक्ति है। यह शक्ति ही कर्म करने की प्रेरणा देती है आपसी सहयोग सद्भाव की भावना, मैत्रेयी भाव, नाकारात्मकता को कम कर देती है, भले ही दूरी हो पर वैचारिक तालमेल सदैव जीने की प्रेरणा देता है।संक्रमित सोच, हमेशा महासंकट उत्पन्न करती है, घर परिवार समाज और देश के लिए। कुछ लोग आज घरों में कैद है फिर भी वैश्विक महामारी की ऊटपटांग अफवाहें फैलाकर,लोगों को भ्रमित कर समस्याओं को जटिल कर रहे हैं, कुछ दूसरे प्रकार के लोग इस संकट की घड़ी में संकट को बढ़ावा दे रहे हैं यह मूर्खता पूर्ण आचरण कर जान लेवा खिलवाड़ कर आंकड़े बढ़ाकर सरकार के लिए मुसीबत बने हुए हैं। बीमारी और मौत के अट्टहास के मध्य मानवता के हजारो हाथ लोगों की दिन रात मदद कर रहे हैं…सर्वे भवन्तु सुखिनः बस यही कामना करते हैं।

जहां एक ओर  लोग  गांवों से शहरों की ओर  आए थे  आज  शहरों से पलायन कर गांव की ओर जा रहे हैं  अपनी फिर उसी मातृ भूमि पर जिसे बरसों पहले छोड़ गए थे यही बदला हुआ स्वरूप उनकी दिनचर्या में देखने को मिला । जो हमारी नयी पीढ़ी जिन संस्कारों से दूर हो गयी थी ,लाख कोशिशों के बाद भी हम उन्हें वह सब नहीं सिखा पा रहे थे वह हमें  इस वक्त ने सिखाया ।हम वह सब बच्चों नहीं दे पा रहे थे जो हमें यह वक्त दे गया। घर का बना हुआ खाना ,पिज़्ज़ा बर्गर पावभाजी नूडल्स इन सब की जगह घर की दाल रोटी सब्जी चावल बच्चों को भाने लगे हैं। बुरे वक्त में लोगों का सहारा बनना, घर परिवार के साथ समय बिताना ,इन सबसे बढ़कर एक बात और रामायण, महाभारत आदि धर्म ग्रंथों को जानने की जिज्ञासा यह सब संस्कार मिले । रुपया, पैसा, दोस्ती यारी ही सब कुछ नहीं है परिवार और परिवार के सदस्य महत्वपूर्ण है आपका अपना स्वस्थ जीवन महत्वपूर्ण है। इसी पर एक छोटा संस्मरण सुना रही हूँ।

“बदला घर का माहौल” जहां घरों में बच्चे हैं उनके घरों में प्रायः इस तरह की घटनाएं होना आम है पर हमारे यहां चार बच्चे है सब बड़े हैं सबकी दिनचर्या और स्वभाव अलग-अलग है कोई मोबाइल में गेम खेलता है तो कोई लैपटॉप लिए बैठा है तो कोई दोस्तों के साथ बाहर मॉल जा रहा है।  बेटे कॉलेज में बेटियाँ स्कूल में । मतलब हाथ पकड़ कर घर में नहीं बिठाया जा सकता है सिर्फ कह सकते है ,वो भी बड़े प्यार से, अब पहले जैसा समय नहीं है बच्चों को डाँट फटकार कर रोक लो । बस प्यार से उनके हमदर्द बनकर ही उन्हे समझाया जा सकता है…बेटा कुछ बाहर का उल्टा सीधा मत खाना, जल्दी घर आ जाना । गाड़ी धीरे चलाना । हाँ हाँ ठीक है माँ मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूँ। अपने हिसाब से आ जाऊँगा। अरे माँ आप भी न फालतू की टेन्सन करती हो अपनी पसंद का दोस्तों के साथ खा लूँगा। आप पैट्रोल के लिए पैसे दो अभी तो कुछ दिन पहले दिये थे अरे माँ आप भी न जल्दी दो अच्छा यह लो दो हजार अब अगले सप्ताह दूँगीं बस इतना ही कह सके, कि उसने हाँ की और चला गया ।पैसे की बढ़ती फिजूलखर्ची और खाने की टेबल की खिट खिट को आये दिन होना ही था। जिस दिन सब घर पर है उस दिन….शाम होते ही क्या बना रही हो मां मुझे यह नहीं खाना यह क्या बनाकर रख दिया आपने… मुझे पैसे दो बाहर से कुछ अपनी पसंद का ऑर्डर करना है । अरे मां अपने फिर दाल बना दी यह क्या तोरई  उफ्फ यह तोरई तो मैं खाता नहीं हूं कद्दू मुझे शक्ल से  पसंद नहीं है, लौकी देखकर चिढ़ आती है मुझे एक भी सब्जियां नहीं खानी है। प्लीज मुझे पैसे दो रेस्टोरेंट से अपनी पसंद का ऑर्डर कर देता हूँ।

क्यूँ बेटा घर पर ही आपके लिए कुछ अच्छा सा बना देती हूं ।   अरे मां आप भी ना , वह बाजार वाला स्वाद नहीं आता है फिर अगली शाम सुनो मां, आज हमें पिज़्ज़ा खाना है पैसे दो बहुत बार समझाने के बाद आखिरकार पैसे देने ही पड़ते हैं। बस इतना जरूर चेतावनी दे देते  आज खा लो फिर दो दिन तक मत माँगना और सुनो अपनी बहन से भी पूछ लो वह क्या खाएगी उसके लिए भी मंगवा लो…. क्या है मां मैं उसके लिए नहीं मंगवा सकता अपना ऑर्डर वह खुद करें । बच्चे ने कहा अच्छा कहकर हमें भी अपनी सहमति देनी पड़ी और रुपये भी ।अगले दिन फिर नया मैन्यु…।यह सिलसिला लगातार बढ़ ही रहा था ।कभी कभार से सप्ताह, फिर सप्ताह से दैनिक चर्या में ,सम्मलित हो गया था। इसका दूसरा पहलू कहे तो हमें भी आराम था ज्यादा झंझट नहीं करने पड़ते थे बच्चों के लिए कुछ ज्यादा बनाना नहीं पड़ता था चलो बच्चे भी खुश मम्मी भी खुश। पर आज स्थिति बिल्कुल बदल गई है बच्चे बिना नाक सिकोड़े ,मुँह बनाए प्रेम से सभी मिलकर एक साथ खाना खाते हैं और खाने से पहले बड़े प्रेम से पूछते माते आज आपने भोजन में क्या बनाया,  चारों भाई बहन एक साथ खाना खाते ।

सुबह शाम दोनों नियम से रामायण देखते ,दादाजी और दादी जी के साथ प्रतिदिन चर्चाएं करते बैठते और न कोई मॉल जा रहा है न ही दोस्तों से मिल रहा है ना पार्टियां न पेट्रोल का खर्चा सब कुछ बदल गया है। संध्या आरती में सब साथ में आते कोई शंख बजाता तो कोई घंटी बजाकर भगवान की आरती करता । सच ही कहा गया है संसार एक चक्रीय परिवर्तन है यहाँ सब कुछ बदलता है। जो हम नहीं बदल सकते हैं वह समय बदल देता है।

डॉ ज्योत्स्ना सिंह राजावत

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश

सी 111 गोविन्दपुरी ग्वालियर, मध्यप्रदेश

९४२५३३९११६,

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