☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जय प्रकाश : दिखने में आम, फिर भी खास ☆ श्री अभिमन्यु जैन☆
मित्रों, जय प्रकाश विगत 40 वर्षों से भी अधिक समय से लेखन में रत हैं. जयपुर से प्रकाशित नई गुदगुदी में अपने लेख के साथ उनके लेख भी देखते मिलते रहे. सेवा निवृति पश्चात जबलपुर में निवास हुआ. पिछले 8 वर्षों से उनके सतत संपर्क में रहा. व्यंग्यम की स्थापना, बिना किसी पदाधिकारी के निर्वाचन या मनोनयन के हुई. कई आयोजन भी हुए. जय प्रकाश जी का लेखन कालजयी था. उन्होंने खूब लिखा, खूब नाम और यश कमाया. आकाशवाणी के अनेक केंद्रों से कहानी और व्यंग्य का दीर्घ कल तक प्रसारण, कई पत्र -पत्रिकाओं में कविता, कहानी, व्यंग्य का प्रकाशन, अनेक पत्रिकाओं में अतिथि सम्पादक की भूमिका भी निभाई. कबीर सम्मान, अभिव्यक्ति सम्मान, कादम्बिनी अखिल भारतीय व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता में, एवं रविंद्र भवन भोपाल में नाट्य विधा में पुरस्कार प्राप्त.. बहुत लम्बी फेहरिस्त है. वे पुरस्कार का नहीं, पुरस्कार उनका पीछा करते रहे. पांडे जी ने जी भर के लिखा, और छपे भी जी भर के. उनका लेखन किसी भी रावण की लंका जलाने में स क्ष म है. कई जगह शब्दों का तुलनात्मक प्रयोग करके व्यंग्य को सहज और सरल बनाया. यह उनके लेखन की ताकत है. रचनाओं में फ़िल्मी गीतों का बहुत अच्छा प्रयोग किया है. कहीं कहीं तो ऐसा हुआ की सवाल और जवाब भी इन्हीं गीतों के माध्यम से हुआ. लेखन से सत्ता को जितना नंगा किया जा सकता था उन्होंने किया. उन लेखकों को आईना दिखाया है जो सत्ता का प्रवक्ता बनने के लिए अपने आपको किसी भी कीमत पर सर के बल खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. खूब लिखने, प्रकाशन होने के बावजूद भी उनकी एक मात्र कृति डांस इंडिया डांस ही प्रकाशित हुई. इसकी प्रति समीक्षार्थ भेंट की जिस पर मैंने समीक्षा लिखी. प्रकाशित भी हुई.
जय प्रकाशजी जिंदादिल इंसान, सहयोग को तत्पर, झूठ, फरेब उन्हें पसंद नहीं. वे पारदर्शिता को बहुत महत्त्व देते थे. और इसी व्यवहार की अपेक्षा वे दूसरों से करते थे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनकी कैंसर की बीमारी. मैंने कई घरों में देखा है परिवार के किसी सदस्य के कैंसरग्रस्त हों जाने से पूरा परिवार ताकत लगाता है कि इस बीमारी की भनक बाहर किसी को न लगे किन्तु जय प्रकाश का कलेजा देखो कि उन्होंने डंके कि चोट अनेक ग्रुप में इस बीमारी से पीड़ित होने का खुलासा कर दिया. इस बीमारी कि जानकारी के बाद भी अपने घर पर व्यंग्यम कि मासिक गोष्ठी आयोजित की. ज़ब मिले हँसते, मुस्कराते रहे. पीड़ा को पीते रहे. वे अपनी पीड़ा से दूसरे को पीड़ित नहीं करना चाहते थे. दूसरों के मान सम्मान का बहुत ध्यान रखते थे. बार बार उनके निधन के समाचार अनेक ग्रुप में चल जाते, बाद में ज्ञात होता कि, सही नहीं है. तब अचानक से ऐसा लगता कि शायद कोई ईश्वरी चमत्कार होना है जो जय प्रकाश जो को स्वस्थ कर देगा, ऐसा हुआ नहीं.
वो रूठा इस अदा से कि मौसम बदल गया.
इक शख्श सारे शहर को वीरान कर गया.
श्री अभिमन्यु जैन
M. 9425885294
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – धारदार व्यंग्य शिल्पी – जयप्रकाश जी पांडेय ☆ श्री यशोवर्धन पाठक☆
संस्कारधानी में व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर श्री जयप्रकाश पांडे के अकस्मात् निधन ने साहित्य जगत को शोक विह्वल कर दिया है। यूं तो विगत कुछ माहों से उन्हें असाध्य बीमारी ने जकड़ रखा था परन्तु किसी ने यह नहीं सोचा था कि वे अपने असंख्य चाहने वालों को इतनी जल्दी अलविदा कह कर अनंत यात्रा पर चले जाएंगे। उनकी अभी जाने की आयु नहीं थी। हिंदी साहित्य जगत ने उनसे बहुत उम्मीदें लगा रखी थीं लेकिन विधाता को शायद यही मंजूर था और हम विधि के विधान को स्वीकार करने के लिए विवश हैं।
श्री जयप्रकाश पांडे ने अपने नाम को पूरी तरह सार्थक किया था। साहित्य जगत में उन्होंने प्रकाश पुंज के रूप पहचान बनाई और अपने उल्लेखनीय योगदान से जय के अधिकारी बने। श्री पांडेय को व्यंग्य लेखन में महारत हासिल थी। सुप्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य लेख प्रमुखता से प्रकाशित किए जाते थे। मुझे अच्छी याद है कि साहित्य में उनकी गहरी अभिरुचि के दर्शन किशोरावस्था में ही होने लगे थे और शालेय जीवन में होनहार बिरवान के होत चीकने पात की कहावत को चरितार्थ कर दिया था।
हास्य विनोद और व्यंग्य में पांडेय जी की रुचि बचपन से ही थी जब हम साथ में जबलपुर में पी. एस . एम . कालेज के पीछे वरिष्ठ बुनियादी स्कूल में पढ़ते थे। पांडेय जी मुझसे एक वर्ष सीनियर थे। बुनियादी स्कूल उस समय मिडिल स्कूल के रुप में जबलपुर में प्रसिद्ध था। स्कूल में प्रधानाध्यापक श्री शीतल प्रसाद नेमा जी के मार्गदर्शन में छात्रों के मानसिक, शैक्षणिक और बौद्धिक विकास के लिए उस समय विभिन्न प्रकार की गतिविधियां संयोजित की जाती थी। मेरी और पांडेय जी की साहित्यिक क्षेत्र में विशेष रुचि होने के कारण हम दोनों भाषण, वाद विवाद और निबंध प्रतियोगिताओं में काफी भाग लेते थे। उस समय छात्रों के लेखन क्षमता के विकास के लिए प्रार्थना स्थल पर एक ब्लैक बोर्ड पर प्रतिदिन छात्रों के द्वारा सृजित रचनाएं लिखी जाती थीं। मैं और जयप्रकाश जी भी ब्लैक बोर्ड पर हास्य विनोद की प्रायः रचनाएं लिखकर छात्रों के पढ़ने के लिए प्रस्तुत करते। पांडेय जी कभी कभी विनोद पूर्ण व्यंग्य भी लिखकर प्रस्तुत करते और मैं उनकी व्यंग्य रचना की श्रेष्ठता और पठनीयता को देखते हुए उन्हें उस समय कभी कभी हरिशंकर परसाई कहकर भी संबोधित करता। उस समय परसाई जी की जबलपुर के साहित्यिक क्षेत्र में काफी चर्चा थी और हमारे स्कूल में एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उन्होंने काफी रोचक और प्रभावी भाषण दिया था। बुनियादी स्कूल के बाद हमने माडल हाई स्कूल में एडमीशन लिया और पांडेय जी ने वहां भी साहित्यिक लेखन और आयोजनों में भाग लिया और ख्याति प्राप्त की।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में सर्विस ज्वाइन करने के बाद भी पांडेय जी का व्यंग्य लेखन निरंतर चलता रहा और साथ ही व्यंग्य रचना पाठ की गोष्ठियं भी। सेवानिवृत्ति के बाद तो उन्होंने पूरे समर्पित भाव से सक्रियता के साथ व्यंग्य लेखन को समय दिया और अपने निवास पर व्यंग्यम की नियमित रुप से गोष्ठियों का आयोजन किया। पांडेय जी ने व्यंग्य लेखन के लिए अनेक उच्च स्तरीय सम्मान और पुरस्कार प्राप्त किए। उनकी अनेक व्यंग्य कृतियों प्रकाशित और पुरस्कृत भी हुई।
श्री जयप्रकाश पांडेय के व्यक्तित्व की अनूठी विशेषताओं को थोडे से शब्दों में व्यक्त करने के लिए मेरी ये पंक्तियां गागर में सागर का उदाहरण बन सकती हैं –
व्यंग्य विधा के पैरोकार थे,
व्यंग्य तुम्हारे धारदार थे,
पैनापन तीखे प्रहार थे
कलमकार तुम शानदार थे।
🌹
श्री यशोवर्धन पाठक
मो – ९४०७०५९७५२
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ व्यंग्य लेखक जयप्रकाश पांडे का आकस्मिक निधन हिंदी व्यंग्य को एक अपूरणीय क्षति ☆ श्री रामकिशोर उपाध्याय☆
प्रख्यात व्यंग्यकार जयप्रकाश पांडे जी के निधन की खबर सुनकर सहसा विश्वास नहीं हुआ | लेकिन जब दुखद सूचना की पुष्टि की तो मैं स्तब्ध रह गया | मेरी उनके साथ बहुत सी स्मृतियाँ जुड़ी हैं जिन्हें आज मैं याद कर रहा हूँ। माध्यम साहित्यिक संस्थान के मध्य प्रदेश राज्य के प्रभारी और अट्टहास पत्रिका से जुड़े होने के नाते वे मेरे साथ निरंतर संपर्क में रहते थे | कुछ माह पूर्व उन्होंने ख्यात व्यंग्य पत्रिका ‘अट्टहास’ का मध्यप्रदेश के व्यंग्यकारों पर केन्द्रित अंक का सम्पादन बड़ी कुशलतापूर्वक किया था | अभी गत नवम्बर माह श्री भगवत दुबे (अध्यक्ष /कादम्बरी ) पर केन्द्रित अट्टहास के अंक के सम्पादन और संकलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी |बैंकिंग जैसे व्यवसाय से जुड़े होने के बावजूद आप शानदार व्यंग्य लिख रहे थे – बिलकुल हरिशंकर परसाई के परंपरा के अनुरूप | गत अगस्त में उन्होंने व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई की जन्मशती के अवसर पर शानदार कार्यक्रम का जबलपुर में आयोजन कर एक कुशल प्रबंधक होने का परिचय दिया | ‘व्यंग्यम’ के माध्यम से अन्य प्रबुद्ध साहित्यकारों के सहयोग से गत आठ वर्षों से वे नियमित रूप से मासिक गोष्ठियाँ आयोजित कराकर व्यंग्य का जबलपुर में परचम लहरा रहे थे | इसे एक प्रकार से हरिशंकर परसाई की व्यंग्य ज्योति को निरंतर प्रज्वलित करते रहने के एक सार्थक प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए |
कादम्बरी संस्था के सम्मान हेतु मैंने उनके व्यक्तिगत आग्रह पर आवेदन किया था | लेकिन मुझे पता नहीं था कि मुझे व्यंग्य लेखन के लिए मिलने वाला उन्होंने अपने बड़े भाई की स्मृति में वित्त पोषित किया होगा | यह उनके औदार्य और पारस्परिक सम्मान की भावना का परिचायक है जिसे मैं कभी विस्मृत नहीं कर सकता | अट्टहास के तैतीसवें सम्मान समारोह में उन्हें १३ जुलाई को उपस्थित होना था लेकिन वे स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से कारण दिल्ली नहीं आ पाए थे | अतः जब 9 नवंबर 2024 को मैं जबलपुर में ‘डॉ रामकृष्ण पाण्डेय स्मृति सम्मान-२ ०२४ ’ लेने आया तो उनका वह सम्मान पत्र भी साथ लेकर आया था | मिलने पर उनके चेहरे पर दिख रही चमक और उत्साह को देखकर कहीं से ऐसा नहीं लगता था वे सचमुच में बीमार थे | इस कार्यक्रम के अवसर पर वे तीन दिन तक लगातार हमारे साथ साये की तरह रहे – पहले दिन सुबह -सुबह हमें ट्रेन से लेकर होटल तक छोड़ने आये | उसी दिन आयोजित ‘ कादंबरी’ संस्था के सम्मान समारोह में हमें होटल से लेकर समारोह स्थल में पूरे समय रात्रि के नौ बजे तक साथ रहे | रात्रि में हमें होटल में छोड़ने आये | अगले दिन फिर नाश्ते के समय साथ रहे | फिर दस नवम्बर की शाम को व्यंग्यम की गोष्ठी में सभी अतिथियों के सम्मान में जुटे रहे और अगले दिन हमें ट्रेन में विदा तक करने आये | मेरे साथ अट्टहास के प्रमुख संपादक श्री अनूप श्रीवास्तव कहते थे कि हम उनके अतिथि हैं। भोजन पर पांडे जी और ताम्रकार जी अक्सर हमारे साथ रहा करते थे और साथ देने के लिए केवल सूप पीते थे कि कहीं हम अन्यथा न लें। इतना स्नेहिल और आत्मीय आतिथ्य तो कोई अपना नजदीकी रिश्तेदार भी नहीं करता | किसको पता था कि वह तीन दिनों का साथ हमारी अंतिम मुलाकात में बदल जायेगा | मैंने उनके भीतर एक जिंदादिल इंसान को देखा जो विपरीत परिस्थिति में भी हर कार्य खुद करके जीना चाहता था। उनकी प्यारी सी मोहक मुस्कान अब सदैव आँखों के सामने नाचती रहेगी | अभी तो उन्होंने साहित्य के लिए बहुत कुछ करना था। नियति को कौन रोक सकता है ? उनके असामयिक निधन से हिंदी व्यंग्य को जो क्षति हुई है वह अपूरणीय है | ऐसा लगता है कि व्यंग्य का एक सशक्त स्तम्भ गिर गया हो | उनके जाने से जहाँ जबलपुर और उनसे जुड़े लोग और परिवारजन अवश्य उनकी व्यक्तिगत कमी को अनुभव कर रहें होंगे तो वहीँ उनके सैकड़ों प्रशंसक और माध्यम साहित्यिक संस्था और अट्टहास के सुधी पाठक भी मेरी तरह उनकी रिक्ति को तीव्रता से अनुभव करेंगे। वैसे साहित्यकार कभी मरा नहीं करते, वे हमेशा अपने रचनाकर्म के माध्यम से सदा जीवित रहते हैं और विशाल ह्रदय के स्वामी और मेरे ऊपर अपनी अमिट छोड़ने वाले जय प्रकाश पांडे भी उसी प्रकार हमारी स्मृति में हमेशा साथ रहेंगे। मैं उनकी स्मृतियों को सहेजते हुए उन्हें अपनी और अट्टहास पत्रिका की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ | ॐ शांति।
श्री रामकिशोर उपाध्याय
कार्यकारी सम्पादक अट्टहास, नई दिल्ली
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – सरल हृदय के तीखे कलमकार थे जयप्रकाश पांडे ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव☆
(सादर श्रद्धांजलि)
ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति जैसा सोचता-विचारता है, जैसा कार्य करता है वैसा ही दिखने लगता है, वैसी ही उसकी वाणी और स्वभाव भी हो जाता है। चिंतक, कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार, शिक्षक, नेता सभी चेहरे और वाणी से पहचान लिए जाते हैं, किन्तु इसके विपरीत भाई जयप्रकाश पांडे की सौम्य-सुदर्शन छवि, मुस्कुराहट और मधुर वाणी याने की उनका टोटल “सॉफ्ट लुक” देखकर आभास नहीं होता था कि वे व्यंग्यकार के रूप में इतनी कड़वी – कठोर बात लिखने-कहने वाले व्यक्ति थे।
शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, जबलपुर से स्नातकोत्तर एवं गुरुघासीदास वि वि बिलासपुर से सी.डी. ए. करके आप 1980 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारत हुए और 2016 में मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हुए। अब जिसकी स्वयं की आदत कामचोरों, भ्रष्टाचारियों, सामाजिक विसंगतियों और शासन-प्रशासन की कमजोरियों-गल्तियों को ताड़ने और उस पर करारा लिखने की थी उसे स्वयं तो अच्छा काम करके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना ही पड़ता। सो भाई जयप्रकाश जी ने बैंक के कार्यकाल में उत्कृष्ट कार्यों पर 48 सम्मान प्राप्त कर अपना और पूरे परिवार व मित्रों का गौरव बढ़ाया। उनके द्वारा रचित व्यंग्य और कहानियों का प्रकाशन देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में हुआ। आकाशवाणी जबलपुर, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर से प्रसारण हुआ। विचारपूर्ण श्रेष्ठ लेखन से उनके प्रशंसकों के साथ-साथ उनकी कीर्ति भी बढ़ती गई। उन्होंने परसाई स्मारिका, नर्मदा परिक्रमा, ई-अभिव्यक्ति पत्रिका आदि का संपादन किया। उनके प्रकाशित व्यंग्य संग्रह “डांस इंडिया डांस” की हर ओर चर्चा हुई। उनका एक और व्यंग्य संग्रह “रूप बदलते सांप” अभी अभी उस समय प्रकाशित होकर आया जब वे गंभीर रूप से अस्वस्थ होने के कारण नागपुर के एक चिकित्सालय में उपचार रत थे, अपने इस व्यंग्य संग्रह को लेकर वे बहुत उत्साहित थे। पुस्तक के सटीक शीर्षक के लिए उनकी मुझसे कई बार चर्चा हुई। अफसोस कि वे अपनी इस नव प्रकाशित पुस्तक को नहीं देख पाए। जयप्रकाश जी के सृजन पर उन्हें कबीर सम्मान, अभिव्यक्ति सम्मान, व्यंग्य यात्रा पत्रिका सम्मान, साहित्य सरोज पत्रिका सम्मान, कादम्बरी सम्मान सहित अनेक सम्मान मिले। नवंबर 24 में जबलपुर में आयोजित एक समारोह में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री अनूप श्रीवास्तव ने उन्हें अट्टहास और माध्यम का “व्यंग्य गौरव अलंकरण” प्रदान किया। वे कादम्बनी के अ. भा. व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता के विजेता भी रहे हैं। जयप्रकाश जी आजीवन देश की विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर समाज में रचनात्मक वातावरण बनाने में सक्रिय रहे। भ्रमण में रुचि, ज्ञान पिपासा, मिलन सरिता और विश्वसनीयता जैसे गुणों के कारण वे जिससे मिलते उसे अपना बना लेते थे। जयप्रकाश जी के असमय निधन से उनके गृह नगर जबलपुर सहित देश के सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले उनके मित्र अत्यंत दुखी हैं। साहित्य जगत ने न सिर्फ एक अच्छा लेखक वरन एक अच्छा व्यक्ति भी खो दिया।
ख्यातिलब्ध साहित्यकार डॉ. कुंदन सिंह परिहार के अनुसार “जयप्रकाश पांडे के हृदय में देश के करोड़ों वंचितों और लाचार लोगों के लिए पर्याप्त हमदर्दी थी। वे बार-बार हमारे समाज की “क्रोनिक” व्याधियों तक पहुंचने का प्रयास करते रहे। ” डायमंड पॉकेट बुक्स के संपादक एम. एम. चंद्रा ने उनके बारे में लिखा था कि “जयप्रकाश जी शब्दों के तुलनात्मक प्रयोग से व्यंग्य को सहज सरल बना देते हैं। ” जयप्रकाश जी का स्वयं का कहना था कि “जब कोई अनुभव, घटना, विचार या स्मृति कई दिनों तक मन-मस्तिष्क में उमड़ती-घुमड़ती रहती है तो कलम से कागज पर उतर जाती है। भाई जयप्रकाश के न रहने से साहित्य जगत में तो रिक्तता आई ही है मैंने भी हर छोटी – बड़ी बात पर विचार विमर्श करने वाला एक ऐसा जिंदा दिल मित्र खो दिया जिससे किसी न किसी संदर्भ में लगभग रोज मेरी बात होती थी।
इस वर्ष 2 जनवरी को अपने जन्मोत्सव पर जयप्रकाश जी हमारे बीच नहीं होंगे। उन्हें सादर श्रद्धांजलि।
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – सहज सरल जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी ☆ डॉ. प्रदीप शशांक ☆
जय प्रकाश पांडे जी, क्या कहूँ इस शख्सियत के विषय में ? सहज, सरल, सौम्य, सदा हंसते हंसाते रहने वाले जिंदा दिल व्यक्तित्व के धनी, प्रेमी निच्छल हृदय, एक बार जो भी इनसे मिला इन्हीं का हो गया। अच्छे व्यक्तियों के लिये जितनी उपमा होती हैं वह इस हरदिल अजीज के लिए भी कम पड़ जावेंगी।
जय प्रकाश जी के साहित्यिक कृतित्व पर अनेक मित्र प्रकाश डालेंगे। हम केवल उनके दिलदार व्यक्तित्व के विषय में बात करेंगे।
पांडे जी से हमारा परिचय लगभग 8 वर्ष पुराना है। किसी पत्रिका में प्रकाशित मेरा व्यंग्य पढ़कर उन्होंने हमें फोन किया और व्यंग्य की तारीफ करते हुए हमें बधाई दी। प्रथम फोन के बाद ही उनकी आत्मीयता ने हमें इतना प्रभावित किया कि हम अच्छे मित्र बन गये। उसके बाद शहर में आयोजित अनेकों गोष्ठियों में मुलाकात होती रही और आपसी बातों में हंसी मजाक और ठहाकों के बीच हमारी मित्रता परवान चढ़ती गई। प्रायः सप्ताह, 15 दिन में उनसे फोन पर एक दूसरे की साहित्यिक गतिविधियों पर चर्चा होती रहती थी। ठहाकों के बीच उनका मिठास से भरा “जय हो” कहना, अंतर्मन तक खुशियों से भर देता था।
कोरोना काल के पहले एक दिन शाम 4 बजे उनका फोन आया, शशांक तुम आराम तो नहीं कर रहे हो? हमने कहा -आराम का तो समय है, लेकिन आप के लिये तो समय ही समय है। उन्होंने कहा- मैं तुम्हारे ही क्षेत्र में हूँ, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज में, बस पांच मिनिट में तुम्हारे घर आ रहा हूँ। हमने कहा-स्वागत है आपका।
पांच मिनिट बाद वह हमारे घर पर थे। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उनके लड़के ने श्री राम इंजीनियरिंग कालेज में कैंटीन ली है अतः मैं आज यहां आया था सो सोचा तुमसे मिलता चलूं। श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज से लगी हुई हमारी कालोनी है।
घर पर वह प्रथम बार आये थे, बातों और ठहाकों के दौर के बीच में हमारी श्रीमती जी ने चाय, नमकीन लाकर रख दिया। पांडे जी की बातों का प्रभाव ऐसा था कि श्रीमती जी भी आकर हम लोगों के पास बैठ गईं और उनकी बातों का आनंद लेने लगीं। बातों में मशगूल हम लोगों को पता ही नहीं चला कि कब 6 बज गये।
श्रीमती जी को ऐसा बिल्कुल भी महसूस नहीं हुआ कि पांडे जी से पहले बार मिलीं हैं, ऐसा लगा कि वर्षों की जान पहचान है।
फिर तो जब भी वह कालेज आते तो हमारे घर जरूर आते, आते ही कहते – भाभी जी चाय बहुत अच्छी बनाती हैं तो हम भाभी जी के हाथ की बनी चाय पीने आये हैं।
हाजिर जवाबी, और मजाकिया स्वभाव के धनी पांडे जी को हमने 2024 की रैंकिंग में 43 वें नंबर पर आने हेतु बधाई दी तो उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा – धन्यवाद।
किंतु हमें असंतोष है नंबर एक के आदमी को इतने पीछे कर दिया। आज आत्ममुग्धता और महात्वाकांक्षा का युग है हर आदमी नंबर 1 वाला और ये लोग राजनीति खेल कर कटुता पैदा कर रहे हैं। मजाक में ही उन्होंने उस सूची पर कटाक्ष कर दिया।
