हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 163 ☆ सॉनेट – सूर… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं – सॉनेट – सूर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 163 ☆

सॉनेट – सूर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सूर नैन बिन कान्हा देखे

जग नैनों से देख न पाए।

मन के दीदे लीला लेखें

जग जगता, सोता रह जाए।

 

सूर नूर देखे औचक ही

कान्हा खाकर भोग खिलाए।

लट्टू पर लट्टू भौंचक ही

जग ज्यादा फेंके कम खाए।

 

सूर दूर हो सके न प्रभु से

पल पल रखता हृदय बसाए।

काम पड़े पर याद करे जग

काम न तो आँखें दिखलाए।

 

सूर ईश को हृदय बसाए।

दुनिया रब को रही भुलाए।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१३-६-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #214 – 100 – “ये दिल भी ख़ाली कहाँ रह पाता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “ये दिल भी ख़ाली कहाँ रह पाता है…” ।)

? ग़ज़ल # 100 – “ये दिल भी ख़ाली कहाँ रह पाता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी जब  तलक आबाद रहती है, 

इंसान में एक आरज़ू शादाब रहती है।

ये दिल भी ख़ाली कहाँ रह पाता है,

तू नहीं होता तो तेरी याद रहती है।

कोई किसी दम तन्हा नहीं रह पाता, 

मुहब्बत मिलने की फ़रियाद रहती है।

खंडहर में कबूतर फड़फड़ाते हैं बेजा,

कोई आरज़ू  दिले बरबाद रहती है।

खूब इकट्ठा कर लिया संगों ख़िस्त,

ज़िंदगी  मौत की ज़ायदाद रहती है।

जीते रहोगे इस जहान में तब तक,

जब तलक हसरत आबाद रहती है।

दबी कुचली आह कसमसाती आतिश,

एक तमन्ना-ए-वस्ल नाशाद रहती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -6 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग – 6 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[6]

नेताओं की क्या बात करें

वे अन्य जगत के प्राणी हैं

हर नियम आम जनता के लिए

इन्हें करनी अपनी मनमानी है

ये मुफ्तखोरी से पलते हैं

अपनी बातों से मुकरते हैं

सेवा के नाम पर आए दिन

राजनीति की रोटियाँ सेकते हैं

इनकी सच्चाई सामने है

फिर भी जैसे आज़ाद ये हैं

ना जूं रेंगती कानों में

ना लाज बची है आँखों में

अब पानी सर से ऊपर है

तो इनको भी सुनना होगा

बहुत छल लिया गड़ेरिया बन

अब इन्हें भेड़ बनना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कृतघ्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कृतघ्न ? ?

अनगिनत जुगनुओं को

चाँद ने मुहैया कराया

चमकने का अवसर,

पिद्दी रोशनी के इतराये

लांघ गए लक्ष्मणरेखा,

अब तपती धूप है,

सम्राट सूर्य

चक्रवती राज्य कर रहे हैं

और जुगनुओं के जीवाश्म

भूसा भरकर

संग्रहालय में रख दिये गए हैं!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 90 ☆ मुक्तक ☆ ।। हर रात के बाद सूरज डूब कर फिर निकलता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 90 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। हर रात के बाद सूरज डूब कर फिर निकलता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हार में भी जीत में भी मजा  लीजिए।

नफरत मे खुद को मत सजा दिजिए।।

एक हार नहीं जीवन का  आदि अंत।

हर स्तिथि से खुद की रजा   कीजिए।।

[2]

क्षमताऔर ज्ञान का मत करना गरुर।

नहीं तो नशे सा चढ़ जाता   है सरूर।।

खूबी और खामी होती हर   इंसान मे।

अच्छी बातें तुम देखना पहले   जरूर।।

[3]

शुरू होकर कहानी खत्म हो  जाती है।

अच्छे क़िरदार की याद रंग  लाती   है।।

वो हारा नहीं जो गिर कर भी संभलता।

हर रात के हर सुबह भी रोशनी पाती है।।

[4]

मंहगी घड़ी मुश्किल घड़ी  दोनों निभाएं।

करके कुछ काम अलग ही आप दिखाएं।।

बड़े भाग्य से मिलता आदमी का लिबास।

सफलता को रोज नया सीखें नया बताएं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 154 ☆ “राम का नित ध्यान है” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “राम का नित ध्यान है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ “राम का नित ध्यान है” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पुण्य सलिला सरयू तट पर बसी शांति प्रदायानी

