हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ समझ का फेर ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा समझ का फेर।  

☆ लघुकथा – समझ का फेर ☆

मेरे एक  रिश्तेदार कुछ दिन मेरे यहां ठहरने आए मंगलवार उनका मौन व्रत था। वह टीवी देख रहे थे तभी उनसे मिलने उनका  भतीजा आया चरण स्पर्श कर वह बैठ गया, चाचा जी ने कागज कलम उठाई  लिखा  कहां से आ रहे हो? तत्परता से उसने वहां पड़ा दूसरा कागज़ उठाया और पेन निकालकर लिखा घर से सीधे ही आ रहा हूं ।

चाचा जी ऐसे ही लिख-लिख कर प्रश्न करते रहे और वो लिख लिखकर उत्तर देता रहा अचानक  चाचा जी गुस्से में उठ खड़े हुए और जोर से बोले…” बेवकूफ मौन  तो मैं हूं तुम तो बोल सकते हो ।”

रसोई घर में खड़ी मैं सोच रही थी जिंदगी में  हम  सब भी  कुछ बातों को  ठीक से ना समझ पाने के कारण ऐसी ही गलतियां कर बैठते हैं।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 70 – अपेक्षा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “अपेक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 70 ☆

☆ अपेक्षा ☆

उसने धीरे से कहा, ” आप सभी को कुछ ना कुछ उपहार देती रहती हैं|”

“हाँ,” दीदी ने जवाब दिया, ” कहते हैं कि देने से प्यार बढ़ता है|”

“तब तो आपकी बहू को भी आपको कुछ देना चाहिए| वह आपको क्यों नहीं देती है?” उसने धीरे से अगला सवाल छोड़ दिया|

“क्योंकि वह जानती है,” कहते हुए दीदी रुकी तो उसने पूछा,” क्या?”

“यही कि वह जो भी प्यार से देगी, वह प्यारी चीज मेरे पास तो रहेगी नहीं| मैं उसे दूसरे को दे दूंगी| इसलिए वह अपनी पसंद की कोई चीज मुझे नहीं देती है|”

“तभी आपकी बहु आपसे खुश है,” कहते हुए उसे अपनी बहु की घूरती हुई आंखें नजर आ गई |जिसमें घृणा की जगह प्रसन्नता के भाव फैलते जा रहे थे |

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ मनहूस ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा मनहूस।  मनहूस लघुकथा का सुश्री माया महाजन द्वारा मराठी भावानुवाद आप इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>>>

☆ जीवनरंग : अपशकुनी –  सुश्री माया महाजन ☆

☆  लघुकथा – मनहूस

जबसे उसके पति की मृत्यु हुई, मोहल्ले के लोगों ने उसका जीना हराम कर दिया था ।जहां पुरूषों की गिद्ध दृष्टि उस पर मंडराती रहती थी वहीं महिलाओं की भेद भरी निगाहें उसकी हर गतिविधि का पीछा करती रहती थीं ।

अपने बच्चों के भविष्य की खातिर उसने नौकरी कर ली ।ऑफिस जाते वक़्त जब वह घर से निकलती और वापस घर लौटती तो दर्जनों शंकालु निगाहें उसके चेहरे पर टिक जाती ।सबसे बेखबर वह अपने जीवन संघर्ष में लगी थी लेकिन अपने लिए अनेक बार मनहूस शब्द का इस्तेमाल वह सुन चुकी थी ।उसका दिल करता बसंती चाची का मुंह नोंच ले जिसने उसके पहले दिन नौकरी पर जाते समय सारे मोहल्ले की सुनाते हुए कहा था-“आग लगे ऐसी खूबसूरती को जो इतनी जल्दी पति को खा गई ।अब रोज ही अपनी मनहूस शक्ल दिखाकर पता नहीं कितने अनर्थ करवाएगी। इसे मोहल्ले से निकाल दो “।

अब तक तो वह चुप रही थी पर आज उसने निर्णय कर लिया अब वह और बर्दाश्त नहीं करेगी ।जब किसी को उससे  सहानुभूति नहीं तो वह क्यों उनके व्यंग्य, ताने, प्रताड़ना झेले ?

आज जैसे ही बसंती चाची उसे देख बड़बड़ाई -“आ रही है मनहूस…” उसी क्षण वह उनके सामने का खड़ी हुई -” चाची ,मनहूस मैं नहीं तुम हो ।जिस दिन मेरे पति की दुर्घटना में मौत हुई ,उस दिन सबेरे मैंने तुम्हारा ही मुख देखा था ।तुम ही इस मोहल्ले से चलीi जाओ ..”।

चाची हक्की बक्की कुछ कह पाती इससे पहले ही वह एक  हिकारत भरी नज़र उन पर डाल आगे बढ़ गई।

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 71 ☆ लघुकथा – कचरे वाला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर लघुकथा   ‘कचरे वाला’।  इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 71 ☆

☆ लघुकथा – कचरे वाला

शरीफों का मुहल्ला है। रोज़ तड़के कचरा इकट्ठा करने वाला,अपनी गाड़ी खींचता, सीटी बजाता हुआ आता है। सब अपने अपने घर से प्रकट होकर कचरा-दान करते हैं और राहत की साँस लेते हैं।

नन्दी जी तुनुक मिजाज़ हैं। घर में थोड़ी थोड़ी बात पर भड़कते हैं। सफाई-पसन्द हैं। कचरे वाले को देखकर उनका माथा चढ़ता है। कचरे के डिब्बे में दूर से कचरा टपकाते हैं। मास्क के ऊपर से सिकुड़ी नाक नज़र आती है। देखकर कचरे वाले  का मुँह बिगड़ता है। कई बार कह देता है, ‘आप ही का कचरा है। हमारे घर का नहीं है।’

एक दिन नन्दी जी उससे उलझ गये। उसने गीला और सूखा कचरा अलग अलग डिब्बों में डालने को कहा तो वे उखड़ गये—-‘हम यही करते रहेंगे क्या? दूसरा काम नहीं है? पहले क्यों नहीं बताया?’

थोड़ी बहस हो गयी। अन्त में नन्दी जी उँगली उठाकर बोले, ‘ऑल राइट, आप कल से हमारे घर से कचरा नहीं लेंगे। आई विल मैनेज इट। ‘ कचरे वाला ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया।

भीतर आकर बोले, ‘मैं कर लूँगा। जब वह कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते?’

