हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  एक  प्रेरक कविता । ) 

 

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!  

 

तू कर प्रयास और पा सफलता

न मिले सफलता तो तू कर प्रयास

अर्जुन बन कर तू भेद चक्षु को

मत्स्य की ओर समर्पण कर जा

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

तू भेद बाणों की वर्षा से

और खींच प्रंत्यचा साहस से

एकलव्य बन तू भेद आकाश

जब तक लगे ना घाव वहाँ

कोई मिले ना गुरू यहाँ

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

©  सौ. सुजाता काळे 
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हे मातृ भूमि ! ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ हे मातृ भूमि! ☆ 

 

है क्यों घमासान?

तेरे आँचल में,

सभी तेरे लाल हैं,

फिर क्यों है,

कोई हरा, कोई नीला, कोई भगवे रूप में,

कभी,  सभी….,

तेरे लिए लड़ते थे, अब,

सभी आपस में लड़ते हैं,

बदनाम तेरे आँचल को करते हैं,

तेरे पुत्र नहीं,

कुछ पराये से लगते हैं,

पैदा कर कुछ ऐसा भूचाल,

हो जायें सारे आडम्बरी बेहाल,

दुनिया सारी अचंभित हो जाये,

पड़ोसी भी थर्रा जाये,

वीरों का खून भी,

अब खौलता है,

सफेदपोश भी,

बे-तुका सा बोलता है,

हे मातृ भूमि,

क्युं अब कोई…… महात्मा जैसा,

क्युं अब कोई……. अम्बेडकर जैसा,

क्युं अब कोई…….. टैगौर जैसा,

क्युं अब कोई………. पटेल जैसा,

जन्म नही लेता,

तेरी कोख से,

हे मातृ भूमि,

कर दे कुछ ऐसा,

सभी में हो,

देश भक्ति भाव,

एक जैसा……वंदे मातरम…..!

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में सहायक प्रबन्धक हैं।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #1 ☆ अनचीन्हे रास्ते ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ.  मुक्ता जी  के  हृदय से आभारी हैं , जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनों से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अनचीन्हे रास्ते”। डॉ मुक्ता जी के बारे में कुछ  लिखना ,मेरी लेखनी की  क्षमता से परे है।  )  

डॉ. मुक्ता जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

  • राजकीय महिला महाविद्यालय गुरुग्राम की संस्थापक और पूर्व प्राचार्य
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी” द्वारा श्रेष्ठ महिला रचनाकार के सम्मान से सम्मानित
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी “की पहली महिला निदेशक
  • “हरियाणा ग्रंथ अकादमी” की संस्थापक निदेशक
  • पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी द्वारा ¨हिन्दी  साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार” से सम्मानित ।  डा. मुक्ता जी इस सम्मान से सम्मानित होने वाली हरियाणा की पहली महिला हैं।
  • साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपकी 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता संग्रह, कहानी, लघु कथा, निबंध और आलोचना पर लिखी गई आपकी पुस्तकों पर कई छात्रों ने शोध कार्य किए हैं। कई छात्रों ने आपकी रचनाओं पर शोध के लिए एम फिल और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं।
  • कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित
  • सेवानिवृत्ति के बाद भी आपका लेखन कार्य जारी है और कई पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं।

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #1 ☆

☆ अनचीन्हे रास्ते ☆

मैं जीना चाहती हूं

अनचीन्हे रास्तों पर चल

मील का पत्थर बनना चाहती हूं

क्योंकि लीक पर चलना

मेरी फ़ितरत नहीं

मुझे पहुंचना है,उस मुक़ाम पर

जो अभी तक अनदेखा है

अनजाना है

जहां तक पहुंचने का साहस

नहीं जुटा पाया कोई

 

मैं वह नदी हूं

जो राह में आने वाले

अवरोधकों को तोड़

सबको एक साथ लिए चलती

विषम परिस्थितियों में जीना

संघर्ष की राह पर चलना

पर्वतों से टकराना

सागर की लहरों से

अठखेलियां करना

आगामी आपदाओं की

परवाह न करते हुए

तटस्थ भाव से बढ़ते जाना

 

‘एकला चलो रे’

मेरे जीवन का मूल-मंत्र

आत्मविश्वास मेरी धरोहर

सृष्टि-नियंता में आस्था

मेरे जीवन का सबब

उसी का आश्रय लिए

उसी का हाथ थामे

निरंतर आगे बढ़ी हूँ

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला

 

लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला,

मैं जन-तन-मन सुलगाने आया हूं।

मैं खुद ही विरही प्यासा मतवाला,

प्रणयी-उर-प्यास मिटाने आया हूं।।

लेकर हर——————-आया हूं।।

 

मैं ज्वालामुखी की हूं अंतर ज्वाला,

निज उर अंगारे बरसाने आया हूं।

मैं व्योम की हूं प्यासी बादल शाला,

धरती की प्यास मिटाने आया हूं।।

लेकर हर——————–आया हूं।।

 

मैं तो पवन हूं पतझड़ का मतवाला,

वृक्षों की हर पात गिराने आया हूं।

मैं बसंत का विरही प्यासा मदवाला,

वन-उपवन-नगर महकाने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

प्रिय मैं यौवन की अक्षत मधुशाला,

उर की मधु प्यास जगाने आया हूं।

मैं हूं खुद प्यासा खाली मधु प्याला,

विरही को मधुपान कराने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

मैं शलभ दीपशिखा पे जलने वाला,

प्रियतम् पर  प्राण चढ़ाने आया हूं।

मैं हूं मधुप अलि मधुर गुंजन वाला,

शूलों से विध मधु चुराने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

मैं हूं चातक चिर तृष्णा है मैंने पाला,

पी स्वाती वर्षा प्यास मिटाने आया हूं।

मैं अनंत अतल सागर खारे जल वाला,

घन बन वन उपवन महकाने आया हूं।।

लेकर हर————————आया हूं।।

 

मैं ही हूं शिव प्रलयंकारी तांडववाला,

सती-वियोग-संताप बुझाने आया हूं।

मैं ही हूं नीलकंठ विषपान करनें वाला,

भूमण्डल सकल गरल मिटाने आया हूं।।

लेकर हर———————–आया हूं।।

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अद्भुत और वत्सल सम्राट महाकवि ☆ – सुश्री उमा रानी मिश्रा

सुश्री उमा रानी मिश्रा

 

(सुश्री उमा रानी मिश्रा जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप कालिंदी महाविद्यालय में  सहायक प्राध्यापिका (संस्कृत) एवं प्रसिद्ध लेखिका हैं।आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित तथा आप अनेक सम्मानों से अलंकृत हैं।)

 

☆ अद्भुत और वत्सल सम्राट महाकवि ☆

 

वह महाकवि है जो  वत्सल को निखार देता है।

पठन में पुत्र-पुत्री के स्नेह से जब काव्य निचौडो़ ,

सातवें अंक के भरत दुष्यंत शकुंतला तो छोड़ो ,

कण्व और प्रकृति को भी चौथे अंक की विदाई में ढाल देता है ।।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

आज के नाटक, रंगमंच  सिनेमा और अभिनेता

शोहरत-ए-आसमाँ भी उसमें मेरे पास माँ है कहता,

अनाथों की मां को भी शीशे में उतार लेता है ।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

जानते हो मालविकाग्नि के पिता-पुत्र स्नेह को ?

नाटक तो नाटक, कुमार में पार्वती और हिमालय के नेह को ?

वहाँ बचपन से बुढ़ापे तक जीवंत वत्सल ही तार देता है।

और रसों को आत्मा कहने वाला भी दर्पण में वत्सल अपार देता है

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

पार्वती और कुमार के प्रति वात्सल्य की समानता में,

गहरी बात है उसमें छुपे अद्भुत की महानता में ,

उसकी अनुभूति में बॉलीवुड, हॉलीवुड को छोड़ो,

सब कहते हैं शांत को रखो अद्भुत को छोडो़ ,

जिससे नटी ही नहीं सहृदय भी आत्मा के पार जाता है।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

जो कहता है शृंगार, वत्सल शांत या वीर राजा हो ,

यह सत्य भी आज सोचो तो आधा हो

क्यों ना अद्भुत साहित्य में रसों का राजा हो

क्योंकि अद्भुत ही वह रस है ,

जो सबको महानता उधार देता है।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

