हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 60 ☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘पटरी से उतरी व्यवस्था’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से पटरी से उतरी व्यवस्था और व्यवस्था को पटरी से उतारने के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 60 ☆

☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था

वे दोनों मेरे पुराने मित्र थे। धंधे के सिलसिले में मेरे शहर आते जाते रहते थे। वे समझदार लोग थे, मेरे जैसे गावदी नहीं थे। उन्होंने ज़माने को पकड़ लिया था, मैं ज़माने की दुलत्तियाँ सहते सहते अधमरा हो रहा था। उन पर लक्ष्मी की कृपा थी,मेरे सरस्वती-मोह ने लक्ष्मी जी को हमेशा मुझसे दो हाथ दूर रखा था। वे अपनी हैसियत के हिसाब से होटल में रुकते थे, धंधे से निपट कर वक्त गुज़ारने के लिए मेरे घर आ जाते थे।

उस शाम वे आये तो मगन थे। बोले, ‘दो तीन सरकारी इमारतों का ठेका मिलना है। पिछली बार आये थे तो अफ़सरों से बात हो गयी थी। पक्का वादा मिल गया था। मंत्री जी से भेंट हो गयी थी। उनका आशीर्वाद भी मिल गया था। इस बार पूरी तैयारी से आये हैं।’

उन्होंने गोद में रखा ब्रीफ़केस बजाया। मैं समझ गया कि उसमें लक्ष्मी जी कैद हैं।

वे बोले, ‘यहाँ यह बहुत अच्छा है कि सही रास्ता पकड़ लिया जाए तो फिर कोई परेशानी नहीं होती। हाँ,सही रास्ते की खोज में ही थोड़ी दिक्कत होती है,लेकिन एक बार मिल गया तो फिर गाड़ी अपने आप चलने लगती है। फिर तो अफ़सर खुद ही टेलीफोन करके बुलाने लगते हैं। हम अगर अफ़सरों और मंत्रियों से बेईमानी न करें तो वे पूरी ईमानदारी से साथ देते हैं। नीयत साफ रहना बहुत ज़रूरी है। ‘
मैंने सहमति में सिर हिलाया।

वे बोले, ‘नीयत में खोट न हो तो सब काम आराम से चलता जाता है। पेमेंट टाइम से मिल जाता है,और जो दिक्कतें हों उन्हें दूर करने में सबकी मदद मिलती है। सब काम प्यार मुहब्बत से चलता है। दूसरी जगहों जैसी बेईमानी यहाँ नहीं होती। वहाँ तो पैसा लेने के बाद भी काम होने की कोई गारंटी नहीं होती। ‘
दूसरी शाम वे आये तो उनके मुँह लटके हुए थे। माथे का पसीना पोंछते हुए बोले, ‘यहाँ तो सब गड़बड़ हो गया। कोई अफ़सर हाथ नहीं धरने देता। ऐसे बिदकते हैं जैसे हम प्लेग या एड्स के मरीज़ हों। मंत्री ने पहचानने से इनकार कर दिया। सब महतमा गांधी हो गये। ‘

मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या

हुआ?’

वे बोले, ‘हमारी समझ में आये तो बताएं। सुना है कि हाल में मंत्रियों अफ़सरों पर सी.बी.आई. के. छापे पड़े हैं। उसी से सब गड़बड़ हुआ है। ‘

मैंने कहा, ‘हाँ,अखबारों में पढ़ा तो था। ‘

वे माथे पर हाथ धर कर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया कि मंत्रियों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। अब आप बताइए ऐसे में कौन काम करेगा और कैसे कमाई करेगा?’

मैंने हमदर्दी के स्वर में कहा, ‘चिन्ता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा। जब वे दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे।’

वे कृतज्ञ भाव से मेरी तरफ देखकर बोले, ‘यही उम्मीद है, लेकिन अफसोस तो होता ही है कि ऐसी बढ़िया चल रही व्यवस्था खटाई में पड़ गयी। किसी चीज़ को बनाने में सालों लग जाते हैं, लेकिन बिगाड़ने में मिनट भी नहीं लगते। ‘

मैंने उनके दुख में अपना दुख मिलाते हुए कहा, ‘इसमें क्या शक है!’

वे शून्य में आँखें गड़ाकर जैसे अपने आप से बोले, ‘आहा! क्या सिस्टम था। एकदम ‘वेल आइल्ड’, एकदम ‘परफेक्ट’। ‘

मैंने कहा, ‘ऐसे सिस्टम को ‘वेल आइल्ड’ न कहकर ‘वेल ग्रीज़्ड’ कहना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी में रिश्वत के लिए ‘ग्रीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘

वे कुछ अप्रतिभ होकर बोले, ‘कुछ भी कहिए, काम होना चाहिए। चाहे तेल से हो, चाहे ग्रीज़ से। जब काम ही नहीं होना है तो तेल क्या और ग्रीज़ क्या। काम नहीं होगा तो देश आगे कैसे बढ़ेगा और लोग ख़ुशहाल कैसे होंगे?’

मैंने कहा, ‘ठीक कहते हैं। ‘

विदा होने लगे तो वे बोले, ‘हमने उम्मीद नहीं छोड़ी है। हम जल्दी ही फिर आएंगे। व्यवस्था फिर बदलेगी। जब अच्छी व्यवस्था नहीं रही तो बुरी भी नहीं रहेगी। शक-शुबह की रात ढलेगी और प्यार-मुहब्बत की सुबह फिर फूटेगी। ‘

चलते वक्त वे बोले, ‘इस ब्रीफ़केस में कुछ रुपये हैं। हम सोचते हैं इस को यहीं छोड़ जाएं। कहाँ लिये लिये फिरेंगे। बाद में तो यहाँ इसकी ज़रूरत पड़ेगी ही। ‘

मैंने पूछा, ‘इसमें कितना रुपया है?’

