हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ का प्यार ☆डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

( सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा. सलमा जमाल जी ने  रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । s 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। अब तक १० पुस्तकें प्रकाशित।आपकी लेखनी को सादर नमन।) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

☆ गीत – माँ का प्यार ☆

माँ  तेरे अनमोल प्यार को,

आज समझ मैं पाई हूं ।

श्रद्धा सुमन कदमों पर तेरे,

अर्पित करने आई हूं ।।

 

घर के काम सभी तू करती,

चूड़ियां बजतीं थी खनखन,

भोर से पहले तू उठ जाती,

पायल बजती थी छन छन,

गोद में लेकर चक्की पीसती,

मैं प्रेम सुधा से नहाई हूं ।

माँ  तेरे —————–।।

 

बादल गरजते बिजली चमकती,

वह सीने से चिपकाना ,

आंखों में आंसुओं को छुपाना,

मेरे दर्द से कराहना ,

याद आता है रह-रहकर

बचपन,

कितना तुम्हें सताई हूं ।

माँ तेरे —————–।।

 

मैं हूँ बाबू जी की बेटी ,

तू भी किसी की बेटी है,

हम तो चहकते हैं चिड़ियों से ,

तू क्यों उदास बैठी है ,

तेरे कदमों में बसे स्वर्ग को,

आज देख मैं पाई हूं ।

माँ  तेरे —————-।।

 

गर्भवती हुई पहली बार मैं,

तब तेरा एहसास हुआ ,

नौ महीने कोख में संभाला,

दुखों का न आभास हुआ ,

सीने से सलमा को लगा लो ,

भले ही आज मैं पराई हूं ।

माँ  तेरे—————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – salmakhanjbp@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 27 ☆ गीत – वाम से इतर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  की एक गीत  वाम से इतर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 27 ☆ 

☆ गीत – वाम से इतर ☆ 

आओ! कुछ काम करें

वाम से इतर

 

लोक से जुड़े रहें

न मीत दूर हों

हाजमोला खा न भूख

लिखें सू़र हों

रेहड़ीवाले से करें

मोलभाव औ’

बारबालाओं पे लुटा

रुपै क्रूर क्यों?

मेहनत पैगाम करें

नाम से इतर

सार्थक भू धाम करें

वाम से इतर

 

खेतों में नहीं; जिम में

पसीना बहा रहे

पनहा न पिएँ कोक-

फैंटा; घर में ला रहे

चाट ठेले हँस रहे

रोती है अँगीठी

खेतों को राजमार्ग

निगलते ही जा रहे

जलजीरा पान करें

जाम से इतर

पनघटों का नाम करें

वाम से इतर

 

शहर में न लाज बिके

किसी गाँव की

क्रूज से रोटी न छिने

किसी नाव की

झोपड़ी उजाड़ दे न

सेठ की हवस

हो सके हत्या न नीम

तले छाँव की

सत्य का सम्मान करें

दाम से इतर

छोड़ खास, आम वरें

वाम से इतर

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१४-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 13☆ शारदी चाँदनी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  शारदी चाँदनी ।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 13 ☆

☆ शारदी चाँदनी ☆

शारदी चांदनी सा धुला मन,  जब पपीहा सा तुमको पुकारे

सावनी घन घटा से उमड़ते , स्वप्न से तुम यहां  चले आना

प्राण के तार खुद जनझना के , याद की वीथिका खोल देंगे

नैन मन की मिली योजना से,  चित्र सब कुछ स्वतः बोल देंगे

बात करते स्वतः बावरे से , प्रेम रंग में रंगे सांवरे से

वीणा से गीत गुनगुनाते , स्वप्न से तुम यहां  चले आना

शारदी चांदनी सा धुला मन,  जब पपीहा सा तुमको पुकारे

 

है कसम तुम्हें मेरे सपन की, राह में भटक तुम न जाना

दिन कटे काम की उलझनो में , रात गिनते गगन के सितारे

सांस के पालने में झुलाये , आस डोरी पे सपने तुम्हारे

मंद मादक मलय के पवन से , गंध भीनी बसाये वसन से

मोह से मोहते मन लुभाते , स्वप्न से तुम यहां चले आना

है कसम तुम्हें मेरे सपन की, राह में भटक तुम न जाना

शारदी चांदनी सा धुला मन,  जब पपीहा सा तुमको पुकारे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

vivek1959@yahoo.co.in

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शिल्पी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ शिल्पी ☆

पहले पूजता है,

फिर मांग रखता है,

कमाल का शिल्पी है आदमी,

ज़रूरत के मुताबिक

देवता गढ़ता है।

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 10.26 बजे 26.10.20200

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ दिगंबर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ दिगंबर  ☆

रुधिर से भी

तीव्र उठती है

अंतर्वेदना की धार,

इस धार में छुपा

दिगंबर संसार…!

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 10.26 बजे 26.10.20200

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 66 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 66 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

संकल्पों की साधना,

देती है विश्वास।

शांत भाव की कामना,

हृदय  जगाती आस।

 

रचते रचते रच गये,

मेरे मन के गीत

मन की सारी वेदना,

मन का है संगीत।

 

अंतर्मन की वेदना,

 समझ सका है कौन।

जीवन में जो खास है,

वही आज है मौन।

 

कोरोना के काल में,

घर-घर कारावास।

है स्वतंत्र तन-मन-लगन

देखो सबके पास ।।

 

स्वप्न हवाई हो रहे,

चितवन भरे उड़ान।

मन उमंग में बावरा,

हर पल से अनजान।।

 

गौतम जिनका नाम है,

कहलाए वे बुद्ध।

गूढ़ ज्ञान के पारखी,

करते नमन प्रबुद्ध।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एहसास… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(ई-अभिव्यक्ति में सुविख्यात साहित्यकार श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता एहसास…  ।)

☆ कविता  ☆ एहसास… ☆

अब….जब भी…..