दो वर्ष पूर्व 23 दिसंबर 22 को पांडे जी के मित्रों का माडेलियन ग्रुप( जबलपुर मॉडल हाई स्कूल में पढ़े उनके साथी मित्र) का ओरछा (राम राजा का किला) पिकनिक मनाने हेतु जाने का प्रोग्राम बना। सभी 65 +उम्र के उनके मित्र सपत्नीक जाने वाले थे। हमारे साले साहब शेखर सिंह राजपूत भी उस ग्रुप में थे। इत्तेफाक से बस में 3 सीट खाली थीं तो हमारे साले का फोन आया और ओरछा चलने को कहा, किंतु उस समय मेरे घुटने में ज्यादा तकलीफ होने का कारण हमने जाने से मना कर दिया, किंतु श्रीमती जी को भेज दिया। हमारी श्रीमती जी अपनी भाभी के साथ जब बस में आगे की सीट पर बैठी थीं तभी पांडेय जी भी अपनी श्रीमती के साथ बस में चढ़े और हमारी श्रीमती जी को देखकर हैरान रह गये और सोच में पड़ गये कि यह यहाँ कैसे? खैर, नमस्कार करने के बाद वह भी पीछे जाकर अपने अन्य दोस्तों के साथ बैठ गये।
कुछ देर बाद हमारी श्रीमती जी का फोन हमारे पास आया और उन्होंने बताया कि हम लोग आराम से बस में बैठ गये हैं। उन्होंने बताया कि पांडे जी भी आये हैं अपनी श्रीमती जी के साथ।
हमने पांडे जी को फोन लगाया, फोन उठाते ही उन्होंने कहा, भाभी जी बस में हैं लेकिन … हमने उनकी शंका का समाधान करते हुए कहा- आप के माडेलियन ग्रुप में हमारी मॉडल भी साथ जा रही हैं, वह आपके मित्र शेखर की बहन हैं। अरे..तुमने पहले कभी नहीं बताया, शेखर हमारे साथ बाजू में ही बैठे हैं, लो बात कर लो। हमने अपने साले साहब को बताया कि पांडे जी हमारे भी पुराने साहित्यिक मित्र हैं।
उसके बाद पांडे जी, हमारी श्रीमती जी को शेखर के बहन होने के नाते और ज्यादा सम्मान देने लगे। जब भी फोन करते हम दोनों से ही बात करते।
लगभग 8माह पूर्व शायद अप्रेल में ही उन्होंने बताया था कि पेट में कुछ परेशानी है। अतः यहां पर डॉक्टर को दिखाया है लेकिन आराम नहीं लग रहा है। उसके बाद वे बांबे गये वहां जांच के दौरान उनको आंत में कैंसर की शिकायत बताई। कुछ दिनों बाद वह नागपुर भी गये। बाद में जबलपुर में कीमो करवाने सप्ताह में एक बार अस्पताल जाते थे। एक बार हमने फोन लगाया तो घंटी पूरी गई लेकिन फोन नहीं उठा। हमें लगा कि कहीं व्यस्त होंगे। कुछ देर बाद उनका फोन आया और उन्होंने बताया कि उनका कीमो हो रहा था। हमने उनसे कहा कि आप आराम करो, बाद में बात करेंगे लेकिन उन्होंने हंसते हुए कहा अरे नहीं, नर्स अपना काम कर रहीं है, हम अपना काम करें और उन्होंने हंसते हुए हमसे बात करना शुरू कर दी। इतने दर्द के बाद भी उन्होंने हमें यह महसूस नहीं होने दिया।
अभी 27 नवंबर को जब उनसे बात हुई तो उन्होंने बताया कि कीमो पूरे हो गये हैं, अब नागपुर जाकर टेस्ट करवाना है कि कितने परसेंट रिकवरी हुई है। हमने कहा कि आप जल्द ठीक हो कर आओ, बहुत दिनों से घर नहीं आये हो। फोन स्पीकर में ही था, हमारी श्रीमती जी ने भी उनसे कहा कि आप जल्दी अच्छे होकर आओ, चाय पीने। उन्होंने कहा- हमने चाय पीना छोड़ दिया है किन्तु आपके हाथ की चाय पीने एक बार जरूर आऊंगा।
हम लोग उनके आने का इंतजार ही करते रह गये।
इस बीच उनके निधन के समाचार की अफवाहें भी उड़ने लगीं। हम सब स्तब्ध थे, किंतु उनकी जीवटता बार बार उन्हें मौत के मुंह से बाहर लाती रही।
25 दिसंबर को साले साहब का फोन आया और उन्होंने बताया कि पांडे जी को जबलपुर लेकर आ गये हैं और वह यहां पर गेलेक्सी अस्पताल में आई सी यू वार्ड में भर्ती हैं। 25 दिसंबर की शाम को 5.30 पर हम श्रीमती जी के साथ गेलेक्सी अस्पताल पांडे जी को देखने पहुंचे। उनकी हालत देखकर दिल धक्क से हो गया। इतना दिलदार, हंसमुख इंसान की ऐसी स्थिति, आंखें देख रही थी उनको लेकिन दिल को विश्वास ही नही रहा था कि यह पांडे जी ही हैं। उनके बेड के पास उस समय केवल उनकी पुत्री ही थी। श्रीमती जी ने उसे सांत्वना दिया और कहा कि पांडे जी जल्दी ठीक हो जावेंगे, पुत्री की आंखों में अश्रु झिलमिलाने लगे।
नियति को शायद यही मंजूर था। 26 दिसंबर की सुबह उनके निधन की खबर उनके पुत्र की ओर से मिली।
भगवान को भी अच्छे लोगों की शायद ज्यादा जरूरत होती है तभी उन्हें अपने पास बुला लिया।
वे सह्रदय, हंसमुख एवं दिलदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। सदा हंसते ठहाके लगाते रहते थे। उनका यूं अचानक चले जाना हम सभी मित्रों की व्यक्तिगत क्षति है। उन्हें अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि।
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – साहित्य के सूर्य – जय प्रकाश पांडे जी ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार☆
श्री जय प्रकाश पांडे जी जैसा व्यक्ति अब मिलना असम्भव है क्योंकि जिनका कोई नहीं होता उनके श्री पांडे जी होते थे. हरएक व्यक्ति के साथ श्री पांडे जी खड़े थे जिससे उनके साथ जो भी व्यक्ति होता वह अपने को सबल मानता था. अब इस समय बहुत-बहुत ही बड़ी रिक्तता आ गई है. जिसकी पूर्ति असंभव है. श्री पांडे जी अद्भुत जिजीविषा एवं दृढ़ संकल्प के धनी थे. उनका दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था. इतनी बड़ी पोस्ट पर होने के बाद भी सहज और सरल हृदय थे.
हमने कई साहित्यिक यात्राएँ की जिसमें मुझे उनका साथ कृष्ण और सुदामा सरीखा मिलता था. साहित्यिक कार्यक्रमों में आप मुझे हमेशा आगे रखते थे. 9वे दशक से हमारा साथ था. उन्होने साहित्य जगत को अमृतमय योगदान दिया. श्री परसाई जी के जन्मदिन के अवसर पर उनके विरोध के बावजूद बहुत ही उत्कृष्ट कार्यक्रम किया था जिसकी पूरे देश में प्रशंसा हुई. इसी प्रकार श्री परसाई जी का उत्कृष्ट प्रथम साक्षात्कार भी आपने लेकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया था. एसे ही उन्होंने अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया. जिनकी चर्चा आज भी होती है. अनेकों शीर्षस्थ सम्मान उत्कृष्ट लेखन हेतु उन्हें मिले. जब कोई उन्हें सम्मानित करने की बात कहता तो वे किसी दूसरे अच्छे लेखक का नाम सुझाते. पुरूस्कार समितियों में वे बिल्कुल पारदर्शिता और निष्पक्षता से अडिग होकर अपना पक्ष रखते.
आप ई-अभिव्यक्ति पत्रिका के सम्पादक, व्यंग्य की महत्वपूर्ण पत्रिका अट्टहास के अतिथि सम्पादक के साथ-साथ अनेकों पत्रिकाओं का संपादन करते रहते थे. वर्तमान में आप व्यंग्य के लिए कटिबद्ध थे. इसलिए व्यंग्य के उन्नयन के लिए आपने जबलपुर नगर के व्यंग्यकार का एक समूह व्यंग्यम बनाया. जिसमें पिछले साढ़े आठ साल से (लगभग) लगातार व्यंग्य गोष्ठियों का आयोजन अपने घर के लॉन में आयोजित कर रहे थे. य़ह कार्यक्रम इतनी सादगी और गंभीर विमर्श का होता है जिसकी चर्चा संपूर्ण देश में हो रही है. व्यंग्य के प्रति उनका स्पष्ट और सटीक नजरिया था.