मिसेज़ नन्दी अपने पति को जानती थीं, इसलिए कुछ नहीं बोलीं।

दूसरी सुबह कचरे वाला घर के सामने से निकल गया। रुका नहीं। नन्दी जी घर में बैठे रहे। बुदबुदाये, ‘मिजाज़ दिखाता है!आई विल डू इट।’

घर में तीन दिन का कचरा इकट्ठा हो गया। अब सबकी नाक सिकुड़ने लगी। सबकी नज़रें नन्दी जी पर टिकने लगीं। नन्दी जी सबसे नज़र बचाते फिर रहे थे।

चौथे दिन वे तैयार हुए। स्कूटर पर कचरे की दो बकेट रखीं और आगे बढ़े। तिरछी नज़रों से देखते जा रहे थे कि कोई परिचित देख तो नहीं रहा है। भीतर से सिकुड़ रहे थे।

लंबे निकल गये, लेकिन कोई कचरे का कंटेनर नहीं दिखा। परेशान हो गये। सड़क के किनारे फेंकने पर कोई भी चार बातें सुना सकता था। आगे कुछ खेत थे। वहीं स्कूटर रोक कर चारों तरफ देखा, फिर पौधों के बीच में बकेट खाली करके भाग खड़े हुए।

घर पहुँचकर लंबी साँस लेते हुए पत्नी से बोले, ‘आई कान्ट डू इट। इट इज़़ वेरी डिफ़ीकल्ट।’

अगली सुबह जब कचरे वाला आया तब मिसेज़ नन्दी गेट पर थीं। उसे रोककर बोलीं, ‘कचरा लेना क्यों बन्द कर दिया, भैया?’ कचरे वाला कैफ़ियत देने लगा तो थोड़ी देर सुनकर बोलीं, ‘वे थोड़ा गुस्सैल हैं। क्या करें। आप खयाल मत करो। आगे से कचरा हमीं दिया करेंगे। यह थोड़ा सा प्रसाद है, बच्चों को दे देना।’

भीतर नन्दी जी मुँह पर दही जमाये बैठे थे। मिसेज़ नन्दी कचरा देकर लौटीं तो सबके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। मुसीबत टल गयी थी। सुबह सुहावनी हो गयी थी।

©
डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) 

शेरू का बलिदान

अब तक आपने पढ़ा कि – शेरू अचानक एक दिन मिला था, उसका मिलना मजबूरी भूख  संवेदना तथा प्रेम निवेदन की कथा बनकर रह गई।  वहीं दूसरे भाग में उस अबोध जानवर की कहानी पढ़ी जिसकी संवेदना को मानवीय संवेदनाओ से कहीं भी कमतर नहीं ‌आका जा सकता।  अब आगे पढें उसके त्याग व बलिदान की कथा जो किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख देगी। आज जब इंसान लोभ मोह तथा स्वार्थ के दलदल में जकड़ा पडा़ है, तब शेरू बाबा का बलिदान हमें अवश्य ही कुछ सोचने पंर मजबूर करता है। शेरू का निष्कपट प्रेम तथा बलिदान मानव समाज को झकझोरने के लिए प्रर्याप्त है। इस कथा को पढ़ते कहीं मुंशी प्रेमचंद की कथा कहानियों की याद आ जाये,  तो आश्चर्य नहीं। अब आगे पढ़ें ——-

समय धीरे धीरे अपनी मंथर गति से ‌चल रहा था। उसकी जवानी अपने पूरे उफान पर थी। ऐसे में वह अपनी बिरादरी के चार चार लोगों पर अकेला भारी‌ पड़ता। किसी की क्या मजाल जो पास भी फटक जाय। वह जिधर से निकलता शान से आगे बढ़ता चला जाता बेख़ौफ़ और बिरादरी के लोग गुर्राते ही रह जाते।

अब बरसात का मौसम आ गया था।

अचानक से एक दिन शेरू गंभीर रूप से बीमारी से जकड़ गया था।  उसे पतले दस्त आ रहे थे। मुंह से झाग भी निकल रहा था। इसके चलते वह कुछ भी खा पी नहीं पा रहा था। बस वह घर के अंधेरे कोने में पड़ा सूनी-सूनी आंखों से मेरी राहें तकता रहता। जब मुझे देख लेता तो वहीं पड़े पड़े धीरे-धीरे सिर उठा अपनी पूंछ हिलाता।

मेरे प्रति अपना प्रेम प्रकट करता, मैंने उसे पशू डाक्टर को दिखाया बहुत सारा इलाज चला।  लेकिन कोई आशातीत सफलता नहीं मिली। उसका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता चला जा रहा था। जिससे मेरा मन काफी विचलित था। आज उसने पानी भी नहीं पिया था। जब मैं पाही पर चला था तो शेरू  भी मेरे पीछे पीछे लड़खड़ाते कदमों से मेरे पीछे पीछे चला आया।

मैंने उसे अपने पीछे आने से उसे बहुत रोका लेकिन मेरे लाख प्रयासों के बाद भी वह नहीं माना और पीछे चलता हुआ आकर हर रोज की भांति दरवाजे पर बैठ गया। शायद उसे अपने जीवन के आखिरी पलों का आभास हो चला था।

वह बहुत उदास था पुरवा हवाएँ काफी तेज चल रही थी। कमरे के बीच टिमटिमाती लालटेन की पीली रोशनी के बीच मैं अपने बिस्तर पर अननमना सा लेटा हुआ था। रह-रह कर फड़कते अंग और दिल की अंजानी बेचैनी घबराहट किसी अनहोनी का संकेत दे रहे थे। जो सोने में बाधक बन रहे थे। लेकिन तेज पुरवा हवा के ‌झोंकों ने कुछ देर बाद नींद से बोझिल आंखों को सुला दिया था। शेरू अगल बगल की झाड़ियों के बीच हल्की सरसराहट सी सुनता‌ तो सतर्क‌ हो उठता तथा चौकन्ना हो भौंकने गुर्राने लगता, जिससे बार बार मेरी नींद में खलल पड़ता। मैं बार बार उसे चुप कराता लेकिन वह फिर भौंकना चालू कर देता। मैंने उसे गुस्से में डंडा फेंक मारा, हालांकि उसे चोटें नहीं लगी लेकिन फिर भी मारे डर वह कूंकूं करता थोड़ी दूर भाग गया था और फिर वह तत्काल भौंकने लगा था। उसे आने वाले ‌संभावित खतरे का आभास हो चला था, जब कि मैं किसी भी खतरे से अनजान था। उसका बार बार भौंकना मुझे खल रहा था।

मेरी नींद बाधित हो रही थी। फिर भी मैं करवट बदल सोने का प्रयास कर रहा था। तभी एक भयानक काला कोबरा झाड़ियों से निकल मेरे ‌बिस्तर की तरफ बढ़ा था और उसे देखते ही शेरू के दिल में स्वामीभक्ति का‌ ज्वार उमड़ आया। अब शेरू और सांप के बीच धर्म युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अपनी-अपनी आन पे अड़े थे। जहां भूखा सांप ‌भोजन के लिए अंदर आने को आतुर था, वहीं शेरू अपना सब कुछ न्योछावर कर उसे बाहर रोकने पर आमादा था। इस महासंग्राम में जहां क्रोधित सर्प फुंफकार‌ भर‌‌ रहा‌ था, वहीं शेरू ‌अपनीं स्वामिभक्ति की‌‌ मौन साधना को पूर्ण रूपेण समर्पित था। पूरी ताकत से शेरू ने‌ सांप को भीतर आने से रोक‌ रखा था। सांप की फुफकार सुन मेरी नींद खुली थी और बाहरी दृश्य देख मैं घबरा उठा। पसीने से तर-बतर मेरा शरीर भी थर-थर कांप रहा था।  गला सूख गया जुबान तालू से जा चिपकी। भय के मारे मेरे गले से सिर्फ गों गों की फंसी फंसी आवाज निकल रही थी तथा मैं बदहवासी की हालत में अपने पांव जमीन पर  उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। ऐसे में मैं स्वास रोके शेरू और सांप का धर्मयुद्ध देखने के लिए विवश था। अगर कोई रास्ता होता तो न जाने मैं कब का भाग खड़ा होता। इस महासंग्राम में ना जाने कितने बार‌ उस सर्प ने शेरू को काटा होगा, लेकिन हर बार शेरू दूनी ताकत से सांप को अपने तीखे नाखूनों के प्रहार से विदीर्ण कर मौत के मुंह में सुला दिया तथा सांप के जहर से कुछ दूर जा अपनी मौत के गले मिल गया। मैं घबराहट में चेतना शून्य हो गया।

