हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #268 ☆ कलम से अदब तक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कलम से अदब तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 268 ☆

☆ कलम से अदब तक… ☆

अदब सीखना है तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद हो गया है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य एहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है; भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना साहित्यकार का दायित्व है।’

साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों- विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यकार का नैतिक दायित्व है; उसके लिए समाधान सुझाना व उपयोगिता दर्शाना भी उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताक़तवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्विनी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनके बीच अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें स्वर्ण मुद्राएं भेंट की जाती थी। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे- चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं और प्रात:-स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्तिकालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है।

सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो; लम्बे समय तक बना रहे तथा वह  परोपकारी व मंगलकारी हो; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मनु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज, भारती आदि का सहित्य अद्वितीय है, शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्तिकालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है; जिसका मुख्य कारण है…साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है तथा उस स्थिति में उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य ही साहित्यकार की सफलता है।

साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है; तत्कालीन  समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उनके उन्मूलन के मार्ग दर्शाना…उसका प्रमुख दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर जनमानस  के मनोभावों को झकझोरता, झिंझोड़ता व सोचने पर विवश कर देता है कि वे ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार मिथ्या लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता; न ही अपनी कलम को बेचता है; क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा संसार में सबसे ऊपर होता है। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे अदब व सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर, सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए…ठीक वैसे ही जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब अवगत होंगे… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ मिथ्या अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है। मन से पहले व मन के पीछे न लगा देने से विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि नमन व मनन एक- दूसरे के पूरक हो जाते हैं। वैसे भी इनका चोली-दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। यह सामंजस्यता के सोपान हैं और सफल जीवन के प्रेरक व आधार- स्तंभ हैं।

प्रार्थना हृदय का वह सात्विक भाव है; जो ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है तथा दूसरे के अस्तित्व को नकार उसकी अहमियत नहीं स्वीकारता। सो! वह आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात् समय के बदलते ही वह अर्श से फ़र्श पर पर आन पड़ता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो सर्वथा संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है… परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं को त्याग, किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर की भांति अहंनिष्ठ व्यक्ति भी अपने ही बोझ से डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है।

‘विद्या ददाति विनयम्’ अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा, त्याग आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। परंतु यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा उस स्थिति तक पहुंचने के लिए वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी भाव-दशा में अनुभव नहीं करता; उनके सुख-दु:ख में अपनत्व भाव व आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता; साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है; कल्पनातीत है।

आजकल समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान अपने अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से नेत्र मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहों पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि चंद सिरफिरे अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?

परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रूतबा चाहिए, वाहवाही सबकी ज़रूरत है; जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को प्रतीक्षारत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उन आक़ाओं का वरद्-हस्त नये लेखकों पर होता है। सो! उन्हें फर्श से अर्श पर आने में समय लगता ही नहीं। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। सो! पुस्तक के लोकार्पण करवाने की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्व-विद्यालयों द्वारा पीएच•डी• व डी•लिट्• की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर उन्हें धूल चटा सकते हैं; नीचा दिखा सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी ग़लती कभी स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी ग़लती नहीं स्वीकारते, किसी को अपना कहां मानेंगे? सो! ऐसे लोगों से सावधान रहने में ही सब का हित है।

जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है; कुछ लेकर अथवा प्राप्त करने के पश्चात् ही जीवन में पदार्पण करता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाह में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व स्थायी संतोष प्राप्त नहीं हो सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए; परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: सत्य व हक़ीक़त के उजागर हो जाने के पश्चात् आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।

‘सत्य कभी दावा नहीं करता कि मैं सत्य हूं और झूठ सदा शेखी बघारता हुआ कहता है कि ‘मैं ही सत्य हूं। परंतु एक अंतराल के पश्चात् सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव मौन रह कर आत्मावलोकन कीजिए और तभी बोलिए; जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए; मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लेखन कीजिए…सब के दु:ख-दर्द की अनुभूति कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए…यही ज़िंदगी का सार है; जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए …इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता… सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नयी शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ ख़ुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 620 ⇒ पहलवान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पहलवान।)