तुम्हारे, वजूद के,

इर्द गिर्द….

अपने एहसासों का,

ताना बाना बुनता हूँ,  मैं,

तो लगता है ये,

तुम्हारा, होना, ही,

मायने हैं…मेरी.जिंदगी के..,

सोचा भी नहीँ….

कभी,देखा भी नहीँ,

अपने में ही मशरूफ़ रहा,

एक, सरसरी तौर पर,

जीता रहा,

तुम्हारे…..साथ…साथ,

यूँ, ही गुजरता, वक़्त, गुजर गया,

अब जब हैं, नहीँ…खत्म सी हैं,

मेरी जरूरतें,

जब, वक्त ही वक़्त है मेरे पास,

देखा है तुम्हें, करीब से, इतने दिनों बाद,

समय ने खेंच दी हैं, तुम्हारे चेहरे पर,

कुछ लकीरें, यहां वहां,

छीन नहीं पाया है, अब भी,

आँखों की वो जीवंत चमक,

अधर धरे अब भी मुस्कान,

अब, सोचता हूँ,

कैसे, निभा लिए तुमने,

दायित्व इतने सारे, कि,

घोंसले में, अब हम तुम ही हैं,

एक दूजे को देखते, मुस्काते, समझाते,

कि, एक दूजे बिन अब, नहीं गुजारा,

बना रहे यूँ ही साथ हमारा…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सुरभि तुम्हारी यादों की ☆ डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

( ई – अभिव्यक्ति में डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी का हार्दिक स्वागत है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी ने चिकित्सा सेवाओं के अतिरिक्त साहित्यिक सेवाओं में विशिष्ट योगदान दिया है। अब तक आपकी नौ काव्य  कृतियां  प्रकाशित हो चुकी हैं एवं तीन  प्रकाशनाधीन हैं। चिकित्सा एवं साहित्य के क्षेत्र में कई विशिष्ट पदों पर सुशोभित तथा  शताधिक पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी  से हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए उनके साहित्य की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर भावप्रवण गीत  सुरभि तुम्हारी यादों की । )

☆ सुरभि तुम्हारी यादों की ☆

इक किरण नेह की इस मन के, आँगन में सदा चमकती है।

इक सुरभि तुम्हारी यादों की, तन-मन में सदा महकती है।।

 

यह विरह मिला जबसे हमको, तब से हम और अधीर हुये।

हो गयीं कामनाएँ जोगन, सब सपने संत कबीर हुये।

यह पीर हमारी गूँगी सी, मन ही मन सदा सिसकती है।।

 

ये गीत प्रेम की पूजा के, अभिशापित रोली चन्दन हैं।

मन के मंदिर की चौखट पर, ये अनदेखे से वंदन हैं।

यह चोट नहीं दिखती लेकिन, रह-रह कर सदा कसकती है।।

 

इक प्रश्न सहज अपनेपन का, रिश्तों की क्या परिभाषा है।

जो नाम मिला तो सफल हुये, बाकी संत्रास निराशा है।

इक सौन चिरैया पीड़ा की, बेमौसम सदा चहकती है।।

 

मिल सकता नही कहीं पर भी, जो मन के भीतर नही मिला।

जीवन के पनघट पर मन को, चाहत का रीता कलश मिला।

इक प्यास आग सी बनकर के, अधरों पर सदा दहकती है।।

 

इक किरण नेह की इस मन के, आँगन में सदा चमकती है।

इक सुरभि तुम्हारी यादों की, तन-मन में सदा महकती है।।

 

© डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

“श्री रघु गंगा” सदन,  जिया माँ पुरम फेस 2,  मेडिकल कालेज रोड सागर (म. प्र.)470002

मोबाईल:  9425635686,  8319605362

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विसंगति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विसंगति

आनंद बाँटने का

मुझ पर

अभियोग चला,

पीड़ा बेचने वाले ने

मेरा मुकदमा सुना।

©  संजय भारद्वाज 

दोपहर 12:19 बजे, 26.10.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #78 ☆ कविता – अनुस्वार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक भावप्रवण कविता अनुस्वार  ।  इस विचारणीय  कविता  के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 78 ☆

☆ कविता अनुस्वार ☆

चंचला हो

नाक से उच्चारी जाती

मेरी नाक ही तो

हो तुम .

माथे पर सजी तुम्हारी

बिंदी बना देती है

तुम्हें धीर गंभीर .

पंचाक्षरो के

नियमों में बंधी

मेरी गंगा हो तुम

अनुस्वार सी .

लगाकर तुममें डुबकी

पवित्रता का बोध

होता है मुझे .

और

मैं उत्श्रंखल

मूँछ मरोड़ू

ताँक झाँक करता

नाक से कम

ज्यादा मुँह से

बकबक

बोला जाने वाला

ढ़ीठ अनुनासिक सा.

हंसिनी हो तुम

मैं हँसी में

उड़ा दिया गया

काँव काँव करता

कौए सा .

पर तुमने ही

माँ बनकर

मुझे दी है

पुरुषत्व की पूर्णता .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares