(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 308 ☆
आलेख – मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है। यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों, इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है। जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है। नालेज अपडेट, सेमिनार आयोजन, शोध जर्नल्स का प्रकाशन, इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है। यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है।
इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है।
लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।
जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की। अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है। सात दिनों, सुबह शाम की दो पारियों में लगभग 50 से ज्यादा पेपर्स, सरल कार्य नही है।
मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है। मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है।
इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है। आज पेपर लीक्स, चुनावों में धांधलियां आम शिकायतें हैं, इन साफ्टवेयर से इस पर रोक लगाई जा सकती है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी सूरत तेरी आँखें…“।)
अभी अभी # 502 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें श्री प्रदीप शर्मा
अज़ीब अंधेरगर्दी है ! हमें अपनी आँखों से ही अपनी सूरत दिखाई नहीं देती। हमें या तो दूसरों की आँखों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर किसी आईने का !
आईने के सामने घण्टों सजने-संवरने के बाद जब सजनी अपने साजन से पूछती है, मैं कैसी लग रही हूँ ? तो, किसी किताब में गड़ी आँखों को बिना उठाए, वह जवाब दे देते हैं, ठीक है ! और वह पाँव पटकती हुई किचन में चली जाती है। थोड़ी ही देर में चाय का प्याला लेकर वापस आती है। मिस्टर साजन चाय की पहली चुस्की लेते हुए जवाब देते हैं, हाँ, अब ठीक लग रही हो।।
जिन आँखों से आप पूरी दुनिया देख चुके हो, उन आँखों से अपनी ही सूरत नहीं देख पाना तो उस कस्तूरी मृग जैसा ही हुआ, जो उस कस्तूरी की गंध की तलाश में है, जो उसकी देह में ही व्याप्त है। अगर आईना नहीं होता, तो कौन यक़ीन करता कि, मैं सुंदर हूँ।
इंसान से कई गुना सुंदर पशु-पक्षी इस प्रकृति पर मौजूद है, जिनके बदन पर कोई अलंकारिक वस्त्र-आभूषण मौजूद नहीं, लेकिन इसका उन्हें कोई भान-गुमान नहीं। उनके पास प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुंदरता को निहारने का कोई आईना ही नहीं ! जब किसी सुंदर पक्षी के सामने आईना रख दिया जाता है, तो वह उसे कोई अन्य पक्षी समझ आईने पर चोंच मारता है। उसे अपनी सुंदरता का कोई बोध ही नहीं। जब कि उसने कई बार अपनी परछाई पानी में अवश्य देखी होगी।।
अगर आईना नहीं होता, तो क्या सुंदरता नहीं होती ! आईना सुंदर नहीं ! आईने का अपना कोई अक्स नहीं। क्या आपने ऐसा कोई आइना देखा है, जिसमें कुछ भी नज़र नहीं आता ? जब भी आप ऐसा आईना देखने जाएँगे, अपने आप को उसमें पहले से ही मौजूद पाएँगे।
केवल शायर ही नहीं, ऐसे कई इंसान हैं जो किसी की आँखों में खो जाते हैं, उन आँखों पर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। तेरी आँखों के सिवा, दुनिया में रखा क्या है। तीर आँखों के, जिगर से पार कर दो यार तुम। क्या करें ! तेरे नैना हैं जादू भरे।
यही हाल किसी मासूम सी सूरत का है ! हर सूरत कितनी मशहूर है। तेरी सूरत से नहीं मिलती, किसी की सूरत ! हम जहां में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं। सूरत तो सूरत, तस्वीर तक को सीने से लगाकर रखने वाले कई आशिक मौजूद हैं, इस दुनिया में।।
अगर इस खूबसूरत से चेहरे पर आँखें ही न होती तो क्या होता ! आँखें ही रौशनी हैं, आँखें ही नूर हैं। आँखों में परख है, इसीलिए तो हीरा कोहिनूर है। सूरत और आँखों को आप एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते।
ऐसा नहीं ! चेहरे बदसूरत भी होते हैं, आँखें कातिल ही नहीं डरावनी भी होती हैं। क्यों कोई हमें फूटी आँखों नहीं सुहाता, क्यों हम किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहते ? अरे ! कोई कारण होगा।
