(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी “मैं” की यात्रा का पथिक…4”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
“मैं” की यात्रा का पथिक राग-द्वेष का पहला पड़ाव पार करने के बाद दूसरे पड़ाव की यात्रा शुरू करता है। वह स्मृतियों के बियाबान में प्रवेश करता है और पाता है कि जब “मैं” कौशोर्य अवस्था पर था तब उसे बताया गया कि वह रंग, देह, जाति, नस्ल, बुद्धि, सामर्थ और धन में दूसरों से श्रेष्ठ है। वहीं से “मैं” के ऊपर सच्ची झूठी प्रशंसा का लेप चढ़ाया जाने लगा। उसके चारों तरफ़ श्रेष्ठता रूपी ईंटों की दीवार खड़ी कर पलस्तर चढ़ा कर रंग रोगन से पक्का कर दिया। उसका मौलिक स्वरुप उसे ही दिखना बंद हो गया।
“मैं” जब भी दुनिया से मिलता-जुलता, लड़ता-झगड़ता “मैं” के ऊपर का अहंकार भाव का कड़क आवरण न सिर्फ़ उसकी रक्षा करता अपितु जीतने में उसकी भरपूर मदद भी करता। उसे विश्वास होने लगता कि उसका अहंकार ही मौलिक “मैं” है, वह पूरी तरह बदल चुका है। सफलता दर सफलता उसका मन पूरी तरह अहंकार के खोल में पैबंद हो गया है। पथिक की राह में यह दूसरी बड़ी बाधा है।
जब “मैं” को बचपन में बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, और इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है, तो यहीं से अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव तथा अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड है, और क्रोध उसका उच्छ्वास है।”
अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर अहंकार भाव तिरोहित होना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ की बेचैनी पीछा नहीं छोड़ती है।
“मैं” निर्माण से निर्वाण की यात्रा में कई सोपान तय करता है। “मैं” को दुनियादारी से निभाव के लिए समुचित मात्रा में अहंकार की ज़रूरत होती है। एक बार निर्माण पूरा हो गया फिर अहंकार की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है। अहंकार की प्रवृत्ति जूझने की है। वह धन, यश, मोह में जकड़ा अपनो के लिए दूसरों से लड़ता है। जब लड़ने को कोई पराया नहीं मिलता तो अपनो से लड़ता है। दुनियावी उपलब्धियों का संघर्ष समाप्त होते ही अहंकार “मैं” को ही प्रताड़ित करने लगता है।
एक ओर हम राम के विवेकसम्मत परिमित अहंकार को देखते हैं जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-
“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।”
दूसरी तरफ़ हम रावण के अविवेकी अपरिमित अहंकार को पाते हैं, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। दूसरों से लड़ता उसका अहंकार स्वयं के नज़दीकी रिश्तेदारों से लड़ने लगता है। फिर उसकी लड़ाई ख़ुद की ज़िद से शुरू होती है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में यश, धन, यौवन, जीवन; सबकुछ हर लेते हैं।’
अहंकार “मैं” के पैरों में पड़ी लोहे की ज़ंजीर है जो उसे टस से मस नहीं होने देती। कर्ता का अहंकार छोड़े बग़ैर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे नहीं बढ़ सकता।
“आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया, फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढेर लगाना विवेक़ सम्मत है? यदि “मैं” को अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया या आत्म चिंतन द्वारा मन से बाहर निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।”
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपहार व सम्मान। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 102 ☆
☆ उपहार व सम्मान ☆
किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और किसी का प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान है। उपहार व सम्मान दोनों स्थितियां प्रसन्नता प्रदान करती हैं। जब आप किसी के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं, तो उसके लिए वह सबसे बड़ा उपहार होता है और जब कोई आपका हृदय से सम्मान करता है; आप के प्रति प्रेम भाव प्रदर्शित करता है, तो इससे बड़ी खुशी आपके लिए हो नहीं सकती। शायद इसीलिए कहा जाता है कि एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले। जिंदगी देने और लेने का सिलसिला है। आजकल तो सारा कार्य-व्यवहार इसी पर आश्रित है। हर मांगलिक अवसर पर भी हम किसी को उपहार देने से पहले देखते हैं कि उसने हमें अमुक अवसर पर क्या दिया था? वैसे अर्थशास्त्र में इसे बार्टर सिस्टम कहा जाता है। इसके अंतर्गत आप एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु प्राप्त कर सकते हैं।
वास्तव में उपहार पाने पर वह खुशी नहीं मिलती; जो हमें सम्मान पाने पर मिलती है। हां शर्त यह है कि वह सम्मान हमें हृदय से दिया जाए। वैसे चेहरा मन आईना होता है, जो कभी झूठ नहीं बोलता। यह हमारे हृदय के भावों को व्यक्त करने का माध्यम है। इसमें जो जैसा है, वैसा ही नज़र आता है। एक फिल्म के गीत की यह पंक्तियां ‘तोरा मन दर्पण कहलाय/ भले-बुरे सारे कर्मण को देखे और दिखाय’ इसी भाव को उजागर करती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘जहां तुम हो/ वहां तुम्हें सब प्यार करें/ और जहां से तुम चले जाओ/ वहां सब तुम्हें याद करें/ जहां तुम पहुंचने वाले हो/ वहां सब तुम्हारा इंतज़ार करें’ से सिद्ध होता है कि इंसान के पहुंचने से पहले उसका आचार-व्यवहार व व्यक्ति की बुराइयां व खूबियां पहुंच जाती हैं। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज के लिए ज़िम्मेदार तुम स्वयं हो। इस बात को तुम जितनी जल्दी मान लोगे; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी।’ सो! दूसरों को अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी ठहराना मूर्खता है,आत्म-प्रवंचना है। ‘जैसे कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान’ तथा ‘बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय’ पंक्तियां सीधा हाँट करती हैं।