?अभी अभी # 620 ⇒ पहलवान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहलवान धनवान भले ही ना होता हो, बलवान ज़रूर होता है। बिना पहल किए, कोई पहलवान नहीं बन सकता। वर्जिश और मालिश ही एक इंसान को पहलवान बनाती है। बाहर भले ही वह एक साधारण इंसान नजर आता हो, अखाड़े में वह भगवान होता है। जहां स्वर्ग है वहां भगवान है। जहां अखाड़ा है, वहां पहलवान है।

एक बार धनवान बनना आसान है, लेकिन पहलवान नहीं ! एक लॉटरी का टिकट, बाप दादा की वसीयत अथवा चार चार ऑप्शन, लाइफ लाइन और भाग्य के भरोसे, आप के बी सी के करोड़पति भी भले ही बन जाएं, लेकिन पहलवान बनने के लिए आपको कस कर कसरत तो करनी ही पड़ती है। किसी उस्ताद को गुरु बनाना पड़ता है, गंडा बांधना पड़ता है, अखाड़े की मिट्टी को सर से लगाना पड़ता है। बदन को तेल पिलाना पड़ता है, दंड बैठक लगानी पड़ती है।।

केवल रुस्तमे हिंद दारासिंह एक ऐसे पहलवान निकले जिन्होंने अभिनय के क्षेत्र में भी अपने दांव आजमाए। मुमताज जैसी अभिनेत्री के पर्दे पर नायक बने। कुछ भक्तों को जब हनुमान जी दर्शन देते हैं तो बिल्कुल दारासिंह नजर आते हैं और अरुण गोविल, प्रभु श्रीराम।

अखाड़े में राजनीति के दांव पेंच काम नहीं आते। पहलवानों की कुश्ती में राजनीतिज्ञों की तरह कसम, वादे और नारों से काम नहीं बनता। यहां जनता को मोहरा नहीं बनाया जाता। यहां दर्शक सिर्फ आपका हौंसला बढ़ाते हैं, ज़ोर आजमाइश तो आपको ही करनी पड़ती है। वोट की भीख, और जोड़ तोड़ से कुश्ती नहीं जीती जाती, यहां दांव लगाए जाते हैं, सामने वाले के पेंच ढीले किए जाते है। कुश्ती का फैसला अखाड़े में ही होता है, इसका कोई एक्जिट पोल नहीं होता।

राजनीति की तरह अखाड़े में भी झंडा और डंडा होता है। लेकिन झंडा अखाड़े की पताका होता है, उस्ताद के नाम से अखाड़े का नाम होता है। डमरू उस्ताद, छोगालाल उस्ताद, रुस्तम सिंह, चंदन गुरु और झंडा सिंह की व्यायामशालाएं होती हैं, जहां किसी गुरुकुल की तरह ही पहलवानी की शिक्षा दीक्षा प्रदान की जाती है।।

पहलवान कभी घुटने नहीं टेकते। लेकिन यह भी सच है कि उम्र के साथ साथ जैसे जैसे वर्जिश कम होती जाती है, घुटने जवाब देने लग जाते है। कहा जाता है कि पहलवान का दिमाग घुटने में होता है लेकिन किसी भी रेडियोलॉजिकल जांच में इसका कोई प्रमाण आज तक उपलब्ध नहीं हो पाया है इसलिए किसी पहलवान के सामने ऐसी बे सिर पैर की बातें नहीं करनी, चाहिए, अन्यथा आपका दिमाग और घुटना एक होने का अंदेशा ज़रूर हो सकता है। वैसे भी राजनीतिज्ञों की तरह सातवें आसमान में रखने से अच्छा है, दिमाग को घुटने में ही रखा जाए। पांच साल में एक बार तो ये नेता भी जनता के सामने घुटनों के बल चलकर ही आते हैं।

कुछ पहलवान मालिश से हड्डी और मांसपेशियों के दर्द का इलाज भी करते हैं। इनका तेल, मलहम और सधी हुई उंगलियों की मालिश से मरीज को फायदा भी होता है। आम आदमी जो महंगे इलाज नहीं करवा पाता, इनकी ही शरण में जाता है। जहां दर्द से छुटकारा मिले, वही तो दवाखाना है।।

अब कहां वे अखाड़े और कहां वे पहलवान। लेकिन कुश्तियां फिर भी ज़िंदा हैं। आज की पीढ़ी भले ही जिम जाकर सिक्स पेक तैयार कर ले, ओलंपिक में तो आज भी पहलवानों का ही राज है। हो जाए इस बात पर इस गुलाबी ठंड में थोड़ी दंड बैठक..!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 234 ☆ उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे…… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 234 ☆ 

☆ उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे

साथ में जब आपका, विश्वास मिलने लग गया।

आसरा उम्मीद वाला, भाव हिय में जग गया। ।

नेह का बंधन अनोखा, जुड़ गए जिससे सभी।

प्रीत की चलना डगर पर, भावनाएँ शुभ तभी। ।

कर्म का फल अवश्य सम्भावी है, ये बात गीता में कही गयी है। और इसी से प्रेरित हो लोग निरन्तर कर्म में जुटे रहते हैं, बिना फल की आशा किए। कोई उम्मीद न रखना   तो सही है किन्तु इसका परिणाम क्या होगा ये चिन्तन न करना कहाँ की समझदारी होगी।

अक्सर लोग ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि मैंने तो सब कुछ सही किया था, पर  लोगों का सहयोग नहीं मिला  जिससे सुखद परिणाम  नहीं आ सके। क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए कि लोग क्यों  कुछ  दिनों में ही दूर हो जाते हैं …? क्या सभी स्वार्थी हैं या जिस इच्छा से वे जुड़े  वो  पूरी नहीं हो  सकती इसलिए मार्ग बदलना  एकमात्र उपाय बचता है।

कारण चाहे कुछ भी हो पर इतना तो निश्चित है कि सही योजना द्वारा ही लक्ष्य मिला है केवल परिश्रम किसी परिणाम को सुखद  नहीं बना सकता उसके लिए सही राह,श्रेष्ठ विचार व नेहिल भावना की महती आवश्यकता होती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 339 ☆ आलेख – “महिलाओ में है नव निर्माण की ताकत…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 339 ☆

?  आलेख – महिलाओ में है नव निर्माण की ताकत…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है.

समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं महत्वपूर्ण है.

समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी, ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी समाज के महाप्रासाद की अविचल निर्माता है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा के साथ शक्ति और चातुर्य का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं एक साथ समग्रता में समाहित करने से शक्ति स्वरूपा दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा और प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है, रणभूमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करने में सक्षम रहेंगी.

कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 619 ⇒ सबक ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सबक।)

?अभी अभी # 619 ⇒  सबक ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 सीखने और सिखाने को सबक कहते हैं ! बच्चे बहुत ज़ल्दी सीखते हैं। बचपन में स्कूल में जो भी सबक दिया जाता है, उसे उन्हें सीखना पड़ता है। अगर सबक ठीक से याद नहीं हुआ, तो गुरु जी को सबक सिखाना भी आता है। पढ़ा हुआ सबक भले ही हम बड़े होकर भूल जाएं, लेकिन वह सबक ज़रूर याद रहता है, जिसमें बेंत से हथेलियां गर्म हो जाया करती थीं, और मुर्गा बनाकर पीठ पर डस्टर रख दिया जाता था।

सबक को पाठ भी कहते हैं ! पाठशाला शब्द भी पाठ से ही बना है। वैसे बच्चे की पहली पाठशाला तो उसकी माँ ही होती है। माँ सा प्यार देने वाली माँ मासी कहलाती है और मदर-सा पाठ पढ़ाने वाली संस्था मदरसा कहलाती है। काश ! सभी मदरसों में मदर-सा पाठ पढ़ाया जाता, तो किसी भी कौम को सबक सिखलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।।

