श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री रेनू श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “खुले द्वार अब कहाँपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 181 ☆

☆ “खुले द्वार अब कहाँ” – कथाकार… सुश्री रेनू श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कहानी संग्रह: “खुले द्वार अब कहाँ”

लेखिका: रेनू श्रीवास्तव

बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य: 150 रुपये,

पृष्ठ: 120

कहानी नहीं, यथार्थ हैं रेनू जी की कहानियाँ

रेनू श्रीवास्तव का कहानी संग्रह “खुले द्वार अब कहाँ” स्त्री-जीवन के उन कोनों को छूता है, जहाँ चुप्पी के पर्दे में दबे सवाल धधकते हैं। ये कहानियाँ केवल वर्णन नहीं, बल्कि नारी विमर्श पर जीवंत संवाद हैं — समाज से, पुरुषसत्ता से, और हर स्त्री से। संग्रह में कुल ६ कहानियां हैं । सभी एक दूसरे से बढ़कर प्रभाव छोड़ती हैं । खिड़की, वो घर किसका, मोहपाश, मरते हुये सपनो के बीच जिंदगी, देह के अभिशाप, तथा किताब की शीर्षक कथा खुले द्वार अब कहां,  जैसा शीर्षकों से ही व्यंजित होता है सभी कहानियां स्त्री विमर्श के कथानकों पर आधारित हैं। एक दरवाज़ा बंद हो — तो उसे खटखटाया जा सकता है। पर यदि वह अंदर से बंद है, और बंद करने वाले स्वयं तुम हो? तब क्या करोगे? रेनू श्रीवास्तव की कहानियाँ केवल कथा नहीं हैं । उन कोनों में जहाँ रोशनी नहीं  और जहाँ स्त्रियाँ चुपचाप साँसें भरती हैं, वहां ये कथाएं स्त्री विमर्श की मुखर अभिव्यक्ति हैं।

पुस्तक की शीर्षक कथा “खुले द्वार अब कहाँ” अंदर से संकुचित होते रिश्तों की कथा है।  कहानी की नायिका रूमी के माध्यम से लेखिका ने “सफलता के बदले टूटते परिवार” के यथार्थ को उकेरा है। रूमी की माँ ने उसे बचपन से ही सिखाया, सबसे ऊपर कैरियर, पढ़ाई पर केंद्रित होना सिखाया पर माँ की मृत्यु के बाद वह बंद दरवाजे के सामने खड़ी होती है, तो पाती है कि “खुले द्वार अब कहाँ” उसने सफलता की दौड़ में अपनों को पीछे छोड़ दिया। “दरवाजा” प्रतीक है उन रिश्तों का, जो बाहर से खुले दिखते हैं, पर अंदर से सूख चुके हैं। रूमी का आत्मप्रश्न “क्या जड़ों में प्रेम-संस्कार की जगह कैरियर का कीटनाशक छिड़क दिया गया?”  आधुनिक भाग दौड़  और पारिवारिक मूल्यों के बीच की खाई का चित्रण है । ‘खुले द्वार अब कहाँ’  वह दर्पण है — जिसमें समाज की ऐसी शक्ल दिखती है जिसे हम समझते हुए भी देखना नहीं चाहते।

इस पुस्तक की कहानियां बताती हैं कि स्त्री होना अब भी एक संघर्ष है — चाहे वह मां के रूप में हो, पत्नी हो, बेटी या प्रेमिका , पुरुष प्रधान समाज में आज भी नारी को हर क्षेत्र में अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ती है, यह विडंबना ही है। इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई अपना दुखड़ा सुना रहा हो, और हम बेबस चुपचाप सुन रहे हों। हर पात्र, हर स्त्री कहीं न कहीं हमारे परिवेश से, हमारे आसपास हैं। वे शिकायत नहीं करतीं, बस मूक प्रश्न करती हैं — और यही प्रश्न पाठक की आत्मा को कुरेदता है।

“देह के अभिशाप” गरीबी और नारी देह का यथार्थ दिखलाती है। गिन्नी और उसकी माँ की कहानी गरीबी और लैंगिक भेद को बेनकाब करती है। माँ दिनभर घरों में झाड़ू-पोंछा करती है, ताकि गिन्नी “पढ़-लिखकर बड़ी मैडम बने”, पर बेटी की रुचि पढ़ाई में न होकर “मास्टरों के छोटे-मोटे काम” में है। गाँव की वह लड़की, जिसका शरीर “चौदह में सोलह” दिखने लगता है, समाज की कुंठित नजरों का शिकार बनती है। लेखिका का यह वाक्य – “उसकी माँ ने उसे छोटी सी उम्र में ब्याह कर अपने कर्तव्यों से इति कर ली थी” – ग्रामीण भारत में स्त्री की नियति को संक्षिप्त में बयान कर देता है। कहानी पूछती है, क्या गरीब स्त्री के लिए वास्तव में शिक्षा और सुरक्षा के दरवाजे  खुले हैं? रेनू श्रीवास्तव जिस साहित्यिक कुशलता से अभिव्यक्ति देती हैं वह उनकी कलम की ताक़त है । वे स्त्री पात्रों के अंदर उतरती हैं, न सिर्फ उसके संघर्ष को दिखाती हैं, बल्कि उसकी इच्छाओं, सपनों, टूटन और अंततः साहस को भी उजागर करती हैं। यह संग्रह स्त्री को दया की पात्र नहीं बनाता – बल्कि उसे उसके अस्तित्व के साथ खड़ा करता है। रेनू जी की भाषा में न नारे हैं, न शोर – बस मौन का वह कंपन है जो सीधा पाठकों के हृदय तक पहुँचता है। इन कहानियों में पुरुष भी हैं – मगर जैसे झील में कोई अक्स हो। वे निर्णय करते हैं, अधिकार जताते हैं, मगर हर कहानी के अंत में पाठक समझ लेता है  कि शक्ति वास्तव में किसके पास थी। वह स्त्री, जो चुप थी – वही निर्णय की धुरी थी।

“वो घर किसका”  यह कहानी उस “स्वतंत्र” स्त्री की है, जो शहरी जीवन में करियर और पति विपुल के साथ संतुलन बनाने का प्रयास करती है। पर दिखावे की इस आधुनिकता में भी वह अनघा की शादी में “आदित्य की याद” से व्याकुल हो उठती है। लेखिका दिखाती हैं कि कैसे “दोनों अपनी-अपनी जॉब के कारण अलग-अलग शहर में सुखी और संतुष्ट” होने का दावा करते हैं, पर “बच्चे की प्लानिंग में ” स्त्री की इच्छा गौण रह जाती है। घर की साफ-सफाई के लिए कामवाली कांता का आना और पति का यह कथन – कि “शांति से एक दिन दोनों रह सकें”, संबंधों में बढ़ते व्यवसायीकरण को इंगित करता है।

“जो दरवाज़ा मैंने खून-पसीने से सींचा, आज वही मेरे लिए बंद क्यों है?” स्त्री मन की इसी भीतरी आवाज़ को अपने कथानकों के जरिए शब्द चित्रों में उकेरा है । रेनू जी का यह संग्रह दरवाज़ों के बंद होने की कहानियो का नहीं , नारी विमर्श की चेतना के खुलने की कहानी है। यह स्त्रियों को हथियार नहीं देता, उन्हें दर्पण देता है — जिसमें वे स्वयं को देख सकें, पहचान सकें और अंततः स्वयं के लिए खड़ी हो सकें।

एक सवाल — जो हर पाठक से पूछा गया है रेनू श्रीवास्तव यह नहीं पूछतीं कि समाज कैसा है। वे पूछती हैं — “तुम कौन हो? “क्या तुम वह स्त्री हो जो अब भी द्वार खुलने की प्रतीक्षा में है? या वह पुरुष हो जो द्वार पर खड़ा है, जो यह मान बैठा है कि दरवाज़ा खोलना उसका हक़ है? ये प्रश्न पाठक को आत्ममंथन और सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं। जो कहानीकार का उद्देश्य भी है। ‘खुले द्वार अब कहाँ’ की कहानियां मनुष्यता के आलेख हैं — जिसे पढ़कर संवेदनशील पाठक मन आंदोलित हो जाते हैं। ग्रामीण जीवन, परंपराओं, और नई संस्कृति के विवरण के माध्यम से ये कहानियां भारतीय समाज की बहुआयामी पहचान को प्रस्तुत करती है। परिवेश के वर्णन में साहित्यिक हिंदी के साथ-साथ संवाद में लोकभाषा के शब्दों का प्रयोग किया गया  है, जो कथाओं को सजीव और प्रामाणिक बनाता है। मिथकों , प्रतीकात्मकता और रूपकों का उपयोग कहानियों को गूढ़ अर्थ प्रदान करता है। यह कृति न केवल कथा साहित्य की उत्कृष्टता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक बदलाव की एक पहल भी है। यह पुस्तक हर उस पाठक के लिए पठनीय और विचारणीय सामग्री देती है जो समाज की जटिलताओं को समझने और बदलने की किंचित इच्छा रखता है। साहित्य जगत में लेखिका की उपस्थिति दशको से है, समय समय पर कई सम्मानों से साहित्य जगत ने उनके रचनाकर्म की सराहना भी की है, उनसे निरंतर और भी प्रयोगात्मक सृजन की अपेक्षा है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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