सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-6 – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 6
भड़पुरा से झाँसीघाट
रात्रि विश्राम हमने भडपुरा स्थित कुटी में किया। कुटी की देखभाल एक बूढ़ी माँ माँग-ताँग कर करती है। वह आश्रम किसी बड़े किसान ने इस शर्त पर बनवा दिया था कि परिक्रमा करने वालों को भोजन मिलना चाहिए। वे वैरागी हैं, उसका बेटा नवरात्रि में दुर्गा जी की मूर्ति का पंडा बना था। वहीं झाँकी के पंडाल में रहता था। सुबह नहाने धोने भर को घर आता था। उसे ख़बर लगी तो वह देखने आया। बातचीत करके संतुष्ट हो कर चला गया। उसकी बीबी को छः लोगों के लिए रोटी सब्ज़ी बनाना था तो उसका मूड ख़राब होने से वातावरण ठीक नहीं रहा। हमने खाना बनाने में मदद की पेशकश की, जिसे निष्ठुरता से ठुकरा दिया गया। उसका 12 साल का लड़का बहुत बातूनी था। उसी के मार्फ़त बातचीत चलती रही। अंत में अपनी घरेलू चार रोटियों के बराबर एक टिक्कड नमक मिर्च में  बनी आलू की सब्ज़ी के साथ एक गोल थाली में आए जैसे भीम अपनी गदा के साथ रथ में चला आ रहा हो। किसी ने दो किसी ने तीन और किसी ने चार खाए। सच हैं स्वाद भोजन में नहीं भूख में होता है। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात। यहाँ तो न खाट थी और न भात परंतु नर्मदा जी का किनारा था। बाहर निकल कर नर्मदा की ओर देखा वह शांत होकर हँसिया खिले चाँद की रोशनी में निंद्रामग्न थी। लहरों की झिलमिल जो दिन में नज़र आती है वह नदारत थी।
वर्षो बाद जमीन पर और कुछ लोगों ने शायद जीवन में पहली बार गद्दे के बिना सोने का प्रयास शुरू हुआ। बिस्तर तीन तरफ़ से खुली दहलान में लगाए गए। सबसे पहले तो मच्छरों का हमला हुआ लड़के ने कचरा जलाकर धुआँ करके उनसे छुटकारा दिलाया। उसके बाद मुंशीलाल जी के पास एक कुतिया आकर सो गई। उसे डंडे से भगाया। सोने की कोशिश की तो बरगद के पेड़ पर तेज़ हलचल होने लगी। जैसे भूतों का डेरा हो। उठकर देखा तो चमगादड़ का एक झुंड बरगद के फलों को खा रहा था। फलों के टुकड़े पट-पट नीचे गिर रहे थे। एकाध घंटा चमगादड़ देखते रहे। फिर सोने की कोशिश की तो सिर के पास कुछ आवाज़ आई। हाथ फेरा तो एक मेंढक पकड़ में आया उसे दूर फेंक दिया। सब डर गए कि मेंढक की खोज में साँप वहाँ आ सकता है। हमने सोचा छोड़ो यार शंकर भगवान गले में डाले रहते हैं। अब आएगा सो आएगा। 90% सांप ज़हरीले नहीं होते हैं और फिर जैसे हम सांप से डरते हैं उसी प्रकार वे भी आदमी से डरते हैं। अरुण दनायक जी अपनी डायरी लिखने बैठ गए। लोग पहले पानी पीते फिर पेशाब जाते रात गुज़रने की राह देखते रहे। देर रात एक झपकी लगी और सवेरा हो गया। कहीं कोई पाखाना नहीं था। खुले में हल्के हुए। कुटी की गाय का एक-एक गिलास कच्चा दूध पिया। उनको तीन सौ रुपए दान स्वरूप दिए और चल पड़े।
हम पाँचों फिर चले और बीहड डांगर, नाले पार करते हम भीकमपुर पहुँचे। ऊँची घास से रास्ता नहीं सूझता था। एक भी गलत कदम कम से कम बीस फुट नींचे गिरा सकता था। और हुआ भी यही एक जगह रास्ते की खोज में  दनायक जी गिरते गिरते बचे वापिस मुड उपर से मुंशीलाल पाटकार ने आवाज लगाई इधर आईये रास्ता यहाँ से है।
भडपुरा के हनुमान आश्रम  का तोता हमारे पहुँचते ही अपने सिर पर आकर बैठ गया। उतरने से साफ़ इंकार करता रहा। चिकनी चाँद उसे भा गई। तोता महाराज वीडियो के शौक़ीन थे।
जिस देश में गंगा बहती है का “है आग हमारे सीने मे हम आग से खेला करते हैं “ गीत पर ख़ूब नाचा ससुरा। विडियो बंद करो तो चोंच मारता था। फिर लगाया “चल उड़ जा रे पंछी ये देश हुआ बेगाना” मस्त हो गए तोता राम।