खोजते हैं सब नाटक और रंगमंच में ,

वीर, शृंगार, शांत के प्रपंच में,

महाकवि ही है जो ऐंटरटेनमेंट उधार देता है ।

वो महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

यह काव्य शोध का ही उत्कर्ष है ,

विराम नहीं अपितु एक विमर्श है ,

जो अद्भुत और वत्सल रस को नया आधार देता है ।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।

 

इसी कलम से बुद्धिजीवियों ने ग्रहों के आयाम पाए हैं।

सृष्टि के आदि अंत की उमा हूँ ,

जिसका साहित्य आपको हर्ष और विस्मय अपार देता है ।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

अंत करती हूँ वाणी और महाकवि को प्रणाम कर ,

जो कवि को नाट्यकर्ता की पहचान देता है।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

© उमा रानी मिश्रा ✍

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ रिश्ते और दोस्ती  ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

☆ रिश्ते और दोस्ती  ☆

 

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता

 

कई रिश्ते निभाने में लोगों की तो आवाज ही बदल जाती है

बस अच्छी दोस्ती में कोई आवाज और लहजा ही नहीं होता

 

रिश्ते निभाने के लिए ताउम्र लिबास बदलते रहते हैं लोग

बस अच्छी दोस्ती निभाने में लिबास बदलना ही नहीं होता

 

बहुत फूँक फूँक कर कदम रखना पड़ता है रिश्ते निभाने में

बस अच्छी दोस्ती में कोई कदम कहीं रखना ही नहीं होता

 

जिंदगी के बाज़ार में हर रिश्ते की अपनी ही अहमियत है

बस अच्छी दोस्ती को किसी रिश्ते में रखना ही नहीं होता

 

© हेमन्त  बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हमको ऐसा देश, चाहिये ☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

 

(डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी की  यह  रचना सामयिक नहीं कालजयी, चाहिए।  हमको ऐसा देश, चाहिए …  । अतिसुन्दर रचना  डॉ विजय जी की लेखनी को नमन।)

 

☆ हमको ऐसा देश, चाहिए  ☆

 

नैनों में हो, नेह समाया

सद्गुण हो, सबका आभूषण।

निश्छलता, अपनाने वाले,

कर्मठ मनुज, विशेष, चाहिये।।

हमको ऐसा देश, चाहिये …

 

स्वाभिमान हर, माथे दमके,

राष्ट्रप्रेम, हो सबके अंतस।

धर्म-कर्म, की अलख जगाने,

गीता के उपदेश, चाहिये।।

हमको ऐसा देश, चाहिये …

 

आतंकी, खल, दुर्धर्षों का,

कर डालें, अब पूर्ण सफाया।

सीमा पर, मर-मिटने वाले,

भावों का उन्मेष, चाहिये।।

हमको ऐसा देश, चाहिये …

 

स्थिरता हो, अनुशासन हो,

देशप्रगति, की रहे लालसा।

औद्योगिक, तकनीकि क्रांति का,

वृहद, नवल, परिवेश, चाहिये।।

हमको ऐसा देश, चाहिये …

 

प्रतिभाओं के, सदुपयोग से,

हो भविष्य, युवकों का उज्ज्वल।

रोजगार, देने संकल्पित,

शिक्षा में संदेश, चाहिये।।

हमको ऐसा देश, चाहिये …

 

भगवद्गीता, वेद-ऋचायें,

भारत की, बहुमूल्य विरासत।

संस्कार, आदर्श, ज्ञान का,

बहुआयामी वेश, चाहिये।।

हमको ऐसा देश चाहिये …

 

भूल परस्पर, भेदभाव सब,

कहलायें, हम भारतवासी।

भारत को, उत्कृष्ट बनाने,

होने बड़े निवेश, चाहिये।।

हमको ऐसा देश, चाहिये …

 

© डॉ विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ ज़िन्दगी… एक किताब ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की  जीवन के प्रति एक दार्शनिक दृष्टिकोण लिए कविता  “जिंदगी ……. एक किताब”। 

 

☆ ज़िन्दगी… एक किताब ☆

 

ज़िन्दगी एक किताब है

और समय परिवर्तनशील

पल-पल रंग बदलता

आग़ाह करता व संदेश देता

बुरे समय में मत थामो

निराशा का दामन

न ही बंद करो आंखें

बगुले की मानिंद

 

किताब का अगला पन्ना खोलो

पढ़ो और नए अध्याय की

शुरुआत करो

विपत्ति में मत छोड़ो

धैर्य व साहस का आंचल

अनवरत संघर्षरत रहो

यही जीवन में सफलता पाने का

सर्वोत्तम साधन

 

मत भूलो!

