(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “श्री गणेश उन्नयन…”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 136 ☆
☆ लघुकथा श्री गणेश उन्नयन…
नदी किनारे रबर की ट्यूब लिए बैठी माधवी अपने 4 साल के बेटे को समझा रही थी… बेटा अभी जितने भी गणपति आएंगे उन सभी को विसर्जित करना है। तुम यहीं तट पर बैठना कुछ प्रसाद और रुपये मिल जायेगा।
बेटा शिबू मन ही मन सोच रहा था क्या इनमें से एक गणपति को हम अपने घर नहीं ले जा सकते क्या?
झोपड़ी में रहने वाले क्या गणेश जी नहीं बिठा सकते? आखिर ये विसर्जन के लिए ही तो आए हैं, क्या हमारे यहां बप्पा बाकी दिनों में नहीं रह सकते?
मन में उठे सवालों को लेकर दौड़ कर अपने आई (माँ) के पास गया और बहुत ही भोलेपन से कहा… “आई, इसमें से जो सबसे सुंदर गणपति बप्पा होंगे उसे आप नदी में नहीं भेजना। हम अपने साथ घर ले जाएंगे और पूजा करेंगे। जैसे बप्पा सब को बहुत सारा पैसा देते हैं, हमें कुछ दिनों बाद देंगे परंतु, तुम मुझे एक बप्पा इनमें से लेने देना।“
अचानक तेज बारिश होने लगी गणपति विसर्जन के लिए जितने भी भक्त आए थे। सब किनारे में रखकर घर भागने लगे। किसी ने कहा… “ए बाई! यह पैसे रखो और गहरे में जाकर विसर्जित कर देना।“
हाँ साहब हम ट्यूब में बिठा कर ले जाएंगी और आपके बप्पा को नदी में विसर्जित कर देंगे। उसके मन में उठे सवाल और बेटे की बात! क्या गणपति को हम नहीं ले सकते?
भीड़ कम होने पर रखे गणपति मूर्तियों को देख मां ने कहा… “बेटा, तुम्हें जो गणपति बप्पा चाहिए बताओ।”
बेटे की खुशी का ठिकाना ना रहा बारिश बंद होने पर आगे-आगे शिबू फूटे पीपे को जोर – जोर से बजाते हुए चिल्लाते जा रहा था… “गणपति बप्पा मोरिया, गणपति बप्पा मोरिया”
और माधवी सर पर गणपति जी को उठाए अपने घर की ओर सरपट चल रही थीं। वह नहीं जानती थी कि यह सही है या नहीं किन्तु, शायद बप्पा को भी उनके साथ जाना अच्छा लग रहा था।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #104 शरण ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात को जोरों की वर्षा हो रही थी. सज्जन था, छोटी सी झोपड़ी थी. स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे. आधीरात किसी ने द्वार पर दस्तक दी।
उन सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा – उठ! द्वार खोल दे. पत्नी द्वार के करीब सो रही थी. पत्नी ने कहा – इस आधी रात में जगह कहाँ है? कोई अगर शरण माँगेगा तो तुम मना न कर सकोगे?
वर्षा जोर की हो रही है. कोई शरण माँगने के लिए ही द्वार आया होगा न! जगह कहाँ है? उस सज्जन ने कहा – जगह? दो के सोने के लायक तो काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी हो जाएगी. तू दरवाजा खोल!
लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है. दरवाजा खोला. कोई शरण ही माँग रहा था. भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी. वह अंदर आ गया. तीनों बैठकर गपशप करने लगे. सोने लायक तो जगह न थी.
थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी. फिर गरीब आदमी ने अपनी पत्नी से कहा – खोल ! पत्नी ने कहा – अब करोगे क्या? जगह कहाँ है? अगर किसी ने शरण माँगी तो?
उस सज्जन ने कहा – अभी बैठने लायक जगह है फिर खड़े रहेंगे. मगर दरवाजा खोल! जरूर कोई मजबूर है. फिर दरवाजा खोला. वह अजनबी भी आ गया. अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे. इतना छोटा झोपड़ा! और खड़े हुए चार लोग!
और तब अंततः एक कुत्ते ने आकर जोर से आवाज की. दरवाजे को हिलाया. गरीब आदमी ने कहा – दरवाजा खोलो. पत्नी ने दरवाजा खोलकर झाँका और कहा – अब तुम पागल हुए हो!
यह कुत्ता है. आदमी भी नहीं! सज्जन बोले – हमने पहले भी आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारण खोला था!! हमारे लिए कुत्ते और आदमी में क्या फर्क?
हमने मदद के लिए दरवाजा खोला था. उसने भी आवाज दी है. उसने भी द्वार हिलाया है. उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम करना है. दरवाजा खोलो!
उनकी पत्नी ने कहा – अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है! उसने कहा – अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर थोड़े सटकर खड़े होंगे. और एक बात याद रख! यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो!
यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है!! जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह दिलों में होती है!
अक्सर आप पाएँगे कि गरीब कभी कंजूस नहीं होता! उसका दिल बहुत बड़ा होता है!!
कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं. पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है, उसमें मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है .
जरूरतमंद को अपनी क्षमता अनुसार शरण दीजिए. दिल बड़ा रखकर अपने दिल में औरों के लिए जगह जरूर रखिये.
(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी की अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’ पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है। अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत। २०१९ में भारत सरकार के विद्वान लेखकों की सूची में आपका नाम दर्ज । प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदत्त। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न। पूर्व में आपकी लघुकथाओं का मराठी अनुवाद ई -अभिव्यक्ति (मराठी ) में प्रकाशित।
हम समय-समय पर आपकी लघुकथाओं को अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैआपकी पुस्तक मीरा जैन की सौ लघुकथाएं में से एक लघुकथा – ‘प्रश्नोत्तर’। संयोगवश इस लघुकथा पर आधारित एक लघुफिल्म श्री अनिल पतंग जी के निर्देशन में बनी है जिसे आप निम्न लिंक पर क्लिक कर देख सकते हैं।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ नीले घोड़े वाले सवारों के नाम ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(मित्रो। यह कहानी – नीले घोड़े वाले सवारों के नाम। धर्मयुग में जुलाई, 1982 में प्रकाशित हुई थी। इतने बरसों बाद फिर आपकी अदालत में। इसे जल्दी टाइप करवाने का श्रेय मेरे मित्र विनोद शाही को। इस कहानी का पंजाबी मे अनुवाद केहर शरीफ ने किया जो पंजाबी ट्रिब्यून में – रुत नवेयां दी आई शीर्षक से प्रकाशित हुई थी।)
नगर में कोहराम मच गया था।
और मुझे माला की चिंता सताई थी। बेतरह याद आई थी माला।
वह अपनी ससुराल में खैरियत से हो। यही दुआ मांगी थी। जब जब किसी बहू को दहेज के कारण मिट्टी का तेल छिड़ककर मारे जाने की खबर अखबार में पढ़ता हूं तब तब मेरा ध्यान अपनी इकलौती बहन माला की ओर चला जाता है। अजीब संयोग है कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता, जब अखबार के किसी कोने में ऐसी मनहूस खबर न छपती हो और मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी इकलौती बहन रोज़ मरती हो। रोज़ रोज़ मरने की उसकी खबर पढ़कर मे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। माला की याद के साथ ही याद आता है उसका गुनगुनाना :
उड़ा बे जावीं कावां
उडदा वे जावीं मेरे पेकड़े,,,,
यह महज गुनगुनाने लायक लोकगीत नहीं है। ससुराल में किसी दुखियारी बेटी द्वारा काजा का सहारा लेकर मायके की याद एव॔ वीरे तक अपना मन खोलकर रख देने का अनोखा साधन है।
कागा। अरे ओ कागा। उड़ते हुए मेरे मायके जाना… सचमुच यह लोकगीत भी नहीं, कागा भी नहीं। कागा के कहने के बहाने यह दुखियारी माला का मन है जो ससुराल के दुखों को भुलाने के लिए बार बार मायके की तरफ पंख लगाये उड़ता है और अपनी तकलीफों की कहानी, दर्द के पहाड़ों जैसे बोझ को मां से कहने से इसलिए कतराते है कि मां सब काम काज छोड़कर सहेलियों के गले लग कर रोने लगेगी। मां का कलेजा छलनी छलनी हो जायेगा। बाप से बी भेद खोलते हुए माला का मन भरता है। बाप ने पहले ही अपनी पहुंच से बाहर जाकर दान दहेज दिया था। अब वह दोहरी मार से, लोगों में बैठे हुए भी अपना आपा खो देगा। पर मेरी बेबसी पर आंसू बहाने से बढ़ कर कुछ कर नहीं पायेगा। हां, कागा, तुम सारी कहानी कहना तो कहना मेरे भाई से। कहानी सुनते ही उसकी आंखों में गुस्से की आग मच उठेगी और वह नीले घोड़े पर सवार होकर बहन की खोज खबर लेने निकलेगा।
नगर में यहां वहां, हर चौक, हर गली, हर बाजार, हर घर और हरेक की जुबां पर एक ही चर्चा थी – नवविवाहित की हत्या या आत्महत्या की रहस्यमयी घटना की औल मुझे एक ही चिंता थी बहन माला की।
माला हर समय हंसूं हंसूं करति रहती। जरा जरा सी बात पर उसके दांत खिल उठते और मां उसे टोकती रहती कि तेरी ये आदत अच्छी नहीं। ससुराल में धीर गंभीर रहना पड़ता है बहुओं को। बहुएं ही ही करतीं अच्छी नहीं लगतीं। भले घर की लडकियां बात बेबात पर दांत नहीं निकालतीं।
….
पिता बीमारी से लड़ रहे होते। मैं, जो माला का बड़ा भाई ही नहीं, बाप भी पिता की भूमिका निभाने को विवश था। मां को टोक देता – हंसने खेलने दे मां। मायके में ही तो लड़कियां मौज मस्ती करती हैं। कौन जाने कैसी ससुराल मिले ?
-कैसी ससुराल क्या ? मेरी बेटी राज करेगी राज।
-अभी से उसे ससुराल में सेवा करने की बजाय राज करने का पाठ पढ़ाओगी तो ऐसे लाड प्यार में खिल खिल क्यों न करेगी ?
-किसी के बाप का क्या जाता है जो मेरी बेटी हंसती है ?
-बाप तो इसका और मेरा एक ही है, अम्मा। मगर हम कौन इसके भाग की रेखा लिख सकते हैं ?
-ऊ…. माला इस प्रसंग से चिढ़ जाती और जीभ निकाल कर मुझे चिढ़ाने लगती। मैं भी बड़प्पन भूल कर पर हाथ उठा कर दौड़ पड़ता। मां बीच में आ जाती -मेरे जीते जी कोई हाथ लगा कर दिखाये तो मेरी लाडली को। और वह मां के पीछे छिपी मुझे जीभ दिखा दिखा कर चिढाती रहती।
लोगों की बातें, अखबार की रपटें, सब सुनता हूं तो घबरा जाता हूं।
-क्या जमाना आ गया है ? लोग किसी की जान को जान ही नहीं समझते ? गाजर मूली की तरह कट। बस। मामला खत्म।
-न मूर्खो। अंधेर साईं का…. तुम्हारी करतूत की खबर लोगों को न लगेगी ? लोगों के सामने बच बी गये पर ऊपर की अदालत कौन भुगतेगा ? वो ऊपर वाला तो सब कुछ देखता है,,,,जानी जान है।
-हाय। हाय। जिंदा जान को कैसे बकरे की तरह मार डाला। कसाई कहीं के। सुनते हैं, रात को खूब मारपीट की। अधमरी तो कर ही दिया था। फिर पिछले कमरे में ले गये थे। मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। कितनी तड़पी होगी। हाय राम। चीखी चिल्ला होगी। हाथ पांव मारे होंगे।
-मुए टेलीविजन मांग रहे थे। कहां से ला देती ? किस मुंह से मांगती? बहू के मायके में क्या पैसों की खान दबी होती है कि गयी और खोद लाई ?