काफ़ी मान-मनुअ्अल के बाद अरूण दनायक भाई के सिर को भी उपकृत किया। एक और साथी की ज़िद पर महाराज वहाँ पहुँचे लेकिन टैक्स के रूप में काटकर ख़ून निकल दिया। उसे काजू दिए तो उसने कुतर कर छोड़ दिए। तोता खुले में रहता था उड़ता नहीं था। पता चला कि उसे गाँजा पीसकर खिलाया गया है इसलिए जब उसे तलफ की आदत हो है तो वह बाबाओं के पास रहता है।
धरती कछार पड़ा वहाँ के स्कूल में  दनायक जी ने बच्चों से मुलाकात में गांधी चर्चा की जिसने हमें आन्नदित किया कि गांधी जी की पहुँच समय और भौगोलिक स्थितियों की ग़ुलाम नहीं है। आंगनवाडी केन्द्र की ममता चढार की कर्तव्य परायणता से  प्रफुल्लित हुए। धरती कछार से गोपाल बर्मन को कोलिता दादा का बैग रखने को साथ ले लिया। उसने बातों-बातों में बताया कि लोग भाजपा से नाराज़ हैं। ग्रामीण समाज में भी लड़कियाँ खुल कर बिना झिझक सामने आने लगीं हैं और शादियों के लिए लड़कों को  निरस्त भी करने लगीं हैं। वहीं दूसरी ओर उनका यौन व्यवहार भी तेज़ी से बदल रहा है। बाय फ़्रेंड-गर्ल फ़्रेंड का कल्चर खेतों में या मेड पर विडीओ, वट्सएप, फ़ेस्बुक के माध्यम से से रहा है। ये मोबाइल क्रांति का असर है। अब लड़कियाँ को सेनेटरी पैड और विटामिन की गोलियाँ आंगनवाड़ी से प्रदान की जाती हैं।
आश्रम से चले तो आधा घण्टे में एक बड़े नाले से सबका सामना पड़ा। सौ फ़ुट चढ़ाई चढ़ कर फिर नीचे उतर नाला पार किया, फिर चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचे तो पहाड़ी के सामने एक और नाला दिखा। भूगोल का दिमाग़ लगाया तो देखा कि एक ही नाला सांप की कुंडली की तरह चारों तरफ़ घुमा हुआ है। चार-पाँच बार पहाड़ियाँ चढ़-उतर कर नाला पार करना होगा लोगों का दम निकल जाएगा। निर्णय लिया कि दाहिनी तरफ़ नर्मदा में उतर जाएँ वहाँ से किनारे-किनारे झाँसीघाट की तरफ़ बढ़ेंगे। आगे बढ़े तो एक सौ फ़ुट ऊँची खाई का मुँह नाले में खुल रहा था। वह नाला नर्मदा में मिल रहा था। उतरने को कहीं कोई रास्ता नहीं था। सुरेश पटवा और कोलिता दादा आगे थे बाक़ी तीन पीछे भटक गए। कोलिता दादा को पीछे करके सुरेश पटवा बैठ कर सौ फ़ुट खाई में स्कीइंग करके नाले के किनारे से नर्मदा की गोद में पहुँच गए। उन्होंने कोलिता दादा को भी इसी तरह स्कीइंग करके उतारा। तब तक बाक़ी लोग ऊपर आ गए थे वे चिल्ला रहे थे कि रास्ता कहाँ है। उनको तरीक़ा बताया तो आगे बढ़ने को तैयार न थे। लेकिन कोई रास्ता था भी नहीं। आधे घंटे की मशक़्क़त के बाद सब लोग नीचे आ गए। वहाँ से विक्रमपुर का रेल पुल अब स्पस्ट दिख रहा था और झाँसीघाट का सड़क पुल धुंधला सा नज़र आ रहा था।
ग्वारीघाट से लगभग पचास किमी दूर जबलपुर और नरसिंहपुर की सीमा पर स्थित भीकमपुर गाँव है। नर्मदा दाहिनी तट की ओर शान्त सी बहती है उधर बाँए तट से सनेर अथाह जलराशि लिये आगे बढती है। ऐसा लगता है नर्मदा बडी विनम्रता से सनेर की भेंट की हुई जलराशि वैसे ही स्वीकारती है जैसे भिषुणी भिक्षा ग्रहण करती है और फिर अगले घाट की ओर चली जाती है। सनेर सदानीरा है,इसका जल स्वच्छ है और इसे लोग सनीर भी कहते हैं। सनेर नदी का उदगम सतपुडा के पहाड से होता है। इसका उदगम स्थल  लखनादौन जिला सिवनी स्थित नागटोरिया रय्यत है। यह बारहमासी नदी धनककडी, नागन देवरी, दरगडा, सूखाभारत आदि गावों से गुजरते हुये संगम स्थल भीकमपुर पहुँचती है। कोलूघाट तट पर सिवनी जिले के आदिवासियों का मेला भरता है तो संगम तट भीकमपुर में जबलपुर व नरसिंहपुर जिले के लोग शिवरात्रि आदि पर्वो पर एकत्रित होते हैं।
नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लिया फिर दो घंटे में विक्रमपुर के रेल्वे पुल के नीचे से निकल झाँसीघाट पहुँच गए। नहाया धोया नर्मदा जी को प्रणाम करके झोतेश्वर धर्मशाला पहुँचे।

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-5 – श्री सुरेश पटवा

 सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 5
बिजना घाट से भड़पुरा
सुबह जल्दी ही अगली यात्रा पर निकल लिए। पहले नदी के कछार में से ही चलते रहे। मुरकटिया घाट से नर्मदा का पहले बाई फिर दाई ओर मुडना देखा, उन दीर्घ चट्टानों को देखा जिन्हे नर्मदा मानो अपने साथ बहा कर लाई हो और फिर किनारे लगा दिया।हमें यहाँ नर्मदा का एक स्वरूप और दिखा बीच नदी पर स्थित गुफाओं का निर्माण मानो नर्मदा ने चट्टानो पर अपनी लहरिया छैनी हथौडी चलाकर छेद और गुफायें बना डाली हैं। आगे चले दुर्गम तो नहीं पर कठिन मार्ग कहीं नर्मदा के तीरे तीरे तो कहीं बीहड डांगर पार करते हम बढते रहे।
अचानक रास्ते में एक नाला आ गया। किसानों से पूछा तो उन्होंने ऊपर से नाला पार करने को बताया। हम सीधी चढ़ाई चढ़ने लगे। रास्ता बिलकुल भी नहीं था खेतों में  कँटीली झड़ियाँ थीं। एक कोने से हरी घास में से रास्ता टटोला तो मिल गया। नाला पार करके डाँगर के उतार-चढ़ाव से लोग भारी थकने लगे। नाले की ठंडाई में थोड़े आराम किया। आगे जाकर एक महाराज मिल गए।
उनसे चार पुरुषार्थ की चर्चा चल पड़ी। हिंदू धर्म में चार पुरुषार्थ की बड़ी महिमा गाई जाती है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कोई भी मनुष्य जब कोई काम करता है तो इनमे से किसी एक या एकाधिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से कर्म करता है। एक साधु से जब हमने इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि वे तो सब छोड़ चुके हैं। हरि ओम्।
हमने पूछा कि आदमी प्रकृतिजन्य चीज़ों जैसे भोजन करना, साँस लेना और निस्तार करना छोड़ सकता है क्या?
वे बोले प्रकृतिजन्य चीज़ें कभी छूटती हैं क्या? ये तो ज़िंदगी के साथ ही छूटेंगीं, बच्चा।
हमने कहा कि चार पुरुषार्थ में अर्थ, धर्म और मोक्ष मानव निर्मित अवधारणा या सिद्धांत हैं जबकि काम प्रकृतिजन्य है, उसकी माया जीव जंतु पेड़ पौधों सब में दिखती है। उसे अनंग याने  बिना अंग का भी कहा गया है। वह पकड़ में ही नहीं आता तो कैसे छूट सकता है? वे बग़लें झाँकने लगे, कुछ सोचते रहे। फिर बोले सब भगवान की माया है। माया ही तो नहीं छूटती। बड़ी हठीली होती है।
हम अर्थ पर आ गए। पूछा अर्थ छूटता है क्या? वे सचेत हो चुके थे, वे मौन सोचते रहे। फिर पूछा हमारा अर्थ से क्या आशय है।
हमने कहा धन जिससे हम ख़रीदारी करते हैं। धन कमाया जाय या दान में मिले उसकी प्रकृति खरदीने की होती है। जहाँ ख़रीद-बेंच आई तो  व्यापार शुरू और व्यापार आया तो लालच तो आना ही है। लालच आया तो चैन गया। धन सारा सुख और आराम दिला सकता है। जैसे आपके आश्रम को चलायमान रखने के लिए धन की ज़रूरत होती है।
वे बोले बिना अर्थ के तो कुछ सम्भव ही नहीं है। काम और अर्थ का निपटारा करके हम धर्म और मोक्ष पर आए कि धर्म और मोक्ष कहीं परिभाषित नहीं हैं। धर्म वह है जिसे जीव धारण करता है अतः सबके धर्म अलग-अलग हुए फिर वे अलग धर्म सामूहिक रूप से सब लोगों पर एक से कैसे लागू हो सकते हैं। वे चुप रहे।
मोक्ष गूँगे का गुड बताया जाता है जिसे जीते जी मिला वह बता नहीं सकता कि मोक्ष की क्या प्रकृति है। जैसे महावीर या बुद्ध ने अपने मोक्ष को कभी नहीं बताया। मोक्ष कैसे मिलेगा यह बताया है। उनके शिष्यों ने बताया कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया। जिसे मरने पर मोक्ष मिला वह मोक्ष की प्रकृति बताने हेतु मरने के बाद वापस आ नहीं सकता।
