हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ आत्म साक्षात्कार : हम को हमीं से चुरा लो… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।

आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम व्यंग्य ‘आत्म साक्षात्कार : हम को हमीं से चुरा लो…’।)

 ☆ व्यंग्य ☆ आत्म साक्षात्कार : हम को हमीं से चुरा लो… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

31 अगस्त 2022 की अर्धरात्रि को रात्रि के बारह बजते ही हमारी पुरसुकून निद्रा में भांजी मारने हमारा हम (जिसे मैं आगे ‘प्रतिच्छाया हम’ लिखूंगा) हमारे ख्वाबों में आकर खड़ा हो गया। 31 तारीख अलविदा हो चुकी थी और हमारी जन्म की तिथि एक सितम्बर का आगमन हो चुका था। उस शुभ घड़ी में मेरा हम मेरी काया की प्रतिच्छाया के रूप में मेरे सम्मुख  था।

लिहाजा, हम को हमीं से चुरा लो गीत की तर्ज पर हम के द्वारा ‘हम’ से लिया इंटरव्यू प्रस्तुत किए दे रहा हूं। हम दोनों में जो तीखी तकरार हुई, उसका लुत्फ़ लीजिए है-

हम(प्रतिच्छाया)- तुम लेखक ही क्यों भए…और कुछ क्यों न?

हम- हमारा जनम गणेश चतुर्थी के दिन हुआ था, चित्रा नक्षत्र में। सो पिताश्री ने नामकरण किया गजानन। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘सा एशा गणेश विद्या’ (यह वह विद्या है जिसे गणेश जानते हैं) और वह विद्या लिपि ही है। महाभारत के लेखन के लिए व्यासजी, गणेश जी का स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक’। हे गणनायक! आप भारत ग्रंथ के लेखक हों।

गणनायक अर्थात् गणपति …जिसने वैदिक ऋषियों के अनुग्रह पर वायु में विलीन हो रहे स्वरों और व्यंजनों को सर्वप्रथम आकृति प्रदान की और विश्व के प्रथम लेखक बने। उसी परंपरा का अनुशीलन करते हुए यह अकिंचन गजानन भी लेखकीय कर्म में अनुरत हुआ।

तुम्हारे प्रश्न दूसरा तर्कसम्मत उत्तर और देता हूं कि पिता ने गजानन नामकरण क्यों किया? हमारे थोबड़े पर पोंगड़ा सी नासिका तथा सूप सरीखे कर्ण भी गजमुखी होने का आभास कराते थे, सो ‘गज-आनन’ रखा।

हम(प्रतिच्छाया)- मगर, व्यंग्यकार ही क्यों हुए, कथाकार भी तो हो सकते थे?

हम- अय…मेरे हमसाए! अब, इसका उत्तर भी सुन। पंडितजी ने जब जन्मकुंडली हेतु मत्था मारा तो नाम निकला- प्रेमचंद। मुझे लगता है कि कदाचित पिताजी उस नाम पर बिचक गए थे। शायद उन्होंने प्रेमचंदजी की फटे जूते वाली तस्वीर देख ली होगी सो घबरा कर, कन्या राशिषन्तर्गत संशोधित नाम रखा-प्रभाशंकर। इस प्रकार हम कहानीकार होते होते रह गए।

हम(प्रतिच्छाया)- वाह गुरू! प्रेमचंद नाम होने से ही हर कोई कथाकार हो जाता है और प्रभाशंकर होने से व्यंग्यकार? बात हजम नहीं हुई।

हम- तुमने गुरू ही बोल दिया है तो तर्क-ए-हाजमा भी हम ही देते हैं। ध्यान देकर सुनो। हम हैं, प्रभाशंकर। संधि विच्छेद हुआ प्रभा$शंकर। भगवान शिव के पास तीन नेत्र हैं बोलो…हैं कि नहीं? और जब जगत में भय, विद्रुपताएं, अनाचार आदि बढ जाते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता है। हम भी त्रिलोचन की वही ‘प्रभा’ हैं। सांसारिक दो नेत्रों से विसंगतियों, विषमताओं, अत्याचारों और टुच्चेपन को निरखते हैं तथा अपनी ‘प्रभा’ से उन पर प्रहार करते हैं। बोलो सांचे दरबार की जय…।

हम(प्रतिच्छाया)- तुम कुतर्क कर रहे हो दोस्त! पर हमारे पास तुम्हारे इस कुतर्क को मानने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं। खैर, यह बताओ कि व्यंग्य लेखन में तुमने कोई बड़ा तीर मारा  या अभी तक सिर्फ भांजी ही मार रहे हो?

हम- भांजी मारना सबसे आसान काम है, प्यारे! आजकल, अधिकांश व्यंग्य लेखक यही कर रहे हैं और यह खाकसार भी इसी में रत है। देखो डियर, ये प्रभाशंकर इस मुगालते में कतई नहीं हैं कि वह हरिशंकर, शरद, त्यागी या शुक्ल बन जाएगा। अरे, यह कलमघिस्सू तो ज्ञान और प्रेम भी नहीं बन सका। अलबत्ता, क्रोध स्वरूप दुर्वासा अवश्य बन सकता था किन्तु आज कल के महात्मनों के पास श्राप-पॉवर नहीं है सो कलमकार बन कर अपना क्रोध कागजों पर उतारने लगा। कुछ संपादक दया के सागर होकर छाप देते हैं सो अपुन दुकान चल निकली है।

हम(प्रतिच्छाया)- यूं ही यत्र-तत्र छपते रहे या कोई किताब-शिताब भी लिखी?

हम- तुमने हमारी दुखती रग पर दोहत्थड़ मार दिया है, दोस्त! कहने को तीन पुस्तकें हैं किन्तु कोई पढता नहीं उन्हें। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने सूपड़ा साफ कर दिया है। किताबें जो हैं, मरी मरी सी जी रही हैं सोचती होंगी कि यह जीना भी कोई जीना है लल्लू?

हम(प्रतिच्छाया)- जैसी भी हैं, उनके नाम तो बता दीजिए?

हम- ए..लो..तुमसे भी कोई बात छिपी है, ब्रदर! यूं भी हिन्दी लेखक के पास छिपाने को अपना कुछ होता नहीं है। कुछ अरसा पहले लेखकों की चाहने वालियां हुआ करती थीं। उनके खतो-खतूत की खुश्बू में लेखक महीनों डूबता-उतराता रहता था पर अब तो वह भी नहीं। अब मामला खुली किताब सा है। फिर भी तुमने नाम पूछे हैं तो बताए देते हैं- ‘नाश्ता मंत्री का गरीब के घर’(1997), ‘काग के भाग बड़े’(2009), ‘बेहतरीन व्यंग्य’(2019)।

हम(प्रतिच्छाया)- मान गए गुरू, तीसरे संकलन का टाइटल ही बेहतरीन व्यंग्य है। इसमें सब बेहतर ही बेहतर होगा?