-अब शमशान घाट का बाबा सच्चा बनता है कि मुझे नोट दे गये। हरामजादे। नोट दे गये या तूने ले लिए ? तुझे पता नहीं चला, जिस लाश को मुंह अंधेरे जलाने लिए हैं, शहर के चार आदमी साथ नहीं हैं, कुछ तो काली करतूत होगी ही। और वह चिल्लाने की बजाय मुंह में नोट दबा कर कोठरी में घुस गया? कुत्ता कहीं का। अब नगर भर में घूम रहा है अपने आपको धर्मात्मा साबित करने के लिए। पाखंडी। निकाल बाहर करो इसे शहर से या जिंदा गाड़ दो।
जितने मुंह, उतनी बातें।
नगर में एक तनावपूर्ण शांति।
लोग-जो दहेज न लेने, न देने की कसमें खाते नहीं थकते थे। लोग-जो दहेज न मिलने पर जान लेने से भी नहीं चूकते थे। लोग-अबूझ पहेली की तरह समझ में नहीं आते थे। लोग-जो जुलूस की शक्ल में नारे भी लगाते थे। लोग-जो समय आने पर बिखर भी जाते थे। लोग-जो गालियां देते नहीं थकते थे। वही लोग महज शोक प्रकट करने आते थे।
-च् च्, बहुत बुरा हुआ। महज मातमपुर्सी, महज नाटक। जैसे एकाएक धुंध उतर आई हो, सन्नाटा व्याप गया हो। कहीं कोई विरोध नहीं। विरोध की आवाज़ तक नहीं। शहर में जैसे एक नवविवाहिता सामान्य ढंग से सब्जी-भाजी बनाने रसोई घर में गयी हो और असावधानी में उसकी साड़ी का पल्लू आग पकड़ कर उसे जला गया हो। अखबार के किसी कोने को भरने के लिए एक छोटी सी खबर, जिसे सुबह रजाई में दुबके, चाय की चुस्कियों भरते, ताज़ा अखबार में सबने पढ़ा और शाम तक अखबार को रद्दी में फेंक दिया। घटना को भूल भुला दिया। रोज़ ऐसा होता है। कहीं न कहीं, किसी न किसी शहर में। क्यों होता है ऐसा ? कौन सिर खपाये…. भाड़ में जाये।
क्या माला के साथ भी…. ?
किसी शिकारी की बंदूक से निकली गोली की तरह यह सवाल मुझे छलनी कर जाता है। माला के बारे मः ऐसा सोचते ही सिहरन सी दौड़ने लगती है सारे जिस्म में। सि, से लेकर पांव तक करंट की लहर गुजर जाती है और मैं सुन्न हो जाता हूं। अखबार के किसी कोने में छपी छोटी सी खबर भी मुझे माला के प्रति दुश्चिंताओं से भर देती है।
-मेरी बेटी राज करेगी, राज।
हर मां बाप, भाई बहन यही चाहते हैं कि ससुराल में उनकी लाडो राज करे। बीमार बाप बिस्तर से लगा, चाय, निगाहों से शादी की सारी रस्में देखता रहा था और उसकी जगह माला का कन्यादान मुझे ही करना पड़ा था। उसका धर्म पिता बन कर। राखी की लाज के साथ साथ उसके मान सम्मान का भार भी मेरे ही कंधों पर आ गया था। कन्या दान करके मैंने यही मांगा- मेरी बहन राज करे, राज।
एक दो बार ससुराल के चक्कर लगाने के बाद देखा कि माला की हंसी कहीं खो गयी थी।
तीज त्योहारों पर सब कुछ ले जाते भी डरी सही रहती। तानों की कल्पना मात्र से उसकी कंपकंपी छूट जाती। मिली हुई सौगातों पर ससुराल में होने वाली छींटाकशी याद करते उसका मन डूबने लगता। न चाहते भी उपहारोअऔ से लदी फदी जाती। अगली बार फिर वही उतरा हुआ चेहरा और मांगों का सिलसिला होता।
एक बड़ा भाई, जिसके अपने सपने झर चुके हों, अपनी बहन को सिवाय शुभकामनाओं के दे हो क्या सकता था ? एक मां भगवान् की मूरत के आगे माता रगड़कर बेटी का सुहाग बना रहे की दुआ ही कर सकती है। और कुछ नहीं। एक बीमार बाप सिवाय आशीर्वाद के और क्या सम्पत्ति दे सकता है ?
ये सब नाकाफी थे दुनिया के बाज़ार में, माला की ससुराल में।
इनका कोई मोल न था। कौड़ी थे, एकदम कौड़ी। माला के खत उसके दुख दर्दों का संकेत लिए रहते। खतों की लिखाई बेढंगी -बेतरतीब रहती। जिससे लिखने वाली के मन में व्याप्त भय, आशंका, चिंता, अस्थिरता आदि की सूचनाएं छिपाई हुई होने पर भी मिल हो जाती थीं।
फिर उसके खत जैसे सेंसर किए जाने लगे। किसी किसी खत में बनावटी खुशियां भरी होतीं तो कोई कोई खत टूटे फूटे अक्षरों में कभी पेंसिल तो कभी कोयले से लिखा मिलता। और इस हिदायत के साथ कि चोरी से लिख रही हूं, इस खत का जिक्र न करें। बस। मिलने आ जाएं। दर्द की एक एक परत जम कर दर्द का पहाड़ बन जाती थी। जिसका बोझ बांटने के लिए वह कभी खत का तो कभी कागा का सहारा लेती थी।
बात बरसों से बढ़कर हाथापाई तक आ पहुंची थी। पीठ पर नीले नीले निशान जब जख्म बन जाते, तब मरहम के लिए मायके की हंसी ठिठोली याद आती। बात, तानों से बढ़कर इल्जामों तक पहुंच गयी थी और यहां तक कि घर से अपना हिस्सा बेचकर पैसा ला दो।
कई काली रातें गिद्ध की तरह डैने फैलाये शहर पर मंडरा कर निकल गयी थीं और लोग बेखबर सोच रहे थे या आंखें मूंदे सोने का बहाना कर रहे थे।
रपट तक दर्ज नहीं हुई थी। मामला ठप्प लग रहा था। हत्यारे मज़े में काम धंधों में लग गये थे। एकाएक शहर में हलचल मच गयी थी। नवविवाहिता के मायके से, आसपास के कई गांवों की पंचायतें इकट्ठी होकर आई थीं। ठसाठस लोग, भीड़ के बीच सिसकते भाई। थाने का घेराव ही हो गया लगता था। पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न करने की निंदा की जा रही थी। पुलिस मुर्दाबाद। हाय… हाय…. खा गये।
थानेदार ने रपट दर्ज न करने की बजाय भाषण झाड़ा था-एक सप्ताह हो गया इस कांड को। अब तक आप लोग कहां सो रहे थे ? मैं मोहल्ले में गया था और ललकार कर पूछा था-है कोई माई का लाल जो गवाही दे कि हत्या की गयी है ? है कोई भलामानस जो छाती ठोककर कहे कि मैंने देखा है ? क्या उसकी चीखें किसी ने नहीं सुनीं ? क्या आग का धुआं निकलते भी किसी ने नहीं देखा ? क्या एक ही दिन में मार डाला गया? रोज़ खटपट होती थी। मारपीट होती थी। गवाही दो। गवाही के बिना केस कैसा ?