हमारी इन दो खूबसूरत आँखों के पीछे भी आँखें हैं, जो हमें इन आँखों से दिखाई नहीं देती, वे मन की आँखें हैं। वे मन की आँखें सूरत को नहीं सीरत को पहचानती हैं। मन की आँखों ही की तरह हर सूरत में एक सीरत छुपी रहती है। वही अच्छाई है, आप चाहें तो उसे ईश्वरीय गुण कहें या ख़ुदा का नूर।।
संसार ऐसी कई विभूतियों से भरा पड़ा है, जो जन्म से ही दृष्टि-विहीन थे। भक्त सूरदास से लगाकर रवींद्र जैन तक कई जाने-अनजाने नेत्रहीनों का सहारा रही हैं, ये मन की आँखें ! इस दिव्य-दृष्टि के स्वामी को कोई अक्ल का अंधा ही अंधा कहेगा।
यारों, सूरत हमारी पे मत जाओ ! मन की आँखों से हमें परखो। हम दिल के इतने बुरे भी नहीं।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 261 ☆ आओ संवाद करें…(2)
लगभग डेढ़ माह पहले डेंगू ने जकड़ लिया था। परिणामस्वरूप सप्ताह भर अस्पताल में रहना पड़ा। व्याधि की जकड़न और अशक्ति के चलते लेखन भी विशेष नहीं हो पा रहा था। औषधि के प्रभाव से दिन में सोने लगा था जिससे देर रात तक जागता रहता। तथापि भोर के समय उठने का अभ्यास बना रहा।
हाँ, बिस्तर पर पड़े होने के कारण निरर्थक बीत रहा समय, निरर्थक बीत रहा जीवन, निरंतर व्यथित कर रहे थे। इसी स्थिति में पाँच दिन बीत गए। आज छठा दिन था। स्वास्थ्य में सुधार था पर अशक्ति भी थी।
इस समय भोर के साढ़े चार बजे थे। मैं अस्पताल के कॉरिडोर में यथासंभव चक्कर लगा रहा था। बदली हुई स्थितियों में यह मेरा ‘मॉर्निंग वॉक’ था। मुख्य फाटक बंद था। अतः बाहर जाने की सुविधा नहीं हो सकती थी। स्टाफ, मरीज़ सब सोए हुए और बिना पदचाप के, दबे पाँव मैं भ्रमण कर रहा था।
लगभग छह बजे फाटक खुला। अस्पताल शहर की मुख्य सड़क पर है पर ‘स्मार्ट सिटी प्रकल्प’ के अंतर्गत बने चौड़े फुटपाथ के चलते भ्रमण की सुविधा थी। यह अस्पताल एक डॉक्टर मित्र का है। अत: मेरे लिए बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। यहाँ से लगभग दो सौ मीटर दूर पोहे के लिए प्रसिद्ध एक होटल की शाखा है। वहाँ की चाय भी लोकप्रिय है। आज अनेक दिनों बाद चाय पीने की इच्छा जागी।
मैंने मनोबल बटोरा और धीरे-धीरे चलता हुआ उस होटल तक जा पहुँचा। होटल के सामने बड़ा अहाता था। तीनों ओर लगी हरी बाड़, गमलो में सजाकर रखे बड़े पौधे और उनके बीच करीने से लगी हुई टेबल- कुर्सियाँ। वातावरण से मन प्रसन्न हो उठा। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। बैठने से जैसे जान में जान आई।
देखता हूँ कि किसी महाविद्यालय के बारह-पंद्रह छात्र-छात्राएँ वहाँ जलपान कर रहे हैं। हँसी-मज़ाक करते, खाते-पीते युवा। फिर देखता हूँ कि उन विद्यार्थियों के समूह में से एक युवक अपने साथियों से कुछ कह रहा है और उसके साथी मुझे निहार रहे हैं। अनुमान लगाया कि संभवत: मेरी अस्त-व्यस्त स्थिति, बढ़ी हुई दाढ़ी, सलाइन लगाने के लिए हाथ में लगे आई.वी.सेट को देखकर वे कुछ चर्चा कर रहे हों।
इस बीच मेरी चाय आ गई। मैं धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेकर चाय पीने लगा। उधर उन छात्र-छात्राओं का जलपान भी समाप्त हो चुका था। वे अब होटल से बाहर जा रहे थे। मैंने पाया कि वह युवक मेरी ओर आ रहा है। अनुभव हुआ कि वह मुझसे कुछ कहना चाहता है। निकट आकर उसने नमस्कार किया। फिर बोला, ‘अंकल आपको क्या हुआ है? अब बहुत कमज़ोर लग रहे हैं? क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ?” उस बच्चे के शब्दों की आत्मीयता ने भाव-विभोर कर दिया। उसे धन्यवाद देते हुए मैंने अपनी स्थिति की संक्षिप्त जानकारी दी। फिर वह बोला, “आप बिल्कुल मेरे चाचा की तरह दिखते हैं। आप आए तब से मैं आपको ही देख रहा था। अपनी तबीयत का ध्यान रखिए। क्या मैं आपको अस्पताल तक छोड़ दूँ?” मैंने सधन्यवाद इंकार किया। मालूम चला कि वह हिमाचल प्रदेश से है। ये सारे विद्यार्थी कोई शॉर्ट कोर्स करने यहाँ आए हुए हैं। कोर्स पूरा हो चुका। अब अपने-अपने घर लौटेंगे। जाते-जाते भी वह लड़का मुझे स्वास्थ्य का ध्यान रखने का आग्रह करता गया। एक बार फिर उसने अस्पताल तक छोड़ने की बाबत पूछा। एक बार फिर मैंने इंकार किया।
वह चला गया और मानस में विचार उठा कि हम आपस में परिचित नहीं थे। इस जीवन में हमारा कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध इससे पूर्व नहीं आया था। तब भी वह युवक आत्मीय संवाद कर गया।… सचमुच मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद कितना आवश्यक है!
