(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– मृत्यु – दंश …” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — मृत्यु – दंश —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
मृत्यु उस से टकरायी। मृत्यु न ऊष्मा थी और न वह शीतलता थी। न शाम थी, न वह सुबह थी। न रोग, न चिंता थी। बिना किसी रंग के, बिना किसी चांद के, बिना किसी सूरज के, बिना किसी धरती के, बिना किसी आकाश के, बिना किसी भूख – प्यास के। तब मृत्यु क्या थी, उसे पता चल ही न पाता। वह तो हवा के बिना एक तूफान था, जिससे टकराने पर उसने जाना था यही तो मृत्यु है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “मोमबत्तियां”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
-मां ये मोमबत्तियां जलाकर क्यों चल रहे हैं अंकल लोग?
-बेटा, ये कुछ अक्ल के अंधों को रोशनी दिखाने निकले हैं !
-मम्मी, मोमबत्तियां पिघलने लगेंगीं तो गर्म मोम उंगलियों पर गिरेगा, ये तो किसी का क्या बिगड़ा? अपना ही हाथ जलेगा !
-बात तो ठीक है तेरी। फिर तेरी नज़र में क्या करना चाहिए?
– मैं तो कहती हूँ कि ये मोमबत्तियां लेकर उस पापी को जलाओ, जिसने यह गंदा काम किया है !
☆ लघुकथा ☆ ~ आँखों की ज्योंति ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
☆
आंखों की दृष्टि जाने पर भी वह नित्य प्रति उठता, शौचादि से निवृत हो, योगेश्वर श्रीकृष्ण के पावन विग्रह के पास ध्यान लगाकर बैठ जाता। अपनी मनःस्थिति पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिये, उसका ईश्वर का आश्रय पाना आवश्यक है, ऐसा उसका मानना था।
कुशा से निर्मित आसन पर बैठकर वह, श्रीमद्भगवतगीता के ध्यान योग के विषय में अन्तर्मन से विमर्श करता। भगवान पतंजलि के अष्टांग योग के निर्देशों के अनुरूप योग क्रियाओं का संपादन करता। उसका यह कार्य नित्य प्रति ब्रह्म मुहूर्त में होता।
योग अभ्यास पूर्ण करने के बाद वह योगीराज कृष्ण की आंखों में अपनी आंखें डालकर कहता कि हे योगी श्रेष्ठ! मै आपको भी योग करते हुए प्रतिदिन देखता हूँ। उस नेत्रहीन व्यक्ति के अंत नेत्र प्रतिदिन उसे भगवान कृष्ण के दिव्य स्वरुप में दर्शन कराते।
प्रतिदिन की भांति वह एक दिन योग क्रिया के उपरांत योग मुद्रा से उठा, और अपने चीर बंद नेत्रों को श्री कृष्ण चंद्र की नेत्रों में डालकर प्रणाम की मुद्रा में खड़ा हुआ। अचानक एक दिव्य ज्योंति उसकी नेत्रों में समाई, और अब उसके सामने योगीराज कृष्ण के पावन विग्रह के साथ -साथ, उसके अतीत का सारा दृश्य आलोकित हो रहा था।
इसे उसने योगीराज श्रीकृष्ण की कृपा का परिणाम माना, लेकिन श्री कृष्णचंद की प्रेरणा, उससे यह कह रही थी कि हे भक्त! इन योग क्रियायों के शुभ प्रतिफल को तुम स्वयं अपनी नजरों से देख रहे हो।
बरसों पूर्व एक दुर्घटना में, उसके नेत्रों की ज्योति चली गई थी, मष्तिष्क से नेत्रों तक जाने वाली संवेदनशील तांत्रिकाएं क्षतिग्रस्त हो गई थी, लेकिन ये तांत्रिकायें आज पुनर्जीवित हो गई थीं। अब उसका मस्तक भगवान के श्रीचरणों में था, और योगेंद्र कृष्ण यह कहते हुए, उसके माथे पर अपना पावन हाथ फेर रहे थे कि हे भक्तराज! तुम स्वयं देखो योग की महिमा कितनी बड़ी है।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “पता नहीं… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆
लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
बेटे के घर न आने के कारण मदन लाल को नींद नहीं आ रही थी। बार बार दरवाजे की ओर देखते। कभी तो दरवाजा खोल कर गली में देखने लगते कि उनका बेटा आ रहा है या नहीं। अंदर से पत्नी की आवाज आती कि सो जाओ, बेटा आ जाएगा, देर रात जागने से शुगर बढ जाएगी और बीपी भी। जागते रहने और कमरे में टहलते रहने से क्या वह आ जाएगा।
मदन लाल का इकलौता बेटा था नितिन। अभी उसका विवाह भी नहीं हुआ था। ग्रेजुएशन करने के बाद भी नौकरी के लिए भटक रहा था। नौकरी की एक तो कहीं जगह नहीं निकलतीं और जब कभी निकलती तो वह फार्म भरता, परीक्षा देता पर सफल नहीं हो पाता। रोजगार दफ्तर में नाम रजिस्टर करया हुआ था पर कोई कॉल लैटर नहीं आता। मदनलाल ने अपने दोस्तों से भी बेटे को नौकरी दिलाने में मदद करने के लिए कहा पर कोई मदद नहीं कर सका। आखिर नितिन ने एक छोटी सी दुकान खोल ली। दुकान क्या, सड़क के किनारे एक टपरी सी। उसमें बीड़ी सिगरेट तंबाकू चॉकलेट और बच्चों के लिए कॉपी पेंसिल रबर शॉर्पनर जैसी रोजमर्रा की चीजें थीं। यह टपरी भी उसे बहुत मुश्किल से मिली थी।