आप को जब पता चला कि कैंसर हो गया है तब उनकी य़ह दृढ़ता थी कि मैं कैंसर को हरा दूँगा. वे कभी भी कैंसर से डरे नहीं. उन्होंने समान्य रूप से 11 कीमोथेरेपी कराई. हँस मुख और सहयोगी भावना से अंतिम समय तक लगे रहे. उनका जुझारूपन हमारी प्रेरणा है. वे अक्सर मुझसे और अपने साथियों से कहते कि जब तक मैं जिंदा हूँ तब तक व्यंग्यम की गोष्ठी मेरे ही घर में होगी और य़ह वचन उन्होंने निभाया भी. वे अक्सर मुझसे कहते थे कि अब व्यंग्यम तुम लोगों को चलाना है, इस व्यंग्य की मशाल को कभी बुझने नहीं देना कुछ स्वार्थी लोग इस पर आधिपत्य जमाने की कोशिश करेंगे पर डटे रहना. मैं उनसे कहता आप कहाँ जा रहे है अपन सब मिलकर ही व्यंग्य विधा का काम करेंगे. वो तो करेगें ही पर किसी का कोई भरोसा नहीं है अब देखो न सुमित्र जी चले गए. एसा वे कहते थे. शायद उन्हें आभास हो गया था किन्तु उन्होंने इस बात को किसी पर भी जाहिर नहीं किया.
मेरी उनसे दिन में 3 से 4 बार चर्चा होती थी और हर चर्चा में व्यंग्य एवं साहित्य के उन्नयन की चर्चा होती जिसमें नई नई योजना नए कार्यक्रमों की गहन बात होती. हम एक-दूसरे के व्यंग्य की मंजाई करते फिर उसे प्रस्तुत करते.
12 दिसम्बर को नागपुर जाने से पहले करीब लगभग डेढ़ घंटे हमारी चर्चा हुई थी. फिर नागपुर में ऑपरेशन के पहले उन्होंने कहा मैं ऑपरेशन कराकर अधिकतम सोम या मंगल तक लौट आऊंगा फिर अपन व्यंग्यम की गोष्ठी करेगें. मैंने कहा पहले तबीयत फिर गोष्ठी की बात करेंगे. तब उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा अरे सब ठीक है थोड़ा ऑपरेशन हो जाएगा तो और ठीक हो जाएगा. पर क्या पता था कि मेरी उनसे यह अंतिम बात है. नागपुर से लाकर जब उन्हें जबलपुर के अस्पताल में भर्ती किया तब हम सभी व्यंग्यम के साथी मिलने गए थे. मैंने उनके कंधे पर हाथ रखकर आवाज लगाई तो उन्होंने आंख खोली, आंखों में बहुत तेज था कुछ और करने की ललक जो हमारी चर्चा में होती थी. पर ईश्वर को कुछ और मंजूर था और 26 दिसम्बर 24 को श्री पांडे जी को अपने पास बुला ही लिया. हम सब प्रति क्षण प्रार्थना करते ही रह गए.
श्री जय प्रकाश पांडे जी के जाने से मेरे जीवन में रिक्तता आ गई है. पर मुझे विश्वास हैं कि श्री पांडे जी सूक्ष्म रूप में हम सबके साथ है उन्हीं की प्रेरणा से उनके विचारों को आगे ले जाना है.
मैं अपने सबल सच्चे मित्र के श्रीचरणों में विनम्र श्रध्दांजलि इस आशय से दे रहा हूँ कि वे सदैव हमारे साथ रहेंगे.
श्री रमाकांत ताम्रकार
जबलपुर
मोबाइल 9926660150
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – मार्गदर्शक स्वर्गीय जयप्रकाश पांडे जी ☆ श्री श्याम खापर्डे☆
स्वर्गीय जय प्रकाश पांडे जी से मेरी पहचान फेसबुक पर हुई थी। मैं उनके व्यंग्य का प्रशंसक था. हम दोनों भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी थे। परंतु हम दोनों का परिचय नहीं था, मैंने उनका नाम जरुर सुना था और वह बहुत ही शानदार व्यंग लिखते थे। मैं भी उनके व्यंग्य को पसंद करता था और अपनी टिप्पणी उन्हें भेजता था वह भी मेरी कविताओं के प्रशंसक थे और मेरी कई बार प्रशंसा करते थे। उन्होंने मुझे एक बार कहा कि आपकी दो-तीन कविताएं मुझे भेजिए मैं अभिव्यक्ति में प्रयास करता हूं मैंने अपनी तीन कविताएं भेजी उनका फोन आया कि कविताएं अच्छी है, मैं श्री हेमंत बावनकर जी को भेजता हूं वह संपादक है वह आपसे संपर्क करेंगे। आप उन्हें संक्षिप्त में अपना परिचय दे देना। कुछ देर के बाद श्री हेमंत बावनकर जी का फोन आया और उनसे पहली बार बातचीत हुई उन्होंने मेरी कविताएं स्वीकृत की और मेरा स्तंभ ” क्या बात है श्याम जी ” की शुरुआत ई-अभिव्यक्ति पर हुई।
स्वर्गीय जयप्रकाश पांडे जी से मेरी पहली मुलाकात भोपाल में भारतीय स्टेट बैंक के कविता के लिए साहित्य के सम्मान के लिए आयोजित कार्यक्रम में हुई जहां मुझे भी आमंत्रित किया गया था।
सम्मान के बाद मैंने अपनी कविता का पाठ किया जिसे सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने मेरी प्रशंसा की और कविता के लिए बधाई दी। उसके बाद हम दोनों अच्छे मित्र बन गए।
दूसरी बार जब वह अट्टहास के ” परसाई “अंक के अतिथि संपादक थे तब मैंने उनसे उस अंक की एक प्रति मंगवाई, उन्होंने भेजी और मुझसे कहा इसको पढ़ कर आप इस अंक की समीक्षा लिखिए . मैंने उनसे कहा कि मुझे समीक्षा लिखना नहीं आता वह बोले की प्रयास करो और लिखो। मैंने उस अंक कों पढ़कर अपनी तरफ से प्रयास किया और समीक्षा लिखकर उनको भेजा।
मेरी समीक्षा को पढ़कर उन्होंने मुझे फोन किया और कहां कि आपने बहुत मेहनत की है और यह समीक्षा लिखी है जो बहुत ही सुंदर है और मेरी उम्मीद और अपेक्षाओं से भी बढ़कर है मैंने यह समीक्षा कई ग्रुप में भेजी हैं और पेपर में भी भेजी है, वह अभिव्यक्ति में भी प्रकाशित हुई थी।
उनका हमेशा मार्गदर्शन मुझे मिलता रहा. वह मेरे लिए मित्र से भी बढ़कर थे, मैं अपनी बेटी के यहां कटनी आया हुआ हूं और उनसे मिलने अगले सप्ताह जबलपुर जाने वाला था, अचानक उनके स्वर्गवास का समाचार फेसबुक में पढ़कर बहुत ही दुख हुआ .मेरा मन उसे दिन से व्याकुल है और अंतकरण दुख से भर गया है।
मैंने एक अच्छा मित्र, मार्गदर्शक, जान से भी प्यारा साथी खो दिया है इसका दुख मुझे जीवन पर्यंत रहेगा।
ईश्वर मृत आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें एवं उनके परिवार को यह दुख सहने की क्षमता दे यही प्रार्थना है।
ओम शांति। विनम्र श्रद्धांजलि।
उनको समर्पित एक कविता आपसे साझा करना चाहूँगा —
☆ जयप्रकाश पांडे ☆
तुम मंझधार में हमको
छोड़ कर चले गए
स्नेह के धागों को
तोड़ कर चले गए
तुम आज के युग के
निर्भीक कलमकार थे
शब्दों में जिसके चुभन हो
वो व्यंग्यकार थे
विसंगतियों को चित्रित करते
चित्रकार थे
” परसाई “के व्यंग्यों के
सच्चे पैरोकार थे
क्या खता हुई
जो मुंह मोड़ कर चले गए ?
स्नेह के धागों को
तोड़ कर चले गए
तुमने मुझे लिखने की
कला सिखाईं थी
प्रोत्साहित किया
मेरी हिम्मत बंधाई थी
शब्दों के अर्थ समझाए
सही राह दिखाई थी
मेरी कविता सुप्त थी
तुमने जीवंत बनाई थी
क्या सजा दी है
मेरे सर गम का घड़ा
फोड़कर चले गए
स्नेह के धागों को
तोड़ कर चले गए ?
तुम्हारे शोक में
हर इंसान रो रहा है
जमीं रो रही है
आसमान रो रहा है
कलम रो रही है
व्यंग्य का
हर दृष्टिकोण रो रहा है
व्यंगम के वह तीर और
उच्चारण रो रहा हैं
क्या मिला
चाहने वालों को
अश्रुओं से जोड़कर चले गए ?
स्नेह के धागों को
तोड़ कर चले गए
तुमको भूलना भी हमको
कितना मुश्किल है
कैसे द्रवित ना हो
हमारे सीने में भी दिल है
सब उदास है
सूनी सूनी महफिल है
तुम्हें छीन ले गया
विधाता कितना संगदिल है
क्या हुआ जो
तुम झंझोड़ कर चले गए ?
स्नेह के धागों को
तोड़ कर चले गए
शोकाकुल परिवार और मित्र है
नियति का भी खेल विचित्र है
तुम सहज सरल स्पष्टवादी हो
हर कार्य साफ सुथरा और चरित्र है
क्यों आइना दिखा कर
कचोट कर चले गए ?
तुम मंझधार में हमको
छोड़कर चले गए
स्नेह के धागों को
तोड़ कर चले गए /
☆
श्री श्याम खापर्डे
भिलाई जिला दुर्ग छत्तीसगढ़
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी की स्मृति में… ☆ श्री राकेश कुमार☆
हमारा बैंक : हमारी कहानी समूह में 10 अप्रैल 2021 को हम सब के प्रिय श्री जय प्रकाश पांडे जी ने सभी सदस्यों से आग्रह किया था कि आज सभी सदस्य आईना देखकर कुछ भी लिख कर ग्रुप में साझा करें।
वो दिन हमारी जिंदगी का एक टर्निंग पॉइंट था। उनकी प्रेरणा से हमने भी कुछ लिखने का प्रयास किया और संलग्न लेख लिखा था।
आज उनकी स्मृति में उसी लेख को आप सबके के साथ पुनः शेयर कर रहा हूं। 🙏
☆ जीवन की बैलेंस शीट ☆
हमारे प्रिय मित्र ने आदेश दिया कि 🪞आइने के सामने जाकर आज अपनी जिंदगी का लेखा जोखा पेश करो। आजकल समय कुछ नेगेटिव बातो का है तो हमे भी लगने लगा कहीं चित्रगुप्त के सामने पेश होने की ट्रेनिंग तो नहीं हो रही। अभी तो जिंदगी शुरू की है रिटायरमेंट के बाद से।
खैर, हमने इंटरव्यू की तैयारी शुरू कर दी और अपनी सबसे अच्छी वाली कमीज़ (जिससे हमने स्केल 3 से लेकर 5 के interview दिए थे वो मेरा lucky charm थी) पहन, जूते पोलिश कर आइना खोजने लगे अरे ये क्या आइना कहां है मिल नहीं रहा था, मिलता भी कैसे आज एक वर्ष से अधिक हो गया जरूरत ही नहीं पड़ी।
श्रीमती जी से पूछा तो बोली क्या बात है अब Covid की दूसरी घातक लहर चल पड़ी है तो आपको सजने संवरने की पड़ी है, आप उस मोबाइल में ही लगे रहो। एक साल से सब्जी की दुकान तक तो गए नहीं अब जब सारी दुनिया दुबक के पड़ी है और आपको झुल्फे संवारने की याद आ रही है।
हमने उलझना ठीक नहीं समझा और बैठ गए मोबाइल लेकर, दोपहरी को जैसे ही श्रीमतीजी नींद लेने लगी हम भी अपने मिशन में लग गए और आइना खोज लिया। एक निगाह अपनी नख से शिखा तक डाली और थोड़ी से चीनी खाकर चल पड़े। अम्माजी की याद आ गई जब भी घर से किसी अच्छे काम के लिए जाते थे तो वो मुंह मीठा करवा कर ही बाहर जाने देती थी और आशीर्वाद देकर कहती थी जाओ सफलता तुम्हारा इंतजार कर रही है। हमने भी मन ही मन अपनी सफलता की कामना कर ली।
जैसे ही आईने के सामने पहुंचे मुंह से निकल ही रहा था may i come in, sir लेकिन फिर दिल से आवाज़ आई अब तुम स्वतंत्र हो, डरो मत, आगे बढ़ो। आईने में जब अपने को देखा तो लगा ये कौन है लंबी सफेद दाढ़ी वाला पूरे चेहरे पर दूध सी सफेदी देख कर निरमा washing powder के विज्ञापन की याद आ गई।
अपने आप को संभाल कर हमने अपने कुल देवता का नमन किया।
पर ये क्या? मन बहुत ही चंचल होता है विद्युत की तीव्र गति से भी तेज चलता है हम भी पहुंच गए कॉलेज के दिनों में स्वर्गीय प्रोफ सुशील दिवाकर की वो बात जहन में थी जब हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी पर उन्होंने कहा था ” not shaving” तो हमने एकदम कहा था ” no sir Saving” वो खिल खिला कर हंसने लगे। बहुत ही खुश मिजाज़ व्यक्ति थे।
अब कॉलेज के प्रांगण में थे तो प्रो दुबे एस एन की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता, economics को सरल और सहज भाव में समझा देते थे आज भी उनकी बाते ज़ुबान पर ही रहती है।
एक दिन कक्षा में demand और supply पर चर्चा हो रही थी। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बतलाया की सरकार जब अपने स्तर पर मज़दूर को रोज़गार देती है तो उससे demand निकलती है, मजदूर पेट भरने के बाद कुछ अपने पर खर्च करने की सोचता है, अपनी shave करने के लिए बाज़ार से एक blade खरीदता है, और शुरू हो जाती है Demand, दुकानदार, होलसेलर को ऑर्डर भेजता है और होलसेलर फैक्ट्री को ऑर्डर भेजता है, फैक्ट्री जो बंद हो गई थी मजदूर लगा कर फैक्ट्री चालू कर देता है और रोज़गार देने लगता है। कैसे एक blade से रोज़गार शुरू होता है।
अपनी लंबी दाढ़ी देख कर हम भी आपको कहां से कहां ले गए, इसलिए आइना नही देख रहे थे हम आजकल।
टीप – हमने किसी दाढ़ी बढ़ाए हुए को भी आइना दिखाने की कोशिश नहीं की। 😁
श्री राकेश कुमार
11th April 2021
संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)
मोबाईल 9920832096
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆
महान व्यक्ति अपने कर्मों की छाप और कदमों के अमिट निशान दुनिया में छोड़ जाते हैं, ऐसे ही महान शख्स थे स्व. यशवंत शंकर धर्माधिकारी। आपका जन्म स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सामाजिक सुधार आंदोलनों के नेता, विनोबा भावे के अनन्य सहयोगी एवं गांधीवादी विचारधारा के समर्थक वर्धा के श्री शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी के परिवार में हुआ था। प्रतिष्ठित परिवार से जो सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, कर्मठता के संस्कार उन्हें मिले उन्हीं सब का निर्वहन कर उन्होंने अपने व्यक्तित्व को और अधिक सुरभित बनाया । धर्माधिकारी जी ने नागपुर से 1952 में विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की तदोपरान्त उन्होंने संस्कारधानी जबलपुर में वकालत का कार्य प्रारंभ किया । इस क्षेत्र में वे लगभग 45 वर्ष तक सेवाएं प्रदान करते रहे । उन्होंने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ न्याय क्षेत्र में भी बुलंदियां हासिल कर शोहरत प्राप्त की । उनकी शख्सियत को नजरअंदाज करना न तो समाज के लिए संभव था और न ही सरकार के लिए । उनके परिश्रम, लगन, ईमानदारी और बुद्धिमत्ता ने उन्हें 12 अगस्त 1971 में महाधिवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया। नियम-सिद्धांतों, नैतिकता और ईमानदारी की डोर से बंधे धर्माधिकारी जी को आपातकाल में श्री जयप्रकाश नारायण को अपने आवास में अपने सानिध्य में रखने के कारण 1975 में नैतिक जिम्मेदारी के तहत पद त्याग करना पड़ा उन्होंने साबित कर दिया कि –
कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे में ढल गए
कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गए