सबेरे मेरे मुंह पर पानी के छींटें मार बेहोशी से जगाया गया। सामने सांप की क्षत-विक्षत शरीर तथा कुछ दूरी पर शेरू का निर्जीव शरीर देख मेरे जेहन में रात की सारी घटना घूम गई।

उस दिन चार रोटियां तथा कटोरे भर दूध पिला शेरू की ठंड से प्राण रक्षा की थी, लेकिन आज शेरू जानवर होते हुए भी अपनी संवेदनशीलता के चलते अपनी जान देकर अपनी वफादारी का फर्ज निभा गया। उस समय जिसने भी शेरू की कर्म निष्ठा को देखा सुना सबकी नजरें तथा सिर शेरू के प्रति सम्मान में झुकती चली गई।

शेरू का इस तरह अचानक उस दुनियां से जाना मेरे लिए किसी सदमे से कम‌ नहीं था। मेरे भीतर बैठा एक संवेदनशील इंसान भीतर ही भीतर ‌टूट चुका था। उस समय मैं शेरू के साथ बिताए पलों की स्मृतियों तथा आंख में आंसू लिए उसे उसी बाग में दफना रहा था, जहां उसने कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे एक इतिहास रचा था। उसे दफन करते हुए मेरा मन अपनी कायरता पर आत्मग्लानि से भर उठा ‌था।

उसी स्थान पर कालांतर में कुछ स्थानिय लोगों ने एक मकबरा बनवा दिया था जिसके भीतर भित्तिचित्रों में शेरू बाबा की कर्मनिष्ठा की कहानी अंकित हो गई थी।

अब उस रास्ते से ‌आते जाते लोग शेरू बाबा की कर्म निष्ठा को प्रणाम करते हैं। न जाने कब व कैसे वह स्थान शेरू बाबा के मकबरे के रूप में चर्चित हो गया तथा यह किंवदंती प्रचलित हो गई कि शेरू बाबा हर आसंन्न संकट से सबकी प्राण रक्षा करते हैं। और आज लोग अपने तथा परिवार की हर संकट से रक्षा के लिए शेरू बाबा के मकबरे पर मन्नतें मांगा करते हैं और शेरू के त्याग बलिदान की कथा कहते सुनते नजर आते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अनकहा ☆ श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिव्यांशु शेखर 

(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर ने अपने गृहनगर सुपौल, बिहार से प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। उसके बाद, उन्होंने जेपी यूनिवर्सिटी ऑफ़ इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह पेशे से एक अभियंता है और दिल से एक कलाकार। वह कविताएँ, शायरी, लेख, नाटक और कहानियाँ लिखते हैं। उन्होंने “ज़िंदगी – एक चलचित्र” नामक एक हिंदी कविता पुस्तक 2017 में प्रकाशित की और एक उपन्यास अंग्रेजी भाषा में  “Too Close – Too Far” के नाम से प्रकाशित है, और इसका हिंदी अनुवाद “बहुत करीब – बहुत दूर” के नाम से प्रकाशित है। एक व्यक्ति के रूप में, वह हमेशा खुद को एक शिक्षार्थी मानते है। उनके ही शब्दों में “एक लेखक सिर्फ दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, पाठक अपनी समझ के अनुसार उनके दिमाग में वास्तविक रचना का निर्माण करते हैं और मेरी एक रचना की पाठकों के अनुसार लाखों संस्करण हो सकते हैं।” आज प्रस्तुत है उनकी एक लम्बी कहानी – अनकहा।)  

☆ कथा ☆ कहानी अनकहा

‘स्वीटी आज मुझे आने में थोड़ी देर हो जाएगी तो प्लीज मेरे आने का थोड़ा इंतज़ार कर लेना’ निशा जल्दबाज़ी में टिफिन में खीर पैक करते हुए अपने कामवाली से बोली।

‘हाँ मैडम कोई दिक्कत नहीं है, आप आराम से आना। मैंने अपने बच्चो के लिए आज दोपहर में ही रात का खाना भी बना दिया था और वो खा लेंगे। मैं आपके आने के बाद ही जाऊँगी’।

‘थैंक यू स्वीटी! तुम्हे पता है, तुम बेस्ट हो यार। लव यू’ उसने होठों को गोल करके उसके तरफ देखते हुए मजाकिया अंदाज़ में बोली।

‘ये प्यार मैडम आप आज साहब के लिए संभाल के रखिये। आज उनका ख़ास दिन है, आपके काम आएगा’ वो हॅसते हुए बोली और दोनों हॅसने लगे।

वो हल्के नीले रंग की सलवार सूट पहने हुई थी, गोरा रंग, पतली काया, बड़ी और चंचल आँखे और उसने अपने रेशमी बालों को मोड़कर आगे की तरफ कर रखा था। उसके चेहरे पर पड़ती रौशनी और उसके माथे की लाल बिंदी बेहद खिल रही थी।

वो जल्दी-जल्दी घर के सामने खड़े कैब में जाके बैठ गयी और ड्राइवर ने गाडी स्टार्ट कर दी। आज वो दिए वक़्त से पहले ही तैयार हो गयी थी। आखिर हो भी क्यों न आज उसके प्यार राहुल का जन्मदिन जो था।

निशा उससे बेहद प्यार करती थी, दोनों तीन साल से रिलेशनशिप में थे और दोनों जल्द ही शादी का सोच रहे थे। बस देर राहुल के जवाब का ही था। राहुल को थोड़ा करियर में सेटल्ड होने का वक़्त चाहिए था।

निशा तो बस जैसे राहुल के जवाब का ही इंतज़ार कर रही थी और उन सुनहरे सपनों की तैयारी में हर दिन लगी रहती थी। उसने तो कई चीजे खरीदना भी शुरू कर दिया था। आज उसने राहुल के लिए अपने शहर के एक प्रसिद्द होटल विराट में 2 सीट्स बुक कर रखे थे और बर्थडे की बात उसने होटल मैनेजर को बता रखी थी।

एक सरप्राइज पार्टी, क्यूकि ये राहुल का पसंदीदा जगह जो थी और तय समय था, शाम के 8 बजे। अभी शाम के 7 ही बजे थे और वो होटल मैनेजमेंट के तैयारियों का खुद से जायजा लेने वक़्त से पहले ही वहाँ पहुंच गयी थी।

मुंबई की भीड़ वाली ट्रैफिक में आज उसके किस्मत ने अच्छा साथ दिया था, और वो समय से पहले पहुंच गयी थी। आखिर वो कुछ भी कमी देखना नहीं चाहती थी, एक परफेक्ट बर्थडे पार्टी, अपने प्यार के लिए। उनका सीट्स होटल के प्रथम तल्ले पे एक कोने में था, जहाँ से होटल के अगले माले पे सभी आने-जाने वाले लोग दिख रहे थे।

निशा ने सीट्स बदलने की कोशिश भी करवाई लेकिन मैनेजर ने माफ़ी मांग लिया। होटल कर्मचारी सब कुछ तैयार करके चले गए लेकिन अभी भी 8 बजने में 50 मिनट्स और बचे थे और वो उससे पहले राहुल को कॉल करके परेशान नहीं करना चाहती थी।

इसीलिए निशा ने उसे एक मैसेज भेजा। ‘क्या तुम तैयार हो गए?’

‘क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’ एक अनजान आदमी के आवाज़ ने निशा का ध्यान अपनी और खींचा। उभरी हुई भोहे, बाज की तरह नाक, समुद्री रोवर-नीली आँखे, गोरा बदन और तराशा चेहरा मानों कोई अभिनेता हो। सफ़ेद कमीज, नीला पैंट, और काले ओवरकोट में वो किसी भी लड़की का दिल धड़का सकता था।

‘माफ़ कीजिये पर ये 2 सीट्स मैंने पहले से बुक कर रखे हैं तो आप कही और बैठ जाइये’ निशा ने शालनीता से कहा।

‘हाँ पता है, लेकिन मुझे तो यही बैठना है और आपसे कुछ बातें करनी है, मेरा नाम आकाश है और मैं यहाँ अकेले ही आया हूँ और आप जैसी सुन्दर लड़की को इतने बड़े होटल में अकेले बैठा देख खुद को रोक नहीं पाया’ उसने मुस्कुराते हुआ कहा।

‘माफ़ कीजिये आपकी जानकारी के लिए बता दूँ, पहली बात की मुझे अंजानो से बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं है और दूसरी की मैं यहाँ आपके तरह अकेले नहीं हूँ, मैं अपने बॉयफ्रेंड का इंतज़ार कर रही हूँ वो आने ही वाला है और अगर उसने आपको यहाँ देखा तो आप पक्का मार खाओगे’ निशा गुस्सा करते हुए बोली।

‘मरे हुए को कोई क्या मरेगा मैडम’ आकाश ने फिर से मुस्कुराते हुए कहा ‘कृपया गुस्सा न हो, लेकिन असलियत में अभी तो आप अकेली ही हैं और मेरा विश्वास करे मैं आपको परेशान नहीं करूँगा। मैं आपके जवाब तक यही खड़ा रहूँगा’।

निशा उसके छिछोरी हरकत पे और उसे आने-जाने के बीच रास्ते में खड़ा देख गुस्से में कुछ बोलना ही वाली थी की तभी अचानक उसने राहुल को एक सुन्दर लड़की के साथ सीढ़ियों से उतरते हुए देखा, राहुल ने उसके कंधे पे अपना हाथ रखा हुआ था, वो दोनों मुस्कुरा रहे थे।

वो थोड़ी चौंक सी गयी। फिर उसे लगा की शायद राहुल उसे ढूंढ रहा हो और वो लड़की भी उसके साथ आयी हो। लेकिन वो दोनों होटल के बाहर जाने लगे। निशा ने उन्हें अपनी तरफ बुलाने, वापस बैग से अपना फ़ोन निकाला तो देखा कि राहुल का एक मैसेज आया हुआ था।

‘माफ़ करना निशा! लेकिन मेरी तबियत अचानक थोड़ी ख़राब हो गयी है तो मैं वहाँ नहीं आ सकता। कुछ देर पहले मैंने दवाई ली है और अभी सोने जा रहा हूँ। अभी तो लगभग एक घंटा बचा है तो कॉल करके होटल वालो को मना कर दो। मैं तुमसे कल मिलता हूँ। सॉरी!’

मैसेज देखके तो जैसे निशा के पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। ऐसा झूठ, ऐसा धोखा, आखिर क्या कमी रह गयी थी उसके प्यार में? उसकी हालत तो जैसे काटो तो खून नहीं। एक पल में जैसे सारे सपने कांच ही तरह टूट के बिखर गए। अचानक लगा जैसे उसका सब कुछ छिन गया हो और वो बिलकुल अकेली हो गयी हो, ये शहर सहसा उसे अजनबी लगने लगा था।

वो धम्म से कुर्सी पे बैठ गयी, अथक कोशिशों के बावजूद भी वो अपने भावनाओ पे नियंत्रण नहीं रख पायी और उसके बड़े-बड़े आँखों से जैसे आंसुओं की धारा निकल पड़ी। निशा की ऐसी हालत देख सहसा आकाश उसके नजदीक आ गया और उसे जोर से टोकते हुए बोला।

‘क्या आप ठीक है मैडम? थोड़ा पानी पीजिये’।

‘हाँ! क्या? तुम कौन हो?’ निशा धीरे से हड़बड़ाते हुए बोली।

‘मैं बोला, आप पानी पीजिये, मैं आकाश! जो आपके इंतज़ार में कबसे खड़ा है’ आकाश शालीनता से बोला।

‘ओह! माफ़ करना मैं थोड़ी सी चौक गयी थी। और हाँ अब तुम यहाँ आराम से बैठो, मैं जाने ही वाली हूँ’ निशा मुस्कुराते हुए बोली।

‘कृपया ऐसा न करे, मैं तो ऐसे ही अकेले इधर-उधर भटकता रहता हूँ, लेकिन मेरी वजह से आप न जाए, आप यही बैठे, मैं चला जाता हूँ’ आकाश बोला।

कुछ पल के लिए वह ख़ामोशी का माहौल रहा फिर निशा बुदबुदायी ‘वजह कुछ और है’।

मैं समझ सकता हूँ, विगत कुछ मिनटों में यहाँ क्या हुआ है, मैं उसे महसूस कर सकता हूँ’ वो मुस्कुराते हुए बोला।

‘तब तो तुम्हे बहुत ख़ुशी हुई होगी’ निशा झल्लाते हुए बोली।

‘नहीं दिखने में तो वो लड़की जिसे आप घूर रही थी, ज्यादा सुन्दर थी। लेकिन मुझे तो आपसे ही बात करना था इसीलिए तो आपके पास आया मैं’ आकाश ने चुटकी लेते हुए कहा।

‘अच्छा तो फिर तुम मेरे पास क्यों आये हो? कहीं और जाके मरो’ वो गुस्से मैं बोली।

‘नहीं आपमें कुछ अलग दिखा मुझे, इसीलिए आपके पास आया’ आकाश मुस्कुराते हुए बोला।

‘और ये बात तुम आज तक कितनी लड़कियों को बोल चुके हो?’ वो झिड़की।

‘ईमानदारी से बताऊँ तो कल तक की गिनती तो मुझे याद नहीं है, लेकिन आज पहली बार किसी को बोला हूँ’ उसने उसके आँखों में देखते हुए मजाकिया अंदाज़ मैं बोला।

‘अच्छा तो मेरे रोने के बात को छोड़ तुम्हें, मुझमें ऐसा क्या ख़ास बात दिखी आज?’

