हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 7 – खुशियों का सावन मनभावन  ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “खुशियों का सावन मनभावन ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 7  ☆

 

☆ खुशियों का सावन मनभावन

 

गुरू का संग हमें लगे क्षणै-क्षणै सुहावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

बचपन की बेला तोतले बोल मैं बोला,

पकड़ ऊँगली आसमान छूने जो चला,

कभी लोरी तो कभी कंधे देखा है मेला,

गुरू बन मात-पिता ने दिया नया उजाला,

हृदयतल में निवास करे जीवन हो पावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

हाथों में हाथ लेकर श्रीगणेशा जब लिखा,

कौन था वह हाथ आज तक न दिखा,

जो भी हो गुरूजन आप थे बचपन के सखा,

की होगी शरारत पर सिखाना न कभी रूका,

हाथ कभी न छूटे अपना रिश्ता बने सुहावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

ना समझ से समझदार जब हम बने,

गुरूजनों के आशीर्वचन हमने थे चुने,

बढ़ाकर विश्वास दिखाए खुली आँखों में सपने,

जो थे कभी बेगाने अब लगते हैं अपने,

गुरूजी आप बिन कल्पना से नीर बहाएँ नयन

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

अनुभव जैसा गुरू नहीं भाई बात समझ में आई,

गिरकर उठना उठकर चलना कसम आज है खाई,

हार-जीत तो बनी रहेगी अपनी क्षणिक परछाई,

न हो क्लेश न अहंकार सीख अमूल्य सिखाई,

सिखावन गुरू आपकी निज करता रहूँ वहन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 11 ☆ खासियत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “खासियत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 11 ☆

 

☆ खासियत

उसकी रंगत ऐसी हो

कि उसे देखते ही

आँखें बेजुबाँ हो जाएँ

और उसे निहारती ही रहें…

 

उसकी ताज़गी ऐसी हो

जैसे गुलनार

अभी-अभी खिला हो

और कायनात को महका रहा हो…

 

उसकी खुश्बू ऐसी हो

कि अपने आप लोग

उसके पीछे खिंचे चले आयें

जैसे कोई परवाना

शमा को देखकर आ जाता है…

 

उसका ज़ायका ऐसा हो

कि गले को यूँ सुकूं मिले

कि उसकी कोई ख्वाहिश

बाकी न रह जाए…

 

चाय,

महज़ चाय नहीं होती

वो तो साथियों को बाँधने वाली

एक अनमोल कड़ी है,

और वो

ख़ास तो होनी ही चाहिए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ महानवरात्रि विशेष – सुनो स्त्रियों ☆ – सुश्री निर्देश निधि

महानवरात्रि विशेष 

सुश्री निर्देश निधि

 

(सुश्री निर्देश निधि जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.

सुश्री निर्देश निधि जी की साहित्यिक यात्रा जानने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें  >>-सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत हैं महानवरात्रि पर उनकी विशेष कविता “सुनो स्त्रियों”.)

 

(इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆ Listen ladies ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ सुनो स्त्रियों ☆

 

आज महालया* का शुभ दिन है

और आज तुम्हारे नयन सँवारे जाने हैं

 

तुम्हें कह दिया गया था

सभ्यताओं के आरम्भिक दौर में ही

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तंत्र देवता

 

तुम मान ली गईं वह देवी

जिसके सकल अँगों को ढाल दिया गया था

उनके सुन्दरतम रूप में

 

बस छोड़ दिये गये थे नयन शेष

वे नयन जो देख सकते थे

तुम पर किसी की दृष्टि का स्याह – सफेद रंग

 

दिखा सकते थे तुम्हें मार्ग के गड्ढे

तुम्हारा भला बुरा भी,

और क्यों ना दिखाते भला

तुम्हारे गन्तव्य से भिड़ने के अभ्यस्त विशाल पत्थर भी

संवर कर कदाचित तुम्हें कर सकते थे निरापद

 

तुम्हारे बिन बने नयनों के लिए

सहस्त्रों बरस लम्बा पितृपक्ष

समझो आज खत्म हुआ

 

आज महालया का शुभ दिन है

और आज ही तुम्हारे नयन संवारे जाने हैं

ताकि तुम देख सको वह सब

जो तुम्हारे हित में था, सदियों से

 