हम- मां बदौलत, किताब का टाइटल ही बेहतर है, वह भी प्रकाशक की बदौलत बाकी सब खैर सल्ला…।

हम(प्रतिच्छाया)- तुम्हें व्यंग्य में तलवार भांजते हुए तीन दशक से ऊपर हो गए और सिर्फ तीन पुस्तकें। तीसरी में भी अधिसंख्य पूर्व के दो संग्रहों से छांटे हुए हैं। बहुत बेइंसाफी है, यह। लोग तो एक साल में ही 25-25 निकाले दे रहे हैं। अब, तुम चुक गए हो उस्ताद!

हम- तुमने उस्ताद कहा है तो यह मान भी लो कि उस्ताद चुक कर भी नहीं चुकता। वह इंटरव्यू देता है जैसे हम तुम्हें दे रहे हैं। उस्ताद पुरस्कार हथियाता है। उस्ताद मठ बनाता है।

हम(प्रतिच्छाया)- वाह! भाईजान! इंशाअल्ला, तुमने भी पुरस्कार हड़पे और मठ बनाए होंगे….बोलो हां।

हम- नो कमेंट।

इतना सुनते ही हमारी प्रेतछाया विलीन होकर अपने ठौर पर जा टिकी।

© प्रभाशंकर उपाध्याय

सम्पर्क : 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

मो. 9414045857, 8178295268

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 147 ⇒ ड ऽऽ र और भय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “ड ऽऽ र और भय “।)

?अभी अभी # 147 ⇒ ड ऽऽ र और भय? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

कैसी कैसी जोड़ी बनाई है भगवान ने, राम और श्याम और जय वीरू की जोड़ी तो ठीक, डर और भय की भी जोड़ी। दोनों बिलकुल जुड़वा लगते हैं, हूबहू डिट्टो एक जैसे, शक्ल सूरत से रंगा बिल्ला माफिक, डरावने और भयंकर।

अजी साहब छोड़िए, सब आपका मन का वहम है, डर और भय की तो कोई शक्ल ही नहीं होती। जंगल मे

अकेले जाओ तो डर लगता है, चिड़ियाघर में कितना मजा आता है। जब तक हम सुरक्षित हैं, निडर और निर्भय हैं, जहां किसी ने सिर्फ बोला सांप, बस हो गया कबाड़ा। भय का सांप अथवा सांप का भय तो हमारे अंदर बैठा है।

कहीं डंडे का डर तो कहीं बंदूक का डर, बेचारे बेजुबान जानवर को भी हम चाबुक से डराते हैं।

वाह रे सर्कस के शेर।।

इतना बड़ा शब्दकोश आखिर बना कैसे ! क्या कम से कम शब्दों से काम नहीं लिया जा सकता, प्यार मोहब्बत, लाड़ प्यार ! बच्चे को लाड़ मत करो प्यार ही कर लो। हटो जी, ऐसा भी कभी होता है। क्या एक भगवान शब्द से आपका काम चल जाता है। इतने देवी देवता, एक दो से ही क्यों नहीं काम चला लेते।

हर शब्द के पीछे एक अर्थ छुपा होता है। आपको डरावने सपने आते हैं, आपकी नींद खुल जाती है, अरे यह तो सपना था, कोई डर की बात नहीं ! आपके अवचेतन में भय के संस्कार है, इसीलिए तो डरावने सपने आते हैं। छोटे छोटे बच्चे नींद में चमक जाते हैं, एकदम रोना शुरू कर देते हैं, उनके सिरहाने चाकू रखा जाता है। चाकू सुरक्षा कवच है और गंडा तावीज भी। मानो या ना मानो।।

डर से ही डरावना शब्द बना है, और भय से भयंकर ! जगह जगह भयंकर सड़क दुर्घटना की खबरें मन को व्यथित कर देती हैं। कुछ लोग इतनी तेज गाड़ी चलाते हैं भाई साहब, कि उनके साथ तो बैठने में भी डर लगता है।

खतरों से खेलना कोई समझदारी नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

हमें बचपन से ही डराया गया है, कभी भूत से तो कभी बाबा से ! आजकल के बच्चे भूत से नहीं डरते, क्योंकि वे ब्ल्यू व्हेल जैसे खेल खेलते हैं। अब हम बाबाओं से डरते नहीं, उनसे ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं। वे भी हमें ज्ञान बांटते हैं, भगवान से डरो।।

पढ़ने से कैसा डरना, लेकिन सबक याद नहीं होने पर मास्टरजी की छड़ी से तो डर लगता ही था। कहीं परीक्षा का डर तो कहीं साइंस मैथ्स का डर। हमारे गणित का डर तो अभ्यंकर सर भी दूर नहीं कर पाए।

कोई अमर नहीं, हमारा शरीर नश्वर है, फिर भी कोई मरना नहीं चाहता। शुभ शुभ बोलो। मरने की बात अपनी जुबान पर ही मत लाओ, क्योंकि हम सबको मृत्यु का भय है। हम नचिकेता नहीं जो यम की छाती पर जाकर खड़े हो जाएं।।

क्या आपको नहीं लगता, ये डर और भय और कोई नहीं, जय विजय ही हैं। मैं आपको जय विजय की कथा नहीं सुनाऊंगा, लेकिन ये कभी वैकुंठ के द्वारपाल थे, बेचारे शापग्रस्त हो गए और आसुरी शक्ति बने भगवान विष्णु को फिर भी नहीं छोड़ रहे। कभी रावण कुंभकर्ण तो कभी कंस शिशुपाल। आज के हिटलर स्टालिन भी शायद ये ही हों।

डर और भय ही कलयुग के जय विजय हैं। अगर आपने इन पर काबू पा लिया तो समझो आपका स्वर्ग का नहीं, वैकुंठ का टिकिट कट गया, यानी आप जन्म मृत्यु के चक्कर से बाहर निकल गए।।

ये सब कहने की बातें हैं। क्या आपको आज के हालात से डर नहीं लगता। क्या आप नहीं चाहते, लोग निडर होकर चैन की नींद सोएं। इसलिए हमें हमेशा जागरूक रहना होगा, खतरा देश के बाहर से भी है और अंदर भी। हमें देश की, संविधान की और लोकतंत्र की रक्षा करनी है।

