हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 110 – जीवन का लेखा-जोखा है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  “जीवन का लेखा-जोखा है…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 110 – जीवन का लेखा-जोखा है ☆

जीवन का लेखा-जोखा है।

जिन्दा रहे तभी चोखा है।।

सही राह पर जब हम चलते,

सच्ची दौलत का खोखा है।।

गीता में उपदेश लिखा सुन,

रिश्ते-नाते सब धोखा है।

जब-जब श्रम सम्मानित होता,

बहे-पसीने को सोखा है।

जीवन-धन सबने है पाया,

सबका  भाग्य  अनोखा है।

तन का मकाँ बनाया उसने,

इन्द्रियाँ-आँख झरोखा है।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आमरण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आमरण ? ?

दो समूहों में

वाद-विवाद,

मार-पीट,

दंगा-फसाद,

सुना-

बीच-बचाव करनेवाला

निर्दोष मारा गया

दोनों तरफ के

सामूहिक हमलों में,

सोचता हूँ

यों कब तक

रोज़ मरता रहूँगा मैं?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – नववर्ष के दोहे – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ – नववर्ष के दोहे  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

नया हौसला धारकर, कर लें नया धमाल।

अभिनंदित करना हमें, सचमुच में नव काल।।

नवल चेतना संग ले, करें अग्र प्रस्थान।

होगा आने वाला वर्ष तब, सचमुच में आसान।।

वंदन करने आ रहा, एक नया दिनमान।

कर्म नया,संकल्प नव, गढ़ लें नया विधान।।

बीती बातें भूलकर, आगे बढ़ लें मीत।

तभी हमारी ज़िन्दगी, पाएगी नव जीत।।

कटुताएँ सब भूलकर, गायें मधुरिम गीत।

तब सब कुछ मंगलमयी, होगा सुखद प्रतीत।।

देती हमको अब हवा, एक नया पैग़ाम।

पाना हमको आज तो, कुछ चोखे आयाम।।

कितना उजला हो गया, देखो तो दिन आज।

है मौसम भी तो नया, बजता है नव साज़।।

पायें मंज़िल आज तो, कर हर दूर विषाद।

नहीं करें हम वक़्त से, बिरथा में फरियाद।।

साहस से हम लें खिला, काँटों में भी फूल।

दुख पहले सुख बाद में, यही सत्य का मूल।।

अभिनंदित हो वर्ष नव, बिखरायें उल्लास।

कभी न भाई मंद हो, पलने वाली आस।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 169 – गीत – बैठ गया जब तेरे पास ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – क्यों कर पालिश करती हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 169 – गीत – बैठ गया जब तेरे पास…  ✍

बैठ गया जब तेरे पास

शंका शूल जले, बन घास।

दिन में सोया सपना देखा

अपने बीच खिंची है रेखा

तब बड़ी देर तक मैं रोया

आँसू से ही आनन धोया

मन बेहद हो गया उदास

बैठ गया जब तेरे पास

शंका शूल जले बन घास

सपनों ने तोड़ा उपवास ।

तरस रहा मन देखा तूने

मुरझ रहा मन देखा तूने

जब तुमने उठकर बाँह गही

शंका तब बिल्कुल नहीं रही।

गाने लगी कंठ की प्यास

बैठ गया जब तेरे पास

शंका शूल जले बन घास

जुड़े सभी टूटे विश्वास।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 168 – “सुबह सुबह…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  सुबह सुबह...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 168 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “सुबह सुबह...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

फिसल गई सूरज के हाथसे

फिर नई सुबह, सुबह सुबह

जान नहीं पाया अब तक वजह

 

फैल गई मधुर गंध दूर तलक

झपकाती रह गई पवन पलक

प्राची के सुनकर उलाहने

तेजतेज लगता रथ हाँकने-

 

अरुण फिर नई तरह, सुबह सुबह

 

पेड़ तले पीलिया कशीदों को

बाँच रहा किरन की रसीदों को

बाँटरहा जैसे प्रमाणपत्र

सभी दिशाओं की उम्मीदों को

 

मौन फिर हुई सुलह, सुबह सुबह

 

सभी कहें कैसे हुआ संभव-

यह , पहले जो था बिलकुल नीरव

धीरे धीरे जिसमें उभर रहा

मीठा मीठा चिडियों का कलरव

 

बढी हुई थी  कलह, सुबह सुबह

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जाता साल / आता साल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जाता साल / आता साल  ? ?