जो सबक हमारे लिए सबक है, एक पाठ है, वही अंग्रेज़ी का lesson है। आज की पीढ़ी सबक याद नहीं करती, पाठ नहीं पढ़ती, वह lesson याद करती है। अगर lesson याद नहीं होता, तो कांवेंटी मेम बच्चे को उनकी भाषा में punish करती है, कुछ इस तरह – I will teach you a lesson. और बालक वह lesson ज़िन्दगी भर नहीं भूलता।

सबक ठीक से याद करने से ज़िन्दगी बन जाती है। जो सबक इंसान अपनी ज़िंदगी में सीखता है, वही सबक वह दूसरों को सिखाता है। गुरु-शिष्य संबंध भी सीखने सिखाने का ही रिश्ता है।

अगर अपना भविष्य उज्जवल बनाना है तो पाठशाला और मदरसे से कुछ नहीं होता, कोचिंग संस्थान की शरण भी लेनी पड़ती है।।

आश्चर्य तो तब होता है, जब ज़िन्दगी के सभी सबक एक तरफ हो जाते हैं, और सास दाँतों तले उंगली दबा कहती है – बहू ने न जाने कैसी पट्टी पढ़ा दी है कि बबलू हाथ से ही निकल गया। फ़िल्मी भाषा में शायद इसे ही प्यार का सबक कहते हैं।

कितनी विचित्र बात है ! हमारे समय में सबक की शुरुआत पट्टी से ही होती थी। एक पट्टी पेम ही हमारा बस्ता होता था। जो अक्षर और अंक हमने बचपन में पट्टी पर लिख लिखकर सीख लिए, उससे ज़िन्दगी की एक इबारत बन गई। या तो ज़िन्दगी का गणित सुलझ गया या उलझ गया। किसी ने एक शब्द प्यार सीख लिया तो वह मसीहा बन गया और किसी ने अगर ज़िहाद सीख लिया तो वह आतंकी बन गया।।

अच्छा सबक ज़िन्दगी देता है, ज़िन्दगी बनाता है। जो हमें एक नेक इंसान बनाये, वही शिक्षा ! अगर हर पढ़ा लिखा इंसान नेक बन जाता तो क्या आज संसार में अमन चैन नहीं होता ? दुर्योधन, कंस, रावण, हिटलर और लादेन को ऐसी क्या घुट्टी पिलाई गई कि वे मानवता के लिए कलंक साबित हुए।

एक समझदार कौम वही, जो ग़लतियों से सबक ले ! किसी एक हैवान के जुनून से बर्बाद जापान जैसे देश ने दुनिया को जतला दिया कि दृढ़ संकल्प, परिश्रम, निष्ठा और देश के प्रति समर्पण से कितना ऊपर उठा जा सकता है। हमें किसी से सबक सीखना भी है, और किसी को सबक सिखलाना भी है। यह संसार वाकई एक पाठशाला है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 618 ⇒ गया और बोधगया ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गया और बोधगया ।)

?अभी अभी # 618 ⇒  गया और बोधगया ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं कभी गया नहीं गया, बोधगया नहीं गया। सुना है दोनों जगह ऐसी हैं, जहां मुक्ति मिलती है।

जो चला गया, उसे भी और जिसे जीवन का बोध हो गया, उसे भी। जिसे बोध हो गया, वह बुद्ध हो गया। इसी स्थान पर बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी, वह बोधिवृक्ष यहीं है।

आखिर यह कैसा बोध है जो बोधगया में ही होता है। आप चाहें तो इसे आत्मबोध कहें, आत्म साक्षात्कार कहें, सेल्फ रियलाइजेशन कहें, यह होता तो हमारे अंदर ही है। यह बोधिवृक्ष भी हमारे अंदर ही है। अंदर की खोज के लिए बाहर का आलंबन तो लेना ही पड़ता है। चारों धाम की यात्रा अंतर्यात्रा के बिना कभी पूरी नहीं होती।।

मैं इतना अभागा, कभी प्रयागराज भी नहीं गया। गया हो या बोधगया, बद्रीनाथ धाम हो या हर की पेढ़ी, मुक्ति का द्वार तो गंगा ही है और गंगा, जमना और सरस्वती, तीनों नदियों का संगम भी प्रयागराज ही में है। हो गया न महाकुंभ। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की प्रतीक ही तो हैं ये तीनों नदियां। जिसमें सरस्वती यानी वैराग्य तो लुप्त है। बिना वैराग्य के कहां मुक्ति। बुद्ध का वैराग्य ही बोधगया है।

हां मैं कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल जरूर गया हूं, कुछ समय के लिए ध्यानमग्न हो विवेकानंद भी बना, फिर वापस चला आया। काश विक्रमादित्य के सिंहासन की तरह बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से ही बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाए तो जीवन कितना आसान हो जाए। लेकिन यहां गुडविल नहीं, स्ट्रांग विल काम आती है। वैराग्य कोई जागीर नहीं, कि वसीयतनामे के जरिए चाहे जिसके नाम कर दी जाए।।

कबीर अक्सर ताने बाने की बात करते हैं, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की बात करते हैं। इड़ा, पिंगला को आप चाहें तो सूर्य चंद्र नाड़ी समझें अथवा प्रतीक रूप में ज्ञान और भक्ति रूपा गंगा जमना, लेकिन सुषुम्ना तो अदृश्य वही सुप्त नाड़ी है, जो वैराग्य रूपी सरस्वती नदी की प्रतीक है। तीनों का संगम ही महाकुंभ है जो इसी शरीर में सहस्रार है। जिसे अमृत कहा जाता है, वह वह मुक्ति है जो हमें जन्म मरण के बंधन से मुक्त करती है। देव असुर दोनों मूर्ख थे, जो मुक्त होने की अपेक्षा, स्वर्ग प्राप्ति के लिए, और अमर होने के लिए, अमृतपान करना चाहते थे।

कबीर को भी इसका बोध था और बुद्ध को भी। जीते जी जिसे इसका बोध हो गया, वह बुद्ध हो गया, अमर हो गया वर्ना लगाते रहो डुबकी ज्ञान और भक्ति की गंगा में, बिना वैराग्य भाव के, करते रहो अमृत पान। जब छूटेंगे प्रान, यहीं गया में ही होगा पिंड दान।।

काश मुक्ति इतनी आसान होती ! काशी मरणोन्मुक्ति। काशी में तो केवल प्राण त्यागने से ही मुक्ति मिल जाती है। इस कोरोना ने भी इस बार काशी में कई को मुक्त कराया। मैं मति का मारा तो कभी काशी भी नहीं गया। सोचता हूं, जीते जी ही एक बार काशी हो आऊं, प्रयागराज के संगम में स्नान करके बोधगया भी हो आऊं। मन में यह मलाल तो नहीं रहेगा, जीते जी मैं कहीं भी नहीं गया ; न गया, न बोधगया ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 617 ⇒ पाप का घड़ा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पाप का घड़ा ।)

?अभी अभी # 617 ⇒ पाप का घड़ा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पुण्य का कोई घड़ा नहीं होता। आप पुण्य संचित करते जाइए, उसका हिसाब चित्रगुप्त रखेंगे और स्वर्गवासी होने के बाद आपको स्वर्ग में प्रवेश देंगे। लेकिन पाप का ऐसा नहीं है, आप पाप करते जाइए, आपके पाप का घड़ा भरते जाएगा। यह घड़ा आपको कौन देता है, पता नहीं, लेकिन जो दुष्ट और पापी होते हैं, उनका ही पाप का घड़ा भरता है।

पाप की एक गठरी भी होती है जो पिछले कई जन्मों की होती है और हर जीव उसे अपने सर पर उठाए घूमा करता है, इस जन्म से उस जन्म तलक।

किसी ने कहा भी तो है ;

ले लो ले लो दुआएं

मां बाप की।

सर से उतरेगी

गठरी पाप की।।

पाप की तरह पुण्य भी एक जन्म से दूसरे जन्म तक ट्रांसफर होते रहते हैं। बड़े विचित्र हैं मिस्टर चित्रगुप्त। हम सब पिछले जन्मों के पाप और पुण्य को ही तो भोगते रहते हैं। इस जन्म के पाप पुण्य और उसमें शामिल होते रहते हैं। कभी देखी है किसी ने अपने पिछले कर्मों के पाप और पुण्य की बैलेंस शीट।।

लेकिन ईश्वर कितना दयालु है। गीता में भगवान कृष्ण शरणागत अर्जुन के समक्ष ऐलान कर देते हैं ;

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

18.66।

सभी जानते हैं, इसके अनुवाद की आवश्यकता नहीं, लेकिन समझने की अवश्य जरूरत है। तू अगर सभी धर्मों को त्याग शरणागत हो अगर कोई पाप करता भी है, तो मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। वैसे भी पाप और पुण्य दोनों ही मोक्ष के मार्ग अवरोधक हैं।

हम अगर यदा कदा दान दक्षिणा, यज्ञ हवन और तीर्थाटन करते रहे, गंगा स्नान कर पाप धोते रहे, तो हमारा पाप का घड़ा तो भरने से रहा। फिर हम प्रार्थना, प्रायश्चित, जप तप और पूजा पाठ भी तो करते रहते हैं। अगर जमा खर्च की तरह देखें, तो पाप की बनिस्बत पुण्य ही अधिक जमा होगा हमारे खाते में।।

कुंभ स्नान और गौ सेवा के साथ साथ साधु संतों का संग और कथाओं का श्रवण हमारे रहे सहे पापों को भी नष्ट करने में सक्षम होता है, अर्थात् हमारे खाते में अब सिर्फ पुण्य ही बच रहता है।

अगर यही स्थिति आज हर सनातन हिन्दू की रहती है, तो मान लीजिए, हमें स्वर्ग नहीं जाना पड़ेगा, साक्षात् स्वर्ग ही इस धरा पर अवतरित हो जाएगा।

हो सकता है, हमें ऐरावत हाथी, पारस पत्थर, कल्पवृक्ष और कामधेनु भी उपलब्ध हो। घी दूध की नदियां तो वैसे भी बहेंगी ही, साथ में  मक्खन और पनीर की भी।।

उधर जो उग्रवादी, नास्तिक, विधर्मी, आदि हैं, उनके तो पाप के घड़े भरते ही जाएंगे और जब एक दिन उनके पाप का घड़ा फूटेगा, तो वे नर्क के भागी होंगे। जैसी करनी वैसी भरनी।

जो समझदार होते हैं, उन्हें तो केवल इशारा ही काफी होता है। आगे क्या कहूं, आप खुद समझदार हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 121 – देश-परदेश – अंक 144 की महत्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 121 ☆ देश-परदेश – अंक 144 की महत्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे यहां तो प्रत्येक अंक की महत्ता होती है।अंक 144 इस मामले में सर्वोपरि कहा जा सकता हैं। अस्सी के दशक से ये सुनते आ रहे थे, 144 धारा लग गई हैं। सावधान रहें।

पूर्व में घर के लिए बहुत सारे सामान दर्जन के हिसाब से क्रय किए जाते थे। जब पिताजी इस बाबत दादा श्री को हिसाब देते तो वो पूछते थे ? ग्रोस (Gross) का क्या भाव है, आरंभ में हमे समझ नहीं आता था, कि ये ग्रोस (Gross) क्या पैमाना है ? बारह दर्जन का ग्रोस (Gross) अर्थात संख्या 144 होता है।

हमारे यहां पवित्र स्नान भी 6 या 12 वर्ष पश्चात कुम्भ के माध्यम से होता हैं।इस बार का कुम्भ 144 वर्ष बाद हुआ, जिसको महाकुंभ कहते हैं। हमारे पूर्व की तीन पुश्तों को तो कभी ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हुआ था।

परिवार के सबसे उम्रदराज चाचा श्री नौ दशक से अधिक का जीवन काल व्यतीत कर चुके हैं। हमने उनसे इस बाबत पूछा क्या आपने कभी महाकुंभ के बारे में कुछ सुना था ?