दुकान पर बिक्री ज्यादा तंबाकू चूना की होती। कभी कभी सिगरेट और बीड़ी भी। दुकान का किराया निकल जाता था और अपने खर्चे भी पूरे हो जाते। घर में सब्जी वगैरह भी ले आता। बाकी पिता जी की पेंशन पर। नितिन रात नौ बजे के आसपास दुकान बंद करके घर आ जाता था परंतु पिछले पांच छह महीने से नितिन दुकान बंद करके घर देर से पहुंचने लगा। उसके कुछ नये दोस्त बन गए जो दुकान बंद करने के समय उसके पास आ जाते और पास में ही एक बीयर की दुकान में ले जाते जहां शराब भी मिल जाती और पीने के लिए गिलास भी। जो खर्च आता आपसे में बांट लेते। होटल या परमिट रूम में जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। शुरू शुरू में तो नितिन अचकचाया, संकोच करने लगा। दोस्तों के कारण कुछ बिक्री अधिक हो जाती और वह बार में खर्च हो जाती। घर एकाध घंटे देर से पहुंचता। मदनलाल पूछते कि आजकल देर क्यों हो रही है घर आने में तो टाल जाता। मदनलाल उसकी चाल और मुंह से आई दुर्गंध से समझ तो गए और उसे समझाया भी पर कोई असर नहीं हुआ।
आज देर ज्यादा हो गई इसलिए चिंता कर रहे हैं। नितिन की ऐसी हालत रही तो उसका विवाह कैसे होगा, जीवन में प्रगति कैसे करेगा? और क्या जिंदगी भर इस टपरी पर ही बैठा रहेगा? आगे क्या करेगा, कैसे करेगा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि दरवाजे पर आहट हुई और उन्होंने झट से दरवाजा खोला। दरवाजे पर नितिन था। वह अंदर आया तो लडखडा रहा था। मदनलाल ने पूछा कि नितिन तुम पीते क्यों हो? नितिन क्षण भर ठिठका और बोला, पता नहीं पिताजी और अंदर अपने कमरे में चला गया। मदनलाल कुर्सी पर बैठे रह गए। सोचने लगे, इसे पता ही नहीं माथे पर हाथ रख लिया।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “स्वर्ण पदक“ )
☆ कथा-कहानी # 121 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 2🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
रजतकांत छोटा भाई था, पढ़ाई से ज्यादा, खेल उसे आकर्षित किया करते थे और स्कूल के बाकी शिक्षकों की डांट फटकार उसे स्पोर्ट्स टीचर की ओर आकर्षित करती थी, जो उसकी खेल प्रतिभा के कारण उससे स्नेह करते थे. जब देश में क्रिकेट का जुनून सर चढ़कर बच्चों के मन को आकर्षित कर रहा था, दीवाना बना रहा था, उस वक्त रजतकांत हाकी में जन्मजात निपुणता लेकर अवतरित हुआ था. मेजर ध्यानचंद की उसने सिर्फ कहानियां सुनी थीं पर वे अक्सर उसके सपनों में आकर ड्रिबलिंग करते हुये गोलपोस्ट की तरफ धनुष से छूटे हुये तीर के समान भागते दिखाई देते थे और जब रजत को मुस्कुराते हुये देखकर गोल मारते थे तो गोलपोस्ट पर खटाक से टकराती हुई बॉल और गोल ….के शोरगुल की ध्वनि से रजतकांत की आंख खुल जाती थी. सपनों की शुरुआत रात में ही होती है नींद में, पर जागते हुये सपने देखने और उन्हें पूरा करने का ज़ुनून कब लग जाता है, पता ही नहीं चलता. स्वर्णकांत और रजतकांत की आयु में सिर्फ तीन साल का अंतर था पर पहले स्कूल और फिर कॉलेज में उम्र के अंतर के अनुपात से क्लास का अंतर बढ़ता गया. जब स्वर्णकांत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, रजतकांत कला संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे. डिग्रियां उनका लक्ष्य कभी थी ही नहीं पर हां कॉलेज की हाकी टीम के वो कप्तान थे, सपनों में ध्यानचंद से सीखी गई ड्रिबलिंग, चुस्ती, तेज दौड़ने का स्टेमिना, विरोधी खिलाड़ी को छकाते हुये बाल छीन कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ने की कला जो हॉकी के मैदान में दिखाई देती थी, वो दर्शकों को दीवाना बना देती थी और पूरा स्टेडियम रजत रजत के शोर से गूंजने लगता था जब उनके पास या इर्दगिर्द बॉल आती थी.पर दर्शकों को, सत्तर मिनट के इस खेल में, जो दिखाई नहीं देती थी, वह थी “उनका टीम को एक सूत्र में बांधकर लक्ष्य को हासिल करने की कला”. इस कारण ही उनकी टीम हर साल विश्वविद्यालय की हॉकी चैम्पियन कहलाती थी और स्वर्ण पदक पर सिर्फ रजत के कॉलेज का दावा, स्वीकार कर लिया गया था. इस कारण ही जब उनके परीक्षा पास नहीं करने के कारण उनके पिताजी नलिनीकांत नाराज़ होकर रौद्र रूप धारण करते थे, उनके कॉलेज के प्रिसिंपल और स्पोर्ट्स टीचर खुश हुआ करते थे और उन्हें कॉलेज में बने रहने का अभयदान दिया करते थे.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – छूमंतर।)
रेस्तरां का संगीत बदला तो चंदा का ध्यान गाने से हटकर काउंटर की ओर गया।
सामने एक पुरुष बिल अदा कर रहा था ।
रोमा तो मुझे पहचान कर मेरी तरफ आयी, “अरे दीदी आप! आप कैसी हैं ?”