ऊंचाईयां उन्होंने केवल न्याय के क्षेत्र में ही तय नहीं की थी, वे श्रेष्ठ साहित्यकार भी थे। उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी हिंदी, मराठी और अंग्रेजी साहित्य पर उनका पूर्ण अधिकार था । इतिहास, दर्शन तथा आध्यात्म में भी उनकी गहरी पैठ थी । सच्चाई की जितनी कड़वाहट उनके व्यवसाय से जुड़ी थी, संगीत की उतनी ही मधुरता उनके जीवन में घुली थी। वे संगीत के भी बेहद शौकीन थे। विभिन्न शैक्षिक, सांस्कृतिक आध्यात्मिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति उनकी रुचि का परिचायक थी । साधारणता यह देखा जाता है कि साहित्य और कला प्रेमी खेल के मैदान से दूर रहते हैं, किंतु उन्हें खेल में भी दिलचस्पी थी और भी इसका भरपूर आनंद भी लेते थे ।
श्री धर्माधिकारी जी महान शिक्षाशास्त्री और शिक्षा प्रेमी थे। नगर के गौरवशाली गोविंदराम सेक्सरिया अर्थ वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर के लम्बे समय तक शासी निकाय के अध्यक्ष रहे। उनके मार्गदर्शन में महाविद्यालय पुष्पित, पल्लवित हुआ और प्रदेश के श्रेष्ठ महाविद्यालय में अपना स्थान बनाया । एड. धर्माधिकारी जी रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के कार्य परिषद के साथ-साथ अनेक महाविद्यालयों में भी शासी निकाय के सदस्य रहे। शहर की कोई भी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था ऐसी नहीं होगी जिससे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उनका संबंध न रहा हो।
इन सब के अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात है उनका विनम्र होना और इंसानियत के गुणों से भरपूर होना। मुझे याद आती है अपने बाल्यकाल की एक घटना । चूँकि मेरे पिता स्व. प्रो.एन के पाण्डेय गोविंदराम सेक्सरिया महाविद्यालय में ही प्राध्यापक थे और आदरणीय धर्माधिकारी जी के घर महाविद्यालयीन कारणों से आना-जाना होता रहता था । उन दिनों मेरी मां रीढ की हड्डी की समस्या से परेशान थीं और उनके लिए चलना-फिरना कठिन हो गया था ऐसे समय में उन्होंने अपने ड्राइवर बाबूराव जी को स्पष्ट निर्देश दिया कि जब तक मां का इलाज पूर्ण नहीं हो जाता वह उनके लिए कार की व्यवस्था बनाए रखे । सरस्वती-लक्ष्मी पुत्र धर्माधिकारी जी के संवेदनशील, मानवता पूर्ण व्यवहार ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उच्च वर्ग में जन्मे पले बढ़े श्री धर्माधिकारी जी समवर्गी में ही नहीं अपितु मध्यम और निम्न वर्गी लोगों में भी अत्यंत लोकप्रिय थे। छोटे-बड़े सभी लोग उन्हें प्यार और आदर से दादा और काका जैसे संबोधनों से संबोधित करते थे। उनके वात्सल्य पूर्ण स्नेहिल व्यवहार को मैं आज भी नहीं भूल पाती जब मैं कक्षा सातवीं की स्टूडेंट थी तब उन्होंने एक बार मुझे बग्घी में घुमाया था और रास्ते भर पिताजी की तरह सिद्धांतों के साथ ईमानदारी की राह पर चलने, कठिन परिश्रम और समय का पाबंद रहने की शिक्षा दी थी। युवा- वृद्ध, बालक सबसे उनका प्रेम पूर्ण व्यवहार रहता था। गरीबों के प्रति उनकी सहृदयता देखते ही बनती थी। वे सबके दुख-सुख में शरीक होकर सुख को दूना और दुख को आधा कर देते थे। 15 जून 1996 को उनके निधन पर हर किसी को लगा कि कोई अपना चला गया जीवन शून्य बनाकर। खुशमिज़ाज़, शौकीन, हंसमुख, मिलनसार, सहनशील प्रकृति के धनी एड. यशवन्त शंकर धर्माधिकारी जी की पत्नी श्रीमती यशोदा धर्माधिकारी जी भी शिक्षा और समाज सेवा में सदैव अग्रणी रहीं । समाज सेवा की परंपरा को आगे बढ़ाया उनके पुत्र स्व. प्रियदर्शन धर्माधिकारी जी ने, जो नगरीय प्रशासन राज्य मंत्री भी रहे। पुत्रवधु श्रीमती प्रीति धर्माधिकारी जी भी निरंतर शिक्षा और समाज सेवा में उदारता के साथ जुड़ी हैं । पुत्री स्व.की शुभदा पांडे जी ने भी शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान की।
वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।
– श्री जगत सिंह बिष्ट
(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़ सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा प्रेषित “मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा“। यह जानते हुए भी कि कुनबे क्यों बिखर रहे हैं, फिर भी हम कुनबों को जोड़ने के स्वप्न देखते हैं। यही सकारात्मकता है। )
☆ दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆
गाँव छोड़े मुझे काफी समय बीत गया। बाबूजी ने खेतों के बीचोबीच एक बड़ा – सा घर बनाया था। घर में प्रवेश से पहले लिपा पुता आँगन, तुलसी मंच और एक कुआँ हमारा स्वागत करता।
फिर आती एक सीढ़ी, जिसे चढ़कर तीन तरफ से खुला बरामदा हुआ करता था। यहाँ कपड़े और लकड़ी की सहायता से बनी एक आराम कुर्सी रखी रहती जिस पर बाबूजी अक्सर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे। कौन आया कौन गया, हाथ पैर धोए या नहीं, पैरी पौना (प्रणाम) किया या नहीं इन सब बातों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। हाँ, उनके हाथ में एक जापमाला भी हुआ करती थी और वह दिवा – रात्रि उँगलियों में उसे फेरा करते थे।
बाबूजी जब अस्सी के ऊपर थे तब भी कमाल था कि कोई बात भूलते हों! संस्कारों में, रीति-रिवाज के पालन में, लेन -देन में, बहुओं की देखभाल में कहीं कोई कमी न आने देते। घर का सारा अंकुश उनके हाथ में था। सबको अपना हिस्सा मिले, सब स्वस्थ रहें, बहुएँ समय -समय पर अपने पीहर जाएँ, ज़ेवर बनाएँ, वस्त्र खरीदे इन सब बातों की ओर बाबूजी का पूरा ध्यान रहता था। खेतीबाड़ी साझा होने के कारण घर में धन का अभाव न था।
बाबूजी बहुत मेहनती थे। सत्तर साल की उम्र तक सुबह – शाम पहले तो खुद ही गोठ में जाते, गैया मैया की पूजा करते, उनके पैरों को छूकर प्रणाम करते उन्हें नहलाते, साफ करते फिर उनके पास उनके बछड़े को छोड़ते। वह भरपेट दूध पी लेते तो वे बाकी दूध दुहकर घर के भीतर ले लाते।
ताज़ा दूध उबल जाने पर अपनी आँखों के सामने बिठाकर अपने दोनों बेटों को और हम बच्चों को दूध पिलाते। घर में दो भैंसे भी थीं, उनकी भी खूब सेवा करते। दूध दुहकर लाते और उसी दूध से बेबे (दादीमाँ) दही जमाती, पनीर बनाती, मक्खन निकालती, घी बनाती। सुबह पराँठे के साथ ढेर सारा मक्खन मिलता, दोपहर को लस्सी, रात को पनीर। वाह ! बीजी ( माँ) और चाईजी ( चाचीजी) दोनों के हाथों में जादू था। क्या स्वादिष्ट भोजन पकाया करती थीं कि बस हम सब उँगलियाँ चाटते रहते थे।
घर के भीतर आठ बड़े कमरे थे और एक खुला हुआ आँगन। रसोई का कमरा भी बड़ा ही था और वहीं आसन बिछाकर हम सब भोजन किया करते थे। आँगन में बच्चों की तेल मालिश होती, मेरे चारों बड़े भाई मुद्गल उठा -उठाकर व्यायाम करते, उनकी भी मालिश होती और वे कुश्ती खेलने अखाड़ों पर जाते।
बेबे आँगन के एक कोने में कभी गेहूँ पीसती तो कभी चने की दाल। कभी मसालेदार बड़ियाँ बनाती तो कभी सब मिलकर पापड़। बेबे को दिन में कभी खाली बैठे हुए नहीं देखा। वह तो सिर्फ साँझ होने पर ही बाबूजी के साथ बैठकर फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाया करती और बतियाती।
