हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 184 ☆ “ज्योत्स्ना” – कवि डॉ. संजीव कुमार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. संजीव कुमार जी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “ज्योत्स्नापर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 182 ☆

☆ “ज्योत्स्ना” – कवि डॉ. संजीव कुमार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक समीक्षा: “ज्योत्स्ना”

कवि: डॉ. संजीव कुमार

☆ “छायावादी कोमलता” और आधुनिक विषाद का सेतु – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हिंदी काव्य के मानक सिद्धांतों के आलोक में बहुविध कवि, लेखक, संपादक डॉ संजीव कुमार की कृति ज्योत्स्ना का विश्लेषण संग्रह को हिंदी काव्य परंपरा में “छायावादी कोमलता” और आधुनिक विषाद के सेतु के रूप में स्थापित करता है।

संजीव जी काव्य के मानक सिद्धांतों के अनुशासन में रहकर भी नवीन बिंब तथा भाव अभिव्यक्तियों का सृजन करने में सफल हैं। कविताओं का भाव-पक्ष, रस, ध्वनि एवं भावाभिव्यक्ति की विवेचना करें तो रस सिद्धांत के अनुसार संग्रह की सभी कविताओ में शांत रस, आत्मिक शांति और करुण रस, व्यथा से संचालित उद्गार दिखते हैं। “जीवन दुख की आस भरा” जैसी रचनाओं में वेदना की अभिव्यक्ति है। भारतीय काव्यशास्त्र के अनुरूप ये कविताएं स्थायी भाव, दुःख, विरह प्रतिपादित करती है।

ध्वनि सिद्धांत “मौन व्यथाओं का…” जैसी पंक्तियों में व्यंजना शक्ति द्वारा अप्रकट भाव जैसे आध्यात्मिक अनुसंधान साधे गए हैं, जो पाठक के काव्य गत आनंद को बढ़ाता है।

प्रकृति के माध्यम से भावों का प्रतीकात्मक चित्रण जैसे “स्तब्ध जगत, संध्या श्यामल” भावाभिव्यक्ति अलंकारिक उदाहरण है।

शिल्प-पक्ष, भाषा, छंद एवं अलंकार, मानक हिंदी का स्वरूप, काव्य संरचना की भाषा परिनिष्ठित खड़ी बोली है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्द जैसे ज्योतिर्मय, प्रलय और सरल उर्दू-फारसी शब्द जैसे मखमल, आभास का सामंजस्य युक्त उपयोग किया गया है। यह मानक हिंदी की शुद्धता एवं बोधगम्यता के सिद्धांतों के अनुरूप है।

अधिकांश रचनाएँ मुक्तछंद में हैं, किंतु “पुलक मन…” जैसी कविताओं में गेयता बनाए रखने हेतु लयबद्धता साधी गई है। डॉ. कुमार के “छंद-विन्यास” का कलात्मक प्रभाव है। उपमा “तम की कज्जल छाया… मोम सा” रूपक “जीवन दुख की आस भरा आकुलता का सावन” अनुप्रास “मैं विकल-श्रांत सरि के तट पर“, ये सभी अलंकारशास्त्र के मानकों को पूर्ण करते हैं।

कविताओं की प्रासंगिकता की चर्चा करें तो आधुनिकता एवं सामाजिक संवेदनशीलता आधुनिक जीवन की व्यथा, “अवसाद”, “अकेलापन” जैसे विषय समकालीन मानसिक संघर्षों से जुड़ते हैं, जो डॉ. संजीव कुमार की सामाजिक संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।

आध्यात्मिक समाधान के उद्देश्य, वेदना से मुक्ति हेतु “ज्योत्स्ना” (आत्मज्ञान) की अवधारणा भारतीय दर्शन के मोक्ष सिद्धांत से प्रेरित है। “जग-जीवन हो ज्योतिर्मय” जैसी पंक्तियाँ रचनाकार की आशावादी दृष्टि को प्रतिबिंबित करती हैं।

मानक काव्य सिद्धांतों से विचलन एवं नवीनता भरे प्रयोग, पारंपरिक सीमाओं का अतिक्रमण भी सुंदर तरीके से मिलता है। उदाहरण स्वरूप “तुम छू लो मुझको” जैसी रचनाएँ भक्ति काव्य की परंपरा (सखी-भाव) को आधुनिक प्रेमालाप से जोड़ती कही जा सकती हैं।

 मुक्तछंद की प्रधानता क्लासिकल छंदबद्धता से विचलन है, किंतु यह हिंदी काव्य की आधुनिक प्रवृत्ति के अनुसार उचित ही है।

नवीन प्रतीक जैसे “सावन”, “विद्युत”, “मधुमास” जैसे प्रतीक प्रकृति के माध्यम से मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं, जो धूमिल जैसे आधुनिक कवियों की शैली की याद दिलाते हैं।

शक्ति एवं सीमाएँ .. शक्तियाँ, भावों की गहन अनुभूति एवं प्रतीकात्मक संप्रेषणीयता रचनाओं की विशेषता है।

मानक हिंदी के व्याकरणिक नियमों का पालन, किया गया है। जो कविताओं के शिक्षण एवं शोध हेतु उपयुक्त है।

 कुछ रचनाओं में अमूर्त भावबोध सामान्य पाठक की पहुँच से दूर है।

विचारों की पुनरावृत्ति देखने भी मिलती है। काव्य वैविध्य को सीमित करती है।

काव्यशास्त्र के प्रतिमानों में “ज्योत्स्ना” की रचनाएं हिंदी काव्य के मानक सिद्धांतों रस, ध्वनि, अलंकार, मानक भाषा का सफल निर्वाह करती है। यह आधुनिक गीतिकाव्य की उत्कृष्ट कृति है, जहाँ वैयक्तिक पीड़ा सार्वभौमिक आध्यात्मिकता में अभिव्यक्तमिलती है। डॉ. कुमार की रचनाएं बहुआयामी साहित्यिक पहचान स्थापित करती हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ☆ “मोची (आत्मकथा)” – लेखक… श्री द्वारका भारती ☆ चर्चा – श्री जयपाल ☆

श्री जयपाल

(ई- अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध लेखक श्री जयपाल जी का स्वागत है। आप पंजाब शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। आपका एक कविता संग्रह ‘दरवाजों के बाहर‘  आधार प्रकाशन  से प्रकाशित। (इस संग्रह पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में शोधकार्य), कुछ कविताएं पंजाबी में  अनुदित (पुस्तक रूप में प्रकाशित)।पत्र-पत्रिकाओं में लगातार रचनाएं प्रकाशित। देस-हरियाणा पत्रिका (कुरुक्षेत्र) के सह संपादक  प्रदेशाध्यक्ष- जनवादी लेखक संघ हरियाणा।

आज प्रस्तुत है श्री द्वारका भारती जी द्वारा लिखित पुस्तक “मोची (आत्मकथा)पर चर्चा।

☆ “मोची (आत्मकथा)” – लेखक… श्री द्वारका भारती ☆ चर्चा – श्री जयपाल ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक — मोची (आत्मकथा)

लेखक — श्री द्वारका भारती

पृष्ठ संख्या – 120 

कीमत – 100 रुपए (पेपर-बैक)

प्रकाशक – नवचेतना पब्लिकेशन जालंधर (पंजाब)

संपर्क –90415-23025(प्रकाशक), –83603-03781-(लेखक)

मोची का ठीहा – श्री जयपाल

‘मोची ’ 75 वर्षीय लेखक द्वारका भारती की आत्मकथा है जिसे उसने ‘एक मोची का अदबी जिंदगीनामा’ नाम दिया है। हिंदी साहित्य में शायद ही कोई ऐसी पुस्तक हो जिसका शीर्षक मोची हो। मोची शब्द की त्रासदी के बार में वे अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं—‘उस व्यक्ति की क्या आत्मकथा हो सकती है जिसके साथ मोची शब्द चस्पां हो। इस देश में मोची होने का अर्थ है—‘चमड़े की सडांध में पैदा होना और उसी सडांध में मर जाना–उसके कठोर हाथ, काले पड़े नाखून उसके जीवन की कहानी बयान करने को बहुत हैं। श्री द्वारका भारती ने यह आत्मकथा अपनी दुकान (टांडा रोड़, सुभाष नगर होशियारपुर-पंजाब) पर बैठकर लिखी है। यहीं पर बैठकर उन्होंने आचार्य रजनीश, राहुल सांकृत्यायन, रोमिला थापर, देवीप्रसाद चटोपाध्याय, गोर्की, अंबेडकर, मार्क्स, लेनिन, बुद्ध आदि का अध्ययन किया..साहित्य, इतिहास, समाज, धर्म, दर्शन आदि को आलोचनात्मक ढंग से जाना। आज भी वे यहीं अपनी मोची की दुकान पर, जिसे वे ‘मोची का ठीहा’ कहते हैं, अपना काम करते हुए मिल जाते हैं। रचनाकार और पाठक वहीं पर आकर उनसे संवाद करते हैं। केवल दसवीं कक्षा तक ही पढ़ सके इस लेखक की रचनाएं देश की बड़ी पत्र-पत्रिकाओं जैसे जनसत्ता, नवां जमाना, पंजाबी ट्रिब्यून, जनतक-लहर, अभियान, संडे मेल, साप्ताहिक ब्लिट्ज, युद्धरत आम-आदमी, धर्मयुग आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। दलित साहित्य पर विचार-विमर्श के लिए उन्हे साहित्यिक सेमिनारों में आमंत्रित किया जाता है।

उनकी रचनाओं पर पीएचडी (पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़) के लिए शोध भी हो चुका है और उनकी एक कविता ‘आज का एकलव्य’-‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय दिल्ली’ की एम. ए. हिंदी के पाठ्यक्रम में संकलितहै। मोची आत्मकथा के अतिरिक्त उनकी चार अन्य पुस्तकें भी हैं। हालांकि लेखक को चौंकीदार, बिजली विभाग में लाइनमैन, बगदाद(इराक)में मजदूरी जैसे काम करने पड़े। लेकिन उन्होने हौसला नहीं छोड़ा। आत्मविश्वास को कम नहीं होने दिया। निरंतर वे जातीय भेदभाव से संघर्ष करते रहे और इसके खिलाफ लिखते भी रहे

अपने ससुर के बारे में वे लिखते हैं कि एक बार गुस्से में आकर उनके ससुर ने यहां तक कह दिया था—‘ओए तूं है की..? इक जुत्तियां गंडन वाला इक मोची..तेरी दुकान च जिन्नियां जुत्तियां टंगियां..उन्नी तां मेरे इक कनाल च कणक हो जांदी आ..’ परिजनों और सगे-संबंधियों का हमेशा यह दबाव रहा कि वे इस काम को छोड़कर कोई दूसरा काम कर लें।

वे लिखते हैं…आज भी बहुत से लोग मेरी दुकान पर आते हैं। कुछ की नजरों में मैं एक असहाय-सा नीचे जमीन पर बैठ कर काम करने वाला मोची हूँ, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो कि मुझसे इतनी आत्मीयता से मिलते हैं कि मेरे मोची होने का एहसास मानो कहीं दफन हो जाता है। जो लोग यह जानते हैं कि मैं इस काम के साथ- साथ कलम भी पकड़ता हूँ, तो उनसे मुझे बहुत सम्मान भी मिलता है, लेकिन इसके साथ ही मुझे यह सोचकर दिमाग में खलबली भी होती है कि यही सम्मान सिर्फ मेरे काम को लेकर भी क्यों नहीं मिलता। ठीक उसी तरह जिस तरह सोने के आभूषण बनाने वाले सुनार को मिलता है…

..मेरे बहुत से साहित्यिक मित्र मुझे आज का रैदास भी कहते हैं। क्योंकि मैं भी पत्थर की सिल पर संत रैदास की भाँति जूतियां गढ़ता हूं। मैं आज तक भी यह नहीं जान पाया हूँ कि मेरे दोस्त मुझे ऐसा व्यंग्य से कहते हैं या अपनत्व जताने के लिए। सोचता हूँ क्या यह संत भी मेरी तरह निरीश्वरवादी थे, बिल्कुल नहीं…संत रविदास की वाणी हमें बताती है कि वह घोर ईश्वरवादी थे या ईश्वर की लीला पर विश्वास करते थे और मेरे विश्वास संत रविदास से एक दम भिन्न है। संत रविदास के नाम लेवा उनके धर्म-स्थान बनाते हैं और वहाँ वे सब कुछ वही करते है, जो दूसरे धर्मों वाले करते है। इन अर्थों में … मैं इस समाज का बगावती हूँ और अंत तक रहूंगा भी..।

मार्क्सवाद पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं–आप उसकी दशा का अनुमान लगाएं जो की निर्धन भी है, भूमिहीन भी है और सबसे बड़ा सितम यह कि वह दलित भी है। जाति के तौर पर अब यहाँ अंतर यह है कि मार्क्सवादी सिर्फ उसको एक भूमिहीन या श्रमिकवर्ग के तौर पर देखते हैं लेकिन एक दलित के तौर पर नहीं। ‘

वे मार्क्सवादी दलित कवि मदन वीरा के बारे में कहते हैं– ‘उनकी कविताओं में दलित जीवन का या दलित के साथ होते व्यवहार का वर्णन तो कहीं-कहीं होता है लेकिन उसके लिए प्रयोग होने वाले बिम्ब प्रतिबिंब मार्क्सी आंगन से चुनते हैं। एक दलित का झाड़ू या चमड़ा छीलने वाला औजार उसकी कलम से काफी दूर पड़ा दिखाई देता है। वह एक दलित की दुर्दशा को बखान तो करता है लेकिन एक आम मजदूर या शोषित व्यक्ति की तरह ही। ‘ उसके बावजूद भी मदन वीरा एक मंज़ा हुआ कवि है।

साहित्य में दलित साहित्य की अवधारणा का वे खुलकर समर्थन करते हैं। द्वारका भारती को पंजाब के कुछ नामी साहित्यकारों– रमेश सिद्धु, सोहनलाल शास्त्री, सुरेंद्र शर्मा अज्ञात, ज्ञानसिंह बल, महाशय कृष्ण कुमार बोधि, लाहौरी राम बाली, जनतक-लहर के संपादक जरनैल सिंह के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के लेखक राजेन्द्र यादव, रमणिका गुप्ता, मोहनदास नेमिशराय, विमल थोराट, डाॅ धर्मवीर, ओम प्रकाश वाल्मीकि, बजरंग बिहारी तिवारी, तुलसीराम, कंवल भारती श्यौराजसिंह बेचैन आदि का भी सहयोग और साथ मिला। आज पंजाब के दलित साहित्य में उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। *

उनकी आत्मकथा के कुल नौ अध्याय हैं। कुल पृष्ठ 120 औेर मुल्य 100 रुपए। आत्मकथा में साहित्यिक प्रवाह है। दलित जीवन के दर्द और संघर्ष को बहुत ईमानदारी और खुद्दारी से अभिव्यक्ति प्रदान करती यह पुस्तक विचारोत्तेजक तो है ही, मानवीय संवेदनाओं को जगाने वाली एक बहती नदी भी।

चर्चाकार… श्री जयपाल 

संपर्क- 112-ए /न्यू प्रताप नगर, अम्बाला शहर( हरियाणा)-134007 – फोन-94666108

jaipalambala62@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 183 ☆ “शब्द मेरे… अर्थ तुम्हारे…” – कवि… हेमन्त बावनकर ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री हेमन्त बवंकर जी द्वारा लिखित  “शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 183 ☆

“शब्द मेरे… अर्थ तुम्हारे…” – कवि… हेमन्त बावनकर ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

काव्य कृति.. शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे

कवि.. हेमन्त बावनकर

प्रकाशक.. किताब राइटिंग पब्लिकेशन्स, मुंबई 

चर्चा.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

कुछ किताबें होती हैं जो अपने पन्नो में गहरे अर्थ संजोए होती हैं। वे मन मस्तिष्क को मथती हैं।

“शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे” हेमन्त बावनकर जी की ऐसी ही कृति है। बावनकर जी की रचनाएँ हिंदी साहित्य में उसी पंक्ति में खड़ी दिखती हैं, जिसमें निराला की विद्रोही चेतना, धूमिल के यथार्थवाद, और अज्ञेय की आत्मपरकता ने मुक्त काव्य को अस्त्र बनाया। कृति निस्संदेह समकालीन हिंदी काव्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिस पर हिंदी जगत में विमर्श वांछित है।

हेमन्त जी के संवेदन शील हृदय पर देश दुनियां की समकाल सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, कोरोना काल की त्रासदी, और मानवीय जिजीविषा, संवेदनाओं का मर्म स्पर्शी प्रभाव हुआ है, जिसे उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त कर स्वयं को वेदना मुक्त किया है।

भाषा की सहजता से वे पाठकों को रचना के संग बाँधते हैं। हिंदी काव्य परंपरा के साथ साम्य रखते हुए नवीन प्रयोगों को भी रचनाएं समेटती हैं।

कविता “आजमाइश” में बावनकर जी लिखते हैं:

“बचपन से पढ़ा था मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, अब किससे बैर रखना है सिखाने लगे हैं लोग।”

ये पंक्तियाँ धूमिल के “सूनी घाटी का सूरज” जैसी व्यंग्यात्मक शैली की याद दिलाती हैं। “लोकतंत्र का उत्सव” जैसी कविताएँ राजनीतिक व्यवस्था पर प्रहार करती हैं, जिसमें नागार्जुन की शैली जैसी प्रखरता झलकती है। बावनकर जी का यह अभिव्यक्ति पक्ष हिंदी काव्य में कटाक्ष व्यंग्य की समृद्ध परंपरा को बढ़ाता है।

कोरोना काल पर केंद्रित, छोटी रचनाएं जैसे “ऑक्सीज़न”और “कफन” नपे तुले शब्दों में बड़ी बात कहने की उनकी क्षमता की परिचायक है। करुणा काव्य की ताकत होती है।

“ऑक्सीजन तो कायनात में बेहिसाब थी… एक सांस न खरीद सके। “

इन पंक्तियों में मुक्तिबोध की “अंधेरे में” जैसी अस्तित्ववादी पीड़ा की सामूहिक विसंगति दिखती है। “वेंटिलेटर” और “पॉज़िटिव रिपोर्ट” जैसी कविताएँ महामारी में मनुष्य की असहायता को चित्रित करती हैं। विष्णु खरे को जिन्होंने पढ़ा है वे उनके यथार्थवाद से बावनकर जी में साम्य ढूंढ सकते हैं।

 बावनकर पारंपरिक मूल्यों और आधुनिकता के बीच तनाव को दर्शाते हैं …

“आज ‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है? और ‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?”

यह प्रश्न अज्ञेय के “असाध्य वीणा” की तरह सांस्कृतिक पहचान के संकट को उजागर करता है। इसी तरह, “विरासत” में वे परंपरा के प्रति आग्रह और उसके विघटन के बीच झूलते मन की अभिव्यक्ति करते हैं।

भाषा की सहजता और प्रतीकात्मकता बावनकर जी का अभिव्यक्ति कौशल है। रचनाओं की भाषा सरल होते हुए भी प्रतीकात्मक है। “बिस्तर” कविता में …

“घर पर बिस्तर उसकी राह देखता रहा… अस्पताल में उसे कभी बिस्तर ही नहीं मिला। “

यहाँ “बिस्तर” करोना काल की स्वास्थ्य व्यवस्था के चरमराते संकट का प्रतीक है, जो सांकेतिक अभिव्यक्ति की ताकत है। इसी तरह, “कॉमन मेन बनाम आम आदमी” जैसी कविताएँ राजनीतिक शब्दजाल को उधेड़ती हैं, जिसमें भाषाई चातुर्य झलकता है।

“लखनऊ से मैं कमाल खान” में जिस सहजता से वे पाठकों से जुड़ते हैं अद्भुत है।

कुल मिलाकर सचमुच हेमन्त जी के ये शब्द, पाठक के लिए केलिडॉस्कोप की तरह हजार अर्थ देते हुए उसे मंथन के लिए प्रभावी बौद्धिक संपदा प्रदान कर रहे हैं।

मुझे लगता है कि बहुआयामी प्रतिभा संपन्न हेमन्त जी को निरंतर काव्य सृजन करते रहना चाहिए, इस संग्रह से उनमें मुझे संभावना से भरपूर कवि के दर्शन हुए हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल कहानी-संग्रह – पालतू पशुओं की सरस कहानियां – संपादिका : सुश्री कुसुम अग्रवाल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री कुसुम अग्रवाल जी द्वारा संपादित बाल कहानी संग्रह – “पालतू पशुओं की सरस कहानियांकी समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 214 ☆

☆ बाल कहानी-संग्रह – पालतू पशुओं की सरस कहानियां – संपादिका : सुश्री कुसुम अग्रवाल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’

पुस्तक: पालतू पशुओं की सरस कहानियां (बाल कहानी-संग्रह)

संपादिका : सुश्री कुसुम अग्रवाल 

प्रकाशक: सूर्य भारती प्रकाशन, दिल्ली 

पृष्ठ संख्या: 72 

मूल्य: ₹250 

समीक्षक: ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ समीक्षा- बच्चों की कल्पनाशीलता को रंग देती कहानियां –  ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

बाल साहित्य बच्चों की कल्पनाशीलता को पंख और उनके कोमल मन को नैतिक मूल्यों का आधार प्रदान करता है। कुसुम अग्रवाल द्वारा संपादित पालतू पशुओं की सरस कहानियाँ ऐसा ही एक रंगीन, शिक्षाप्रद, और भावनात्मक रूप से समृद्ध बाल कहानी-संग्रह है। यह संकलन देश के 15 प्रतिष्ठित बाल साहित्यकारों की उत्कृष्ट रचनाओं का सुंदर गुलदस्ता है, जो पालतू पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ प्रेम, दोस्ती, करुणा, और विश्वास जैसे जीवन मूल्यों से परिचित कराता है। राजस्थान साहित्य अकादमी के शम्भू दयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित कुसुम अग्रवाल का यह प्रयास बच्चों के लिए एक अनमोल उपहार है।

संग्रह की मूल विषयवस्तु और संपादकीय कुशलता

इस संग्रह में पालतू पशु-पक्षी—कुत्ते, बिल्ली, तोते, खरगोश आदि—कहानियों के केंद्र में हैं, जो अपनी मासूमियत और निष्ठा से बच्चों के हृदय से सहज संवाद करते हैं। कुसुम अग्रवाल अपनी प्रस्तावना में कहती हैं कि ये पात्र बच्चों को न केवल मनोरंजन देते हैं, बल्कि उनके व्यक्तित्व विकास में सकारात्मक योगदान भी देते हैं। संपादक ने देश के ख्यातिनाम साहित्यकारों—विमला नागला, शील कौशिक, डॉ. राकेश चक्र, ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, अंजीव अंजुम, नीलम राकेश, मनोहर चमोली ‘मनु’, इंजी. आशा शर्मा, इंद्रजीत कौशिक, मो. अशरद खान, श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ‘कोमल’, लक्ष्मी कानोडिया, उषा सोमानी, कामना सिंह, और स्वयं कुसुम अग्रवाल—की रचनाओं को एक मंच पर लाकर विविधता और गुणवत्ता का अनुपम समन्वय किया है।

इस संग्रह की 15 कहानियाँ अपनी विषय वस्तु, शैली, और संदेश में विविध और प्रभावशाली हैं। प्रत्येक कहानीकार ने पालतू पशुओं को जीवंत पात्र बनाकर बच्चों के लिए एक आकर्षक और शिक्षाप्रद संसार रचा है। ये कहानियाँ हैं: विमला नागला की बेजुबान का दर्द – पशुओं की संवेदनशीलता को मार्मिक ढंग से दर्शाती यह कहानी बच्चों में सहानुभूति जगाती है। वही, शील कौशिक की गुड्डू की दोस्त कहानी – दोस्ती और निष्ठा के मूल्यों को सरल किंतु गहरे ढंग से प्रस्तुत करती है।

डॉ. राकेश चक्र की कहानी – कशिश और काली, पालतू पशु के प्रति बच्चों की जिज्ञासा और स्नेह को उभारती है। इसी के साथ ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ की मित्र की सरलता  कहानी– मित्रता की सादगी और सच्चाई को रेखांकित करती है।

अंजीव अंजुम: सजीव खिलौने, कहानी पशुओं को खिलौनों से अधिक जीवंत दोस्त के रूप में चित्रित करती है। वही, नीलम राकेश की टॉमी और भूरी, कहानी – कुत्तों की निष्ठा और बच्चों के साथ उनके रिश्ते को भावनात्मक ढंग से दर्शाती है।

मनोहर चमोली ‘मनु’ की कहानी – मैं भी दोस्त, साहस और दोस्ती के गुणों को बच्चों के लिए प्रेरणादायक बनाती है। साथ ही इंजी. आशा शर्मा की कहानी – दादी बदल गई – पालतू पशु के प्रभाव से बदलते दृष्टिकोण को हास्य और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।

इंद्रजीत कौशिक की कहानी- अच्छी संगत का असर– संगति के प्रभाव को नैतिक संदेश के साथ उजागर करती है। इसी के साथ मो. अशरद खान की कहानी – कमरे में बंद डॉगी – पशुओं की भावनाओं और उनकी स्वतंत्रता की चाह को मार्मिक ढंग से दर्शाती है।

श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ‘कोमल’ की कहानी – बेजुबान दोस्त – पशुओं की मूक भाषा और बच्चों से उनके जुड़ाव को खूबसूरती से चित्रित करती है। वही, लक्ष्मी कानोडिया की कहानी – किट्टू ने पाली बिल्ली – बच्चों की जिम्मेदारी और देखभाल के गुण को उभारती है। वही, उषा सोमानी की कहानी – सोना और चाँदी,  सच्चाई और प्रेम की जीत को प्रेरणादायक ढंग से प्रस्तुत करती है।

कामना सिंह: जीतू का रस्टी में पालतू कुत्ते और बच्चे के बीच गहरे रिश्ते को भावुकता के साथ दर्शाती है। वही,  संपादक कहानीकार कुसुम अग्रवाल: काजल और बादल में पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम और संवेदनशीलता को बच्चों के लिए प्रेरक बनाती है।

इन कहानियों की भाषा सरल, प्रवाहमयी, और बच्चों की समझ के अनुरूप है। प्रतिष्ठित साहित्यकारों की लेखनी का जादू प्रत्येक कहानी में झलकता है, जो हास्य, रोमांच, और भावनात्मक गहराई का सुंदर मिश्रण रचती हैं।

सूर्य भारती प्रकाशन ने इस 72-पृष्ठीय संग्रह को रंगीन चित्रों से सजाकर बच्चों के लिए अत्यंत आकर्षक बनाया है। ये चित्र कहानियों को जीवंत करते हैं और 5 से 12 वर्ष की आयु के बच्चों का ध्यान बांधे रखते हैं। ₹250 की कीमत इसे मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए सुलभ बनाती है। उच्च गुणवत्ता का कागज, मुद्रण, और बाइंडिंग इसकी शोभा बढ़ाते हैं, जिससे यह स्कूलों, पुस्तकालयों, और घरों के लिए एक आदर्श पठन सामग्री बन जाती है।

यह संग्रह केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है; यह बच्चों में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता, जीव-जंतुओं के प्रति दया, और आपसी सहयोग जैसे मूल्यों को रोपता है। प्रत्येक कहानी बच्चों को नैतिक दुविधाओं का सामना करने और सही निर्णय लेने की प्रेरणा देती है। साहित्यकारों की प्रतिष्ठा और उनकी रचनाओं की गुणवत्ता इस संग्रह को बाल साहित्य में विशिष्ट बनाती है। संपादक ने कहानियों को इस तरह संकलित किया है कि वे अपने केंद्रीय विषय—पालतू पशुओं का महत्व—से जुड़ी रहती हैं, जो उनकी संपादकीय कुशलता को दर्शाता है।

पालतू पशुओं की सरस कहानियाँ देश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उत्कृष्ट रचनाओं का एक अनमोल संग्रह है, जो बच्चों के लिए मनोरंजन, शिक्षा, और नैतिक मूल्यों का त्रिवेणी संगम है। कुसुम अग्रवाल का संपादन और सूर्य भारती प्रकाशन की आकर्षक प्रस्तुति इसे बाल साहित्य का एक चमकता सितारा बनाती है। यह संग्रह बच्चों को पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम और संवेदनशीलता सिखाने के साथ-साथ उनके मन को सकारात्मक दृष्टिकोण से भर देता है।

अभिभावकों, शिक्षकों, और बाल साहित्य प्रेमियों के लिए यह संग्रह अवश्य पढ़ने योग्य है। यह बच्चों के लिए एक आदर्श उपहार और स्कूल पुस्तकालयों के लिए एक मूल्यवान जोड़ है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14/05/2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 182 ☆ शिव और शिवालय – ज्ञात से अज्ञात तक… लेखिका – डॉ. सुलभा कोरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. सुलभा कोरे जी द्वारा लिखित  शिव और शिवालय – ज्ञात से अज्ञात तक…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 182 ☆

☆ “शिव और शिवालय – ज्ञात से अज्ञात तक…” – लेखिका… डॉ. सुलभा कोरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – शिव और शिवालय – ज्ञात से अज्ञात तक…”

लेखिका ..डॉ. सुलभा कोरे

☆ एक दार्शनिक एवं सांस्कृतिक अन्वेषण – – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 पुस्तक “शिव और शिवालय” भारतीय संस्कृति, दर्शन, और इतिहास के प्रतीक शिव के बहुआयामी स्वरूप का जन उपयोगी विश्लेषण है।  शिव के निराकार से साकार स्वरूप , शिव मंदिरों के वास्तुशिल्प, और समकालीन संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता को समझने का एक सुव्यवस्थित प्रयास है।  भारतीय समाज,  सृष्टि की उत्पत्ति से आधुनिक समय तक की गहन शिव संदर्भों की व्याख्या सुबोध भाषा में पाठक को शिवत्व को सिलसिले से समझाती है।