धरती क्षमाशील है; सबको देती है और भीषण आपदाओं को सहन करती है। वृक्ष सदैव शीतल छाया देते हैं। यदि कोई उन्हें पत्थर मारता है, तो भी वे उसे मीठे फल देते हैं। नदियां पापियों के पाप धोती हैं; निरंतर गतिशील रहती हैं तथा शीतल जल प्रदान करती हैं। बादल जल बरसाते हैं; धरती की प्यास बुझाते हैं। सागर असंख्य मोती व मणियां लुटाता है। पर्वत हमारी सीमाओं की रक्षा करते हैं। सो! वे सब देने में विश्वास रखते हैं; तभी उन्हें सम्मान प्राप्त होता है और वे श्रद्धेय व पूजनीय हो जाते हैं। ईश्वर सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं और बदले में कोई अपेक्षा नहीं करते। परंतु बाबरा इंसान वहां भी सौदेबाज़ी करता है। यदि मेरा अमुक कार्य संपन्न हो जाए, तो मैं इतने का प्रसाद चढ़ाऊंगा; तुम्हारे दर्शनार्थ आऊंगा। आश्चर्य होता है, यह सोच कर कि सृष्टि-नियंंता को भी किसी से कोई दरक़ार हो सकती है। इसलिए जो भी दें, सम्मान-पूर्वक दें; भीख समझ कर नहीं। बच्चे को भी यदि ‘आप’ कह कर पुकारेंगे, तो ही वह आप शब्द का प्रयोग करेगा। यदि आप उस पर क्रोध करेंगे, तो वह आपसे दूर भागेगा। इसलिए कहा जाता है कि आप दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप उनसे करते हैं, क्योंकि जो आप देते हैं; वही लौट कर आपके पास आता है।
‘नफ़रतों के शहर में/ चालाकियों के डेरे हैं/ यहां वे लोग रहते हैं/ जो तेरे मुख पर तेरे/ मेरे मुख पर मेरे हैं।’ सो! ऐसे लोगों से सावधान रहें, क्योंकि वे पीठ में छुरा घोंकने में तनिक भी देर नहीं लगाते। वे आपके सामने तो आप की प्रशंसा करते हैं और आपके पीछे चटखारे लेकर बुराई करते हैं। ऐसे लोगों को कबीरदास जी ने अपने आंगन में अर्थात् अपने पास रखने की सीख दी है, क्योंकि वे आपके सच्चे हितैषी होते हैं। आपके दोष ढूंढने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। सो! आपको इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। शायद! इसलिए कहा गया है कि ‘दिल के साथ रहोगे; तो कम ही लोगों के खास रहोगे।’ वैसे तो ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्करियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ दिल से होता है।’ इसलिए ‘यह मत सोचो कि लोग क्या सोचेंगे/ यह भी हम सोचेंगे/ तो लोग क्या सोचेंगे।’ इसलिए ऐसे लोगों की परवाह मत करो; निरंतर सत्कर्म करते रहो।
प्रेम सृष्टि का सार है। हमें एक-दूसरे के निकट लाता है तथा समझने की शक्ति प्रदान करता है। प्रेम से हम संपूर्ण प्रकृति व जीव-जगत् को वश में कर सकते हैं। प्रेम पाना संसार में सबसे बड़ा सम्मान है। परंतु यह प्रतिदान रूप में ही प्राप्त होता है। यह त्याग का दूसरा रूप है। इस संसार में अगली सांस लेने के निमित्त पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए मोह-माया के बंधनों से दूर रहो; अपने व्यवहार से उनके दिलों में जगह बनाओ। सबके प्रति स्नेह, प्रेम, सौहार्द व त्याग का भाव रखो; सब तुम्हें अपना समझेंगे और सम्मान करेंगे। सो! आपका व्यवहार दूसरों के प्रति मधुर होना आवश्यक है।
ज़िंदगी को अगर क़ामयाब बनाना है तो याद रखें/ पांव भले फिसल जाए/ ज़ुबान कभी फिसलने मत देना, क्योंकि वाणी के घाव कभी नहीं भरते और दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देते हैं, जिनका भरना संभव नहीं होता। यह बड़े-बड़े महायुद्धों का कारण बन जाती हैं। वैसे भी लड़ने की ताकत तो सबके पास होती है; किसी को जीत पसंद होती है’ तो किसी को संबंध। वैसे भी ताकत की ज़रूरत तब पड़ती है, जब किसी का बुरा करना हो, वरना दुनिया में सब कुछ पाने के लिए प्रेम ही काफी है। प्रेम वह संजीवनी है, जिसके द्वारा हम संबंधों को प्रगाढ़ व शाश्वत् बना सकते हैं। इसलिए किसी के बारे में सुनी हुई बात पर विश्वास ना करें; केवल आंखिन-देखी पर भरोसा रखें, वरना आप सच्चे दोस्त को खो देंगे।
‘ज़िंदगी भर सुख कमा कर/ दरवाज़े से घर लाने की कोशिश करते रहे/ पता ही ना चला/ कब खिड़कियों से उम्र निकल गई।’ मानव आजीवन सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है। उसे सुख-ऐश्वर्य व भौतिक-सम्पदा तो प्राप्त हो जाती है, परंतु शांति नहीं। इसलिए मानव को असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने की सीख दीजाती है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलने लगते हैं। मौन वह संजीवनी है, जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि छोटी-छोटी बातों को बड़ा ना किया करें/ उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है। इसलिए गुस्से के वक्त रुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद’ श्रेयस्कर है। सो! अनुमान ग़लत हो सकता है; अनुभव नहीं, क्योंकि अनुमान हमारे मन की कल्पना है; अनुभव जीवन की सीख है। परिस्थिति की पाठशाला ही मानव को वास्तविक शिक्षा देती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है और उसे ही जीवन में सम्मान मिलता है, जो अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियों से बच कर रहता है। वास्तव में यह दोनों स्थितियां ही भयावह हैं, जो हमारी उन्नति में अवरोधक का कार्य करती हैं। उपहार पाने पर क्षणिक सुख प्राप्त होता है और सम्मान पाने पर जिस सुख की प्राप्ति होती है, वह मधुर स्मृतियों के रूप में सदैव हमारे साथ रहती हैं। सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि वे आपकी अनुपस्थिति में भी आप के पक्षधर बनकर खड़े रहते हैं।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “आज उपेक्षित होते बुजुर्ग”.)
☆ किसलय की कलम से # 54 ☆
☆ आज उपेक्षित होते बुजुर्ग ☆
एक समय था जब बुजुर्गों को वट वृक्ष की संज्ञा दी जाती थी, क्योंकि जिस तरह वटवृक्ष अपनी विशालता और छाया के लिए जाने जाते हैं, उससे कहीं अधिक बुजुर्गों में विशालता और अपने बच्चों को खुशियों रूपी शीतल छाया देने हेतु याद किया जाता था। आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। बच्चे बड़े होते ही अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। ऊपर से एकल परिवार की व्यवस्थाओं में आजा-आजी की छोड़िए वे अपने माँ-बाप को भी वांछित सम्मान नहीं देते। जिन्होंने अपनी औलाद को जी-जान से चाहकर अपना निवाला भी उन्हें खिलाया वही कृतघ्न संतानें माँ-बाप को बुढ़ापे में घर से दूर वृद्धाश्रम में छोड़ आती हैं। इन माता-पिताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन पर उन्होंने अपना सर्वस्व लुटाया वही संतानें उन्हें बेसहारा कर देंगी। ऐसे वाकये और हकीकत जानकर अन्य बुजुर्गों के दिलों पर क्या बीती होगी। आधा खून तो वैसे ही सूख जाता होगा कि कहीं उनकी संतानें भी उन्हें इसी तरह अकेला न छोड़ दें।
