हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 68 ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हाथों में सबके  ही  सबका हाथ हो।

एक दूजे के लिए  मन से  साथ   हो।।

जियो जीने दो,एक ईश्वर की संतानें।

बात ये दिल में हमेशा जरूर याद हो।।

[2]

सुख सुकून हर किसी   का आबाद हो।

हर किसी लिए संवेदना ये फरियाद हो।।

हर किसी लिए सहयोग बस हो सरोकार।

मानवता रूपी  एक  दूसरे से संवाद हो।।

[3]

हर दिल में  स्नेह  नेह का ही लगाव हो।

दिल भीतर तक बसता प्रेम का भाव हो।।

प्रभाव नहीं हो किसी पर घृणा  दंश का।

आपस में मीठेबोल का कहीं नअभाव हो।।

[4]

हर कोई दूसरे के जज्बात की ही बात करे।

विश्वास का बोलबाला न घात प्रतिघात करे।।

स्वर्ग से ही हिल मिल  कर रहें धरती पर हम।

मैं बस तेरी बात करूं, और तू मेरी बात करे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 132 ☆ “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #131 ☆ ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ले रहा करवट जमाना मगर आहिस्ता बहुत।

बदलती जाती है दुनियाँ मगर आहिस्ता बहुत।।

 

कल जहां था आदमी है आज कुछ आगे जरूर

फर्क जो दिखता है, आ पाया है आहिस्ता बहुत।

 

सैकड़ों सदियों में आई सोच में तब्दीलियां

हुई सभी तब्दीजियां मुश्किल से आहिस्ता बहुत।

 

गंगा तो बहती है अब भी वहीं पहले थी जहां

पर किनारों के नजारे बदले आहिस्ता बहुत।

 

अंधेरे तबकों में बढ़ती आ चली है रोशनी  

पर धुंधलका छंट रहा है अब भी आहिस्ता बहुत।

 

रूख बदलता जा रहा है आदमी अब हर तरफ

कदम उठ पाते हैं उसके मगर आहिस्ता बहुत।

 

निगाहों में उठी है सबकी ललक नई चाह की

सलीके की चमक पर दिखती है आहिस्ता बहुत।

 

मन ’विदग्ध’ तो चाहता है झट बड़ा बदलाव हो

गति सजावट की है पर हर ठौर आहिस्ता बहुत।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… प्रीति ने ही निखारा है… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… प्रीति ने ही निखारा है☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-अनुष्टुप्छन्दः)

यह एक संस्कृत छंद है, जिस पर भगवत गीता के श्लोक भी लिखे गये है‌ ‌।

कैसे भूलूँ सहारा हो जानो माधो सदैव ही ।

है तेरी याद सौगातें नैना भीगे वियोग में ।।1!!

 

चाहा तुम्हीं किनारा हो बहे प्रीति बहाव में।।

चैन भी देख खोते हैंं तुझे ढूँढ़ें अभाव में ।।2!!

 

दर्श की आस माधो है कौन देवे सुझाव को ।

साध प्रेमा पिपासा को ज़िन्दगी है लगाव में ।।3

 

नैन प्यासे जहाँ ताके बीते रैना उदास हो ।

आओ प्यारे नहीं रूठो तेरा हृद प्रवास हो ।।4!!

 

प्रीति ने ही निखारा है, रहती हूँ प्रभाव में।

प्रेम पंथ बुहारी हूँ, माधव मान लो अभी  ।।5!!

☆ 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

(दोहा कलश (जिसमें विविध प्रकार के दोहा व विधान है) के लिए मो 8435157848 पर संपर्क कर सकते हैं ) 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कविता ☆ “वापसी…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ “वापसी…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

बाँस की डलिया में

ओस भीगे फूल

सुई धागे में पिरोकर

भगवान की माला

बनाना

फूलों वाले पौधों को

सींचना

 

गर्मी की छुट्टियों में

स्लेट पर कलम से

रंगोलियां रचना

ड्राइंग बुक में सूरज नदी पहाड़

जंगल बनाकर

स्वयं को

पिकासो समझना

 

आम अमरूद जामुन के

 पेड़ों पर

ऊँचे ऊँचे

बहुत ऊँचे चढ़ जाना

बंदर या गिल्लू की तरह

 

बारिश की बूँदें जीभ पर

 झेलकर चखना

छोटे छोटे

ओले चुनना

 

रसोई में मदद करने की बात

सुनकर

 सीधे मना कर देना

माँ !

जिन्दगी इतनी सरल

क्यों नहीं होती!

वक्त

पीछे मुड़ना क्यों नहीं जानता ?

और तुम्हें लौटा लाना

मेरे पास।। 

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अकूत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अकूत ??

अपनी विपन्नता का शोक मनाओ,

हम सम्पन्नों से व्यर्थ मत टकराओ।

 

साधन हमारे पास,

धन बल हमारे पास,

जुगाड़ हमारे पास,

भाग्य हमारे साथ,

कुबेर सम्पन्नता के हम स्वामी,

भला क्या है तुम्हारे पास..?