पुस्तक के प्रथम अध्याय में डॉ. कोरे शिव के अस्तित्व को वैदिक संदर्भों और आधुनिक विज्ञान के समानांतर रखकर विश्लेषित करती हैं। वे बताती हैं कि वेदों में सृष्टि के उद्भव को “बिंदु और नाद” से जोड़ा गया है, जो आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान के “बिग बैंग” सिद्धांत से मेल खाता है। इस संदर्भ में शिव को “ब्रह्म” के रूप में चित्रित किया गया है—एक ऐसी अविनाशी ऊर्जा जो सृष्टि के उत्पत्ति, पालन, और संहार का केंद्र है। गीता के उद्धरणों के साथ लेखिका यह स्पष्ट करती हैं कि शिव “अक्षर” (अविनाशी) और “अव्यक्त” (अप्रकट) के समन्वय हैं, जो समय के साथ अपने साकार रूपों में प्रकट होते हैं।

शिव के निराकार स्वरूप को समझाने के लिए पुस्तक शिवलिंग की प्रतीकात्मकता और आध्यात्मिक व्यंजना पर प्रकाश डालती है। यह आकृति ब्रह्मांडीय ऊर्जा और सृजन का प्रतीक है, जिसकी पूजा का आधार वैदिक ऋषियों द्वारा रखा गया। डॉ. कोरे इस बात पर जोर देती हैं कि शिवलिंग मात्र एक पाषाण नहीं, बल्कि “सत्य, शिव, और सुंदर” के त्रिआयामी दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है।

भारतीय जन सामान्य में गांव टोले में जहां भी लोगों ने निवास किया,किसी वृक्ष के नीचे सहजता से किसी पत्थर में शिव की कल्पना की संस्कृति ने सदियों आक्रांताओं के बीच भी भारतीयता का मूल तत्व हममें बनाए रखा । आदिवासी जनजातियों ने शिव को बड़ादेव तो क्षेत्रीय दूरियों ने पूजन पद्धति में किंचित बदलाव भले हुए हों पर मूल अवधारणा वही है।

 शैव दर्शन और मंदिरों का इतिहास , वेदों से लेकर पुराणों तक सम्पूर्ण विवेचन द्वितीय अध्याय में लेखिका ने शैव दर्शन के विकास को वेदों, पुराणों, और आगम ग्रंथों के माध्यम से समझाया है। लेखिका के अनुसार, ऋग्वेद में “रुद्र” के रूप में शिव की आराधना शैवमत का मूल है, जबकि अथर्ववेद में उन्हें “पशुपति” कहा गया। मत्स्य पुराण और वामन पुराण में लिंग पूजा और शैव संप्रदायों (जैसे पाशुपत, कापालिक) का विस्तृत वर्णन मिलता है। डॉ. कोरे इस बात को रेखांकित करती हैं कि शैव धर्म ने वैदिक परंपराओं को चुनौती देते हुए भी भारतीय समाज में गहरी पैठ बनाई ।

मंदिर निर्माण की यात्रा पर तृतीय अध्याय में एलोरा के कैलाश मंदिर, तंजौर के राजराजेश्वर मंदिर, और हड़प्पा सभ्यता के पुरातात्विक अवशेषों का उल्लेख है। ये मंदिर न केवल धार्मिक केंद्र थे, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण (जैसे खगोलीय संरेखण) और कलात्मक उत्कृष्टता के प्रतीक भी हैं।

 बारह ज्योतिर्लिंग , मिथक, इतिहास, और आस्था , ज्योतिर्लिंगों के निर्माण की पौराणिक कथा का सविस्तार वर्णन किया गया है। शिव और शक्ति के बीच हुए संघर्ष के फलस्वरूप विष्णु द्वारा शिवलिंग के बारह टुकड़े करके ब्रह्मांड में स्थापित किए जाने की कहानी, इन ज्योतिर्लिंगों के प्रतीकात्मक आध्यात्मिक महत्व को उजागर करती है। डॉ. कोरे इन्हें “सृजन और एकता” का प्रतीक मानती हैं, जो भारत के विभिन्न कोनों में फैले हैं और सांस्कृतिक एकता को बनाए रखते हैं।

वे रेखांकित करती हैं कि सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का ऐतिहासिक विध्वंस और पुनर्निर्माण भारत की सांस्कृतिक सहनशीलता और पुनरुत्थान की कहानी कहता है। इसी प्रकार, केदारनाथ की भौगोलिक चुनौतियों के बावजूद उसकी आध्यात्मिक , उसके प्रति जन आस्था , प्रासंगिकता आधुनिक युग में भी अक्षुण्ण है।

समय के साथ शिवालयों का बदलता स्वरूप

एक पूरे अध्याय में वर्णित है । लेखिका शिव मंदिरों के वास्तुशिल्प और सामाजिक भूमिका में आए परिवर्तनों का विश्लेषण करती हैं। वे बताती हैं कि प्राचीन काल में मंदिर “सामुदायिक जीवन के केंद्र” थे—जहाँ शिक्षा, कला, और राजनीतिक चर्चाएँ होती थीं। आधुनिक युग में ये “पर्यटन स्थल” बन रहे हैं, परंतु इनकी वैज्ञानिकता (जैसे सूर्य की किरणों का शिवलिंग पर पड़ने वाला प्रभाव) सदा से शोध का विषय है। पारद शिवलिंग , स्फटिक शिवलिंग , नर्मदा  के हर कंकर को शिवलिंग की मान्यता भारतीय मानस में शिव के साक्ष्य हैं। मानसरोवर से रामेश्वरम तक और सोमनाथ से बैद्यनाथ धाम तक शिव भारत में व्याप्त हैं। लेखिका का मानना है कि शिव मंदिरों की संरचना में छिपे वास्तु रहस्य (जैसे गर्भगृह की ध्वनि-अनुकूलता) और प्रतीकात्मकता (जैसे शिखर का ब्रह्मांडीय अक्ष से संबंध) को शोध दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। वे आधुनिक वास्तुकारों से आह्वान करती हैं कि वे इन प्राचीन तकनीकों को आधुनिक भवन निर्माण में समाहित करें। शिव और शक्ति द्वैत से अद्वैत की यात्रा का दर्शन है।शिव और शक्ति के अविभाज्य संबंध पर विश्लेषण केंद्रित लेख किताब में समाहित है। डॉ. कोरे शाक्त परंपरा के संदर्भ में बताती हैं कि शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना शिव अधूरे हैं—यही “अर्धनारीश्वर” की अवधारणा का मूल है। वेदों में “वागर्थाविव सम्पृक्तौ” (वाणी और अर्थ की एकता) की तरह, शिव-शक्ति का युग्म सृष्टि के संचालन का आधार है।

इस संदर्भ में पुस्तक संतोषी माता और मनसा देवी जैसे शक्ति स्वरूपों का उल्लेख करती है, जो शैव परंपरा में महत्वपूर्ण हैं। साथ ही, यह तांत्रिक मतों और भक्ति आंदोलनों के माध्यम से शिव-शक्ति के संयोग की व्याख्या भी है।

शिव—एक अद्वितीय सांस्कृतिक संश्लेषण मूल्य हैं। डॉ. सुलभा कोरे की यह पुस्तक शिव को केवल एक देवता नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के विकास का प्रतीक आधार मानती है। शिवालयों की यात्रा मनुष्य की आंतरिक खोज की आध्यात्मिक खोज की यात्रा है, जो प्राचीन काल से आज तक हमारी संस्कृति में निरंतर है। पुस्तक का यह संदेश विशेष रूप से प्रासंगिक है कि “शिव का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है—जहाँ विज्ञान, कला, और आस्था का समन्वय हो।”

इस प्रकार, “शिव और शिवालय” न केवल धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि भारतीय दर्शन और संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज़ है, जो पाठकों को शिव के माध्यम से स्वयं की खोज की प्रेरणा देता है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “चार नगरातले माझे विश्व – (आत्मचरित्र) लेखक : डॉ. जयंत नारळीकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “चार नगरातले माझे विश्व – (आत्मचरित्र) लेखक : डॉ. जयंत नारळीकर ☆ 

पुस्तक परिचय

पुस्तक : चार नगरातले माझे विश्व 

लेखक : जयंत विष्णू नारळीकर

प्रकाशक : मौज प्रकाशन 

पृष्ठसंख्या : ५४६.

वास्तविक डॉ. जयंत नारळीकर हे वैज्ञानिक म्हणून, विशेषत: खगोलशास्त्रज्ञ म्हणून उल्लेखनीय अंत:राष्ट्रीय किर्तीचे संशोधक म्हणून तुम्हा आम्हा सर्वांनाच परिचित आहेत. परंतु त्यांच्या या आत्मकथनातून आपल्याला त्यांच्या विशेष व्यक्तीमत्वाची ओळख होत जाते…

चार नगरातील माझे विश्व… ही आकाशाशी नाते जडलेल्या पण पूर्णपणे धरणीवर असणार्‍या, साध्या सभ्य, सज्जन माणसाची यशोगाथा वाचताना, त्यांच्या व्यक्तीमत्वाचे अनेकविध कप्पे, इतक्या सहजपणे उलगडत जातात कि मग, ही व्यक्ती दूरस्थ न राहता, एक वेगळेच नाते आपलेही त्यांच्याशी जुळून जाते.

चार नगरातले विश्व म्हणजे नारळीकरांच्या आयुष्यातले चार महत्वाचे टप्पे,..

नारळीकर मूळचे कुठले या अनुत्तरीत प्रश्नापासून या आत्मवृत्ताची सुरवात होते. पाटगाव हे त्यांचे मूळ गाव.

नारळीकरांच्या परसात आंब्याची झाडे होती. त्या झाडाला नारळाएव्हढे आंबे लागत म्हणून हे नारळीकर..

बनारस हे त्यांच्या शालेय शिक्षणाचे विश्व.

बी. एस्सी. पदवीप्राप्तीनंतर, ऊच्च शिक्षणासाठी, प्रचंड महत्वाकांक्षा मनात ठेउन केलेले केंब्रीजमधले पदार्पण हे दुसरे विश्व. रँग्लर किताब, टायसन, स्मिथ अॅडम्स, आणि इतर अनेक सर्वोच्च मानाचे पुरस्कार मिळवत.

खगोलशास्त्रातील सापेक्षतावाद, गुरुत्वाकर्षण, विश्वरचनातंत्र यामधे अलौकिक संशोधनाचे टप्पे गाठत, करीअरचा आलेख सदैव उंचावर ठेवत गेल्याचा काळ म्हणजे त्यांचे चौदा पंधरा वर्षाचे केंब्रीजमधले वास्तव्य.. यात त्यांनी वैयक्तिक स्वरुपात केलेली मनोरंजक प्रवास वर्णने आहेत. त्यांनी गाजवलेल्या अनेक वैज्ञानिक परिषदेचे सुरस तपशील आहेत. त्यांच्या संशोधनाविषयीचं लेखन उत्कंठावर्धक, रसपूर्ण आहे.

एका परिषदेत, एकदा एका इंग्लीश प्राध्यापकाने त्यांना व एका पाकिस्तानी विद्यार्थ्याला विचारले,

“भारताचे विभाजन झाले तेव्हां ज्या, हिंदु, मुस्लीम, शीखांच्या कत्तली झाल्या त्या भारताला किंवा पाकिस्तानला कां थांबवता आल्या नाहीत? “

तेव्हा नारळीकर ताबडतोब उत्तरले,

“विभाजन ब्रिटीशांनी घडवून आणले. ते अस्तित्वात येत असताना, कायदा आणि सुव्यवस्था टिकवण्याची जबाबदारी ब्रिटीश सत्तेने पार पाडली असती तर ही दुर्दैवी घटना घडलीच नसती… “

पाकिस्तानी विद्यार्थ्यानेही त्यांच्या या भाष्याला अनुमोदन दिले.

पंधरा सोळा वर्षाचं, अत्त्युच्च मानाचं, सोयीचं, अनेक वैज्ञानिक आवाहने पेलुन स्वत:ला जागतिक कीर्तिच्या

वैज्ञानिकांमधे आणि विज्ञान विश्वात सिध्द केल्यानंतर, भारतात परत येण्याविषयीच. त्यांचं मनोगत मनात कोरलं जातं. ते म्हणतात,

“माझ्या मनात परदेशवास्तव्याबद्दल एक उपरेपणाची भावना घर करत होती. सर्व छान असले तरी ही जागा माझी नाही. इथे मी पाहुणाच आहे. भारतात परतल्यावर विविध गोष्टींबद्दल करावी लागणारी तडजोड विचारात घेउनसुद्धा, तिथे मी आपल्या देशात, आपल्या माणसात असेन ही भावना वरचढ होती… “

१९७२ साली ते भारतात परतले. आणि टाटा इन्स्टीट्युट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR)या मुंबईस्थित

वैज्ञानिक संस्थेत ते दाखल झाले. भारतसरकारने त्यांचे मनापासून आदराने स्वागत केले. हे तिसरे पर्व! !

आपल्या देशात वावरताना, आत्मविश्वास, आप्तस्वकीयांची जवळीक, होणारे कौतुक या जमेच्या गोष्टी आहेत. आणि याचेच भान त्यांनी राखले म्हणून ते जनसामान्यात लोकप्रिय झाले.

स्वाक्षरी मागणार्‍या विद्यार्थ्यांना ते सांगतात……

“स्वाक्षरी मागण्यापेक्षा तू मला पोस्टकार्ड पाठवून, विज्ञानातला तुला भेडसावणारा, एखादा प्रश्न विचार. मी त्याला उत्तर स्वाक्षरीसकट पाठवेन.. “

पुढे मराठी विज्ञान परिषदेने याच प्रश्नोत्तरावर एक लहानसे पुस्तक त्यांच्याकडून लिहून घेतले. पुस्तकाचे नाव

“पोस्ट कार्डातून विज्ञान”

याशिवाय अनेक विज्ञानकथांचाही उगम त्यांच्याकडून झाला व ती विज्ञानप्रेमी माणसांसाठी पर्वणीच म्हणावी लागेल.

TIFR मधे ते सतरा वर्षे कार्यरत होते. तिथे त्यांनी मनात

ठरवलेल्या आशाआकांक्षा बहुतांशी पुर्‍या झाल्या.

सहवैज्ञानिकांशी त्यांचे सलोख्याचे सबंध राहिले. ते कधी अंतर्गत राजकारण, गटबाजी या भानगडीत पडले नाहीत. त्यांची प्रतिमा, एक साधा सज्जन माणूस.. “अशीच राहिली. आणि आजही ती तशीच आहे.

नेहरु तारांगण ची स्थापना ही एक उल्लेखनीय कामगिरी. करमणुकीतून लोकशिक्षण ही संकल्पना त्यामागे आहे.

TIFR मधे संचालकपदाच्या नेमणुकी बाबत मात्र त्यांच्यासोबत गलीच्छ राजकारण खेळले गेले. ते पद त्यांच्यासाठी डावलले गेले. तेव्हां त्यांना वेदनादायी धक्का बसला. याविषयी त्यांनी सारे पारदर्शीपणे या पुस्तकात लिहीले आहे, ते विलक्षण वाचनीय आहे.

पुण्यात आयुकासाठी(Inter university for astronomy and astrophysics) आलेले आमंत्रण

हे त्यांना त्यांच्या संशोधनात्मक तत्वांसाठी, संकल्पनेसाठी, वैज्ञानिक दृष्टीकोनासाठी

आव्हानात्मक वाटल्यामुळे त्यांनी TIFRआणि मुंबई सोडली. आयुकासाठी पुणे विद्यापीठात जागा मिळवून देण्यापासून ते नियमावली, पदांची नेमणूक, एक साचेबंद,

सर्वसमावेशक घटना बांधण्यापासूनचे सगळे योगदान

नारळीकरांचेच आहे. या चवथ्या पर्वाचा. पुस्तकवाचनातून येणारा हा अनुभवही आनंददायी आहे.

शैक्षणिक, व्यावसायिक, व्यावहारीक, तात्विक, सामाजिक, कौटुंबिक.. असामान्य बुद्धीमत्तेच्या या व्यक्तीने आपल्या लेखनातून या सर्व स्तरांवर त्यांचे असे स्वत:चे ठसे

उमटवले आहेत आणि ते आदर्शवत आहेत…

आज जयंत नारळीकर निवृत्तीच्या मार्गावर आहेत

मागे वळून पाहताना, ताई(आई), तात्यासाहेब(वडील जे केंब्रीजचेच स्कॉलर होते. रँग्लर हा किताब त्यांना मिळालेला होता)त्यांचे गुरु फ्रेड हाॅएल, साहित्यिक

एडवर्ड माॅर्गन फाॅस्टर आणि पत्नीचे काका बाळासाहेब राजवाडे ही त्यांची स्फूर्तीस्थाने आहेत, असे ते आवर्जून सांगतात.

एक प्रश्न त्यांना नेहमी विचारला जातो,

“तुमचा देवावर विश्वास आहे का? “

ते म्हणतात, “देव आणि विश्वास या संकल्पना व्यक्ती सापेक्ष आहेत. एका परम शक्तीने विश्व निर्माण केले,

त्या परमशक्तीला देव म्हणता येईल. “

वैज्ञानिक दृष्टीकोन म्हणजे कुठलाही तर्क प्रत्यक्ष निरीक्षणाने पुष्टी मिळाल्याशिवाय बरोबर मानायचा नाही, आणि त्याचे स्थान टिकवण्यासाठी, वेळोवेळी येणार्‍या भाकीतांची तपासणी करुन मूळ तर्काचे खरेखोटेपण ठरवता येते. यालाच तर्कशुद्ध विचारसरणी म्हणतात.

हे पुस्तक वाचताना एका वैज्ञानिकाबरोबरच, एक तत्वचिंतक आपल्याला भेटतो. गूढतेतून, गहनतेतून, एक

सरळ सोपी प्रकाशवाट दाखवणारा…

खरोखरीच्या या भारतरत्नाला, या दिव्यत्वाच्या प्रचीतीला सदैव कर जुळलेले राहतील…..

आज त्यांच्या दु:खद निधनाची बातमी ऐकून मन बेचैन झाले. मृत्यू अटळ आहे पण आठवणी निरंतर असतात. “चार नगरातले माझे विश्व “या पुस्तकातून झालेली त्यांची ओळख आठवून त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली देते..

परिचय –  सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७ मो. ९४२१५२३६६९ radhikabhandarkar@yahoo.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास – ‘मुनिया की खुशी‘ (बाल कहानी संग्रह) – सुश्री नीना सिंह सोलंकी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री नीना सिंह सोलंकी जी के बाल कहानी संग्रह – “मुनिया की खुशी की समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 213 ☆

☆ बाल उपन्यास – मुनिया की खुशी  (बाल कहानी संग्रह) – सुश्री नीना सिंह सोलंकी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’

पुस्तक: मुनिया की खुशी  (बाल कहानी संग्रह)

कहानीकार: सुश्री नीना सिंह सोलंकी

प्रकाशक: संदर्भ प्रकाशन, भोपाल 

संस्करण: प्रथम, 2024 

मूल्य: ₹250/- 

समीक्षक-  श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 9424079675

☆ समीक्षा- बाल मन का रंगीन खजाना: मुनिया की खुशी –  ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

नीना सिंह सोलंकी की ‘मुनिया की खुशी’ एक ऐसा बाल कहानी संग्रह है, जो बच्चों के कोमल मन को न केवल मनोरंजन प्रदान करता है, बल्कि उन्हें जीवन के महत्वपूर्ण मूल्यों से भी जोड़ता है। संदर्भ प्रकाशन, भोपाल द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक 6 से 12 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए डिज़ाइन की गई है। 14 छोटी-छोटी कहानियों का यह संग्रह नैतिकता, पर्यावरण संरक्षण, पारिवारिक रिश्तों, और साहस जैसे विषयों को सरल और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करता है। 2024 में प्रथम संस्करण के रूप में प्रकाशित यह कृति लेखिका के लंबे लेखन अनुभव और बच्चों के प्रति उनकी संवेदनशीलता का सुंदर परिणाम है। 

इस संग्रह की प्रत्येक कहानी एक अनूठा संदेश लिए हुए है। उदाहरण के लिए, ‘अच्छे दोस्त’ बच्चों को सच्ची मित्रता का महत्व सिखाती है, जिसमें आपसी विश्वास और सहयोग की भावना को रेखांकित किया गया है। ‘जब चोरी पकड़ी गई’ एक मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो बच्चों को ईमानदारी और नैतिकता के पथ पर चलने की प्रेरणा देती है। ‘भूत वाला पेड़’ नन्हे पाठकों में निडरता और तर्कसंगत सोच को प्रोत्साहित करती है, जो अंधविश्वासों को चुनौती देने का साहस प्रदान करती है। ‘माँ का बुखार’ जैसी कहानियाँ पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट और माता-पिता के प्रति सम्मान को दर्शाती हैं, जो बच्चों में संवेदनशीलता का विकास करती हैं। 