हम अपरिभाषित मूल्यों के दिखावे में जीने वाले समाज हैं। कहते कुछ हैं, मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इसी को आडंबर या पाखण्ड कहते हैं। पश्चिमी सभ्यता के लोग काम और अर्थ को खुलकर जीते हैं। धर्म और मोक्ष से उन्हें कुछ मतलब नहीं है। इसलिए उन्हें कुछ छुपाना नहीं पड़ता है। हमारा समाज भी अब काम और अर्थ को जी भरकर जी रहा है। उपभोग से अर्थ व्यवस्था का विकास होता है। रोज़गार पैदा होते हैं।
साधु जी मुस्कराए और गले लगाकर पीछा छुड़ाया। चिलम को ब्रह्मान्ध्र तक खींच काम की प्राकृतिक महिमा और मानव जनित धर्म अर्थ और मोक्ष की अंतरधारा में विलीन हो गए। हम आगे की यात्रा पर निकल गए।
फिर नशा धर्म का या नशे का धर्म निभाते साधु मिले। आँखों के लाल डोरे उनके अफ़ीमची और गाँजे की चिलम खींचने की कहानी कह रहे थे। उन्होंने तुलसी जी की चौपाई सुनाई।
जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार
संत हंस गुण पय लहहिं छोड़ वारि विकार।
साधुओं से रुद्र शिव शंकर चर्चा और तत्व ज्ञान की मीमांसा पश्चात औघड़ बाबा के साथ गाँजा चिलम सुट्टा खींचा और आशीर्वाद का आदान प्रदान हुआ।
शाम को पाँच बजे भड़पुरा पहुँच गए।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-4 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 4
भेड़ाघाट से बिजना घाट
भेड़ाघाट से बिजना घाट की यात्रा सबसे लम्बी थकाऊ और उबाऊ थी। पहले हमने तय किया था कि रामघाट में रुककर रात गुज़ारेंगे। मंगल सिंह परिहार जी वहाँ से चार किलोमीटर आगे रास्ता देख रहे थे। सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। खजूर मूँगफली दाने और चने व पानी के दम पर खींचे जा रहे थे। चार घण्टे चल चुके थे। दोपहर में तेज़ धूप में चलने से शरीर का ग्लूकोस जल जाता है और हवा में ऑक्सिजन भी कम हो जाती है। मांसपेशियाँ जल्दी थकने लगतीं हैं और साँस फूलने लगती है। दो बजे के बाद सूर्य की रोशनी सामने से परेशान करने लगती है। ऐसे माहौल में नदी किनारे रास्ता भी  नहीं था। बर्मन लोगों ने नदी के कछार को हल चलाकर मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले में बदल दिया था। खाने पीने का कोई ठिकाना नहीं था। साथियों को बाटी-भर्ता का लालच देकर खींचे जा रहे थे, जबकि भोजन का कहीं कोई ठिकाना नहीं था। उधर दनायक जी को परिहार जी मोबाइल से जल्दी आने की कह रहे थे। सब थक कर चूर थे। ऐसे में दल को खींच कर आगे ले जाना ज़रूरी था।
15 अक्टूबर को मंगल सिंह परिहार के आश्रम नुमा फ़ार्म हाऊस में विश्राम का अवसर मिला। वे एक बहुत पुराने परिचित सहकर्मी रहे हैं। उन्होंने दिन के ग्यारह बजे से, जब हम भेड़ाघाट से चले ही थे,  तब से बिजना गाँव से नर्मदा पार करके मुरकटिया  घाट आकर मोबाईल से सम्पर्क साध कर हमारी स्थिति लेना शुरू कर दिया। वे हर आधा घंटे में दनायक जी को मोबाईल से सम्पर्क साध कर स्थिति पूछते जा रहे थे। कभी मोबाईल लगता था और कभी नहीं लगता था।
हम लोग रामघाट से सड़क छोड़ नर्मदा किनारे आ गए वहाँ से अत्यंत दुरुह यात्रा शुरू हुई। छोटी नदी, नाले, झरने, सघन हरियाली और ताज़े गोंडे गए खेतों की मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों के बीच से घुटनों और ऐडियों की परीक्षा का समय था क्योंकि कहीं भी समतल ज़मीन नहीं थी। आगे छोटी पहाड़ियों का जमघट एक के बाद एक घाटियाँ का सिलसिला जिनको स्थानीय बोली में ड़ांगर कहते हैं। चम्बल में जैसे बीहड़ होते हैं जिनमे कँटीले पेड़-पौधे होते हैं वैसे नर्मदा के आजु-बाजु ड़ांगर का साम्राज्य है उनके बीच से पानी झिर कर जंगली नालों को आकार देते हैं।  उनको पार करने के लिए ऊपर चढ़ाई चढ़ना फिर उतरना फिर चढ़ना। यात्रियों का दम निकलने लगता है। पसीने से तरबतर शरीर में पूरी साँस धौंकनी के साथ भरकर पहाड़ियों को पार करने के बीच में नर्मदा दर्शन से हिम्मत बनती टूटती रहती है।