वे बोले, ‘तीन लाख हैं। ‘

सुनकर मेरा रक्तचाप बढ़ गया। घबराकर बोला, ‘भाईजान, इतना रुपया संभालने की मेरी कूवत नहीं है। हमारा घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। दिन का चैन और रात की नींद हराम हो जाएगी। इसे आप अपने साथ ले जाएं या किसी हैसियत वाले के पास छोड़ जाएं।’

वे सुनकर हँसने लगे। बोले, ‘आप तो ऐसे घबरा गये जैसे हम कोई साँप या बिना लाइसेंस की बन्दूक छोड़े जा रहे हों। तीन लाख तो आजकल लोगों की एक दिन की ख़ूराक होती है।’

मैंने कहा, ‘हाँ,मैंने भी ऐसे महापुरुषों के बारे में पढ़ा सुना है, लेकिन साथ करने का सौभाग्य नहीं मिला। अपनी तो हालत यह है कि एक बार भोपाल जाते समय एक मित्र ने बीस हज़ार के नोट थमा दिये कि वहाँ पहुँचकर उनके रिश्तेदार को दे दूँ। बस भाईजान,अपना तो पेशाब-पानी बन्द हो गया। नोट हैंडबैग में थे। टायलेट जाता तो हैंडबैग भीड़ के बीच से गले में लटका कर ले जाता। साथ के यात्री सोचने लगे कि मैं सनका हूँ। जब गाड़ी भोपाल पहुँची तब जान में जान आयी। ‘

वे हँसकर बोले, ‘अगली बार हम आपको भी कुछ धंधा करना सिखाएंगे। तभी आपको रुपया संभालने की आदत पड़ेगी। ‘

मैंने कहा, ‘भाई, बूढ़े तोते को राम राम पढ़ाना मुश्किल है। ‘

वे बोले, ‘हुनर सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जब जागे तभी सबेरा। ‘

मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘पधारना भाई। मैं इन्तज़ार करूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 66 ☆ गुड गोबर न होय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक व्यंग्य  गुड गोबर न होय। इस अत्यंत सार्थक  व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 66 ☆

☆ व्यंग्य – गुड गोबर न होय ☆

कहावत है कि लकड़ी की काठी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती पर वह नेता ही क्या जो कहावतों का कहा मान ले। मेहनत  से क्या नहीं हो सकता? लीक के फकीर तो सभी होते हैं ।पर वास्तविक नेतृत्व वही देता है, जो स्वयं अपनी राह बनाए।

बिहार में लालू जी ने पशुओं के लिए बड़ी मात्रा में चारा खरीदा था, पशु चराने जाने वाले बच्चों के लिए चारागाह में ही विद्यालय खुले थे,  कितने बच्चे क्या पढ़े यह तो नहीं पता लेकिन अपने इन अभिनव बिल्कुल नए प्रयोगों से लालू जी चर्चा में आए थे। और इतनी चर्चा में आए थे कि हावर्ड बिजनेस स्कूल ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया ।

अब जब कोई सरकारी योजना आएगी तो उसे अकेले नेता जी तो क्रियान्वित करेंगे नही।योजना तो होती ही सहभागिता के लिए है।भांति भांति के लोगों के भांति भांति व्यवहार से योजना में घोटाले होते ही हैं।सच तो यह है कि योजना बनते ही उसके लूप होल्स ढूंढ लिए जाते हैं।  चारा घोटाला आज भी सुर्खी में है और बेचारे लालू जी जेल में।

कुछ नया, कुछ इनोवेटिव करने की कोशिश में अब छत्तीसगढ़  ने वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के लिए गोबर की खरीदी का जोर शोर से उद्घाटन किया है। उद्घाटन चल ही रहा है, और विपक्ष टाइप के लोगो को सम्भावित गोबर घोटाले की बू आने लगी है।  जिले जिले के कलेक्टर का अमला गोबर का हिसाब रखने के लिए साफ्टवेयर बनाने में जुट रहा है।न भूतो न भविष्यति, आई ए एस बनने वालों ने कभी सोचा भी न रहा होगा कि कभी उन्हें गोबर का भी गूढ़, गुड़ गोबर करना पड़ेगा ।

जब गोबर की सरकारी खरीद होगी तो पशुपालकों के साथ साथ उससे जुड़े कर्मचारियों से शुरू होकर अधिकारियों और नेताओं तक भी गोबर की गंध पहुंचेगी ही।कही गोबर गैस बनकर रोशनी होगी ।जनसंपर्क विभाग उस  रोशनी को अखबारों में परोस देगा।शायद नेता जी को व्याख्यान के लिए, पुरस्कार के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय आमंत्रण मिल जाये।गोबर में बिना हड्डी के बड़े छोटे केचुए पनपेंगे  जो मजे में अफसरों और नेता जी के बटुए में समा जाएंगे।वर्मी कम्पोजड खाद होती ही सोना है।सो गोबर से सोना बनेगा।

जहां केचुए एडजस्ट नही हो पाएंगे वही गोबर से घोटाले की दुर्गंध आएगी यह तय समझिये।

हम तो यही कामना कर सकते हैं कि योजना का गुड़ गोबर न होने पाए।पशुपालन को सच्ची मुच्ची बढ़ावा मिल सके, खेती को ऑर्गेनिक खाद मिले, और योजना सफल हो।यद्यपि पुराने रिकार्ड कहते हैं कि जँह जँह पाँव पड़े नेतन के तँह तँह बंटाधार।चारा घोटाला पुरानी बात हुई पर अब गोबर धन पर काली नजर न लगे।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 28 ☆ सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं विचारणीय रचना “सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है …..। वास्तव में दलबदल का कोई प्रावधान ही नहीं होना चाहिए। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 28☆

☆ सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है …..

कहते हैं कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। जितने बार असफल हो उतनी बार उठो और फिर से प्रयास शुरू कर दो। जब परिश्रम का श्रम सिर चढ़कर बोलने लगता है, तो ईश्वर भी आपकी मदद करने हेतु हाजिर हो जाते हैं। ये बात केवल साधारण मनुष्यों तक लागू नहीं होती है। इसी विचारधारा को अपनी प्रेरणा मानते हुए जनप्रतिनिधि भी लगातार श्रेष्ठ आचरण करते हुए दिख रहे हैं। वे सफल होने के लिए दलबदल से भी नहीं हिचकते। चुनाव भले ही किसी भी दल से जीता हो लेकिन वफ़ादारी कुर्सी के प्रति ही रखते हैं। आख़िर कुर्सी भी तो कोई चीज होती है। सोचिए यदि जनता की सेवा करनी है, तो खड़े- खड़े कब तक केवल विपक्ष की तरह अपनी आवाज उठाते रहेंगे। सो अपना शक्ति प्रदर्शन दिखाते हुए अपने समर्थकों को लेकर स्वतंत्र होने की घोषणा कर ही देते हैं।

इधर दूसरी ओर लोग भी इस ताक में बैठे रहते हैं कि कोई स्वतंत्र पंछी दिखे तो उसे पिंजरे में कैद करें। मानवता के पुजारी दिनभर इसी जुगत में अपना समय पास करते- रहते हैं। पहले तो बहुमत प्राप्त दल  सरकार बनाता तो दूसरा आसानी से स्वयं विपक्षी का फर्ज निभाने लगता था। अब समय बदल रहा है,  पाँच साल तक सब्र रखना कठिन होता जा रहा है, सो सफलता के तत्वों से प्रेरणा ले विपक्षी दल भी सत्तापक्ष पर सेंध लगा ही देता है। पहली बार में असफलता ही हाथ लगती है, फिर दुबारा गलतियाँ कहाँ रह गयीं, किसने गद्दारी की ये सब देख कर पुनः योजना बनाई जाती है। इस बार विश्वास पात्रों को ही इसमें शामिल करते हैं, फिर भी शत प्रतिशत सफलता नहीं मिल पाती। अब तो पार्टी के केंद्रीय मुखिया को जोर लगाना पड़ता है तथा सारा कार्य अपने हाथों में लेते हुए परीक्षा का परिणाम 100 % कर देते हैं और फिर राज्य के विपक्षी प्रमुख को बुला कर उसे कुर्सी सौंप सत्ता पक्ष का ताज पहना कर ही अपनी जीत का जश्न मनाते हैं।

अरे भाई जनता का कार्य केवल वोट देना है, कुर्सी पर कौन कितनी देर तक टिकेगा इससे न उन्हें मतलब है न होना चाहिए। ये तय है कि चुनाव 5 साल में ही एक बार होगा, क्योंकि खर्च बहुत लगता है, और ये सब जनता का ही तो है ; सो मूक रहकर सब तमाशा देखती रहती है। किसी भी दल को बहुमत से जिता कर भले ही भेज दो पर कुर्सी में वही टिकेगा जो सारे विधयकों या सांसदों को संतुष्ट करने का मंत्र जानता हो।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – सस्वर व्यंग्य ☆ तीन करोड़ का सांप – डॉ कुंवर प्रेमिल ☆ स्वरांकन एवं प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  अग्रज श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  आपका एक नवीन एवं सार्थक व्यंग्य  ” तीन करोड़ का सांप ” का स्वरांकन प्रेषित किया है, जिसे हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं। )

☆ व्यंग्य – तीन करोड़ का सांप ☆  

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के ही शब्दों में  
संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी का  लघुकथाकार के रूप में हिंदी साहित्य में एक विशेष स्थान है। आपने 350 से अधिक लघुकथाओं की रचना की है। अभी हाल ही में आपकी लघुकथा “पूर्वाभ्यास” को उत्तरी महाराष्ट्र के जलगांव विश्विद्यालय के पाठ्यक्रम वर्ष 2019-2020 में स्थान मिला है। हम यह सार्थक व्यंग्य “तीन करोड़ का सांप” डॉ प्रेमिल जी के स्वर में ही आपसे साझा कर रहे हैं।
आप परम आदरणीय डॉ कुंवर प्रेमिल जी का सार्थक व्यंग्य  तीन करोड़ का सांप  उनके चित्र अथवा यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर उनके ही स्वर में सुन सकते हैं।

आपसे अनुरोध है कि आप यह कालजयी रचना सुनें एवं अपने मित्रों से अवश्य साझा करें। ई- अभिव्यक्ति इस प्रकार के नवीन प्रयोगों को क्रियान्वित करने हेतु कटिबद्ध है।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 58 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – अन्न की मौत ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 58

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – अन्न की मौत ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपके गद्य लेखन को व्यंगमूलक मानने के बावजूद इधर कुछ महत्वपूर्ण आलोचकों ने उसमें भाव के प्रामाश्य को रेखांकित किया है। व्यंग्य मूलतः एक आक्रामक या संहारक रचना शैली है, इसमें करुणा जैसे विरोधी भाव का अंतरयोग सिद्धांतत: बहुत कठिन है। व्यंग्य की रचना शैली के विशिष्ट अनुशासन के भीतर आप करुणा भाव को कैसे चरितार्थ कर पाते हैं ?