विशेष रूप से ‘सीख सुहानी’ पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह कहानी पॉलीथिन के दुष्प्रभाव और वर्षा जल संरक्षण जैसे जटिल विषयों को बच्चों की समझ के अनुरूप सरलता से प्रस्तुत करती है। इसी तरह, ‘नियमित अभ्यास’ मेहनत और लगन के महत्व को रेखांकित करती है, जो बच्चों को पुरानी कहावत “करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान” को चरितार्थ करना सिखाती है। ‘नये साल की पार्टी’ और ‘मैं सांता बनूँगा’ जैसी कहानियाँ उत्सवों और खुशियों के बीच बच्चों में उदारता और दूसरों के लिए कुछ करने की भावना को प्रोत्साहित करती हैं। 

लेखिका की लेखन शैली अत्यंत सहज, प्रवाहमयी, और बाल मन को लुभाने वाली है। उनकी कहानियाँ संक्षिप्त होने के बावजूद प्रभावशाली हैं, जो बच्चों को बिना बोर किए नैतिक संदेश देती हैं। प्रत्येक कहानी का कथानक रोचक और बच्चों की कल्पनाशक्ति को उड़ान देने वाला है। पुस्तक में उपयोग किए गए रंगीन चित्रण आकर्षित करता है। वैसे देखे तो कुछ कहानियों में कथानक की गहराई और विस्तार लिए हुए हैं। कुछ में इसकी गुंजाइश बनी हुई हैं। इसके बावजूद पुस्तक पाठकों को अपनी और आकर्षित करने में सफल रही है। 

‘मुनिया की खुशी’ न केवल बच्चों के लिए एक मनोरंजक पठन सामग्री है, बल्कि अभिभावकों और शिक्षकों के लिए भी एक मूल्यवान संसाधन है। यह संग्रह बच्चों को नैतिक मूल्यों, सामाजिक जिम्मेदारी, और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाता है। यह पुस्तक स्कूलों, पुस्तकालयों, और घरों में एक विशेष स्थान पाने की हकदार है। लेखिका की यह कृति बच्चों के साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है, जो नन्हे पाठकों को प्रेरित करने के साथ-साथ उनके मन में सकारात्मक विचारों का बीज बोती है। 

नीना सिंह सोलंकी को उनकी इस अप्रतिम कृति के लिए हार्दिक बधाई। यह पुस्तक निश्चित रूप से पाठकों के बीच लोकप्रिय होगी और बच्चों के साहित्य में एक नया आयाम स्थापित करेगी। 

रेटिंग: 4.5/5 

———– 

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

08-02-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 181 ☆ “खुले द्वार अब कहाँ” – कथाकार… सुश्री रेनू श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री रेनू श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “खुले द्वार अब कहाँपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 181 ☆

☆ “खुले द्वार अब कहाँ” – कथाकार… सुश्री रेनू श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कहानी संग्रह: “खुले द्वार अब कहाँ”

लेखिका: रेनू श्रीवास्तव

बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य: 150 रुपये,

पृष्ठ: 120

कहानी नहीं, यथार्थ हैं रेनू जी की कहानियाँ

रेनू श्रीवास्तव का कहानी संग्रह “खुले द्वार अब कहाँ” स्त्री-जीवन के उन कोनों को छूता है, जहाँ चुप्पी के पर्दे में दबे सवाल धधकते हैं। ये कहानियाँ केवल वर्णन नहीं, बल्कि नारी विमर्श पर जीवंत संवाद हैं — समाज से, पुरुषसत्ता से, और हर स्त्री से। संग्रह में कुल ६ कहानियां हैं । सभी एक दूसरे से बढ़कर प्रभाव छोड़ती हैं । खिड़की, वो घर किसका, मोहपाश, मरते हुये सपनो के बीच जिंदगी, देह के अभिशाप, तथा किताब की शीर्षक कथा खुले द्वार अब कहां,  जैसा शीर्षकों से ही व्यंजित होता है सभी कहानियां स्त्री विमर्श के कथानकों पर आधारित हैं। एक दरवाज़ा बंद हो — तो उसे खटखटाया जा सकता है। पर यदि वह अंदर से बंद है, और बंद करने वाले स्वयं तुम हो? तब क्या करोगे? रेनू श्रीवास्तव की कहानियाँ केवल कथा नहीं हैं । उन कोनों में जहाँ रोशनी नहीं  और जहाँ स्त्रियाँ चुपचाप साँसें भरती हैं, वहां ये कथाएं स्त्री विमर्श की मुखर अभिव्यक्ति हैं।

पुस्तक की शीर्षक कथा “खुले द्वार अब कहाँ” अंदर से संकुचित होते रिश्तों की कथा है।  कहानी की नायिका रूमी के माध्यम से लेखिका ने “सफलता के बदले टूटते परिवार” के यथार्थ को उकेरा है। रूमी की माँ ने उसे बचपन से ही सिखाया, सबसे ऊपर कैरियर, पढ़ाई पर केंद्रित होना सिखाया पर माँ की मृत्यु के बाद वह बंद दरवाजे के सामने खड़ी होती है, तो पाती है कि “खुले द्वार अब कहाँ” उसने सफलता की दौड़ में अपनों को पीछे छोड़ दिया। “दरवाजा” प्रतीक है उन रिश्तों का, जो बाहर से खुले दिखते हैं, पर अंदर से सूख चुके हैं। रूमी का आत्मप्रश्न “क्या जड़ों में प्रेम-संस्कार की जगह कैरियर का कीटनाशक छिड़क दिया गया?”  आधुनिक भाग दौड़  और पारिवारिक मूल्यों के बीच की खाई का चित्रण है । ‘खुले द्वार अब कहाँ’  वह दर्पण है — जिसमें समाज की ऐसी शक्ल दिखती है जिसे हम समझते हुए भी देखना नहीं चाहते।

इस पुस्तक की कहानियां बताती हैं कि स्त्री होना अब भी एक संघर्ष है — चाहे वह मां के रूप में हो, पत्नी हो, बेटी या प्रेमिका , पुरुष प्रधान समाज में आज भी नारी को हर क्षेत्र में अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ती है, यह विडंबना ही है। इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई अपना दुखड़ा सुना रहा हो, और हम बेबस चुपचाप सुन रहे हों। हर पात्र, हर स्त्री कहीं न कहीं हमारे परिवेश से, हमारे आसपास हैं। वे शिकायत नहीं करतीं, बस मूक प्रश्न करती हैं — और यही प्रश्न पाठक की आत्मा को कुरेदता है।

“देह के अभिशाप” गरीबी और नारी देह का यथार्थ दिखलाती है। गिन्नी और उसकी माँ की कहानी गरीबी और लैंगिक भेद को बेनकाब करती है। माँ दिनभर घरों में झाड़ू-पोंछा करती है, ताकि गिन्नी “पढ़-लिखकर बड़ी मैडम बने”, पर बेटी की रुचि पढ़ाई में न होकर “मास्टरों के छोटे-मोटे काम” में है। गाँव की वह लड़की, जिसका शरीर “चौदह में सोलह” दिखने लगता है, समाज की कुंठित नजरों का शिकार बनती है। लेखिका का यह वाक्य – “उसकी माँ ने उसे छोटी सी उम्र में ब्याह कर अपने कर्तव्यों से इति कर ली थी” – ग्रामीण भारत में स्त्री की नियति को संक्षिप्त में बयान कर देता है। कहानी पूछती है, क्या गरीब स्त्री के लिए वास्तव में शिक्षा और सुरक्षा के दरवाजे  खुले हैं? रेनू श्रीवास्तव जिस साहित्यिक कुशलता से अभिव्यक्ति देती हैं वह उनकी कलम की ताक़त है । वे स्त्री पात्रों के अंदर उतरती हैं, न सिर्फ उसके संघर्ष को दिखाती हैं, बल्कि उसकी इच्छाओं, सपनों, टूटन और अंततः साहस को भी उजागर करती हैं। यह संग्रह स्त्री को दया की पात्र नहीं बनाता – बल्कि उसे उसके अस्तित्व के साथ खड़ा करता है। रेनू जी की भाषा में न नारे हैं, न शोर – बस मौन का वह कंपन है जो सीधा पाठकों के हृदय तक पहुँचता है। इन कहानियों में पुरुष भी हैं – मगर जैसे झील में कोई अक्स हो। वे निर्णय करते हैं, अधिकार जताते हैं, मगर हर कहानी के अंत में पाठक समझ लेता है  कि शक्ति वास्तव में किसके पास थी। वह स्त्री, जो चुप थी – वही निर्णय की धुरी थी।

“वो घर किसका”  यह कहानी उस “स्वतंत्र” स्त्री की है, जो शहरी जीवन में करियर और पति विपुल के साथ संतुलन बनाने का प्रयास करती है। पर दिखावे की इस आधुनिकता में भी वह अनघा की शादी में “आदित्य की याद” से व्याकुल हो उठती है। लेखिका दिखाती हैं कि कैसे “दोनों अपनी-अपनी जॉब के कारण अलग-अलग शहर में सुखी और संतुष्ट” होने का दावा करते हैं, पर “बच्चे की प्लानिंग में ” स्त्री की इच्छा गौण रह जाती है। घर की साफ-सफाई के लिए कामवाली कांता का आना और पति का यह कथन – कि “शांति से एक दिन दोनों रह सकें”, संबंधों में बढ़ते व्यवसायीकरण को इंगित करता है।

“जो दरवाज़ा मैंने खून-पसीने से सींचा, आज वही मेरे लिए बंद क्यों है?” स्त्री मन की इसी भीतरी आवाज़ को अपने कथानकों के जरिए शब्द चित्रों में उकेरा है । रेनू जी का यह संग्रह दरवाज़ों के बंद होने की कहानियो का नहीं , नारी विमर्श की चेतना के खुलने की कहानी है। यह स्त्रियों को हथियार नहीं देता, उन्हें दर्पण देता है — जिसमें वे स्वयं को देख सकें, पहचान सकें और अंततः स्वयं के लिए खड़ी हो सकें।

