हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “महबूबा” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा – “महबूबा“.)

☆ लघुकथा – महबूबा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल 

एक वृद्ध महाशय अपनी छड़ी टेकते हुए पार्क में दाखिल हुए। उनके होंठ एक फिल्मी गीत गुनगुना रहे थे।

-आने से उसके आए बहार–बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा—महबूबा।

तभी एकाएक  सामने आई युवती को देखकर वह सकपका गए।

कहीं यह युवती छेड़छाड़ का उलाहना देकर तिल का ताड़ ना बना दे। वृद्धों पर इस तरह के इल्जाम जब तब लगते रहे हैं।

वह रास्ता बदलकर पतली गली से निकलना ही चाहते थे कि तरुणी बोली – ‘दादाजी आप तो इस उम्र में भी इतना अच्छा गा लेते हैं। यह गाना वहां बेंच पर बैठकर सुनाइए न, मजा आ जाएगा।’

वृद्ध महाशय अपनी आंखें झपकाने लगे। यह अजूबा कैसे हुआ, उसे तो इस युवती की अभद्र भाषा से दो चार होना था।

भाव विभोर होकर बोले – अरे कुछ खास नहीं बेटी, मन बहलाने के लिए थोड़ा बहुत गा लेता हूं।

मेरी पत्नी को भी यह गाना पसंद है। छै महीने अस्पताल में रहकर वह आज ही घर लौटी है। मैं गाने को उसे सुनाने के लिए रिहर्सल कर रहा हूं।

उधर युवती सोच रही थी – कौन कहता है कि सारे बुजुर्ग एक से होते हैं जो अपने चेहरे पर एक दूसरा चेहरा लगाकर  घर से बाहर निकलते हैं। जिन पर महिलाओं को छेड़छाड़  का इल्जाम जब तब लगता रहता है।

युवती के चेहरे पर एक गुनगुनी मुस्कान खेलने लगी। उसे लगा कि यह वृद्ध महाशय थोड़ी देर के लिए ही सही अपने जवान जिस्म में परिवर्तित हो गए हैं और वह उनकी महबूबा बन गई हैं।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 142 ☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 142 ☆

☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘पापा! आज भाई ने फिर से फोन पर बहुत अपशब्द बोले।‘  

‘बेटी! उसकी बात एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दिया करो।‘

‘पर आप दोनों से भी हर वक्त इतने अपमानजनक  ढंग से  बात करता है,अनाप- शनाप बोलता रहता है आपके लिए।‘

‘इकलौता बेटा है  हमारा, हमसे बात नहीं करेगा क्या? थोड़ा कड़वा बोलता है पर ?  पिता मुस्कुराकर – ‘अपने भाई साहब की बातों को  प्रवचन की तरह सुना करो, जो नहीं चाहिए, उसे छोड़ दो। ‘

‘हमसे सहन नहीं होता है अब यह सब, फोन नहीं उठाऊँगी उसका, बात ही नहीं करनी है हमें उससे। ‘

‘ऐसा नहीं कहते बेटी! एक ही तो भाई है तुम्हारा।‘ 

‘और मेरा क्या? मैं भी तो इकलौती बहन हूँ उसकी ?

‘भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो बेटी!‘

‘मेरा मान-सम्मान?’

‘तुम अपना कर्तव्य करो, बस—-’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #177 – बाल कथा – नकचढ़ा देवांश… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा – नकचढ़ा देवांश)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 177 ☆

☆ बाल कथा – नकचढ़ा देवांश ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।

तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।

“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं, ” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा, ”  कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।

ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”

मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।

कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”

देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनव करना तो दूर की बात थी।

तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”

“हां, कर तो सकते हो, ” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनव करें तो बात बन सकती है। फिर देवास ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”

यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर कर पूछा, “क्यों सही है ना?”

“हां सरजी, मैं करके रहूंगा, ” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।

राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।

वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।

उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।

देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”

“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।

तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”

यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”

इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है, ” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।

“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए, ” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता, सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”

तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।

अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”

“अरे! दोस्ती में कैसी माफी, ” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”

तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”

प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।

पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-02-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 29 – मूक मौन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – कर्तव्य।)

☆ लघुकथा – कर्तव्य श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

डॉक्टर समीर एक दिन अपने साथ अपने घर में एक व्यक्ति को लेकर आए उनकी पत्नी  ने कहा यह कौन है और इससे कैसे घाव हुआ है इसका खून तो बहुत बह रहा  है। यह तो गोली लगने का निशान लग रहा है उसे डांट के कहा अभी मैं इसको अपनी डिस्पेंसरी में ले जा रहा हूं और इसका मुझे इलाज करने दो ।

आपसे सवाल करना यह एक सिपाही है?