बाबूजी सुबह- सुबह पाठ करते और बेबे नहा धोकर सब तरफ जल का छिड़काव करतीं। तुलसी के मंच पर सुबह शाम दीया जलाती। गायों को अपने हाथ से चारा खिलाती और अपनी दिनचर्या में जुट जातीं। बेबे हम हर पोता-पोती को अलग प्यार के नाम से पुकारती थीं। घर में किसी और को उस नाम से हमें पुकारने का अधिकार न था। मैं घर का सबसे छोटा और आखरी संतान था। वे मुझे दिलखुश पुकारा करती थीं। बेबे के जाने के बाद यह नाम सदा के लिए लुप्त हो गया। आज चर्चा करते हुए स्मरण हो आया।
ठंड के दिनों में गरम -गरम रोटियाँ, चूल्हे पर पकी अरहर की दाल, अरबी या जिमीकंद या पनीर मटर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ सब चटखारे लेकर खाते। सब कुछ घर के खेतों की उपज हुआ करती थी। ताजा भोजन खाकर हम सब स्वस्थ ही थे। हाँ कभी किसी कारण पेट ऐंठ जाए तो बेबे बड़े प्यार से हमारी नाभी में हींग लगा देती और थोड़ी ही देर में दर्द गायब! कभी दाँत में दर्द हो तो लौंग का तेल दो बूँद दाँतों में डाल देतीं। दर्द गायब! सर्दी हो जाए तो नाक में घी डालतीं। सर्दी गुल! खाँसी हो जाए तो हल्दी वाला दूध रात को पिलाती। शहद में कालीमिर्च का चूर्ण और अदरक का रस मिलाकर पिलाती। खाँसी छूमंतर ! पर हम इतने सारे भाई बहन कभी किसी वैद्य के पास नहीं गए।
घर के हर लड़के के लिए यह अनिवार्य था कि दस वर्ष उम्र हो जाए तो बाबा और चाचाजी की मदद करने खेतों पर अवश्य जाएँ। गायों, भैंसो को नहलाना है, नाँद में चारा और चौबच्छे में पीने के लिए पानी भरकर देना है। बाबूजी अब देखरेख या यूँ कहें कि सुपरवाइजर की भूमिका निभाते थे।
लड़कियों के लिए भी काम निश्चित थे पर लड़कों की तुलना में कम। बहनें भी दो ही तो थीं। बेबे कहती थीं- राज करण दे अपणे प्यो दे कार, ब्याह तो बाद खप्पेगी न अपणे -अपणे ससुराला विच। (राज करने दे अपने पिता के घर शादी के बाद खटेगी अपनी ससुराल में) और सच भी थी यह बात क्योंकि हम अपनी बेबे, बीजी और चाइजी को दिन रात खटते ही तो देखते थे।
दोनों बहनें ब्याहकर लंदन चली गईं। बाबूजी के दोस्त के पोते थे जो हमारे दोस्त हुआ करते थे। घर में आना जाना था। रिश्ता अच्छा था तो तय हो गई शादी। फिर बहनें सात समुंदर पार निकल गईं।
दो साल में एक बार बहनें घर आतीं तो ढेर सारी विदेशी वस्तुएँ संग लातीं। अब घर में धीरे – धीरे विदेशी हवा, संगीत, पहनावा ने अपनी जगह बना ली। घर में भाइयों की आँखों पर काला चश्मा आ गया, मिक्सर, ज्यूसर, ग्राइंडर, टोस्टर आ गए। जहाँ गेहूँ पीसकर रोटियाँ बनती थीं वहाँ डबलरोटी जैम भी खाए जाने लगे। हर भोजन से पूर्व सलाद की तश्तरियाँ सजने लगीं। घर में कूलर लग गए। रसोई से आसन उठा दिए गए और मेज़ कुर्सियाँ आ गईं। ठंडे पानी के मटके उठा दिए गए और घर में फ्रिज आ गया। जिस घर में दिन में तीन- चार बार ताज़ा भोजन पकाया जाता था अब पढ़ी -लिखी भाभियाँ बासी भोजन खाने -खिलाने की आदी हो गईं।
सोचता हूँ शायद हम ही कमज़ोर पड़ गए थे सफेद चमड़ियों के सामने जो वे खुलकर राज्य करते रहे, हमें खोखला करते रहे। वरना आज हमारे पंजाब के हर घर का एक व्यक्ति विदेश में न होता।
बेबे चली गईं, मैं बीस वर्ष का था उस समय। बाबूजी टूट से गए। साल दो साल भर में नब्बे की उम्र में बाबूजी चल बसे। वह जो विशाल छप्पर हम सबके सिर पर था वह हठात ही उठ गया। वह दो तेज़ आँखें जो हमारी हरकतों पर नज़र रखती थीं अब बंद थीं। वह अंकुश जो हमारे ऊपर सदैव लगा रहता था, सब उठ गया।
घर के बड़े भाई सब पढ़े लिखे थे। कोई लंदन तो कोई कैलीफोर्निया तो कोई कनाडा जाना चाहता था। अब तो सभी तीस -बत्तीस की उम्र पार कर चुके थे। शादीशुदा थे और बड़े शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियाँ भाभी के रूप में आई थीं तो संस्कारों की जड़ें भी हिलने लगीं थीं।
बीस वर्ष की उम्र तक यही नहीं पता था कि अपने सहोदर भाई -बहन कौन थे क्योंकि बीजी और चाईजी ने सबका एक समान रूप से लाड- दुलार किया। हम सबके लिए वे बीजी और चाईजी थीं। बाबा और चाचाजी ने सबको एक जैसा ही स्नेह दिया। हम सभी उन्हें बाबा और चाचाजी ही पुकारते थे। कभी कोई भेद नहीं था। हमने अपने भाइयों को कभी चचेरा न समझा था, सभी सगे थे। पर चचेरा, फ़र्स्ट कज़न जैसे शब्द अब परिवार में सुनाई देने लगे। कभी- कभी भाभियाँ कहतीं यह मेरा कज़न देवर है। शूल सा चुभता था वह शब्द कानों में पर हम चुप रहते थे। जिस रिश्ते के विषय से हम बीस वर्ष की उम्र तक अनजान थे उस रिश्ते की पहचान भाभियों को साल दो साल में ही हो गई। वाह री दुनिया!
पहले घर के हिस्से हुए, फिर खेत का बँटवारा। अपने -अपने हिस्से बेचकर चार भाई बाहर निकल गए।
बहनें तो पहले ही ब्याही गई थीं।
अगर कोई न बिखरा था तो वह थीं बीजी और चाइजी। उन्होंने बहुओं से साफ कह दिया था – सोलह साल दी उम्रा विच इस कार विच अस्सी दुआ जण आई सन, हूण मरण तक जुदा न होणा। बेशक अपनी रोटी अलग कर ले नुआँ। (सोलह साल की उम्र में हम दोनों इस घर में आई थीं अब मरने तक जुदा न होंगी हम। बेशक बहुएँ अपनी रोटी अलग पका लें)
हमारा मकान बहुत बड़ा और पक्का तो बाबूजी के रहते ही बन गया था। सब कहते थे खानदानी परिवार है। गाँव में सब हमारे परिवार का खूब मान करते थे। बिजली, घर के भीतर टूटी (नल), ट्रैक्टर आदि सबसे पहले हमारे घर में ही लाए गए थे। पर सत्तर -अस्सी साल पुराना कुनबा विदेश की हवा लगकर पूरी तरह से बिखर गया।
आज मैं अकेला इस विशाल मकान में कभी – कभी आया जाया करता हूँ। अपनी बीजी, चाइजी और चाचाजी से मिलने आता हूँ। वे यहाँ से अन्यत्र जाना नहीं चाहते थे। खेती करना मेरे बस की बात नहीं सो किराए पर चढ़ा दी। जो रोज़गार आता है तीन प्राणियों के लिए पर्याप्त है। मैं यहीं भटिंडा में सरकारी नौकरी करता हूँ। बाबा का कुछ साल पहले ही निधन हुआ। अविवाहित हूँ इसलिए स्वदेश में ही हूँ वरना शायद मैं भी निकल गया होता।
आज अकेले बैठे -बैठे कई पुरानी बातें याद आ रही हैं।
बाबूजी कहते थे, *दोस्तानुं कार विच न लाया करो पुत्तर, पैणा वड्डी हो रही सन। (अपने दोस्तों को लेकर घर में न आया करो बेटा, बहनें बड़ी हो रही हैं।)
हमारी बहनों ने हमारे दोस्तों से ही तो शादी की थी और घर पाश्चात्य रंग में रंग गया था। बाबूजी की दूरदृष्टि को प्रणाम करता हूँ।
बेबे कहती थीं – हॉली गाल्ल कर पुत्तर दीवारों दे भी कान होंदे। (धीरे बातें करो बेटे दीवारों के भी कान होते हैं)
बस यह दीवारों के जो कान होने की बात बुजुर्ग करते थे वह खाँटी बात थी। घर के दूसरे हिस्से में क्या हो रहा था इसकी खबर पड़ोसियों को भी थी। वरना इस विशाल कुनबे के सदस्य इस तरह बिखर कर बाहर न निकल जाते।