हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये मंज़ूर न होगा… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – ये मंज़ूर न होगा।)

✍ ये मंज़ूर न होगा… ☆ श्री हेमंत तारे  

बारहा समझाईश, ख़ता होती रहे, ये मंज़ूर न होगा

मेरा अपना मुझे अपना न कहे, ये  मंज़ूर न होगा

*

हक़ है तुझको भी के तू मुझसे सवालात करे

पर जीस्त मेरी और तू ज़ब्त करे,  ये मंज़ूर न होगा

वो रवादार है, बर्दाश्त कर रहा है सितम अब तक

पर ज़ुल्म की इंतेहा होती रहे, ये मंज़ूर न होगा

 *

मुमकिन है के पता ही न हो के मर्ज़ क्या है

पर जान कर भी तू ख़ामोश रहे, ये मंज़ूर न होगा

 *

तेरी हर क़ामयाबी पर ग़ुरूर है मुझको

पर शिकस्त हो और तू बिखर जाये, ये मंज़ूर न होगा

 *

शब को आने का वादा किया है तूने

तूने वादा बेवजह न निभाया तो, ये मंज़ूर न होगा

 *

मेरी कोशिश होगी ‘हेमंत’ के तल्ख़ियां न बढे

पर मैं ख़ामोश रहूं, और वो बदज़बानी करे, ये मंज़ूर न होगा

 (बारहा = बावजूद,  जीस्त = जिंदगी, ज़ब्त = नियंत्रित करना, रवादार = सहिष्णु)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 102 ☆ पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर “)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 102 ☆

✍ पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जरा सी चोट लगते प्रेम धागा टूट जाता है

वफ़ा में खोट आते दिल का शीशा टूट जाता है

*

पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर जो जोड़कर फिर से

किसी इंसा से जब इंसा का रिश्ता टूट जाता है

*

समझ के साथ बढ़ता आदमी का नजरिया सच है

लुटा समझे जो बच्चे का खिलौना टूट जाता है

*

गुनाहों की सज़ा मुजरिम को दो रोको ये बुलडोजर

भुगतता है घराना जब घरौदा टूट जाता है

*

बड़ी जब शख्सियत कोई जहां से कूच है करती

फ़लक से लोग कहते हैं सितारा टूट जाता है

*

दिलों में फासला होता दिखावा करना जो कर लो

किसी का जब किसी पर से भरोसा टूट जाता है

*

ये मेरी बद नसीबी का सितम भी देखिये साहिब

जो साक़ी भेजती मुझको वो प्याला टूट जाता है

*

बचाना जिसको वो चाहे उसे फिर कौन मारेगा

शिकारी जो भी फैलाये वो फंदा टूट जाता है

*

शरीफों के लिए घर में लगाया जाता है इनको

हो कोई चोर तो कोई भी ताला टूट जाता है

*

इबादत में अक़ीदत की कसर होगी तो ये समझो

करोगे लाख कोशिश फिर भी रोज़ा टूट जाता है

*

जो तैयारी बिना मैदान में आ पेंच लड़वाओ

उड़ाओगे पतंग ऊँची तो मांजा टूट जाता है

*

अरुण कमजोर कड़ियों पर नजर दुश्मन रखें बचन

रहेगी गर पकड़ कच्ची तो घेरा टूट जाता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 16 ☆ कविता – अस्तित्व बोध… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता – “अस्तित्व बोध“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 16 ☆

✍ अस्तित्व बोध… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

देह के अस्तित्व की रक्षा के लिए

हमने जंजीरें बनाई और तोड़ी

दीवारें बनाईं और तोड़ी

नानाविध व्यंजन बनाए

शाक सब्जी पेय चुने

पशु पक्षी खाद्य हेतु चुने

औषधि बनाई रस बनाए

पर देह रोग से  बचा न पाए

घर गांव शहर बसाए

तमाम देश बसाए।

 