चार बजे कुछ हाल-बेहाल और कुछ निढ़ाल-पस्त हालत में बिजना घाट के सामने वाले मरकूटिया घाट पर मंगल सिंघ परमार बिस्कुट और केले फल के साथ स्वागत आतुर मिले। वहाँ उनकी सिकमी ज़मीन थी। उसी पर खड़े थे। बैठने को कोई छायादार जगह नहीं थी। यात्री बिस्कुट और केलों को क्षणभर में चट कर गए। नाव से नर्मदा पार करके दूसरी पार उतरे वहाँ एक बर्मन दादा पूड़ी और खीर का भंडारा करा रहे थे। यात्रियों ने भंडारा खाया। ख़ूब पानी पिया तो कुम्लाए चेहरों की रंगत और ढीले शरीरों में जान लौटने लगी।
मंगल सिंह  परिहार ने प्राकृतिक छटाओं में बसा अपना आश्रम दिखाया। जिसमें पारिजात और रुद्राक्ष के वृक्ष लगे हैं। सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुंदर नज़र आता है। उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज नागौद रियासत के राजा रहे हैं। परमार, परिहार, बुंदेले और बघेल ये सब गहडवाल राजपूत हैं। परमारों ने महोबा, परिहारों ने नागौद, बुन्देलों ने छतरपुर और बघेलों ने रीवा रियासत स्थापित की थी। ये सब पहले अजमेर के पृथ्वीराज़ चौहान या कन्नौज के जयचंद राज्यों के सरदार थे। 1091-92 में मुहम्मद गोरी के हाथों अजमेर, दिल्ली और कन्नौज हारने के बाद इन्होंने इन राज्यों को स्थापित किया था। नागौद कभी स्वतंत्र राज्य और कभी रीवा के बघेलों का करद राज्य हुआ करता था। उसके उत्तर-पश्चिम में केन नदी का अत्यंत ऊपजाऊ कछारी भाग था लेकिन दक्षिण-पूर्व में पथरीली ज़मीन थी। अतः राजपूतों ने नर्मदा के कछारी मे बसने का निर्णय लिया था।
अंग्रेज़ों ने 1861 में जबलपुर को राजधानी बनाकर सेंट्रल प्रोविंस राज्य बनाया तो रीवा, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल रियासत छोड़कर मध्य प्रांत के नागौद  सहित बाक़ी सब इलाक़े उसमें रख दिए। तब ही नर्मदा घाटी का सर्वे करके जबलपुर की सीमा नर्मदा के उत्तर-दक्षिण में चरगवाँ-बरगी तक निर्धारित कर दी। परिहारों को ज़मींदारी में मगरमुहां का इलाक़ा दिया गया। कई परिहार सौ-सौ एकड़ के ज़मींदार बनकर आज के पाटन और शाहपुरा इलाक़े में आ बसे। उनमें मंगल सिंह परिहार के पूर्वज भी थे। मंगल सिंह के पिताजी मुल्लुसिंह परमार निरक्षर थे परंतु उन्होंने अपने आठ बेटों को पोस्ट-ग्रेजुएट कराया।
मंगल सिंह जी से देर रात तक बातें होतीं रहीं। वे हमें एक वेदान्ती साधु के दरबार में ले गए। हमसे कहा कि साधु जी वेदों के प्रकांड विद्वान हैं। आप उनसे गूढ़ प्रश्न कीजिए तब उनकी ज्ञान गंगा बहने लगेगी। हम लोग उनके दरबार मे पहुँचे पाँव-ज़ुहार होने के बाद बातचीत चली तो मौक़ा देखकर हमने एक सवाल का तीर चलाया कि हमारी जानने कि इच्छा है कि महाराज रुद्र और शिव का अंतर बताएँ तो बड़ी कृपा होगी। स्वामी जी ने थोड़ा इधर-उधर घुमाया। फिर विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि प्रश्न गूढ़ है और उनका ज्ञान वेदों तक ही सीमित है उन्होंने पुराण नहीं पढ़े हैं। वे नेपाल से नर्मदा की गोद में आकर बस गए हैं। नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। वापस आकर परिहार जी ने शिमला मिर्च की साग-रोटी और दाल-चावल का बढ़िया भोजन कराया। उसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। परिहार जी की बातें सुनते रहे। उनकी बातों के क्रम को बीच में बोलकर तोड़ना उनके रुतबे को कम करने जैसा होता है यह बात हम जानते थे परंतु अन्य लोगों को नहीं पता था। एक सहयात्री ने टोकने की कोशिश की तो  हमने उसे चुपके से समझा दिया कि भैया:-
