हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 148 ⇒ वो घड़ी आ गई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वो घड़ी आ गई।)

?अभी अभी # 148  ⇒ वो घड़ी आ गई? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

वो घड़ी आ गई, आ गई !

मेरा इंडिया अब भारत होने जा रहा है। वही इंडिया जिसे कभी जम्बूद्वीप तो कभी भारतवर्ष कहा करते थे। आजादी के पहले कभी क्विट इंडिया मूवमेंट, यानी भारत छोड़ो आंदोलन हुआ था, अंग्रेज भारत छोड़ भी गए, लेकिन भारत को बांटकर, यानी हिंदुस्तान और पाकिस्तान की नींव डालकर। 

हमारा सिक्का चला, संविधान बना। सिक्के के दो पहलू, इंडिया और भारत। भारतीय मुद्रा यानी पेपर करेंसी पर सभी प्रमुख भारतीय भाषाएं अंकित। हर राज्य की अपनी भाषा, हिंदी राजभाषा और अंग्रेजी कामचलाऊ भाषा, यानी जिसके बिना काम ही नहीं चलता हो।।

हिंदी हमारी जुबां है, लेकिन इसमें बोलचाल के इतने अंग्रेजी शब्द समा गए हैं कि कभी कभी तो हमें सामने वाले को शुद्ध हिंदी में समझाना पड़ता है। बैंक, शुद्ध हिंदी है, क्योंकि कभी यही बैंक मेरी रोजी रोटी रही है। स्कूल, कॉलेज, लाइब्रेरी और बुक्स के बिना तो आज भी काम नहीं चलता। ट्यूशन तो हमारे जमाने में भी होती थी, लेकिन आजकल कोचिंग का जमाना है।

सम्पूर्ण क्रांति के पहले हमारे यहां भाषा को लेकर भी एक बार क्रांति हुई थी, लोहिया का अंग्रेजी हटाओ आंदोलन ! अच्छी तोड़फोड़ भी हुई, लेकिन अंग्रेजी ना हटी सो ना हटी, और अंगद के पांव की तरह ढीठ होकर जमकर बैठ गई।।

जब आप बाजार में सौदा लेने जाते हो, तो झोले के साथ वही भाषा और करेंसी लेकर जाते हो, जो बाजार में चलती हो। दुकानदार भी आपसे उसी भाषा में बात करता है, जो आप समझ सकते हो। आज हम इतने डिजिटल हो गए हैं, कि बिना पर्स यानी पैसे के भी सारी खरीददारी कर सकते हैं।

एवरीथिंग ऑनलाइन।

पिछले कुछ वर्षों में हम ग्लोबल भी हो गए। जिसका श्रीगणेश मेक इन इंडिया मूवमेंट से हुआ। जिसके बाद तो विकास का तांता ही लग गया। शाइनिंग इंडिया, डिजिटल इंडिया, फिटनेस इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया इसका ही परिणाम है।।

फिल्मों में भी राष्ट्रीय भावना का ऐसा बोलबाला रहा कि आय लव माय इंडिया पर कितने ही गीत चल निकले। एक बेचारे उपकार वाले मनोज कुमार अकेले कहते गए, भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात बताता हूं।

खुशी का विषय है, हम जो पहले से ही हिंदुस्तानी थे, अब इंडियन से भारतवासी हो गए और जो नॉन रेसिडेंट इंडियन यानी एनआरआई हैं, उनको तो हमने पहले से ही प्रवासी भारतीय का दर्जा दिया हुआ है। कुछ नहीं मिटेगा, भारत वही रहेगा, बस इंडिया अब भारत हो जाएगा।।

हमारे नेता अब जब विदेश जाएंगे तो उन्हें भी अपने अंग्रेजी प्रेम से थोड़ा परहेज करना पड़ेगा, क्योंकि अब वहां भी उन्हें भारत भारत ही कहना होगा, इंडिया नहीं। जिस जबान पर कभी इंडिया चढ़ा था, अब उस पर भारत सवार हो जाएगा।

हम तो खुश हैं भाई, हम तो पहले भी भारतीय थे, आज भी भारतीय हैं। लेकिन हां, हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, हमारा भारत फिर से भारतवर्ष यानी जम्बूद्वीप बन जाए। वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा सपना नहीं, एक हकीकत बन जाए।।

जय जगत

जय भारत, जय हिंद !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 208 -जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

पुनर्पाठ –

 

☆  संजय उवाच # 208 ☆ जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ?