“मैं ठीक हूं, बेटा कैसा है?”
“एकदम ठीक है दीदी, “उसके चेहरे का तनाव बेटे के जिक्र से गायब हो गया था वह बोली हमने उससे नैनीताल में बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है।”
“हां दीदी”, अचानक जैसे कुछ याद आ गया, “आप मेरे हस्बैंड से मिलना चाहती थी ना आइए “मैं आज मिलवाती हूं।”
कहकर वह पीछे पलटी तब तक उसका साथी बिल अदा कर उसके पास खड़ा हुआ।
मुस्कुरा कर बोली, “ये मेरे पति मिस्टर वर्मा है।”
मैं एकदम जड़ हो गई, सामने सोमेश जी खड़े थे ।
वह भी मुझे पहचान गए थे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया था। वह मुझे नमस्ते करते हुए तेजी से बाहर की ओर बढ़ गए। नीता मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़ कर बोली, “दीदी कभी आइए ना हमारे घर, आपके पास मेरा नंबर है,”
फिर बाय करती हुई वह कैफे से बाहर चली गयी।
मैं कांपते हुए पैरों से कुर्सी पर धम्म से बैठ गयी।
पानी पीकर अपने आप को संभाला तभी सोमेश मेरे पास आकर बैठ गया।
“आप!” मेरे मुंह से निकला। आज मुझे इस आदमी से बेहद नफरत हो रही थी।
“जी मैं वही सोमेश हूं।”
“आप ऐसा क्यों कर रहे हो मेरी सखी के साथ। आप शादीशुदा हैं और ऐसा नाजायज संबंध रखना आपको अच्छा लगता है क्या? यदि आप मेरी पड़ोस में नहीं रहते और नीता के पति ना होते तो मैं आप को जेल भिजवा देती।“
अब मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं पड़ोसी धर्म निभाऊँ या अपने सहेली की बहन का?
“तुम पहले से शादीशुदा हो अब यहां से चुपचाप चले जाओ ?”
“दो जिंदगी के साथ तुम खिलवाड़ कर रहे हो। कैसे आदमी हो मैं जानती हूं। क्या आप की दोनों पत्नी यह जानती हैं??
“मैं समझ ही नहीं पा रही हूं कि क्या करूं ? आप किस तरह के इंसान हैं? प्रश्नात्मक निगाहों से मैंने उसकी ओर देखा ।
न जाने क्या था उन निगाहों में कि वह थरथरा उठा और अपने आप में ही बड़बड़ाते हुए उठ कर भाग खड़ा हुआ।
मुझे तो मानो सांप सूंघ गया हो… और वह पल भर में छूमंतर हो गया।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– चिराग की रोशनी…” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा — चिराग की रोशनी —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
किस्से कहानियों में वर्णित भीमकाय अलादीन एक आदमी के सामने आ खड़ा हुआ। अब अलादीन हो तो उसके हाथ में चिराग कैसे न हो। आदमी अपने सामने खड़े विराट अलादीन से कुछ डरा हुआ तो था, लेकिन उसके चिराग से आदमी का मन तो खूब पुलकित हो रहा था। बात यह थी उसने अलादीन के बारे में जो पढ़ा था उसी का वह प्रत्यक्ष दर्शन कर रहा था। आदमी ने तो यहाँ तक अपने मन में गुनगुना लिया यह अलादीन है और इसके हाथ में जो चिराग है इससे तो वह देने का एक खास इतिहास रचता रहा है। तब तो अलादीन देने की भावना से ही मेरे सामने आया हो।
आदमी का गणित सही निकला। अलादीन ने उससे बड़े प्यार से कहा –– अब मैं हूँ तो तुमने समझ ही लिया हो मैं अलादीन हूँ और मेरे हाथ में देने का चिराग है। तो हे बालक, मेरे इस चिराग से कुछ मांग लो। मांगो तो तुम्हें निराशा नहीं होगी।
आदमी को चिराग से कुछ मांगने के लिए कहा गया और वह था कि अलादीन से उसका चिराग ही मांग लिया। अलादीन यह समझ न पाया, लेकिन आदमी ने समझ कर ही तो अलादीन से उसका चिराग मांगा। अलादीन चिराग दे कर मुँह लटकाये वहाँ से चला गया।
आदमी ने अनंत खुशी से विभोर हो कर चिराग को वंदन किया और उससे अपने लिए विशाल संसार मांगा। पल भर में आदमी को गाँव, शहर, हाट, अनुपम प्रकृति और जन समुदाय से युक्त एक संसार मिल गया। आदमी इतने बड़े संसार में इस हद तक खोया कि वह समझ न पाया वह है तो कहाँ है? उसे अपनी बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों की बड़ी चिन्ता होने लगी थी। सब कहाँ खो गए? आदमी अलादीन के चिराग से अर्जित अपने ही संसार में अपनों से दूर अपने को तन्हा पाने लगा था।
शुक्र था कि वह आदमी का सपना था। सपना टूटते ही आदमी हड़बड़ा कर पलंग से उतरा। अलादीन का चिराग अब उसके घर में नहीं था, लेकिन उसके अपने घर का चिराग तो था। वह अपने घर के चिराग की रोशनी में अपने परिवार को अपने सामने पा कर अपार आनन्द की अनुभूति कर रहा था।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “बलि…”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
पता नहीं क्यों सब गड्ढमड्ढ सा हुआ जा रहा है। वह एक राजनीतिक समारोह की कवरेज करने आया हुआ है। रोज़ का काम जो ठहरा पत्रकार का ! रोज़ कुआं खोदो, रोज़ पानी पियो ! रोज़ नयी खबर की तलाश।
फिर भी आज सब गड्ढमड्ढ क्यों हुआ जा रहा है? क्या पहली बार किसी को दलबदल करते देख रहा है? यह तो अब आम बात हो चुकी ! इसमें क्या और किस बात की हैरानी? फिर भी दिल है कि मानता नहीं। मंच पर जिस नेता को दलबदल करवा शामिल किया जा रहा है, उसके तिलक लगाया जा रहा है और मैं हूं कि बचपन में देखे एक दृश्य को याद कर रहा हूँ। किसी बहुत बड़े मंदिर में पुराने जमाने के चलन के अनुसार एक बकरे को बांधकर लाया गया है और उसके माथे पर तिलक लगाया जा रहा है और वह डर से थरथर कांप रहा है और यहां भी दलबदल करने वाले के चेहरे पर कोई खुशी दिखाई नहीं दे रही। बस, एक औपचारिकता पूरी की जा रही है और गले में पार्टी का पटका लटका दिया गया है। चारों ओर तालियों की गूंज है और मंदिर में बकरा बहुत डरा सहमा हुआ है। दोनों एक साथ क्यों याद आ रहे हैं? यह मुझे क्या हुआ है? किसने धकेला पार्टी बदलने के लिए? सवाल मन ही मन उठता रह जाता है लेकिन बकरे की बेबसी सब बयान कर रही है…
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। लोक साहित्य पर पुस्तक, चार उपन्यास एवं आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। हंस, वनमाली, वागर्थ, भाषा, कथादेश, नया ज्ञानोदय, पाखी आदि कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020 तथा राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान।
☆ कथा कहानी ☆ लाइलाज☆ डॉ. हंसा दीप ☆
घर का ताला बंद करके निकली तो आज पड़ोस वाले घर में कुछ नये चेहरे दिखे। पिछले कुछ वर्षों से मैं देख रही थी कि कई पड़ोसी तो दिन-रात की तरह तेजी से बदलते हैं, तो कई मौसम की तरह कुछ महीनों में। कब, कौन-सा नया चेहरा आ जाए और यह कहते हुए हाय-हलो कर दे कि “हम आपके पड़ोसी हैं” पता ही नहीं चलता। खैर, ये पड़ोसी कुछ अलग थे, अपनों जैसे लगे। चेहरे-मोहरे देखकर सहज ही उनके भारतीय होने का अनुमान हुआ। वैसे इस मामले में कई बार मैंने धोखा खाया है। जब कभी किसी को देखकर लगता कि ये भारत से होंगे तो वे कहीं और के निकलते। कभी जवाब मिलता श्री लंका से, कभी बांग्लादेश तो कभी पाकिस्तान से। ये भारतीय चेहरे भारत की राजधानी दिल्ली से आए थे और इस तरह गलती की संभावनाएँ इस बार गलत निकलीं।
पहली मुलाकात में परिचय इतना ही हुआ। उनके साथ एक प्यारी-सी बच्ची थी। तकरीबन तीन से चार साल की तो होगी। मैंने उससे पूछा – “हाय बेटा, आपका नाम क्या है?”
