हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अबाध… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अबाध… ? ?

कब तक घिसोगे कलम?

कब तक करोगे यूँ नि:शुल्क सृजन?

नि:शुल्क, सेवा का साधन था तब,

नि:शुल्क, निरर्थक का पर्यायवाची है अब,

निस्पृहता छोड़ो, व्यवहार से नाता जोड़ो,

सत्ता, संपदा के अनुगामी बनो,

अपने जीवन में संपन्नता का स्वाद चखो..,

अबाध रही वैचारिक रस्साकशी,

उनके उदाहरणों में जमे रहे राजर्षि,

मेरे उद्देश्यों में बसे रहे ब्रह्मर्षि..!

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 10:37 बजे, 23.3.24

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 1 – ग़ज़ल – सहर कभी न आई है… ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ☆

सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – सहर कभी न आई है…। 

? रचना संसार # 1 – ग़ज़ल – सहर कभी न आई है… ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ? ?

 रुकी-रुकी सी ज़िंदगी है हौसला धुआँ धुआँ

मुसीबतों में है बशर कि उठ रहा  धुआँ धुआँ

*

बरस रहे न अब्र भी ये इब्तिला की है घड़ी

घटा हुई है देख लो बे- साख़्ता धुआँ धुआँ

*

ज़मीर रोज़ बेचते न डर भी कुछ ख़ुदा का है

दरीचे बंद भी वफ़ा के और सबा धुआँ धुआँ

*

रची न भी थी हाथ में लगी ख़िज़ाँ की है नज़र

हिना का रंग भी बिखर के हो गया धुआँ धुआँ

 *

सहर कभी न आई है ग़मों की देख शाम की

तमाम उम्र बीती है कि बस मिला धुआँ धुआँ

 *

सिमट गए ख़ुशी के पल झुकी हुई है ये नज़र

जलाल से की हुस्न के जिगर हुआ धुआँ धुआँ

 *

बची न ख़्वाहिशें कोई कि रूठा भी ख़ुदा मेरा

न चाहतें न उल्फ़तें है हर दुआ धुआँ धुआँ

© सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #226 ☆ भावना के दोहे –  मधुमास ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे –  मधुमास )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 226 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  मधुमास ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चंचरीक की गूंज से, खिलती कली हजार।

अब तो तुम समझो मुझे, तुम मेरा संसार।।

  *

पतझर झरता शाख से, वस्त्र बदलना यार।

नई कली के रूप का हमें  है इंतजार।।

*

मन उपवन में खिल रहे, देखो पुष्प हजार। 

  धरा प्रफुल्लित देखकर, झरते हरसिंगार।।

*

 गुलशन के गुल देखकर छाई  ग़ज़ब बहार।

आया फागुन झूम के, रंगों   की    बौछार ।।

*

यश वैभव का गेह में, रहे हमेशा वास।

खुशियों का छाया रहे, जीवन में मधुमास।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नाखुदा… ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। आप सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत थे साथ ही आप विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में भी शामिल थे।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने प्रवीन  ‘आफ़ताब’ उपनाम से  अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी अप्रतिम रचना “नाखुदा…

? नाखुदा… ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆ ?

जब से दुनिया को छोड़

खुद से दोस्ती कर ली

जिंदगी  के  तमाम  गम 

खुद  ही  फना  हो  गए…

ना  किसी  की कोई गरज

ना ही किसी की तमन्ना

ना  किसी  का  इंतज़ार,

ना ही किसी से उम्मीद…

ना  किसी  की  आरज़ू,

ना ही किसी की जुस्तजू

ख़ुद-मुख़्तारी रास आ गई

अब खुदा ही नाखुदा मेरा…!

~ प्रवीन रघुवंशी ‘आफताब’

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

पुणे

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #41 ☆ कविता – “कौन जाने मै कौन हूं…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 41 ☆

☆ कविता ☆ “कौन जाने मै कौन हूं…☆ श्री आशिष मुळे ☆

इतना जानू के मै हूं

ना जानू के कौन हूं

 *

ना आस्तिक हूं

ना नास्तिक हूं

ख़ुदको जान ना पाऊ

ख़ुदा को कैसे जाननेवाला हू

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना हिंदू हूं

ना मुस्लिम हूं

नहीं किसिके पास जवाब

फिर मै कैसे जवाबन हू

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना नाम हूं

ना खानदान हूं

अपने तो अपने नहीं लगते

परायों को क्या दिखाने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना सोच हूं

ना खयाल हूं

नहीं खयालात खुदके काबू

सोच से थोड़ी चलने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना जानवर हूं

ना फरिश्ता हूं

कैसे किसी को मिटाऊ

कैसे ख़ुदको बचाने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना वंश हूं

ना निर्वंश हूं

जो लेके आया था

वहीं देके जानेवाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना आदम हूं

ना हव्वा हूं

यूंही समय की डाली पे

क्या नाचता हुआ एक बंदर हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

कौन जाने मै कौन हूं

कौन बताए मै क्या हूं

चाहें जो बन सकता हूं

चाहें वो दिखा सकता हूं

चलो फिर इंसान ही बन जाता हूं

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 198 ☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 198 ☆

☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

रोज निशा में करें उजाला

रोज रहें घटते – बढ़ते।

जो तारों में सबसे उजले

मौन रहें थोड़ा पढ़ते।।

सोम , सुधांशु ,शशांक कहाते

जिनको कहें सुधाकर भी।

रजनीपति हैं, निशापति हैं

उनको कहें सुधाधर भी।।

 *

जो राकेश , इंदु , हिमांशु

जो शशि , मयंक ,निशाकर।

विधु , मृगांक व कलानिधि हैं

फूल , फलों दें रस पर।।

 *

औषधीश , तारापति जो हैं

बच्चों के मामा प्यारे।

क्षपानाथ , राकापति जो हैं

खुश रहते जिनसे तारे।।

 *

जो सागर में हलचल करते

सागर में आ जाता ज्वार।

जब – जब घटते बढ़ते रहते

प्यारे लगें महीना क्वार।।

  

उत्तर – चंद्रमा।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #224 – कविता – ☆ नया पथ अपना स्वयं गढ़ो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता नया पथ अपना स्वयं गढ़ो” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #224 ☆

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कौन बड़ा है कौन है छोटा

कौन खरा है कौन है खोटा

कौन लाभप्रद किसमें टोटा

उलझन में न पड़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

 

बाधाएँ अनगिन आएगी

चट्टानें बन टकराएगी

गंध रूप रस रम्य रमणियाँ

शुभचिंतक बन उलझायेगी,

शांत चित्त होकर तटस्थ

गहरे से इन्हें पढ़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

 

है दृष्टि गड़ाए गगन गिद्ध

बगुले बन बैठे संत सिद्ध

हैं छिपे आस्तीन में विषधर

छल शिखर चढ़ा सच है निषिद्ध,

विपरीत हवाओं से जूझो

असत्य से सदा लड़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

 

हो सजग स्वयं से भेंट करो

कालिमा चित्त की श्वेत करो

निष्पक्ष शांत निश्छल मन से

जन-हित में निर्णय नेक करो

बाहर-भीतर जो चोर उन्हें

निर्मोही हो पकड़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 48 ☆ नया पथ अपना स्वयं गढ़ो… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “नया पथ अपना स्वयं गढ़ो…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 48 ☆ नया पथ अपना स्वयं गढ़ो… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कौन बड़ा है कौन है छोटा

कौन खरा है कौन है खोटा

कौन लाभप्रद किसमें टोटा

उलझन में न पड़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

 

बाधाएँ अनगिन आएगी

चट्टानें बन टकराएगी

गंध रूप रस रम्य रमणियाँ

शुभचिंतक बन उलझायेगी,

शांत चित्त होकर तटस्थ

गहरे से इन्हें पढ़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

 

है दृष्टि गड़ाए गगन गिद्ध

बगुले बन बैठे संत सिद्ध

हैं छिपे आस्तीन में विषधर

छल शिखर चढ़ा सच है निषिद्ध,

विपरीत हवाओं से जूझो

असत्य से सदा लड़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

 

हो सजग स्वयं से भेंट करो

कालिमा चित्त की श्वेत करो

निष्पक्ष शांत निश्छल मन से

जन-हित में निर्णय नेक करो

बाहर-भीतर जो चोर उन्हें

निर्मोही हो पकड़ो

नया पथ अपना स्वयं गढ़ो।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तार-तार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – तार-तार ? ?

तार-तार चिथड़ों में लिपटी थी

काली कोठरियों में जा छिपती थी,

अकस्मात अंधेरे की

रंगीनियों ने दबोच लिया,

अब दिन तो दिन

उसकी रातें भी उजली थी

पर एक तस्वीर

अब भी नहीं बदली थी,

तार-तार गुरबत

तब उसकी म़ज़बूरी थी

तार-तार अस्मत

खुशहाली के लिये

अब ज़रूरी थी!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अब है उस पर निभाये या कि नहीं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अब है उस पर निभाये या कि नहीं“)

✍ अब है उस पर निभाये या कि नहीं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

अपने घर को सजा के बैठे हैं

हम खुशी को बुला के बैठे हैं

 *

पांसे सत्ता के है शकुनि मलता

न्यायविद सर झुका के बैठे हैं

 *

काम पर लग गए गधे सारे

डिग्रियाँ हम दिखा के बैठे है

 *

अब अयोध्या से देखिये बाहर

कुछ शिवाले दबा के बैठे हैं

 *

अब है उस पर निभाये या कि नहीं

हम तो वादा निभा के बैठे हैं

 *

तेरी मर्ज़ी है दे न दे छप्पर

हम तो नीचे ख़ला के बैठे हैं

 *

सारे शिकबे गिले मैं भूल गया

जब वो पहलू में आ के बैठे हैं

 *

कौन पनपेगा उंनके नीचे अब

बरगदों से जो छा के बैठे हैं

 *

अपने अंदर भी वो अरुण झांकें

आइना जो दिखा के बैठे हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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