जिन गड्ढों में तुम बार – बार गिरीं

बिना आंख की होकर

चल सको उनसे बच कर

 

और वे सदियों से अभ्यस्त

विशाल पत्थर भी कभी

भिड़ न सकें तुम्हारे गंतव्य की शहतीरों से

 

आज महालया का शुभ दिन है और

आज तुम्हारे नयन सँवारे जाने हैं

 

©  निर्देश निधि, बुलंदशहर

 

* महालया – दुर्गा पूजा में स्थापित करने के लिए कलाकार देवी की मूर्ति पूर्ण कर लेता है, बस आँख छोड़ देता है। पितृ पक्ष के बाद महालया में देवी की आंख बनाई जाती है, अब देवी पूर्ण होकर पंडालों या घरों में स्थापित हो जाती हैं.

 

संपर्क – निर्देश निधि, विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र ) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – गणित, कविता, आदमी! – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – गणित, कविता, आदमी! ☆

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा ऐसी रही कि गणित की रुक्षता से कविता की सरसता को राह मिली।)

 

बचपन में पढ़ा था

X + X , 2X होता है,

X × X,  X² होता है,

Y + Y,  2Y होता है

Y × Y,  Y² होता है..,

X और Y साथ आएँ तो

X  + Y होते हैं,

एक-दूसरे से

गुणा किये जाएँ तो

XY होते हैं..,

X और Y चर राशि हैं

कोई भी हो सकता है X

कोई भी हो सकता है Y,

सूत्र हरेक पर, सब पर

समान रूप से लागू होता है..,

फिर कैसे बदल गया सूत्र

कैसे बदल गया चर का मान..?

X पुरुष हो गया

Y स्त्री हो गई,

कायदे से X और Y का योग

X + Y होना चाहिए

पर होने लगा X – Y,

सूत्र में Y – X भी होता है

पर जीवन में कभी नहीं होता,

(X + Y)² = X² + 2XY + Y²

का सूत्र जहाँ ठीक चला है,

वहाँ भी X का मूल्य

Y की अपेक्षा अधिक रहा है,

गणित का हर सूत्र

अपरिवर्तनीय है

फिर किताब से

ज़िंदगी तक आते- आते

परिवर्तित कैसे हो जाता है.. ?

 

जीवन की इस असमानता को

किसी तरह सुलझाओ मित्रो,

इस प्रमेय को हल करने का

कोई सूत्र पता हो तो बताओ मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से ☆ सीख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  सीख .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से

 

☆  सीख  ☆

 

उसका लिखा जिया जाए

या खुद लिखा जाए

अपने कर्म समझे जाए

या हाथ दिखाया जाए

घूमते ग्रह, तारों, नक्षत्रों को मनाया जाए

या सीधा चला जाए

कैसे जिया जाए ?

 

क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है

कणों से कोना भर रही है

अंडे सिर माथे ले घूम रही है

बस्तियाँ नई गढ़ रही है

जबकि अगला पल उसे मालूम नही

जिसकी उसे परवाह नही

 

उससे दुगुने, तिगुने, कई गुनो की फ़ौज खड़ी है

संघर्षो की लंबी लड़ी है

देखो वह जीवट बड़ी है

बस बढ़ती चली है

उसने सिर उठा के कभी देखा नही

चाँद, तारों से पूछा नही

अंधियारे, उजियारे की फ़िक्र नही

थकान का भी जिक्र नही

कोई रविवार नहीं

बस जिंदा, जूनून और  जगना.

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अजातशत्रु – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – अजातशत्रु ☆

 

उगते सूरज को
अर्घ्य देता हूँ
पश्चिम रुष्ट हो जाता है,
डूबते सूरज को
वंदन करता हूँ
पूरब विरुद्ध हो जाता है,
मैं कितना भी चाहूँ
रखना समभाव,
कोई न कोई
पाल ही लेता है वैरभाव,
तब कालचक्र ने सिखाया
अनुभव ने समझाया-
मध्यम या उत्तम पुरुष
निर्धारित नहीं कर सकता,
प्रथम पुरुष की आँख में
बसती है अजातशत्रुता..!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 9 ☆ शोर ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘शोर ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 9 ☆

☆ शोर

घोर बवंडर की एक शाखा
इन्सा के मन में जुड़ जाने दो
जब जब हिले धरती का हिया
शोर शोर मच जाने दो…..

जो उथल पुथल मचती है भू में
वह मन मन में मच जाने दो
मन में भरा है विष का प्याला
टूट टूट उसे जाने दो
शोर शोर मच जाने दो…..

एक सैलाब वन से भी गुजरे
आँधी को मच जाने दो
ढह ढह जाए पेड़ द्वेष के
मधुर बीज बो जाने दो
शोर शोर मच जाने दो…..

© सौ. सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नवरात्रि का अशक्त जागरण ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आज प्रस्तुत है उनकी नवरात्रि पर नवसृजित विशेष कविता “नवरात्रि का अशक्त जागरण”

काव्य भूमिका: 

नवरात्रि का पावन पर्व आते ही सर्वत्र नारी को सम्मानित किया जाता है. उसका गुणगान किया जाता है परंतु क्या यह सभी स्त्रियों के साथ हो पाता है. एक नारी महलो वाली तो दूजी फुटपाथ आश्रयवाली, एक को खाने की कमी नहीं तो दूजी को मिलने की आशा नहीं. आज नारी सा सम्मान हो तो दूसरी औरतों के अपने घर ही नहीं, ऐसी परिस्थिति में ऐसे पर्वों पर नारियों को सम्मानित, गर्वित किया जाता है तो मेरी आँखों के सामने कुल नारी शक्तियों के अस्सी प्रतिशत वे चेहरे घूम जाते हैं. जो सबला तो है पर अबला बन पड़ी है. एक नवरात्रि पर्व में हमने देखा कि दुर्गा स्थापित मंच के एक ओर एक अबला हाथ पसारे भीख माँग रही है और दूसरी और नारी शक्ति का खोखला जागरण हो रहा है. कितनी विसंगती है. यह देख ऐसे मंच के कार्यक्रमों पर हँसी छूटती है और स्त्रीशक्तिपीठ की ओर पीठ करने का मन हो जाता है.  अब तो ‘नारी सर्वत्र पूजते’ इस उक्ति को इतना गढ़ा गया है कि नारी को भी इससे घृणा आने लगी है. इन विचारों को व्यक्त करती व्यंग्य रचना उतर आई, वह आपके सामने प्रस्तुत है.

 – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

 

☆ नवरात्रि का अशक्त जागरण

 

हे माँ आदिशक्ति !

तू अचानक सबको क्यों जगाती है?

नवरात्रि के जब दिन आए,

तब सबको तू याद क्यों आ जाती है?

 

अब नारी शक्ति का होगा बोलबाला,

हो बच्ची, बालिका, सबला या अबला,

नौ रोज नारियों के भाग जाग जाएँगे,

सभी को माता-बहन कहते जाएँगे,

पूजा की थाल भी सजेगी,

माता-बेटी-बहन की पूजा भी होगी,

ठाठ-बाट में समागम होंगे,

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ सब कहेंगे,

नारी को हार-फूल से पुचकारेंगे,

नवदुर्गा, नवशक्ति नव नामकरण करेंगे,

कहीं गरबा तो कहीं डांडियाँ बजेगा,

माँ शक्ति के नाम कोई भोज तजेगा,

रोशनाई होगी, होगी ध्वनि तरंगे,

तीन सौ छप्पन दिन का नारी प्रेम

पूरे नौ दिन में पूरा करेंगे,

आरती कोई अबला या सबला उतारेगी,

अपने-आपको धन्य-धन्य कहेगी,

हर नारी नौ दिन जगत जननी कहलाएगी,

बस! नौ दिन ही तू याद सबको आ जाएगी.

 

परंतु ?

हे माँ आदिशक्ति!

नौ दिन का तेरा आना,

फिर चले जाना,

दिल को ठेस पहुँचाता हैं,

नौ दिन के नौ रंग,

दसवे दिन बेरंग हो जाते हैं

और भूल जाते हैं सभी,

तेरे सामने ही किए सम्मान पर्व.

अगले दिन पूर्व नौ दिन की नारी,

हो जाती है विस्थापित कई चरणों में,

कभी दहलीज के अंदर स्थानबद्ध,

देहलीज पार करें तो जीवन स्तब्ध,

दिख जाती है कभी दर-सड़क किनारे,

पेट के सवाल लिए हाथ पसारे,

कभी बदहाल बेवा बन सताई,

तो शराबी पति से करती हाथा-पाई,

कही झोपड़ी में फटे चिथड़न में,

एक माँ बच्चे को सूखा दूध पिलाती,

बेसहारा औरत मदद की गुहार किए

चिलचिलाती धूप में चीखती-चिल्लाती,

कभी तो रोंगटे खड़े हो जाते है,

जब अखबारवाले तीन साल की मासूम को

बलात्कार पीड़ित लिख देते हैं,

आज दो टूक वहशी-असुर,

न जाने किस खोल में आएँगे,

कर्म के अंधे वे सब के सब

न उम्र का हिसाब लगाएँगे,

हे शक्तिदायिनी!

माफ करना मुझे,

मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक पता नहीं,

तेरे अस्तित्व पर आशंका आ जाती है,

सुर में छिपे महिषासुरों को हरने

क्यों कर न तू आ पाती है?

आज की नारी का अवतार तू,

हो सकती ही नहीं,

नहीं तो चंद पैसों के लिए,

दलालों के हाथ बिकती ही नहीं,

नारी शक्ति तेरी हार गई है,

सुनकर संसार की बदहालात को

कोख में ही खुद मिट रही हैं,

कुछ लोग तो जानकर बिटिया,

कोख में मार देते हैं,

शायद भविष्य के डर से,

जन्म से पहले ही स्वर्ग भेज देते हैं,

क्या उनका यह सोचना गलत है,

यदि हाँ!

तो तेरा होना भी गलत है.

लोगों की सोच बोलो कैसे बदलेगी?

फिर दिन बीत जाएँगे

नवरात्रि का अशक्त जागरण,

दुनिया पुन: पुन: खड़ा कर जाएगी.

हे ! माँ आदिशक्ति

तू फिर सबको क्यों जगाती है,

नवरात्रि नारी सम्मान का पर्व आया,

तू सबको याद क्यों दिलाती है

फिर वही रंग और बेरंग का,

डांडिया खेल शुरू कर जाती है,

नवरात्रि के दिन जब आए,

तब सबको क्यों याद आ जाती है?

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 16 ☆ कैसे  कहूँ ? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक  प्रेरणास्पद एवं भावप्रवण कविता  “कैसे  कहूँ ? ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 16  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ कैसे  कहूँ ?

 

भाव मन में

बहने लगे

अनायास

कैसे  कहूँ ?

 

कुछ न आता समझ

व्यक्त कैसे करूं

मन की बातें

कैसे  कहूँ ?

 

दिल पर

छाई है उदासी

बेवजह

कैसे  कहूँ ?

 

उनके शब्दों में

है जान

मिलती है प्रेरणा

कैसे  कहूँ ?

 

बिखरे शब्द

लगे  सिमटने

मिला आकर

कैसे  कहूँ ?

 

आयेगा वो पल

चमकेगी किस्मत

समझोगे तब

कैसे  कहूँ ?

 

है मंजिल सामने

वहीं है खास

हो जाती हूं नि:शब्द

कैसे  कहूँ ?

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆ लगी मोह से माया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “लगी मोह से माया ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆

☆  लगी मोह से माया  ☆

 

लगी मोह से माया  ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया।।

 

धन पाकर इतराये ।

खुद अपने गुण गाये ।।

समझ न सच को पाया ।

लगी मोह से माया। ।।

 

नजरों की मर्यादा ।

समझें इसे लबादा ।।

अपना कौन पराया ।

लगी मोह से माया ।।

 

ये सब रिश्ते नाते ।

हैं दुनियाई खाते ।।

जग में उलझी काया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठी चमक दिलाशा ।

बढ़ती मन की आशा ।।

मन जग में भरमाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठ फरेब निराले  ।

हैं सब के मन काले ।।

यह कलयुग की छाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

अब हैं नकली चेहरे ।

जहां नहीं सच ठहरे ।।

“संतोष”समझ पाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठहिं मन बहलाया ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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