“मिनी।”
अपनी हिन्दी में किसी बच्चे से बात करना इन दिनों एक अजूबा-सा था। सुकून मिला अपनों की सूची बढ़ाने का। अब तो जब-तब, कभी लिफ्ट में, कभी कचरा फेंकने के कमरे में तो कभी लॉबी में टकराते हम एक दूसरे से। कभी अकेले मिनी की मम्मी, कभी पापा, तो कभी तीनों साथ में दिखने लगे। दंपत्ति युवा थे मगर दोनों का चेहरा बुझा-बुझा-सा रहता था। ढीला-ढाला हाय-हलो, और ढीली-ढाली चाल-ढाल। न तो दोनों के कपड़े सिलवटों से मुक्त होते, न ही बाल करीने से सँवारे हुए होते। लगता जैसे उनके चेहरे ही नहीं पूरे व्यक्तित्व पर हवाइयाँ उड़ रही हों। मुझे लगा मानो कुछ तो ऐसा है जो उन्हें परेशान कर रहा है। कोई ऐसी वजह है कि वे दोनों खुश नहीं हैं। फिर एक दिन मैंने पूछ ही लिया– “कोई परेशानी है, जॉब नहीं है क्या?”
यह एक स्वाभाविक-सा प्रश्न था क्योंकि आमतौर पर एक परेशानी सबको रहती है कि “काम नहीं मिल रहा।” नये देश में आ तो जाते हैं लोग लेकिन जब बहुत पापड़ बेलने के बाद भी काम नहीं मिलता तो मानसिक तनावों से गुजरना पड़ता है।
“जॉब तो ठीक है आंटी जी, पर मिनी की तबीयत ठीक नहीं।” मिनी की मम्मी ने जल्दी से जवाब दिया। इतनी जल्दी मानो वह इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रही हो कि आपबीती सुनाकर मन हल्का कर ले। मैंने बच्ची को देखा। वह कहीं से बीमार नहीं लग रही थी।
“पेट दर्द होता है। रात में बहुत रोती है। हम भारत से यहाँ इसीलिये आए हैं कि इसका इलाज हो सके।”
“जॉब-वॉब की कोई चिंता नहीं है आंटी जी, बस इसका इलाज ठीक से हो जाए।” मिनी के पापा की आवाज आश्वस्त कर रही थी कि पैसों की वाकई कोई परेशानी नहीं है उन्हें।
“ओहो, क्या यहाँ आने के बाद पेट दर्द होने लगा?”
“नहीं, नहीं, पेट दर्द की परेशानी तो तब से है जब मिनी तीन महीने की थी।”
“अच्छा! डॉक्टर क्या कहते हैं?”
“भारत के डॉक्टरों को कुछ समझ नहीं आया। तीन साल से इधर से उधर भटकाते रहे पर बच्ची को आराम नहीं मिला।”
“जब हमने देखा कि कैनेडा का मेडिकल सिस्टम अच्छा है तो बस यहाँ के लिये आवेदन कर दिया। यहाँ आने का हमारा मकसद इसका इलाज ही है आंटी जी, वरना हम तो बहुत खुश थे भारत में।” मिनी के पापा ने अपना स्वर मिलाया।
मुझे उत्सुकता थी यह जानने की कि कागजात तैयार होने में तो साल भर लग गया होगा। जितना समय इस प्रक्रिया में लगा उतने समय तक भारत में इलाज चल भी रहा था या नहीं। मेरी वह जिज्ञासा दबी की दबी रह गयी क्योंकि अभी-अभी परिचय हुआ है, ऐसे सवाल शिष्टाचार के खिलाफ हो सकते हैं। वैसे भी वह युवा जोड़ा था और मैं आंटियों की उस श्रेणी में थी जहाँ ऐसे सवालों का जी-भर कर मजाक उड़ाया जा सकता था।
मिनी की मम्मी ने मेरे क्षणिक मौन को तोड़ा- “हमारा अनुमान सही नहीं था। नाम का ही है यहाँ का सिस्टम आंटी, कोई दम नहीं है। यहाँ पर भी ठीक से इलाज नहीं हो रहा।” मिनी की मम्मी ने प्यार से मिनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“आप प्रायमरी फिजिशियन के पास गए थे या फिर अस्पताल?”
“सब जगह गए आंटी जी, हम तो पिछले चार महीनों से यहाँ हैं। बस आपके पड़ोस में आए एक सप्ताह हुआ है।”
“कहाँ-कहाँ नहीं गए आंटी जी, बल्कि यूँ कहिए कि कभी इसके पास तो कभी उसके पास, जाते ही रहते हैं। इनके इलाज से हम तो बिल्कुल संतुष्ट नहीं हैं।” एक वाक्य मिनी की मम्मी कहती, दूसरा उसके पापा उसी बात का समर्थन करते हुए कहते।
“मैं कुछ समझी नहीं!”
“देखिए आंटीजी, इसे यह तकलीफ बहुत दिनों से है, हमें पता है कि इसे किस चीज की जरूरत है। ये लोग तो कुछ और ही करते हैं।”
“मतलब?”
“हम कह रहे हैं कि हमें एक्सपर्ट के पास भेजो, वे कहते हैं, इसकी जरूरत नहीं। हम कहते हैं एक्सरे करवाओ पर वो अल्ट्रा साउंड करवा रहे हैं।”
“आप क्यों एक्सरे करवाना चाहते हैं?”