कोरोनाकाल में मैंने ‘आओ संवाद करें’ शीर्षक से तात्कालिक स्थितियों पर लेखन और यू-ट्यूब के माध्यम से प्रबोधन का प्रयत्न किया था। उसी शृंखला को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहूँगा कि परिस्थितियाँ जैसी भी हों, मनुष्य और मनुष्य का संवाद युगों से जमी बर्फ़ पिघला सकता है। अपनी एक कविता याद हो आई,
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
नवरात्रि साधना सम्पन्न हुई। अग ली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सांसों की धड़कन…“।)
अभी अभी # 501 ⇒ सांसों की धड़कन श्री प्रदीप शर्मा
जड़ और चेतन से मिलकर यह सृष्टि बनी है, लेकिन कहीं कहीं जड़ में भी चेतनता है। हमारा शरीर भी तो जड़ ही है, अगर इसमें चेतना ना हो। पेड़ पौधों की मूल प्रवृत्ति जड़ ही तो है। जड़ रूट को भी कहते हैं। अगर किसी वृक्ष को जड़ से ही काट दिया जाए, तो उसकी चेतनता नष्ट हो जाएगी। जड़ को चेतन एक बीज बनाता है।
पांच तत्वों से बने हमारे इस शरीर के भी दो मुख्य भाग हैं, धड़ और सिर। हम नाक से सांस लेते हैं, तब हमारा दिल धड़कता है। जब फेफड़ों में हवा भरती है, तब ही तो दिल की धड़कन सुनाई देती है।।
अगर सांस चलना बंद हो जाए, तो दिल की धड़कन भी रुक जाए। एक मशीन की तरह अनवरत हमारी सांस चलती रहती है और दिल धड़कता रहता है।
हमें अपनी सांस चलने का आभास भी तब ही होता है, जब अधिक शारीरिक परिश्रम से हमारी सांस तेजी से चलने लगती है।
इधर सांस तेजी से चली, उधर दिल भी तेजी से धड़कना शुरू कर देता है। अजीब रिश्ता है सांसों का दिल से।
इधर सांस फूली, उधर दिल की धक धक शुरू। थोड़ा सुस्ताए, इधर सांस थमी, उधर दिल को भी सुकून मिला। वैसे तो सांस के आने जाने, और दिल के धड़कने को केवल महसूस ही किया जा सकता है, लेकिन वाह रे, दिल और सांस का रिश्ता।।
लोग जब किसी को अपने दिल में जगह दे देते हैं, यानी बिठा लेते हैं, तब वह उसकी सांसों में भी समा जाता है। दिल की ऐ धड़कन ठहर जा, मिल गई मंजिल मुझे। केवल दिल के मरीज का ही दिल धक धक नहीं करता, एक प्रेमी का भी करता है।
जिसको आप अपनी जान दे बैठे हो, वह आपके दिल और सांसों में समा गया है। हम दिल दे चुके सनम ;
दिल चीज क्या है
आप मेरी जान लीजिए।
बस एक बार मेरा कहा
मान लीजिए।।
धड़का तो होगा दिल, किया जब होगा तुमने प्यार। क्या किसी का नाम सांसों में भी लिखा जा सकता है। अजीब दुनिया है यह सांसों की और धड़कन की। अजी आप यकीन नहीं करोगे, हमारा दिल तो सोचता भी है। मुलाहिजा फरमाइए ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भक्ति और आराधना…“।)
अभी अभी # 500 ⇒ भक्ति और आराधना श्री प्रदीप शर्मा
शारदेय नवरात्रि माता की भक्ति और आराधना का पर्व है। भक्ति में शक्ति है और शक्ति में पुरुषार्थ !जप, तप, उपवास भी भक्ति का ही स्वरूप है, मन को सांसारिक विषयों से हटाकर अपने आराध्य में लीन होने का अभ्यास है। माता का वास पहाड़ों में है, गुफाओं में है। हमारी माता पहाड़ों वाली है, वह स्कूटी पर सवार नहीं, शेरां वाली है।
शेर की सवारी कोई निर्भय और निडर ही कर सकता है। पहाड़ों और गुफाओं में भक्ति है, विवेक है, वैराग्य है। हमारे जीवन में भी पहाड़ों की कमी नहीं। कभी मुसीबत का पहाड़ तो कभी अहंकार का पहाड़। शेर की सवारी तो छोड़िए, हम तो छिपकली से ही डर जाते हैं। माता की आराधना हमें विकारों से दूर करती है, हममें शक्ति का संचार करती है और हमें निर्भय और निडर बनाती है। एक अबोध बालक के लिए उसकी मां का आंचल ही दुनिया में सबसे सुरक्षित स्थान होता है।।