रिश्वतखोर हाय हाय…
नारे शहर भर में गूंजे थे। अखबारों को बिक्री का मसाला मिला था। मामला अधिकारियों के ध्यान में लाया गया था। अमन चैन कायम करना जरूरी हो गया था। जुलूस पर लाठी बरसाने से मामला शहर दर शहर फैल जाता। इसलिए जनता का गुस्सा शांत करने के लिए थानेदार की ही पेटी उतार दी गयी यानी सस्पेंड। हत्यारों को गिरफ्तार किया गया और फिर जैसे ठंडी राख में से हवा झोंका लगते ही चिंगारियां फूट पड़ती हैं -दबी हुई चर्चा छिड़ गयी।
-स्सालों को फांसी लगा देनी चाहिए।
-नहीं। चौक में कौड़े मारने चाहिएं।
-पूछो, तुम्हारी क्या बेटी नहीं है ?
-हाय। सुनते हैं उस दिन बेचारी ने ब्रत रखा था।
-देवी देवता भी कैसे निष्ठुर हैं। एकदम पत्थर।
-कैसे कैसे राक्षस हैं दुनिया में।
-पता चलेगा जब जेल में चक्की पीसेंगे। गले में फांसी का फंदा कसेगा…
-सब फसाद की जड़ छोटी ननद है।
-उसे क्या दूसरा घर नहीं बसाना ?
-क्या गारंटी है कि जहां वह जायेगी वहां उसे जलाया नहीं जायेगा ?
-नारी ही नारी की दुश्मन है।
…
इस चर्चा के बीच मैं एक बार फिर अलग थलग पड़ जाता हूं। ज़मीन के हिस्से की मांग जैसे किसी आरे की तरह माला को चीर कर रख गयी थी। टुकड़े टुकड़े हो गयी थी वह। होंठ बंद और आंखों से फूट पड़ा झरना आंसुओं का। काश, ज़मीन न होती। बाप ने शराब की लत में उड़ा दी होती। या भाई ने जुए में हार दी होती। यह ज़मीन न होती तो उसकी हड्डी हड्डी न टूटती।
निकलते निकलते बात मुझ तक पहुंची थी और सहज ही मुझे इस पर विश्वास नहीं आया था। पढ़ा लिखा वर्ग जो आर्थिक क्षमता का, आर्थिक अव्यवस्था का शिखर देख रहा है अपनी नजरों के सामने। वही,,,,वही हां जो देख रहा है अपनी बहनों को भी शादी ब्याह की उमर लायक। वही ननदें जिन्हें दूसरे घर बसाने हैं,,,कहां से ले आती हैं इतना बड़ा जिगरा,,,इतना बड़ा कलेजा ?
मैंने तैयारी की थी और मां ने रोक लिया था -न, न, पुत्तर। हम लड़की वाले हैं। फिर भी जंवाई है। हमारा दामाद। हम बेटी वाले हैं। हमें झुकना ही पड़ेगा।
-जंवाई है तो जंवाई बन कर रहे। नहीं तो…
मां ने मुझे जाने नहीं दिया था। कहीं माला की ससुराल जाकर कुछ ऐसा वैसा न कर दूं।
जुलूस नगर के हिस्सों में गुजर रहा है। थानेदार जो बहाल हो गया है।लोगों ने उसे पुलिस स्टेशन में कुर्सी पर बैठे देखा तो ऐसे हैरान हुए जैसे उसका भूत देख लिया हो। वह जिंदा जागता थानेदार था। आंखों में वही चीते सी चुस्ती, चेहरे पर रिश्वत की रौनक, मूंछों पर रौब झाड़ने वाली नौकरी का ताव और सबसे ऊपर वही चमचमाती वर्दी, बायीं ओर लटकता पिस्तौल, कंधों पर जगमगाते सितारे, न जाने कौन सी बहादुरी दिखाने पर। जब वह सरकारी बूटों तले सड़क को रौंदता, पूरी ऐंठ के साथ शहर में गश्त लगाने लगा तब सबको सरकार की मर्जी के बारे में कोई शक नहीं रह गया था।
यही क्यों, सारे हत्यारे बड़े मज़े में जमानतों पर छूट आए थे और हंस हंस कर बता रहे थे कि जिसने पायजामा बनाया है, उसने नाड़ा भी। कानून के इतने बड़े बड़े पोथे हैं कि कानून से बचने के लिए रास्ता निकल ही आता है।
जुलूस गुजर रहा है। नारे गूंजते जा रहे हैं -नाटक बंद करो। हत्यारों को सज़ा दो। नहीं तो हम सज़ा देंगे।
मां और मैं दरवाजे से बाहर निकल उमड़ आए लोगों… लोगों के जोश और गुस्से को देखकर कांपने लगते हैं। डर कर बिल्कुल नहीं, हम डरे हुए नहीं हैं। उनका जोश और गुस्सा मुझमें आ गया है और मैं भी उन लोगों के साथ हो लेता हूं। मां मुझे रोकती नहीं। वह जानती है कि माला मेरा इंतज़ार कर रही है। मैं जैसे नीले घोड़े पर सवार हूं। जल्दी पहुंचने के लिए उतावला। खोज खबर लेने। माला तेरे भाई जिंदा हैं… हजारों भाई…
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘क्लीअरेंस’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 99 ☆
☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
सर ! इस फॉर्म पर आपके साईन चाहिए क्लीअरेंस करवाना है – विभाग प्रमुख से एक छात्रा ने कहा।
ठीक है। आपने विभाग के ग्रंथालय की सब पुस्तकें वापस कर दीं ?
सर! मैंने पुस्तकें ली ही नहीं थी। जरूरत ही नहीं पड़ी।
अच्छा, पिछले वर्ष पुस्तकें ली थीं आपने ?