हरिशंकर परसाई –

ऐसी स्थितियां होतीं है जो करुण स्थितियां होती हैं, मेरी रचनाओं में आयी हैं। जैसे कि “अन्न की मौत” मेरा एक निबंध है, उसमें जब बहुत कठिनाई है आटा मिलने में, तो कहीं से मुझे आधा बोरा आटा मिल जाता है,जब उसे खोलते हैं तो उसमें मरा हुआ चूहा निकलता है,तो हम भाई-बहन चारों उस बोरे के आसपास बैठ जाते हैं और हमें याद आता है कि जब हमारे चाचा मरे थे तब भी हम इसी तरह बैठे थे, तो ये “अन्न” मरा है।तब भी हम इसी तरह बैठे हैं।अब ये स्थिति तो बहुत करुण है…न…। ये बहुत करुण स्थिति है, लेकिन मैंने पूरे के पूरे निबंध को जिस स्थिति में लिखा उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य आता है।उस बोरे के आसपास उदास बैठना, इसमें कुछ विनोद ही ज्यादा है, फिर मैंने लिखा है कि “यहां तो अमेरिका से आयेगा गेहूं, तब मिलेगा” ।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 59 ☆ व्यंग्य – कन्या-दर्शन का कार्यक्रम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘कन्या-दर्शन का कार्यक्रम ’।  हम कितने भी पढ़ लिख लें , कन्याओं को कितना भी पढ़ा लिखा दें किन्तु, कन्या-दर्शन के कार्यक्रम के लिए लड़की के परिवार को मानसिक रूप से तैयार होना ही पड़ता है । डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से सारे समाज को आइना दिखा दिया है।  युवा पीढ़ी द्वारा अंतरजातीय विवाह एवं प्रेम विवाह संभवतः ऐसी परम्पराओं को नकारने  का एक कारण हो सकता है जिसे अंततः दोनों परिवार स्वीकार कर लेते हैं। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 59 ☆

☆ व्यंग्य – कन्या-दर्शन का कार्यक्रम 

हमारे देश में नारी-स्वातंत्र्य और दहेज-विरोध को लेकर बड़ा शोरगुल होता है।  लेख लिखे जाते हैं,  फोटोदार परिचर्चा होती है।  थालियाँ और डिब्बे बजा बजाकर जुलूस निकाले जाते हैं,  गला फाड़कर नारे लगाये जाते हैं।  लेकिन जब झाग बैठता है तो पता चलता है कि हम जहाँ खड़े थे वहीं रुके हैं।  बल्कि दो चार कदम और पीछे हट गये।

मेरे कुछ परिचित परिवारों में विवाह-योग्य कन्याएं हैं।  खासी पढ़ी-लिखी,  योग्य।  देखने के लिए  लड़के वाले आते हैं।  पहले माँ बाप लड़के के साथ आते हैं।  तीन चार दिन बाद लड़के का बड़ा भाई अपनी बीवी के साथ आता है।  फिर दो चार दिन बाद लड़के की बहन आती है।  फिर खबर आती है कि अगले इतवार को लड़के के बहनोई साहब इटारसी से आ रहे हैं।  वे भी कन्या-दर्शन का लाभ प्राप्त करेंगे।  बहनोई साहब के आगमन के चार दिन बाद पता चलता है कि लड़के के ताऊजी बुरहानपुर से चल चुके हैं।  वे भी कन्या को देखने का इरादा रखते हैं।  अन्तिम निर्णय उन्हीं का होगा।  वैसे लड़के के अस्सी वर्षीय,  मोतियाबिन्द-पीड़ित दादाजी भी आ रहे हैं।

इस बीच लड़की वालों को लड़के वालों के निर्णय का कुछ पता नहीं चलता।  वे अनिश्चय और आशंका की स्थिति में झूलते रहते हैं।  लड़की को दिखाने से मना नहीं कर सकते,  चाहे लड़के वाले अपना पूरा मुहल्ला लेकर आ जाएं।  आधी रात को जगाकर कन्या दिखाने का हुक्म दें तो तामील करना पड़ेगा।  वैसे अगर ‘दीगर’ बातें पहले से तय हो जाएं तो यह देखने-वेखने और टेवा (जन्मपत्री) मिलाने का कार्यक्रम संक्षिप्त भी हो सकता है।

लड़के पर यह बात लागू नहीं होती।  लड़की वाले जाएं तो कुँवर साहब के दर्शन बड़े सौभाग्य से और बड़े नखरों के बाद होते हैं।  कभी खबर आ जाती है कि कुँवर साहब आराम कर रहे हैं,  दर्शन कल होंगे।  वैसे हमारे देश में लड़के वालों के दरवाज़े पर लड़की वालों की स्थिति याचक की सी होती है।  इसलिए कुँवर साहब और उनके जनक-जननी जैसा नाच नचायें, लड़की वालों को नाचना पड़ता है।