समय,सत्ता,धन, शरीर नश्वर हैं

नहीं साथ देते किसी का उम्रभर

सांसों की भांति घटते जाते

हर दिन,हर पल

 

अच्छा स्वभाव व सद्व्यवहार

ईमानदारी और समझदारी

जीवन को समुन्नत करते

अध्यात्म की राह पर

निरंतर चलना सिखलाते

आजीवन हमसफ़र बन

साथ निभाते

विश्वास करो स्वयं पर

यही जीवन में

सामंजस्यता व समरसता लाते

अलौकिक आनंद बरसाते

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नारी मुक्ति के मायने क्या पोशिदा होते हैं? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ नारी मुक्ति के मायने क्या पोशिदा होते हैं? ☆

 

क्यों अक्सर कूड़ों के बदबूदार ढ़ेर में,

उजली सुबह काले कर्म छिपें होते हैं।

कुत्तों से नुच नुच कर बहशीयाने ढ़ेर में,

नवजात शिशुओं के शव पड़े होते हैं।।

 

महाभारत के कर्ण आज भी पैदा होते हैं,

जो अवैध नहीं, मां बाप अवैध होते हैं।

निष्पाप होकर भी वे कूड़े में पड़े होते हैं,

क्योंकि अवैध ऐयासी की उपज होते हैं।।

 

कर्ण तो कुंवारी कुंती की एक गलती थी,

आज के कर्ण तो वासना का फ़ल होते हैं।

कुंती के दिल की कभी  नहीं चलती थी,

तभी तो लख्ते जिगर कूड़े में पड़े होते हैं।।

 

बिन विवाह संग रह कर सभी वैध होते हैं,

अवैध भी महाभारत से वैध हुआ करतें हैं।

बेटियों से भी तो सहारे हमें मिला करते हैं,

फिर क्यों शव उनके ही नुचे पड़े मिलते हैं।।

 

सास ससुर पति हेतु क्यों ममता शर्म सार है ,

पुत्र पैदा करने हेतु नारी शिशु बलि होते हैं।

सृष्टा हैं बृह्मा हैं नियंता हैं और जीवन सार हैं,

फिर भी नारी शिशु शलभ सम दहन होते हैं।।

 

आज़ कुंती अबला नहीं निज पैरों पे खड़ी है,

फिर भी दिल के टुकड़े उससे जुदा होते हैं।

क्यों उसकी इज़्ज़त लहूलुहान कूड़े में पड़ी है,

नारी मुक्ति के मायने क्या पोशिदा होते हैं।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पिता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

 

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता “पिता ”।)

 

☆ पिता ☆

 

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो, हां, तुम स्नेह न दिखाते थे

मां की तरह न तुम सहलाते हो, पर हो तो तुम पिता ही ना।

जब मैं गिरती थी बचपन में, दर्द तुम्हें भीहोता था

चाहे चेहरा साफ छिपा जाए, पर दिल तो रोता ही था

माना गुस्सा आ जाता था, हम जरा जो शोर मचाते थे

पर उस कोलाहल में कभी-कभी, मजा तुम भी तो पा जाते थे

चलते-चलते राहों में, जब पैर मेरे थक जाते थे

मां गोद उठा न पाती थीं, कांधें तो तुम्हीं बैठाते थे

मां जब भी कभी बीमार पड़ीं, तुम कुछ पका न पाते थे,

कुछ ठीक नहीं बन पाता था, कोशिश कर कर रह जाते थे

उमस भरी उस गर्मी में, कुछ मैं जो बनाने जाती थी

तब वह तपिश, उस गर्मी की, तुमको भी तो छू जाती थी

जरा सी तुम्हारी डांट पर, हम सब कोने में छिप जाते थे

झट फिर बाहर निकल आते, जो तुम थोड़ा मुस्काते थे

मैं जब दर्द में होती थी, व्याकुल तुम भी हो जाते थे

पलकें भीगी होती थीं, फिर आंखें चाहे न रोती थीं

चेहरा जो तुम्हारा तकती हूं, आशीष स्वयं मिल जाता है

मुख से चाहे कुछ न बोलूं, वंदन को सिर झुक जाता है

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

 

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