एक सवाल — जो हर पाठक से पूछा गया है रेनू श्रीवास्तव यह नहीं पूछतीं कि समाज कैसा है। वे पूछती हैं — “तुम कौन हो? “क्या तुम वह स्त्री हो जो अब भी द्वार खुलने की प्रतीक्षा में है? या वह पुरुष हो जो द्वार पर खड़ा है, जो यह मान बैठा है कि दरवाज़ा खोलना उसका हक़ है? ये प्रश्न पाठक को आत्ममंथन और सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं। जो कहानीकार का उद्देश्य भी है। ‘खुले द्वार अब कहाँ’ की कहानियां मनुष्यता के आलेख हैं — जिसे पढ़कर संवेदनशील पाठक मन आंदोलित हो जाते हैं। ग्रामीण जीवन, परंपराओं, और नई संस्कृति के विवरण के माध्यम से ये कहानियां भारतीय समाज की बहुआयामी पहचान को प्रस्तुत करती है। परिवेश के वर्णन में साहित्यिक हिंदी के साथ-साथ संवाद में लोकभाषा के शब्दों का प्रयोग किया गया  है, जो कथाओं को सजीव और प्रामाणिक बनाता है। मिथकों , प्रतीकात्मकता और रूपकों का उपयोग कहानियों को गूढ़ अर्थ प्रदान करता है। यह कृति न केवल कथा साहित्य की उत्कृष्टता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक बदलाव की एक पहल भी है। यह पुस्तक हर उस पाठक के लिए पठनीय और विचारणीय सामग्री देती है जो समाज की जटिलताओं को समझने और बदलने की किंचित इच्छा रखता है। साहित्य जगत में लेखिका की उपस्थिति दशको से है, समय समय पर कई सम्मानों से साहित्य जगत ने उनके रचनाकर्म की सराहना भी की है, उनसे निरंतर और भी प्रयोगात्मक सृजन की अपेक्षा है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #211 – पुस्तक चर्चा – श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) – रचनाकार – श्री शिव मोहन यादव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी श्री शिव मोहन यादव जी द्वारा रचित पुस्तक “श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) पर पुस्तक चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 211 ☆

☆ पुस्तक चर्चा – श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) – रचनाकार – श्री शिव मोहन यादव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

पुस्तक: श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) 

रचनाकार: शिव मोहन यादव 

प्रकाशक: अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली

प्रथम संस्करण: 2024

पृष्ठ संख्या: 102

मूल्य: ₹160

समीक्षक: ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ समीक्षा – लुप्तप्राय परंपरा को नया जीवन देता खंड-काव्य ☆

 

शिव मोहन यादव द्वारा रचित श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध एक अनूठा खंड-काव्य है, जो भारतीय साहित्य में प्रबंध-काव्य की लुप्तप्राय परंपरा को नया जीवन देता है। यह रचना न केवल एक पौराणिक कथा को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करती है, बल्कि आधुनिक पाठकों को भारतीय दर्शन, संस्कृति और आध्यात्मिकता के गहन आयामों से जोड़ती है।

कथावस्तु और थीम

श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध का शीर्षक पहली नजर में आश्चर्यजनक लगता है, क्योंकि श्रीकृष्ण और अर्जुन, जो महाभारत में सखा और गुरु-शिष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं, को युद्धरत देखना असंभव-सा प्रतीत होता है। रचनाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस संदेह को संबोधित करते हुए बताते हैं कि यह कथा एक कम प्रचलित पौराणिक प्रसंग पर आधारित है। यह कथा श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए एक प्रतीकात्मक युद्ध की गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत करती है, जो आध्यात्मिक, नैतिक और दार्शनिक प्रश्नों को उजागर करती है।

काव्य पुस्तक ग्यारह खंडों में विभाजित है। मंगलाचरण, अर्घ्य खंड, चिंतन खंड, ब्रह्मलोक भ्रमण खंड, बैकुंठ भ्रमण खंड, कैलाश भ्रमण खंड, इंद्र-लोक भ्रमण खंड, व्यथा खंड, नारद-चित्रसेन संवाद, अभयदान खंड, नारद-श्रीकृष्ण संवाद और युद्ध खंड। प्रत्येक खंड कथानक को क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ाता है। नारद और चित्रसेन जैसे प्रसिद्ध पात्र कथा को दार्शनिक गहराई प्रदान करते हैं। कथा का आधार गुरु-पूर्णिमा और आध्यात्मिक जागृति से जुड़ा है, जैसा कि लेखक ने गुरु-पूर्णिमा 2024 को रचना के पूर्ण होने का उल्लेख किया है। यह कृति केवल युद्ध का वर्णन नहीं करती, बल्कि गुरु-शिष्य संबंध, आत्म-चिंतन और ईश्वरीय कृपा जैसे विषयों को भी समेटती है।

लेखन शैली और काव्य सौंदर्य:

शिव मोहन यादव की लेखन शैली सरल, लयबद्ध और प्रभावशाली है। खंड-काव्य के रूप में यह रचना छंदबद्धता और भावप्रवणता का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है। मंगलाचरण और नारद-चित्रसेन संवाद जैसे अंशों में दोहा और चौपाई का प्रयोग पाठक को पारंपरिक हिंदी काव्य की स्मृति दिलाता है। उदाहरण के लिए, मंगलाचरण में लिखा गया: 

“प्रथम पूजते आपको, श्री गणपति-विघ्नेश।

विधिवत काज सँवारिए, हरिए सभी कलेश॥” 

यह पंक्ति काव्य की शास्त्रीयता और आध्यात्मिकता को दर्शाती है।

लेखक ने कथा की रोचकता को बनाए रखने के लिए संवादों का सहारा लिया है, जो पात्रों के मनोभावों को उजागर करते हैं। नारद-चित्रसेन संवाद में गुरु-पूर्णिमा की महत्ता और आध्यात्मिक अनुष्ठानों का वर्णन कथानक को आगे बढ़ाता है और पाठक को सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ता है। काव्य की भाषा सरल होते हुए भी भावनात्मक गहराई लिए हुए है, जो सामान्य और विद्वान पाठकों दोनों को आकर्षित करती है।

पुस्तक की संरचना और प्रभाव:

ग्यारह खंडों में विभाजित यह संरचना कथानक की गहराई, सुगमता और भावनात्मक प्रभाव को बढ़ाती है। प्रत्येक खंड एक विशिष्ट उद्देश्य को पूरा करता है, जो पाठक को कथा की आध्यात्मिक, दार्शनिक और भावनात्मक परतों से परिचित कराता है।

क्रमिक कथानक जो मंगलाचरण से शुरू होकर, एक श्रद्धापूर्ण स्वर स्थापित करता है, संरचना उत्सुकता जगाती है। अर्घ्य खंड और चिंतन खंड दार्शनिक और भावनात्मक आधार तैयार करते हैं, जबकि ब्रह्मलोक, बैकुंठ, कैलाश और इंद्र-लोक भ्रमण खंड कथा को ब्रह्मांडीय आयाम देते हैं। ये खंड श्रीकृष्ण-अर्जुन के युद्ध को व्यक्तिगत संघर्ष से अधिक, सार्वभौमिक महत्व प्रदान करते हैं।

विषयगत विभाजन: प्रत्येक खंड एक विशिष्ट थीम पर केंद्रित है। उदाहरण के लिए, व्यथा खंड संभवतः पात्रों की भावनात्मक पीड़ा को उजागर करता है, जबकि नारद-चित्रसेन संवाद दार्शनिक चिंतन का अवसर देता है। यह विभाजन पाठक को कथा के भावनात्मक और बौद्धिक भार को सहजता से ग्रहण करने में मदद करता है।

लयबद्ध गति: खंडों की संरचना भारतीय महाकाव्य परंपरा की मौखिक शैली को प्रतिबिंबित करती है। प्रत्येक खंड एक पड़ाव की तरह है, जो पाठक को रुककर चिंतन करने का अवसर देता है। यह गति काव्य की लयबद्धता के साथ सामंजस्य रखती है और पाठ को संतुलित बनाती है।

चरमोत्कर्ष और समापन: अंतिम खंड—अभयदान, नारद-श्रीकृष्ण संवाद और युद्ध खंड—कथा को चरमोत्कर्ष तक ले जाते हैं। युद्ध को अंतिम खंड में रखकर रचनाकार पाठक को भावनात्मक और बौद्धिक रूप से तैयार करते हैं। समापन में चित्रसेन का “कोटि प्रणाम” और सभी का अपने धाम लौटना एक सामंजस्यपूर्ण समाधान दर्शाता है।

सांस्कृतिक प्रतिबिंब: संरचना गुरु-पूर्णिमा जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक अवसरों को प्रतिबिंबित करती है। ग्यारह खंड एक आध्यात्मिक यात्रा के समान हैं, जिसमें मंगलाचरण, चिंतन, दैवीय भ्रमण और समाधान शामिल हैं। यह संरचना रचनाकार के उद्देश्य—बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रेरणा—को साकार करती है।

 साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व:

श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध’ का सबसे बड़ा योगदान यह है कि यह प्रबंध-काव्य की परंपरा को पुनर्जन्म देता है। रचनाकार की यह टिप्पणी कि कई दशकों से इस विधा में उल्लेखनीय रचनाएँ सामने नहीं आई हैं, इस कृति के महत्व को रेखांकित करती है। यह रचना हिंदी साहित्य में एक नया मानदंड स्थापित करती है, जो आधुनिक और पारंपरिक तत्वों का संतुलन बनाए रखती है। साथ ही, यह पाठकों को भारतीय संस्कृति और दर्शन से जोड़कर आध्यात्मिक चेतना को प्रोत्साहित करती है।

 पाठकों पर प्रभाव:

यह कृति सामान्य पाठकों से लेकर साहित्य प्रेमियों और आध्यात्मिक खोज करने वालों तक, सभी के लिए आकर्षक का केंद्रबिंदु है। इसकी सरल भाषा और लयबद्ध शैली इसे सुगम बनाती है, जबकि गहन थीम और दार्शनिक संवाद विद्वानों को भी प्रभावित करते हैं। रचनाकार की ईमानदार प्रस्तावना, जिसमें वे अपनी लेखन यात्रा और प्रेरणा साझा करते हैं, पाठक के साथ एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित करती है।

 निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध’ एक ऐसी काव्य रचना है, जो अपनी अनूठी कथावस्तु, लयबद्ध काव्य शैली और संरचनात्मक सुंदरता के कारण हिंदी साहित्य में विशेष स्थान रखती है। यह न केवल एक पौराणिक कथा को जीवंत करती है, बल्कि पाठकों को आध्यात्मिक और बौद्धिक यात्रा पर ले जाती है। शिव मोहन यादव की यह कृति उन पाठकों के लिए अवश्य पढ़ने योग्य है, जो साहित्य, संस्कृति और दर्शन के संगम का आनंद लेना चाहते हैं। लेखक का यह आह्वान कि पाठक पत्र लिखकर अपनी प्रतिक्रिया साझा करें, इस रचना की आत्मीयता को और बढ़ाता है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 180 ☆ “ज्ञान गंगा में गधों का आचमन” – व्यंग्यकार… श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित  ज्ञान गंगा में गधों का आचमनपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 180 ☆

☆ “ज्ञान गंगा में गधों का आचमन” – व्यंग्यकार… श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति –  ज्ञान गंगा में गधों का आचमन

लेखक – श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव

प्रकाशक – ज्ञानगंगा प्रकाशन भोपाल

पाठक व्यंग्यकार के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त विसंगतियों के प्रवाह के सर्वथा विपरीत दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के व्यंग्य विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। व्यंग्य रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को व्यंग्य रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डॉक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से व्यंग्यकार को भी रचना सुख मिलता है। व्यंग्यकार समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबालब बना रहता है। सच्चे व्यंग्यकार को हर सुबह अखबार पलटते ही नजरों के सामने विषय तैरते नजर आते हैं।

लेखक शारदा दयाल श्रीवास्तव ने अपने पहले व्यंग्य संग्रह ‘ज्ञान गंगा में गधों का आचमन’ की पाण्डुलिपि पढ़ने और उस पर कुछ लिखने का अवसर मुझे दिया। पाण्डुलिपि 41 सम सामयिक व्यंग्य लेखों का संग्रह है। मैने आद्योपांत सभी रचनायें पढ़ीं। जहां कुछ लेखों में ब्याज स्तुति है, वहीं कई लेखों का कलेवर अभिधा में वर्णनात्मक भी है। वाक्य विन्यास और भाषा ग्राह्य है। वाक्यों में व्यंग्य का संपुट है। विषयों का चयन रचनाकार के परिवेश के अनुरूप और समसामयिक है। अभिव्यक्ति का सामर्थ्य लेखक की कलम में है। लेख छोटे और सारगर्भित हैं। रचनाकार का अध्ययन उनकी अभिव्यक्ति में परिलक्षित होता है। प्रासंगिक संदर्भों में उन्होंने लोकोक्तियों, कहावतों, फिल्मी गीतों के मुखड़ो और साहित्यिक रचनाओ से उद्धवरण भी लिये हैं। सामाजिक बदलाव तथा राजनीति के प्रति जागरुक श्रीवास्तव जी ने उनको नजर आती विसंगतियों पर लिख कर अपना आक्रोश पाठको के सम्मुख रखा है। रचनाओ के शीर्षक छोटे और प्रभावी हैं। किसी रचना का शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है। शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से आकर्षित करता है। शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासावर्धक होना चाहिये। वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अपने पूर्व अनुभवों के अनुसार एक अनुमान लगा लेते हैं। धारणा निर्माण की यह अव्यक्त मौन प्रक्रिया अप्रत्यक्ष स्वयमेव होती है। ठीक इसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में पाठक एक अनुमान लगा लेता है। सामान्य सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए। मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ो को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस किताब के प्रायः लेखों के शीर्षक निर्धारण में मुझे यह गुणवत्ता दृष्टिगत हुई।

किताब के पहले ही व्यंग्य ‘मेरा देश मेरा भेष’ में ब्याज स्तुति का प्रयोग कर विदेशों के प्रति अनुराग पर कटाक्ष करने में रचनाकार सफल रहे हैं। सड़को के स्पीड ब्रेकर को लेकर वे लिखते हैं ‘जनता के, जनता के लिये, जनता द्वारा निर्मित कूबड़ की तरह उभरे स्पीड ब्रेकर हैं’। मुझे नहीं पता कि श्रीवास्तव जी ने व्यक्तिगत रूप से अमेरिका यात्रा की है या अपने अध्ययन के आधार पर वे लिखते हैं ‘यदि अमेरिका पूछे कि मेरे पास सैन्यबल है, हथियार हैं, रोजगार हैं, इकोनॉमी है, टेक्नोलॉजी है,,,,, क्या है तुम्हारे पास ???’

दो टूक जवाब है- ‘मेरे पास भारत माँ है।’

भविष्य की कल्पना करने में श्रीवास्तव जी पारंगत प्रतीत होते हैं ‘सम्भव है कल को चंद्रयान के लैंडिंग स्पाट शिवशक्ति पाइंट पर भव्य शिव महालोक का निर्माण हो, फिर हमारे नेता मतदाताओ को वहां की मुफ्त यात्रा की रेवड़ी बांटते दिखें’।

पेंशनधारियों के लिये जीवन प्रमाणपत्र एक अनिवार्य सरकारी वार्षिक प्रक्रिया है, इस विसंगति पर कई व्यंग्यकारों ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार व्यंग्य किये हैं। ‘जिंदगी से लिपटा जीवन प्रमाण’ में श्रीवास्तव जी ने भी इस मुद्दे को उठाया है ‘पेंशनर हार कर अफसर से पूछता है, तुम्हीं बताओ कि मुझे लिविंग मेटेरियल कैसे मानोगे? अफसर जबाब देता है कि साथ में लाईफ सर्टिफिकेट लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम’ वे लेख में जावेद अख्तर के फिल्मी गीत ‘दिलों में अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम, नजर में ख्वाबों की बिजलियाँ लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम’ का भी प्रासंगिक उपयोग कर विषय बढ़ाते हैं।

खिचड़ी पर उन्होंने एक धारदार व्यंग्य लिखा है। ‘हिंदी में अँग्रेजी मिला दो तो भाषा की खिचड़ी बन जायेगी, … चुनाव में बहुमत न मिले तो मिली जुली सरकार की खिचड़ी’।

संग्रह का सबसे छोटा लेख आलस्य महोत्सव है। उन्होंने आलस्य को समृद्धि की कुंजी बताया है।

ताश के पत्तों पर साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है, ताश के पत्ते तो खुशनसीब हैं यारों बिखरने के बाद कोई उठाने वाला तो है। श्रीवास्तव जी लिखते हैं ‘ताश की गड्डी पूरा मुल्क है, बादशाह, बेगम, गुलाम, विधानपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इक्का जनप्रतिनिधि है। चारों बादशाहों के चार दल हैं। कटाक्ष देखिये ‘जोकर निर्दलीय है जो किसी की भी सरकार बना सकता है। ‘जोकर पानी की तरह है जिस बर्तन में डालो उसका आकार ग्रहण कर ले।’

विवाह हमारे समाज में हमेशा से एक बड़ा आयोजन रहा है। ब्याह चालीसा, नृत्य विवाहिका, दही हांडी और सरकारी गोविंदा, आदि रचनाओ में लेखक ने अपने तरीके से व्यंग्य के पंच चलाये हैं। माल, माया और मुहब्बतें, दो पैग जिंदगी के प्रभावी रचनायें है। स्वप्न का सहारा लेकर …. निठल्ले की परलोक यात्रा का बढ़िया प्रयोगवादी कल्पना व्यंग्य वर्णन है। लंदन ठुमकदा, बेशर्म रंग आदि लोगों की जुबान पर चढ़े हुये फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर रचे गये व्यंग्य हैं।

कुछ लेखों की पंच लाइने पढ़ें ‘मनुष्य में मस्तिष्क का विकास होते ही उसकी रीढ़ कमजोर होने लगी’, सब मिथ्या है यह जगत भी, जन्म पत्री भी और मुहूर्त भी,’ विदेश यात्रा के प्रति मध्यवर्ग के अतिरिक्त अनुराग पर व्यंग्य करते हुये कटाक्ष करते हुये वे लिखते हैं ‘चैक इन लगेज में लगी स्लिप तो जैसे अटैची का सुहाग है।’

जब कोई प्रभावी नेता कुछ कहता है तो उसे बहुत सोच समझ कर बोलना चाहिये, क्योंकि समाज पर उसके दीर्घगामी परिणाम होते हैं। जैसे ‘आपदा में अवसर’ की टैग लाइन से समाज में संवेदना का हास हुआ दिखता है। इसी तरह लेखकीय दायित्व भी है कि रचनाओ में बड़ी जिम्मेदारी से कुछ लिखा जाये, क्योंकि साहित्य दीर्घ जीवी होता है। श्रीवास्तव जी के लेखों में यह जिम्मेदारी दिखती है। आपदा में अवसर का अवलंब लेकर उन्होंने ‘उत्सव मेंअवसर ‘रचना लिखी है। पंच लाइन देखिये राष्ट्रीय दिवसों की उत्सव धर्मिता पर वे लिखते हैं ‘फेसबुक पर डी पी तिरंगी कर लें… भारत माता को इससे ज्यादा क्या चाहिये?’ समाज में व्याप्त शो बिजनेस पर अच्छा कटाक्ष है।

शीर्षक लेख ‘ज्ञान गंगा में गधों का आचमन ‘में उन्होंने ‘नौ नकद न तेरह उधार’ के समानांतर मुहावरा ‘लेना एक न देना दो ‘का प्रयोग कर उनकी प्रखर बुद्धि का परिचय दिया है।

कुल जमा मेरा अभिमत है कि व्यंग्य जगत को शारदा दयाल श्रीवास्तव के इस प्रथम व्यंग्य संग्रह का स्वागत करना चाहिये। अध्ययन तथा समय के साथ निश्चित ही उनका अनुभव संसार और विशाल होगा। अभिव्यक्ति क्षमता में लक्षणा तथा व्यंग्य की शैलियो के नये प्रयोग एवं विषय चयन में व्यापक कैनवास से उनकी लेखनी में और पैनापन आयेगा। वे संभावनाओ से भरपूर व्यंग्यकार हैं। मेरी समस्त शुभ कामनायें उनके रचना कर्म के साथ हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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