उन्होंने याददाश्त के सभी घोड़े खोल कर कुछ समय में बताया कि उन्होंने भी अपने दादा श्री से ही सुना भर था।

हमारा परिवार उस समय देश के अविभाजित उत्तर पश्चिम में निवास करता था। वहां से प्रयागराज करीब पंद्रह सौ से अधिक मील की दूरी पर है। यातायात का एक मात्र साधन घोड़े ही हुआ करते थे।

परिवार से चार पुरुष घोड़े से दिवाली के बाद प्रयागराज गए थे, वापसी बैसाख में हुई, चारों घोड़े तो वापस आ गए थे, लेकिन एक सवार कम था। मार्ग में जंगली जानवर के शिकार हो गए थे।

उनके आगमन पर आसपास के गांवों में बहुत सम्मान भी मिला था। लोग दूर दूर से उनके दर्शन के लिए भी आए, क्योंकि उस समय में वो महाकुंभ (144 वर्ष पूर्व) स्नान कर वापिस जो आए थे। इस से ये माना जा सकता हैं, कि इस बार का कुंभ 144 वर्ष बाद महाकुंभ के रूप में था।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 279 – साक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 279 ☆ साक्षर… ?

बालकनी से देख रहा हूँ कि सड़क पार खड़े,  हरी पत्तियों से लकदक  पेड़ पर कुछ पीली पत्तियाँ भी हैं। इस पीलेपन से हरे की आभा में उठाव आ गया है,  पेड़ की छवि में समग्रता का भाव आ गया है।

रंगसिद्धांत के अनुसार नीला और पीला मिलकर बनता है हरा..। वनस्पतिशास्त्र बताता है कि हरा रंग अमूनन युवा और युवतर पत्तियों का होता है। पकी हुई पत्तियों का रंग सामान्यत: पीला होता है। नवजात पत्तियों के हरेपन में पीले की मात्रा अधिक होती है।  

पीले और हरे से बना दृश्य मोहक है। परिवार में युवा और बुजुर्ग की रंगछटा भी इसी भूमिका की वाहक होती है। एक के बिना दूसरे की आभा फीकी पड़ने लगती है। अतीत के बिना वर्तमान शोभता नहीं और भविष्य तो होता ही नहीं। नवजात हरे में अधिक पीलापन बचपन और बुढ़ापा के बीच अनन्य सूत्र दर्शाता है। इस सूत्र पर अपनी कविता स्मरण हो आती है-

पुराने पत्तों पर नयी ओस उतरती है,

अतीत का चक्र वर्तमान में ढलता है,

सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,

अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।

प्रकृति पग-पग पर जीवन के सूत्र पढ़ाती है। हम  देखते तो हैं पर बाँचते नहीं। जो प्रकृति के सूत्र  बाँच सका, विश्वास करना वही अपने समय का सबसे बड़ा साक्षर और साधक भी हुआ।

© संजय भारद्वाज 

अपराह्न 3:26 बजे, 12.9.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 बुधवार 26 फरवरी को श्री शिव महापुराण का पारायण कल सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 616 ⇒ गीतकार इन्दीवर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 616 ⇒  गीतकार इन्दीवर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक संस्कारी बहू की तरह, मैंने जीवन में कभी आम आदमी की दहलीज लांघने की कोशिश ही नहीं की। बड़ी बड़ी उपलब्धियों की जगह, छोटे छोटे सुखों को ही तरजीह दी। कुछ बनना चाहा होता, तो शायद बन भी गया होता, लेकिन बस, कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे

गीतकार इन्दीवर से भी मुंबई में अचानक ही एक सौजन्य भेंट हो गई, वह भी तब, जब उनके गीत लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे। मैं तब भी वही था, जो आज हूं। यानी परिचय के नाम पर आज भी, मेरे नाम के आगे, फुल स्टॉप के अलावा कुछ नहीं है। कभी कैमरे को हाथ लगाया नहीं, जिस भी आम और खास व्यक्ति से मिले, उसके कभी डायरी नोट्स बनाए नहीं। यानी जीवन में ना तो कभी झोला छाप पत्रकार ही बन पाया और न ही कोई कवि अथवा साहित्यकार।।

सन् 1975 में एक मित्र के साथ मुंबई जाने का अवसर मिला। उसकी एक परिचित बंगाली मित्र मुंबई की कुछ फिल्मी हस्तियों को जानती थी।

तब कहां सबके पास मोबाइल अथवा कैमरे होते थे। ऋषिकेश मुखर्जी से फोन पर संपर्क नहीं हो पाया, तो इन्दीवर जी से बांद्रा में संपर्क साधा गया। वे उपलब्ध थे। तुरंत टैक्सी कर बॉम्बे सेंट्रल से हम बांद्रा, उनके निवास पर पहुंच गए।

वे एक उस्ताद जी और महिला मित्र के साथ बैठे हुए थे, हमें देखते ही, उस्ताद जी और महिला उठकर अंदर चले गए। मियां की तोड़ी चल रही थी, इन्दीवर जी ने स्पष्ट किया। बड़ी आत्मीयता और सहजता से बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कविता अथवा शायरी में शुरू से ही हमारा हाथ तंग है। उनके कुछ फिल्मी गीतों के जिक्र के बाद जब हमारी बारी आई तो हमने अंग्रेजी कविता का राग अलाप दिया। लेकिन इन्दीवर जी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उन्हें अंग्रेजी साहित्य का इतना इल्म नहीं है। हमने उन्हें प्रभावित करने के लिए मोहन राकेश जैसे लेखकों के नाम गिनाना शुरू कर दिए, लेकिन वहां भी हमारी दाल नहीं गली।।

थक हारकर हमने उन्हें Ben Jonson की एक चार पंक्तियों की कविता ही सुना दी। कविता कुछ ऐसी थी ;

Drink to me with thine eyes;

And I will pledge with mine.

Or leave a kiss but in the cup

And I will not look for wine…

इन्दीवर जी ने ध्यान से कविता सुनी। कविता उन्हें बहुत पसंद आई। वे बोले, एक मिनिट रुकिए। वे उठे और अपनी डायरी और पेन लेकर आए और पूरी कविता उन्होंने डायरी में उतार ली।

इतने में एक व्यक्ति ने आकर उनके कान में कुछ कहा। हम समझ गए, हमारा समय अब समाप्त होता है। चाय नाश्ते का दौर भी समाप्ति पर ही था। हमने इजाजत चाही लेकिन उन्होंने इजाजत देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई और बड़ी गर्मजोशी से हमें विदा किया।।

इसे संयोग ही कहेंगे कि उस वक्त उनकी एक फिल्म पारस का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। मुकेश और लता के इस गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे ;

तेरे होठों के दो फूल प्यारे प्यारे

मेरी प्यार के बहारों के नजारे

अब मुझे चमन से क्या लेना, क्या लेना।।

एक कवि हृदय ही शब्दों और भावों की सुंदरता को इस तरह प्रकट कर सकता है। ये कवि इन्दीवर ही तो थे, जिनके गीतों को जगजीत सिंह ने होठों से छुआ था, और अमर कर दिया था।

सदाबहार लोकप्रिय कवि इन्दीवर जी और जगजीत सिंह दोनों ही आज हमारे बीच नहीं हैं। हाल ही में पंकज उधास का इस तरह जाना भी मन को उदास और दुखी कर गया है ;

जाने कहां चले जाते हैं

दुनिया से जाने वाले।

कैसे ढूंढे कोई उनको

नहीं कदमों के निशां

दुनिया से जाने वाले …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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