हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #164 ☆ भावना के दोहे – मकर सक्रांति /लोहड़ी ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे – मकर सक्रांति /लोहड़ी।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 164 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – मकर सक्रांति /लोहड़ी ☆

लोहड़ी की धूम मची, नाच रहे है यार।

मिलजुल कर सब झूमते, बांट रहे हैं प्यार।।

ढोल नगाड़े बज रहे, मनता है त्योहार।

पर्व लोहड़ी का मने, हर्षित होते यार।।

गीत पर्व के गा रहे, महफिल चारों ओर।

होम लगाते रेवड़ी, शोभा है घनघोर।।

सुबह सबेरे कर रहे, संक्रांति का स्नान।

हर्षित मन अब हो गया, करते पूजा ध्यान।।

मकर संक्रांति मन रही, मंगलमय त्योहार।

लड्डू बने तिल गुड़ के, पतंग उड़ी हजार ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #151 ☆ एक पूर्णिका – “रिश्तों में अब हो गईं तल्खियाँ…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक पूर्णिका – “रिश्तों में अब हो गईं तल्खियाँ। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 151 ☆

☆ एक पूर्णिका – रिश्तों में अब हो गईं तल्खियाँ ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आदमी अब परेशान बहुत हैं

अंदर उसके अरमान बहुत हैं

डरता है अब यहाँ वो इश्क से

इश्क़ में गम दर्दे-जान बहुत हैं

रिश्तों में अब हो गईं तल्खियाँ

फासले  अब  दरम्यान बहुत हैं

उन  पर  यूँ  तोहमत न लगाइए

हम पर उनके अहसान बहुत हैं

कम कीजिये अब बोझ सफर का

पास  आपके   सामान  बहुत   हैं

खामोशी  से  करें  बात  किसी से

दीवारों  के  यहाँ   कान  बहुत   हैं

“संतोष”  जाने  क्या हुआ  उनको

हम  पर  वो   मेहरवान  बहुत   हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सापेक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 भास्कर साधना संपन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी । 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सापेक्ष ??

भारी भीड़ के बीच

कर्णहीन नीरव,

घोर नीरव के बीच

कोलाहल मचाती मूक भीड़,

जाने स्थितियाँ आक्षेप उठाती हैं

या परिभाषाएँ सापेक्ष हो जाती हैं,

कुछ भी हो पर हर बार

मन हो जाता है क्वारंटीन,

….क्या कहते हो आइंस्टीन?

(कवितासंग्रह ‘क्रौंच’)

© संजय भारद्वाज 

11:28 बजे, 29.1.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 142 ☆ बाल गीत – धूप गुनगुनी ऊर्जा देती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 142 ☆

☆ बाल गीत – धूप गुनगुनी ऊर्जा देती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

दिन छोटे हैं , सर्दी आई

मौसम हमें सँवारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

 

सूरज जी प्राची में लिखते

स्वर्णिम – स्वर्णिम पाती।

गौरैया , बुलबुल भी मिलकर

मीठे गीत सुनाती।

 

काँव – काँव कौए जी गाएँ

साथी सदा पुकारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

 

सर्दी जी वर्दी – सी पहने

कोहरे की चादर में।

किरणों ने कोहरे को खाया

लगा सिसकने घर में।

 

खेल खेलता मौसम नित ही

दीखें नए नजारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

 

सदा मौसमी फल , सब्जी ही

सेहत रखती अच्छा।

आलस त्यागें, करें योग जो

तन की होती रक्षा।

 

जल्दी जगकर पढ़ें भोर में

वे बच्चे हैं प्यारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #164 – सूरज को हो गया निमोनिया…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “सूरज को हो गया निमोनिया…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #164 ☆

सूरज को हो गया निमोनिया…

सूरज को हो गया निमोनिया

जाड़े की बढ़ गई तपन

शीत से सिहरते साये

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

 

शीत लहर का छाया है कहर

सन्नाटे में खोया है शहर

अंबर के अश्रु ओस बूँद बने

बहक रहे शब्द और लय बहर,

 

थकी थकी रक्त शिराएँ बेकल

पोर-पोर मची है चुभन

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

 