जीवन अखंड संघर्ष है। इस संघर्ष के पात्रों को प्रवृत्ति के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है, भाग लेनेवाले और भाग लेनेवाले। एक संघर्ष में भाग लेता है, दूसरा संघर्ष से भाग लेता है। बिरला कोई रणनीतिकार होता है जो भाग लेने के लिए सृष्टि के हित में भाग लेता है। ऐसा रणनीतिकार कालजयी होता है। ऐसा रणनीतिकार संयोग से नहीं अपितु परम योग से बनता है। अत: योगेश्वर कहलाता है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण के वध के लिए जरासंध ने कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूरवीर मधुसूदन युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू कर दिया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते श्रीकृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। विवश होकर ऋषि को चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। साक्षात योगेश्वर की साक्षी में ज्ञान के सम्मुख अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे पार्थिव रूप में धरा पर नहीं होंगे और इसी तरह के आक्रमण होंगे तब प्रजा का क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखने के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माधव साधना- 11 दिवसीय यह साधना  बुधवार दि. 6 सितम्बर से शनिवार 16 सितम्बर तक चलेगी💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र होगा- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 82 – पानीपत…पटाक्षेप भाग–12 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अंतिम कड़ी।

☆ आलेख # 82 – पानीपत… पटाक्षेप भाग – 12 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये कहानी राजा विक्रमादित्य को सुनाने के बाद उनकी पीठ पर लदे बैताल ने हमेशा की तरह इस बार भी एक सवाल पूछा. जानते हुए इस सवाल का जवाब देना अनिवार्य था वरना राजा विक्रमादित्य का सर टुकड़े टुकड़े हो जाता.

सवाल : राजन, त्यागपत्र देनें के बाद भी ये मुख्य प्रबंधक सेवानिवृत्त नहीं हुये बल्कि कुछ समय बाद ही उनकी पोस्टिंग नियंत्रक कार्यालयों में होती रही. एक और बड़ी शाखा में फिर से मुखियागिरी की और बाद में सहायक महाप्रबंधक की पदोन्नति भी पायी. फिर प्रशिक्षण केंद्र में कुशल शाखा संचालन के फ़ार्मुले सिखाते सिखाते सामान्य सेवानिवृत्ति पाई. इसका क्या कारण हो सकता है?

राजा विक्रमादित्य का सर वैसे ही बैताल के बोझ से भारी था, उनके पास इस सवाल का जवाब देने की शक्ति नहीं थी तो उन्होंने चुपचाप सवाल को “रैफर टू ड्राअर” किया और चलते गये.

शायद इस सवाल का जवाब पाठकों के पास हो???

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक ☆“नासै रोग हरे सब पीरा”- ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

 

☆ “नासै रोग हरे सब पीरा”- ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

(आप सामान्य पुस्तक की तरह ऊँगली से पृष्ठ पलट कर पुस्तक पढ़ सकते हैं अथवा पृष्ठ के दाहिने ऊपरी या निचले कोने पर क्लिक करें। आप ऊपर दाहिनी और नेविगेशन मेनू का प्रयोग भी कर सकते हैं।)

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 146 ⇒ बाप कमाई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बाप कमाई”।)

?अभी अभी # 146 ⇒ बाप कमाई? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

सुनने में भले ही आपको यह अच्छा ना लगे, बाप तक क्यों चले गए, आप भाषा को थोड़ा झाड़ पोंछ लें, इसे अपने पिताजी की खून पसीने की, मेहनत की कमाई कह लें, लेकिन इससे सच नहीं बदलने वाला, कहलाएगी वह बाप कमाई ही।