हमने अपनी जन्मदायिनी मां के साथ नौ महीने उसके उदर में बिताए, वहां भी हमारा पालन पोषण और भरण पोषण हुआ, मां के रक्त ने ही हमें सींचा और हम एक स्वस्थ जीवन प्राप्त कर इस धरा पर अवतरित हुए। एक मां ने अपना पुत्र धरती मां को सौंप दिया। तेरा तुझको अर्पण, और हमारी किलकारी शुरू। हम बड़े होते गए, मां से दूर होते गए, अपनी मातृभूमि को भी छोड़ प्रवासी हो गए।
जीवन में सभी भौतिक उपलब्धियां, फिर भी प्रेम और ममता का अभाव, स्वार्थ और आसक्ति का भाव, फिक्र, चिंता और डर का भाव। ऐसी परिस्थिति में क्यों न कुछ दिन गुजार दें मां के सत्संग, ध्यान और आराधना में। इस बार नौ महीने ना सही, नौ दिन ही सही। हम जब जन्म के पहले, अपनी मां में ही समाए थे, तब नौ महीने उनका ही तो सहारा था। क्या उसने कभी हमें भूखा, प्यासा रखा ? आपको याद नहीं, मां को सब याद है। वह तब भी मां थी, आज भी मां ही है। आप मानें, ना मानें, मां, मां ही होती है। सबकी अपनी अपनी मां होती है। मां सबकी होती है।।
शक्ति अर्थात् शारीरिक बल तो हमें, पौष्टिक भोजन से मिल ही जाता है। बादाम, बोर्नविटा, बूस्ट, और इतनी मल्टीविटामिन गोलियाँ उपलब्ध हैं बाज़ार में फिर मां से हमें कौन सी शक्ति चाहिए। क्यों रात्रि जागरण और माता का जगराता। हमारे अंदर शक्ति का भंडार है, वही शक्ति हमारे चित्त के साथ संयुक्त होकर काम करती है। अब आपका चित्त कैसा है, यह आप जानो। डाकू भी जय भवानी कहकर ही डाका डालते हैं और जिनमें कई सफेदपोश भी होते हैं। अज्ञान और अंधकार में जब हमारी चैतन्य शक्ति सोई पड़ी रहती है, तब आसुरी शक्ति प्रबल हो जाती है। हमारी सोई शक्ति को जगाना ही शक्ति का जागरण है, जगराता है। इसे ही ज्ञानवती कुंडलिनी शक्ति कहते हैं। मूलाधार निवासिनी यह चेतन शक्ति उर्ध्वमुखी हो, सभी चक्रों को भेदती हुई सहस्रार में प्रवेश कर जाती है। भक्ति, ज्ञान और विवेक के बिना शक्ति का जागरण संभव नहीं। हां, आसुरी शक्ति तो जगी जगाई है।
बस उसी मां की गोद में फिर से नौ दिन जाने का अवसर है यह नवरात्रि उत्सव। वह जैसा रखे, रह लीजिए, जो खिलाए, प्रेम से खा लीजिए। नौ दिन का तो यह अभ्यास है। मां ने जो नौ महीने आपको पाला है, उसका ऋण केवल नवरात्रि की आराधना और उपवास से नहीं चुकाया जा सकता। नवरात्रि पर्व शक्ति संचय और आराधना का ही सबब नहीं, मां के सद्गुणों को आत्मसात करने का भी पर्व है। मां अपने पुत्र को प्यार भी करती है और गलती करने पर दंडित भी करती है, लेकिन कभी किसी से नफरत नहीं करती। मां बलि देती है, कभी बलि लेती नहीं। अगर बलिदान देना ही है तो राग, द्वेष, निंदा, लोभ और मत्सर का दें। माता अति प्रसन्न होगी। हमें आशीर्वाद देगी। हमारी सभी मनोकामनाओं को पूरी करेगी। जय माता दी।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख याद व विवाद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 253 ☆
☆ याद व विवाद ☆
“भूलने की सारी बातें याद हैं/ इसलिए ज़िंदगी में विवाद है।” इंसान लौट जाना चाहता/ अतीत में/ जीना चाहता उन पलों को/ जो स्वर्णिम थे, मनोहारी थे/ खो जाना चाहता/ अतीत की मधुर स्मृतियों में/ अवगाहन करना चाहता, क्योंकि उनसे हृदय को सुक़ून मिलता है और वह उन चंद लम्हों का स्मरण कर उन्हें भरपूर जी लेना चाहता है। जो गुज़र गया, वह सदैव मनभावन व मनोहारी होता है। वर्तमान, जो आज है/ मन को भाता नहीं, क्योंकि उसकी असीमित आशाएं व आकांक्षाएं हृदय को कचोटती हैं, आहत करती हैं और चैन से बैठने नहीं देती। इसका मूल कारण है भविष्य के सुंदर स्वप्न संजोना। सो! वह उन कल्पनाओं में डूब जाना चाहता है और जीवन को सुंदर बनाना चाहता है।
भविष्य अनिश्चित है। कल कैसा होगा, कोई नहीं जानता। अतीत लौट नहीं सकता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान अर्थात् आज में जीना श्रेयस्कर है। यदि वर्तमान सुंदर है, मनोरम है, तो वह अतीत को स्मरण नहीं करता। वह कल्पनाओं के पंख लगा उन्मुक्त आकाश में विचरण करता है और उसका भविष्य स्वत: सुखद हो जाता है। परंतु ‘इंसान करता है प्रतीक्षा/ बीते पलों की/ अतीत के क्षणों की/ ढल चुकी सुरमई शामों की/ रंगीन बहारों की/ घर लौटते हुए परिंदों के चहचहाने की/ यह जानते हुए भी/ कि बीते पल/ लौट कर नहीं आते’– यह पंक्तियाँ ‘संसार दु:खालय है और ‘जीवन संध्या एक सिलसिला है/ आँसुओं का, दु:खों का, विषादों का/ अंतहीन सिसकियों का/ जहाँ इंसान को हर पल/ आंसुओं को पीकर/ मुस्कुराना पड़ता है/ मन सोचता है/ शायद लौट आएं/ वे मधुर क्षण/ होंठ फिर से/ प्रेम के मधुर तराने गुनगुनाएं/ वह हास-परिहास, माधुर्य/ साहचर्य व रमणीयता/ उसे दोबारा मिल जाए/ लौट आए सामंजस्यता/ उसके जीवन में/ परंतु सब प्रयास निष्फल व निरर्थक/ जो गुज़र गया/ उसे भूलना ही हितकर/ सदैव श्रेयस्कर/ यही सत्य है जीवन का, सृष्टि का। स्वरचित आँसू काव्य-संग्रह की उपरोक्त पंक्तियाँ इसी भाव को प्रेषित व पोषित करती हैं।
मानव अक्सर व्यर्थ की उन बातों का स्मरण करता है, जिन्हें याद करने से विवाद उत्पन्न होते हैं। न ही उनका कोई लाभ नहीं होता है, न ही प्रयोजन। वे तत्वहीन व सारहीन होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि मानव की प्रवृत्ति हंस की भांति नीर-क्षीर विवेकी होनी चाहिए। जो अच्छा मिले, उसे ग्रहण कर लें और जो आपके लिए अनुपयोगी है, उसका त्याग कर दीजिए। हमें चातक पक्षी की भांति स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदों को ग्रहण करना चाहिए, जो अनमोल मोती का रूपाकार ग्रहण कर लेती हैं। सो! जीवन में जो उपयोगी, लाभकारी व अनमोल है– उसे उसका ग्रहण कीजिए व अनमोल धरोहर की भांति संजो कर रखिए।
इसी प्रकार यदि मानव व्यर्थ की बातों में उलझा रहेगा; अपने मनो-मस्तिष्क में कचरा भर कर रखेगा, तो उसका शुभ व कल्याण कभी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरानी, व्यर्थ व ऊल-ज़लूल बातों का स्मरण करने पर वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण होती है। इसलिए जो गुज़र गया, उसे भूलने का संदेश अनुकरणीय है।
हमने अक्सर बुज़ुर्गों को अतीत की बातों को दोहराते हुए देखा है, जिसे बार-बार सुनने पर कोफ़्त होती है और बच्चे-बड़े अक्सर झल्ला उठते हैं। परंतु बड़ी उम्र के लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि सेवा-निवृत्ति के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं। भले ही वे अपने सेवा काल में कितने ही बड़े पद पर आसीन रहे हों। वे इस तथ्य को स्वीकारने को लेशमात्र भी तत्पर नहीं होते। जीवन की साँध्य वेला में मानव को सदैव प्रभु स्मरण करना चाहिए, क्योंकि अंतकाल केवल प्रभु नाम ही साथ जाता है। सो! मानव को विवाद की प्रवृत्ति को तज, संवाद की राह को अपनाना चाहिए। संवाद समन्वय, सामंजस्य व समरसता का संवाहक है और अनर्गल बातें अर्थात् विवाद पारस्परिक वैमनस्य को बढ़ावा देता है; दिलों में दरारें उत्पन्न करता है, जो समय के साथ दीवारों व विशालकाय दुर्ग का रूप धारण कर लेती हैं। एक अंतराल के पश्चात् मामला इतना बढ़ जाता है कि उस समस्या का समाधान ही नहीं निकल पाता। मानव सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; हैरान-परेशान रहता है, जिसका अंत घातक की नहीं; जानलेवा भी हो सकता है। आइए! हम वर्तमान में जीना प्रारंभ करें, सुंदर स्वप्न संजोएं व भविष्य के प्रति आश्वस्त हों और उसे उज्ज्वल व सुंदर बनाएं। हम विवाद की राह को तज/ संवाद की राह अपनाएं/ भुला ग़िले-शिक़वे/ दिलों में क़रीबियाँ लाएं/ सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की/ राह पर चल/ धरा को स्वर्ग बनाएं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संकोच…“।)
अभी अभी # 499 ⇒ संकोच श्री प्रदीप शर्मा
संतोषी सदा सुखी तो हमने सुना है, लेकिन कभी किसी संकोची व्यक्ति को हमने सुखी नहीं देखा। संकोच व्यक्ति को अंतर्मुखी बना देता है, वह कम बोलता है, अपनी समस्या किसी को बताता नहीं, कभी किसी से दिल खोल कर बात नहीं करता।
कुछ लोगों का मामला बड़ा अलग होता है। उनका मानना होता है जिसने की शरम उसके फूटे करम। जो लोग, लोग क्या कहेंगे जैसी ग्रंथि से ग्रसित होते हैं, वे जीवन का हर काम फूंक फूंककर करते हैं।
ऐसे लोगों को नमस्ते भी करो तो वे शरमा कर अभिवादन स्वीकार करते हैं। उन्हें अपनी पत्नी तक को आई लव यू कहने में संकोच होता है। ।
संकोची व्यक्ति ना तो दिलदार होते हैं और ना ही दिलफैंक। एक कछुए की तरह वे गंभीरता ओढ़े रहते हैं, उनकी कभी हंसी नहीं छूटती। ऐसे संकोची प्राणियों के व्यक्तित्व का पूरा विकास ही नहीं हो पाता। शायर तो कह गया;
ये कली जब तलक
फूल बनकर खिले
इंतजार इंतजार
इंतजार करो ;
लेकिन यह संकोच रूपी कली, बड़ी मुश्किल से खिली है, कितना भी इंतजार करो, यह कली ना तो मुस्कुराएगी और ना ही कभी फूल बनकर खिलेगी, खिलखिलाएगी, बस कुछ ही देर में वापस अपने खोल में समा जाएगी।
ऐसे लोग भीड़, शोर और तड़क भड़क से भी बहुत घबराते हैं, ना तो कभी इनकी पत्नियां इन्हें अपनी उंगलियों पर नचा पाती और ना ही इन्हें पारिवारिक उत्सव के अवसर पर कहीं नाचने गाने का मन करता है। भोजन भी ऐसे करेंगे, मानो किसी पर अहसान कर रहे हैं। आप कुछ लेंगे, जी नहीं, बस हो गया। धन्यवाद। ।
ऐसे ही लोगों के लिए शायद इस तरह के गीतों की रचना की जाती है। फिल्म कन्हैया(1959) गायक मुकेश ;
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिन माँगे मोती मिले…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
स्वदेश, परदेश, उपदेश का बहुत गहरा नाता है लोग चाहें या न चाहें ज्ञान बाँट देते हैं। जैसे ही पता चलता है कोई अनचाही समस्या से ग्रस्त है तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को चरितार्थ करने हेतु दिग्गजों की लाइन लग जाती है। एक गया नहीं कि दूसरा हाजिर अब बेचारी घर की महिलाएँ तो चाय पानी में व्यस्त हो जातीं हैं।
दुःखी व्यक्ति सबकी सलाह सुनकर मन ही मन प्रण लेता है कि अब कुछ हो जाए किसी के सामने उदास नहीं होना वरना इतने सुझाव मिलते हैं कि कौन सा अपनाएँ यही समझ में नहीं आता। हर पल सकारात्मक रहिए, ऐसा व्यवहार कि आपसे मिलकर जो भी जाए वो मुस्कुराते हुए दिखना चाहिए। मधुर व्यवहार की कला जिसको आती है उसे सबको अपना बनाने में देर नहीं लगती है। चीजों को अपने अनुरूप करने के लिए खुले मन से
सबके विचारों का स्वागत करें, पहले जाँचे परखे फिर समाधान की ओर कदम बढ़ाइए। सुनिए सबकी करिए अपने मन की। बस बढ़े हुए कदम रुकने नहीं चाहिए।
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
☆ आलेख ☆ ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम… ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆
ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम
जहां मनोकामनाएं होती हैं पूरी
ग्राम ‘पिपरहटा’ जिला ‘कटनी’ मध्यप्रदेश का ‘मां विंध्यवासिनी देवी धाम’ कटनी से 14 एवं जबलपुर से मात्र 112 कि.मी. दूर स्थित है। यहाँ पहुंचने का मार्ग पक्का, सीधा और सुगम है। मां ‘विंध्यवासिनी देवी धाम’ इन दिनों बड़ी चर्चा में है। बड़े भूखंड में निर्मित इस मंदिर में ध्यान-पूजन, अर्चन करने हेतु पर्याप्त स्थान है। धर्म, विज्ञान आस्था, आध्यात्म, सौहार्द की नींव पर खड़ा यह मां विंध्यवासिनी देवी धाम लोगों की अपार श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र है। ग्राम वासियों के अनुसार मां विंध्यवासिनी की कृपा से भक्तों को जीवन में अनेक चमत्कारिक शुभ संकेत भी दिखाई देते हैं। प्रतिदिन भोर से पहले ही शंख, घण्टों-घण्टियों, मंत्रोच्चर से यहां का संपूर्ण परिसर उल्लास के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है। गोधूलि बेला में दीप प्रज्वलन, आरती भजन लोगों को आनंदित करते हैं। विंध्यवासिनी धाम में ग्रामीण महिलाओं द्वारा निरंतर श्रद्धापूर्ण भजन कीर्तन का आयोजन होता रहता है। मंदिर के कारण श्रद्धा और आध्यात्म के साथ साथ क्षेत्र में सद्भाव एवं सद्गुणों का संचार भी हो रहा है। यहां संपूर्ण नवरात्र के साथ-साथ दुर्गानवमीं, रामनवमीं पर विशेष पूजन-अर्चन, यज्ञ-हवन का आयोजन होता है। लोग अपनी आस्था-विश्वास और उम्मीद को लेकर मां के दरबार में आते हैं और आशीर्वाद से झोली भर कर जाते हैं। भक्ति संगीत की स्वर-लहरियां क्लांत मन को शान्ति प्रदान करती हैं।
मां विंध्यवासिनी के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि असुरों का नाश करने हेतु पराशक्ति देवी योगमाया ने मां यशोदा के गर्भ से गोकुल में नंद बाबा के घर कन्या रूप में जन्म लिया था। इसी समय मथुरा के कारागार में मथुरा नरेश कंस की बहन देवकी ने भी आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण को जन्म दिया, जिसे पिता वासुदेव ने घनघोर बरसात वाली काली रात में मां यशोदा के पास सुरक्षित पहुंचा दिया तथा उनकी पुत्री योगमाया को अपने साथ ले आए। प्रातः जब कंस को देवकी की आठवीं संतान की सूचना प्राप्त हुई तो उसे कन्या जन्म पर आश्चर्य हुआ क्योंकि देवकी के आठवें पुत्र से कंस के वध की देववाणी हुई थी। जब कंस ने इस कन्या को पत्थर पर पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथ से छूटकर दिव्य रूप में भविष्यवाणी करते हुए आकाश में समाहित हो गई कि उसका वध करने वाला पृथ्वी पर आ चुका है। कथा के अनुसार जब देवताओं ने योगमाया से पुनः देवलोक चलने का आग्रह किया तो उन्होंने असुरों का नाश करने पृथ्वी पर विंध्याचल पर्वत में रहने की इच्छा प्रकट की और यहीं वास करने लगीं चूँकि उन्होंने विंध्य पर्वत को अपना निवास बनाया था अतः उन्हें विंध्यवासिनी के नाम से जाना जाने लगा।
शिव पुराण के अनुसार माँ विंध्यवासिनी को सती का रूप माना गया है। कहा जाता है कि जिन-जिन स्थानों पर सती के शरीर के अंश गिरे वहां-वहां शक्ति पीठ स्थापित हुए, किंतु विंध्याचल के इस पर्वत में सती अपने पूर्ण रूप में विद्यमान है। इसीलिए इस स्थान की विशेष महत्ता है। मां विंध्यवासिनी को वनदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है संभवतः विंध्य पर्वत के घने जंगल में रहने कारण उन्हें वनदुर्गा कहा जाने लगा। स्थानीय लोगों के अनुसार इनका बिंदुवासिनी नाम भी प्रचलित है। विद्वानों के अनुसार बिंदु का तात्पर्य उस बिंदु से है जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। सृष्टि के आरंभ से ही विंध्यवासिनी देवी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके शुभाशीष का परिणाम है अतः उन्हें सृष्टि की कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। माना जाता है कि सृष्टि के इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वयं मां विंध्यवासिनी को मातृ तुल्य मानते हैं। एक कथा के अनुसार यह वही स्थान है जहां मां भगवती की कृपा से विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ था।