“एक्सरे में पता लगेगा न कि परेशानी क्या है, भारत में भी एक्सरे करके ही देख रहे थे सारे डॉक्टर।”
“परन्तु अभी तो आपने कहा कि भारत में कुछ नहीं हो पाया। आपको यहाँ के मेडिकल सिस्टम पर विश्वास है। अब जो वे कहते हैं, करना पड़ेगा न, यहाँ उन्हें अपनी तरह जाँच करनी होगी।”
“जाँच क्या आंटीजी, सारी रिपोर्ट तो हमारे पास पहले से है। हमने सारे पेपर्स दे दिए हैं इन्हें। हर बार ये लोग वही कर रहे हैं जो भारत में किया जा चुका है। बच्ची दर्द से परेशान है, देखा नहीं जाता हमसे। हम सो ही नहीं पा रहे हैं, रात-रात भर जागना पड़ता है।”
“रात भर सोऊँगा नहीं तो सुबह काम पर कैसे जा पाऊँगा, बताइए आप!”
“सच कहा, वह तो आपको देखकर ही लग रहा है।” मैंने उन दोनों पति-पत्नी के बुझे चेहरों को देखकर कहा।
“बस बार-बार बुला रहे हैं, कभी यहाँ तो कभी वहाँ। एक तो इतनी ठंड है यहाँ, माइनस दस और माइनस बीस में वैसे ही फ्रीज़ हो रहे हैं।”
“मैं कोई मदद कर सकूँ तो जरूर बताएँ।”
“आपकी नजर में कोई चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर हो तो बताएँ आंटी जी, जिससे हम थर्ड ओपिनियन ले सकें।”
“मेरा चचेरा भाई है, जाना-माना बच्चों का विशेषज्ञ डॉक्टर। हालांकि वह कैनेडा में ही है पर दूसरे शहर में रहता है, एडमंटन में। मैं आपको उसका नंबर दे देती हूँ, आप बात कर लें शाम के समय।”
उन्होंने देर नहीं की, घर जाकर नंबर घुमाया और धरा आंटी का संदर्भ देकर बात कर ली। शाम को भाई का फोन आया – “दीदी वो आपके पड़ोसियों का फोन आया था। मैं बगैर देखे तो कुछ कह नहीं सकता, हाँ आप उनसे यह जरूर कह दें कि वे डॉक्टर की सुनें।”
भाई के कहे अनुसार संदेश तो पहुँचाया मैंने, पर थोड़ा-सा तराश दिया और कहा- “आप थोड़ा धैर्य रखें, सब कुछ ठीक हो जाएगा।”
“क्या ठीक हो जाएगा, कुछ तो कर नहीं रहे हैं यहाँ के डॉक्टर। पता नहीं कुछ आता-जाता भी है या नहीं। बच्चा परेशान है, हम सो नहीं पा रहे हैं और ये कह रहे हैं धीरज रखो।”
मिनी की मम्मी की अधीरता को उसके पापा ने व्यक्त किया – “बताइए आंटी जी। इनको दिख रहा है कि हम किस कदर परेशान हैं, एक्शन लेना चाहिए न!”
“इतने दिन हो गये, डायग्नोस ही नहीं कर पा रहे हैं।”
“इनको हज़ार बार कहा कि एक्सरे लो और हमें स्पेशलिस्ट के पास भेजो, लेकिन नहीं, कोई सुनता ही नहीं है। भारत में कम से कम डॉक्टर सुनते तो थे।”
मैं क्या कहती! भारत से आयी थी तब मैं भी अपने परिवार वालों, जान-पहचान वालों को कई नुस्खे देती रहती थी और लेती रहती थी। भारत में नीम-हकीम-डॉक्टर की कोई कमी नहीं। डॉक्टरों को छोड़कर सारी जनता डॉक्टर है। मैं सोच में पड़ गयी थी। मिनी के मम्मी-पापा को आज तक कोई इलाज पसंद नहीं आया होगा और डॉक्टर बदलते रहे होंगे। कोई दवाई अपना असर करे उसके पहले दवाई बदल जाती होगी। अब तो देश भी बदल दिया है। मैं सोचने लगी उन सब डॉक्टरों के बारे में जो मरीजों और उनके परिवार वालों की डॉक्टरी को झेलते हुए इलाज करते हैं।
अगले दिन सुबह दरवाजे पर ठक-ठक हुई। मिनी के पापा थे, कहने लगे – “आंटी जी, आज मेरी मीटिंग है और मिनी को लेकर एक नये क्लिनिक जाना है। प्लीज़, अगर आप साथ चले जाएँ तो उसकी मम्मी को थोड़ी मदद मिल जाएगी।”
मेरा पड़ोसी धर्म जाग उठा – “जरूर, आप चिंता न करें, मैं चली जाऊँगी।”
समय पर हम क्लिनिक पहुँचे। नये डॉक्टर ने सारी बातें सुनीं। मिनी की मम्मी के बहते आँसू हज़ार सलाह दे रहे थे। सहमी-सी मिनी कातर नजरों से मम्मी को रोते हुए देख रही थी। मैंने उसे बहलाते-फुसलाते कहा- “घबराओ नहीं बेटा, आप ठीक हो जाएँगे तो मम्मी नहीं रोएँगी।”