हम पहले लोगों को भयमुक्त वातावरण देंगे और बाद में अपने अंदर के जय विजय यानी डर और भय को भी देख लेंगे। आखिर इतनी जल्दी भी क्या है। सुना है नेटफ्लेक्स पर कोई बढ़िया हॉरर मूवी लगी है, मजेदार है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 205 ☆ व्यंग्य – “गुरु वंदना में अंगूठा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “गुरु वंदना में अंगूठा…)

☆ व्यंग्य  ☆ शिक्षक दिवस की पूर्व वेला में – ‘गुरु वंदना में अंगूठा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तीन चार दिन से रात की नींद गायब है, रिटायर होने के बाद कितना निरीह, कितना अकेला, कितना डरपोंक हो जाता है आदमी। इतने सालों से कहीं एसडीएम, कहीं कलेक्टर रहा, कहीं कमिश्नर रहा, कभी एक्साइज कमिश्नर रहा दिलेरी से दादागिरी करते हुए कभी ऐसा डर नहीं लगा जैसा पिछले तीन चार दिनों से लग रहा है।

घरवाली भी परेशान है और पूछ रही है कि तीन- चार दिनों से ऐसे डरे डरे मनहूस से क्यों लग रहे हो ? बता दोगे तो थोड़े राहत मिल जाएगी नहीं तो अंदर अंदर घुटने से हार्टफेल के केस ज्यादा बढ़ रहे हैं। हार्टफेल का नाम सुनकर सीने के नीचे खलबली सी मचने लगी है, शरीर पसीने से तरबतर हो गया, अभी तक अंदर अंदर डर से परेशान था अब पत्नी ने हार्टफेल का नाम ले दिया तो लगने लगा है कि बस अब जान जाने वाली है।

पत्नी सीने के ऊपर कान लगा लगाकर कह रही है ऐसा लग रहा है कि सीने के नीचे ट्रेन गुजर रही है। पत्नी घबरा जाती है कहती है अंदर क्या छुपा रखा है अभी बता दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। पत्नी नहीं मानी तो बताना ही पड़ा, सुनो, दरअसल हमारे स्कूल वाले बहुत सालों से 5 सितम्बर को या आसपास के रविवार को गुरुवंदन समारोह मनाते हैं अपने बैच मैं जुगाड़बाजी और चमचागिरी में सबसे तेज था तो वो गुण सब जगह काम आया और मैं सबसे ऊंचे पद पर पहुंच गया। शीर्ष पद से रिटायर हुआ तो उन्होंने मुझे मुख्य अतिथि बनाने का निर्णय लिया और दस दिन पहले हमसे स्वीकृति भी ले ली, कार्ड, स्मारिका वगैरह सब छपवा लिए।

पत्नी – ये तो बहुत गर्व की बात है, ऐसा मौका सबको कहां मिलता है, आप तो बहुत भाग्यशाली हैं। फिर परेशान क्यों हो रहे हैं, डर किस बात का है जो तीन चार दिन से सो भी नहीं पा रहे हो ?

सुनो तो…. पता चला है कि ये गुरु वंदन समारोह करने वाले बहुत चालाक हैं, अपने नाम और फोटो छपवाने और पैसे इकट्ठा करने के लिए हर साल ये नित नए प्रयोग करते रहते हैं जिससे ये लोग मीडिया में छा जाएं, एक मित्र ने चुपके से खबर दी है कि इस बार के गुरू वंदन समारोह में ये लोग मुख्य अतिथि का अंगूठा काटकर 100 साल उम्र के गुरू जी को देने वाले हैं। आजकल मोबाइल में लाइव दिखाने की सुविधा है ही, सुनने में आया है कि इन लोगों ने चुपके चुपके प्रचारित किया है कि इस बार के मुख्य अतिथि की इच्छा है कि वे अपने पुराने गुरुजी को अपना अंगूठा भेंट करेंगे, मीडिया की त्योरियां चढ़ गईं हैं।

पत्नी – बड़े क्रूर हैं वे लोग…

सुनो न, आप तो तेज तर्रार खूंखार कलेक्टर रहे हो, पुलिस को पहले से खबर कर दो।

— यार तुम समझती नहीं हो फिरी में बहुत बदनामी हो जाएगी, और मुख्य अतिथि बनने का सुख भी नहीं भोगने मिलेगा क्योंकि ये पुलिस वाले चुपके से सब कुछ मीडिया वालों को बता देते हैं, गुरु वंदन समारोह के दिन सुबह से अखबार में आ गया तो 5 सितम्बर वाला गुरु शिष्य परंपरा का दिन बदनाम हो जाएगा।

पत्नी – फिर एक काम करो आपको घबराहट तो हो ही रही है, अंगूठा कटने का डर भी लग रहा है तो ज्यादा अच्छा है कि दो चार दिन के लिए अस्पताल में भर्ती हो जाएं, ‘सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी’ …. 5 सितम्बर को बहुत लोग आपसे आशीर्वाद लेने अस्पताल भी आएंगे, अखबारों में भी आपका नाम हो जाएगा और अंगूठा काटने का आयोजकों का प्लान भी फेल हो जाएगा।

— पर उन्होंने अचानक किसी और को मुख्य अतिथि की कुर्सी में बैठा दिया और उसका भरपूर सम्मान किया तो …. ‘दोनो दीन से गये पाणे, हलुआ मिले न माणे’ जैसी बात हो जाएगी।

पत्नी – फिर एक काम करो, अंदर के डर को खतम करो और चुपचाप सो जाओ, जब 5 सितम्बर आएगा तब देखेंगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #208 ☆ व्यंग्य – एक ‘सम्मानपूर्ण’ सम्मान की ख़त-किताबत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है  आपका एक अति सुंदर व्यंग्य ‘एक ‘सम्मानपूर्ण’ सम्मान की ख़त-किताबत ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 208 ☆
☆ व्यंग्य – एक ‘सम्मानपूर्ण’ सम्मान की ख़त-किताबत

सम्मान की सूचना का पत्र

प्रिय ज़ख्मी जी,

जैसा कि सर्वविदित है, हमारी संस्था ‘सम्मान उलीचक संघ’ प्रति वर्ष इक्कीस लेखकों/ कलाकारों को सम्मानित करती है। इस वर्ष के सम्मान के लिए हमारे द्वारा पूर्व में सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय कवि बचईराम ने आपके नाम की सिफारिश की है। उनको आपका गज़ल संग्रह ‘रोती गज़लें’ बहुत पसन्द आया है। कहते हैं कि उस किताब ने उनको इतना रुलाया है कि अब उसके कवर को देखकर ही उन्हें रोना आ जाता है। आप तत्काल अपना आठ-दस लाइन का बायोडाटा भेज दें। ज़्यादा लंबा न खींचें, अन्यथा हमें छाँटना पड़ेगा।

हम यह बताना ज़रूरी समझते हैं कि सम्मान के लिए आने जाने का भाड़ा आपको स्वयं वहन करना होगा। संस्था इसमें कोई सहयोग नहीं करेगी। भोजन-आवास की व्यवस्था भी स्वयं ही करना होगी। हमारा जिम्मा सिर्फ स्टेज पर आपको सम्मानित करने का होगा।

अगर आप आगे के वर्षों में भी सम्मानित होना चाहें तो संस्था को कम से कम दस हजार रुपया सहयोग-राशि देकर अपना स्थान आरक्षित करा सकते हैं।

फिलहाल आप एक हफ्ते के भीतर संस्था के खाते में ₹500 जमा करके इस वर्ष के लिए अपना पंजीकरण करा लें। सम्मान की तिथि और स्थान की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी।

भवदीय

खैरातीलाल

अध्यक्ष

सम्मान के लाभार्थी का जवाब

आदरणीय खैरातीलाल जी,

चरण स्पर्श। प्रणाम।

आपकी संस्था के द्वारा सम्मान का प्रस्ताव पाकर मेरे आनन्द का पारावार नहीं है। आपका प्रस्ताव सर आँखों पर। मेरा ऐसा मानना है कि सम्मान बड़े भाग्य वालों को मिलता है और वह पूर्व जन्म के संचित सुकर्मों का सुफल होता है।

मैंने आपके द्वारा प्रस्तावित सम्मान की सूचना सभी मित्रों-रिश्तेदारों में प्रसारित कर दी है। फेसबुक में भी डाल दी है ताकि मेरे विरोधी पढ़कर जल मरें।

आप मेरे आने-जाने, रुकने-टिकने की चिन्ता न करें। वह सब मैं स्वयं वहन करूँगा। सम्मान के सामने यह सब तुच्छ है। रात भर स्टेशन के मुसाफिरखाने में पड़ा रहूँगा और वहीं कहीं ढाबे में भोजन कर लूँगा। अगर आसपास कोई गुरुद्वारा हो तो वही लंगर छक लूँगा। पिछले सम्मान में तो मैं संस्था के अध्यक्ष के दुआरे पर ही दरी बिछाकर लंबा हो गया था। वह सम्मान बार बार याद आता है। वैसे सच कहूँ तो सम्मान की खबर पाकर मेरी भूख-नींद गायब हो जाती है।

अगले साल के सम्मान के आरक्षण के लिए दस हजार की राशि भी लेता आऊँगा। एक दो मित्र भी अपने सम्मान के लिए आरक्षण कराना चाहते हैं। अगर उन्होंने रकम दे दी तो लेता आऊँगा। पाँच सौ की राशि आपका सन्देश मिलते ही भेज दी थी।

कृपा और स्नेह बनाये रखें,और इसी तरह लेखकों की हौसला अफज़ाई और इज़्ज़त अफज़ाई करते रहें।

विनीत

प्रीतमलाल ‘ज़ख्मी’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 165 ☆ वृन्त से झर कर कुसुम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना वृन्त से झर कर कुसुम। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 165 ☆

☆ वृन्त से झर कर कुसुम… ☆

हार तो हार होती है, पर यदि सही चिंतन किया जाय तो ये हार हार में बदल कर आपके गले की शोभा बनेगी। आवश्यकता है, तो केवल सकारात्मक दृष्टिकोण की अपनी असफलताओं से विचलित होने के बजाए ये सोचना चाहिए कि हम किस बिंदु पर कमजोर हैं, कहाँ सुधार किया जाना चाहिए।

हार से उदास होकर या जीत से खुश होकर जो लोग चुपचाप बैठे जाते हैं, उनकी सफलता का ग्राफ वहीं रुक जाता है। अतः जिस तरह दिन- रात का क्रम अनवरत चलता रहता है, ठीक उसी प्रकार आपकी कर्म गति भी निरंतर चलती रहनी चाहिए। सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण प्रकृति के चक्र का एक हिस्सा हैं, पर ये कभी दिन- रात की प्रक्रिया में बाधक नहीं बनते। पूरे दृढ़ निश्चय के साथ अपने कार्यों को करते रहें एक न एक दिन मंजिल आपके कदमों में होगी और लक्ष्य आपके माथे का गौरव बन आपके उज्ज्वल भविष्य की राह प्रशस्त करेगा।

हिम्मत से करना सदा, जीवन में सब काज।

राहें गर हों सत्य की, मुश्किल नहीं सुकाज। ।

अक्सर ऐसा होता है, आप किसी के लिए लड़ रहे होते हैं परन्तु लोग आपको ही दोषी बना देते हैं, यहाँ तक कि उस व्यक्ति के भी आप अपराधी बन जाते हैं, तो इस स्थिति में क्या हम नेकी करना छोड़ दें, जो सच है उसका साथ न दें, देखकर भी अनजान बने, स्वविवेक को भूल केवल नजरें झुका कर अपना दायित्व निर्वाह करें…?

 ये सब बहुत ही साधारण से प्रश्न हैं जिनसे लगभग सभी व्यक्तियों को आये दिन गुजरना पड़ता है, कुछ तो टूट कर राह बदल लेते हैं, कुछ मौन हो अपना कार्य करते रहते हैं, कुछ अपमान की आग में जलते हुए बदला लेने की फ़िराक में रहते हैं।

 इनमें से आप कौन हैं ?ये तय करें फिर पूरी दृढ़ता से अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्धता रखते हुए सफलता की सीढ़ी को देखें और लोग क्या कहेंगे, करेंगे या सोचेंगे इसे भूल कर अपना अस्तित्व तलाशें, इस मानव जन्म को सार्थक करें। अपने भविष्य के निर्माता आप स्वयं हैं इसलिए केवल लक्ष्य देखें मान अपमान से परे जाकर।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ “डंकोत्सव का आयोजन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ “डंकोत्सव का आयोजन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

मैंने अपनी सगी सहेली ? “”ख्याति” से कहा–यार मुझे “डंका”” शब्द बहुत भाता है। बहुत प्यार है इससे। उच्चारण करते ही लगता है कि इसकी गूँज ब्रह्माण्डव्यापी हो गई है और सारी ध्वनियां इसमें समा गई हैं। शब्द में भारी वज़न है।

अब देखो ना, इसमें से “आ” की मात्रा माइनस कर दो तो बन जाता है “डंक”। बिच्छू और ततैया ही नहीं डंक तो कोई भी मार सकता है।

“जो डंकीले हैं वो डंकियाते रहते हैं।”  उन्हें इस पराक्रम से कौन रोक सकता है भला। और हां डंक शब्द का एक अर्थ “निब” भी तो होता है।

ख्याति छूटते ही बोली– ये प्यार व्यार सब फालतू बाते हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होता। बस बजाना आना चाहिए।

—- पर मुझे तो नहीं आता। डंकावादकों की तर्ज पर कोशिश तो की थी पर नतीजा सिफर। मेरे प्यार को तुम प्लेटोनिक लव जैसा कुछ कुछ कह सकती हो।

—- सर्च करो रानी साहिबा– बजाना सिखानेवाली क्लासेस गली गली मिल जायेंगी। वह भी निःशुल्क।

— ऐसा क्यों ?

— क्योंकि यह राष्ट्रीय उद्यम है। जो देशभक्त है, वही डंका बजाने की ट्रेनिंग लेता है। सारा मीडिया अहोरात्र डंका बजाने में मशगूल है। बात सिर्फ इतनी सी है कि डंका बजाओ या बजवाओ। दोनों ही सूरत में ध्वनि का प्रसारण होना है। किसी में तो महारत हो।एक तुम हो “जीरो बटा सन्नाटा।”

चलो मैं तुम्हें विकल्प देती हूं। डंका नहीं तो “ढोल ” बजाओ !

— ‘ख्याति मुझे ढोल शब्द से सख्त नफरत है। कितना बेडौल शब्द है। अव्वल तो पहला अक्षर “ढ” है। मराठी में, बोलचाल में ढ यानी गधा।

—- ठीक है बाबा। ढोल नहीं तो डंका पीटो पर तबीयत से पीटो। फिर भी पीटना न आये तो पीटनेवाले या पिटवानेवाले की व्यवस्था करो।और रही बात डंके की कीमत तो इतनी ज्यादा भी नहीं है कि तुम अफोर्ड न कर सको।

लोकतंत्र में कुछ भी पीटने की आजादी सभी को है।

“डंका पीटोगी तभी तो औरों की लंका लगेगी ना।”

देखो सखी अभी अभी मेरे दिमाग में एक धांसू आइडिया आया है। तुम “डंकोत्सव का आयोजन”  क्यों नहीं करतीं। उसमें डंका शब्द की व्युत्पत्ति पर शोध पत्र का वाचन करो। उसमें डंके की चोट पर कुछ उपाधियों का वितरण करो यथा—- “डंकेन्द्र”, “डंकाधिपति”, “डंकेश”, “डंकाधिराज”, “डंकेश्वर”, “डंका श्री”, “डंका वाचस्पति”, “डंका शिरोमणि”, “डंका रत्न” आदि आदि।

सोचो सखी, शिद्दत से सोचो। नेकी और पूछ पूछ, जुट जाओ आयोजन में। डंके में शंका न करो।

—- ‘इतना ताम झाम करके भी डंका ठीक से न बजा तो–‘

— बेसुरा ही सही पर बजाओ—बजाते रहो—बजाते रहो। जब तक जां में जां है। डंका कभी निष्फल नहीं जाता।

डंकाधिपति की जय हो।

♡♡♡♡♡

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 139 ⇒ साहित्यकार श्रीश्री १००८… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “साहित्यकार श्रीश्री १००८ “।)

?अभी अभी # 139 ⇒ साहित्यकार श्रीश्री १००८? श्री प्रदीप शर्मा  ?

होली का मौसम नहीं, एक अप्रैल भी नहीं, यह उपाधियों का नहीं, लेखकों, साहित्यकारों और व्यंग्यकारों की सूची बनाने का मौसम है। असेसमेंट ईयर की तरह वर्ष २०२३-२४ की सौ साहित्यकारों की सूची जारी कर दी गई। शगुन के १०१ भी नहीं, पूरे कलदार सौ। पढ़कर और गिन परखकर देख लीजिए, पूरा टंच सिलेक्सन है।

हमने सोचा, कुछ अपने वाले नाम जोड़कर इसे १०८ तक पहुंचा दिया जाए, श्री श्री १०८ सबके आगे, अपने आप लग जाएगा, लेकिन किसी हसरत जयपुरी ने बीच में ही साहित्य और कलामंडल के १११ प्रकाशवान सितारों की, ए टू ज़ेड अल्फाबेटिकल सूची जारी कर दी, जिसमें प्रथम स्थान पर अरुण कमल भले ही ना हों, लेकिन ब से बैंक वाले सुरेश कांत, जरूर निन्यानवे स्थान पर मिल जाएंगे।।

साहित्य में आज किसका स्थान कहां है, गए जमाने सूर, तुलसी और केशवदास के, आप जिसे जहां चाहें वहां बिठा दें, लेकिन असली लेखक और साहित्यकार तो वही है, जो पाठकों के दिल में बैठा हो। आखिर मसखरी का भी कोई वक्त होता है।

हमने भी सोचा, क्यों न वर्ष 2024-25 की एक लंबी सारी सूची हम भी जारी कर दें, शीर्ष लेखक, व्यंग्यकार और साहित्यकारों की, जिसका शीर्षक ही श्रीश्री १००८ हो। जी हां, जब अकेले रविशंकर श्रीश्री रविशंकर हो सकते हैं, तो हमारे १००८ साहित्यकार श्रीश्री क्यों नहीं।।

अभी समय बहुत है, मौका भी है और दस्तूर भी ! श्रीश्री १००८ में शायद सभी प्रतिभाओं के साथ न्याय हो सकेगा। केवल सूची जारी करने से काम नहीं चलेगा। इनका शॉल और श्रीफल से सम्मान भी किया जा सकता है।

जो जहां है, वहीं उसका सम्मान वहीं के पाठक मिलकर कर दें। चौंकिए मत, यह सूची पाठकों द्वारा ही बनाई जाएगी जिसमें शायद सुरेंद्र मोहन पाठक का नाम भी हो। जिसे मिर्ची लगना हो लगे। कौन लोकप्रिय है और कौन नहीं, इसका पता साहित्य अकादमी से ज्यादा तो सुधी पाठकों को होता है।।

अगर गंभीर चिंतन नहीं कर सकते, तो कम से कम मजाक तो ढंग का हो।

अगर यह मजाक बेढंगा हो तो संभावित श्रीश्री १००८ साहित्यकारों से अग्रिम माफी। हम यह भी जानते हैं, साहित्य में इसे गंभीर चिंतन कहा भी नहीं जाता।

एक पाठक और एक मतदाता की एक जैसी हालत है। जो परोस दिया उसे स्वीकार कर लो। अगर पसंद नहीं, तो दूसरी दुकान देख लो। पूरा घान ही ऐसा है। कहीं अल्फाबेटिकल तो कहीं इल्लॉजिकल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 164 ☆ आतम ज्ञान बिना सब सूना… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आतम ज्ञान बिना सब सूना…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 164 ☆

☆ आतम ज्ञान बिना सब सूना… ☆

बिना परिश्रम कुछ भी नहीं मिलता, सही दिशा में कार्य करते रहें। यह मेरे एक परिचित जिन्हें ज्ञान बांटने की आदत है, उन्होंने अभी कुछ देर पहले कही और पूरी राम कहानी सुना दी।

दरसअल उनको किसी ने ब्लॉक कर दिया यह कहते हुए कि इतना ज्ञान सहन करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं। अब बेचारे ज्ञानचंद्र तो परेशान होकर घूमने लगे तभी ध्यानचंद्र जी ने कहा मुझे सुनाते रहें , जब जी आए टैग भी करें क्योंकि मैं सात्विक विचारों का हूँ, सकारात्मक चिंतन मेरी विशेषता है। अनावश्यक बातों को एक कान से सुन दूसरे से निकालता जाता हूँ। आँखें मेरी बटन के समान हैं जो केवल फायदे में ही कायदा ढूढ़ती हैं।

पर ज्ञानचंद्र को तो एक ही बात खाये जा रही थी कि लोग सकारात्मकता को तो ब्लॉक कर रहे हैं, जबकि नकारात्मक लोगों के नजदीक जाकर ज्ञानार्जन करने की वकालत करने से नहीं चूकते हैं। और तो और उनका सम्मान कर रहें हैं, अरे भई निंदक की महिमा वर्णित है पर बिना साबुन और पानी के मुफ्त में कब तक मन को स्नान कराते रहोगे, अभी भी वक्त है, सचेत हो अन्यथा किसी और को ज्ञान बटेगा आप इसी तरह ब्लॉक करो बिना ये जाने की लाभ किसमें है। फेसबुक और व्हाट्सएप का बन्दीकरण तो सुखद हो सकता है पर दिमाग में लगा ताला अंधकार तक पहुँचाकर ही मानेगा।

कोई क्षमायाचना को अपना औजार बनाकर भरपूर जिंदगी जिए जा रहा है तो कोई क्षमा को धारण कर सबको माफ करने में अपना धर्म देखता है। कहते हैं क्षमा वीर आभूषण होता है, बात तो सही है, आगे बढ़ने के लिए पुरानी बातों पर मिट्टी डालनी चाहिए। जब मंजिल नजदीक हो तो परेशानियों से दो- चार होना पड़ता है। बस लक्ष्य को साधते हुए माफी का लेनदेन करने से नहीं चूकना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 32 ☆ व्यंग्य – “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ”।) 

☆ शेष कुशल # 32 ☆

☆ व्यंग्य – “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ” – शांतिलाल जैन 

‘जागो फलाने, जागो’.

मि. फलाने मुसीबत में हैं साहब. जगा तो दिया मगर कब तक जागते रहना है, कोई बता नहीं रहा. वे भी नहीं बता पा रहे जिन्होंने मि. फलाने को जगाया है. जागने को कोई कितना जाग सकता है, बताईये भला. मि. फलाने तो पहला सन्देश मिलने के बाद ही जाग गए थे मगर अभी भी, हर थोड़ी थोड़ी देर में कोई न कोई मेसेज कर ही देता है ‘जागो फलाने जागो’. बेचारे फलाने! खुद ही खुद को चिमटी काट कर देख ले रहे हैं, तस्दीक कर ले रहे हैं. बोले – “शांतिबाबू, मैं एफिडेविट दे सकता हूँ. मैं जाग रहा हूँ.  मेरी मदद करो यार, इनको बोलो कि मेरी जान नहीं खाएँ. कसम खाकर कहता हूँ जब तक वे आकर लोरी नहीं गाने लगेंगे तब तक मैं सोऊंगा नहीं, बस अब और मैसेज भेजना बंद कर दें.”

“मैसेज से तुम्हें क्या परेशानी है ? इग्नोर मार दो.”

“रोंगटे खड़े हो जाते हैं शांतिबाबू, जगाने के लिए ऐसा वीडिओ डालते हैं कि मारे डर के नींद उड़ जाती है. बाद में फेक्ट-चेकर्स बताते हैं कि वीडिओ डॉक्टर्ड था मगर तब तक नींद तो काफूर हो ही जाती है.”

“तो आप उन्हें बता दीजिए कि आप जाग रहे है, कृपया अब और न जगाया जाए.” – मैंने कहा.

“बताया मैंने, मगर वे नहीं माने. कहते हैं नहीं अभी और जागो. अभी नहीं  जागे तो कभी नहीं जाग पाओगे. जागते रहो. इत्ते सालों से तो सो रहे हो, और कित्ता सोओगे ? हज़ार साल पहले गुलाम हुए, इसलिए कि मैं सोया हुआ था. बताईये शांतिबाबू, इत्ती तो मेरी उमर भी नहीं है.”

“यार, तुम धैर्य रखो. विचलित मत हुआ करो.”

“शांतिबाबू, वे यहीं नहीं रुकते. चैलेंज करते हैं – तुम फलाने की असली औलाद हो तो जागो, जागते रहो. कहते हैं सो गए तो कायर कहलाओगे. अब जागने में भी वीरता समा गई है, बताईये भला.”

“तुम बीच बीच में झपकी ले लिया करो. पॉवर नैप.”

“नहीं नहीं शांतिबाबू, वे मुझे गीदड़ की औलाद कह देंगे. वे चाहते हैं मैं इस कदर जागता रहूँ कि मौका-ए-जरूरत ढ़िकाने को सुला डालूँ. सुला भी ऐसा डालूँ कि अगला चिरनिद्रा में चला जाए, कभी जाग ही न पाए.”

“सो नहीं सकते तो कम से कम लेट जाओ. उकडूँ काहे बैठे हो ?”

“कहते हैं सांप बिस्तर के नीचे बैठा है. हर थोड़ी देर में गद्दा हटा कर देख रहा हूँ मगर साला मिल नहीं रहा. पूछा तो कहते हैं जब तुम सोओगे तब कटेगा. बस तब से जाग ही रहा हूँ, शांतिबाबू.”

मि. फलाने न ठीक से सो पा रहे हैं, न ठीक से लेट पा रहे हैं. उनकी तकलीफ यहीं समाप्त नहीं होती. इन दिनों उनको जगाने वालों की बाढ़ सी आई हुई है. पहले चंद लोग जगाने का काम किया करते थे. अब उन्होंने मंच, संस्थाएँ, समूह बना लिए हैं. अलाना जागृति मंच, फलाना जगाओ समिति, ढ़िकाना जागरण फोरम. एक बार हुआ ये कि मि. फलाने फ्लाईओवर पर सो गए. तब से जागृति मंच वालों ने वहाँ एक बड़ा सा होर्डिंग लगवा दिया है. नुकीले सिरों से एक दूसरे को क्रॉस करती हुई बड़ी बड़ी दो तलवारों के बीच लिखा है ‘जागो फलाने जागो’. सिर पर तलवार लटकी हो तो कौन सो सकता है. तीस से ज्यादा फोटूएँ तो जगानेवालों की सजी हैं. संयोजकजी की बड़ी सी, हाथ जोड़ते हुए, नुकीली मूछों की राजसी धजवाली तस्वीर लगी है. वे यह कार्य निस्वार्थ रूप से कर रहे हैं. उन्हें मि. फलाने से कुछ नहीं चाहिए, बस जब मौका आए तो ईवीएम् पर उनकी छाप का खटका दबाना है. कुल मिलाकर, वे केवल वाट्सअप से ही नहीं जगाते, होर्डिंग लगाकर भी जगाते हैं. वे कोई एंगल बाकी नहीं रखते, वे ढोल-ताशों के साथ भी जगाने निकलते हैं, समूह में, मोर्चा जुलूस निकालकर. कभी कभी वे मोर्चे में तमंचा लेकर भी निकलते हैं, कोई सोता हुआ नज़र आए तो हवाई फायर की आवाज़ से जगा देते हैं. घिग्घी बंध जाती है श्रीमान. मि. फलाने तो क्या उनकी संतातियाँ भी सो नहीं पाती.

बहरहाल, कौन समझाए उन्हें कि लम्बे समय तक जागने से भी आदमी बीमार हो जाता है. बीमार आदमी ढ़िकाने से नफरत करने लगता है. वो ढ़िकाने से सब्जी खरीदना बंद करके विजेता होने के टुच्चे अहसास से भर उठता है. ढ़िकाने के घरों पर बुलडोज़र चल जाए तो खुश हो जाता है और प्रशासन की कार्रवाई के वीडियो वाइरल करने लगता है. उसको पंचर पकानेवाले में मुग़ल शहंशाह नज़र आने लगते है. नफरत उसे और बीमार बनाती है. फ़िलवक्त तो जागने-जगाने का जूनून सा तारी है और मि. फलाने उसकी चपेट में है. वह दुष्चक्र में फंस गया है. परेशानी से निजात पाने का कोई रास्ता उसे नज़र नहीं आया तब उसने भी दूसरों को जगाने का काम हाथ में ले लिया है. अब वो वाट्सअप पर बाकी फलानों को कह रहा है – ‘जागो फलाने, जागो’.

वैसे आप ये मत समझिएगा श्रीमान कि परेशान सिरिफ मि. फलाने ही हैं. ढ़िकानों के स्वयंभू आकाओं ने उनको भी जगा दिया है. वे भी बार बार अपनी गादी-गुदड़ियों के नीचे सांप ढूंढ रहे हैं. कमाल की बात तो ये कि सांप जेहन से सरसराता हुआ विवेक में प्रवेश कर गया है और वे उसे गद्दों-बिस्तरों के नीचे ढूंढ हैं. एक दिन एक सौ चालीस करोड़ लोग अपने गद्दों-बिस्तरों के नीचे सांप ढूंढ रहे होंगे. दरअसल, वे जिसे जागना समझ रहे हैं वो नफ़रतभरी नीम बेहोशी है, काश कोई उन्हें कह सके – ‘जागो और होश में आओ, यारों.’

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 203 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – गर्दिश के दिन  – हरिशंकर परसाई☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – गर्दिश के दिन )

☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – गर्दिश के दिन  – हरिशंकर परसाई ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं, क्यों आखिर वे उन गर्दिश के दिनों में झांकना चाहते हैं, जो लेखक के अपने हैं और जिन पर वह शायद परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर से जीऊँ?-उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से ? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर से जी लेने और अभिव्यक्ति कर देने में मनुष्य और लेखक, दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई ‘भोक्ता’ और ‘सर्जक’ की नि:संगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ -आ बैल मुझे मार!

गर्दिश कभी थी, अब नहीं है, आगे नहीं होगी-यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता, इस लिये गर्दिश नियति है।

हाँ, यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है, जो हँसता है, जिसमें मस्ती है, जो ऐसा तीखा है, कटु है-इसकी अपनी जिंदगी कैसी रही? यह कब गिरा, फिर कब उठा ?कैसे टूटा? यह निहायत कटु, निर्मम और धोबी पछाड़ आदमी है।

संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। १९३६ या ३७ होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थीं। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगतीं थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते- 

ओम जय जगदीश हरे,

भक्त जनों के संकट पल में दूर करें।

गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी, चाचा और दो -एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयानक और त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गये और योग देने लगे।

पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था-सबसे बड़ा था।

प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक, अनिश्चय, निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अंकन के लिये बहुत पन्ने चाहिये। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी ५-६ साल जिये, लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुये। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक भाई की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे।

मैं तैयार होने लगा । खूब पढ़ने वाला, खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब कुछ भूल जाता था। मैट्रिक हुआ, जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटे रखकर, उन पर पटिया जमाकर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया।

बेचारा परसाई?

नहीं, नहीं, मैं खूब मस्त था। दिन-भर काम। शाम को जंगल में घुमाई। फिर हाथ से बनाकर खाया गया भरपेट भोजन शुद्ध घी और दूध!

पर चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहों मेरे नीचे ऊधम करते रहे, साँप तक सर्राते रहे, मगर मैं पटिये बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सापों ने भी मुझे बहुत काटा- पर ‘जहरमोहरा’मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिये ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहाननुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ, वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते।

फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रनिंग और नौकरी की तलाश -उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ, हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे थे।

फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी-बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयीं थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्‌स हेल्प दि पुअर ब्वाय।

दूसरी विद्या सीखी उधार माँगने की। मैं बिल्कुल नि:संकोच भाव से किसी से भी उधार मांग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ।

तीसरी चीज सीखी -बेफिक्री। जो होना होगा, होगा, क्या होगा? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब, जिंदगी गर्दिश -भरी, मगर अपार जीव शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती-बाई, न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती-चल चिंता नहीं। राह-मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहती- ए कौशल्या, तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती-ले बना डाल, जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती-चल, चिंता नहीं, कुछ खा ले।

उसका यह वाक्य मेरा आदर्श वाक्य बना-कोई चिन्ता नहीं। गर्दिश, फिर गर्दिश!

होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुये। स्टेशन पर इटारसी के लिये गाड़ी पकड़ने के लिये बैठा था, पास में एक रुपया था, जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क्या? दूसरे महायुद्ध का जमाना। गाड़ियाँ बहुत लेट होतीं थीं। पेट खाली। पानी से बार-बार भरता। आखिर बेंच पर लेट गया।चौदह घंटे हो गये । एक किसान परिवार पास आकर बैठ गया। टोकरे में अपने खेत के खरबूजे थे। मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था। किसान खरबूजा काटने लगे। मैंने कहा- तुम्हारे ही खेत के होंगे। बडे़ अच्छे हैं। किसान ने कहा- सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया! शक्कर की तरह हैं। लो खाके देखो। उसने दो बड़ी फांके दीं। मैंने कम-से-कम छिलका छोड़कर खा लिया। पानी पिया। तभी गाड़ी आयी और हम खिड़की में घुस गये।

नौकरी मिली जबलपुर से सरकारी स्कूल में। किराये तक के पैसे नहीं। अध्यापक महोदय ने दरी में कपडे़ बाँधे और बिना टिकट चढ़ गये गाड़ी में। पास में कलेक्टर का खानसामा बैठा था। बातचीत चलने लगी। आदमी मुझे अच्छा लगा। जबलपुर आने लगा तो मैंने उसे अपनी समस्या बताई। उसने कहा -चिन्ता मत करो। सामान मुझे दो। मैं बाहर राह देखूँगा। तुम कहीं पानी पीने के बहाने सींखचों के पास पहुँच जाना। नल सींखचों के पास ही है। वहाँ सींखचों को उखाड़कर निकलने की जगह बनी हुई है। खिसक लेना। मैंने वैसा ही किया। बाहर खानसामा मेरा सामान लिये खड़ा था। मैंने सामान लिया और चल दिया शहर की तरफ। कोई मिल ही जायेगा, जो कुछ दिन पनाह देगा, अनिश्चय में जी लेना मुझे तभी आ गया था।

पहले दिन जब बाकायदा ‘मास्साब’ बने तो बहुत अच्छा लगा। पहली तनख्वाह मिली ही थी कि पिताजी की मृत्यु की खबर आ गयी। माँ के बचे जेवर बेचकर पिता का श्राद्ध किया और अध्यापकी के भरोसे बड़ी जिम्मेदारियाँ लेकर जिंदगी के सफर पर निकल पड़े। 

उस अवस्था की इन गर्दिशों के जिक्र मैं आखिर क्यों इस विस्तार से कर गया? गर्दिशें बाद में भी आयीं, अब भी आतीं हैं, आगे भी आयेंगी, पर उस उम्र की गर्दिशों की अपनी अहमियत है। लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इनका गहरा सम्बन्ध है।

मैंने कहा है- मैं बहुत भावुक, संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता, रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता।

मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, जिम्मेदारियाँ, दुखों की वैसी पृष्ठभूमि और अब चारों तरफ से दुनिया के हमले -इस सब सबके बीच सबसे बड़ा सवाल था अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा । तब सोचा नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था।

जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ।

मैंने तय किया-परसाई, डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकलकर सब में मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो। देखो, समझो और हँसो।

मैं डरा नहीं । बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियाँ गयीं। लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैर-जिम्मदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूँ। रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी-साग खाकर मजे में बैठा हूँ कि चिन्ता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। मेहनत और परेशानी जरूर पड़ी यों कि बेहद बिजली-पानी के बीच एक पुजारी के साथ बिजली की चमक से रास्ता खोजते हुये रात-भर में अपनी बड़ी बहन के गाँव पहुँचना और कुछ घंटे रहकर फिर वापसी यात्रा। फिर दौड़-धूप! मगर मदद आ गयी और शादी भी हो गयी।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा, यह सोचता हूँ। पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुझे भी पहले ऐसा लगा। पर मैंने देखा, इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!

मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा ख्याल है, तब ऐसी ही बात होगी।

पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दु:ख के इस सम्मोहन-जाल से निकल गया। मैंने अपने को विस्तार दे दिया।दु:खी और भी हैं। अन्याय पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ। 

यहीं कहीं व्यंग्य – लेखक का जन्म हुआ । मैंने सोचा होगा- रोना नहीं है, लड़ना है। जो हथियार हाथ में है, उसी से लड़ना है। मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया। और बहुत गम्भीरता से व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया।

मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये, सुख के लिये, न्याय के लिये।पर यह बड़ी अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं! न उनके मन में सवाल उठते हैं न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।

कबीर ने कहा है-

सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवे।

दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।

जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं । व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी।

ताजा गर्दिश यह है कि पिछले दिनों राजनीतिक पद के लिये पापड़ बेलते रहे। कहीं से उम्मीद दिला दी गई कि राज्यसभा में हो जायेगा। एक महीना बड़ी गर्दिश में बीता। घुसपैठ की आदत नहीं है, चिट भीतर भेजकर बाहर बैठे रहने में हर क्षण मृत्यु-पीडा़ होती है। बहादुर लोग तो महीनों चिट भेजकर बाहर बैठे रहते हैं, मगर मरते नहीं। अपने से नहीं बनता। पिछले कुछ महीने ऐसी गर्दिश के थे। कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है, इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई। बड़ी गर्दिश भोगी।

मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है।

यों गर्दिशों की एक याद है। पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है। यह और बात है कि शोभा के लिये कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन लीं जाएं। उनका मेकअप कर दिया जाये, उन्हें अदायें सिखा दी जायें- थोडी़ चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा-और पाठक से कहा जाए-ले भाई, देख मेरी गर्दिश!

प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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