सोचिए, आप जब पैदा हुए थे, तो क्या साथ लाए थे, मां ने आपको जन्म दिया, उसका दूध पीकर तो आप पले बढ़े, कैसे उतारेंगे दूध का कर्ज़, कभी सोचा है। माता पिता के कर्ज़ से उऋण होना इतना आसान भी नहीं।।

भले ही उस जमाने में आपके पिताजी दो पैसे कमाते थे फिर भी पूरे परिवार का पेट पालते थे।

आज जितनी जनसंख्या और महंगाई तब भले ही ना हो, फिर भी परिवार आज की तुलना में अधिक बड़ा और भरा पूरा होता था। नहीं पढ़ाया आपको किसी महंगे पब्लिक स्कूल में, फिर भी संस्कार तो दिए। बड़ों का आदर सम्मान करना, उन्हें प्रणाम करना।

जो भी चीज घर में आती थी, सबको बराबरी से बांटना, आपके त्योहारों पर कपड़े लत्तों का खयाल रखना, बीमार होने पर दवा दारू की व्यवस्था करना, कमाने वाला एक, और खाने वाले दस, फिर भी अपने से अधिक आपका ध्यान रखा, तब जाकर आप आज इस स्थिति में आ गए कि आपको यह शब्द भी चुभने लगा।।

मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि मैं तो आज भी बाप कमाई ही खा रहा हूं। मेरे माता पिता को गुजरे कई वर्ष गुजर गए, लेकिन जो अपार धन संपत्ति मेरे नाम कर गए हैं, वह पीढ़ियों तक खत्म नहीं होने वाली। आपको शायद भरोसा ना हो, अतः संक्षेप में उसका विस्तृत वर्णन दे रहा हूं।

मेरी माता से मुझे विरासत में संतोष धन मिला, और वह भी इतना कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। जीवन भर केवल दो साड़ियों में अपना गुजारा करने वाली मेरी मां का पेट तब तक नहीं भरता था, जब तक घर के सभी सदस्यों का भोजन ना हो जाए। सादगी ही उनका आभूषण था, लेकिन वह अपनी सभी बहू बेटियों को सजा धजा देखना चाहती थी। दूसरों की खुशी में खुश होना, और उनके दुख दर्द में उनका हाथ बंटाना उनका स्वभाव था।।

इसके बिल्कुल विपरीत मेरे पिताजी स्वभाव से ही रईस थे। संघर्षों के बीच, मेहनत पसीने के बल पर, ईमानदारी, व्यवहार कुशलता, समय की पाबंदी और दरियादिली से, हमें अभावों से उन्होंने कोसों दूर रखा। मोहल्ले का पहला रेडियो हमारे घर ही आया था, जिसकी लाइसेंस फीस पोस्ट ऑफिस में भरने वे खुद जाते थे।

घर में रिश्तेदारों और चिर परिचित लोगों का आना जाना लगातार बना रहता था। तब रिश्तेदार भी महीनों और हफ्तों रुका करते थे, घर में उत्सव सा माहौल सदा बना रहता था। लेकिन मजाल है कभी गरीबी में आटा गीला हुआ हो। आज जैसा नहीं, कि अतिथि तुम कब जाओगे।।

खुद्दारी, आत्म सम्मान और स्वाभिमान हम सबको उनसे ही विरासत में मिले हैं। माता पिता के आशीर्वाद से बड़ी कोई बाप कमाई नहीं होती। वे हमारे लिए जमीन जायदाद भले ही नहीं छोड़ गए हों लेकिन उनकी साख और पुण्याई ही हमारी कुल जमा पूंजी है, जो उनके आशीर्वाद से अक्षुण्ण और सुरक्षित है। उनकी नेकी, ईमानदारी, और समय की पाबंदी ही हमारी बाप कमाई है। आज भी इस दुनिया में हमारे जैसा कोई रईस और सुखी इंसान नहीं, क्योंकि आज भी हमारे ऊपर हमारे माता पिता का वरद हस्त है, उनका स्थान हमारे हृदय में है और उनका आचरण हमारे व्यवहार में।

माता पिता हमारे प्रथम गुरु होते हैं और पालक भी ! हमारी सभी सांसारिक, भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों में उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहता है। आप क्या सोचते हैं, उनको रूष्ट कर कभी आप ईश्वर को मना लेंगे।।

हम भी खाली हाथ आए थे, और खाली हाथ ही जाएंगे, लेकिन अपनी आशीर्वाद रूपी बाप कमाई साथ लेकर जाएंगे, क्योंकि ऐसे माता पिता कहां सबको नसीब से मिलते हैं। रफी साहब एक सीधे सादे नेकदिल इंसान थे, कितनी मासूमियत से वह इतनी बड़ी बात कह गए ;

ले लो, ले लो

दुआएं मां बाप की

सर से उतरेगी

गठरी पाप की ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 50 – देश-परदेश – Black Friday ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 50 ☆ देश-परदेश – Black Friday ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज शुक्रवार प्रातः काल प्रतिदिन की भांति दैनिक समाचार पत्र को खंगालने का नित्यकर्म करते हुए पूरे पृष्ठ के दो विज्ञापन देख कर कुछ नया सा प्रतीत हुआ। घरेलू विद्युत उपकरण विक्रेताओं द्वारा” ब्लैक फ्राइडे” के नाम से लुभावनी छूट दिए जाने का उल्लेख था। अभी तक तो” गुड फ्राइडे” के बारे में ही सुना हुआ था, कि ईसाई धर्म का पालन करने वाले उस दिन को विशेष मानते हैं। अपने एक ईसाई मित्र से इस बाबत बात भी करी, उसने ब्लैक फ्राइडे के बारे में अपनी अनिभिज्ञता जाहिर कर दी।

पड़ोसी और भ्रमण मित्र मंडली से भी जानकारी ना मिलने पर “सबका सहारा” गुगल से पूछताछ करनी पड़ी। गुगल ने जानकारी दी की ये एक विशेष दिन अमेरिका देश में मनाया जाता है, नवंबर माह के अंतिम शुक्रवार को प्रति वर्ष मनाया जाता है। धन्यवाद ज्ञापन भी अपने परिचितों और नातेदारी में साझा कर औपचारिकता का निर्वहन किए जाने की परंपरा हैं।

वहां का बाज़ार इस मौके को भुनाने के लिए विक्रय दरों में कमी कर बिक्री में वृद्धि कर अपना उल्लू सीधा करता हैं। हमारे अपने इतने त्यौहार और परंपराएं है, कि कभी कभी एक ही दिन में दो / तीन त्यौहार मानने पड़ते हैं।

हम पश्चिम का अनुसरण करने की प्रतियोगिता में हमेशा अव्वल रहते हैं। बाज़ारवाद हमेशा जन साधारण को गुमराह करने के चक्कर में अपनी मौलिकता और पहचान से दूर कर पश्चिम की और अग्रसर करता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 145 ⇒ घी और केबीसी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घी और केबीसी”।)

?अभी अभी # 145 ⇒ घी और केबीसी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

जो केबीसी से करे प्यार, वो घी से कैसे करे इंकार ! ३.२० की राशि कम नहीं होती, सबसे पहले तो केबीसी में प्रवेश ही इतना आसान नहीं, प्रश्न तो खैर आसान ही पूछे जाते हैं, लेकिन पुरुषार्थ के पहले भाग्य की भी परीक्षा तो होती ही है।

कुछ लोग अक्सर आयएएस और आईपीएस की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते करते, टहलते हुए केबीसी में पहुंच जाते हैं, फटाफट ऐसे सीढियां चढ़ते हैं, जैसे किसी मंदिर में जा रहे हों, उम्र भी रहती है, जोश भी, और तीन चार लाइफलाइन भी। ।

कितना सुखद लगता है, अपनी उपलब्धि पर दर्शकों के साथ साथ खुद भी ताली बजाना, और उससे भी रोचक वह दृश्य, जब शुरुआत में ही, फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट में अव्वल आने पर दोनों हाथ ऊपर कर खुशी जाहिर करना, नाचना, yes, I have done it, और भावुक हो, आंसू बहाना। महिला प्रतिस्पर्धी के लिए बिग बी रूमाल भी तैयार रखते हैं, आंसू पोंछने के लिए।

३.२० की राशि जीत का वह पड़ाव है जहां आजकल प्रतियोगी की पांचों उंगलियां घी में, और सर गर्व से उपलब्धि की बुलंदियों पर। यहां तक पहुंचने के लिए, इस जन्म में, याददाश्त बढ़ाने के लिए, दिमाग तेज करने के लिए, जितना भी दूध बादाम का सेवन किया होगा, सब ब्याज सहित वसूल। मूल ३.२० की राशि के साथ, साल भर के लिए गाय का शुद्ध, दानेदार घी भी। ।

यही तो खूबी है केबीसी की ! जब केबीसी पर घी का इस तरह विज्ञापन और प्रचार होता है, तब अमित बाबू को अपनी जबान भी काबू में रखनी पड़ती है, कहीं गलती से मुंह से, कुछ मीठा हो जाए, नहीं निकल जाए। वैसे बिग बी इतने भोले भी नहीं। आप नहीं जानते, सिर्फ “कुछ मीठा हो जाए” बोलने का वह कितना वसूल करते हैं। यूं ही नहीं कोई करोड़पति नहीं बन जाता।

किसी टीवी प्रोग्राम को रुचिकर बनाने और टीआरपी बढ़ाने के लिए क्या नहीं करना पड़ता। कभी अपने भाई भतीजों तो कभी सामाजिक कार्यकर्ताओं और सेलिब्रिटीज को केबीसी में आमंत्रित करना पड़ता है, और तरीके से, इतने कठिन लगने वाले, आसान सवाल पूछना पड़ता है, कि कम से कम, और अधिक अधिक, २५ लाख तो वह जीतकर ही जाए। ।

सफलता की सीढियां इतनी आसान नहीं होती बाबू मोशाय ! कहीं कहीं तो गाड़ी दस हजार पर ही अटक जाती है, और कहीं सरपट भागकर एक करोड़ पर पहुंच जाती है। लेकिन क्या कोई व्यक्ति केवल एक पायदान और चढ़कर, सात गुना राशि जीत सकता है। इतने मूर्ख तो नहीं होंगे केबीसी वाले।

दूर क्यों जाएं, इसी मंगलवार को एक और सज्जन केबीसी में करोड़पति बनने जा रहे हैं, देखते हैं, वे एक करोड़ पर ही अटक जाते हैं, अथवा सात करोड़ अपनी मुट्ठी में करके जाते हैं, वैसे उनकी पांचों उंगलियां तो घी में पहले से ही, हैं ही।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 207 – कर्मण्येवाधिकारस्ते! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 207 कर्मण्येवाधिकारस्ते! ?

एक युवा व्यापारी मिले।  बहुत परेशान थे। कहने लगे, “मन लगाकर परिश्रम से अपना काम करता हूँ  पर परिणाम नहीं मिलता। सोचता हूँ काम बंद कर दूँ।” यद्यपि उन्हें  काम आरम्भ किए बहुत समय नहीं हुआ है। किसी संस्था के अध्यक्ष मिले। वे भी व्यथित थे। बोले,” संस्था के लिए जान दे दो पर आलोचनाओं के सिवा कुछ नहीं मिलता। अब मुक्त हो जाना चाहता हूँ इस माथापच्ची से।” चिंतन हो पाता, उससे एक भूतपूर्व पार्षद टकराए। उनकी अपनी पीड़ा थी। ” जब तक पार्षद था, भीड़ जुटती थी। लोगों के इतने काम किए। वे ही लोग अब बुलाने पर भी नहीं आते।”

कभी-कभी स्थितियाँ प्रारब्ध के साथ मिलकर ऐसा व्यूह रच देती हैं कि कर्मफल स्थगित अवस्था में आ जाता है। स्थगन का अर्थ तात्कालिक परिणाम न मिलने से है। ध्यान देने योग्य बात है कि स्थगन किसी फलनिष्पत्ति को कुछ समय के लिए रोक तो सकता है पर समाप्त नहीं कर पाता।

स्थगन का यह सिद्धांत कुछ समय के लिए निराश करता है तो दूसरा पहलू यह है कि यही सिद्वांत अमिट जिजीविषा का पुंज भी बनता है।

क्या जीवित व्यक्ति के लिए यह संभव है कि वह साँस लेना बंद कर दे?  कर्म से भी मनुष्य का वही सम्बंध है जो साँस है। कर्मयोग की मीमांसा करते हुए भगवान कहते हैं,

‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।’

कोई क्षण ऐसा नहीं जिसे मनुष्य बिना कर्म किए बिता सके। सभी जीव कर्माधीन हैं। इसलिए गर्भ में आने से देह तजने तक जीव को कर्म करना पड़ता है।

इसी भाव को गोस्वामी जी देशज अभिव्यक्ति देते हैं,

‘कर्मप्रधान विश्व रचि राखा।’

जब साँस-साँस कर्म है तो उससे परहेज कैसा? भागकर भी क्या होगा? ..और भागना संभव है क्या? यात्रा में धूप-छाँव की तरह सफलता-असफलता आती-जाती हैं। आकलन तो किया जाना चाहिए पर पलायन नहीं। चाहे लक्ष्य बदल लो पर यात्रा अविराम रखो। कर्म निरंतर और चिरंतन है।

सनातन संस्कृति छह प्रकार के कर्म प्रतिपादित करती है- नित्य, नैमित्य, काम्य, निष्काम्य, संचित एवं निषिद्ध। प्रयुक्त शब्दों में ही अर्थ अंतर्निहित है। बोधगम्यता के लिए इन छह को क्रमश: दैनिक, नियमशील, किसी कामना की पूर्ति हेतु, बिना किसी कामना के, प्रारब्ध द्वारा संचित, तथा नहीं करनेवाले कर्म के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

इसमें से संचित कर्म पर मनन कीजिए। बीज प्रतिकूल स्थितियों में धरती में दबा रहता है। स्थितियाँ अनुकूल होते ही अंकुरित होता है। कर्मफल भी बीज की भाँति संचितावस्था में रहता है पर नष्ट नहीं होता।

मनुष्य से वांछित है कि वह पथिक भाव को गहराई से समझे, निष्काम भाव से चले, निरंतर कर्मरत रहे।

अपनी कविता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ उद्धृत करना चाहूँगा-

भीड़ का जुड़ना / भीड़ का छिटकना,

इनकी आलोचनाएँ  / उनकी कुंठाएँ,

विचलित नहीं करतीं / तुम्हें पथिक..?

पथगमन मेरा कर्म / पथक्रमण मेरा धर्म,

प्रशंसा, निंदा से / अलिप्त रहता हूँ,

अखंडित यात्रा पर /मंत्रमुग्ध रहता हूँ,

पथिक को दिखते हैं / केवल रास्ते,

इसलिए प्रतिपल / कर्मण्येवाधिकारस्ते!

विचार कीजिएगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना- 30 अगस्त 2023 को सम्पन्न हुई। हम शीघ्र ही आपको अगली साधना की जानकारी देने का प्रयास करेंगे। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 144 ⇒ सिमटती दीवारें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिमटती दीवारें”।)

?अभी अभी # 145 ⇒ सिमटती दीवारें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

जब घर में बच्चे होते हैं,छोटा घर भी बड़ा लगने लगता है । बच्चे बड़े होने लगते हैं । समय के साथ,ज़रूरत के साथ, घर भी बड़ा होने लगता है । अचानक बच्चे बहुत बड़े हो जाते हैं । घर में नहीं समाते । उनके पर लग जाते हैं । वे परदेस चले जाते हैं । घर फिर छोटा हो जाता है ।बच्चों के बिना, घर बहुत ही छोटा हो जाता है ।