मां विंध्यवासिनी का प्रमुख मंदिर उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे मिर्जापुर से 8 किलोमीटर दूर विंध्याचल में स्थित है। ईश्वर की असीम अनुकम्पा है कि अब मां विंध्यवासिनी के भव्य एवं दिव्य दर्शन हमें मध्यप्रदेश के कटनी के निकट ग्राम पिपरहटा स्थित मंदिर में सहजता से हो रहे हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपने अपने दायरे…“।)
अभी अभी # 498 ⇒ अपने अपने दायरे श्री प्रदीप शर्मा
“A man is born free, but everywhere in chains”…
मनुष्य पैदा तो स्वतंत्र होता है, लेकिन हर जगह संबंधों के बंधनों से जकड़ा रहता है।
– दार्शनिक रूसो
वैसे तो संबंध शब्द से ही बंध का बोध भी होता है। हर व्यक्ति अपने आप में एक इकाई है और उसके अपने अपने दायरे हैं।
यही दायरा उसका अपना संसार है। बच्चा पैदा होता है और कुछ ही समय में बच्चों की दुनिया में चला जाता है। यह उसकी अपनी दुनिया है, आप बड़े हैं, आपकी दुनिया अलग है। आप अब बच्चे नहीं बन सकते।
बस इसी तरह बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हम अपने-अपने दायरे यानी अपने-अपने संसार में जीते रहते हैं। आप अपने दायरे का कितना भी विस्तार करें उसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। कहने को पूरी दुनिया आपकी है, आपका ही देश प्रदेश है, लेकिन दुनिया के इसी देश प्रदेश में आपका गांव शहर है जिसमें आपका भी एक अपना घर है। आपका अपना परिवार है, आपके सगे संबंधी, नाते रिश्तेदार और यार दोस्त भी हैं। दुनिया चल रही है और आप भी इसी दुनिया में अपना अलग संसार चला रहे हैं। बस यही आपका दायरा है।।
एक दूसरे से जुड़ना अपने दायरे को विस्तृत करना है। कुछ रिश्ते आपको जकड़ लेते हैं और कुछ रिश्तो को आप नहीं छोड़ पाते। कहने को प्रेम का रिश्ता सबसे बड़ा होता है, शायद इसीलिए कहा गया है सबसे ऊंची प्रेम सगाई। क्या प्रेम में सिर्फ सगाई ही होती है, शादी नहीं होती। और अगर किसी ने प्यार में धोखा खाया तो कितनी जल्दी वह कह उठता है ;
ये दुनिया, ये महफिल
मेरे काम की नहीं,
मेरे काम की नहीं…..
इधर प्रेम सगाई टूटी, और उधर पूरी दुनिया ही तितर बितर हो गई ;
साथी न कोई मंज़िल
दिया है न कोई महफ़िल चला मुझे लेके ऐ दिल, अकेला कहाँ…
हम सब जीवन में एक बार उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जब हमारे दायरे सिमटने लगते हैं हमारी दुनिया छोटी होने लगती है हम एकाएक, अकेले पड़ने लगते हैं। इस अकेलेपन का एहसास आपको अपनी दुनिया के दायरे में रहते हुए भी हो सकता है।
ऐसा क्यों होता है कि अक्सर एक उम्र के बाद हर इंसान अपने दायरे में ही सिमटकर रह जाता है।
सिर्फ अपने बच्चे और अपना परिवार। एकाएक बच्चे विदेश क्या चले गए, मानो दुनिया ही चली गई। हम दो हमारे दो से अब केवल हम दो ही रह गए और उधर हमारे दो, दो से चार हो गए, और हम कहते रह गए ;
दुनिया बदल गई
मेरी दुनिया बदल गई।
टुकड़े हुए जिगर के
छुरी दिल पे चल गई। ।
अगर आपके दायरे में संगीत है, कला है, किताबें हैं, साहित्य है, सतगुरु का सत्संग है, स्वाध्याय है, तो आपकी दुनिया कभी अकेली नहीं हो सकती। आपने अपना दायरा अब इतना विस्तृत कर लिया है, जहां सुख चैन है, संतोष है और सिर्फ प्रेम नहीं दिव्य प्रेम है। इस अवस्था में कोई गिला, शिकवा, शिकायत नहीं, तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय। ।