डॉक्टर अधेड़ उम्र के थे। गोरी चमड़ी थी, आकर्षक व्यक्तित्व के धनी। ऐनक नाक पर नीचे तक थी जिसे वे चढ़ाते नहीं थे बल्कि देखने के लिये खुली आँखों से देखते ताकि ऐनक सिर्फ कागज पर रहे। वे कुछ लिख रहे थे। मिनी की मम्मी ने अपनी पहली प्रतिक्रिया दी – “आंटी यह तो बड़ा खड़ूस लग रहा है।”
वाकई दो आँखें चश्मे के बाहर और दो अंदर, इस तरह चार आँखों से काम करने वाले मुझे भी कभी नहीं भाते थे। मैंने कहा – “देखते हैं क्या करता है, जरा रुको।” अहिन्दी भाषी के सामने हम कई बार अपने मन की बात हिन्दी में कहने में हिचकते नहीं। शिष्टाचार के खिलाफ जाकर एक-दो अपशब्द कहकर संतुष्ट होने की आदत-सी हो गयी थी। हमें फुसफुसाते देखकर डॉक्टर ने चश्मे से बाहर की दो आँखों से हम तीनों को बारी-बारी से घूरा, बच्ची को पास बुलाकर चैक किया, आँखें, चेहरा, पेट सब कुछ।
यह मौन हमें कुछ भयावह संकेत देने को उतावला हो रहा था।
“पहली बात, इसे यह परेशानी बहुत दिनों से है।” डॉक्टर ने हमें देखते हुए सख़्त आवाज के साथ कहा।
“जी” मेरे हलक में कुछ फँसा-सा था।
“दूसरा, मैं कोई ऐसी गारंटी नहीं दे सकता कि यह एक-दो दिन में ठीक हो जाएगी।” हम अवाक डॉक्टर का मुँह देख रहे थे।
“तीसरा, इलाज शुरू करने से पहले मुझे बेबी मिनी के रुटीन का चार्ट चाहिए। यह क्या खाती है, क्या पीती है, कब सोती है, कितनी बार उठती है, पी-पू हर चीज का रिकार्ड।”
मिनी की मम्मी हैरान-सी मुझे देखने लगी थी। आँखें मुझसे कह रही थीं– “कहा था न खड़ूस है।” मैंने हामी भरकर डॉक्टर से अतिरिक्त विनम्रता से कहा – “यह सो नहीं पाती है डॉक्टर!”
“तकलीफ हो तो कोई नहीं सो सकता, आप सो सकती हैं क्या?” चश्मे के बाहर से वे घूरती आँखें जैसे मुझे काटने को दौड़ रही थीं। मैं एकटक डॉक्टर को देखते हुए उसके द्वारा कहे जा रहे शब्दों को ध्यान से सुनने व समझने की कोशिश कर रही थी।
“मैं पहले इसकी तह तक जाकर देखूँगा कि वजह क्या है, इसके लिये कई टेस्ट करवाने पड़ेंगे।”
उसकी आवाज का तीखापन मिनी की मम्मी की आँखों में झलक आया था, रुआँसी-सी बोली- “सर सारी टेस्ट रिपोर्ट तो पहले से ही हैं। अगर आप एक्सरे करवा लें तो आपको अभी पता लग जाएगा।” अपनी वही रट फिर से उसकी जबान पर थी।
“मिस ममा, डॉक्टर कौन है यहाँ?”
“जी आप” उसने खिसियाते स्वर में कहा।
“मैंने जो कहा अगर आप कर सकती हैं तो बताइए, मैं अपने पेशेंट का इलाज शुरू करूँ।”
मैंने हिन्दी में कहा – “देखो, परेशान तो हो रहे हो तुम, अब यह भी करके देख लो।”
डॉक्टर ने हम दोनों को बारी-बारी से देखकर कहा – “मैं बार-बार यह सुनना नहीं चाहता कि एक महीना हो गया, दो महीने हो गए। अगर आप मुझे समय दे सकती हैं तो अभी तय कर लीजिए।”
हम दोनों ने एक दूसरे को देखा, शायद यह कहते हुए- “कोशिश करने में हर्ज ही क्या है।” आँखें झपकाते हुए दोनों के सिर हिले, इलाज शुरू करने की हामी भरते हुए। मिनी के मम्मी-पापा खुश तो बिल्कुल नहीं थे पर शायद मेरा साथ पाकर वे हथियार डाल चुके थे। वैसे भी और कोई विकल्प तो था नहीं उनके पास। डॉक्टर का कहा मानने की कोशिश करते हुए मैंने मिनी का रोजमर्रा का चार्ट बनाने में भरपूर मदद की। हर सप्ताह मिनी और उसकी मम्मी हाजिरी दे आते और सप्ताह की रिपोर्ट भी। क्लिनिक ने एक लंबी सूची दे दी कि उसे क्या खिलाया जाए, क्या नहीं।
“कोई दवाई नहीं दे रहे”, “ये नहीं खाने दे रहे”, “वो नहीं पीने दे रहे”, “बच्ची दुबली हो रही है।” हर दिन हजार शिकायतों के साथ डॉ. खड़ूस के नाम की माला जपती मिनी की मम्मी इस बात को मानने से इंकार नहीं कर पा रही थी कि रोज एक-एक दिन के खत्म होते, धीमी गति से मिनी के सोने का समय बढ़ रहा है।
इस बात को छह महीने बीत गए।
अब वे दोनों, और मैं भी, हम तीनों बहुत खुश हैं। बगैर एक पैसा खर्च किए, बगैर दवाई के, सिर्फ रोजमर्रा के बदलाव से मिनी ठीक हो गयी। बताया गया कि उसे हर डेयरी प्रोडक्ट से एलर्जी है, इसलिये उन सब चीजों को खिलाने से बचना होगा। वह रात में जो गिलास भर कर दूध पीकर सोती थी उससे रात भर उसका पेट दर्द करता था। मिनी के मम्मी-पापा तीन साल के बाद अब आराम से सो रहे थे। उनके पूजा घर में डॉ. खड़ूस की तस्वीर लगी थी। हर सुबह नींद की खुमारी से अंगड़ाई लेकर वे दोनों डॉ. साहब की फोटो देखकर मुस्कुराते थे। मिनी का तो सफल इलाज किया ही था, साथ-साथ उन दोनों की भी लाइलाज बीमारी का इलाज कर दिया था। सचमुच की डॉक्टरी पढ़ी व समझी थी उन्होंने। अभी भी उन्हें डॉ. खड़ूस ही कहते लेकिन बहुत प्यार व आदर से।
☆ लघुकथा ☆ ~ कृपाला ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
☆
शिशु के क्षत -विक्षत शव को देखकर दुर्दांत का मन काँप उठा। उसके कम्पन मात्र से धरती के हर एक छोर में स्पंदन होने लगा।
शिशु के प्राणों को ले जाने के लिये आये, यमदूतों के भी पाँव धरती पर हो रहे इस कम्पन के कारण काँप रहे थे।
इधर कृपाला के बदन को नोचकर अपना हबस बनाने वाले दुर्दान्त के गुर्गो को यह पता था कि ऐसे अपराध की सजा उन्हें अपने प्राणों की कीमत चुका कर करनी पड़ सकती है। इसके वावजूद कामाग्नि में जल रहे पापीयों को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
दुर्दान्त अपने दौहीत्र के क्षत -विक्षत शव को जोड़कर उसमे प्राण संचार करना चाहता था। शिशु के प्राण अभी भी यमदूतों के हाथों तक नहीं पहुँचे थे।
मेरे शरीर के इन क्षत- विक्षत टुकड़ो को छूकर हमें अपवित्र मत करिये, नानाश्री ! मुझे ईश्वर के पास जाना है..!! शिशु की आत्मा बड़े ही कड़े शब्दों में दुर्दांत से चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी।
.. यदि आपको किसी की मदद करनी ही है, तो मेरी माँ की मदद करिये, जिसकी ममतामयी गोद से मुझे छीनकर, आपके ही लोगों ने ही मेरी हत्या कर दी और मेरी माँ को घसीटते हुए पीछे खंडहर की ओर ले गए।
जाइये, नानाश्री..जाइये !! जाइये अपनी बेटी यानि मेरी माँ के अस्मत् एवं प्राणों की रक्षा कर सके तो करिये।
दुर्दांत के लिये यह बहुत ही कठिन घड़ी थी। उसके पैर काँप रहे थे और वह आगे को ओर बढ़ नहीं पा रहा था। खँडहर तक पहुंचने के पहले उसकी स्वयं की पुत्री कृपाला की अस्मत् लूट चुकी थी। वह खँडहर में बेसुध नंग धडंग पड़ी थी तथा अपने जीवन की अंतिम श्वासें गिन रही थी। पिता दुर्दान्त को देखकर उसने अपनी आँखें मूँद लीं, मानों उसकी आँखें अपने पापी पिता को देखना ही नहीं चाह रही थी।
दुर्दांत ने कृपाला के आँखों को खोलकर, उसे होश में लाने का प्रयास किया, लेकिन कृपाला के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
बच्चे को गोद में लेकर झूला झूला रही एक युवती को देखकर दुर्दांत ने ही अपने लोगो को उस अंजान युवती के साथ मनोरंजन करने की अनुमति दी थी।
काफी दूरी होने के कारण वह यह नहीं जान पाया था कि आखिर वह युवती है कौन है ?
दुर्दांत के पश्चाताप की कटार अब उसके स्वयं के गर्दन पर थी। यमदूतों के हाथों में अब मृत्युलोक की तीन आत्मायें आ चुकी थीं। यमराज को अब इन तीनों आत्माओं के लिये स्वर्ग और नर्क तय करना था।
इधर यमदूतों के बीच, आपसी चर्चा इस बात कि थी कि उन कामांध दुष्टों का क्या होगा। अभी और कितनी कृपाला उनके हवस की शिकार होंगीं।