सवाल यह है कि लड़की के दर्शन लड़के के बहनोई से लेकर ताऊ और बाबा तक क्यों करते हैं? ताऊजी लड़की को अपने पचास साल वाले चश्मे से देखेंगे या लड़के के चश्मे से? माँ-बाप का देखना तो समझ में आता है, लेकिन परिवार के सभी आदरणीय को इस रस्म में शामिल करना क्यों ज़रूरी है? मान लो लड़की को सब ने पसन्द कर लिया लेकिन सयाने ताऊजी ने सब के मत को ‘वीटो’ कर दिया तो क्या होगा? शादी लड़के की होनी है,  लेकिन पसन्द ताऊजी की चलेगी।

इस तरह की रस्में हमारे समाज में स्त्री की स्थिति का कच्चा-चिट्ठा खोलती हैं।  स्त्री घर से बाहर आयी,  पर्दे से मुक्त हुई,  शिक्षित भी हुई,  लेकिन समाज पर पंजा पुरुष का ही है।  लड़कियों को पढ़ाने में लापरवाही इसलिए की जाती है क्योंकि उन्हें पराये घर जाना है।  लेकिन यह लापरवाही लड़की के बाप को लड़के वालों के सामने और ज़्यादा दुम हिलाने के लिए मजबूर कर देती है।

स्थिति बदतर हो रही है।  दहेज के खिलाफ बड़े सख्त कानून बने,  लेकिन किसी कमज़ोर धनुर्धारी के तीर की तरह लक्ष्य तक पहुँचे बिना ही कहीं खो गये।  वैसे भी हमारे आदर्शों और व्यवहार में हमेशा विरोध रहा है, इसलिए कोई ग़म की बात नहीं है।  कम से कम हम महान कानून तो बना रहे हैं ताकि आगे आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें पढ़कर समझें कि हमारा समाज दहेज और स्त्री-शोषण के कितने ज़बरदस्त खिलाफ था।  ये कानून की किताबें काल-पात्र में रखी जानी चाहिए।

मंहगाई बढ़ने के साथ लड़कों के रेट बढ़ रहे हैं।  व्यापारिक भाषा में कहें तो ‘सुधर’ रहे हैं।  इसलिए लड़की के बाप पर दुहरी मार पड़ रही है।  सब कुछ सुधर रहा है,  इसलिए कन्या के पिता की हालत बिगड़ रही है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 64 ☆ आज कितनी बार मरे! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक बचपन से वृद्धावस्था तक न जाने कितनी बार अनायास ही मुंह से निकल जाता है  ‘ मर गए ‘ और श्री विवेक जी ने इस रचना  “आज कितनी बार मरे!से कई स्मृतियाँ जीवित कर दीं । इस अत्यंत सार्थक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 64 ☆

☆ आज कितनी बार मरे ☆

बचपन में बड़ी मधुरता होती है, ढेरों गलतियां माफ होती है, सब की संवेदना साथ होती है, ’अरे क्या हुआ बच्चा है’। तभी तो भगवान कृष्ण ने कन्हैया के अपने बाल रूप में खूब माखन चुरा चुरा कर खाया, गोपियों के साथ छेड़खानी की कंकडी से निशाना साधकर मटकियां तोड़ी, पर बेदाग बने रहे, बच्चे किसी के भी हो,  बड़े प्यारे लगते हैं, चूहे का नटखट, बड़े-बड़े कान वाला बच्चा हो या कुत्ते का पिल्ला प्यारा ही लगता है, शेर के बच्चे से डर नहीं लगता, और सुअर के बच्चे से घिन नहीं लगती मैंने भी बचपन में खूब बदमाशियां की है, बहनों की चोटी खींची है, फ्रिज में कागज के पुडे में रखे अंगूर एक-एक कर चट कर डाले है, और पुडा ज्यों का त्यों रखा रह जाता, जब मां पुडा खोलती तो उन्हें सिर्फ डंठल ही मिलते, छोटी बड़ी गलती पर जब भी पिटाई की नौबत आती तो, ’उई मम्मी मर गया’ की गुहार पर, मां का प्यार फूट पड़ता और मैं बच निकलता . स्कूल पहंचता, जब दोस्तों की कापियां देखता तो याद आती कि मैंने तो होमवर्क किया ही नहीं है, स्वगत अस्फुट आवाज निकल पड़ती ’मर गये’।

बचपन बीत गया नौकरी लग गई, शादी हो गई बच्चे हो गये पर यह मरने की परम्परा बकायदा कायम है, दिन में कई-कई बार मरना जैसे नियति बन गई है। जब दिन भर आफिस में सिर खपाने के बाद घर लौटने को होता हूं ,  तो घर में घुसते घुसते याद आता है कि सुबह जाते वक्त बीबी, बच्चों ने क्या फरमाईश की थी। कोई नया बहाना बनाता हूं और ’मर गये’ का स्वगत गान करता हूं, आफिस में वर्क लोड से मीटिंग की तारीख सिर पर आती है, तब ’मर गये’ का नारा लगाता हूं और इससे इतनी उर्जा मिलती है कि घण्टों का काम मिनटो में निपट जाता है, जब साली साहिबा के फोन से याद आता है कि आज मेरी शादी की सालगिरह है या बीबी का बर्थ डे है तो अपनी याददाश्त की कमजोरी पर ’मर गये’ के सिवा और कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया होती ही नहीं। परमात्मा की कृपा है कि दिन में कई कई बार मरने के बाद भी ’वन पीस’ में हट्टा कट्टा जिंदा हूं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि पूरी आत्मा साबूत है। वह कभी नहीं मरी, न ही मैंने उसे कभी मारा वरना रोजी, रोटी, नाम, काम के चक्कर में ढेरों लोगों को कुछ बोलते, कुछ सोचते, और कुछ अलग ही करते हुये, मन मारता हुआ, रोज देखता हूं . निहित स्वार्थो के लिये लोग मन, आत्मा, दिल, दिमाग सब मार रहे है। पल पल लोग, तिल तिल कर मर रहे है। चेहरे पर नकली मुस्कान लपेटे, मरे हुये, जिंदा लोग, जिंदगी ढोने पर मजबूर है। नेता अपने मतदाताओं से मुखातिब होते है, तो मुझे तो लगता है, मर मर कर अमर बने रहने की उनकी कोषिषों से हमें सीख लेनी चाहिये, जिंदगी जिंदा दिली का नाम है।

मेरा मानना है, जब भी, कोई बड़ी डील होती है, तो कोई न कोई, थोड़ी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बड़े बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बड़े बनने के, बड़े सपने सजोंये अपने जुगाड़ भिड़ाये, बार-बार मरने को, मन मारने को तैयार खड़ा है, तो आप आज कितनी बार मरे? मरो या मारो! तभी डील होंगी। देश प्रगति करेगा, हम मर कर अमर बन जायेंगे।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 27 ☆ शेयर का चक्कर  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शेयर का चक्कर* ।  शेयर शब्द ही ऐसा है जिसमें  “अर्थ” जुड़ा है। किन्तु, शेयर का कुछ और भी अर्थ है जिसके लिए आपको यह रचना पढ़नी पड़ेगी। ।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 27☆

☆ शेयर का चक्कर

शेयर बाजार में उथल – पुथल मची ही रहती है । मंदी की मार कब किस को प्रभावित कर देगी ये कोई नहीं कह सकता । फिर भी लोग शेयर खरीदते व बेचते रहते हैं,  जिससे शेयर मार्केट का अस्तिव बना हुआ है ।

ये तो था शेयर के धन का चक्कर जिसके फेर में न जाने कितने लोग आबाद व बर्बाद होते रहते हैं । अब एक और शेयर पर  भी नजर डाल ही लीजिए,  देखिए कितनी तेजी से फेसबुक पर पोस्ट की शेयरिंग होती है । बस पोस्ट में कुछ दम होना चाहिए । जब जनमानस के कल्याण की पोस्ट हो या कुछ विशेष चर्चा हो ; तो शेयर की बाढ़ लग जाती है । और देखते ही देखते पोस्ट वायरल हो जाती है ।

मजे की बात ये है,  कि इस शेयर ने चेयर को भी नहीं छोड़ा है । आये दिन चेयर के शेयर उछाल पकड़ ही लेते हैं। जितनी मजबूत चेयर उतने ही उसके दीवाने । बस हिस्सा- बाँट की बात हो तो शेयर के कदम बढ़ ही जाते हैं । चेयर को बचाये रखना कोई मामूली कार्य नहीं होता है । जोर आजमाइश से ही इसके साथ जिया जा सकता है । सभी लोग अपने – अपने पदों को शेयर करने में लगें । ये कार्य कोई जनहित  की भावना से नहीं होता, ये तो अपना रुतबा बढ़ाने की चाहत के जोर पकड़ने से शुरू होता है,  और हिस्सा – बाँट पर ही  पूर्ण होता है ।

पहले तो शेयर करो,  का अर्थ अपनी अच्छी व उपयोगी चीजों को बाँटना होता था , पर जब से मीडिया का प्रभाव बढ़ा तब से लोगों ने इसकी अलग ही परिभाषा गढ़ ली है । अब तो कुछ भी शेयर कर देते हैं, बस लाइक और कमेंट मिलते रहना चाहिए । इस दिशा में जन सेवक तो सबसे बड़े शेयर कर्ता सिद्ध हुए वे अपनी सत्ता तक शेयर कर देते हैं ; बस चेयर बची रहे । कर्म की  पूजा का महत्व तो घटता ही जा रहा है , अब  तो शेयर देव, चेयर देव यही  आपस में उलझते हुए इधर से उधर आवागमन कर रहें हैं । नयी जगह नया सम्मान मिलता है,  सो अपने जमीर को व जनता के विश्वास को भी शेयर करने से ये नहीं चूकते बस चेयर मजबूती से पकड़े रहते हैं ।

अरे भई इतना तो सोचिए कि,  वक्त से बड़ा समीक्षक कोई नहीं होता , ये सबका लेखा जोखा रखता है । अतः सोच समझ कर ही चेयर को शेयर करें, घनचक्कर न बनें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 10 ☆ व्यंग्य – ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 10 ☆

☆ व्यंग्य – ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद

नजर नजर का फेर है साहब. कुछ लोगों को देश में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या अभिशाप नजर आती है. मगर, डॉ. बनवारी तो इसे देख कर खुश ही होते हैं. ‘हार की जीत‘  कहानी के बाबा भारती जितने अपने घोडे़ सुल्तान को देखकर खुश होते थे, उतने ही डॉ. बनवारी देश में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या देख कर खुश होते हैं. उनके लिये देश में गरीबों की विशाल जनसंख्या किडनियों की एक लहलहाती फसल है. हर जिन्दा, सक्रिय, चलता फिरता, मजलूम इंसान लाख-पचास हजार रूपये का माल बदन में धरे धरे घूम रहा है. दीन हीन मानवों के शरीरों में पड़ी हैं दो-दो किडनियाँ, जिनमें से कम से कम एक को चुराया जा सकता है, बरगलाकर निकाला जा सकता है, बेचने पर मजबूर किया जा सकता है. जब भी किसी गरीब आदमी की नार्मल डेथ होती है वे कसक उठते हैं कि यार लाख रूपये का नुकसान हो गया. किसी मकान में सेंध लगाने से पहले ही जमींदोज हो जाये मकान तो कैसा लगता है! डॉ. बनवारी मानते हैं कि इस देश में गरीबी की रेखा के नीचे कम से कम पचास करोड़ किडनियाँ हैं जो बेची जा सकती हैं. लाख रूपये की एक किडनी भी समझो साहब तो पचास लाख करोड़ रूपये की संभावनाओं का बाजार है. अनटेप्ड. जिसका दोहन किया जाना बाकी है. अपने अस्पताल की अठारहवीं मंजिल से जब वे दूर तक फैली झोपड़पट्टी की ओर देखते हैं तो उन्हें अपनी मजबूरियों पर तरस आता है. किडनियों की फसल लहलहा रही है और मैं काट नहीं पा रहा. कब निकलवा कर बेच सकूंगा इनमें से हर एक की एक किडनी. एक टीस सी उठती है – ये साले गरीब दो-दो किडनियाँ रखने की विलासिता में जी रहे हैं और बेचारों धनिकों को जरूरत के समय माल नहीं मिल रहा.

डॉ. बनवारी हमारे शहर के सबसे नामी सर्जन है. ऑपरेशन करने में उनके हाथ का कोई सानी नहीं. अपने फन से उन्होने नाम के साथ अच्छा खासा रूतबा और धन भी कमाया है. कोठी बंगला, गाडियाँ, बैंक बेलेन्स. एक संतोष को छोड़कर सब कुछ है उनके पास. माल उनके लिये मंजिल नहीं, यात्रा है. सो अनथक दौड़ रहे हैं लक्ष्मी मार्ग पर. बचपन ऐसा नहीं था बनवारी का. गरीब थे. स्कूल जाने के अतिरिक्त वे कनछेदी उस्ताद के गैरेज पर काम किया करते थे. कनछेदी ने सिखाया उन्हें – “गाड़ी अच्छी कन्डीशन में हो तो उसका एकाध पार्ट मारकर जुगाड़ का पार्ट लगा भी दिया तो मालिक को पता नहीं चलता. इतनी बेईमानी गैरेज के धंधे में बेईमानी नहीं मानी जाती”. कनछेदी के सबक को बनवारी भूले नहीं. ऑपरेशन करते-करते मरीज के किसी बिक्री योग्य अंग पर दन्न से हाथ साफ कर ही देते हैं. मुद्रा मिलनी हो तो वे नॉन सेलेबल आर्गन्स भी मार देते हैं. जवान लड़कियों के यूट्रस तक रिमूव कर दिये उन्होंने कि माल मिल जाता है सरकार से. ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद हैं डॉ. बनवारी. कनछेदी गाडी का साउन्ड सुनकर पता कर लेता था कि इसका कौनसा पार्ट मार देने लायक है. डॉ. बनवारी की आंखों में स्कैनर लगा है. मरीज देखकर पहली बार में समझ जाते हैं कि इसका कौन सा आर्गन मार देना ठीक रहेगा. मार्केट कौन सा बेहतर है. उसे गल्फ के अमीर शेख को बेचा जाये या इंडिया के अपर क्लास रिच को. रेट अंकल सैम के देश में ज्यादा मिलेगा कि यूरो झोन में. वर्ल्ड वाइड नेटवर्क के पार्ट हैं डॉ. बनवारी. आर्गन माफिया के इकबाल मिर्ची.

एक बार की बात है साहब. कल्लू भर्ती हुआ डॉक्टर साहब के अस्पताल में. नामी चोर. सेंध मारी में उसका कोई भी सानी नहीं.

“कैसे तय करते हो चोरी का स्पॉट ?” डॉक्टर सा. ने नब्ज देखते देखते पूछ लिया.

“मौका देखकर स्पॉट लगाना पड़ता है. मकान में आठ दस दिनों से ताला पड़ा है.  घरवाले तीरथ गये हैं. अभी दस दिन और नहीं आयेंगे. दिन में गली सूनी पड़ी रहती है. बस स्पॉट लगा देते हैं.”

डॉ. बनवारी को वहम हुआ कि कहीं मैं खुद की नब्ज तो नही देख रहा. “हम भी देख ही लेते हैं – मरीज गरीब है, कमजोर है, अनपढ़ है, मजबूर है, मालूम पड़ने पर शोर नहीं मचा पायेगा. बस स्पॉट लगा देते हैं.”

जो डॉ. बनवारी ने लिखी होती शोले की स्क्रिप्ट तो गब्बर ठाकुर के हाथ नहीं उसकी किडनियाँ मांगता. डॉक्टर साहब के कन्डक्ट में समाती है कनछेदी, कल्लू और गब्बर की गंगा, जमना, सरस्वती. त्रिवेणी का अद्भुत संगम. अहा!