(आज 2023 विदा ले चुका है। 2024 दहलीज़ पर पदार्पण कर चुका है। इस परिप्रेक्ष्य में ‘जाता साल’ व ‘आता साल’ पर कुछ वर्ष पहले वर्ष पूर्व लिखी दो रचनाएँ साझा कर रहा हूँ। आशा है कि इन्हें पाठकों से अनुमोदन प्राप्त होगा।)

[1] – जाता साल

करीब पचास साल पहले

तुम्हारा एक पूर्वज

मुझे यहाँ लाया था,

फिर-

बरस बीतते गए

कुछ बचपन के

कुछ अल्हड़पन के

कुछ गुमानी के

कुछ गुमनामी के,

कुछ में सुनी कहानियाँ

कुछ में सुनाई कहानियाँ

कुछ में लिखी डायरियाँ

कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,

कुछ सपनों वाले

कुछ अपनों वाले

कुछ हकीकत वाले

कुछ बेगानों वाले,

कुछ दुनियावी सवालों के

जवाब उतारते

कुछ तज़ुर्बे को

अल्फाज़ में ढालते,

साल-दर-साल

कभी हिम्मत, कभी हौसला

और हमेशा दिन खत्म होते गए

कैलेंडर के पन्ने उलटते और

फड़फड़ाते गए………

लो,

तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया

पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया

पर रुको, सुनो-

जब भी बीता

एक दिन, एक घंटा या एक पल

तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ

मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,

समझ चुका हूँ

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

[2] आता साल

शायद कुछ साल

या कुछ महीने

या कुछ दिन

या….पता नहीं;

पर निश्चय ही एक दिन,

तुम्हारा कोई अनुज आएगा

यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,

तब तुम नहीं

मैं फड़फड़ाऊँगा

अपने जीर्ण-शीर्ण

अतीत पर इतराऊँगा

शायद नहीं जाना चाहूँ

पर रुक नहीं पाऊँगा,

जानता हूँ-

चला जाऊँगा तब भी

कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे

सजेंगे-रँगेंगे

रीतेंगे-बीतेंगे

पर-

सुना होगा तुमने कभी

इस साल 14, 24, 28,

30 या 60 साल पुराना

कैलेंडर लौट आया है

बस, कुछ इसी तरह

मैं भी लौट आऊँगा

नए रूप में,

नई जिजीविषा के साथ,

समझ चुका हूँ-

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆ # नववर्ष की सुबह # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नववर्ष की सुबह #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆

☆ # नववर्ष की सुबह #

नये साल की नई सुबह है

मुस्कुराने की वजह है

झूम रही है दुनिया सारी

खुशियां बिखरी हर जगह है

 

बागों में भंवरों की गुनगुन है

चूम रहे कलियों को चुन-चुन है

मदहोशी में हैं अल्हड़ यौवन

पायल की बजती रुनझुन है

 

नव किरणों की अठखेलियां हैं

ओस की बूंदों से लिपटी कलिया हैं

महक रही है बगिया बगिया

खुशबू लुटाती फूलों की डलिया हैं  

 

वो युगल गा रहे हैं प्रेम के गीत

लेकर बांहों में अपने मीत

आंखों के सागर में डूबे

अमर कर रहे हैं अपनी प्रीत

 

मजदूर बस्ती के वंचित परिवार

झेल रहे जो महंगाई की मार

मध्य रात्रि से देख रहे हैं

पैसे वालों का यह त्यौहार

 

नई सुबह के नए हैं सपने

कौन पराया सब हैं अपने

भेदभाव सब मिटा दो यारों

लगो प्रेम की माला जपने

 

नववर्ष में नए विचार हो

दया, करूणा और प्यार हो

कोई ना रह जाए वंचित

सब के दामन में खुशियां अपार हो /

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 168 ☆ मुक्तिका – रूप की धूप ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है – मुक्तिका – रूप की धूप )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 168 ☆

☆ मुक्तिका – रूप की धूप  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा

रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा

*

दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा

धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा

*

मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना

पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा

*

आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे

झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा

*

भरो अँजुरी में ‘सलिल’ रूप जो उसका देखो

बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #218 – 105 – “वो नज़र दोनों चुराते ही रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ।)

? ग़ज़ल # 105 – “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी में अक्सर एक भरम रहा,

आदमी  ताज़िंदगी  बरहम  रहा।

हाथ पर  हाथ धरे  वो बैठी रही,

यार मेरा  खून  थोड़ा गरम रहा।

वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे,

मुहब्बत का मगर बीच भरम रहा।

आँख रोती रात दिन फुरकत ए ग़म,

दिल मगर दोनों ही तरफ़ नरम रहा।

सूरत  वस्ल की  नज़र में  है नहीं,

आतिश उसे मिले बिना दरहम रहा।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ? ?

माप-जोखकर खींचता रहा

मानक रेखाएँ जीवन भर

पर बात नहीं बनी,

निजी और सार्वजनिक

दोनों में पहचान नहीं मिली,

आक्रोश में उकेर दी

आड़ी-तिरछी, बेसिर-पैर की

निरुद्देश्य  रेखाएँ;

यहाँ-वहाँ अकारण

बिना प्रयोजन,

चमत्कार हो गया!

मेरा जय-जयकार हो गया,

आलोचक चकित थे-

आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग का

ऐसा शिल्प आज तक

देखने को नहीं मिला,

मैं भ्रमित था-

रेखाएँ, फ्रेम, बॉक्स,

आउट ऑफ बॉक्स,

मैंने यह सब कब सोचा था भला?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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