काम की रक्षा के लिए

विवाह पद्धति बनाई

काम रक्षा न हो पाई

मदिरालय वैश्यालय बनाए

नये नये यौन अपराध बने

पर काम बकरार रहे।

क्रोध रक्षा के लिए

बहुत उपाय किए

मद रक्षा के लिए

लोभ रक्षा के लिए

क्या क्या न किये अनर्थ

अहंकार की रक्षार्थ

तीर तलवार बंदूक बनाई

युद्ध विभीषिका आई

कीट पतंग समान

तमाम देह हुई कुर्बान।

अपने हित में धर्म बनाए

अहित हेतु भी धर्म बनाए

तरह तरह के भवन बनाए

अपने अपने नाम बनाए

अपने गैरों के भेद बनाए

नियम उप नियम विनियम

विधान संविधान ग्रंथ प्रणयन

सब अस्तित्व रक्षा में लगे

पर अस्तित्व न मिला

क्रोध मिला काम मिला

अहंकार मिला

पर अस्तित्व न मिला।

 

देह है देह के अंग हैं

देह का अभिमान है

देह के नाम हैं

भाव हैं विचार हैं

विचार के आयाम हैं

हिंसा है अहिंसा है

अपना है पराया है

प्रेम है घृणा है

मन कहां आत्मा कहां

महसूस करती यहां

एक चेतना  सी है

सत्ता क्या उसी की है,?

उसके ही अस्तित्व की रक्षा

कैसे करे, कौन करे

कौनसी परीक्षा

अस्तित्व रक्षा

पर पहले हो

अस्तित्व बोध।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 96 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 2 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 96 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 2 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

घर की चमक-दमक बहुएँ हैं, 

उत्सव की रौनक बहुएँ हैं,

संस्कृति के सुरभित फूलों की 

देती हमें महक बहुएँ हैं।

0

सृष्टि के सद्ग्रन्थ की पावन रहल हैं बेटियाँ, 

पारिवारिक पुण्य तरु का श्रेष्ठ फल हैं बेटियाँ, 

प्रीति, ममता और करुणा की त्रिवेणी हैं यही 

दो कुलों के संगमों का तीर्थ जल हैं बेटियाँ।

0

माँ, बहिन, बेटी, बहू, पत्नी कहातीं नारियाँ 

फर्ज ये हर रूप में अपना निभाती नारियाँ, 

शक्ति हैं ये आस्था अपनत्व के अहसास की 

इस धरा पर स्वर्ग का वैभव रचाती नारियाँ।

0

बाहर नहीं बताना घर की बुराईयों को, 

लज्जित कभी न करना अपने ही भाईयों को, 

बेटी-बहू के सँग-सँग बहिनों को मान देना 

यह मातृशक्ति देती ताकत कलाईयों को।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जिजीविषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जिजीविषा ? ?

संकट, कठिनाई,

अनिष्ट, पीड़ादायी,

आपदा, अवसाद,

विपदा, विषाद,

अरिष्ट, यातना,

पीड़ा, यंत्रणा,

टूटन, संताप,

घुटन, प्रलाप,

इन सबमें सामान्य क्या है?

क्या है जो हरेक में समाता है,

उत्कंठा ने प्रश्न किया..,

मुझे इन सबमें चुनौती

और जूझकर परास्त

करने का अवसर दिखता है,

जिजीविषा ने उत्तर दिया..!

?

© संजय भारद्वाज  

दोपहर 3: 24 बजे, सोमवार 9 मार्च 2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 170 – सजल – साहित्यकार बहुत व्यस्त हैं…  ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण सजल “साहित्यकार बहुत व्यस्त हैं…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 170 – सजल – साहित्यकार बहुत व्यस्त हैं…  ☆

(समांत – अस्त, पदांत – हैं, मात्राभार – 16)

साहित्यकार बहुत व्यस्त हैं।

हर संचालक बड़े त्रस्त हैं।।

 *

छपवाने की होड़ मची कुछ।

प्रकाशक अब सभी मस्त हैं।।

 *

खुद का लिखा पीठ खुद ठोंका।

छंद-विज्ञानी सभी पस्त हैं।।

 *

श्रोताओं की कहाँ कमी अब।

उदरपूर्ति कर हुए लस्त हैं।।

 *

लंबी-चौड़ी कविता पढ़ लें।

चाँद-सितारे नहीं अस्त हैं।

परिहासों का दौर चल रहा।

पिछली आमद सभी ध्वस्त हैं।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

3/4/25

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 232 – बुन्देली कविता – बढ़त जात उजयारो… भाग-२ ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – बढ़त जात उजयारो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 232 – बढ़त जात उजयारो… भाग-२  ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