शहर में बीस मंजिल अस्पताल बनवाया है डॉ. बनवारी ने. अवैध ट्रांसप्लांट का आधुनिकतम प्लांट. शिकार के मचान के नीचे बंधा बकरा है गरीबों के लिये यहाँ की मुफ्त ओपीडी. एक जाल – भव्य, आकर्षक, सुनहरा . गरीबों का ऑपरेशन घटे दरों पर. आर्गन खोया तो दवा मुफ्त. खुराक मुफ्त. पोस्ट ऑपरेशन देखभाल मुफ्त. बस आर्गन छोड़ जाइये यहाँ. इस फाइव स्टार अस्पताल में पाँच सात तो ऑपरेशन थियेटर हैं. वर्कशॉप  ट्रांसप्लांट के. अलग अलग आर्गन्स के अलग – अलग मिस्त्री सर्जन. उनके उपर ओवरसियर सर्जन. उनके भी उपर सुपरवाइजर सर्जन. किडनी के टर्नर. लीवर के फिटर. लंग्स के फोरमैन. प्लांट, ट्रांसप्लांट का. विज्ञान जितने तरह के अंग बदलने की अनुमति देता है – ऑल अण्डर वन रूफ. सेल लगी है आर्गन्स की. फैक्ट्री रेट पर उपलब्ध. मंडी मानव अंगों की. बारीक अंग्रेजी अक्षरों में छपी सेल-डीड पर अंगूठा लगवाते मैच मेकर. दलाल घूमते हैं मुफलिसों की बस्तियों में. ढूंढकर लाते हैं बेचवाल किडनियों के. चेतना सुन्न, शरीर निढाल, ऑपरेशन टेबल के ऊपर जल रही तेज बत्ती के पीछे डॉक्टर साहब ने रोक कर रखा है भविष्य का अंधेरा. डॉक्टर साहब को अपने किये गये पर अपराध बोध नहीं होता. गर्व होता है. कहते हैं इससे ट्रांसप्लांट टूरिज्म को बढ़ावा मिलता है. विदेशी मुद्रा आती है देश में. किडनियाँ तो डॉक्टर साहब के पास भी दो-दो हैं मगर उनसे पेशाब नहीं बहती, जमीर बहता है.

कल्लू, कनछेदी और बनवारी सक्रिय हैं शहर में अपनी हस्ती, हुनर और हैसियत के हिसाब से. डॉक्टर बनवारी हमारे समाज की सबसे सम्मानित और पूजनीय तबके की जमात में उभर कर आये बदनुमा दाग हैं. दाग जिसका आकार बढ़ता ही जा रहा है .

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

यह माना जाता है कि सामाजिक-राजनैतिक रूप से जागरूक और मानसिक-वैचारिक रूप से परिपक्व भाषा-समाज में ही श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन संभव है। बंगला व मलयालम में इसकेे बाबजूद व्यंग्य लेखन की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है, जबकि अपेक्षाकृत अशिक्षित व पिछड़े हिन्दी भाषा समाज में इसकी एक स्वस्थ व जनधर्मी परम्परा कबीर के समय से ही दिखाई पड़ती है। आपकी दृष्टि में इसकेे क्या कारण है ?

हरिशंकर परसाई – 

हां, आपका यह कहना ठीक है कि बंगला और मलयालम में व्यंग्य की एक समृद्ध परंपरा नहीं है, और न व्यंग्य है, जहां तक मैं जानता हूं। पर यह कहना कि एक बड़ी परिष्कृत भाषा में ही व्यंग्य बहुत अच्छा होता है या होना चाहिए, इस बात से मैं सहमत नहीं हूं। देखिए लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य विनोद होता है। आपने बुंदेलखंडी के व्यंग्य विनोद अवश्य सुनें होंगे। आपस में लोग बातचीत करते करते व्यंग्य विनोद करते हैं, कितने प्रभावशाली होते हैं, अब वह तो लोकभाषा है, आधुनिक भाषा रही नहीं, आधुनिक भाषा तो खड़ी बोली हिन्दी है।

लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य, बहुत अच्छा विनोद होता है, तो मैं समझता हूं कि भाषा किसी भी प्रकार से इसमें बाधक नहीं है। आवश्यकता है व्यंग्य चेतना की।

किसी  भाषा के लेखकों में व्यंग्य चेतना अधिक होगी तो वे व्यंग्य अधिक लिखेंगे। लोकभाषा बुंदेली में या भोजपुरी में लोग बात बात पर व्यंग्य करते हैं, बात बात में विनोद करते हैं, तो उन लोगो की कहने की शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई है। यद्यपि लोकभाषा में व्यंग्य अधिक लिखा नहीं गया है पर वे व्यंग्य करते हैं, विनोद करते हैं। हिंदी वैसे नयी भाषा है, बहुत समृद्ध नहीं, पर इसमें कबीरदास की भाषा से तो हिंदी शायद न भी कहीं चूंकि वह बहुत प्रकार के मेल से बनी भाषा है। उन्होंने भाषा को तोड़फोड़ कर ठीक-ठाक कर लिया है, विद्रोही थे वे। कबीर दास में व्यंग्य है। आधुनिक भाषा हिन्दी में व्यंग्य की परंपरा है, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा ‘मतवाला’ जो पत्र निकलता था उसमें उग्र, मतवाला, निराला वगैरह काम करते थे। उसमें बहुत व्यंग्य है। उसकी फाइल उठाकर देखिए उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य है। प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त वगैरह व्यंग्य के कालम लिखते थे, जैसे मैं भी व्यंग्य के कोलौम्न कॉलम लिखता हूं। तो परंपरा है ही, उसी परंपरा में नवयुग की चेतना के अनुकूल और अपनी शैली से उसमें और जुड़कर तथा परंपराओं को तोड़कर मैंने व्यंग्य लिखा और हिंदी में व्यंग्य, लिखने वाले बहुत अधिक हैं, इसमें कोई शक नहीं, किसी अन्य भाषा में इतने अधिक नहीं होंगे शायद।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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