‘रोने को तो मैंने गिना ही नहीं था क्यूंकि वो तो मेरा रोज का है। लेकिन 8 बजे का बुकिंग करके 1 घंटे पहले पहुंचना, इतने बड़े होटल में इतने प्रोफेशनल कर्मचारियों से ज्यादा मेहनत करवाना, ऐसे आधुनिक जगहों में ऐसे पारम्परिक कपड़ो और मेकअप में आना, इतने टेस्टी खाना के बावजूद घर से कुछ टिफ़िन में लेके आना, ये तो मुझ जैसे बेवकूफ का भी ध्यान खींच सकती है’ वो बोला।

उसके बोलने के अंदाज़ से निशा की भी हंसी छूट गयी। वो आंसू पोछते हुए बोली।

‘जब तुम सब समझ ही गए हो तो बैठ जाओ, अब इतना खर्च करके खाली पेट घर जाने में तो बेवकूफी होगी। वैसे भी मुझे अब एक नयी शुरुआत करनी है तो क्यों न अच्छे से किया जाय’

‘आपने तो मैडम मेरे मुँह की बात छीन ली। अभी जो आपके साथ हुआ उसे भूलके आगे बढ़ जाइये, आप जैसी लड़की को ऐसे लड़को के लिए आंसू बहाना अच्छा नहीं लगता। आप जैसी है, वैसी बहुत अच्छी हैं, तो नयी शुरुआत कीजिये बिलकुल अपने तरीके से। और अभी जल्दी से कुछ आर्डर कीजिये, कहीं भूख से आप और दुबली न हो जाए। मैं तो अकेले था तो बोरियत मिटाने बहुत सारा खाना खा चुका और अब भूख है नहीं। आप बताइये क्या खाएंगी आप?’ वो बोला।

‘वैसे तो मुझे ये जगह कुछ ख़ास पसंद नहीं, लेकिन पैसा लग गया है, तो बहुत सारा खायूँगी, 2 आदमी का खाना अकेले जो खाना है’ वो गहरी सांस लेते हुए बोली, उसकी नकली मुस्कान साफ़ साफ़ झलक रही थी। उसने वेटर को बुलाकर खाने का आर्डर दिया। वेटर के जाने के बाद वो बोला।

‘कोई बात नहीं आप आराम से खाये, मेरे पास भी समय की कोई कमी नहीं है’ ‘इसके बाद बताये कहाँ जाया जाय, जिससे आपकी नकली मुस्कान असली में बदल जाय।

‘ठीक है खाके सोचते हैं। वैसे देखके तुम ठीक-ठाक घर के लग रहे हो और तुम्हारी उम्र 30-35 साल तो लग रही है। तुम क्या अभी तक अकेले हो?’ उसने जिज्ञासावस पूछा।

‘नहीं मैं बीवी-बच्चो वाला आदमी हूँ, लेकिन मैं उनके साथ नहीं रहता और चाह के भी नहीं रह सकता। वैसे मेरी उम्र का आपका अंदाज़ा तो लगभग ठीक है, लेकिन मेरी उम्र लगभग रुक सी गयी है, वहीं प्रकृति का स्पर्श’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।

‘मतलब तुम जैसा खुले दिल वाला इंसान भी नकली मुस्कान देता है’ निशा गंभीरता से बोली।

‘इंसान कैसा भी हो लेकिन कुछ चीजों को लेके हमेशा गंभीर रहता है, खैर छोड़िए इसके बाद हमलोग अच्छी जगह चलते हैं। ताकि कोई बेमन से न हँसे’ वो धीमे स्वर में बोला।

‘पहले तो मैं घर लेट जाती, लेकिन अब मैं थोड़ा जल्दी घर जाने का सोच रही हूँ। मेरी बाई मेरे घर पे मेरे इंतज़ार कर रही होगी और उसके घर पे उसके 2 बच्चे उसके आने का राह देख रहे होंगे। मेरे घर जल्दी जाने से वो जल्दी अपने बच्चो के पास जा पायेगी’ निशा थोड़ा रूककर बोली।

‘अच्छा लगा जानकार की आप एक कामवाली बाई का इतना ख्याल रखती हो’। आकाश गहरी सांस लेते हुए बोला।

‘वो भी मेरा बहुत ख्याल रखती है। उसके ऊपर उसके दो बच्चों की जिम्मेदारी है और वो इसे बखूबी निभा रही है। बेचारी का पति एक कार दुर्घटना में मारा गया। उसकी कार दुर्घटना के बाद पुल से टकराते हुए नदी में गिर गयी और डूबने से उसकी मौत हो गयी। भगवान ऐसी मौत किसी को न दे’ निशा ने उदासी भरे स्वर में कहा।

‘हाँ सही बोली, ऐसी मौत भगवान किसी को ना दे। उसने कितना प्रयास किया होगा ना, बाहर निकलने का, मौत से लड़ने का, ज़िन्दगी से विनती एक दूसरे मौके का’ उसने गम्भीरता से बोला।

‘हाँ! लेकिन उसके जाने के बाद असल कष्ट तो उसके परिवार को हुआ है। खैर, मैंने इतना कुछ सुना दिया अब तुम्हारी कहानी भी थोड़ी सुन लिया जाए’ निशा बोली।

‘हाँ क्यों नहीं! यहाँ से हम मेरे खुले कार में एक छोटी से ड्राइव पे चलेंगे, अपना पहला स्टॉप होगा सिनेमैक्स सिनेमा के बहार वो फेमस वृंदा चाय स्टाल, वहाँ से मस्त मसाला चाय पिएंगे फिर आपको घर छोड़ दूंगा ताकि आपकी बाई खुश होक जल्दी घर जा सके और और हाँ चिंता मत कीजिये, मेरे रहते आपको कोई खतरा छू भी नहीं सकता है। आप दोनों को खुश करना अब मेरे जिम्मे है, शायद इसीलिए भगवान ने मुझे यहाँ भेजा है। आपलोग खुद को कभी अकेला महसूस मत करना’ वो मुस्कुराते हुए बोला।

निशा ने बर्थडे का केक घर ले जाने के लिए पैक करवा लिया था। खाना खत्म होने के बाद निशा ने बिल चुकता किया फिर वो दोनों होटल से बहार निकल गए। पार्किंग में आकाश ने आगे बढ़कर निशा के लिए हुए गाडी का दरवाजा खोला। वो मुस्कुराते हुए गाडी में बैठ गयी।

फिर आकाश ड्राइवर सीट पे बैठके गाडी स्टार्ट कर दी। रात के 9 बज गए थे और खुले कार में तेज़ आती हवा से थोड़ी ठण्ड महसूस हो रही थी। आकाश ने ट्रैफिक काम करने की वजह से थोड़े खाली रास्ते से गाडी को ले जाने लगा। ठन्डे हवा के थपेड़ो और गाड़ी में बजते सुरीले गीतों से निशा का मन हल्का हो गया था, वो काफी अच्छा महसूस कर रही थी और मुस्कुराते हुए आकाश को शुक्रिया बोली, आकाश बदले में उसकी तरफ देखके मुस्कुराया। थोड़ी देर में वो चाय स्टाल के पास पहुंचे। कार ठीक चाय स्टाल के सामने रुकी जिस तरफ निशा बैठी हुई थी। निशा ने कार के अंदर से ही 2 चाय का आर्डर दिया। चाय मिलने पे उसने एक चाय आकाश के तरफ बढ़ाया। चाय पीने के बाद निशा ने पैसे दिए, अपना पता बताया और आकाश ने कार स्टार्ट कर दी।

‘अब मुझे अपनी कहानी सुनाओ और तुम अपने परिवार से अलग क्यों रहते हो?’ निशा ने अनुरोध किया।’

‘मैं एक बहुत की गुस्सैल और हठी आदमी था’ आकाश बोला।

‘लेकिन तुम्हे देख के ऐसा बिलकुल नहीं लगता’ निशा बोली।

‘वक़्त बहुत कुछ बदल देती है। मैंने जो गलती की, उसकी सजा मेरा परिवार भुगत रहा है। मेरी बीवी दूसरे के घर काम करके परिवार चलाती है। दिखावा और आधुनिक चकाचौंध में, मैं वास्तविकता से दूर हो गया था। साधारणता ही सबसे प्यारी और ख़ास चीज है, मैं ये समझ नहीं पाया। मैं उसके प्यार को समझ ही नहीं पाया, नासमझी में मैंने अपनी बीवी का बहुत दिल दुखाया है।

मैं गुनहगार हूँ। उससे जुदा होने के बाद आज तक ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा जिस दिन मैं रोया नहीं हूँ’ आकाश ने बोला और एक गहरी सांस ली।

‘तुम्हे अपनी गलती का एहसास है, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है, तुम अभी भी चीजे ठीक कर सकते हो’ निशा गंभीरता से बोली।

लेकिन ये ज़िन्दगी कुछ भूल को सुधारने का दूसरा मौका नहीं देती। मैं बहुत आवारा था। पुरे दिन दोस्तों के साथ इधर -उधर घूम कर आवारागर्दी किया करता था। ना पढ़ने की सुध होती थी और नहीं कभी कुछ करने की। मैंने जैसे-तैसे पढाई पूरी की, वो तो मेरे पिता जी की कृपा थी जो मुझे उनका एक बना बनाया बिज़नेस मिल गया।

उनका ऑफिस शुरू कर तो मेरे पास पहले से ज्यादा पैसे आने लगा और मैं वो पैसे जम के खर्च करता था। मैं अपनी ज़िन्दगी को अच्छे से जीना चाहता था, मैं सोचता था की आखिर इंसान इस दुनिया से लेके क्या ही जाता है, तो जो है, यही खुल के जियो।

मेरी आदतों से घर वाले नाखुश रहते थे और उन्होंने मुझे सुधारने, मेरी शादी अपने पसंद के एक लड़की से करवा दी। मेरी बीवी का नाम पल्लवी लेकिन मैं उसे प्यार से स्वीटी बुलाता था, ये नाम उसे पसंद नहीं था और वो इस नाम से थोड़ा चिढ जाती थी, लेकिन मुझे अच्छा लगता था तो मैं उसे वही बोलता था।

वो देखने में बहुत सुन्दर थी, वो दूधिया गोरा रंग, तराशा शरीर, समंदर जैसी गहरी आँखे, खुद से बेखबर वो, जब मैं उसे देखता तो मन करता था की सब कुछ छोड़ के उसे ही निहारता रहूं। पहली बार मुझे प्यार का एहसास कराया था उसने। वो मेरा और परिवार का बहुत ख्याल रखती थी, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह।

किसी को जरा सा कुछ हो जाए तो वो सब कुछ भूल जाती थी, भगवान से प्रार्थना, सबकी सेवा, जैसे उसने अपना सब कुछ परिवार को समर्पित कर दिया था। उसके आने से मेरी ज़िन्दगी बदलने लगी थी। शुरुआत के कुछ महीने बहुत अच्छे गए लेकिन धीरे-धीरे चीजे बदलने लगे।

मेरे दोस्तों में मेरी अलग सी पहचान थी, एक मन-मौजी, मस्तीखोर लड़का। लेकिन मेरी बीवी के आदतों से, मैं उन सब चीजों से दूर होने लगा। मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाने लगे थे और धीरे-धीरे मुझे लगने लगा जैसे मेरी आजादी छिन गयी हो।

मैं बहुत खर्चीला था और वो हमेशा पैसा बचाने का सोचती थी, वो बहुत साधारण ज़िन्दगी जीती थी, भविष्य की चिंता करती थी, तो वही मैं अपने वर्तमान में जीना चाहता था। उसके वजह से मेरा महंगे जगहों पे आना जाना बंद हो गया मेरे शौक पूरे होने बंद हो गए।

लगा जैसे की एक दुनिया से मेरा वास्ता खत्म होने लगा था जिसे मैं जीना चाहता था। मैं उसके बचत और साधारण आदतों से परेशान होता गया। जैसे-तैसे शादी के 5 साल पूरे हुए, हमारे 2 प्यारे बच्चे भी हुए, लेकिन वक़्त के साथ हमारी नोक-जोक और झगडे बढ़ते गए।

इसी बीच मेरे माता-पिता का निधन हो गया था और मेरे ऊपर से एक बना दवाब भी दूर हो गया था, मेरी मनमानी बढ़ती गयी। धीरे-धीरे मैं अपनी बीवी से कटने, दूर रहने का प्रयास करता रहता था। इधर मेरे ध्यान न देने से हमारा बिज़नेस भी ठप होने लगा, लगातार नुकसान होते गए, लेकिन मेरा ध्यान इस तरफ बिलकुल नहीं जा रहा था।

मैं अक्सर घर देर से लौटने लगा, कभी-कभी तो 2-3 दिन बाहर ही रहता। मैं अपनी बीवी का सामना करने और उसके उपदेशो से बचना चाहता था, मैं उससे झूठ बोलने लगा था। हमारी बातें भी बहुत कम होती थी। चीजे धीरे-धीरे बाद से बदतर होती गयी।

और जब सब खत्म हो गया, वो तारीख थी 6 अप्रैल 2017। उस दिन निशा का जन्मदिन था, और मैंने अपने दोस्तों को एक तगड़ी पार्टी देने का वादा किया था। मैंने ऑफिस से अपनी बीवी को कॉल करके अच्छे से तैयार रहने बोला था मॉडर्न तरीके से, एक गर्लफ्रेंड की तरह, जैसे मेरी दोस्त लोगों की बीवी रहती हैं।

मैंने उसे बोला की शाम के 7 बजे कहीं बाहर खाने ले जाऊंगा। बच्चो का मैंने उसे बोला की आज पड़ोसी के निगरानी में छोड़ दे। मैं ठीक समय पे घर पहुंच गया तो देखा की मेरी बीवी तैयार नहीं थी। मैं उस दिन कोई झगड़ा नहीं चाहता था और अपनी बीवी के जन्मदिन को ख़ास बनाना चाहता था।

मैंने पार्टी में अपने कई दोस्तों को भी बुलाया था, लेकिन सिर्फ नौजवान जोड़े आ सकते थे। मैं अपने दोस्तों में अपनी धाक बनाये रखना चाहता था। और इधर मैं पार्टी देके अपनी बीवी को भी खुश करना चाहता था, लेकिन परिणाम ठीक विपरीत हुआ। उसे मेरी तैयारी पसंद नहीं आयी। वो खुश होने के वजह उल्टा गुस्सा हो गयी और फिर हमारी लड़ाई शुरू।

