हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 104 ☆ पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 104 ☆

✍ पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

दामन के बशर दाग छुपाने में लगे हैं

ये किसमें कमी क्या है गिनाने में लगे हैं

 *

पल अगला मिले या न मिले कुछ नहीं मालूम

सामान कई वर्ष जुटाने में लगे हैं

 *

पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला

माशूक को ग़म अपना सुनाने में लगे हैं

 *

कुत्ते की न हो पाई कभी पूछ है सीधी

हैवान को इंसान बनाने में लगे हैं

 *

औरों से बड़ा होना है खुद को बड़ा करना

पर दूसरों को लोग झुकाने में लगे हैं

 *

जो सोचते कल बच्चों का धन जोड़ बना दें

कर वो न हुनरमंद मिटाने में लगे हैं

 *

मुझपे वो सितम करने से तौबा करें इक दिन

जो सब्र  की बुनियाद हिलाने में लगे है

 *

ले नाम अरुण जिसका धकडता है मेरा दिल

महबूब मेरे मुझको भुलाने में लगे हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 98 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 4 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 98 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 4 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कहीं से लौटकर हारे-थके जब अपने घर आये। 

तो देखा माँ के चेहरे पर समंदर की लहर आये। 

वहाँ आशीष की हरदम घटाएँ छायी रहती हैं, 

मुझे माता के चरणों में सभी तीरथ नजर आये।

0

ठान ले तू अगर उड़ानों की, 

रूह काँपेगी आसमानों की, 

जलजलों से नहीं डरा करते, 

नींव पक्की है जिन मकानों की।

0

माँ के बिना दुलार कहाँ है, 

पत्नी के बिन प्यार कहाँ है, 

बच्चों की किलकारी के बिन 

सपनों का संसार कहाँ है।

0

बेटी को उसका अधिकार समान मिले, 

पूरा करने उसको भी अरमान मिले, 

अगर सुशिक्षित और स्वावलंबी हो जाये 

तो पीहर में क्यों उसको अपमान मिले।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कहन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कहन ? ?

तुमसे कुछ कहना था..,

आदि-अंत,

सुख-दुख,

जीवन-मृत्यु,

दिवस-रात्रि,

पूर्व-पश्चिम,

आँसू-हँसी,

प्रशंसा-निंदा,

न्यून-अधिक,

सहज-असहज,

सरल-जटिल,

सत्य-असत्य,

अँधकार-प्रकाश,

और विपरीत ध्रुवों पर बसे

ऐसे असंख्य शब्द,

ये सब केवल विलोम नहीं हैं,

ये सब युगल भी हैं,

बस इतना ही कहना था…!

?

© संजय भारद्वाज  

7:11 बजे संध्या, 16 अप्रैल 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 172 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 172 – मनोज के दोहे ☆

ग्रीष्म प्रतिज्ञा भीष्म सी, तपा धरा का तेज।

मौसम के सँग में सजी, बाणों की यह सेज।।

 *

सूरज की अठखेलियाँ, हर लेतीं हैं प्राण।

तरुवर-पथ विचलित करे, दे पथिकों को त्राण।।

 *

बना जगत अंगार है, धधक रहे अब देश।

कांक्रीट जंगल उगे, बदल गए परिवेश।।

 *

तपती धरती अग्नि सी, बनता पानी भाप।

आसमान में घन घिरें, हरें धरा का ताप ।।

 *

भू-निदाघ से तृषित हो, भेज रही संदेश।

इन्द्र देव वर्षा करो, हर्षित हो परिवेश।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 233 – बुन्देली कविता – बगरी जोत जुनाई… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – बगरी जोत जुनाई।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 233 – बगरी जोत जुनाई… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

चाँदी बरस रही नगरी में

बगरी जोत जुनाई |

 

कोउ कहे सूरज को उन्ना

धरती आन परो |

कोउ कहे ऊसा के कर सें

कलसा ढरक परो ।

 

जित्ते मों हैं उत्ती बातें

किनपे कान धरो

ठंडी साँस भरत तो जियरा

दियना तेल परो ।

 

उजयारे की लालटेन लयें

कौन कहाँ सें आई ।

बगरी जोत जुनाई |

 

धन्न धन्न बा दहटी-आँगन

जी ने तुमें दओ ।

रूप समेंटौ नित नेंनन में

पारा बगर गओ ।

 

प्यासे लिंघा नदी आई हो

कब औ किते अओ

कौन डगरियन बेला फूलो

हमने जान लओ।

 

पढ़े लिखिन की अकल हिरानी

भूले अच्छर ढाई।

बगरी जोत जुनाई।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 233 – “देख देख कर बीत गये हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत देख देख कर बीत गये हैं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 233 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “देख देख कर बीत गये हैं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

पुत्र समझता था नालायक-

कामचोर, पत्नी ।

बेटी की क्या कहेंअलग

थी उसकी भी कथनी ॥

 

नाकारा था बड़े भाई की

नजरो में क्यों कर ।

नहीं समझ पाया था

अब तक रह जाता सुनकर ।

 

बहू समझती बूढा

सठिया कर भटक रहा –

मर जाता तो सुख हो जाता

सच कहती जिठनी ॥

 

महरी जब गोबर ढोती

देखे तिरछी आँखों ।

बहुत उड़ाने भरता बुढऊ

इन बूढी पाँखों ।

 

धीरे-धीरे आगे बढ़ता

चौकन्ना होकर

इसकी लाठी की ठकठक

अब भी लगती बजनी ।

 

दिन भर घर के भीतर

झाँकेगा यह रह रह कर ।

देख देख कर बीत गये हैं

कितने सम्वतसर ।

 

फिर भी ना जुकाम

ना खाँसी इसे हुआ करती –

इस छरहरे बदन दे बाँटे

किस की भी चटनी ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-12-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मघात ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आत्मघात ? ?

उसके भीतर

ठंडे पानी का

एक सोता है,

दुनिया जानती है..,

 

उसके भीतर

खौलते पानी का

एक सोता भी है,

वह जानता है..,

 

मुखौटे ओढ़ने की

कारीगरी

खूब भाती है उसे,

गर्म भाप को कोहरे में

ढालने की कला

बखूबी आती है उसे..,

 

धूप-छाँव अपना

स्थान बदलने को हैं,

जीवन का मौसम

अब ढलने को है..,

 

जैसा है यदि

वैसा रहा होता,

शीतोष्ण का अनुपम

उदाहरण हुआ होता..,

 

अपनी संभावनाएँ

आप ही निगल गया,

गंगोत्री-यमुनोत्री

होते हुए भी

ठूँठ पहाड़ ही रह गया…!

?

© संजय भारद्वाज  

(सांझ 4:52 बजे, 13.5.2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 215 ☆ # “सूर्य बनकर तुम आए थे…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सूर्य बनकर तुम आए थे...”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 215 ☆

☆ # “सूर्य बनकर तुम आए थे…” # ☆

(डॉ बाबासाहेब अंबेडकर जी के जन्मदिवस पर विशेष)

अंधकार में दीपक बनकर

तुम हमारे आए थे

नई सुबह का नया संदेशा

जीवन में तुम लाए थे

 

हमने सूरज देखा कब था

डर का साया उतार फेका कब था

हम उलझ गए थे मंत्र तंत्र में

तिलिस्म के  अभेद्य तंत्र में

स्याह रात हंस रही थी

नागिन बनकर डस रही थी

अपना जाल वो कस रही थी

हमारी पीढियां उन में फंस रही थी

तोड़ सके इस जाल को

ऐसी कोई बांह नहीं थी

फंदे पड़े थे गले में

जीने की कोई राह नहीं थी

तब घने मेघों को चीरकर 

किरण बनकर तुम आए थे

नई सुबह का नया संदेशा

जीवन में तुम लाए थे

 

जब किरणों ने छुआ अंधेरा

तम का कांपने लगा था डेरा

जब रश्मि ने मारा फेरा

तम को व्याकुलता ने घेरा

फिर नए-नए प्रपंच रचे

ताकि किरणों का ना अस्तित्व बचें

सूर्य को भी बंदी बनाया

किरणों को  बदली में छुपाया

दिन को रात बनानी चाही

इस पाखंड ने फिर लाई तबाही

तब किरणों से विद्रोह कराकर

सूर्य बनकर तुम आए थे

नई सुबह का नया संदेशा

जीवन में तुम लाए थे

 

नई किरणों ने जब से छुआ है

तन मे  नई ऊर्जा का संचार हुआ है

बुझी बुझी पलकों ने भी

अपनी पलकें खोली है

जागी हुई आंखों ने

आजादी की बात बोली है

सबकी आंखों में है सपने

बेहतर हो आगे दिन अपने

पंचशील की शिक्षा ली है

धम्म की हमने दीक्षा ली है

शिक्षा से हम आगे बढ़ेंगे

धम्म से नया इतिहास गढ़ेंगे

तब कष्ट झेलकर

हमारे अधरों पर

तुम मुस्कान सजाए थे

नई सुबह का नया संदेशा

जीवन में तुम लाए थे

 

अंधकार में दीपक बनकर

तुम हमारे आए थे

नई सुबह का नया संदेशा

जीवन में तुम लाए थे  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रकृति… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता  ‘प्रकृति।)

☆ कविता –  प्रकृति☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

अलसाई सी रुत है, मन बावरा बेचैन,

चेहरा तो संयत है, चंचल चंचल नैन.

*

खोज रहा मन, यहां वहां, यत्र तत्र सर्वत्र,

चैन मिले न बावरा, कर गया मन बेचैन,

*

एक अकेला चांद है, आसमान पर मौन,

तारे सारे सिमट गए, पूछ रहे हैं कौन,

*

धुंआ धुआं सब हो रहा, मौन गली सुनसान,

दीपक राह दिखात है, स्वर झींगुर की तान,

*

सुरमई भोर में उदित हुआ, रक्तिम दिनकर,

पेड़ों पर कलरव करते पंछी, पूछ रहे कौन.

*

किसने क्या कह दिया, सागर की  लहरों से,

पटकती हैं, कदमों पर सिर को, तट मौन.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भूपाळी… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भूपाळी… सौ. वृंदा गंभीर

उठा उठा देवा आता पहाट झाली

देवा पहाट झाली

जमले पहा तुमचे भक्त मंडळी…

 

पुरी झाली निद्रा आता देवा उठावे

आता देवा उठावे

भक्तांना तुमचे श्रीमुख दाखवावे…

 

बहू मातला कली देवा रक्षण करावे

देवा रक्षण करावे

भक्तांसाठी देवा सज्ज व्हावे…

 

आल्या दिंड्या पताका घेऊन

वैष्णव नचती देवा वैष्णव नाचती

तुझ्या चरणी देवा मस्तक ठेवती…

 

चंद्रभागे स्नान करुनी भजनासी यावे

देवा भजनासी यावे

करुणा कृपेने आम्हासी पहावे…

 

वृंदा गाई भूपाळी एकादशी दिनी देवा एकादशी दिनी

विनंती करिते उठावे निद्रेतुनी… 

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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