पत्नी चुपचाप हो गई और डॉक्टर ने उसका इलाज किया और उसे अपने घर के मेहमानों वाले कमरे में । समीर सेना में डॉक्टर  के पद पर कार्यरत था उसने ये घटना अपने एडमिरल को बताई और कहा कि सर दुश्मन देश का एक सिपाही मुझे समुद्र के किनारे घायल  मिला उसकी यह हालत देख कर मैंने उसे वहीं छोड़ देना चाहा लेकिन मैं उसे छोड़ ना सका मैंने उसका इलाज करके अपने घर में रखा है अब मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मैं क्या करूं?

आप एक बहुत अच्छे डॉक्टर हैं और आपको यह बात याद होनी चाहिए कि आपको  देश के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य निभाने हैं, यह बहुत गलत किया इस बात के लिए तुम्हें नौकरी से भी निकाला जा सकता है तुम एक बहुत अच्छे डॉक्टर हो।  इसलिए उसे उसी समुद्र के किनारे जाकर छोड़ दो…

नहीं  मैं दो आदमियों को भेजता हूं और वे उसे गोली मार देंगे और अचानक वह बिस्तर से नीचे गिर पड़ा …।

समुद्र के किनारे दूसरे देश की सीमा के पास छोड़ आया।

संतुष्टि थी, कि उसने देश और डॉक्टर दोनों का कर्त्तव्य निभाया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 – जीवन यात्रा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी ।

☆ कथा-कहानी # 107 –  जीवन यात्रा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अंकुरित वत्स, ईश्वर से प्राप्त ब्रम्हांडीय आश्वासन से आश्वस्त होकर जब अंधकार का आदी हो गया तो अगली अवस्था थी “विचलन याने movement”. बाहर की दुनियां में जो भविष्य में उसकी भी दुनिया होने वाली है, उसके बहुत हल्के से विचलन पर उठते रोमांचक भावनाओं के तूफान से वो अनिभिज्ञ ही रहा. निर्धारित अंतराल के पश्चात प्रसव की प्रक्रिया से हुये जन्म से, उसका सामना हुआ तेज “प्रकाश” से. अंधकार के comfort zone के अभ्यस्त जीव को ये परिवर्तन असहनीय लगा तो फिर “भय” प्रस्फुटित हुआ जिसका परिणाम था “रुदन”. पर इस नये वातावरण के अभ्यस्त जीवों के लिये, ये हर्ष और उल्हास का विषय था. जन्म लिये जीव ने अपनी व्यथा, फिर से ईश्वर को संप्रेषित करने की कोशिश की पर जन्म के साथ ही अब उसके लिये ईश्वर से ब्रम्हांडीय संप्रेषण Universal Streight Dialling की सुविधा समाप्त हो चुकी थी. अब जन्म लिये वत्स को संप्रेषण इस दुनियां के जीवों से ही करने की पात्रता थी और संप्रेषण का उसके पास सिर्फ और सिर्फ रुदन ही एकमात्र माध्यम था जिसमें समय के साथ ही उपयोग की महत्ता और अभ्यस्तता आनी थी. पर इस रुदन के बाद उसे उपहार मिलता था स्पर्श और उष्मा का. ये स्पर्श और उष्मा उसे सुरक्षा की अनुभूति कराती थीं. कुछ दिनों में ही जीव वत्स अपने अंधकार और पोषण युक्त पर अभी अभी निष्कासित आशियाने के मालिक को पहचानने लगा. हालांकि अभी वह मालिक और मालकिन के भेद से अनजान था. पर इतना तो उसे अनुभव हो चुका था कि इस नई जगह में उसे स्पर्श, उष्मा और पोषण के रूप में सुरक्षा देने वाला यही इंसान है. English तो क्या कोई भी अक्षर, शब्द, भाषा उसके तरकश में नहीं थी वरना Caretaker जैसी टर्मिनालॉजी का प्रयोग तो अवश्य ही अपनी जीवनदायिनी के लिये कर ही लेता. इसके अलावा भी कभी कभी एक कठोर स्पर्श भी उसके अनुभव में आता, पर शुरुआत में भयभीत या uncomfortable होने पर वह अपना रुदन रूपी अस्त्र प्रयोग करने लगता.

यात्रा जारी रहेगी 👼👼👼

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 197 – ब्रम्ह कमल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “ब्रम्ह कमल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 197 ☆

🌻 लघु कथा 🌻 ब्रम्ह कमल 🌻

भोर होते ही श्वेत दमकता मनमोहक हरी लताओं के बीच देवी प्रसाद – माया जी के यहाँ बगीचे में ब्रम्ह कमल खिला।

चेहरे पर असीम शांति, मन उत्साह उमंग से भरपूर कि आज कुछ शुभ संदेश मिलेगा।

कांपते हाथों से, मोबाइल ले दोनों को जैसा बना कई बार तस्वीरें खींचे और, बेटा – बेटी को शेयर किया।

जो दूर परदेश अपने – अपने परिवारों के साथ रहते थे।

लिखा – – ‘बच्चों आज हमारे आँगन में ब्रम्ह कमल खिला। तुम सब भी होते तो देखते। बड़े ही सौभाग्य से ये पुष्प खिलता है।’

बिटिया रानी ने तो मुस्कुराते ईमोजी बनाकर भेज दिया। परन्तु बेटा जो कभी फोन में बात भी करना पसंद नही करता, आज मेसेज लिखा–“आप क्या समझते हैं, तस्वीर को सब को दिखाऊँ। यहाँ इससे भी कई प्रकार के फ्लावर मैने अपने रुम में सजा कर रखा है। लोटस दिखाकर आप मुझसे लौटने की उम्मीद मत करना।बेहतर होगा आप जितनी जल्दी हो सके ये बातें समझ जायें।”

पिता जी रिटायर्ड परसन थे। आँखों में अश्रुं दबाते, ऊँगली मोबाइल पर चल पड़ी – – ‘सुना था ब्रम्ह कमल खिलने पर कुछ शुभ संदेश मिलता है। Thanks to God! !’ 🙏🙏👍

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – मृत्यु के पाँव – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  मारीशस में गरीब परिवार  में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा “मृत्यु के पाँव।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — मृत्यु के पाँव — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

एक विस्मयकारी कहानी लिखने का मैं साहस कर रहा हूँ। चोर ने एक घर से बहुत पैसा चुराया, लेकिन तभी कुत्ते भौंकने लगे। भागने की प्रक्रिया में पैसे का थैला कहीं गिर गया। उस पैसे के लिए वह तड़पता था। उसने अपनी मृत्यु के दिन उस पैसे का साक्षात्कार किया। पैसा एक सूखे गहरे चट्टानी कुएँ में पड़ा हुआ था। उसने कुएँ में छलांग लगा दी। तभी उसका परिवार रो पड़ा। घर में उसकी मृत्यु का शोक छा गया।

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 06 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #176 – बाल कथा – लिपि की कहानी… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा  “लिपि की कहानी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 176 ☆

☆ बाल कथा – लिपि की कहानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।

क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।

देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।

इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?”

तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।

मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।

इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।

आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।

चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।

तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।

हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।

इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।

ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।

इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।

इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।

अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।

इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियाँ प्रचलित हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-12-2024

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – शाश्वत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – शाश्वत ? ?

– क्या चल रहा है इन दिनों?

– कुछ ख़ास नहीं। हाँ पिछले सप्ताह तुम्हारी ‘अतीत के चित्र’ पुस्तक पढ़़ी।

– कैसी लगी?

– बहुत अच्छी। तुमने अपने बचपन से बुढ़ापे तक की घटनाएँ ऐसे लिखी हैं जैसे सामने कोई फिल्म चल रही हो।….अच्छा एक बात बताओ, इसमें हमारे प्रेम पर कुछ क्यों नहीं लिखा?

– प्रेम तो शाश्वत है। प्रेम का देहकाल व्यतीत होता है पर प्रेम कभी अतीत नहीं होता। बस इसलिए न लिखा गया, न लिखा जाएगा कभी।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 28 – मूक मौन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मूक मौन।)

☆ लघुकथा – मूक मौन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जिंदगी में हर किसी की ख्वाहिश पूरी नहीं होती सब कुछ उसे अदृश्य नाटक की तरह होता है जैसे हम एक पेड़ पर चढ़ने जा रहे हैं आम तो खाना चाहते हैं पर उसे पेड़ पर रहने वाले चींटे, चींटियों एवं पक्षियों के घोंसले सभी के जनजीवन उसमें पलता है। हम उनके घर में जाएंगे तो वह अपनी सुरक्षा के लिए हमारे ऊपर हमला करेंगे ठीक उसी तरह जिस तरह हम घर से बाहर जाते हैं तो अपने घर को ताला देते हैं। इस तरह जीवन भी सबके शहरों से चलता है हर किसी को देखा तो एक दुनिया दिखती है प्रकृति भी मुख मौन होकर हमें बहुत कुछ देती है। हम क्या लेते हैं यह हमारे ऊपर है हम तो सिर्फ लड़ाई झगड़ा और स्वयं के स्वांग में उलझे हैं…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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