वो बोली घर के बजट के अनुसार यही कुछ करते हैं। मैं खाना बना दूंगी, आप अपने दोस्तों को भी घर पे बुला लो। मैंने उसके जन्मदिन के लिए ही सब कुछ किया था और उससे ही लड़ना पड़ रहा था, मैं ये सोच के बहुत गुस्सा हो गया। मैंने उसे घर पे रहने बोला और गुस्से में, अकेले गाडी में बैठ के घर से निकल गया।

मैं अपने बुलाये दोस्तों को निराश नहीं करना चाहता था। मैंने अपनी बीवी-बच्चो को उन दोस्तों के लिए छोड़ दिया जो बाद में मेरा जिक्र तक नहीं करते। खैर उस वक़्त मैंने गुस्से में कार तेज़ी से होटल के तरफ ले जाने लगा और फिर’ आकाश बोला और गाड़ी रोक दी, फिर एक गहरी सांस लेके उसने अपनी नम होती आखें मली।

फिर क्या हुआ?’ निशा जिज्ञासावस पूछी।

‘आपका घर आ गया’ आकाश बोला।

‘क्या?’ निशा झट से बोली।

‘अरे मैडम! अपने बायें देखिये आपका घर आ गया है, अब उतरिये। शुभ रात्रि’ वो मुस्कुराते हुए बोला।

‘ओह। माफ़ करना मैं तो तुम्हारे कहानी में खो ही गयी थी। तुम तो मेरी सोच के एकदम विपरीत निकले। लेकिन ये कहानी तो अधूरी ही रह गयी और मुझे ये कहानी पूरी सुननी है।’ निशा ज़िद करते हुए बोली।

‘कुछ कहानियाँ हमेशा अधूरी ही रहती है मोहतरमा! हम उसे चाह कर भी पूरी नहीं कर पाते, ना बदल पाते हैं। ऐसी कहानियाँ, कुछ अनसुने-अनकहे लफ़्ज़ों में सिमटा हुआ, सुबकता-बुदबुदाता रहता है, और ऐसी कहानियाँ सुनी और समझी नहीं बल्कि महसूस की जाती है। खैर, अब आप अपने घर जाएँ’ आकाश गहरी साँस लेते हुए बोला।

निशा बेमन से गाडी से उतर गयी, उसने देखा की पड़ोसी का कुत्ता उन्हें देख कर जोर-जोर से भौंक रहा था, जैसे वो अपना बंधा रस्सी तोड़ देगा, तभी उसकी नज़र कार के अगले हिस्से पे पड़ी एक बड़े निशान पे पड़ी, वो चौंकते हुए बोली। ‘ये इतने सुन्दर गाड़ी में इतना बड़ा निशान कैसा? लगता है जैसे हाल में कोई हादसा हुआ हो’

‘हाँ! एक छोटे से हादसे का ही निशान है’ वो धीरे से बोला।

पड़ोसी सब बाहर ना आ जाएं, इसीलिए निशा ने भौंकते कुत्ते को पुचकारकर चुप करवाने का प्रयास करने लगी, तो देखा कुछ ही पलों में वो चुप हो गया। उसके चुप होते ही जब उसने पलटकर आकाश को देखा, तो देखा वहाँ कोई नहीं था। ये सब देख निशा को थोड़ा अजीब लगा। एक अजीब सी ख़ामोशी चारों और फैल गयी थी।

वो दो कदम आगे ही बढ़ी थी की आकाश के आखिरी कहे शब्द से वो अचानक ठिठक कर रुक गयी। उसके चेहरे के भाव जैसे बदलने लगे, कुछ अनकहे बातों ने उसे बहुत कुछ सोचने पे विवस कर दिया था। झींगुरों की आवाज़ और गहराते रात के सन्नाटे में, उसके दिमाग में कई सारे सवाल घूमने लगे।

स्वीटी और वो अजनबी? कार हादसा और गाड़ी का निशान? मेरी बाई और उसकी बीवी? उसकी बातें, उसके भाव, उसका मेरा ख्याल रखना और अपने गाड़ी में मुझे घर तक छोड़ना ताकि स्वीटी जल्दी घर पहुंच सके और सब खुश रहे? 2 कहानियाँ और मैं? क्या सब आपस में जुड़े हुए हैं? और वो, जो कुछ देर पहले मेरे साथ था वो कौन था? पछतावा के आँसू रोता एक बेबस इंसान या एक मददगार रूह?

वो कुछ पलों तक रूककर सोचती रही फिर अचानक मुस्कुरा पड़ी, उसके चेहरे पे उमड़ते भावों से लग रहा था, जैसे उसने कोई बड़ी उपलब्धि पायी हो, लगा जैसे उसके तन-बदन में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ हो, वो ख़ुशी से गाना गुनगुनाते और झूमते हुए अपने घर के तरफ बढ़ी।

फिर वहाँ जाके उसने घर का कॉल-बेल बजायी तो उसके बाई ने दरवाज़ा खोला। दरवाजा खुलते ही उसने झट से ख़ुशी में कसकर उसे गले लगा लिया।

‘अरे मैडम आप इतनी जल्दी आ गयी। क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?’ स्वीटी मुस्कुराते हुए आश्चर्यचकित होकर पूछी।

‘सब ठीक है, और अब हमारे साथ सब अच्छा ही होगा, हम बहनें कल बात करते हैं, अभी तुम जल्दी से अपने घर जाओ और ये खीर और केक बच्चों को खिलाना, वो खुश हो जायेंगे’ निशा मुस्कुराकर खीर का टिफ़िन और केक का डब्बा देकर उसे विदा करते हुए बोली।

‘हाँ मैडम वो बहुत खुश होंगे। शुक्रिया। अब आप घर अंदर से बंद कर लीजिये, मैं कल सुबह आती हूँ, शुभ रात्रि’ वो मुस्कुराकर बोली।

‘शुभ रात्रि, स्वीटी’

©  श्री दिव्यांशु शेखर 

दिल्ली

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “ कारण। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 ☆

☆ कारण ☆

 “लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”

इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर !  वहाँ  चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद  है !” अनीता ने कहा, ”  यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे । और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे । मोबाइल पर कुछ देखेंगे ।”

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,”  अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकुँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, “तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि  तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आँख से आँसू निकल गए, “घर जा कर सास की जली कटी बातें सुनने से अच्छा है यहाँ सुकून के दो चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 67 – कन्याभोज ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “कन्याभोज।  निश्चित ही धर्मकर्म और भेदभाव से ऊपर निश्छल हृदय और भावनाएं होती हैं / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 67 ☆

☆ लघुकथा – कन्याभोज ☆

कल्लो बाई एक बड़े सेठ मारवाड़ी के यहाँ घर का सारा काम करती थी। यूँ कह लीजिए कि सभी कल्लो बाई की टेर लगाते रहते थे।

सफाई, बर्तन, कपड़े और बाजार से क्या लाना है, धोबी के यहाँ कपड़े कितने गए, सभी का हिसाब कल्लो बाई के पास होता था। कभी- कभी घर में मेम साहिबाओं के सिर में तेल लगाने का भी काम बड़े प्रेम से कर दिया करती थी। बदले में कुछ ज्यादा पैसे मिल जाते थे। जिससे उसकी अपनी  बिटिया का शौक पूरा करती थी।

अपनी बेटी रानी को बहुत  प्यार से रखी थी। ईश्वर का रुप मानती थी। गरीबी से दूर रखना चाहती थी। पर गरीबी के कारण कुछ कर नहीं पाती थी।

छोटा सा झोपड़पट्टी का घर नशे की आदत से पति का देहांत हो चुका था।

नवरात्रि की नवमीं के दिन सेठ जी के यहां कन्या भोज का आयोजन था। कल्लो की बिटिया भी जिद्द कर उसके साथ वहाँ चली गई।

मोहल्ले में घूम-घूम कर कल्लो ने अपने सेठ जी के घर के लिए कन्याएं एकत्रित किए।

परंतु उनके घर से किसी ने भी उनकी नन्हीं सी बिटिया को नहीं देखा। किसी ने कहा भी तो घर की महिलाएं बोली… उसको गिनती में नहीं लेंगे उसको अलग से प्रसाद दे दिया जाएगा।

कन्याओं का पूजन कर भोजन कराया गया। बच्ची देखती रही और अपनी माँ से पूछा… मुझे क्यों नहीं बिठाया जा रहा। इनके साथ क्या मैं कन्या नहीं हूँ ?? क्या? मैं इन से अलग बनी हूँ । मां के पास कोई जवाब नहीं था। आंखों से अश्रु की धार बह निकली और बस इतना ही बोली… हम लोग गरीब है।

कन्या भोजन के बाद घर की महिलाओं ने बचा हुआ और थोड़ा सा प्रसाद मिलाकर बाँधकर थाली में जो कुछ छूट गया था उसकी लड़की को देकर कहा यह ले जाओ घर में खा लेना।

बच्ची ने झट पकड़ लिया। माँ काम निपटा कर अपनी बेटी को लेकर घर आई और वह प्रसाद  घर के बाहर दरवाजे पर रखकर चली आई।

घर आकर साफ-सुथरा भोजन बनाकर वह अपनी बिटिया को पटे पर बिठा माँ  ने पूजन कर तिलक लगा आरती उतार कहने लगी… मैं अपनी कन्या का पूजन खुद करुँगी । इतने भीड़ में मेरी कन्या का पूजन अच्छा थोड़ी होगा।

बिटिया भी समझदार थी दुर्गा की कहानियाँ हानियां टी वी से देखती सुनती और समझती  थी। शक्ति का अवतार माँ भगवती दुर्गा नारी शक्ति माँ ही होती है। उसने अपनी माँ  को अपने पास बुला कर बिठाया और तिलक लगाकर बोली माँ मेरी रक्षा के लिए आपकी पूजन होना बहुत जरूरी है।

दोनो माँ बेटी की इस तरह की बातों को सेठ जी के घर से उनका लड़का जो सामान देने घर आया हुआ था देख रहा था।  वह अत्यन्त अत्यंत भावुक उठा और हाथ जोड़कर बोला….. सच में यही कन्या पूजन और यही शक्ति पूजन है। जाने अनजाने हमारे घर वालों से बहुत बड़ी गलती हुई हैं। मैं घर जाकर अभी सभी को बताता हूं। और भाव विभोर हो घर की ओर बढ़ चला।

माँ और बिटिया प्रसन्नता पूर्वक अपना प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। सच में आज मां शक्ति और कन्या भोज दोनों का पूजन एक साथ हो रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – और रावण रह गया ☆ श्री राघवेंद्र दुबे

श्री राघवेंद्र दुबे

(ई- अभिव्यक्ति पर श्री राघवेंद्र दुबे जी का हार्दिक स्वागत है।  विजयादशमी पर्व पर आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा  “और रावण रह गया .)

☆ लघुकथा – और रावण रह गया ☆ 

एक बड़े नगर के बड़े भारी दशहरा मैदान में काफी भीड़ थी. लोगों के रेले के रेले चले आ रहे थे. आज रावण दहन होने वाला था. रावण भी काफी विशाल बनाया गया था.

ठीक रावण जलाने के वक्त पुतले में से एक आवाज आयी  ” मुझे वही आदमी जलाये जिस में राम का कम से कम एक गुण अवश्य हो। भीड़ में खलबली मच गई। तरह-तरह की आवाजें उभरने लगी। लेकिन थोड़ी देर बाद वातावरण पूर्ण शांत हो गया। कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।

रावण ने आश्चर्य से नजरें झुका कर नीचे देखा तो मैदान में कोई नहीं था।

©  श्री राघवेंद्र दुबे

इंदौर

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  का विजयादशमी पर्व पर एक विशेष लघुकथा  ” रावण दहन “। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆

दशहरे के दूसरे दिन सुबह चाय की चुस्कियों के साथ रामनाथ जी ने अखबार खोल कर पढना आरंभ किया। दूसरे ही पृष्ठ  पर एक बडे शहर में कुछ व्यक्तियों के द्वारा एक अवयस्क लडकी के  सामूहिक शीलहरण का समाचार बडे से शीर्षक  के साथ दिखाई दिया। पूरा पढने के बाद उनका मन जाने कैसा हो आया। दृष्टि  हटाकर आगे के पृष्ठ  पलटे तो एक  पृष्ठ पर समाचार छपा दिखा – नन्हीं नातिन के साथ नाना ने धर्म की शिक्षा देने के बहाने शारीरिक हमला किया, गुस्से के मारे वह पृष्ठ बदला ही था कि चौथे पन्ने पर बाॅक्स में समाचार छपा था – एक बडे नेता को लडकियों की तस्करी के आरोप में पुलिस ने दबोचा। वाह रे भारतवर्ष !! कहते हुये वे अगले पृष्ठ को पढ रहे थे कि रंगीन फोटो सहित समाचार सामने पड़ गया – मुंबई पुलिस ने छापा मार कर फिल्म जगत की बडी हस्तियों को गहरे नशे  की हालत में अशालीन अवस्था में गिरफ्तार किया- हे राम, हे राम कहकर आगे नजर दौडाई कि स्थानीय जिले का समाचार दिखाई दिया, नगर में एक बूढे दंपति को पैसों के लिये नौकर ने मार दिया और नगदी लेकर भाग गया। यह पढकर वे कुछ देर डरे रहे फिर लंबी सांस भर कर अखबार में नजर गड़ा दी। सातवें पृष्ठ का समाचार पढ कर उन्हें अपने युवा पोते का स्मरण हो आया, लिखा था- राजधानी में चंद पैसों और मौज-मस्ती के लिये युवा छात्र चेन झपटने, और मोटरसायकिल चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा पकडे गये । इन युवाओं के आतंक की गतिविधियों में जुडे होने का संदेह भी व्यक्त किया गया था।

अंतिम पृष्ठ पर दशहरे पर रावण दहन की अनेक तस्वीरें छपी थीं जिन्हें देखकर रामनाथ सोचने लगे कि कल हमने किसे जलाया ????

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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