 

संकल्प मेरे पास,

विश्वास मेरे पास,

परिश्रम मेरे पास,

सत्य मेरे साथ,

भौतिक साधन कम हुए तो क्या

मुझसे अकूत सम्पन्न तो नहीं हो तुम..!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 12:37, 4 मई 2023)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #182 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 182 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

लू

लू -लपटों की आग से, बढ़े ग्रीष्म का जोर।

गरम हवाएँ चल रही, तपन बढ़ी हर ओर।।

लपट

लपट से सब बचे रहे,  साथ रखिए प्याज।

जेठ महीना तप रहा, करना है सब काज।।

ग्रीष्म

पड़े ग्रीष्म- अवकाश जब, खूब जमेगा रंग।

तरह – तरह के खेल में,  संगी साथी संग।

प्रचंड

गर्मी पड़े प्रचंड जब , घर में रहते बंद।

पशु-पक्षी भी हो रहे, हत-आहत निस्पंद।।

अग्नि

अग्नि विरह की जल रही, जाने कैसा रोग।

पिया मिलन के पर्व का, कब होगा संयोग।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #168 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 167 ☆

☆ “संतोष के दोहे …☆ श्री संतोष नेमा ☆

सिरफिरों ने कर दिया, चाहत को बदनाम

प्रेम दिखावा,  क्रूर मन,  करते कत्लेआम

संस्कार और संस्कृति, कभी न छोड़ें आप

अपनी यह पहचान है, जिसकी मिटे न छाप

बहूरूपियों से बचें, इनका दीन न धर्म

ये निकृष्टजन स्वार्थवश, करते खोटे कर्म

राह चलें हम धर्म की, करें नेक सब काज

रखें आचरण संयमित, मेरे ये अल्फ़ाज़

धर्म सनातन कह रहा, ईश्वर हैं माँ-बाप

मान रखें उनका सदा, बन कृतज्ञ सुत आप

बेटा हों या बेटियाँ, रखो धर्म की लाज

छोड़ें मत माँ-बाप को, कर मरज़ी के काज

कभी भरोसा मत करें, करके आँखे बंद

नकली हैं बहु चेहरे, जिनके नव छल-छंद

माना जीवन आपका,  करें फैसले आप

ध्यान रखें पर कभी भी, दुखी न हों माँ-बाप

मात-पिता के प्यार से, बढ़कर  कोई प्यार

हुआ न होगा कभी भी,  गाँठ बाँध लो यार

युग की नई विडंबना,  आडंबर का जोर

बिन सोचे समझे चलें, जिसका ओर न छोर

किया प्रेम के नाम पर, मानवता का खून

जिसने तन टुकड़े किये, उनको डालो भून

जब भी बहकीं बेटियाँ, हुआ गलत अंजाम

छिनता है ‘संतोष’ तब, उल्टे होते काम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “माता का देवत्व” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“माता का देवत्व☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

पीड़ा, ग़म में भी रखे, अधरों पर मुस्कान ।

इसीलिये तो मातु है, आन, बान, नित शान।।

नारी से ही जग चले, इसीलिये वह ख़ास।

माता पर भगवान भी, करता है विश्वास ।।

माता से ही धर्म हैं, माता से अध्यात्म ।

माता से ही देव हैं, माता से परमात्म ।।

माता से उपवन सजे, माता है सिंगार ।

माता गुण की खान है, माता है उपकार ।।

माती शोभा विश्व की, माता हैआलोक ।

माता से ही हर्ष है, बिन नारी है शोक।।

माता फर्ज़ों से सजी, माता सचमुच वीर ।

साहस, कर्मठता लिये, माता हरदम धीर ।।

माता की हो वंदना, निशिदिन स्तुति गान।

माता के सम्मान से, ही है नित उत्थान ।।

माँ है मीठी भावना, माँ पावन अहसास। 

माँ से ही विश्वास है, माँ से ही है आस।। 

वसुधा-सी करुणामयी, माँ दृढ़ ज्यों आकाश। 

माँ शुभ का करती सृजन, करे अमंगल नाश।। 

माँ बिन रोता आज है, होकर ‘शरद’ अनाथ। 

सिर पर से तो उठ गया, आशीषों का हाथ।। 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – khare.sharadnarayan@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – परछाई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  परछाई ??

बढ़ती परछाई

घटती परछाई,

धूप-छाँव

अलग-अलग बरतती परछाई,

फिर एक दिन सार समेट

फ़कत जीरो शेड…!

देह का प्रतिरूप

होती है परछाई..!

© संजय भारद्वाज 

(सोमवार दि. 16 मई 2017, रात्रि 10.40 बजे )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #138– कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  – अपनों को भी क्या पड़ी है ?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 138 ☆

 ☆ कविता –  “अपनों को भी क्या पड़ी है ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’         

वह भूख से मर रहा है। 

दर्द से भी करहा रहा है।

हम चुपचाप जा रहे हैं 

देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

सटसट कर चल रहे हैं ।

संक्रमण में पल रहे हैं।

भूल गए सब दूरियां भी 

आदत यह सिमट अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

वह कल मरता है मरे।

हम भी क्यों कर उससे डरें।

आया है तो जाएगा ही 

यही तो जीवन की लड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

हम सब चीजें दबाए हैं।

दूजे भी आस लगाए हैं।

मदद को क्यों आगे आए 

अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

हम क्यों पाले ? यह नियम है।

क्या सब घूमते हुए यम हैं ?

यह आदत हमारी ही 

हमारे ही आगे खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

नकली मरीज लिटाए हैं।

कोस कर पैसे भी खाएं हैं।

मर रहे तो मरे यह बला से

लाशें लाइन में खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

कुछ यमदूत भी आए हैं । 

वे परियों के  ही साए हैं।

बुझती हुई रोशनी में वे 

जलते दीपक की कड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

कैसे इन यादों को सहेजोगे ?

मदद के बिना ही क्या भजोगे ?

दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो 

तन-मन  लगाने की घड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20-05-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares