हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ ☆

श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’

(श्री राजेंद्र शर्मा ‘राही’ (अभियंता), लेखक ,कवि एवं ज्योतिष विद का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। )

☆ आलेख ✍ वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ 

गणित की मुख्यतः तीन शाखाएं हैं – अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित। 

अंकगणित को पाटी गणित भी कहा जाता है जब लकड़ी की पट्टी पर लिखकर हिसाब लगाया जाता था तब इसे पाटी गणित के नाम से जाना जाता था उस समय पाटी के उपर बालू या मिट्टी डालकर गड़ना करने की प्रथा भी थी जिसे धूलि कर्म कहा जाता था अंकों के उपयोग के कारण पाटी गणित को व्यक्त एवम अंक के साथ अक्षर के कारण बीजगणित को अव्यक्त गणित कहा जाता है। 

वेद सबसे मुख्य प्राचीन एवम प्रमाणिक ग्रंथ है जिनकी कुल संख्या चार हैं, जिन्हें हम ऋग्वेद,यजुर्वेद,अथर्ववेद, सामवेद के नाम से जानते हैं वेदों की रचना ईसा से काफी वर्ष पहले हुई थी जिसमें हमें अंकगणित के प्रारम्भिक रूप के दर्शन होते हैं ।

इसी प्रकार संस्कृत साहित्य मुख्यतः दो भागों में विभक्त है वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य। वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद ब्राह्मण ग्रंथ,आरण्यक,उपनिषद, वेदांग आदि ग्रंथ आते हैं जबकि लौकिक साहित्य के अंतर्गत रामायण, महाभारत,काव्य,नाटक, पुराणादि ग्रंथ आते हैं। अंकगणित के बीज वैदिक साहित्य के साथ साथ लौकिक साहित्य में भी प्राप्त होते हैं। 

आज हम आधुनिक गणित का जो परिष्कृत एवम उन्नत रूप देख रहे हैं इसके मूल में हमारे वेद ही हैं वेदों के अंतर्गत अंकगणित का अनेक जगह उल्लेख मिलता है ऋग्वेद के 10 वे मंडल के अक्ष सूक्त (10.34.02) मंत्र में द्युत विद्या अंतर्गत अक्षों के ऊपर एक दो तीन चार इत्यादि अंकों को लिपिबद्ध करने का वर्णन मिलता है इसी प्रकार इस मंडल के एक अन्य दूसरे मंत्र (10.34.08) में 53 संख्या का उल्लेख भी मिलता है इसी वेद अंतर्गत ऋषि एक अन्य मंत्र में कहते हैं कि एक स्थान पर मुझे ऐसी हजारों गायें देखने को मिली जिनके कान पर 8 का अंक लिखा हुआ था। 

इंद्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजम गोमन्त मशविनम सहस्त्रम मे ददतो अष्टकर्णय: श्रवो देवेश्वक्रतः

ऋग्वेद १०.६२.०७

अन्कानाम वामतो गति: प्राचीन काल से ही संख्या पद्धति के लेखन एवं उच्चारण में शब्दांक और संख्यांक में विपरीत गति है

ऋग्वेद के मंत्र (3.9.9) एवम (10.52.6)मंत्रों में अंकों को शब्दों में लिखने का वर्णन प्राप्त होता है

त्रिणी शतानी त्रिसहस्त्राणी त्रिंशत च नव च

इसी तरह ऋग्वेद के (1.20.7), (10.27.15) (1.32.14) (10.72.8) मंत्रों में अन्य संख्याओं के लेखन का वर्णन भी मिलता है ऋग्वेद के ही एक अन्य मंत्र में अलंकारिक रूप से तीन सौ साठ दिनों को एक चक्र में लगी हुई तीन सौ साठ कीलें बताया गया है। 

वहीं यजुर्वेद में गणितीय तथ्य कर्मकांडों के साथ मिलते हैं मंत्र संख्या (17.2) में 10 की घात शून्य एवम दस की घात 12 तक की संख्याओं का वर्णन प्राप्त होता है जिनको निम्न तरीके से उल्लेखित किया गया है ।

एक, दश,शत(सौ),सहस्त्र (एक हजार), अयुत (दस हजार), नियुत (एक लाख),प्रयुत,(दस लाख),अरबुद,(एक करोड़), न्युरबुद (दसकरोड़), समुद्र(एक अरब),मध्य(दस अरब),अन्त(एक खरब),परार्ध(दस खरब) इस प्रकार परार्ध सबसे बड़ी संख्या के रूप में देखी गई है ।

यजुर्वेदीय याग पद्धति में संख्याओं की लेखन पद्धति को मंत्र संख्या (18.24,18.25) में स्पष्ट किया गया है ।

एका चमे त्रिस्तस्च चमे पञ्च चमे, सप्तस्चमे नवस्चमे एक्दश्चमे, द्वादश्चमे…. यज्ञेन कल्पन्ताम

इसका अर्थ है कि – 1, 3, 5, 7, 9, 11, 13, 15, 17, 19, 21, 23, 25, 27, 29, 31, 33 आदि प्रभृति अयुग्म साम मुझे यज्ञ में सिद्ध होवें।इसी प्रकार इन्हीं मंत्रों में 4, 8, 12, 16, 20, 24, 28, 32, 36, 40, 44, 48 प्रभृति स्वर्ग प्रामक युग्म स्तोम मुझे यज्ञ के द्वारा सिद्ध होवें।  इस प्रकार

सख्याओं का वर्णन मिलता है जिन्हे रुद्राभिषेक के सप्तम अध्याय में भी उल्लेखित किया गया है। 

इसी मंत्रांतर्गत अयुग्म संख्या(विषम संख्या )तथा युग्म संख्या (सम संख्या) का भी वर्णन देखने को मिलता है अयुग्म संख्या (१,३), (३,५), (५,७), (७,९), (९,११), (११,१३), (१३,१५), (१५,१७), (१७,१९), (१९,२१), (२१,२३), (२३,२५), (२५,२७),), (३७,२९), (३९,३१),और युग्म संख्या चार के पहाड़े के रुप में समानांतर श्रेणी एवम गुनोत्तर श्रेणी में वर्णित है। 

(४,८), (८,१२), (१२,१६), (१६,२०), (२०,२४), (२४,२८), (२८,३२), (३२,४०), (४०,४४), (४४,४८),

यजुर्वेद के ही तेत्तरिय संहिता में मंत्र  संख्या (७,२.११-२०) में विषम संख्याओं का विस्तृत विवेचन निम्न रूपों में प्राप्त होता है

१, ३. ५, ७, ९, ११, १३, १५, १७, १९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९

इसके अलावा मंत्र संख्या (१४.२३) में जोड़ घटाव गुणन का भी वर्णन दिया हुआ है और मंत्र संख्या (8.30) में एक पदी, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी क्रम आदि की संख्याओं का अभीष्ट गणितीय संयोजन मिलता है। 

 मंत्र संख्या( २३.२४) में सचछंदा, विचछंदा पदों का अर्थ है विभाज्य एवम अविभाज्य संख्याएं सम संख्याएं विभाजित होती है और विषम संख्याएं अविभाजित होती हैं यद्यपि कुछ विषम संख्याएं भी विभाजित होती हैं ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यजुर्वेद में गणितीय संख्याओं का उल्लेख विभिन्न रूपों में अधिक मिलता है ।

सामवेद के आरण्यक पर्व में भी ऋषि अग्निदेव की आराधना करते हुए विराट पुरुष के स्वरूप का संख्याओ के साथ वर्णन करते हैं विराट पुरुष हजारों सिर वाला, हजार नेत्रों वाला एवम हजार चरणों वाला होता है।

इसी प्रकार अथर्ववेद में भी गणितीय तथ्यों से संबंधित संख्यांक संख्याएं मूलगणितीय संक्रियाएं जोड़ ,घटाव गुणन प्राप्त होती है शून्य के सिद्धांत का उल्लेख सूक्त (५.१५) में किया है ।

इसी में मन्या विनाशन सूक्त के मंत्र (६.२५,१.३)में शुनः शेप ने गले के रोगों के निदान के लिए गणितीय अंकों का प्रयोग किया है गंडमाला रोग की गर्दन में ५५,ग्रीवा में ७७, कंधे में ९९ धमनियां उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे पतिव्रता स्त्री के सामने दोषपूर्ण वचन अथर्ववेद के श्लोक (८.८.७,१०.८.२९) में भी अंकगणित के दर्शन मिलते हैं मंत्र संख्या (१३.५.१५ ,१५,१८) में एक से दस संख्याओं का वर्णन मिलता है अन्य सूक्त (५.१६) में ११ तक की संख्यायों का वर्णन मिलता है अथर्ववेद के मंत्र (१९.२३ )में बीस तक के अंकों की संख्या हवन विधि अंतर्गत निम्न रूप में दी गई है ।

पंच चरभेभ्य स्वाहा, सष्टाचेभ्य स्वाहा, सप्तचरभेभ्य स्वाहा …… विशति स्वाहा

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों को गणित का प्रारम्भिक ज्ञान था जो समय के साथ उन्नत एवम परिष्कृत होकर आज हमारे सामने है इस प्रकार गणित का मुख्यत: श्रेय हमारे ऋषि मुनियों को ही जाता है।जिन्हें वैदिक सभ्यता ही अंकगणित का ज्ञान था

 

© श्री राजेन्द्र शर्मा राही 

भोपाल 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नीचे गिरने की कला ।)

?अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप इसे आकर्षण कहें या गुरुत्वाकर्षण, गिरना पदार्थ का स्वभाव है। जंगलों में बहता पानी पत्थरों और पहाड़ों के बीच रास्ता बनाता हुआ, झरना बन नीचे ही गिरता है, पहाड़ पर नहीं चढ़ता। गंगोत्री हो या अमरकंटक, भागीरथी गंगा हो या माँ नर्मदे, पहाड़ों, पठारों के बीच होती हुई, नीचे की ओर कलकल बहती हुई सागर में ही जाकर मिलती है।

इंसान भी जब गिरता है, तो धुआंधार गिरता है और जब उठता है, तो सनी देओल की भाषा में उठ ही जाता है। वैसे गिरना उठना किस्मत का खेल है ! अब आप सेंसेक्स को ही लीजिए, कितनों को ऊपर उठाया, और कितनों को नीचे गिराया। जो काम पहले सट्टा बाज़ार करता था, वह काम आजकल सत्ता का बाज़ार कर रहा है। किसी को उठा रहा है, किसी को गिरा रहा है। पहलवानों की भाषा में, इसे ही उठापटक कहते हैं।।

साहित्यिक भाषा में इसे उत्थान और पतन कहते हैं। इतिहास भी क्या है। सिकंदर भी आए, कलन्दर भी आये, न कोई रहा है, न कोई रहेगा। प्रसिद्धि के बारे में भी कहा गया है। कितना भी ऊँचा उठ जाओ, उसकी सीमा है। गिरने की कोई सीमा नहीं। वे फिर भी भाग्यशाली होते हैं, जो आसमान से गिरते हैं और खजूर में अटकते हैं। अगर ज़मीन पर गिरते तो क्या हश्र होता।

आप इसे क्या कहेंगे, अतिशयोक्ति अलंकार ही न ! तुम इतना नीचे गिरोगे, मैंने सोचा भी न था। क्या कोई ऊपर भी गिरता है। गिरने का मतलब नीचे गिरना ही होता है। किसी के ऊपर तो कोई कभी नहीं गिरता। वे कितने समझदार हैं, जिनका सरनेम गिरपडे़ है। वे कभी नहीं कहते, नीचे गिर पड़े। बस गिर पड़े, तो गिरपड़े।।

एक नीचे उतरना भी होता है।

यह बड़ा सभ्य और शालीन तरीका होता है। लोग कार से नीचे उतरते हैं, हवाई जहाज से नीचे उतरते हैं, मंत्री हेलीकॉप्टर से नीचे उतरते हैं। लेकिन साउथ अफ्रीका में मोहनदास को काला समझ गोरों ने ट्रेन से क्या उतारा, वो महात्मा बन गया। पहाड़ पर अगर चढ़ा जाता है, तो नीचे भी उतरा जाता है। बस केवल एक ऊँट ही है जो बड़ी मुश्किल से पहाड़ के नीचे आता है।

चरित्र का गिरना बुरा और किसी राजनीतिक पार्टी का गिरना अच्छा माना जाता है, ऐसा क्यों ? एक गिरा हुआ आदमी, कितना गिरा हुआ है, इसकी कोई पहचान नहीं, कोई मापदंड नहीं। कितने गिरे हुओं को समाज और कानून दंड देता है, इसका कोई हिसाब किताब नहीं। झूठ बोलने की कोई सज़ा नहीं, चोरी करके पकड़े जाने की सज़ा है। कितने भी मच्छर मारिए, कोई सज़ा नहीं, किसी पुलिस वाले को हाथ लगाकर तो देख लें।।

जो आदमी जितना नीचे गिरता है, वह उतना ही ऊँचा उठता है, इसे राजनीति कहते हैं। यहाँ विज्ञान का कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। क्योंकि यह राजनीति विज्ञान है। समय आने पर लोग भूल जाते हैं, वह कितना गिरा हुआ था, उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है। बस वह अपनी सत्ता की कुर्सी सम्भालकर रखे। क्योंकि कुर्सी पर बैठा इंसान कभी गिरा हुआ नहीं कहलाता।

गिरना एक कला है, यह सबके बस की बात नहीं। आप अगर गिरें और ठोकर खाएँ, तो समझदारी इसी में है, उठ खड़े हों और आगे से संभलकर चलें।

जिन्हें वक्त ने लात मारकर नीचे गिराया है, उन्हें भी उठाएं, गले से लगाएँ। गलत तरीकों से ऊपर उठना, नीचे गिरना ही कहलाता है। यह पतन का मार्ग है, आत्मा के उत्थान का नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 649 ⇒ पंचवटी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 649 ⇒ संतुलन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन संतुलन का नाम है। पूरी सृष्टि का संचालन श्रेष्ठ संतुलन का ही परिणाम है। भौगोलिक परिस्थितियां और पर्यावरण, मौसम के बदलते चक्र, सब कुछ किसी अज्ञात शक्ति के इशारे पर होता हुआ, क्रमबद्ध, नियम बद्ध। सुबह उठते ही एक कप चाय की तरह, तश्तरी में सुबह की ताजी हवा और धूप, और वह भी आपकी खिड़की में, बिना नागा।

क्या हमारी धरती और क्या आसमान, सुबह दोपहर और शाम, दिन और रात, अंधेरा उजाला, सूरज चंदा, तारा, नदी पहाड़ और वृक्ष वनस्पति और कुछ नहीं एक दिव्य संतुलन है। अगर पांचों तत्व हम पर मेहरबान हैं तो यह सब सृष्टि के संतुलन का ही परिणाम है।।

हम संतुलन का पाठ बचपन से ही सीखते चले आए हैं। एक नन्हा बालक पहले पालने में हाथ पांव मारता है, फिर जमीन पर संतुलन बनाते हुए वह उठना, बैठना और चलना भी सीख ही लेता है। आज हमें गर्व नहीं होता, लेकिन जब पहली बार अपने पांव के संतुलन के सहारे गिरते पड़ते दौड़ लगाई थी, तो मां कितनी खुश हुई थी। एक एक कदम लड़खड़ाते हुए चलना, संभलना, गिरना, फिर उठ खड़े होना। कभी रोना, कभी खुश होकर ताली बजाना। अपने पांव पर खड़े होना। जीवन के संतुलन का पहला पाठ।

संतुलन को हम balance भी कहते हैं और equilibrium भी। न कम न ज़्यादा, समान अनुपात। अगर हमारा वजन कम है तो हमें पौष्टिक आहार की सलाह दी जाती है और अगर वजन ज्यादा है तो संतुलित आहार। मात्रा का अनुपात ही प्रतिशत है। शून्य से शत प्रतिशत। कहीं जीरो तो कहीं हीरो। किसे पता था कि संतुलन का ग्राफ किसी दिन इतना ऊपर चला जाएगा कि लोग सफलता की सीढ़ियां चढ़ तो जाएंगे, लेकिन बाद में उतरना ही भूल जाएंगे। और सफलता का ग्राफ 0 से 100 का नहीं, 99 से 100 का ही रह जाएगा। आज जितना सुखी और संपन्न इंसान पहले कभी नहीं था।।

तराजू संतुलन के लिए होती है। जितने वजन का बांट होता है, उतना ही सौदा तुलता है। औषधि हो या भोजन, एक निश्चित मात्रा में ही असर करते हैं। पुण्य का कोई घड़ा नहीं होता, पाप का घड़ा जल्दी भर जाता है। जब पुण्य घटता है तो पाप का पलड़ा भारी हो जाता है। प्रकृति का संतुलन भी डगमगा जाता है। हमारे शरीर में भी अलार्म सिस्टम है और प्रकृति में भी। लेकिन हम उससे अधिकतर अनजान ही रहते हैं। जब पानी सर से ऊपर निकल जाता है, तब होश आता है।।

नफरत, स्वार्थ, खुदगर्जी, गला काट प्रतिस्पर्धा, किसी की टांग खींचना, किसी की चुगली करना, अपना ईमान गिरवी रखना, मुल्क के साथ, परिवार के लोगों के साथ विश्वासघात करना चारित्रिक असंतुलन की पराकाष्ठा है। मानवता पर कुठाराघात है। यह एक ऐसा सामूहिक अपराध है, जिसका दंड साधु और शैतान दोनों को भोगना है।

नृत्य में संतुलन है, भाव है भंगिमा है। नृत्य वंदना भी है और आराधना भी। नृत्य से नटराज प्रसन्न रहते हैं और नंगे नाच से वे भी क्रोधित और कुपित हो तांडव लीला प्रारंभ कर देते हैं। कोरोना का नंगा नाच हम देख ही चुके हैं।।

संतुलन ही असंतुलन का एकमात्र हल है, विकल्प है। अपने विकारों का नहीं, अच्छे विचारों का पलड़ा भारी हो। किसी का अनिष्ट सोचने की अपेक्षा सबके कल्याण के लिए प्रार्थना व प्रयत्न करें। पाप का पलड़ा भारी ना हो।

मानवता की रक्षा ही सृष्टि की सुरक्षा है। मन, वचन और कर्म में संतुलन बनाए रखें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 126 – देश-परदेश – Marry a Colleague ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 126 ☆ देश-परदेश – Marry a Colleague ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जब तक विवाह नहीं हो जाता है, तब तक पेरेंट्स परेशान रहते हैं। विवाह हो जाने पर “विवाहित युगल” परेशान रहते हैं। इसी समस्या को लेकर बेंगलुरु के युवाओं ने इसके समाधान हेतु एक नई पहल आरम्भ कर दी है।

विगत कुछ वर्षों से युवा लड़के और लड़कियां समान रूप से किसी संस्था में कार्य करते हैं। रेल के इंजन चालक से देश के सुरक्षा बलों में महिलाएं पूर्णतः सहभागी बन चुकी हैं।

पति और पत्नी दोनों का नौकरी करना और अपने पेरेंट्स के बिना रहने से अनेक कठिनाइयां उनकी जिंदगी को दूभर बना देती है।

एक जापानी कांसेप्ट “क्वालिटी सर्कल” कार्यालय की समस्या को सुलझाने के लिए प्रचलन में हुआ करता था। उसी से प्रेरणा लेकर आज के युवा अपने कुलीग से ही विवाह कर बहुत सारी समस्याओं का निराकरण स्वत: कर सकते हैं।

पूर्व में भी कुलीग से प्रेम विवाह या पेरेंट्स द्वारा भी विवाह तय किया जाता रहा है। ये कोई नई बात तो नहीं है, परंतु इसके होने वाले लाभ की चर्चा आजकल सोशल मीडिया में खूब हो रही है।

आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक सुविधाओं की चर्चा में घर किराए से लेकर यातायात में शत प्रतिशत बचत की बात की जा रही है। एक ही टिफिन में दोपहर के भोजन से भविष्य में युगल के बच्चों को पति और पत्नी दोनों रेफर कर, दोहरा लाभ अर्जित कर सकते हैं।

दोनों द्वारा “घर से कार्य” करने पर तो ये लाभ की मात्रा तो कई गुना बढ़ जाएगी। एक ही कार्यालय में काम करने से एक दूसरे पर शक सुबहा की संभावना भी नगण्य हो जाती है। इतनी सुख सुविधाओं के कारण “marry a colleague” एक बहुत अच्छा आइडिया कहा जा सकता है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 648 ⇒ हंसते जख्म ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसते जख्म।)

?अभी अभी # 648 ⇒ हंसते जख्म ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बात कॉमेडी की चल रही थी, बीच में यह हंसते जख्म का जिक्र किसने छेड़ दिया! हंसते हंसते पेट में बल पड़ सकते हैं, हंसते हंसते आंखों में आंसू भी आ सकते हैं, लेकिन हंसते ही जख्म, कुछ हजम नहीं हुआ।

हंसना संजीवनी है, अगर हमारी जीवन संगिनी हंसती खेलती नसीब हो जाए तो क्या यह जीवन, कॉमेडी सर्कस नहीं हो जाए। आखिर कौन दुखी, जख्मी, आहत, और नाशाद रहना चाहता है इस जिंदगी में। तुम आज मेरे संग हंस हो, तुम आज मेरे संग गा लो, और हंसते गाते, इस जीवन की उजली राह संवारो। ढिंग चिक चिक चिक ढिंग ..ढोलक मंजीरा।।

लेकिन आज हंसने की स्थिति अत्यंत दयनीय और हास्यास्पद हो गई है। दुनिया हंस तो रही है, लेकिन इस हंसी में खुशी की आत्मा नहीं है, कहीं कोई खोखली हंसी हंस रहा है, तो कहीं कोई किसी और की गलती पर हंस रहा है। जो हास्य कभी सहज था, अब फूहड़ और अश्लील होता चला जा रहा है। जब हंसी के शब्दकोश में अपशब्द का समावेश हो जाता है तो वह हंसी भी अश्लील होती चली जाती है।

हंसी जो स्वास्थ्यवर्धक है, उसे हमने मनोरंजन का साधन बना लिया है। किसी मजबूर गरीब बुजुर्ग मुसीबत के मारे इंसान को अपने मनोरंजन के अड्डे पर पकड़ लाए। दादा पाय लागू ! दारू पीयोगे, मस्ती आ जाएगी। नहीं भैया, हम नहीं पीते, हमें जाने दो। नहीं दादा, ऐसा नहीं चलेगा, पहले दो घूंट चखना, फिर तो बस चखना, भूल गए आज होली है। बुजुर्ग छटपटा रहे हैं, इन्हें वीभत्स रस की प्राप्ति हो रही है, क्या यह हंसते जख्म नहीं है।।

हमारे लिए मनोरंजन ही हंसी है, हंसी थट्टा है, जिसका किसी की संवेदना से कोई लेना देना नहीं। बस हमें खुश रहना है। यही हास्य का मकसद है, हास्य की परिभाषा है।

हास्य बेचारा वैसे ही दोहरी मार खा रहा है। व्यंग्य में उसकी एंट्री एक एक्स्ट्रा की तरह है, कभी बुलाया जाता है, कभी बाहर निकाल दिया जाता है। तुम तो हास्य कवि सम्मेलन के लिए ही बने हो। डा सरोजिनी प्रीतम और काका हाथरसी ही जानते हैं, हास्य रस की फुलझड़ी क्या होती है। मुंह फुलाकर अपनी पत्नी की हंसी उड़ाकर, आप भले ही सुरेंद्र शर्मा बन बैठें, अब तो आप भी हास्य के पात्र ही नजर आते हो। सोने की मुर्गी जो हाथ लग गई थी।।

खुद पर हंसना ही वास्तविक हास्य है, दूसरों की हंसी उड़ाना, उन पर कीचड़ फेंकना, ना तो सहज हास्य है और ना ही स्वस्थ मनोरंजन। राजनीति ने भोले भाले सहज हास्य की हत्या की है, उसे बुरी तरह जख्मी किया है। जख्म लेकर फिर भी वह हंस रही है, और हमारी जनता उसके हंसते जख्म को अनदेखा कर तालियां बजा रही है, अपने नेताओं का गुणगान कर रही है।

खेल ताश का हो या सर्कस का, हम हमेशा जोकर को बीच में ले आते हैं। राजकपूर एक शो मैन थे, आम आदमी का दर्द समझते थे। जोकर भी क्या था, बच्चों के लिए मनोरंजन का किरदार।

सनातन, संपन्न नाट्य विधा में भी विदूषक तो होता ही था।।

समय ने हास्य को उठाया भी और गिराया भी। हास्य भी बुलंदियों की ऊंचाइयों तक पहुंचा भी और फिर गर्त में गिरा भी। उमा देवी जैसी गायिका को जब समय ने टुनटुन बना दिया, तो क्या कला ने आत्म हत्या कर ली। नहीं उमा देवी को ही अपनी आत्मा को मारना पड़ा।

जब फिल्मों पर हास्य के गिरते स्तर के युग में कुंदन शाह जाने भी दो यारों जैसी मनोरंजक फिल्म लेकर आए तो लगा अब हास्य जी उठेगा। नुक्कड़ और देख भाई देख, देखकर मन खुश हो गया था। लेकिन हास्य हमेशा अपनी मर्यादा भूल जाता है। उस पर जब एक पतिव्रता स्त्री की शर्तें थौंपी जाती है, तो वह बगावत कर बैठता है। जब art for arts’ sake हैं, व्यंग्य अपनी शालीन मर्यादा लांघ पोर्न होता चला जा रहा है, आधा गांव और काशी के अस्सी पर आपत्ति नहीं, लेकिन कपिल का कॉमेडी शो तो हम नहीं देखते, बड़ा फूहड़, दो दो अर्थी वाला है।।

हमारे देश में भक्त भी हैं और आलोचक भी। कुछ स्तरीय लोग भी कपिल के शो पर आकर घटिया जॉक सुनाते हैं और इसी मंच पर सतीश कौशिक और अनुपम खेर अपनी यारी दोस्ती के कारनामे ठहाकों में सुनाते हैं। अभी अभी यहां सुधा मूर्ति जी ने भी कदम रखा। कला कला है, यहां कभी वाह उस्ताद जाकिर हुसैन तो कभी अल्ला रखा।

वाकई आज हास्य जख्मी है और उसका जख्म हमारी खुदगर्जी है, हमें उससे तो बहुत अपेक्षाएं हैं लेकिन उसे हमने आज भी अपने सहज जीवन से कोसों दूर रखा है। फूलों की हंसी, बच्चों की फुलवारी और पक्षियों के कलरव में आज भी दिव्य हास्य मौजूद है, कभी अपने पर हंस लें और कभी आज की राजनीति पर दो आंसू बहा लें, गंगा नहा आएंगे आप। हास्य गुदगुदी है, कोई जख्म नहीं, लाफ्टर कोई मेडिसिन नहीं, शरीर और आत्मा का कायाकल्प है। सुख सागर है, परमानंद सहोदर है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 283 – राम, राम-सा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 283 ☆ राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ  हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर,  अथवा उन पर भी लागू थे।  फिर भी वे परम पुरुष सिद्ध हुए।

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे।सिंहासन के लिए अपने भाइयों और पिता की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिए वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे  लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’  लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर,  मुझे तो केवल घाव हुआ,  वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट ‘एक पत्नी’ व्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्षण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? “

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी,  सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…!  कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

भारत के अनेक प्रदेशों में अभिवादन के लिए ‘राम-राम’ कहा जाता है। राजस्थान में  ‘राम राम-सा’ का प्रयोग होता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई  ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

सभी पाठकों को श्रीरामनवमी की हार्दिक स्वस्तिकामनाएँ।💐🙏

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 647 ⇒ शाश्वतता (Timelessness) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शाश्वतता (Timelessness) ।)

?अभी अभी # 647 शाश्वतता (Timelessness) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आकाश और समय की गणना नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों ही शाश्वत हैं। पृथ्वी से पहले आकाश था, समय तब भी था, जब समय की गणना असंभव थी। स्वामी विवेकानंद ने संसार को शून्य के महत्व से अवगत कराया। वह एक अंक था या समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त शून्य, विज्ञजन शायद जानते हों।

क्या शून्य में ही आकाश और समय समाया हुआ है। क्या आपका और हमारा समय एक ही है? फिलहाल तो आप कह सकते हैं, सबका समय एक जैसा चल रहा है। ।

एक विश्व घड़ी भी होती है, जो सभी देशों का अलग अलग समय बताती है। सभी देशों के समय में अंतर होता है। जिनके परिजन विदेशों में रहते हैं, वे अपनी घड़ी का समय उनकी घड़ी से मिला लेते हैं, ताकि सुविधानुसार बात हो सके। यानी घड़ी के समय को हम अपनी मर्ज़ी अनुसार कम ज़्यादा कर सकते हैं।

एक स्टॉप वॉच होती है। आपका समय शुरू होता है अब ! क्या आप किसी का समय शुरू कर सकते हो। अगर हां, तो काश हम समय को रोक भी सकते। यहां घड़ी के समय की नहीं, काल की बात हो रही है। ।

समय की गणना के लिए घड़ी और कैलेंडर के अलावा पंचांग भी होता है जो हमें ग्रह नक्षत्रों की स्थिति भी बताता है। जितने वार उतने ग्रह। वैसे वार तो केवल सात ही होते हैं, लेकिन राहु केतु सभी ग्रहों के बाप है। शनि की इनसे मिलीभगत है। ये कभी भी वक्र हो जाते हैं और अच्छे भले काम में टांग अड़ा देते हैं।

ज्योतिष ही नहीं, समय के साथ सामुद्रिक विद्या भी अपने करतब दिखाने से पीछे नहीं हटती। मोती, मूंगे, पुखराज जैसे नग इंसान को अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। इंसान का अच्छा अथवा बुरा समय इनके पास गिरवी रखा हुआ होता है। ।

जो लोग जीवन में शगुन, अपशकुन नहीं मानते, केवल विज्ञान के आगे नत – मस्तक होते हैं, कभी कभी उनका भी समय खराब चल रहा होता है। ज़्यादा बहस नहीं, दिमाग नहीं, चुपचाप जो कहा, वह करना। अगर कोरोना और ग्रहण काल में घर से बाहर नहीं निकलने का कहा, तो वैसा करो ना।

क्या हम समयातीत नहीं हो सकते। मोबाइल के किसी मेसेज की तरह, समय को डिलीट नहीं कर सकते। बहुत से आते हैं ऐसे पल हमारे जीवन में, जब समय कैसे गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता। बस इसी तरह, हम जब चाहें, जो समय हम नहीं चाहें, वह व्यतीत हो जाए, और हमें पता ही नहीं चले। ।

हमारी प्रथ्वी के समय की गणना, पल, सेकंड, मिनिट, घंटे, दिन, सप्ताह, माह और वर्ष तक सीमित रहती है। ब्रह्माण्ड में समय की गणना प्रकाश वर्ष में होती है। प्रकाश की गति समय से भी तेज होती है। क्या कभी समय को रोका जा सकता है। जो घटना एक पल में घटित होती है, क्या उस पल को मिटाया जा सकता है।

काल का पहिया घूमे भैया

लाख तरह इंसान चले।

ले के चले बारात कभी तो

कभी बिना सामान चले।।

अभी समय बिना सामान चलने का आ गया है। अज्ञेय ने भी काल के कठोर सच को स्वीकार किया है ;

हम सब काल के दांतों तले

चबते चले जाते हैं

चुइंग गम की तरह

कच कच कच

बड़ा कठोर सच।।

हमें समय की शास्वतता स्वीकार करनी ही होगी। हम समयातीत नहीं हो सकते। न समय को आगे कर सकते, न पीछे। जो समय को अपनी मुट्ठी में बांधकर रखना चाहते हैं, वे सभी आज समय के आगे हाथ बांध खड़े हैं। समय को बलवान यूं ही नहीं कहा गया है।

किसी ने सच ही कहा है ;

ये समय बड़ा हरजाई

समय से कौन लड़ा मेरे भाई।

कितना अच्छा हो, हम खराब समय को अपने हिस्से से डिलीट कर सकें। न हम पर कोई विपत्ति आए न इस संसार पर। काश आधुनिक मशीनों और अत्याधुनिक हथियारों की तरह, यह संसार भी हमने बनाया होता तो शायद शैलेन्द्र कभी यह नहीं कहते ;

दुनिया बनाने वाले,

क्या तेरे मन में समाई ?

काहे को दुनिया बनाई !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 646 ⇒ उखड़े हुए लोग…. ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उखड़े हुए लोग।)

?अभी अभी # 646 ⇒ उखड़े हुए लोग ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कभी मैं भी इसी जमीन से जुड़ा था, इसी मिट्टी में पला बढ़ा था। आज जहां चिकने टाइल्स का फर्श है, कल वहां गोबर से लिपा हुआ आंगन था। एक नहीं, तीन तीन दरख़्त थे। कल कहां यहां सोफ़ा, कुर्सी, कूलर और ए सी थे, बस फकत एक कुआं और ओटला था।

सर्दी में धूप और गर्मी में नीम की ठंडी ठंडी छांव थी, बारिश में पतरे की छत टपकती थी, आसमान में बादल गरजते थे, बिजली चमकती थी। तब दीपक राग से चिमनी, कंदील नहीं जलती थी, केरोसीन के तेल से ही स्टोव्ह भी जलता था। ।

घरों में लकड़ी का चूल्हा तो था, पर गैस नहीं थी। सिगड़ी भी कच्चे पक्के कोयले की होती थी, सीटी वाले कुकर की जगह तपेली और देगची में दाल चावल पकते थे। बिना घी के ही चूल्हे पर फूले हुए फुल्कों की खुशबू भूख को और बढ़ा देती थी। तब कहां नमक में आयोडीन और टूथपेस्ट में नमक होता था।

मौसम के आंधी तूफ़ान को तो हमने आसानी से झेल लिया लेकिन वक्त के तूफ़ान से कौन बच पाया है। पहले मिट्टी के खिलौने हमसे दूर हुए, फिर धीरे धीरे मिट्टी भी हमसे जुदा होती चली गई। वक्त की आंधी में सबसे पहले घर के बड़े बूढ़े हमसे बिछड़े और उनके साथ ही पुराने दरख़्त भी धराशाई होते चले गए। ।

इच्छाएं बढ़ती चली गई, भूख मरती चली गई। सब्जियों ने स्वाद छोड़ा, हवा ने खुशबू। रिश्तों की महक को स्वार्थ और खुदगर्जी खा गई, अतिथि भी फोन करके, रिटर्न टिकट के साथ ही आने लगे। दूर दराज के रिश्तेदारों के पढ़ने आए बच्चे घरों में नहीं, हॉस्टल और किराए के कमरों में रहने लगे।

सब पुराने कुएं बावड़ी और ट्यूबवेल सूख गए, घर घर, बाथरूम में कमोड, शॉवर और वॉश बेसिन लग गए।

पानी का पता नहीं, गर्मी में चारों तरफ टैंकर दौड़ने लग गए। सौंदर्यीकरण और विकास की राह में कितने पेड़ उखाड़े, कितने गरीबों के घर उजाड़े, कोई हिसाब नहीं। ।

पहले जड़ से उखड़े, फिर मिट्टी से दूर हुए, पुराने घर नेस्तनाबूद हुए, बहुमंजिला अपार्टमेंट की तादाद बढ़ने लगी। अपनी जड़ें जमाने के लिए हमें अपनी मिट्टी से

जुदा होना पड़ा। कितने घर उजड़े होंगे तब जाकर कुछ लोगों को मंजिलें मिली होंगी। अपनी मंजिल तक अब आपको लिफ्ट ले जाएगी। इसी धरा पर, फिर भी अधर में, क्या कहें, उजड़े हुए, उखड़े हुए अथवा लटके हुए ;

न तू ज़मीं के लिए है,

न आसमां के लिए।

तेरा वजूद है अब

सिर्फ दास्तां के लिए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #270 ☆ पुरुष वर्चस्व और नारी… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख पुरुष वर्चस्व और नारी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 270 ☆

☆ पुरुष वर्चस्व और नारी… ☆

पितृसत्तात्मक युग के पुराने क़ायदे-कानून आज भी धरोहर की भांति सुरक्षित हैं और उनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। हमारे पूर्वजों ने पुरुष को सर्वश्रेष्ठ समझ समस्त अधिकार प्रदान किए और नारी के हिस्से में शेष बचे मात्र कर्त्तव्य, जिन्हें गले में पड़े ढोल की भांति उसे विवशतापूर्वक आज तक बजाना पड़ रहा है। तदोपरांत उसे घर की चारदीवारी में कैद कर लिया गया कि वह अब गृहस्थी के सारे दायित्वों का वहन करेगी…यथा प्रजनन से लेकर पूरे परिवारजनों की हर इच्छा, खुशी व मनोरथ को पूर्ण करेगी; उनके इशारों पर कठपुतली की भांति ता-उम्र नाचेगी; उनके हर आदेश की सहर्ष अनुपालना करेगी और पति के समक्ष सदैव नतमस्तक रहेगी…जहां उसकी इच्छा का कोई मूल्य नहीं होगा। नारी के लिए निर्मित आदर्श-संहिता में ‘क्यों’ शब्द नदारद है, क्योंकि उसके लिए तो हर हुक्म बजाना अपेक्षित है… दासी और गुलाम की भांति ‘जी हां ‘कहना उसकी मात्र नियति है। इस संदर्भ में सीता का उदाहरण हमारे समक्ष है। वह पतिव्रता नारी थी, जिसने पति के साथ वनवास झेला और लक्ष्मण- रेखा पार करने पर क्या हुआ उसका अंजाम …सीता-हरण और आगे की कथा से तो आप सब परिचित हैं। ज़रा स्मरण  कीजिए– शापित अहिल्या को, जिसे उसके पति त्रषि गौतम के श्राप-स्वरूप वर्षों तक शिला रूप में स्थित रहना पड़ा, क्योंकि इंद्र ने वेश बदल कर उसकी अस्मत पर हाथ डाला था। छल भी पुरुष द्वारा और उद्धारक भी पुरुष ही… इससे अंदाज़ लगा सकते हैं आप उसके दबदबे का, उसकी सर्वमान्य सर्वोच्च सत्ता का। महाभारत की पात्र द्रौपदी के इस वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ ने बवाल मचा दिया और उस रज:स्वला नारी को केशों से खींच कर भरी सभा में लाया गया, जहां उसका चीरहरण हुआ। प्रश्न उठता है, क्या किसी ने दुर्योधन व दु:शासन को दुष्कृत्य करने से रोका और उनकी निंदा की? शायद सब मर्यादा से बंधे थे और समर्पित थे राज्य के प्रति… सो! अंधा केवल धृतराष्ट्र नहीं, राजसभा में उपस्थित हर शख्स अंधा था, नपुंसक था, साहसहीन था। गुरू द्रौण, भीष्म व विदुर जैसे वरिष्ठजन भी अपनी पुत्रवधु की अस्मत लुटते हुए देखते रहे… आखिर क्यों? क्या उनका मौन रहना अक्षम्य अपराध नहीं था?

आइए! लौट चलते हैं सीता की ओर, जिसे रावण की अशोक-वाटिका में प्रवास झेलना पड़ा और लंका- दहन के पश्चात् अयोध्या लौटने पर सीता को एक धोबी के कहने पर विश्वामित्र के आश्रम में धोखे से छुड़वा दिया गया, जहां लव और कुश का जन्म हुआ। अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर लव व कुश द्वारा राम का घोड़ा पकड़ने पर राम का वहां आकर वीर बालकों से उनका परिचय पूछना, सीता से भेंट होना तथा उसका अग्नि-परीक्षा देना और पति के साथ अयोध्या लौट जाना। तदोपरांत एक धोबी के कहने पर सीता को अपनी पवित्रता का प्रमाण देने के विरोध में राम को संतान सौंप  पुन: धरती में समा जाना–क्या संदेश देता है मानव समाज को? नारी को कटघरे में खड़ा कर इल्ज़ाम लगाने के पश्चात् उसे अपना पक्ष रखने का अधिकार न देना…क्या न्यायोचित है? यही सब हुआ था अहिल्या के साथ… गौतम ऋषि ने कहाँ हक़ीक़त जानने का प्रयास किया? उसे अकारण अपराधिनी समझ शिला बनने का श्राप दे डालना… क्या वह अनुचित नहीं था? इसमें आश्चर्य क्या है … आज भी यही प्रचलन जारी है। नारी पर इल्ज़ाम लगा उसे बे-वजह सज़ा दी जाती है, जबकि कोर्ट-कचहरी में भी मुज़रिम को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान किया जाता है। परंतु नारी को जिरह करने का अधिकार कहां प्रदत्त है? वह हाड़-मांस की पुतली, जिसे भावहीन व संवेदनशून्य समझा जाता है; फिर उसमें बुद्धि होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? वह तो सदियों से दोयम दर्जे की प्राणी स्वीकारी जाती है, जिसे संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों की एवज़ में एक ही अधिकार प्राप्त है– ‘सहना’ और ‘कुछ नहीं कहना।’ यदि वह अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है, तो उसे ज़लील किया जाता है अर्थात् सबके सम्मुख प्रताड़ित कर कुलटा, कलंकिनी, कुलनाशिनी आदि विशेषणों द्वारा अलंकृत कर घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है और उसके साथ ही समाज में पग-पग पर जाल बिछाए बैठे दरिंदे उसकी अस्मत लूट; किस प्रकार नरक में धकेल देते हैं…इससे तो आप सब परिचित हैं। वैसे जुर्म का बढ़ता ग्रॉफ़ भी इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए काफी है। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि उस पीड़िता को कितनी शारीरिक यंत्रणा व मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता होगा? उस मासूम, बेकसूर, निर्दोष, मासूम बच्ची अथवा महिला को कितने ज़ुल्म सहने पड़ते होंगे…कारण दहेज हो या पति के आदेशों की अवहेलना; पति के अधिकारों के विस्तृत दायरों व कारस्तानियों की कल्पना तो आप भली-भांति कर ही सकते हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पुरुष-वर्चस्व की…जन्म लेने से पूर्व कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के निमित्त ज़ोर-ज़बर्दस्ती करना; जन्म के पश्चात् नवजात बालिका का मुख न देखना; प्रसव पीड़ा का संज्ञान न लेते हुए पत्नी पर ज़ुल्म करना और दूसरे ही दिन प्रसूता को घर के कामों में झोंक देना या घर से बाहर का रास्ता दिखा देना तथा पत्नी के देहांत के पश्चात् दूसरे विवाह के स्वप्न संजोना…सामान्य-सी बात है; घर-घर की कहानी है। बेटे-बेटी में आज भी अंतर समझा जाता है तथा बेटे को कुल-दीपक समझ उसके सभी दोष-अपराध क्षम्य स्वीकारे जाते हैं और पुत्री की अवहेलना, पुत्र की उतरन व जूठन पर उसका पालन-पोषण; हर पल उस मासूम पर दोषारोपण; व्यंग्य-बाणों की बौछार व उसे दूसरे घर जाना है… न जाने किस जन्म का बदला लेने आई है; इसने तो आते ही हमारे हाथ में कटोरा थमा दिया… ऐसे हृदय-विदारक जुमलों का सामना; तो उस अभागिन को आजीवन करना पड़ता है।

विवाह के अवसर पर पाँव में पायल, पाँव की अंगुलियों में बिछुए, हाथ में कंगन, अंगुलियों में अंगूठियां, कमर पर करधनी, नाक में नथ, कानों में कुंडल, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर व टीका और सिर से पांव तक आभूषणों से लदी, सजी-धजी महिला को आप क्या कहेंगे…मात्र एक वस्तु, जिसे उसके पति की ख़िदमत में पेश किया जाना है। वह कहां समझ पाती है कि वे आभूषण उसे बिना हथकड़ी के उम्र-भर बांधने का प्रयोजन हैं। महिला को ‘सदा सुहागिन रहो,’ व ‘पुत्रवती भव’ आदि आशीष भी उस ब्याहता के लिए नहीं; उनके अपने पुत्र की चिरायु व वंश बढ़ाने के लिए होते हैं।

काश! वह पुरूष वर्चस्व के दायरे को समझ पाती कि विवाहोपरांत तो दुल्हन से उसकी पहचान भी छीन ली जाती है, क्योंकि उसे पति के नाम व जाति से पुकारा जाता है। वह वस्तु-मात्र रह जाती है, जिसका कोई अस्तित्व व मूल्य नहीं होता। सारे व्रत, उपवास, कठोर नियम व कानून तो स्त्री के लिए बनाए गए हैं–जैसे करवाचौथ, पति की लंबी आयु के लिए पत्नी को ही रखना पड़ता है; पति इसके लिए बाध्य नहीं है। प्रश्न उठता है…पति के लिए व्रत रखने का प्रावधान क्यों नहीं? शायद! उसके पति को पत्नी के साथ की दरक़ार अथवा आवश्यकता नहीं है। वैसे भी पत्नी की चिता ठंडी होने से पूर्व ही रिश्ते आने प्रारंभ हो जाते हैं। क्या ऐसे समाज में स्त्री को समानता का दर्जा मिल पाना मात्र कपोल-कल्पना नहीं है? नहीं …नहीं… नहीं… कभी नहीं मिल पाता उसे समानता का अधिकार…बल्कि उसे तो आजीवन उसी भ्रम में जीना पड़ता है कि भले ही वह पत्नी है या मां– उसकी कोई अहमियत नहीं; न परिवार में, न ही समाज में… वह तो माटी की गुड़िया है…स्पंदनहीन, चेतनहीन व अस्तित्वहीन…जिसे आजीवन दूसरों की करुणा-कृपा पर आश्रित रहना पड़ता है।

विवाह के पश्चात् उसका पति हर पल उस निरीह पर निशाना साधता है। वैसे भी हर अपराध के लिए अपराधिनी तो औरत ही समझी जाती है, भले ही वह अपराध उसने किया ही न हो, क्योंकि उसे तो विदाई की बेला में समझा दिया जाता है कि अब उसे अपने ससुराल में ही रहना है; कभी अकेले इस चौखट पर पाँव नहीं रखना है। दूसरे शब्दों में उस पराश्रिता को आजीवन एकपक्षीय समझौता करना है… बापू के तीन बंदरों के समान आंख, कान, मुंह बंद करके जीवन बसर करना है। इसलिए वह नादान सब ज़ुल्म सहन करती है तथा कभी भी कोई ग़िला-शिक़वा या शिक़ायत नहीं करती। अक्सर सभी हादसों का मूल कारण होता है, उस विवाहिता से मुक्ति पाने का उपक्रम… कभी गैस के खुला रह जाने पर उसका जल जाना; कभी नदी किनारे पाँव फिसल जाना; तो कभी बिजली की नंगी तारों को छू जाना।  मिट्टी के तेल, पेट्रोल या तेज़ाब से ज़िंदा जलने की यंत्रणा से कौन परिचित नहीं है? प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे पुत्रवधु के साथ ही क्यों होते हैं? उस घर की बेटी उन हादसों का शिकार क्यों नहीं होती? यदि वह इन सबके चलते ज़िंदा बच निकलती है, तो उसे ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव तक, पिता द्वारा निर्देशित राह पर चल कर समस्त दायित्वों का वहन करना अनिवार्य होता है और उसके पश्चात् बेटा निर्धारित परंपरा का वहन बखूबी करता है। केवल चेहरा बदल जाता है, क़िरदार नहीं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनवरत चलता रहता है।

आधुनिक युग में नारी को प्रदत्त हैं समानाधिकार… हाँ! उसे स्वतंत्रता प्राप्त हुई है और उसे मनचाहा करने का अधिकार भी है। वह अपने ढंग से जीने को स्वतंत्र है तथा किसी ज़ुल्म व अनहोनी होने पर उसकी शिकायत भी दर्ज करवा सकती है। परंतु मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है… ‘आखिर कहां हैं वे क़ायदे-कानून, जो महिलाओं के हित में बनाए गए हैं?’ शायद! वे फाइलों के नीचे दफ़न हैं। कल्पना कीजिए – ‘जब एक मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म होने के पश्चात् उसके माता-पिता रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं…तो वहां कैसा व्यवहार होता है उनके साथ?’ जब संभाल नहीं सकते, तो पैदा क्यों करते हो? क्यों छोड़ देते हो उन्हें, किसी का निवाला बनने हित ? शक्ल देखी है इसकी… कौन इसका अपहरण कर दुष्कर्म करने को ले जायेगा इस बदसूरत को? कितना चाहिए… इससे कमाई करना चाहते हो न… ले जाओ! इस मनहूस को… अपने घर संभाल कर रखो ‘ और न जाने कैसे-कैसे घिनौने प्रश्न पूछे जाते हैं और इल्ज़ाम लगाए जाते हैं …पहले पुलिस- स्टेशन और उसके पश्चात् कचहरी में…वे ऊल-ज़लूल बातें सुन अचंभित रह जाते हैं; उनके पांव तले से ज़मीन खिसक जाती है और लंबे समय तक वे उस सदमे से उबर नहीं पाते। यह सब सुनकर कलेजा मुंह को आता है, जब उस मासूम के माता-पिता को बोलने का अवसर ही प्रदान नहीं किया जाता और वे मूक प्राणी की भांति लौट आते हैंक्षप्रायश्चित भाव के साथ… आखिर क्यों उन्होंने बेटी को जन्म दिया और वह हादसा होने पर उन्होंने पुलिस-स्टेशन का रुख क्यों किया? उम्र-भर वह मासूम कहाँ उबर पाती है उस सदमे से…वे दुष्कर्मी, सफ़ेदपोश बाशिंदे रात के अंधेरे में अपनी हवस शांत कर सूर्योदय से पूर्व लौट जाते हैं अपने घरों की ओर, ताकि दिन के उजाले में वे पाक़-साफ़ व दूध के धुले कहला सकें।

कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ता है, कल्पनातीत है। सब उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, कुलटा व कुलनाशिनी समझ उसकी निंदा व आलोचना करते हैं…यहां तक कि उसके लिए नौकरी करना ही नहीं; जीना भी दूभर हो जाता है। 15अक्टूबर 2019 के ट्रिब्यून को पढ़कर आप हक़ीक़त से रू-ब -रू हो सकते हैं। तमिलनाडु की महिला पुलिस अधीक्षक द्वारा महानिरीक्षक-स्तरीय अधिकारी पर कार्य-स्थल पर उत्पीड़न के आरोपों की जांच को उच्च न्यायालय द्वारा दूसरे राज्य में भेजने का मामला प्रश्नों के घेरे में है, जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट तलाश रहा है। परंतु इससे क्या होने वाला है? उच्च न्यायालय अपनी अधीनस्थ अदालतों में लंबित किसी मामले या अपील की निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच अथवा सुनवाई के लिए मुकदमे या प्रकरण को; धारा 407 के अंतर्गत अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाले किसी भी अन्य ज़िले में स्थानांतरित कर सकता है…और इसी बिनाह पर स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच के लिए उसे तमिलनाडु से तेलंगाना स्थानांतरित कर दिया गया। अक्सर कार्य-स्थल पर यौन हिंसा के मामलों में महिला व उसके परिवार को हानि पहुंचाने की बातें कही जाती हैं; उन्हें ज़िंदगी से बेदखल करने के फरमॉन सुनाए जाते हैं तथा उस पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाया जाता है। इतना ही नहीं, उसे तुरंत कार्यालय से बर्खास्त कर दिया जाता है तथा उसे बदनाम करने की हर संभव कोशिश की जाती है। क्या यह पुरुष वर्चस्व नहीं है, जो समाज में कुकुरमुत्तों की भांति सब पर तेज़ी से अपने वर्चस्व का दायरा बढ़ाता तथा अपनी पकड़ बनाता जा रहा है।

आइए! इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें। आजकल ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ का बोलबाला है। चंद स्वतंत्र प्रकृति की उछृंखल महिलाएं सब बंधनों को तोड़; विवाह की पावन व्यवस्था को नकार, ‘लिव-इन’ को अपना रही हैं। अक्सर इसका ख़ामियाज़ा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि कुछ समय के पश्चात् पुरुष साथी ही उसे यह कहकर छोड़ देता है…’तुम्हारा क्या भरोसा… जब तुम अपने माता-पिता की नहीं हुई; कल किसी ओर के साथ रहने लगोगी?’… इल्ज़ाम फिर उसी महिला के सर। वैसे भी चंद महीनों बाद महिला को दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं और वह धरती पर लौट आती है। कोर्ट का ‘लिव-इन’ के साथ, पुरुष को ‘पर-स्त्री गमन’ अर्थात् दूसरी औरत से संबंध बनाने की स्वतंत्रता ने हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों में सेंध लगा दी है। इसके साथ ही ‘मी-टू’ अर्थात् पच्चीस वर्ष में अपने साथ घटित किसी हादसे को उजागर कर पुरुष को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने का उपक्रम अर्थात् औचित्य समझ से बाहर है। इसके परिणाम-स्वरूप हंसते- खेलते परिवार उजड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसे हादसों से महिलाओं की  साख पर भी तो आँच आती ही है, परंतु वे ऐसा सोचती कहाँ हैं कि इसका अंजाम उन्हें भविष्य में अवश्य भुगतना पड़ेगा। परंतु पुरुष तो महिला पर सदैव पूर्णाधिकार चाहता है तथा अहं फुंफकारने की दशा में वह उसे घर-परिवार व ज़िन्दगी से निष्कासित करने में तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करता। अंततः मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि ‘औरत पहले भी उपेक्षित थी, दलित थी, गुलाम थी और सदा रहेगी, क्योंकि पुरुष की सोच व दूषित मानसिकता में बदलाव आना सर्वथा असंभव है। सतयुग से चला आ रहा यह अनवरत सिलसिला कभी थमने वाला नहीं।’ परंतु अपवाद-स्वरूप चंद भले लोग समाज की रीढ़ होते हैं तथा उनकी सकारात्मक सोच, त्याग व परोपकार आदि शुभ कर्मों पर सृष्टि कायम है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ पितरों का सम्मान – श्रद्धा का विधान : श्राद्धकर्म तर्पण ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है  ई-अभिव्यक्ति के पाठकों की जानकारी के लिए श्री सदानंद जी का एक ज्ञानवर्धक आलेख पितरों का सम्मान – श्रद्धा का विधान : श्राद्धकर्म तर्पण।) 

☆ आलेख ☆ पितरों का सम्मान – श्रद्धा का विधान : श्राद्धकर्म तर्पण ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

विश्व की प्राचीनतम सनातन संस्कृति एक विलक्षण जीवन दर्शन है। आत्मवादी जीवन दर्शन भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय ऋषियों- मनीषियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से जीवन की गहराइयों को समझा। सतत परिवर्तनशील काया के पीछे जीवन प्रवाह की निरन्तरता अनुभव की। नश्वर प्राणियों के अन्दर अनश्वर आत्म चेतना को पहचाना। उसी आधार पर रंग- रूप, रुचि- स्वभाव, आहार- विहार आदि की भिन्नताओं को देखा, विशेषताओं का मूल्यांकन भी किया। साथ ही परस्पर के संवेदनात्मक जुड़ाव का मर्म भी जाना। इसीलिए उन्हें प्रकृति के विभिन्न घटक परस्पर एक-दूसरे के पूरक दिखने लगे। इसी अनुभूति ने ’वसुधैव कुटुम्बकम’ तथा ’आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के तथ्यों का उद्घोष किया। इसी आधार पर भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति का सम्मान पाती रही।

ऐसी महान संस्कृति में ऋषियों ने मानव जीवन के विविध कालखण्डों में मार्गदर्शी व्यवस्थायें निर्मित कीं जिन्हें हम सामान्य रूप से संस्कार परंपरा कहते हैं। हमारे जीवन में जन्म से पूर्व से मृत्यु उपरांत तक के सोलह संस्कार निर्धारित किये गये हैं। इनकी संख्या कहीं न्यूनाधिक हो सकती है किंतु महत्व यहां संख्या का नहीं वरन् उनकी उपादेयता और उसके उद्देश्य का है। जीवन के आरंभ होने से पूर्व गर्भाधान-पुंसवन से लेकर नामकरण, विद्यारंभ, विवाह आदि से होते हुये अंत्येष्टि व तदुपरांत श्राद्धकर्म व वार्षिक तर्पण तक का एक निश्चित क्रम बनाया हुआ है।

आज का तर्कशील एवं भौतिकतावादी सोच वाला व्यक्ति इनका महत्व जाने और माने अथवा नकार दे किंतु प्रत्येक संस्कार का जीवन में सार्थक उपयोग है जिस पर अलग से चर्चा की जा सकती है। ऐसा ही एक संस्कार है जो मनुष्य जीवन के पूर्ण हो जाने पर किया जाता है जिसे अंत्येष्टि एवं श्राद्धकर्म कहते हैं। कईयों का विचार होता है कि अंत्येष्टि में शरीर की सद्गति हेतु अग्निसंस्कार तो उचित है किंतु इसके उपरांत तो न स्थूल काया यहां होती है और न आत्मा इस लोक में होती है तो फिर श्राद्ध तर्पण का क्या काम है ? आजकल अधिकांश घरों में समयाभाव, धनाभाव, श्रद्धा की कमी अथवा किसी अन्य कारण से विधिवत श्राद्ध अथवा वार्षिक तर्पण का क्रम समाप्त होता जा रहा है। इस विषय पर आज उन बातों पर चर्चा की जाये जो सहज, सरल और हमारे लिये सुलभ हैं और जिन्हें अपनाना हमारा कर्त्तव्य है।

पितर क्या होते हैं ?

हमारे वे परिजन जिनका देहावसान हो चुका है वे पितर कहलाते हैं। वेदों में इनके तीन प्रकार बताये गये हैं किंतु उतने विस्तार में न जाकर यही जानना योग्य होगा कि हमारे पिता, दादा एवं परदादा इनके अतिरिक्त मातृकुल में पिछली तीन पीढियां पितरों की श्रेणी में मानी गई हैं। इसमें स्त्री संबंधी यथा माता, मातामह आदि भी आती हैं। सरल भाषा में कहा जाये तो हमारे दिवंगत परिजन पितर कहे जाते हैं। मनुष्य को जीवन में तीन ऋण चुकाने की मान्यता है-देवऋण, ऋषि या गुरुऋण एवं पितृऋण। इनमें से पितृऋण चुकाने का एक विधान श्राद्ध तर्पण बताया गया है। इस कर्मकाण्ड में तीसरी पीढी के पहले के दिवंगत पूर्वजों को चेतना में विलीन माना जाता है इसीलिये हमसे पूर्व तीन पीढियों के लिये ही तर्पण होता है। हमारी संस्कृति तो इतनी महान है कि तर्पण की प्रक्रिया में हमारे सगे, चचेरे, नानाकुल के लोगों के अतिरिक्त देव, ऋषि, संत, शहीद और अव्यक्त मृतात्माओं तक के लिये जल छोडा जाता है। श्राद्ध के उपरांत पंचबलि के रूप में थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रास रखा जाता है जिसमें गौमाता, कौए, श्वान एवं चींटी का भी अंश होता है। इस प्रकार से सर्वहिताय की भावना से यह कर्मकाण्ड किया जाता है।

श्राद्ध क्या है ?

संत तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के आरंभ में ही लिखा है भवानी शंकरौ वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ, यह श्रद्धाभाव ही है जिसके कारण पाषाण में ईश्वर का दर्शन होता है, हमारे माता पिता हमारे लिये ईश्वर रूप हो जाते हैं, एक अनजान चिकित्सक की दवा से हम ठीक हांगे ऐसा विश्वास होता है, अपने दिवंगतों के प्रति जीवन समाप्ति के बाद भी इसी श्रद्धा का प्रकटीकरण श्राद्ध ही है। गायत्री परिवार के संस्थापक वेदमूर्ति पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपनी पुस्तक पितरों को श्रद्धा दें वे शक्ति देंगे में इन पितरों को हमारे अदृश्य सहायक लिखा है। सूक्ष्म में व्याप्त इन आत्माओं के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने, उनके निमित्त जल तर्पण, नारायण भोजन एवं दान करना ही श्राद्ध कर्म कहलाता है। प्रकारांतर से विविध मान्यताओं, क्षेत्रविशेष के चलन आदि के आधार पर इनमें भिन्नता हो सकती है पर सबका आशय एक ही है – अपने दिवंगत पूर्वजों की शांति-तृप्ति हेतु उनका सम्मान करना। यह मात्र लकीर पीटने जैसा कर्मकाण्ड नहीं है वरन् उनके प्रति हमारी श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। चूंकि हमारे दैनिक कामकाज में यह रोज संभव नहीं है अतः हमारे शास्त्रों में वार्षिक श्राद्ध की व्यवस्था बताई गई है।

श्राद्ध विधान के बारे में सामान्य व्यक्ति कभी-कभी यह तर्क देते हैं कि हमारे पिता अथवा दादाजी का तो पुनर्जन्म हो गया होगा अथवा उनके सत्कर्मों एवं ईश्वर कृपा के कारण उनकी मुक्ति हो गई होगी तो फिर प्रतिवर्ष स्वर्गवास की तिथि पर व पितृपक्ष में तर्पण, पिण्डदान, भोजन, दान आदि क्यों करना ? दूसरे, क्या ये वस्तुयें उन तक पहुंचती होंगी ? स्थूल दृष्टि से उनकी बात सही लगती है किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से इसे यूं समझाया जा सकता है कि यह सत्य है कि उन्हें दिया हुआ जल, पंडितों को अथवा सत्पात्र को दिया भोजन, दान कहीं उड नहीं जाता है वरन् हमारे इस सत्कर्म का प्रतिफल उन पितरों को पितृलोक में अथवा यदि उनका पुनर्जन्म भी हुआ हो तो भिन्न रूप में प्राप्त होता है। हमारे पितर स्वर्गवासी हो गये, उन्हें स्मरण करने का कोई लाभ नहीं है तो फिर हमें हमारे ऋषियों, महापुरुषों, संतों आदि की जयंतियां मनानी बंद कर देना चाहिये क्यों कि अब या तो उनकी मुक्ति हो गई होगी या वे दुबारा जन्म ले चुके होंगे। यह बारंबार कहा जाता है कि श्राद्ध केवल हमारी श्रद्धा का प्रकटीकरण है, पितरों के प्रति हमारे साथ किये उपकारों का आभार मानना है। हमारे इस कर्म से सूक्ष्मरूप से हमारी भावनायें उन तक पहुंचती हैं और उनके आशीर्वाद हमें अवश्य मिलते रहते हैं। जिस तिथि को जिस पूर्वज ने देह त्यागी, उसी तिथि को उनके निमित्त तर्पण, पिण्डदान, अन्नदान, वस्तुदान आदि पुण्य कर्म किए जाते हैं। मान्यता यह है कि ऐसा करने से पितरों की सद्गति के द्वार तो खुलते ही हैं, तृप्त-तुष्ट होकर वे श्राद्ध करने वालों को विशेष आशीर्वाद-अनुदान भी देते हैं। अब प्रश्न दान के फल के सम्बन्ध में रह जाता है। यदि यह भी कहा जाय कि दान का पुण्य फल, दाता को ही मिलता है तो इसमें श्राद्ध की अनुपयोगिता सिद्ध नहीं होती। मनुष्य को लोभवश दान आदि सत्कर्मों में प्रायः अरुचि रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने कुछ पर्व, उत्सव, स्थान, काल, ऐसे नियत किये हैं इन पर दान करने के लिये विशेष रूप से प्रेरित किया गया है। उन विशिष्ट पर्वों, अवसरों पर दान करने के विविध भेद प्रभेद और महात्म्यों का वर्णन किया गया है। मनुष्य में विवेक से रूढ़ि का अंश अधिक होता है जैसे स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी त्यौहारों के दिन रूढ़िवश लोग पकवान ही बनाते और खाते हैं उसी प्रकार नियत अवसरों पर अनिच्छा होते हुए भी दानादि सत्कर्म करने पड़ते हैं। उत्तम कर्म का फल उत्तम ही होता है चाहे वह इच्छा से; अनिच्छा से, या किसी विशेष अभिप्राय से किया जाय। श्राद्ध के बहाने जो दान धर्म किया जाता है उसका फल उस स्वर्गीय व्यक्ति को अवश्य ही प्राप्त न होता हो तो भी दान करने वाले के लिये वह कल्याण कारक है ही। सत्कर्म कभी भी निरर्थक नहीं जाते। श्राद्ध की उपयोगिता इसलिये भी है कि इस रूढ़ि के कारण अनिच्छा पूर्वक भी धर्म करने के लिये विवश होना पड़ता है।

एक विचार यह भी होता है कि जब उनकी मुक्ति हो गई तो फिर वे हमारे पितर कैसे रहे ? इस विषय में शास्त्रों में माना गया है कि मर जाने के उपरान्त जीव का अस्तित्व मिट नहीं जाता वह किसी न किसी रूप में इस संसार में ही रहता है। स्वर्ग, नरक, निर्देह, गर्भ, संदेह आदि किसी न किसी अवस्था में इस लोक में ही बना रहता है। इसके प्रति दूसरों की सद्भावनाएं तथा दुर्भावनायें आसानी से पहुंचती रहती है। स्थूल वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक देर में कठिनाई से पहुंचती हैं परन्तु सूक्ष्म तत्वों के संबंध में यह कठिनाई नहीं है उनका यहां से वहां आवागमन आसानी से हो जाता है। हवा, गर्मी, प्रकाश, शब्द आदि को बहुत बड़ी दूरी पार करते हुए कुछ विलम्ब नहीं लगता। विचार और भाव इससे भी सूक्ष्म हैं वे उस व्यक्ति के पास जा पहुंचते हैं जिसके लिए वे भेजे जायें।

श्राद्ध तर्पण के लिये बडी स्पष्ट मान्यतायें निर्धारित हैं। गरुड पुराण एवं अन्यान्य शास्त्रों में इसके विषय में व्यवस्थायें लिख दी गई हैं। पूर्वजों के देहावसान की हिन्दू पंचांग की तिथि पर प्रति वर्ष यह विधान करते हैं इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद (भादों) माह की पूर्णिमा से आश्विन (क्वार) माह की अमावस्या तक पितृपक्ष मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस समय हमारे विमुक्त पितर धरती पर पधारते हैं और हमारी इस श्रद्धा को ग्रहण करते हैं। सामान्य चलन की धारणा के अनुसार इन सोलह दिनों की अवधि में शुभ कार्य, मांगलिक कार्य अथवा नई वस्तु खरीदना आदि वर्जित माना जाता है क्यों कि यह अवधि पितरों के आगमन की होती है, किंतु कुछ विद्वान मानते हैं कि पितरों की उपस्थिति शुभ होती है अतः इस काल को अशुभ नहीं मानना चाहिये।

श्राद्ध के विषय में एक और बात कही जाती है कि हमारे पूर्वजों का श्राद्ध गयातीर्थ में जाकर कर देना चाहिये। कई कारणों से यह सबके लिये सुलभ नहीं है तथापि इस विषय में पंडितों का यह विचार है कि गयाजी में पिण्डदान के उपरांत पितरों का स्वर्गारोहण हो जाता है किंतु जैसे हम प्रतिदिन देवताओं का पूजन करते हैं, उन्हें भोग लगाते हैं वैसे ही पितरों का उनकी तिथि पर वार्षिक श्राद्ध तर्पण करते रहना चाहिये।

गयाजी में ही श्राद्ध तर्पण श्रेष्ठ क्यों ?

इस संबंध एक कथा भी बहुधा सुनाई जाती है-पिंडदान के लिए पूरे भारत में गया जी से अच्छी जगह नहीं है। वैसे तो देश में कई जगहों को पिंडदान के लिए महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन गयाजी का महत्व ज्यादा है। लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति और तर्पण के लिए बिहार के गया को ही चुनते हैं। पर क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों है? दरअसल, पुराणों में लिखा है कि अगर गया जाकर पिंडदान किया जाए, तो पितरों की 21 पीढ़ियां मुक्त हो जाती हैं। लेकिन इसके पीछे भी एक रोचक कथा है, जिसके बारे में आपको जानना चाहिए। गया धाम की कहानी गयासुर नाम के राक्षस से जुड़ी हुई है जिसने विष्णु भगवान की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया। तपस्या पूरी होने पर उसने भगवान से वरदान मांगा कि “मेरा शरीर देवताओं से भी ज्यादा पवित्र हो जाए। जो भी मेरे शरीर के दर्शन करे, या स्पर्श करे वह पाप मुक्त हो जाए”। भगवान विष्णु ने गयासुर को ये वरदान दे दिया। इसके पश्चात् स्थिति बदलने लगी, लोग जमकर पाप करने लगे ओर बदले में गयासुर के दर्शन कर लेते। ऐसे में यहां पाप बढ़ता गया। जब देवता इससे परेशान हो विष्णुजी के पास पहुंचे। भगवान विष्णु गयासुर के पास आए और कहा कि “मुझे धरती पर यज्ञ करने के लिए सबसे पवित्र स्थान चाहिए। गयासुर ने कहा कि प्रभु मुझसे पवित्र तो और कुछ नहीं है। मैं धरती पर लेट जाता हूं, आप यज्ञ कर लीजिए”। जब गयासुर लेटा, तो उसका शरीर 5 कोस तक फैल गया। विष्णुजी ने यज्ञ शुरू किया और यज्ञ के प्रभाव से गयासुर का शरीर कांपने लगा। तब भगवान विष्णु ने वहां एक शिला रखी। जिसे प्रेतशिला वेदी नाम दिया गया। गयासुर के त्याग से प्रभावित होकर विष्णुजी ने गया को ये वरदान दिया कि जो भी यहां आकर अपने पितरों का पिंडदान करेगा उसके पितरों की 21 पीढ़ियां मुक्त हो जाए माना जाता है कि गया धाम में पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। गया में किए गए पिंडदान की महिमा का गुणगान भगवान राम ने भी किया है।

कहा जाता है कि इसी जगह पर भगवान राम और माता सीता ने राजा दशरथ का पिंडदान किया था. गरुड़ पुराण के अनुसार यदि इस स्थान पर पिंडदान किया जाए तो पितरों को स्वर्ग मिलता है. स्वयं श्रीहरि भगवान विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहा जाता है।

इसके अतिरिक्त- बद्रीनाथ धाम में ब्रह्म कपाल शिला, हरिद्वार में नारायण शिला, हर की पैड़ी, हरियाणा में कुरूक्षेत्र, कानपुर के निकट बिठूर नामक स्थान पर, प्रयागराज, काशी, मणिकर्णिका घाट, उज्जैन, त्र्यम्बकेश्वर, महाराष्ट्र, उ प्र में नैमिषारण्य व राजस्थान में पुष्कर एवं दक्षिण में कुछ तीर्थ आदि स्थानों पर तर्पण करने से मोक्ष प्राप्ति की बात शास्त्र कहते हैं किंतु परंपरा के चलते एवं धार्मिक कारणों से गयाजी के श्राद्ध तर्पण को श्रेष्ठ माना जाता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मृतकों का श्राद्ध करना, उन्हें जल चढाना हमारी श्रद्धा का प्रेषण है। कई धर्म हैं जिनमें ऐसी कोई परंपरा नहीं है तो उनके पूर्वजों का क्या होता होगा, किंतु वहां भी प्रतिवर्ष कोई प्रार्थना, पूजा आदि की व्यवस्था है क्यों कि मानव का मूल स्वभाव श्रद्धायुक्त ही है, उसे हम व्यक्त नहीं करते हैं यह हमारी कमी मानी जा सकती है। इसलिये हम दूसरों को न देखते हुये अपनी महान संस्कृति की दिखाई राह पर चलें तो हमारा ही भला होगा। अंधानुकरण का हम समर्थन नहीं करते किंतु विवेक का प्रयोग करते हुये चीजों को समझ कर किया जाये तो उसका लाभ अवश्य मिलता है। शेष, हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि है, सोच है, यदि कोई यह मान ले कि ईश्वर है ही नहीं तो उसके ऐसा कहने से ईश्वर का अस्तित्व मिट नहीं जायेगा।

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अस्वीकरण : उपरोक्त आलेख गायत्री परिवार के गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी की इस विषय पर लिखी पुस्तकों, जानकार व्यक्तियों से चर्चा एवं पुराणों से लिये गये संदर्भों एवं अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है, यह लेखक द्वारा किया गया मात्र एक संकलन है। पाठकों का अपने स्तर पर अन्य विद्वानों से परामर्श लेना उचित होगा।

 ©  सदानंद आंबेकर

म नं सी 149, सी सेक्टर, शाहपुरा भोपाल मप्र 462039

मो – 8755 756 163 E-mail : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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