जन्म नगरी राम की है अयोध्या अति पावनी

स्वप्न पावन तीर्थ पुरियों में प्रथम जो मान्य है

सकल भारतवर्ष की है प्रिय सतत सन्मानिनी

सहन की जिसने उपेक्षा विधर्मी प्रतिकार की

सहेजे चुप रही मन में भावना उद्धार की

न्याय सदियों बाद पा रही नूतन सृजन

मन में आकाँक्षा सजाए राम के दरबार की

एक लंबी प्रतीक्षा के बाद आई है अब वह घड़ी

राम भक्तों के मन में भी मची है दर्शनों को हड़बड़ी

चाहते सब पूर्ण हो अब राम मंदिर का सृजन

जहां कर दर्शन प्रभु का पाए मन शांति बड़ी

राम हैं आदर्श जग के अपने सद व्यवहार से

सबके प्रिय औ’ पूज्य भी हैं सहज पावन प्यार से

विश्व को अनुराग उन पर उनके नित आदर्श पर

सभी मानव जाति को उनका सतत आधार है

सभी को सुख शांति दाई राम जी भगवान हैं

जिनको हर धर्मावलंबी व्यक्ति एक समान है

भेद छोटे बड़े का कोई दृष्टि में उनकी नहीं

हर एक की जीवन दशा पर सदा उनका ध्यान है

सदा सबका हो भला कोई ना कहीं विकार हो

दीन दुखियों का सदा कल्याण हो उद्धार हो

जगत में सुख शांति सद्भावना विश्वास से

प्राणियों के मनों में शुभकामना हो प्यार हो

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ब्लैक होल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ब्लैक होल ? ?

तुम फिर खींच दोगे

हमारे बीच के धागे को,

तुम फिर लौट जाओगे

पिछली या उससे पिछली

या उससे पिछली

या उससे भी पिछली,

अनगिनत पिछली बार की तरह..,

तुम्हारे लौट आने पर

मैं फिर मिलूँगा तुमसे

वैसे ही जैसे

कभी कुछ हुआ ही ना हो,

कभी सोचा,

हर बार का तुम्हारा पलायन

मेरे भीतर के ब्रह्मांड में

पैदा कर देता है एक शून्य,

अब,

ये सारे शून्य मिलाकर

भयावह ब्लैक होल बन चुका है,

जानते हो ना,

ब्लैक होल गड़प जाता है

ब्रह्मांड सारा का सारा,

सुनो,

हाँफ रहा हूँ, थक गया हूँ,

बार-बार गड़पे जाने से

कैसे उबरूँ मैं..?

तुम्हीं बताओ

और कितने ब्रह्मांड सिरजूँ मैं..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #207 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे … चाँद)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 207 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

☆ झील ☆

आँखें नीली झील हैं, दिखता इनमें प्यार।

नैन तरसते रात-दिन, अपना लो तुम यार।।

☆ माली ☆

उजड़ी बगिया देखकर, माली हुआ उदास।

मन भावों की खाद से, बगिया हुई उजास।।

☆ माया ☆

माया जिसके पास है, डाले प्यारा जाल।

फंसा जो इस चाल में, उधड़ी उसकी खाल।।

☆ संयम ☆

संयम जिसने रख लिया, पाई मंजिल पास।

डिगा नहीं कर्तव्य से, जीवन बना उजास।।

☆ प्रसाद ☆

प्रभु के दर्शन कर लिए, मिलता नयन प्रसाद।

मोहन मन को मोहते, मिले नेह का स्वाद।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #190 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहेआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 190 ☆

☆ संतोष के दोहे – धर्म ☆ श्री संतोष नेमा ☆

☆ तितली ☆

तितली की फितरत अलग, निखरें रंग हज़ार

जब भी थामा प्यार से, करे रंग बौछार

☆ जंगल ☆

अपराधी निशिदिन बढ़ें, उन पर नहीं लगाम

लगता जंगल राज सा, सरकारी अब काम

☆ बारूद ☆

हथियारों की होड़ में, बारूदों के ढेर

दुनिया में सब कह रहे, मैं दुनिया का शेर

☆ श्राप ☆

अजब परीक्षण चीन का, आज बना है श्राप

कोरोना सिर चढ़ गया, देकर सबको थाप

☆ धूप ☆

पूस माह में धूप की, सबको होती चाह

तन कांपे मन डोलता, मुँह से निकले आह

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – मुस्कानों का गीत – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ – मुस्कानों का गीत – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

मुस्कानों को जब बाँटोगे,तब जीने का मान है।

मानवता जीवन की शोभा,मिलता नित यशगान है।।

दीन-दुखी के अश्रु पौंछकर,

जो देता है सम्बल

पेट है भूखा,तो दे रोटी,

दे सर्दी में कम्बल

अंतर्मन में है करुणा तो,मानव गुण की खान है।

मानवता जीवन की शोभा,मिलता नित यशगान है।।

धन-दौलत मत करो इकट्ठा,

कुछ नहिं पाओगे

जब आएगा तुम्हें बुलावा,

तुम पछताओगे

हमको निज कर्त्तव्य निभाकर,पा लेनी पहचान है।

मानवता जीवन की शोभा,मिलता नित यशगान है।।

शानोशौकत नहीं काम की,

चमक-दमक में क्या रक्खा

वहीं जानता सेवा का फल,

जिसने है इसको चक्खा

देव नहीं,मानव कहलाऊँ,यही आज अरमान है।

मानवता जीवन की शोभा,मिलता नित यशगान है।।

ख़ुद तक रहता है जो सीमित,

वह बिरथा इंसान है

अवसादों को अपनाता जो,

वह पाता अवसान है

अंतर्मन में नेह पालना,करुणा-दया-विधान है।

मानवता जीवन की शोभा,मिलता नित यशगान है।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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