हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 73 ☆ सॉनेट अलविदा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट अलविदा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 73 ☆ 

☆ सॉनेट अलविदा ☆

(छंद दोहा)

*

अलविदा उसको जो जाना चाहता है, तुरत जाए।

काम दुनिया का किसी के बिन कभी रुकता नहीं है?

साथ देना चाहता जो वो कभी थकता नहीं है।।

रुके बेमन से नहीं, अहसान मत नाहक जताए।।

कौन किसका साथ देगा?, कौन कब मुँह मोड़ लेगा?

बिना जाने भी निरंतर कर्म करते जो न हारें।

काम कर निष्काम,खुद को लक्ष्य पर वे सदा वारें।।

काम अपना कर चुका, आगे नहीं वह काम देगा।।

व्यर्थ माया, मोह मत कर, राह अपनी तू चला चल।

कोशिशों के नयन में सपने सदृश गुप-चुप पला चल।

ऊगना यदि भोर में तो साँझ में हँसकर ढला चल।

आज से कर बात, था क्या कल?, रहेगा क्या कहो कल?

कर्म जैसा जो करेगा, मिले वैसा ही उसे फल।।

मुश्किलों की छातियों पर मूँग तू बिन रुक सतत दल।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

३०-१२-२०२१

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #103 ☆ चंद शेर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 103 ☆

☆ चंद शेर  ☆

सभी को देख कर ये फूल मुस्कुराया था,

जिगर के दर्द को उसने सदा छुपाया था।

 

मुझे देख कर  उससे चुप रहा न गया,

अश्क आंखों से ढ़ले‌ और कुछ कहा‌ न गया।

 

मौन हो अपना दर्दे‌दिल बयां‌ कर‌ दिया उसने।

बात इज्जत की थी,होंठों को सिल लिया उसने।

 

गागर के छलकने से‌ बाढ़ कभी आती नहीं,

 नदियां उफनती  है ‌तो बांध‌तोड़ देती है।

 

धैर्य और साहस से  पलट कर जिसने वार किया,

तूफ़ानों का रूख वहीं मोड़ देते हैं।

 

ओंठ मुस्कुरा देते हैं, आंखें जार जार रोती है,

दर्द कितना गहरा है, बता देते हैं ये आंसू।

 

तमन्ना दिल में पलती है, दुआयें हाथ देते हैं।

तेरे कर्मों की गिनती को, बता देते हैं ये आंसू।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (36-40) ॥ ☆

परमपिता के कण्ठ सये सम्यक् कृत संस्कार

निसृत  वह वाणी हुई सार्थक सकल प्रकार ॥ 36॥

 

दशन कांति मय उच्चरित प्रभु मुख से वह वाणी

हुई सुशोभित गंगासी – चरण निसृत उद्गामी ॥ 37॥

 

तब महिमा पुरूषार्थ हैं दबे असुर के हाथ

सतरज गुण ज्यों जीव के तम से आवृत साथ ॥ 38॥

 

ज्यों अनचाहे पाप से साधु हृदय सन्तप्त

राक्षस से त्रेलोक्य त्यों दिखता है संत्रस्त ॥ 39॥

 

बिना इंद्र प्रार्थित मुझे करना है समवाय

वायु स्वयं ही अग्नि की करता यथा सहाय ॥ 40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 61 ☆ स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  कविता “ स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा ”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # काव्य धारा 61 ☆ स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

एक वर्ष लो और बीत गया, नया वर्ष फिर से है आया

सुख सद्भाव शांति का मौसम, फिर भी अब तक लौट न पाया

 

नये वर्ष संग सपने जागे, गये संग सिमटी आशायें

दुनियां ने दिन कैसे काटे, कहो तुम्हें क्या क्या बतलायें

 

सदियां बीत गयी दुनियां की, नवीनता से प्रीति लगाये

हर नवनीता के स्वागत में,नयनों ने नित पलक बिछाये

 

सुख की धूप मिली बस दो क्षण, अक्सर घिरी दुखों की छाया

पर मानव मन निज स्वभाव वश, आशा में रहता भरमाया

 

आकर्षक पंछी से नभ से, गाते नये वर्ष हैं आते

देकर सीमित साथ समय भर, भरमा कर सबको उड़ जाते

 

अच्छी लगती है नवनीता, क्योकि चाहता मन परिवर्तन

परिवर्तन प्राकृतिक नियम में, भरा हुआ अनुपम आकर्षण

 

स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, तुमसे हैं सबको आशायें

नये दिनों नई आभा फैला, हरो विश्व की सब विपदायें

 

मानवता बीमार बहुत है, टूट रहे ममता के धागे

करो वही उपचार कि जिससे, स्वास्थ्य बढ़े शुभ करुणा जागे

 

सदा आपसी ममता से मन, रहे प्रेम भावित गरमाया

आतंकी अंधियार नष्ट हो, जग को इष्ट मिले मन भाया

 

मन हो आस्था की उर्जा, सज पाये संसार सुहाना

प्रेम विनय सद्भाव गान हो, भेदभाव हो राग पुराना

 

स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जस दृष्टि तस सृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – जस दृष्टि तस सृष्टि ??

हर दिन देखता है

नये सूरज का उत्थान,

हर दिन देखता है

पुराने सूरज का अवसान,

हर दिन देखता है

जीवन का संघर्ष नया,

हर दिन देखता है

जीवन का उत्कर्ष नया,

हर दिन देखता है

दिन में समाया हर्ष नया,

हर दिन देखता है

दिन में सिमटा वर्ष नया,

चाहो तो अपनी आँख में

उसकी दृष्टि उतार लो,

चाहो तो हर पल

नये वर्ष की सृष्टि उतार लो…!

 

शुभ 2022. स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.37 बजे, 31 दिसम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #124 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 10 – “पुराना-नया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “पुराना-नया”)

? ग़ज़ल # 10 – “पुराना-नया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सर्द धुंध छँटे ज़रा दया करें,

नये बरस में कुछ नया करें।

 

बीता पुराना नया सामने खड़ा,

हम इन्हें रदीफ़ क़ाफ़िया करें।

 

सर्द हवाएँ चलती रहीं सारी रात,

पहली तारीख़ आदाब ज़ाया करें।

 

गुनगुनी धूप चढ़ने का है इंतज़ार,

बदन सेंकने में वक्त ज़ाया करें।

 

मुसीबतों की धूप सिर चढ़ आई,

मेरे महबूब ज़ुल्फ़ों का साया करें।

 

शाम फिर लौट आई तीखी ठंड,

उठाएँ ज़ाम वक़्त न ज़ाया करें।

 

जो बीत गया समझो रीत गया,

नए साल में कुछ तो नया करें।

 

ज़िंदगी का तक़ाज़ा है “आतिश”

हम हरदम पुराने का नया करें।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (26-30) ॥ ☆

 

कुछ भी नहीं है प्राप्य जो तुम्हें नहीं है प्राप्त

लोक अनुग्रह ही तब जन्म कर्म का आप्त ॥ 31॥

 

कर महिमा गुणगान तब उपरत जो है वाक्

वह श्रम से है नहीं, तब गुणों की सीमा नाप ॥ 32॥

 

इस प्रकार उन देवों ने जिनके इंद्रिय ज्ञान

अधोमुखी हुये विष्णु को किया प्रसन्न समान ॥ 33॥

 

देवों ने पूंछी कुशल, हुये मुदित भगवान

राक्षस रूपी उदिध का, मन्थन गहन महान ॥ 34॥

 

तब समुद्र तट गुहासे ध्वनित उदधि उद्गार

सागर ध्वनि कर पराजित बोले श्री भगवान ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘जाता साल’ और ‘आता साल’ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – ‘जाता साल’ और ‘आता साल’ ??

[1]

जाता साल

करीब पचास साल पहले

तुम्हारा एक पूर्वज

मुझे यहाँ लाया था,

फिर-

बरस बीतते गए

कुछ बचपन के

कुछ अल्हड़पन के

कुछ गुमानी के

कुछ गुमनामी के,

कुछ में सुनी कहानियाँ

कुछ में सुनाई कहानियाँ

कुछ में लिखी डायरियाँ

कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,

कुछ सपनों वाले

कुछ अपनों वाले

कुछ हकीकत वाले

कुछ बेगानों वाले,

कुछ दुनियावी सवालों के

जवाब उतारते

कुछ तज़ुर्बे को

अल्फाज़ में ढालते,

साल-दर-साल

कभी हिम्मत, कभी हौसला

और हमेशा दिन खत्म होते गए

कैलेंडर के पन्ने उलटते और

फड़फड़ाते गए………

लो,

तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया

पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया

पर रुको, सुनो-

जब भी बीता

एक दिन, एक घंटा या एक पल

तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ

मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,

समझ चुका हूँ

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

[2]

आता साल

शायद कुछ साल

या कुछ महीने

या कुछ दिन

या….पता नहीं;

पर निश्चय ही एक दिन,

तुम्हारा कोई अनुज आएगा

यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,

तब तुम नहीं

मैं फड़फड़ाऊँगा

अपने जीर्ण-शीर्ण

अतीत पर इतराऊँगा

शायद नहीं जाना चाहूँ

पर रुक नहीं पाऊँगा,

जानता हूँ-

चला जाऊँगा तब भी

कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे

सजेंगे-रँगेंगे

रीतेंगे-बीतेंगे

पर-

सुना होगा तुमने कभी

इस साल 14, 24, 28,

30 या 60 साल पुराना

कैलेंडर लौट आया है

बस, कुछ इसी तरह

मैं भी लौट आऊँगा

नए रूप में,

नई जिजीविषा के साथ,

समझ चुका हूँ-

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

 

©  संजय भारद्वाज

4:31 दोपहर, 2 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #113 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 113 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

स्वेटर

माँ ने स्वेटर में बुना,  माँ का प्यारा प्यार।

याद दिलाता यह हमें ,माँ का प्यार दुलार।।

 

अँगीठी

देखो कितनी ठंड है, जली अँगीठी द्वार।

मिलजुल कर सब तापते,खुश होता परिवार।।

 

रजाई

ठंड -ठंड हम कर रहे,  नहीं रजाई  पास।

तापें जला अलाव तब, आ जाती है सांस।।

 

शाल

प्रियतम  जब भी ओढ़ता,मीत प्रीति का शाल।

सर्दी में गरमी मिले, जीवन भर हर हाल ।।

 

कंबल

कंबल वो तो बाँटते,करें पुण्य का काम।

मिल जाए वैकुंठ का,आशीषों से धाम।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 102 ☆ साल नया अब निखर रहा है….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  नव वर्ष पर एक भावप्रवण  पूर्णिका साल नया अब निखर रहा है…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 102 ☆

☆ साल नया अब निखर रहा है….  ☆

बूढ़ा  दिसंबर   गुजर  रहा है

साल नया अब निखर रहा है

 

जवां जनवरी जोश में आई

मौसम  देखो  संवर  रहा  है

 

उम्र की माला का इक मोती

नये  साल  में   झर   रहा   है

 

कुछ खोया कुछ पाया हमने

जीवन   ऐसे   उतर  रहा   है

 

गुनगुनाती  है   धूप   सुहानी

तन कंप कंप यूँ ठिठुर रहा है

 

बिरहन पिय की राह ताकती

एक  आस  नव सहर रहा  है

 

जोश  होश   “संतोष”   रहेगा

वर्ष  बाइसवां   बिखर  रहा है

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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