लोग शादी करके बच्चे मनोरंजन के लिए पैदा नहीं करते। हमारे धर्म व हमारी परंपराओं के अनुसार अपना उत्तराधिकार, अपनी धन-संपत्ति का अधिकार भी संतानों को स्वतः स्थानांतरित हो जाता है। भारतीय वंश परंपरा की भी यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वंश को आगे बढ़ाने वाला ही श्रेष्ठ कहलाता है, अन्यथा उसे निर्वंशी कहा जाता है। आशय यही है कि अपनी संतानों के लालन-पोषण और शादी-ब्याह का पूरा उत्तरदायित्व माँ-बाप का ही होता है, लेकिन जब वही संतान उन्हें दुख देती हैं, उन्हें उपेक्षित छोड़ती हैं तो उनका दुखी होना स्वाभाविक है।
आज के परिवेश में बुजुर्गों की आधुनिक तकनीकि की अनभिज्ञता के चलते संतानें अपने माँ-बाप को पिछड़ेपन की श्रेणी में गिनने लगे हैं, जबकि हमारे यहाँ श्रेष्ठता के मानक भिन्न रहे हैं। भारत में धर्म परायणता, शिष्टाचार, सत्यता, मृदुव्यवहार एवं परोपकारिता जैसे गुणों की बदौलत इंसान को देवतुल्य तक कहा जाता था। क्या नई तकनीकि आपके व्यवहार में उक्त गुण लाती है, कदापि नहीं। ये गुण आते हैं संस्कारों से, अच्छी शिक्षा से, लेकिन आजकल ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। अब तो लोगों को मात्र डिग्री चाहिए और डिग्री के बल पर नौकरी। बस इनसे जिंदगी चलने लगती है। भाड़ में जाएँ माँ-बाप। वे तो अपनी बीवी को लेकर महानगरों में चले जाते हैं या फिर विदेश में जाकर बस जाते हैं।
आज जब उनकी संतानें व उनके इक्कीसवीं सदी के उनके पोते-पोतियाँ उनसे बात नहीं करते। उनकी सेवा-शुश्रूषा छोड़िये उनका कहा तक कोई नहीं सुनता, ऊपर से उनकी अपनी संतानें भी उनका ही पक्ष लेती हैं। उनके स्वयं के बेटे उनको मुँह बंद करने पर विवश करते हैं, तब एक अच्छा-भला, अनुभव वाला इंसान उपेक्षित महसूस नहीं करेगा तो और क्या करेगा भी क्या। तब उनके पास केवल दो ही विकल्प बचते हैं। पहला या तो ‘मन मार कर जियो’ या फिर दूसरा ‘कहीं डूब मरो’।
अभी मानवता मरती जा रही है। कल जब वक्त बदलेगा तब इन्हीं वट वृक्षों के तले उन्हें आना पड़ेगा और उनके सदुपदेशों के अनुसार स्वयमेव चलने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वह दिन भी दूर नहीं है जब इस तथाकथित आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति का भूत हम भारतीयों के सिर से उतरेगा, तभी भारत की यथार्थ में सुनहरी सुबह होगी।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 107 ☆ शक्तिपर्व नवरात्रि ☆
शक्तिपर्व नवरात्रि आज से आरंभ हो रहा है। शास्त्रोक्त एवं परंपरागत पद्धति के साथ-साथ इन नौ संकल्पों के साथ देवी की उपासना करें। निश्चय ही दैवीय आनंद की प्राप्ति होगी।
1. अपने बेटे में बचपन से ही स्त्री का सम्मान करने का संस्कार डालना देवी की उपासना है।
2. घर में उपस्थित माँ, बहन, पत्नी, बेटी के प्रति आदरभाव देवी की उपासना है।
3. दहेज की मांग रखनेवाले घर और वर तथा घरेलू हिंसा के अपराधी का सामाजिक बहिष्कार देवी की उपासना है।
4. स्त्री-पुरुष, सृष्टि के लिए अनिवार्य पूरक तत्व हैं। पूरक न्यून या अधिक, छोटा या बड़ा नहीं अपितु समान होता है। पूरकता के सनातन तत्व को अंगीकार करना देवी की उपासना है।
5. स्त्री को केवल देह मानने की मानसिकता वाले मनोरुग्णों की समुचित चिकित्सा करना / कराना भी देवी की उपासना है।
6. हर बेटी किसीकी बहू और हर बहू किसीकी बेटी है। इस अद्वैत का दर्शन देवी की उपासना है।
7. किसीके देहांत से कोई जीवित व्यक्ति शुभ या अशुभ नहीं होता। मंगल कामों में विधवा स्त्री को शामिल नहीं करना सबसे बड़ा अमंगल है। इस अमंगल को मंगल करना देवी की उपासना है।
8. गृहिणी 24×7 अर्थात पूर्णकालिक सेवाकार्य है। इस अखंड सेवा का सम्मान करना तथा घर के कामकाज में स्त्री का बराबरी से या अपेक्षाकृत अधिक हाथ बँटाना, देवी की उपासना है।
9. स्त्री प्रकृति के विभिन्न रंगों का समुच्चय है। इन रंगों की विविध छटाओं के विकास में स्त्री के सहयोगी की भूमिका का निर्वहन, देवी की उपासना है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपका एक विचारणीय आलेख “आज पितृमोक्ष अमावस्या है”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “आज पितृमोक्ष अमावस्या है” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
पितृपक्ष
चंद्र आधारित कैलेंडर में पंद्रह-पंद्रह दिन के दो पक्ष होते हैं। शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष। भाद्र मास की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या का कृष्ण-पक्ष पितृपक्ष माना जाता है। इन पंद्रह दिनों में हिंदू धर्मावलम्बी अपने पूर्वजों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा पूर्वक खाद्य पदार्थ अर्पण करके भोजन ग्रहण करते हैं। इसका वैदिक और उपनिषद में वर्णन किस तरह आया है।
पितरों की आराधना में लिखी ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा (10.14.1) में यम तथा वरुण का उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है। संभवत: इस वर्गीकरण का आधार मृत्युक्रम में पितृविशेष का स्थान रहा होगा। ऋग्वेद (10.15) के द्वितीय छंद में स्पष्ट उल्लेख है कि सर्वप्रथम अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ श्रद्धेय हैं। सायण के टीकानुसार श्रोत संस्कार संपन्न करने वाले पितर प्रथम श्रेणी में, स्मृति आदेशों का पालन करने वाले पितर द्वितीय श्रेणी में और इनसे भिन्न कर्म करने वाले पितर अंतिम श्रेणी में रखे जाने चाहिए।
ऐसे तीन विभिन्न लोकों अथवा कार्यक्षेत्रों का विवरण प्राप्त होता है जिनसे होकर मृतात्मा की यात्रा पूर्ण होती है। ऋग्वेद (10.16) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा की भटकने से रक्षा करें।
ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित हो परम शक्तिमान् एवं आनंदमय रूप धारण करते हैं।
पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की प्राप्ति के हेतु पिंडदान देते और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितरों के भयावह रूप की भी कल्पना की गई है। पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों से अप्रसन्न न हों। उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है। उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है। परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान। पितृगणों से यह भी प्रार्थना है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों।
हमने फ़ेस्बुक पर एक प्रश्न उछाला कि “किन शास्त्रों में लिखा है कि पुत्रियाँ श्राद्ध नहीं कर सकतीं। किस परिवार का वंश किसी अन्य परिवार की पुत्री के बग़ैर चल सकता है।” जिसके उत्तर में कुछ फ़ेसबुकिया मित्रों के बीच संवाद इस प्रकार है।
अरूण दनायक जी ने कहा- “वाजिब प्रश्न। मनुस्मृति ऐसा कहती है। वंश चलाने के लिए पुत्र का होना आवश्यक है क्योंकि विवाह के बाद पुत्री का गोत्र बदल जाता है। इसलिए लोग बहुत सी सन्तान पैदा करते थे।”
हरि भाऊ मोहितकर ने कहा- “सही कहा आपने ,बहुत सारे जीवन जीने के सिद्धांत समयानुसार बदलते रहते हैं /बदला ना पड़ता है।”
अरूण दनायक जी का विचार आया- “हिंदू धर्म शास्त्र तो यही कहते हैं। आज खबर है कि डाकोर जी गुजरात के रडछोडराय जी के मंदिर में स्त्री पुजारियों को पूजा पाठ से रोक दिया गया जबकि वे मंदिर के दिवंगत सेवक की पुत्रियां हैं। दिवंगत सेवक के कोई पुत्र न था। दूसरी तरफ पुत्रियां अब अंतिम संस्कार भी कर रही हैं और दाह भी दे रही हैं। इलाहाबाद में तो अंतिम कर्मकांड कराने वाली बहुत सी महिलाएं मिल जाएंगी।”
डॉक्टर अनिल कुमार वर्मा का कहना था- “नहीं ऐसा नहीं है। कल ही मेरे छोटे भाई अरुण (Ex DGM BSP) का श्राद्ध उसकी गोद ली हुई बेटी ने किया है।”
अरूण दनायक जी का विचार था- “इसमें दो बातें हैं जब दक्षिणा मिलनी होती है तो एक नियम है और जब दक्षिणा में रुकावट आती है स्त्रियों पर पाबंदी का नियम लागू हो जाता है। यह सब सामाजिक विद्रूपताएं हैं जो ज्यादा से ज्यादा पचास साल और चलेंगी। क्योंकि आगामी पचास वर्षों में बहुसंख्यक लोगों की एक ही संतान होगी पुत्र या पुत्री।”
आदाब खान ने एक कविता लिख कर बताया-
“जमाने भर में बढ़ी, घर की शान बेटी से।
महकता रहता है, सारा मकान बेटी से।।
जरूरी यह नहीं बेटों से नाम रोशन हो।
मेरे पैगम्बर का चला खानदान बेटी से।।”
दिलीप ताम्हने जी का मंतव्य था- “पुत्रियां मुखाग्नि भी दे रही हैं और मृत्यु पश्चात् विधि भी सम्पूर्ण करा रही हैं। मेरे ज्ञान के अनुसार यह शास्त्र सम्मत है। महाराष्ट्र में तो महिलाएं पौरोहित्य भी कर रही हैं।”
राजेंद्र बेहरे जी ने बताया- “आज के समय में लड़कियों के द्वारा अंतिम संस्कार के भी अनेक प्रकरण संपन्न करने के समाचार मिलते रहते हैं।”
सिद्धांत सिर्फ़ शब्द नहीं होते। सिद्धांत बदल रहे हैं। आज लड़कियाँ भी श्राद्ध कर रही हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कृत एस आर भैरप्पा के नवीनतम उपन्यास “आवरण” में एक मुस्लिम बुद्धिजीवी से बिहाई गई शास्त्री जी की बेटी मंदिर में शुद्धीकरण के पश्चात गया प्रयाग और काशी में श्राद्ध करती है और ब्राह्मण उसे शास्त्रोक्त बता कर श्राद्ध करवाते हैं।
हिंदू धर्म में किसी भी प्रथा या परम्परा को अंतिम सत्य नहीं माना गया है। आत्मा-परमात्मा, कर्मवाद और पुनर्जन्म के आधारभूत सिद्धांतों के अलावा सभी चीजें बदल सकती हैं। जैन और बौद्ध इन सिद्धांतों को नहीं मानते फिर भी उनकी जड़ें हिंदू सनातन दर्शन में ही जाकर खुलती हैं।
जिस समय नारियों के हाथ में आर्थिक सत्ता नहीं थी। इस समय पुरुष ही दान-दक्षिणा का निर्णय करते थे। इसलिए पिंडदान और श्राद्ध कर्मकांड पुत्रों से चिपक गया। अब जबकि पुत्रियों आर्थिक सक्षम हो रही हैं ।अब वे भी अपने माता-पिता का दाह संस्कार और श्राद्ध करके राहत और कर्तव्य परायणता का सुख पाने लगी हैं। हिंदू परम्परा हमेशा बदलने को तैयार रही है। यह एकेश्वरवाद नहीं है जिसमें जो एक बार एक किताब में लिख दिया वह बदला नहीं जा सकता।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 106 ☆ कर्मण्येवाधिकारस्ते! ☆
एक युवा व्यापारी मिले। बहुत परेशान थे। कहने लगे, “मन लगाकर परिश्रम से अपना काम करता हूँ पर परिणाम नहीं मिलता। सोचता हूँ काम बंद कर दूँ।” यद्यपि उन्हें काम आरम्भ किए बहुत समय नहीं हुआ है। किसी संस्था के अध्यक्ष मिले। वे भी व्यथित थे। बोले,” संस्था के लिए जान दे दो पर आलोचनाओं के सिवा कुछ नहीं मिलता। अब मुक्त हो जाना चाहता हूँ इस माथापच्ची से।” चिंतन हो पाता, उससे एक भूतपूर्व पार्षद टकराए। उनकी अपनी पीड़ा थी। ” जब तक पार्षद था, भीड़ जुटती थी। लोगों के इतने काम किए। वे ही लोग अब बुलाने पर भी नहीं आते।”
कभी-कभी स्थितियाँ प्रारब्ध के साथ मिलकर ऐसा व्यूह रच देती हैं कि कर्मफल स्थगित अवस्था में आ जाता है। स्थगन का अर्थ तात्कालिक परिणाम न मिलने से है। ध्यान देने योग्य बात है कि स्थगन किसी फलनिष्पत्ति को कुछ समय के लिए रोक तो सकता है पर समाप्त नहीं कर पाता।
स्थगन का यह सिद्धांत कुछ समय के लिए निराश करता है तो दूसरा पहलू यह है कि यही सिद्वांत अमिट जिजीविषा का पुंज भी बनता है।
क्या जीवित व्यक्ति के लिए यह संभव है कि वह साँस लेना बंद कर दे? कर्म से भी मनुष्य का वही सम्बंध है जो साँस है। कर्मयोग की मीमांसा करते हुए भगवान कहते हैं,
‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।’
कोई क्षण ऐसा नहीं जिसे मनुष्य बिना कर्म किए बिता सके। सभी जीव कर्माधीन हैं। इसलिए गर्भ में आने से देह तजने तक जीव को कर्म करना पड़ता है।
इसी भाव को गोस्वामी जी देशज अभिव्यक्ति देते हैं,
‘कर्मप्रधान विश्व रचि राखा।’
जब साँस-साँस कर्म है तो उससे परहेज कैसा? भागकर भी क्या होगा? ..और भागना संभव भी है क्या? यात्रा में धूप-छाँव की तरह सफलता-असफलता आती-जाती हैं। आकलन तो किया जाना चाहिए पर पलायन नहीं। चाहे लक्ष्य बदल लो पर यात्रा अविराम है। कर्म निरंतर और चिरंतन है।
सनातन संस्कृति छह प्रकार के कर्म प्रतिपादित करती है- नित्य, नैमित्य, काम्य, निष्काम्य, संचित एवं निषिद्ध। प्रयुक्त शब्दों में ही अर्थ अंतर्निहित है। बोधगम्यता के लिए इन छह को क्रमश: दैनिक, नियमशील, किसी कामना की पूर्ति हेतु, बिना किसी कामना के, प्रारब्ध द्वारा संचित, तथा नहीं करनेवाले कर्म के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
इसमें से संचित कर्म पर मनन कीजिए। बीज प्रतिकूल स्थितियों में धरती में दबा रहता है। स्थितियाँ अनुकूल होते ही अंकुरित होता है। कर्मफल भी बीज की भाँति संचितावस्था में रहता है पर नष्ट नहीं होता।
मनुष्य से वांछित है कि वह पथिक भाव को गहराई से समझे, निष्काम भाव से चले, निरंतर कर्मरत रहे।
अपनी कविता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ उद्धृत करना चाहूँगा-
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख “## गौरैया एक आत्मकथा##”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #90 ☆ # गौरैया एक आत्मकथा # ☆
वो मुझे मिली थी सारा शरीर छलनी हो गया था उसका, वह खून से लथपथ हो रही थी। भीषण गर्मी तथा भय से हांफ और कांप रही थी वो, भूख और प्यास से बुरा हाल था उसका, कौवों का झुंड पड़ा था उसके जान के पीछे । किसी तरह बचती बचाती आ गिरी थी मेरी गोद में। उसकी हालत देख मैं अवाक हो ताकता रह गया था, उसे! मेरे हाथों का कोमल स्पर्श पाकर उसे अजीब-सी शांति मिली थी। अपनेपन के एहसास की गहराई से उसका डर दूर हो गया था।
वह मुझसे संवाद कर बैठी बोल पड़ी थी। मुझे पहचाना तुमने ,मैं वहीं गौरैया हूं जिसका जन्म तुम्हारे आंगन में हुआ था। मेरी पीढ़ियां तुम्हारे आंगन के कोनों में खेली खाई पली बढ़ी है। वो तुम ही तो हो जो बचपन में मेरे लिए दाना पानी रखा करते थे। दादी अम्मा के साथ गर्मियों में गंगा स्नान को जाया करते थे तथा उनके पीछे-पीछे चींटियों की बांबी पर सत्तू छिड़का करते थे। तुम्हारा घर आंगन मेरे बच्चों की चींचीं चूं चूं से निरंतर गुलजार रहा करता था। मेरे रहने का स्थान बंसवारी तथा पेड़ों के झुरमुट और तुम्हारे घर के भीतर बाहर खाली स्थान हुए करते थे।
कितनी संवेदनशीलता थी तुम्हारे समाज के भीतर? कितना ख्याल रखते थे तुम लोग पशुओं पंछियों का? लेकिन अचानक से समय बदला परिस्थितियां बदलीं समय के साथ तुम लोगों के हृदय की दया, ममता, स्नेह तथा संवेदनाये सब कुछ खत्म होता गया।
अब तो तुम सबका दिल इतना छोटा हो गया उसमें तुम्हारे मां बाप के लिए भी जगह नहीं बची, फिर हम लोगों का क्या? कौन करेगा हमारा ख्याल ? अरे अब तो अपने स्वार्थ में अंधे बने हमारे रहने की भी जगह छीन ली है तुम लोगों ने।अब न तो हमारे पास भोजन है न तो पानी और ना ही तुम सबकी संवेदनायें ही बची है। अगर ऐसा ही रहा तो एक दिन हमारी पीढ़ियां प्राणी संग्रहालय में शोभा बढायेगी या फिर किताबों के पन्नों में दफ़न हो कर अपना दम तोड़ती नजर आएंगी। आखिर कब तक तुम लोग साल में एक दिन कभी गौरैया दिवस कभी शिक्षक दिवस कभी मदर्स डे, कभी फादर्स डे मना कर अपने दिल को झूठी तसल्ली देते रहोगे और फिर अत्यधिक रक्तस्राव के चलते बात करते हुए उसकी गर्दन एक तरफ की ओर झुकती चली गई, और वह सच में मर गई।
उसकी हालत देखते हुए मेरी आंखों से दो बूंदें छलक पड़ी थी, जिनका अस्तित्व उसके उपर गिर कर वातावरण में विलीन हो गया था और मै उसका पार्थिव शरीर देख अवाक रह गया था क्यो कि उसने मरते मरते भी सच का आइना जो दिखा दिया था।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का महात्मा गाँधी जन्मदिवस पर विशेष आलेख “महात्मा गांधी और विश्व शांति के लिए अहिंसा ”)
☆ महात्मा गाँधी जन्मदिवस विशेष – महात्मा गांधी और विश्व शांति के लिए अहिंसा ☆
महात्मा गांधी की 152वीं जन्म जयंती के अवसर पर विश्व शांति की मंगलकामनाएं ।
महात्मा जी के मन में अहिंसा का जनआन्दोलन में उपयोग करने का विचार कब और कैसे आया होगा? यह शोध का विषय है । लेकिन उनके अहिंसा संबंधी विचारों को विश्व ने माना, अनेक देशों के राजनेताओं ने अपने-अपने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने अहिंसा के सिद्धांत को अपनाया, विभिन्न राजनीतिक विचारधारा के लोगों ने राज सत्ता के समक्ष अपनी मांगे रखने के लिए अहिंसक मार्ग को चुना, कर्मचारी संघठनों ने, प्रबंधन से चर्चा करने के लिए इसी मार्ग का सहारा लिया और सफलता पाई। यह ऐसे चंद उदाहरण हैं, जो गांधीजी की अहिंसा के सिद्धांत की, सर्वकालिक प्रासंगिकता को स्वमेव सिद्ध करते हैं । यहां तक कि उनके विचारों के धुर विरोधी, दक्षिणपंथी और हिंसा में विश्वास रखने वाले भी लोग भी अहिंसा संबंधी गांधीजी के विचारों का खंडन तर्क से नहीं कर पाते हैं और इसलिए वे उसका मजाक उड़ाने लगते हैं । ‘अहिंसा ने हमें कायर बना दिया’, ‘गांधी मार्गियों से थप्पड़ खाने के लिए अपना गाल आगे करने’ की बातें, ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’, ‘चरखे ने आजादी दिला दी’ आदि ऐसे कुतर्क हम अक्सर सुनते रहते हैं।
अहिंसा को लेकर गांधीजी ने अपने विचार विभिन्न लेखों और अपने कार्य के माध्यम से समय समय पर आम जनमानस के सामने रखे। लेकिन उनका समेकित स्वरूप हमें पढ़ने मिलता है, गांधीजी के बीज ग्रंथ ‘मंगल-प्रभात’ में । छोटी सी यह पुस्तिका हमें इस महामानव के एकादश व्रतों के बारे में विस्तार से बताती है और उसमें सत्य के बाद अहिंसा का स्थान है । शेष 9 व्रत नहीं दोनों सिद्धांतों पर आधारित हैं ।
गांधीजी ने अहिंसा को कभी भी कायरों को अस्त्र नहीं माना । वे तो इसे आत्मबलिदान की भावना से प्रेरित, मानवता की रक्षा करने और अत्याचार का मुकाबला करने का एक ऐसा अचूक तरीका मानते थे, जो स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने वाली तानाशाह, क्रूर, हिंसक राजसत्ता का मुकाबला करने के लिए डटी रहती है । गांधीजी राज्य की हिंसा को मानवता के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक मानते थे । आम जनता, राज्य की हिंसा का मुकाबला, अपने सीमित संसाधनों से नहीं कर सकती है। यह विभिन्न देशों में घट रही घटनाओं से , जिसमें विरोध का दमन करने पुलिस और सेना के निर्दयी बल प्रयोग और राजनीतिक विरोधियों को समाप्त करने के लिए पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ का सहारा लेकर हत्या कर देना, प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध हो जाता है। भूगोलीकरण के इस दौर ने अर्थतन्त्र को मजबूती प्रदान की है और अनेक लोगों को असीमित संपत्ति अर्जित करने का अवसर दिया है । ऐसे लोग आजकल राजसत्ता के नए हिंसक तरीके का शिकार हो रहे हैं । अपने विरोधी का दमन करने, संपत्ति धारकों से अधिक से अधिक धन वसूली की लिप्सा ने, सरकार ने उसके पास उपलब्ध सरकारी एजेंसियों के माध्यम से, जांच व छापे मारने के दुरुपयोग को जन्म दिया है । यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि छापे केवल राजनीतिक विरोधियों के ठिकानों पर क्यों पड़ते हैं ? और राज्य की ऐसी हिंसा, जिसके चंद उदाहरण ऊपर पढ़ने में आए हैं, के विरोध का एक मात्र तरीका अहिंसक मार्ग पर चलते हुए, उस दमनात्मक कारवाई के विरोध में, राजसत्ता के सामने डट कर खड़े रहकर ही किया जा सकता है । गांधीजी की अहिंसा, हमें आत्मबलिदान की भावना के साथ, अन्याय का मुकाबला करने की प्रेरणा देती है। वह हमें दमन स्थल से भागने के लिए नहीं कहती । डटकर मुकाबले में खड़े रहने की भावना वीरता और साहस का प्रतीक है । इसलिए अहिंसा कायरों का नहीं वरन आत्मबलिदानियों का मार्ग है ।
गांधीजी कहते थे कि अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो हमें दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए, हिंसा का सहारा लिए बिना अपने सत्य पर अडिग रहना चाहिए । अहिंसक मार्ग पर चलने को उत्सुक ऐसे आत्मबलिदानियों के सामने, अंततः हिंसक मनुष्य भी झुक जाएगा और वह हिंसा का परित्याग करने विवश हो जाएगा । गांधीजी मानते थे कि अपने सक्रिय रूप में अहिंसा का अर्थ है ज्ञानपूर्वक कष्ट सहना ! गांधीजी की अहिंसा, अन्यायी के आगे दबकर घुटने टेक देने की नीति नहीं है, वरन वह अत्याचारी की क्रूरतम मनोदशा के आगे आत्मा की सारी शक्ति लगाकर विरोध करते रहने की भावना से ओतप्रोत है । और भारत के इस प्राचीन आदर्श का पालन करते हुए एक अकेला आदमी भी, अपने सम्मान,धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए, किसी भी अन्यायी, यहां तक कि शक्तिशाली व बलशाली राजसत्ता, को भी चुनौती दे सकता है । ऐसे अहिंसक विरोध प्रदर्शन कर वह सुधार की नींव रख सकता है । गांधीजी जब अपने अनुयायियों को एक गाल पर थप्पड़ खाने पर दूसरा गाल आगे कर देने की शिक्षा देते हैं तब उनका मकसद होता है कि अहिंसक रहते हुए अन्याय का प्रतिकार करो, जुल्मी के आगे डटे रहो । यह तरीका हमने आजादी के आंदोलन में बार-बार कारगर होते देखा और सुना । विश्व भर की तानाशाह सरकारें भी ऐसे विरोध प्रदर्शन के आगे अंतत: झुकने को विवश हो गई । यह तरीका त्वरित परिणाम नहीं देता पर जो परिणाम इस मार्ग पर चलकर प्राप्त होते हैं वे स्थाई होते हैं ।
‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ वे लोग मानते हैं जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ा ही नहीं है । गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से, जनरल स्मिटज की भेदभावपूर्ण नीतियों का अहिंसक तरीके से मुकाबला कर और अनेक ईसाइयों व मुस्लिम युवाओं, जिन्होंने उन पर प्राणघातक हमले किए थे, का हृदय परिवर्तन कर, भारत वापस आए तो लोगों ने उनसे भारत की स्वतंत्रता में योगदान देने हेतु न केवल आग्रह किया वरन उनके तरीके को भी स्पष्ट करने को कहा । गांधीजी ने तब यह कहा था कि अभी आगामी दो वर्षों तक वे भारत का भ्रमण करेंगे, जनता के विचार जानेंगे तब अपनी योजना सबके सामने रखेंगे । अपने देशव्यापी दौरे के बाद जब वे कांग्रेस के सामने प्रस्तुत हुए तो उन्होंने यही शर्त रखी की आजादी की लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी जाएगी तभी वे इस आंदोलन का नेतृत्व करेंगे । भारत के लोगों से उन्होंने अहिंसा अपनाने इसलिए नहीं कहा की भारतीय कमजोर हैं, उनमें वीरता का अभाव है । गांधीजी को भारत के निवासियों के बल और उसकी वीरता का भान था और इसीलिए उन्होंने उन्हें अहिंसा के मार्ग पर चलने की सलाह दी । उनके आह्वान को देश भर से समर्थन मिला और तमाम विरोधों के बावजूद वे अगले तीस वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते रहे । अपने नवोन्मेष तरीकों, राजनीतिक चातुर्य से अंग्रेजों और देश की विघटनकारी शक्तियों के नापाक इरादों को ध्वस्त करते हुए देश को आजादी दिलाने के अपने प्रयासों में कामयाब हुए। उनके आंदोलनों ने उस वक्त ब्रिटिश साम्राज्य को घुटने टेकने मजबूर कर दिया। और इसीलिए गांधीजी मजबूरी नहीं मजबूती का नाम है ।
चरखे को गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन का ऐसा अहिंसक हथियार बना दिया जिसने न केवल ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई वरन भारत के करोड़ों गरीबों को दो जून की रोटी कमाने और खाने का आसान तरीका उपलब्ध कराया । चरखा और उससे सूत कातने को गांधीजी ने स्वराज प्राप्ति का साधन माना । उनके अनुसार जब अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएंगे तब देश को राजनीतिक आजादी मिलेगी लेकिन सच्चा स्वराज तो तभी आएगा जब हर हाथ को काम और दो वक्त की रोटी शांति से खाने को मिलेगी । खादी और चरखा जिसका उनके रचनात्मक कार्यक्रमों में अभिन्न व महत्वपूर्ण स्थान था, वह केवल प्रतीक नहीं था I I एक आंकड़े के अनुसार 1940 में तीन लाख ग्रामीणों ने कताई, पिंजाई, बुनाई, आदि से लगभग पैतीस लाख रुपये की मजदूरी कमाई थी I चरखा और खादी उत्पादन को वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानते थे । चरखे ने तो देश और विदेश में स्वदेशी की धूम मचा दी थी I तभी तो राजा से लेकर रंक तक ( महाराजा नाभा ने अपनी महारानी के साथ चरखा चलाना शुरू किया था तो नेहरूजी का परिवार भी सूत कातने लगा था ) सभी ने गांधीजी के आह्वान पर चरखा चलाना, स्वयं के काते सूत के कपडे पहनना शुरू कर दिया था और जब गांधीजी द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने लन्दन गए तो 26सितम्बर 1931 को लंकाशायर की कपडा मिलों के बंद हो जाने से बेरोजगार मजदूरों से भी उनकी मुलाक़ात हुई I मजदूरों को उनके चरखा आन्दोलन से शिकायत थी I लेकिन जब गांधीजी ने भारत के बुनकरों के बेरोजगार होने और उनकी गरीबी का कारण लंकाशायर की मिलों के कपडे को बताया तो बेरोजगार मजदूर भी उनके समर्थन में दिखे, तमाम अखबारों ने भारत की विदेशी परतंत्रता के युग मे चरखा व खादी को गांधीजी की मौलिक खोज बताने में परहेज नहीं किया।
विश्व के अनेक देशों ने महात्मा गांधी की प्रतिमाएं अपने यहां स्थापित की, मार्गों और सड़कों के नाम गांधीजी पर रखे गए, विश्व के समकालीन लेखक, साहित्यकार, कवि, राजनेता, फिल्मी कलाकार, पत्रकार, राजनेता उनसे मिलने सदैव उत्सुक रहते थे । नोबल समिति ने उन्हे शांति के लिए नोबल पुरस्कार न दे पाने पर अनेक बार खेद जताया और ऐसे अनेक लोगों को यह पुरस्कार दिया जिन्होंने गाँधीमार्ग से प्रेरणा लेते हुए मानवता के कल्याण के लिए सतत प्रयास किए ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनके सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों को मान्यता देते हुए उनके जन्म दिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाने का संकल्प लिया । यह सब हम भारतीयों के लिए गर्व और गौरव का विषय है।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी “मैं” की यात्रा का पथिक…3”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…3 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
वीणा के तार जब न अधिक कसे होते हैं और न ढीले होते हैं, तभी संगीत पैदा होता है। जीवन के संगीत को पाने का सूत्र भी यही है। जो आध्यात्म-योग के माध्यम से पांचों इंद्रियों और मन को संतुलन में रखता है, उसे ही जीवन का अमृत प्राप्त होता है। कबीर कहते हैं : ज्यों कि त्यों धर दीनी चदरिया। अध्यात्म की यात्रा पर चलने से जीवन बदल जाता है। बदलने का सबसे बड़ा उपाय है -आत्मा को “मैं” के द्वारा देखना। जब तक भीतर नहीं देखा जाता तब तक बदलाव नहीं होता, रूपांतरण नहीं होता।
शास्त्रों में एक सूत्र है -जहां राग होता है वहीं द्वेष होता है। द्वेष कड़वा होता है, वह तो छूट जाता है, पर राग मीठा जहर है। वह आसानी से नहीं छूटता। इसीलिए आचार्यों ने कहा है कि यदि राग को जड़ से काट दें तो द्वेष पैदा ही न हो। आसक्ति ही आत्मा के केंद्र से च्युति का कारण है। आसक्ति के कारण एक के प्रति राग और दूसरे के प्रति द्वेष हो ही जाता है।
“मैं” को आत्मबोध की अनुभूति की राह में राग और द्वेष बड़े रोड़े हैं। उनसे लड़े बग़ैर “मैं” स्वयं की आरम्भिक मौखिक अनुभूति तक नहीं पहुँचा सकता। “मैं’ के निर्माण की प्रक्रिया में इंद्रियों से अनुराग पहली सीढ़ी थी। “मैं” के मुँह में माँ के दूध की पहली बूँद और उसके नरम अहसास की पहली अनुभूति राग का पहला पाठ था। माँ का “मैं” को सहलाना, लोरी सुनाना, माँ की देह की सुगंध “मैं” की नासिका में पहुँचना राग का दूसरा पाठ था। माँ-बाप का “मैं” को दुलराना, खिलाना और झुलाना तीसरा पाठ था। कामना की उत्पत्ति यहीं से होती है।
राग की आरम्भिक अवस्था में जब भी कामना की पूर्ति में व्यवधान आता है तब “मैं” रोता है, मचलता है, खीझता है। फिर भी कामना पूरी नहीं होती तो “मैं” पहली बार क्रोध की अनुभूति करता है। जब बार-बार कामना निष्फल होती है तो द्वेष का पहला सबक़ मिलता है। “मैं” के आसपास जिनकी कामना पूरी हो रही है, उनसे द्वेष उत्पन्न होता है। यही राग-द्वेष माया प्रपंच आत्मबोध की राह पर चलने की बाधा है।
तो क्या माता-पिता का प्यार साज सम्भाल बेकार की बातें हैं? नहीं, बेकार की बातें नहीं हैं। वे अपना कर्तव्य निभा कर “मैं” के मन में अधिकारों का अविच्छिन्न अधिकार रच रहे थे, और “मैं” की कामना संतुष्ट न होने पर द्वेष का ज़ाल बुन रहे थे। वे अपने प्रेम से “मैं” के अंदर कभी न संतुष्ट होने वाले मन को खाद-पानी दे रहे थे। जिनके बग़ैर “मैं” का विकास सम्भव नहीं था। वे अपने पितृ ऋण से उऋण हो रहे थे।
जब तुमने यही काम अपने बच्चों के लिए किया, तुम अपने पितृ ऋण से उऋण हो गए। लेकिन इस प्रक्रिया में रचा राग-द्वेष का चक्र अभी भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। यही तुम्हारी बेचैनी का कारण है। यही माया का प्रबल अस्त्र “मैं” को सरल होने की राह की बाधा है। राग और प्रेम में एक फ़र्क़ है। राग कामनाओं का मकड़जाल बुनता है। प्रेम माँ के कर्तव्य की तरह कामना रहित निष्काम कर्म है, जो मैं को मुक्त करता है। “मैं” को एक काम करना है। मुक्त होने के लिए उसे माँ बनना है। सिर्फ़ निष्काम कर्म करना है, अनासक्त भाव से फल निर्लिप्त कर्म।
राग आकर्षण का सिद्धांत है और द्वेष विकर्षण का। इस तरह द्वंद्व की स्थिति बनी ही रहती है। यद्यपि आत्मा अपने स्वभाव के अनुसार समता की स्थिति में रमण करती है, लेकिन राग-द्वेष आदि की उपस्थिति किसी भी स्थायी संतुलन की स्थिति को संभव नहीं होने देती। यही विषमता का मूल आधार है। आज की युवा पीढ़ी पूछती है -धर्म क्या है? किस धर्म को मानें? मंदिर में जाएं या स्थानक में? अथवा आचरण में शुद्धता लाएं? कुछ धर्मानुरागियों के आडंबर और व्यापार आचरण को देखकर भी युवा पीढ़ी धर्म-विमुख होती जा रही है। धर्म ढकोसले में नहीं, आचरण में है। धर्म जीवन का अंग है। समता धर्म का मूल है। धर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है -अध्यात्म की यात्रा। जो धर्म अपने अनुयायियों से अध्यात्म की यात्रा नहीं कराता, वह धर्म एक प्रकार से छलना है, धोखा है, ढोंग है और यदि उसे कम्युनिस्टों की तर्ज़ पर अफीम भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़क़ामयाब-नाक़ामयाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 101 ☆
☆ क़ामयाब-नाक़ामयाब ☆
‘कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं; फिर कोशिश करो। अच्छी नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सैमुअल वेकेट मानव को यही संदेश देते हैं कि ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ इसलिए मानव को नाकामी से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि मकड़ी से सीख लेकर बार-बार प्रयत्न करना चाहिए। जैसे किंग ब्रूस ने मकड़ी को बार-बार गिरते-उठते व अपने कार्य में तल्लीन होते देखा और उसके हृदय में साहस संचरित हुआ। उन्होंने युद्ध-क्षेत्र की ओर पदार्पण किया और वे सफल होकर लौटे। जार्ज एडीसन का उदाहरण भी सबके समक्ष है। अनेक बार असफल होने पर भी उन्होंने पराजय स्वीकार नहीं की, बल्कि अपने दोस्तों को आश्वस्त किया कि उनकी मेहनत व्यर्थ नहीं हुई। अब उन्हें वे सब प्रयोग दोहराने की आवश्यकता नहीं होगी। अंततः वे बल्ब का आविष्कार करने में सफल हुए।