पहले घर, सिर्फ़ घर नहीं होता था,घर के साथ आँगन भी होता था,जिसमें आम,नीम,जाम और जामुन के पेड़ भी होते थे । आँगन में बाहर खाट पड़ी रहती थी,बच्चे खेलते रहते थे,सुबह-शाम दरवाज़े पर गाय रंभाती रहती थी । घर के साथ आँगन भी बुहारा जाता था । सभी वार त्योहार,शादी ब्याह तक उस अँगने में सम्पन्न हो जाते थे ।।

इंसानों के दायरे विस्तृत हुआ करते थे । कुछ घर-आँगन मिलकर मोहल्ला हो जाता था । सभी घर बच्चों के हुआ करते थे । कौन बच्चा किस घर में खा रहा है,और किस घर में सो रहा है,कोई हिसाब किताब नहीं रखा जाता था । एक घर के अचार की खुशबू कई दीवारें पार कर जाती थी ।

ज़िन्दगी घरों में नहीं,आंगनों में ही गुज़र जाती थी । गर्मी के दिनों में कौन घरों के अन्दर मच्छरदानी और आल आउट में सोता था ! माँ की लोरी और आसमान के तारे गिनते-गिनते,कब नींद लग जाती,कुछ पता ही नहीं चलता था । सुबह उठो,तो सूरज आसमान में सर पर नज़र आता था । अब किसी के घोड़े नहीं बिकते । सुबह का अलार्म,दूधवाला और अखबार वाला ,बच्चों के स्कूल की तैयारी और काम वाली बाई की दस्तक, सब नींद चुराकर ले जाते हैं ।।

अब घर बड़े हो गए,आँगन साफ़ हो गए, पड़ोस से सटी मोटी-मोटी दीवारें चार इंची हो गई, इस पार से उस पार की ताका-झाँकी, वस्तुओं का आदान-प्रदान बंद हो गया । सब घरों में सबके अपने अपने बेडरूम हो गए,अलग अलग सपने हो गए । इंसान सम्पन्न होता गया, अपने आप में सिमटता चला गया ।

आज घर की पक्की दीवारें महँगे एक्रेलिक पेंट से पुती हुई होती हैं,जिनमें एक खील भी ड्रिलिंग मशीन से ठोकी जाती है । याद आती हैं वे दीवारें,जिनमें ताक हुआ करती थी । बच्चे , पेंसिल,पेन जो हाथ लगे,से दीवारों पर चित्रकारी किया करते थे । आड़ी-तिरछी लकीरें बच्चों की मौज़ूदगी का अहसास दिलाती थी । हर भगवान के कैलेंडर के लिए एक नई खील ठोकी जाती थी । कपड़े खूँटी पर टांगे जाते थे ।

आज सहमी सी,सिमटी सी,साफ-सुथरी दीवारें बच्चों के लिए तरस जाती हैं । छोटे छोटे नाखूनों से दीवार में बड़े बड़े छेद कर दिये जाते थे, चोरी से वही मिट्टी खाई जाती थी । आज दीवारों से बात करने वाला कोई नहीं । महँगे कालीन को बच्चों से बचाया जाता है । बच्चे घर गंदा कर देते हैं । घरों को बच्चों से बचाया जाता है । घर मन मसोसकर रह जाता है ।घर की खामोश लिपी-पुती दीवारें मन ही मन सोचती हैं, अरे नादानों ! बच्चों से ही तो घर, घर होता है ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 143 ⇒ विचार और शून्य… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार और शून्य।)

?अभी अभी # 143 ⇒ विचार और शून्य? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या हम हमेशा ही सोचते, विचारते रहते हैं ! होते होंगे कुछ चिंतक और विचारक, लेकिन लगातार कौन सोचते रहता होगा। मेरी मां अक्सर शांत रहा करती थी, वह मितभाषी और मृदुभाषी थी। उनका चेहरा शांत था, लेकिन लगता था, जैसे वह हमेशा कुछ सोचती रहती हो। अगर पूछो तो यही जवाब मिलता था, नहीं कुछ नहीं !