नहीं सर, कोविड था ना, ऑनलाईन परीक्षा हुई तो गूगल से ही काम चल गया। सर पाठ्यपुस्तकें भी नहीं खरीदनी पड़ी, बी.ए.के तीन साल ऐसे ही निकल गए – छात्रा बड़े उत्साह से बोल रही थी। सर, जल्दी साईन कर दीजिए प्लीज, ऑफिस बंद हो जाएगा।
सर मन में धीरे से बुदबुदाए – कैसा क्लीअरेंस है यह ? पुस्तकें पढ़नी चाहिए ना! और साईन कर दिया। पास बैठे एक शिक्षक बोले – सर! मैं तो कब से कह रहा हूँ किताबें कॉलेज के ग्रंथालय को वापस कर देते हैं, कोई पढ़ता तो है नहीं, झंझट ही खत्म। कुछ बोले बिना विभाग प्रमुख ने उनकी ओर गौर से देखा मानों पूछ रहे हों आप ?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)
इस साधना के लिए मंत्र है –
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
(आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – आत्मकथा
अनंत बार जो हुआ, वही आज फिर घटा। परिस्थितियाँ पोर-पोर को असीम वेदना देती रहीं। देह को निढाल पाकर धूर्तता से फिर आत्मसमर्पण का प्रस्ताव सामने रखा। विवश देह कोई हरकत करती, उससे पूर्व फिर बिजली-सी झपटी जिजीविषा और प्रस्ताव को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया। फटे कागज़ का अम्बार और बढ़ गया।
किसीने पूछा, ‘आत्मकथा क्यों नहीं लिखते?’… ‘लिखी तो है। अनंत खंड हैं। खंड-खंड बाँच लो’, लेखक ने फटे कागज़ के अम्बार की ओर इशारा करते हुए कहा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(उन्हें हमेशा हेय दृष्टि से देखा जाता है। समाज ने उन्हें कभी भी सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा। उन्हे छक्का, हिजड़ा, नपुंसक आदि न जाने कितने नामों से संबोधित किया जाता है, जब कि वे भी आम इंसान ही हैं। उनकी भी दुख सुख पीड़ा की अनुभूति साधारण इंसान की तरह ही होती है। वे भी प्रेम के भूखे हैं। अगर कोई शारीरिक विकृति है तो उसमें उनका क्या दोष? यदि आज भी उन्हें संरक्षण मिले तो वह हमारे समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं। वे पढ़ लिख सकते हैं, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर समाज का भला कर सकते हैं। बस जरूरत दृष्टिकोण बदलने की है। – सूबेदार पाण्डेय)
अभी अभी मैं ट्रेन से सफर पूरा कर वाराणसी स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतर कर ओवरब्रिज से बाहर नीचे उतरने वाला ही था कि सहसा पीठ पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर हौले से दबा दिया। मैंने ज्यों ही पीछे पलट कर देखा तो किसी अज्ञात नवयौवना जैसी दिखने वाली दुबली पतली कोमल छरहरी काया वाली लड़की दिखी, जो मुझे देख कर हसरत भरी निगाहों से मुस्कुरा उठी, उसने रहस्यमयी अंदाज में फुसफुसाते हुए ही कहा था, ओए… मेरे साथ चल न! … उसके इन शब्दों को सुनते ही मेरे भीतर का बैठा पत्रकार सजग हो उठा। और मुझे लगा कि रिपोर्टिंग करने के लिए कोई नया विषय मिलेगा, मेरे भीतर बैठा पत्रकार नये विषय की रिपोर्टिंग करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।
मेरा उद्देश्य तो खोजी पत्रकारिता था, मुझे भीतर का सारा राज जानना था इस लिए उसे टालने के उद्देश्य से मैंने कहा कि चल चाय पीकर चलते हैं। और मैं उसके साथ चाय के स्टॉल पर जा बैठा और उससे इधर उधर की बातें करने लगा था। उसने बताया कि सौ रूपए होटल वाला लेता है और पचास रुपए पुलिस वाला। मैंने फुसफुसाते हुए ही उससे पूछा फिर तो तुम्हारा खर्च कैसे पूरा पड़ता होगा? ना जाने उसे कौन सा अपनापन मिला, उसकी आंखें छलछला आई थी। मैंने जब उसके बारे में जानकारी चाही तो वह उसने कहा बाबू जी यह चाय की दुकान है चलिए कहीं और चलते हैं। उसके पीछे-पीछे अपनी नई कहानी की तलाश लेकर बगल वाले हनुमान मंदिर पर जा बैठे।
फिर बातों का सिलसिला चला तो ना तो उसे अपने समय का ज्ञान रहा और ना तो मुझे ही। हम उसकी दुख दर्द पीड़ा की कहानी में उलझ कर रह गए। बातों ही बातों में मैंने उसका हाथ प्यार से पकड़ लिया था, प्यार और अपनेपन ने उसे खोल कर रख दिया।
फिर उसने अपनी जो कहनी बताई उसने मेरी अंतरात्मा को झिंझोड़ कर रख दिया और मैं आकंठ डूब गया। उसकी व्यथा कथा में, और वह अपने बीते दिनों को याद करते हुए स्मृतियों में खोती हुइ बोल पड़ी थी।
बाबूजी मेरा जन्म पटना बिहार में संभ्रांत परिवार में हुआ था मेरे जन्म के समय मेरे माता-पिता के खुशियों का कोई ठिकाना नहीं था।
मैं अपने मां बाप की छत्रछाया में सुख चैन से अच्छी भली पल रही थी लेकिन मैं जैसे जैसे बढ़ती गई मेरे भीतर अजीब से बदलाव आते गये । मेरी आवाज़ में अलग भारीपन सुनाई देने लगा, शारिरिक संरचना भी बदलने लगी थी और फिर एक दिन एक डाक्टर ने मेरी मां को बताया कि मैं छक्का (ट्रांसजेंडर) हूँ। उस दिन मेरे मां बाप मेरे तथा अपने दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रोए थे। और फिर एक दिन हमारे गांव आई थी छक्को की टोली और हमें उठा ले गई अपने साथ। गाना, नाचना सिखाया था और अपने समाज में शामिल कर लिया था। शुरुआती दौर में हमें ए सब कुछ अच्छा नहीं लगता था लेकिन बाद में उसे अपनी नियति का लेख समझ कर स्वीकार कर लिया और लोगों के घर बधाइयां गाने जाने लगी थी। हमारे समूह में गुरु हुआ करते थे जिन्हें हम अपना माता पिता संरक्षक सभी कुछ समझते थे।
हमारा अपना क्षेत्र बंटा होता था। हमारे और गुरु के बीच पिता और पुत्री का रिश्ता होता था। हमने उसे बीच में टोंका था कि जब जिंदगी अच्छी भली चल ही रही थी खाने कमाने के लिए मिल ही रहा था तो फिर इस घृणित पेशे में कैसे आ गई।
और बनारस को ही अपने धंधे के लिए क्यों चुना। उसे लगा कि मैं उसे बहका रहा हूं। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि घबराओ मत, आज हम तुम्हें पांच सौ रुपया देंगे। उसे सहसा मेरी बात का ऐतबार नहीं हुआ। लेकिन जब मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा तो वह अपनेपन की अनुभूति पा कर फूट फूट कर रो पड़ी थी। और एक बार फिर अपनी राम कहानी बताती चली गई थी। वह भावुक हो कर बोल पड़ी थी बाबू जी आप कहां से आए हैं कहां जाना है मुझे कुछ भी नहीं पता, फिर भी मैंने आप में अपनेपन की अनुभूति की है इस लिए झूठ नहीं बोलूंगी। हमारे समाज में अपनें गुरु के बूढ़े असहाय होने पर हम उन्हें घर से बाहर नहीं निकालते हैं हमारे उपर ही उनके पालन पोषण का भार है, मुझे दमें की बीमारी है मैं समूह के साथ नांच गा नहीं सकती, लेकिन फिर भी हम अपने कसम से बंधे हुए हैं हममें से हरेक एक एक महीने अपने गुरु का खर्च देखता है। अब मैं नाचने योग्य रही नहीं। घर तथा परिवार तथा समाज का रास्ता मेरे लिए बंद है पढ़ी लिखी हूं नहीं, कोई आय का साधन है नहीं । और गुरु जी के देख रेख का भार मेरे ऊपर आने वाला है फिर इस परिस्थिति में मैं खुद क्या खाऊंगी और उन्हें क्या खिलाऊंगी। बाबूजी ए पापी पेट का सवाल है, इसके लिए चाहे तन बेचना पड़े चाहे खून बेचना पड़े जान रहे या जाए लेकिन गुरु को दिया वचन कैसे तोड़ सकती हूं?
यह काशी मोक्ष नगरी है सुना है यहां बाबा विश्वनाथ जी और मां अन्नपूर्णा की कृपा से भूखा कोई नहीं सोता, मैं तो महाश्मशान को यह इच्छा लेकर अपना नृत्य और गीत सुनाने आई थी कि इसी बहाने बाबा की कृपा हो जाय और मोक्ष मिल जाए इसी विश्वास और भरोसे पर यहां वहां भटकती फिर रही हूं। और काशी की होकर रह गई हूँ।
शायद कहीं भोलेनाथ मिल जाए। इतना कहते-कहते वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। और उसकी कर्म निष्ठा देखकर मैं भी रो पड़ा था, मेरा सिर झुकता चला गया था। मैंने खुद को संयत करते हुए उसे भरोसा दिलाया था कि तुम्हें तथा तुम्हारे समाज के लिए अवश्य कुछ करूंगा। और यह कहते हुए उसकी तरफ मैंने एक हजार रूपए उसकी तरफ बढ़ाया था, जिसे वह लेने से इंकार कर रही थी कि बाबू जी आप मेरे लिए ग्राहक नहीं हो। मैं मन ही मन सोच रहा था कि पुरुषार्थविहीन नपुंसक वे नहीं, पौरुष रहते हुए हमारा समाज नपुंसक है जो र चार औलादों के रहते भी मां बाप को नहीं पाल सकते जब कि एक वो है जो तन और ख़ून बेचकर भी अपनी कसम निभाने पर आमादा हैं जिनका अपने गुरु से खून का रिश्ता न सही फिर भी इंसानियत का रिश्ता तो है ही और एक हमारा समाज है जो अपने जन्मदाता को वृद्धाश्रम में रखता है। हर शहर में वृद्धाश्रम मिलेंगे जब कि ट्रांसजेंडर का कोई वृद्धाश्रम नहीं मिलेगा। इस तरह वह तो चली गई और मैं अपने रास्ते चला गया लेकिन छोड़ गई एक प्रश्नचिन्हो की शृंखला????
क्या हमारे समाज के प्रति लोगों का नज़रिया बदलेगा ?
क्या हमें पढ़ लिखकर कुछ बनकर देश सेवा का अधिकार नहीं?
अगर घर में अन्य दिव्यांग जन रह सकते हैं तो फिर हम क्यो नही?
आखिर समाज हमें कब स्वीकार करेगा?
हम अछूत क्यों ?
आज मुझे उसके व्यक्तित्व के आगे सारे समाज का व्यक्तित्व बौना नजर आ रहा था जो मुझे बार-बार सोचने पर विवश कर रहा था कि अभी और ना जाने कितनी जिंदगियां है जिन्हें हमारे समाज के सहारे की जरूरत है।
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक संवेदनशील कथा – “ट्रकों की धड़कन”)
☆ कथा-कहानी ☆ एक बड़ी-सी लघुकथा – “ट्रकों की धड़कन” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
(गुलजार के जन्मदिन की खुमारी में लिखी एक लघुकथा। इसमें दो बार गुलजार का नाम आने से ये अपने आप बड़ी हो गई।)
हाई-वे पहले बना कि ट्रक का ईज़ाद पहले हुआ, ये मुर्गी-अंडे जैसा सवाल है। ये दोनों बने ही एक-दूजे के लिए हैं। बिना ट्रक के हाई-वे और बिना हाई-वे के ट्रक, इसकी कल्पना भी करो, तो आपका चालान हो जाएगा। आप किसी भी हाई-वे पर चले जाइए, वहाँ आपको चलते हुए ट्रक दिखाई र्देंगे, खड़े हुए ट्रक दिखाई देर्गे और कहीं-कहीं तो हाई-वे के किनारों की झाड़ियों को अपनी बांहों में समेटे ‘‘गुलज़ार’’ का गीत गाते हुए भी दिखाई देंगे-‘‘औंधे पड़े रहे कभी करवट लिए हुए।’’ हाई-वे पर ट्रक दौड़ रहे होते हैं समझिए सारा देश दौड़ रहा है।
ट्रान्सपोर्टरों की हड़ताल क्या हुई, पहिया क्या थमा, पूरा देश यकायक थम-सा गया। बेचारे ट्रक हाई-वे के किनारों पर चुपचाप उदास खड़े हैं। बिना ट्रकों के हाई-वे की हालत हारे हुए एमएलए, चूसे गए आम और अभी-अभी पत्नी से ताजा डाँट खाए हुए पति के जैसी हो गई। न धुआँ, न हॉर्न, न शोरशराबा, कर्फ्यू का-सा माहौल हो गया। बच्चे मजे से क्रिकेट खेल रहे हैं। अँधे, हाई-वे ऐसे पार कर रहे हैं जैसे खटिया से उठकर घर का आंगन पार कर रहे हों। हड़ताल से हाई-वे का डिमोशन हो गया। माँएं अपने बच्चों से कहने लगीं- ‘‘इधर गली में मत खेलो, रिक्षे, साइकिल की मार लग जाएगी,
उधर हाई-वे पर मजे से खेलो।’’ लंबी-चौड़ी सुनसान सड़कें पिकनिक स्पॉट बन गई । दो-एक ने तो खाली जगह देख शादी का रिसेप्शन तक दे दिया। कल तक अपने रोबीले व्यक्तित्व, विशाल काया और उग्र स्वभाव के कारण हर आने-जाने वालों के साथ दादागिरी करते, दौड़ते ट्रक, आज डरे-डरे कोने में मुँह छिपाए यूँ खड़े हैं कि हर ऐरा-गैरा उसे छेड़ जाता है। साइकिल वाला मुँह चिढ़ाते हुए निकल जाता है और पैदल वाला उसके खड़े होने की विवशता का उपयोग कर लेता है।
हड़ताल के चौथे दिन ढ़ाबे के आसपास खड़े ट्रक आपस में बतिया रहे थे। -‘‘पता नहीं, ये हड़ताल कब खत्म होगी। चार दिन हो गए भूख से मरे जा रहे हैं। -गलत समझते हैं लोग, कि हम डीज़ल से चलते हैं। हमारी असली खुराक तो सड़कें होती हैं। डीज़ल तो हम यूँ ही बड़े लोगों की देखा देखी भूख जगाने के लिए सूप की तरह पीते हैं। कसम ले लो इन चार दिनों में दो इंच भी चले हैं। ये हड़ताल वाले क्यों नहीं सोचते हमारे बारे में, क्या हम में जान नहीं होती ?’’ -एक ट्रक बोला। -‘‘होती क्यों नहीं,’’ दूसरा ट्रक बोला-‘‘हम में भी जान होती है, -मेरा मालिक रात का खाना खाकर जब चलने को तैयार होता है तो बच्चों की खैरियत के बहाने अपनी बीवी से ऐसी-ऐसी बातें करता है कि सैकड़ों मील दूर उसकी बीवी के हाथ से मोबाइल छूट जाता है। वह इतनी दूर होकर भी मारे लाज के अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लेती है और मेरा मालिक हलो-हलो करके हँसता रहता है। फिर बीवी और बच्चों की तस्वीर चूमकर जब स्टीयरिंग संभालता है तो मैं भी रोमांचित हो जाता हूँ और -‘‘जल्दी चल गड़िये मैनूँ यार से मिलना है’’ के गीत पर अपनी महबूबा सड़कों से लिपटकर और भी ऐसी तेजी से दौड़ता हूँ। आठ का एवरेज ऐसे ही दस पर नहीं आता । और क्या सबूत चाहिए कि हम में भी जज्बा होता है, हम में भी जान होती है।’’
‘‘प्यार ही नहीं हमें आदमियों की तरह गुस्सा भी आता है’’ तीसरा ट्रक बोला-‘‘उस दिन आरटीओ वाले ने चालान भी काटा, ऊपर से दो सौ की रिश्वत भी ली- सोचा चलो ये भी सिस्टम का एक हिस्सा है। मैं चुप रहा। पर इसके लिए जब मेरे मालिक को हाथ-पैर भी जोड़ना पड़ा तो मेरा डीज़ल खौल गया, मैंने गुस्से से कहा-‘‘ओय आरटीओ के बच्चे, किसी दिन सिविल ड्रेस में मिलना, ऐसा चालान काटूंगा कि न तू दंड भरने लायक रहेगा और न हाथ-पैर जोड़ने लायक रहेगा।’’ -पर मेरी आवाज़ हवा में खो गई।, सारा गुस्सा पीना पड़ा, किसी ने महसूस नहीं किया कि हम में भी जान होती है।’’
तभी चार-पाँच ट्रक उस कोने में खड़े बूढ़े ट्रक से एक साथ बोल पड़े-‘‘दादा, तुमने तो दुनिया देखी है, मुल्क की कोई सड़क ऐसी नहीं होगी, जहाँ आपके पाँव न पड़े हों! ये दुनियावाले आखिर कब समझेंगे कि हम में भी जान होती है।’’
बूढ़ा ट्रक एक लंबी ठंडी सांस लेकर बोला-‘‘ये साइंस, पेड़-पौधों तक तो आ गया है कि उनमें जान होती है, -पर अभी तक लोह-लक्कड़ तक नहीं पहुँचा- और पहुँचेगा भी नहीं। उसके लिए किसी खास किस्म की लेबोरेटरी से गुजरना होता है। कभी-कभी कोई नसीबवाला ही उससे गुजरता है।’’
-‘‘दादा बताओ ना, क्या आप भी कभी उस लेबोरेटरी से गुजरे ? क्या आपके जीवन में वो क्षण आया, जब कोई दूसरा महसूस करें कि हम में भी जान होती है?’’
-‘‘हाँ एक बार आया था,’’ बूढ़ा ट्रक अपने अतीत में खोते हुए बोला, -‘‘बात पुरानी है, जब मेरा मालिक बंता पहली बार ट्रक लेकर निकला था, अभी तो उसकी मूँछें भी नहीं फूटी थीं, पर सरदार के बच्चों का पाँव एक्सीलेटर तक पहुँचा कि वो ट्रक चलाने लगता है। उसकी माँ बहुत रो रही थी। और खुश भी थी कि, उसका बेटा कमाने जा रहा है। – पर रो इसलिए रही थी, कि दस साल पहले बंता का बाप ट्रक एक्सिडेंट में मर चुका था। माँ नहीं चाहती थी, कि उसका बंता भी ट्रक चलाए। पर ट्रक और सरदार की जोड़ी ज़मीन पर तो तय नहीं होती , आसमान से उतरती है। यहाँ तो ‘‘गुलज़ार’’ बनने के लिए भी संपूरन सिंह (गुलज़ार का असली नाम) को कुछ दिन गैरेज में काम करना होता है। पर माँ है कि रोये जा रही थी- पराया देश, आँधी-तूफान, खराब सड़कें, पुलिसवाले, गुंडे-मवाली इन सबका सामना करते हुए ट्रक चलाना, सरहद पर दुश्मनों से घिरे अकेले गोली चलाने जैसा दुष्कर काम है।’’ (और दोनों ही जगह प्राय: सरदार ही होते हैं) माँ ने दसों बार ऊपर हाथ उठाकर रब से अरदास की। बीसों बार गुरू ग्रंथ साहब पर मथ्था टेका।दूसरे चार-पाँच ड्राइवरों ने धीरज भी दिया-‘‘बीजी, तू फिकर मत कर, जब तक बंतो पक्का नहीं होता, हम उसे अकेला नहीं छोड़ेंगे।’’ बंता भी बोला-‘‘माँ तू फिकर मत कर, मैं गाड़ी धीरे चलाऊंगा। किसी से उलझूंगा भी नहीं। फिर अब तो मोबाइल आ गया, मैं हर घंटे तुमसे बात करूँगा’’ पर माँ है कि रोये जा रही थी। वैसे भी ट्रक ड्राइवरों की माँएं कुछ ज्यादा ही संवेदनशील होती हैं। एक्सिडेंट की ख़बर सुनते ही उसका कलेजा मुँह को आ जाता है, भले ही उस वक्त उसका बेटा उसके सामने खाना खा रहा होता है, तो भी।
आखिर बिदा का क्षण आ ही गया। बंतो ने जैसे ही माँ के पैर छुए, उसे गले लगाती माँ ऐसी चीख पड़ी मानो बेटी पहली बार ससुराल जा रही है। आसपास के सभी की आँखें छलक उठी। बंतो आँख पोंछता हुए स्टीयरिंग संभाला और वाहे गुरू की जय बोल चाबी घुमाई और जैसे ही मैं चला, बंतो की माँ झट से मेरे पास आई और मुझे थपथपाते धीरे से बोली-‘‘मेरे बंतो का खयाल रखना!’’
तब मुझे लगा, न केवल मुझ में जान है, बल्कि कोई दूसरा भी महसूस कर रहा है, कि मुझ में भी जान है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘पुत्र का मान’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 98 ☆
☆ लघुकथा – पुत्र का मान ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
तुमने अपने भाई को फोन किया ? पिता ने बड़ी बेसब्री से बेटी से दिन में तीसरी बार पूछा।
नहीं, हम करेंगे भी नहीं। वह जब आता है गाली-गलौज करता है। आप दोनों को भी कितनी गालियां सुनाता था। दो समय का खाना भी बिना ताना मारे नहीं देता था आपको।हम यह सब सहन नहीं कर पा रहे थे इसलिए आप दोनों को अपने घर ले आए।
वह तो ठीक है बेटी! पर माँ का अंतिम समय है – पिता ने दुखी स्वर में कहा, उसे तो बताना ही पड़ेगा। क्या पता कब प्राण निकल जाए।
तब देखा जाएगा। जब हम अपनी ससुराल में रखकर आप दोनों की देखभाल कर सकते हैं तो आगे भी सब निभा सकते हैं। आप उसकी चिंता मत करिए।
पिता ने सोचा बेटी के घर में माँ चल बसीं तो बेटा समाज को क्या मुँह दिखाएगा। मौका पाकर बेटे को फोन कर बता दिया। बेटा – बहू घड़ियाली आँसू बहाते आए और बोले क्या हाल कर दिया मेरी माँ का। जी – जान से वर्षों माता- पिता की सेवा करनेवाली बहन पर माँ की ठीक से देखभाल ना करने के आरोप लगाए।
‘राम नाम सत्य है’ के उद्घोष के साथ माँ की अंतिम यात्रा बेटे के घर से निकल रही थी। अर्थी को कंधा देकर बेटे ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया था और पिता ने पुत्र का मान बचाकर।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – बच्च न मारना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(स्वतंत्रता दिवस पर कुछ सवाल करतीं लघुकथा)
ऐसा अक्सर होता ।
मैं खेतों में जैसे ही ताजी सब्जी तोड़ने पहुंचता, तभी मेरे पीछे बच्च न मारना की गुहार मचाता हुआ दुम्मन मेरे पास आ पहुंचता। थैला लेकर खुद सब्जी तोड़ कर देता । मैं समझता कि वह अपने लाला का एक प्रकार से सम्मान कर रहा है।
एक दिन दुम्मन कहीं दिखाई नहीं दिया । मैं खुद ही सब्जी तोडने लगा । जब तक इस काम से निपटता, तब वही पुकार मेरे कानों में गूंज उठी- लाला जी, बच्च नहीं मारना । लाला जी,,,,,,
लेकिन पास आते आते वही सब्जी के पौधों और बेलों को रूंड मुंड देखकर उदास हो गया ।
एकाएक उसके मुंह से निकला- आखिर आज वही बात हुई, जिसका डर था,,
-क्या हुआ ?
-लाला जी, आज आपने बच्च मार ही दिया न,,,?
-क्या मतलब ? मैंने क्या किया है ?
-आप लाला लोग तो थैला भरने की सोचेंगे, कल की नहीं सोचेंगे। बच्च का मतलब बहुत छोटी सब्जी, जिस पर आज नहीं बल्कि कल की आशाएं लगाई जाती हैं । यदि उसे भी आज ही तोड़ लिया जाए तो तोड़ने कल आप खेतों में क्या पायेंगे ?
-अरे, गलती हो गई।
मैं चला तोड़ने मेरा थैला किसी अपराधी की गठरी समान भारी हो गया। मैं किसी को कह भी नही सका कि मैंने तो सब्जी ही खराब की हैं, लेकिन जो नेता अगली पीढी को राजनीति की अंधी दौड में दिशाहीन किए जा रहे हैं, वे देश के कल को बर्बाद नहीं कर रहे?