मुरझाओ मन हरया बैठी

लागत लगो बसकारो।

बढ़त जात उजयारो ।

 

जैसे घाम धान के जोरें

भिजा देत है छैंया

वैसइ कछू लगत है हमस्खों

देख देख के मुइयां ।

 

बरस बरस में फली मनौती

अँखियन में जल ढारो ।

बढ़त जात उजयारो।

 

जुड़ा गई हैं अँखियां मन की

चंदा सो उग आओ

जौ मुईयाँ चंदा से बड़ के

लख चंदा सकुच्याओ।

 

सरद जुन्हैया देखन काजै

घूँघट तनक उधारो ।

बढ़त जात उजयारो ।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 232 – “गौना नहीं करा पाये…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत गौना नहीं करा पाये...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 232 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “गौना नहीं करा पाये...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

जेबो को था ढका

अनगिनत इन सालो ने

बदल दिये थे मुँह तक

पीले सभी रुमालो ने

 

घर में फसल उमीदों की

ऐसी आ पसरी थी

बिकने से बच गई

भाग बश काली बकरी थी

 

राम भरोसे का ईश्वर

पर यही भरोसा था

यों तो कसर न छोड़ी

कम कुछ सभी दलालों ने

 

एक अँगोछे के दो

पंचे पुत्र पिता को थे

धन्यवाद देते दिलसे

वे परमपिता को थे

 

कसर रह गई बस पनहीं

न ले पाये अबतक

कठिन परीक्षायें दी

थी पावों के छालों ने

 

गौना नहीं करा पाये

हलकू की दुलहिन का

गड़ता रहा आँख में ज्यों

सूखा कोई तिनका

 

परमू कक्का इंतजार में

थे मेहमानी के

नशा चढ़ाया था समधिन

के गोरे गालों ने

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

31-03-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विचार ? ?

मेरे पास एक विचार है

जो मैं दे सकता हूँ

पर खरीददार नहीं मिलता,

यों भी विचार के

अनुयायी होते हैं

खरीददार नहीं,

विचार जब बिक जाता है

तो व्यापार हो जाता है

और व्यापार

प्रायः खरीद लेता है

राजनीति, कूटनीति

देह, मस्तिष्क और

विचार भी..,

विचार का व्यापार

घातक होता है मित्रो!

?

© संजय भारद्वाज  

(गुरुवार दि. 14 जुलाई 2017, प्रातः 9 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 214 ☆ # “एक नई दास्तां…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “एक नई दास्तां…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 214 ☆

☆ # “एक नई दास्तां…” # ☆

यह कैसी हवा आजकल बह रही है

एक नई दास्तान हम सब से कह रही है

 

मुरझाई हुई हर कली हर चमन है

कशमकश में उलझा हुआ पवन है

खामोश खड़ा चुप सा गगन है

आंसुओं में डूबे सबके नयन हैं

आहत भावनाएं सब कुछ सह रही है

एक नई दास्तान हम सब से कह रही है

 

जकड़ी हुई हैं उमंगों की बांहें

कांटो भरी हैं सपनों की राहें

कैसे कोई अब वादों को निभाए

तरसती खड़ी है अपनों की निगाहें

मन मंदिर की दीवारें हर पल ढह रही हैं

एक नई दास्तान हम सब से कह रही हैं

 

कुछ दिलों में यह कैसी लहक है

कुछ चेहरों पर यह कैसी चहक है

कुछ युवाओं में यह कैसी बहक है

कुछ बुझती आंखों में कैसी दहक है

छुपी हुई आग इनके अंदर रह रही है

एक नई दास्तान हम सब से कह रही है

 

काली घटाएं धरती पर छा रही है

तूफान आने की एक आहट आ रही है

बिजलियां चमककर संदेश ला रही है

दिशाएं खुशी में गीत गा रही है

समंदर की लहरें निर्भय बह रही है

एक नई दास्तान हम सब से कह रही है

 

यह कैसी हवा आजकल बह रही है

एक नई दास्तान हम सब से कह रही है

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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