लेकिन साफ नजर आ जाता था कि उनके सोचने की प्रक्रिया में मैने कुछ व्यवधान उत्पन्न कर दिया है। मुझे मालूम था, वह क्या सोचती थी। उन्हें सबकी चिंता रहती थी, वह सदा सबका भला ही सोचते रहती थी।

शायद सबकी मां ऐसी ही हो। हमें अपने आपके बारे में ही सोचने से फुर्सत नहीं मिलती, क्या हम किसी के बारे में सोचें। फिर भी हम सोचते ही रहते हैं, लोगों से विचार विमर्श भी करते ही रहते हैं।।

लिखने के लिए पहले विचार आता है, फिर उस विचार पर हम सोचना शुरू कर देते हैं। वह विचार हमारा विषय बन जाता है। आप सोचते रहें, विचार आते चले जाएंगे, कितनों को आप अपने शब्दों अथवा लेखनी में कैद कर सकते हैं, आप ही जानो। कोई अगर बोलता है तो उसे रेकॉर्ड करना अथवा लिखना फिर भी आसान है, लेकिन हर सोचा हुआ विचार अथवा शब्द मूर्त रूप नहीं ले सकता। मन की गति और सोचने की गति से हम बराबरी नहीं कर सकते।

जब हम कुछ सोचते, विचारते नहीं, तब हम क्या करते हैं। क्या चुपचाप बैठे रहते हैं ! जो भी हमें उस अवस्था में देखता है, यही कहता है, किस सोच में डूबे हुए हो ? तो क्या वाकई हम कभी कभी सोच में इतने डूब जाते हैं, कि हमें यह भी पता नहीं चलता, हम क्या सोच रहे थे।।

होती है एक विचार शून्य अवस्था, जिसमें हमारा चित्त शांत रहता है, और विचारों का आवागमन भी बंद सा हो जाता है, मानो विचारों पर कर्फ्यू लगा हो। पलट, तेरा ध्यान किधर है। सामने वाला नहीं जानता, आपकी अवस्था क्या है, क्योंकि उस समय आपका ध्यान उसकी ओर भी नहीं है।

योग में ध्यान की अवस्था बड़ी विचित्र है। अष्टांग योग में ध्यान का स्थान सातवां है, यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहारऔर धारणा के बाद ध्यान का नंबर आता है, जिसके बाद तो सीधे समाधि ही लग जाती है। नहीं भाई, नहीं उलझना हमें इस योग के झंझट में, खास कर यम नियम की बात तो हमसे करो ही मत। अपने तो आसन वासन भले और बाबा रामदेव वाला अनुलोम विलोम और कपालभाति। और पते की बात बताऊं, साधो, सहज समाधि भली।।

सोचते सोचते कभी हम शून्य में चले जाते हैं, बस वही अवस्था तो विचार शून्य अवस्था है। दो विचारों के बीच कुछ समय ऐसा आ जाता है, जब हम कुछ भी नहीं सोचते, एक शून्य सा व्याप्त हो जाता है, अंदर, बस वही ध्यान है, लेकिन उसका समय बहुत कम होता है। जितनी शून्य की अवस्था बढ़ती जाएगी, उतना ध्यान का समय भी बढ़ता जाएगा।

साधन, चिंतन, मनन और स्वाध्याय सृजन के उत्तम सोपान हैं। शरीर और मन का निरोगी होना ही सहजावस्था है। इस अवस्था में हम खुद से ऊपर उठकर कुछ सोच विचार सकते हैं, कई अच्छे विचार इस समय मन में प्रवेश करते हैं, जिन शुभ संकल्पों का जीवन में क्रियान्वन संभव है। विचार की तरह, शून्य भी एक अनूठी उपलब्धि है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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