सिकुड़े-सिमटे तुलसी के पत्ते

अलसाये मधुमक्खी के छत्ते

हाड़ कँपाऊ ठंडी के डर से

पहन लिए ऊनी कपड़े-लत्ते,

 

कौन कब हवाओं को रोके सका

चाहे कितने करें जतन

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

 

अहंकार बढ़ गया अंधेरे का

मंद तापमान सूर्य घेरे का

दुबके हैं देर तक रजाई में

नहीं रहा मान शुभ-सबेरे का,

 

मौसम के मन्सूबों को समझें

दिखा रहा तेवर अगहन

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ विश्व हिंदी दिवस विशेष ☆ हिंदी-व्यथा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

☆ कविता ☆ विश्व हिंदी दिवस विशेष ☆ हिंदी-व्यथा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

कल रात हिंदी मेरे सपने में आई,

सुनाने  अपनी  व्यथा चली आई।

 

ब्राह्मी पाली प्राकृत के साथ खेली,

मुझे गोद लिए संस्कृत चली आई।  

 

द्रविड़ भाईयों  को पर मैं नहीं भाई,

कहते हैं आर्य परिवार से तुम आई।

 

गुरमुखी  गुजराती  मराठी बंगाली,

कई  मुँहबोली  बहन निकल आई।

 

अवधि बृज बुंदेली मैथिल भोजपुरी,

सभी सहेलियाँ इठलाती चली आई।

 

देव नागरी उर्दू  अरबी फ़ारसी रोमन,

जिसमें चाहो लिखो हिंदी ही कहलाई।

 

मुझे कहते हो भारत माता की बिंदी,

भरी सभा में द्रोपदी सी घसीटी लाई। 

 

बनने वाली थी  मैं कौशल महारानी,

कैकई कृपा  से वनवास चली आई।

 

मैं खिल रही थी  हिंद की बाहों में,

अंग्रेज़ी सौतन  बीच में चली आई।

 

राष्ट्रभाषा, राजभाषा बनते-बनते मैं,

कामवाली सम्पर्क  भाषा बन आई।

 

कल रात  हिंदी मेरे सपने में आई,

सुनाने वह अपनी व्यथा चली आई।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्व हिंदी दिवस विशेष ☆  हिंदी पर अभिमान मुझे…☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ कविता ☆ विश्व हिंदी दिवस विशेष ☆  हिंदी पर अभिमान मुझे… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

दुनिया भर में हिंदी के बारे में जागरूकताफैलाने के लिए मनाते हैं विश्व हिंदी दिवस दुनिया भर में एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए 10 जनवरी को प्रतिवर्ष विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. यह दिन विशेष रूप से विदेशों में भारतीय दूतावासों द्वारा मनाया जाता है.

हिंदी भाषा के विकास हेतु 10 जनवरी 1974 को नागौर में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ।

विश्व हिंदी दिवस प्रति वर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है।

हिन्द देश के हिंदी भाषा, जिस पर  है अभिमान मुझे।

हर दिल की धड़कन है हिंदी, जगत में इसे सम्मान मिले।।

देश का गौरव ,भविष्य की आशा, जनता की भाषा हिंदी।

जैसे सुहागन के मस्तक पर ,गौरव की सजती बिंदी।।

हम सबने अपनी वाणी से ,हिंदी का रूप तराशा है।

जान बने हिंदी भाषा , यही मेरी अभिलाषा है।।

कबीर दास ने अपनाकर,मीरा ने इसे मान दिया।

आज़ादी के हम दीवाने , हिंदी को सम्मान दिया।।

फिर भी क्यों हम कतराते ,हिंदी में परिचय देने से।

क्यों छोटा हम खुद को समझते, हिंदी में बातें करने से।।

अरे! क्यों सोचो अंग्रेजी बोलेंगे ,तभी बनेंगे महान हम।

क्यों भूल जाते है हर पल,की गर्वीले हिन्दुस्तानी है हम।।

क्यों करते है सम्मान हिंदी का ,केवल 14 सितंबर को ही हम।

क्यों करते रहते है हर पल, हिंदी का अपमान हम।।

क्यों करते है ,14 सितंबर को ही ,हिंदी बचाओ अभियान की बातें हम।

क्यों देते अंग्रेजी में नोटिस , आज के दिन हिंदी में हम।।

अरे!क्यों भूल गए कि इस अंग्रेजी ने ही वर्षों बनाया गुलाम हमें।

हिंदी भाषा है वीर प्रसूता,जिसने दी जीवन रेखा और काल जीत की सौगात हमें।।

रिश्ते नाम के अर्थ बदल रहे, देशी घी को बटर बोल रहे।

मात-पिता ,मोम डैड हो गए, बाकी सब रिश्ते आंटी अंकल हो गए।।

दोस्तो, अंत में .. मैं सिर्फ दो पंक्तियां और कहना चाहती हूं।

कलम रोककर शब्दों को अब आपसे इज़ाज़त चाहती हूँ।।

हिंदी भाषा का संरक्षण और हिफाज़त चाहती हूँ।

हिंदी भाषा का संरक्षण और हिफाज़त चाहती हूँ।।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 64 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 64 – मनोज के दोहे 

1 चाँदनी

रात चाँदनी में मिले, प्रेमी युगल चकोर।

प्रणय गीत में मग्न हो, नाच उठा मन मोर।।

2 स्वप्न

स्वप्न देखता रह गया, लोकतंत्र का भोर।

वर्ष गुजरते ही गए,मचा हुआ बस शोर।।

3 परीक्षा

घड़ी परीक्षा की यही, दुख में जो दे साथ।

अवरोधों को दूर कर, थामें प्रिय का हाथ।।

4 विलगाव

घाटी के विलगाव में, कुछ नेतागण लिप्त।

उनके कारण देश यह, भोग रहा अभिशप्त ।।

5 मिलन

प्रणय मिलन की है घड़ी, गुजरी तम की रात।

मिटी दूरियाँ हैं सभी, नेह प्रेम की बात।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ऊहापोह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – ऊहापोह ??

वह चला,

लक्ष्य पा गया,

वह भी चला,

भटक कर रह गया,

फिर मार्ग बदला

लक्ष्य पा गया,

वह चलने-रुकने की

ऊहापोह में थमा रहा,

शनै:-शनै: वह रीत गया,

देखते-देखते जीवन बीत गया..!

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 11:44 बजे, 9 जनवरी 2023

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 147 – मिलती हर दुआ… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता “मिलती हर दुआ नसीब नहीं होती”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 147 ☆

🌺कविता 🥳 मिलती हर दुआ… 🥳

 🌹

जिन्दगी जीना आसान नहीं होता,

बिना संघर्ष के कोई महान नहीं होता।

 🌹

चुगली के बिना कोई बात नहीं होती,

  बिना बात के चुगली खास नहीं होती।

🌹

बाग का हर पुष्प गुलाब नहीं होता,

और हर गुलाब लाजवाब नहीं होता।

 🌹

मिलती हर दुआ नसीब नहीं होती,

वर्ना इतनी दुआ फकीर नहीं होती।

🌹

हर चेहरा कुछ न कुछ खास होता है,

चेहरे के पीछे चेहरा छिपा होता है।

🌹

सूखे फूल किताबों में मिला करते,

अब किताबें माँग कर पढता कौन हैं।

🌹

सच्चे प्रीत की मिसाल बना करती हैं,

लिव इन रिलेशन सिर्फ सौदे होती हैं।

🌹

कहते हैं प्रेम उधार की कैची है,

आज प्रेम बाँटना कौन चाहता है।

🌹

काँटा चुभने पर बनतीं प्रेम कहानी है,

आज पगडंडियों पर चलता कौन हैं।

🌹

कभी दादा की छड़ी बन पोता चलता है,

अब परिवार में क्या दादा कोई बनता है।

🌹

ठहाके छोड़ आए कच्चे मकानों में हम,

रिवाज इन पक्के छतों में मुस्कुराने का है।

🌹

लिख लिख कर कर दस्तखत बनाएं हम,

कमबख्त जमाना बदल के अंगूठे पे आ गया।

🌹

हौसले को देखे गुगल से मिले ज्ञान,

नौ साल का बच्चा समझे अपने को जवान।

🌹

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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