‘पूर्णता के साथ किसी और के जीवन की नकल कर जीने की तुलना में अपने आप को पहचान कर अपूर्ण रूप से जीना बेहतर है।’ भगवान श्रीकृष्ण मानव को अपनी राह का निर्माण स्वयं करने को प्रेरित करते हैं। यदि हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी है, तो हमें अपनी राह का निर्माण स्वयं करना होगा, क्योंकि लीक पर चलने वाले कभी भी मील के पत्थर स्थापित नहीं कर सकते। बनूवेनर्ग उस व्यक्ति का जीवन निष्फल बताते हुए कहते हैं कि ‘जो वक्त की कीमत नहीं जानता; उसका जन्म किसी महान् कार्य के लिए नहीं हुआ।’ वे मानव को ‘एकला चलो रे’ का संदेश देते हुए कहते हैं कि ज़िंदगी इम्तिहान लेती है। सो! आगामी आपदाओं के सिर पर पांव रख कर हमें अपने मंज़िल की ओर अग्रसर होना चाहिए।
जीवन में समस्याएं आती हैं और जब कोई समस्या हल हो जाती है, तो हमें बहुत सुक़ून प्राप्त होता है। परंतु जब समस्या सामने होती है, तो हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं और कुछ लोग तो उस स्थिति में अवसाद का शिकार हो जाते हैं। रॉबर्ट और उपडेग्रॉफ ‘थैंकफुल फॉर योअर ट्रबल्स’ पुस्तक में समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि हम चतुराई व समझदारी से समस्याओं के ख़ौफ से बच सकते हैं और उनके बोझ से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। अधिकतर समस्याएं हमारे मस्तिष्क की उपज होती हैं और वे उनके शिकंजे से मुक्त होकर बाहर नहीं आतीं। अधिकतर बीमारियां बेवजह की चिन्ता का परिणाम होती हैं। हमारा मस्तिष्क उन चुनौतियों को, समस्याएं मानने लगता है और एक अंतराल के पश्चात् वे हमारे अवचेतन मन में इस क़दर रच-बस जाती हैं कि हम उनके अस्तित्व के बारे में सोचते ही नहीं। वास्तव में संसार में हर समस्या का समाधान उपलब्ध है। हमें अपनी सूझ-बूझ से उन्हें सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार हमें न केवल आनंद की प्राप्ति होगी, बल्कि अनुभव व ज्ञान भी प्राप्त होगा। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग –जब एक युवती संत के पास अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंचती है कि उसे विवाह योग्य सुयोग्य वर नहीं मिल रहा। संत ने उस से एक बहुत सुंदर फूल लाने की पेशकश की और कहा कि ‘उसे पीछे नहीं मुड़ना है’ और शाम को उसके खाली हाथ लौटने पर संत ने उसे सीख दी कि ‘जीवन भी इसी प्रकार है। यदि आप सबसे योग्य की तलाश में भटकते रहोगे, तो जो संभव है; उससे भी हाथ धो बैठोगे।’ इसलिए जो प्राप्तव्य है, उसमें संतोष करने की आदत बनाओ। राधाकृष्णन जी के मतानुसार ‘आदमी के पास क्या है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि वह क्या है?’ सो गुणवत्ता का महत्व है और मानव को संचय की प्रवृत्ति को त्याग उपयोगी व उत्तम पाने की चेष्टा करनी चाहिए।
जीवन में यदि हम सचेत रहते हैं, तो शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। इसलिए हमें समय के मूल्य को समझना चाहिए और आगामी आपदाओं के आगमन से पहले पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए ताकि हमें किसी प्रकार की हानि न उठानी पड़े। इसलिए कहा जाता है कि यदि हम विपत्ति के आने के पश्चात् सजग व सचेत नहीं रहते, तो विनाश निश्चित है और उन्हें सदैव हानि उठानी पड़ती है। सो! हमें चीटियों से भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे सदैव अनुशासित रहती हैं और एक-एक कण संकट के समय के लिए एकत्रित करके रखती हैं। मुसीबतों से नज़रें चुराने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए मानव को उनका साहस-पूर्वक सामना करना चाहिए।
समस्याएं डर व भय से उत्पन्न होती हैं। यदि जीवन में भय का स्थान विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन हिल पूर्ण विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उन्हें अवसर में बदल डालते थे। अक्सर वे ऐसे लोगों को बधाई देते थे, जो उनसे समस्या का ज़िक्र करते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यदि आपके जीवन में समस्या आई है, तो बड़ा अवसर आपके सम्मुख है। सो! उसका पूर्ण लाभ उठाएं और समस्या की कालिमा में स्वर्णिम रेखा खींच दें। हौसलों के सामने समस्याएं सदैव नतमस्तक होती हैं और उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए उनसे भय कैसा?
गंभीर समस्याओं को भी अवसर में बदला जा सकता है। यदि हम समस्याओं के समय मन:स्थिति को बदल दे और सोचें कि वे क्यों, कब और कैसे उत्पन्न हुईं और उसने कितनी हानि हो सकती है… लिख लें कि उनके समाधान मिलने पर उन्हें क्या प्राप्त होगा– मानसिक शांति, अर्थ व उपहार। यदि वे सब प्राप्त होते हैं, तो वह समस्या नहीं, अवसर है और उसे ग्रहण करना श्रेयस्कर है।
आइए! एक प्रसन्नचित्त व्यक्ति के बारे में जानें कि वह अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत करता था। वह अपने दिनभर की मानसिक समस्याएं अपने दरवाज़े के सामने वाले पेड़ ‘प्राइवेट ट्रबल ट्री ‘ अर्थात् कॉपर ट्री पर टांग आता था और अगले दिन जब वह काम पर जाते हुए उन्हें उठाता और देखता कि 50% समस्याएं तो समाप्त हो चुकी होती थीं और शेष भी इतनी भारी व चिंजाजनक नहीं होती थीं। इससे सिद्ध होता है कि हम व्यर्थ ही अपने मनो-मस्तिष्क पर बोझ रखते हैं; बेवजह की चिंताओं में उलझे रहते हैं। सो! हमें समस्या को अवसर में बदलना सीखना होगा और उन्हें तन्मयता से सुलझाना होगा। उस स्थिति में वे अवसर बन जाएंगी। वैसे भी जो व्यक्ति अवसर का लाभ नहीं उठाता; मूर्ख कहलाता है तथा सदैव भाग्य के सहारे प्रतीक्षा करता रह जाता है। इसलिए मानव को केवल दृढ़-निश्चयी ही नहीं; पुरुषार्थी बनना होगा और अथक परिश्रम से अपनी मंज़िल पर पहुंचना होगा, क्योंकि जीवन में दूसरों से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है।