बंभना जाय खाय पीय से
   क्षत्री जाय बतियाय
       लाला जाय लेय-देय से
           शूद्र जाय लतियाय।
इस बुंदेलखंड की कहावत को गाँठ बाँध लो और चुपचाप सुनो। सुबह दो-दो रोटियाँ तोड़कर आश्रम से फिर नर्मदा की गोद मे पहुँच गए। इस प्रकार 13,14 और 15 अक्टूबर की यात्रा पूरी हुई। यहाँ से हमारे एक और साथी प्रयास जोशी ने हमसे विदा ली।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-3 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 3
तिलवारा घाट से भेड़ाघाट 
15 तारीख़ को हम तिलवारा घाट से चलने को तैयार हुए तो पता चला कि पुल के किनारे से एक नाला गारद और कंपे से भरा होने के कारण दलदली हो गया है लिहाज़ा एक किलोमीटर ऊपर से नए घूँसोर, लमहेंटा,चरगवा, धरती कछार से एक रोड शाहपुरा निकल गई है। लम्हेंटा घाट पर शनि मंदिर से लगा ब्रह्म कुंड देखा। ऐसी मान्यता है कि जब कोई कोढ़ी मर जाता है तो उसके शव को ब्रह्मकुंड में सिरा देते हैं। वह सीधा पाताल लोक पहुँच जाता है।
शाम को चार बजे धुआँधार पहुँच गए। डूंडवारा से पसर कर बहने वाली नर्मदा अचानक लजा कर सिमट गई। उसका पानी सिमट कर गहरे खड्ड में तेज़ी से गिरने लगा तो वह छोटे कणों में बदलकर धुएँ की शक्ल में दिखने लग गया। यही जबलपुर की शान धुआँधार जलप्रपात है। अचानक यादों के फ़्लैश बैक में 1987 का चित्र घूम गया, जब सुरेश पटवा स्टेट बैंक भेड़ाघाट में शाखा प्रबंधक हुआ करते थे। दो साहूकार सुनील जैन और ब्रजकिशोर मूर्तियों के कुशल कारीगरों और नाविकों को दो-तीन रुपया प्रतिमाह सूद पर क़र्ज़ दिया करते थे याने 24-36 प्रतिशत वार्षिक का ब्याज वसूलते थे। जिसके लिए उन्होंने बैंक से लिमिट ले रखी थी। कारीगर और नाविक न तो बैंक से क़र्ज़ लेते थे न बैंक में रक़म जमा करते थे। बैंक का बट्टा बैठ रहा था।
वे दोनों अपनी लिमिट बढ़वाने बैंक आए तो उनसे पुरानी लिमिट का खाता बंद करके बढ़ी हुई लिमिट का नया खाता फ़र्म के नाम से खुलवाने को कहा गया। उन्होंने कारीगरों और नाविकों से रक़म वसूल कर खाते बंद कर दिए। उनके बढ़ी लिमिट के प्रस्ताव जबलपुर क्षेत्रीय कार्यालय भेज दिए गए। इस बीच 200 नाविकों और कारीगरों को दस-दस हज़ार के क़र्ज़ बाँटकर उनके बचत खाते भी खोल दिए गए। वे शोषण मुक्त हुए और बैंक लाभ कमाने लगा। दोनों साहूकारों को नई लिमिट दी और उनको मूर्तियों का स्टॉक रखने को ज़रूरी बताया। उन्होंने कारीगरों से मूर्तियाँ ख़रीदना शुरू कर दिया। इस प्रकार बैंक स्थानीय वित्तीय कारोबार का मध्यस्थ बन गया।
भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियों और कलाकारी के लिए मशहूर है। संगमरमर या सिर्फ मरमर (फारसी) संग-पत्थर, ए-का, मर्मर-मुलायम = मुलायम पत्थर।
यह एक कायांतरित शैल है, जो कि चूना पत्थर के कायांतरण का परिणाम है। यह अधिकतर कैलसाइट का बना होता है, जो कि कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) का स्फटिकीय रूप है। यह शिल्पकला के लिये निर्माण अवयव हेतु प्रयुक्त होता है। इसका नाम फारसी से निकला है, जिसका अर्थ है मुलायम चिकना पत्थर।
संगमरमर एक कायांतरित चट्टान है जिसका निर्माण अवसादी कार्बोनेट चट्टानों के क्षरण और कभी-कभी संपर्क कायांतरण के फलस्वरूप होता है। यह अवसादी कार्बोनेट चट्टानें चूना पत्थर या डोलोस्टोन, या फिर पुराना संगमरमर हो सकती है। कायांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान मूल चट्टान का पुनर्क्रिस्टलीकरण होता है। अवसादी निक्षेपों से संगमरमर बनने की इस प्रक्रिया में उच्च तापमान और दबाव के चलते मूल चट्टान मे उपस्थित किसी भी प्रकार के जीवाश्मिक अवशेष और चट्टान की मूल बनावट नष्ट हो जाती है। ये चट्टानें डूंडवारा से बगरई तक नर्मदा के आग़ोश में फैली हुई हैं। नर्मदा पहले धुआँधार के खड्ड में न गिरकर उसके दाहिनी तरफ़ से सीधे सरस्वती घाट पहुँचती थी। हज़ारों सालों से नर्मदा चट्टानों को काटती रही तब कहीं जाकर संगमरमर का स्वप्नलोक उजागर हुआ। जिसकी बन्दरकूदनी में राजकपूर ने नाव पर “चंदा एक बार जो उधर मुँह फेरे मैं तुझसे प्यार कर लूँगी, आँखें दो चार कर लूँगी” गीत को सेल्यूलाईड पर नर्गिस के साथ रचकर बॉलीवुड का इतिहास रच दिया। अब लाखों लोग उस सौंदर्य लोक को निहारने वहाँ जाते हैं।
बगरई कारीगरों का गाँव है। वहाँ कारीगरों के 250-300 गाँव हैं। चारों तरफ़ संगमरमर पत्थर की खदानें हैं। दस हज़ार रुपयों में एक ट्रॉली ख़रीद कर कटर, छेनी, वसूली और दांतेदार रगड़ से पत्थर को मूर्तियों की शक्ल में ढाल देते हैं। अधिकांश कारीगरों ने बैंकों से क़र्ज़ लिए थे वे सब ख़राब हो गए, उनका रिकार्ड बिगड़ने से उनको क़र्ज़ मिलना बंद हो गया। अब निजी माइक्रो फ़ाइनैन्स कम्पनी उन्हें 24% वार्षिक दर से क़र्ज़ उनके घर पर देते हैं और घर से ही वसूली करते हैं। बगरई गाँव में एक बसोड के घर रुक कर पानी पिया। अरुण दनायक जी ने उनसे लम्बी बातचीत की, उनके फ़ोटो उतारे। आगे रामघाट की तरफ़ चल दिए। तब पता नहीं था कि हमें बिजना घाट तक का सफ़र तय करना होगा।
पंचवटी तट स्थित नेपाली कोठी, जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था मेरे अरुण जी के सुधीर भाई ने की थी, वहीं रात्रि विश्राम किया। यहाँ से हमारे एक अन्य साथी अविनाश दवे भी बिछुड गये।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-2 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। ) 

नर्मदा परिक्रमा 2
ग्वारीघाट से तिलवारा घाट
ग्वारीघाट से चले दो घंटे हो चुके थे। तिलवारा घाट शाम तक पहुँचने का लक्ष्य था। तिलवारा घाट का पुल तीन किलोमीटर पहले से दिखने लगा था। उसे देखते ही लगा कि लो पहुँच गए तिलवारा घाट परंतु चलते-चलते पुल नज़दीक ही नहीं आ रहा था।
पुल के  दृश्य का पेनोरमा नज़ारा जैसा का तैसा बना था।
तभी सामने एक बड़ा चौड़ा पहाड़ी नाला रास्ता रोककर खड़ा हो गया। खेतों में काम कर रहे मल्लाहों से पूछा तो उन्होंने बताया कि दो किलोमीटर ऊपर चढ़कर नाला पार करके नागपुर रोड पर पहुँच कर तिलवारा घाट पहुँचा जा सकता है इसका मतलब हुआ चार किलोमीटर का चक्कर। सबके पसीने छूट गए।
टी पी चौधरी साहब सपत्नीक गेंदों की मालाओं, नारियल,फल और ढेर सारा प्यार व परकम्मावासियों के प्रति हृदय में सम्मान आस्था लेकर तिलवारा घाट पर खड़े थे। हमारी स्थिति लेते रहे थे।  मोबाइल से उनको निवेदन किया कि एक नाव घाट से भिजवा दें। इसके पहले कि वे घाट पर आएँ, एक नाविक को हम दिख गए और हमने भी तेज़ आवाज़ के साथ हाथ हिलाए। एक नाव में बैठकर तिलवारा घाट पर उतरे। चौधरी साहब ने बड़ी आत्मीयता और सम्मान से मालाओं को पहनाकर स्वागत किया और नारियल चीरोंजी अर्पित किया मानो हम देव हो गए हों। हमेशा की तरह हम उनके चरणस्पर्श करने को झुके तो उन्होंने हमें रोक दिया क्योंकि हम परिक्रमा वासी थे। भाभी जी अभिभूत थीं। उनका मातृवत प्रेम पूरी यात्रा हमारे साथ चला। सब लोग चौधरी दम्पत्ति के बारे में बतियाते रहे।
वैराग्य पर बातें करने लगे। घर, कपड़े, बिस्तर, पानी, खाना, पंखा, फ़र्निचर, गद्दे, गाड़ी, रुपया-पैसे, रिश्ते-नाते इन सब से परे भगवान भरोसे सिर्फ़ भगवान भरोसे। न रास्ते का पता, न खाने का पता, न ठिकाने का पता।
बस एक अवलंबन नर्मदा, जिसके भरोसे ईश्वर के रिश्ते की डोर आदमियत से बंधी है। बस वही बचाएगी, वही खिलाएगी, वही सुलाएगी।
सब कुछ तोड़कर और सब कुछ छोड़कर उसकी धारा में जाओगे तो वह पार लगाएगी। कर्मकांड से परे एक दीपक आस्था का। जूझो धूप से, पहाड़ से, पानी से, इंसानी नादानी से।
धौंकनी सा चलता दिल, पिघल कर पसीना होती देह और आत्मा में तारनहार के प्रति असीम आस्था की परीक्षा है नर्मदा यात्रा।
जिस घर के सामने पहुँचकर कंठ से  “नर्मदे हर” का अलख जगाया। उत्तर में हर-हर नर्मदे का स्वर घर के सभी सदस्यों की आवाज़ में एकसाथ गूंजा और सबसे बुज़ुर्ग सदस्य की आवाज़ सुनाई देती है बैठो साहब पानी पी लो, चाय पी लो, भोजन बना दें।
सिर्फ़ आदमियत का रिश्ता कि पूरी पृथ्वी के जीव एक ही ब्रह्म के अंश हैं। सब अन्योनाश्रित हैं। वसुधेव कुटुम्बकम। भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य, जो मानवता वादियों का सबसे बड़ा संबल है। धर्म का सच्चा रूप। दुनिया की आतंकवाद के विरुद्ध एकमात्र आशा।
अत्यावश्यक से परे न्यूनतम पर जीवन पर विचार हुआ। भूख, भोजन, यौनइच्छा और आराम ये चार चीज़ें मानुष और पशु को प्रकृति की अनिवार्य देन हैं क्योंकि जीवन का चक्र इन्हीं से गतिमान होता है। भूख है तो भोजन की तलाश है, शरीर की थकान से भरपेट भोजन मिला तो यौन इच्छा जागती है, जिसकी पूर्ति होते ही नींद की प्रगाढ़तावश आराम अनिवार्य हो जाता है।
छः दिन भूख, भोजन, यौनइच्छा से परे सुबह से शाम तक चलते-चलते चूर होने से भूख मिट गई, भोजन नहीं मिला तो यौनइच्छा लुप्त सी रही क्योंकि काम की जननी ऊर्जा का अंश देह में बचा ही नहीं।
यहाँ से प्रथम सह यात्री विनोद प्रजापति दमोह को वापिस चले गये, श्रीवर्धन नेमा व रवि भाटिया जबलपुर।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-1 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

श्री पटवा जी  ने नर्मदा परिक्रमा खंड-1 की यात्रा अपने परिक्रमा-दल के साथ पूर्ण  कर ली है। अब  हम साझा करेंगे उनकी  यात्रा का अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में ।) 

नर्मदा परिक्रमा-1
परिक्रमा दल 
नाम              उम्र  परिचय
बी सी कोलिता      91      सेवानिवृत्त फ़ौजी
जगमोहन अग्रवाल  71      सेवानिवृत बैंकर
प्रयास जोशी        66      सेवानिवृत बैंकर
अरुण दनायक      59      स.म.प्र. भारतीय स्टेट बैंक
श्रीवर्धन नेमा      59      सेवारत बैंकर
रवि भाटिया        63      सेवानिवृत्त बैंकर
विनोद प्रजापति    59      सेवारत बैंकर
अविनाश दवे      60      सेवारत बैंकर
मुंशीलाल पाटकर    59      वक़ील
सुरेश पटवा        67      सेवानिवृत्त बैंकर
नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण।
उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह –  1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल –  98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी
सनातन मान्यता
नर्मदा जी – वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी – ज्ञान की,
यमुना जी – भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा – तेज की,
गोदावरी – ऐश्वर्य की,
कृष्णा – कामना की और
सरस्वती जी – विवेक के प्रतिष्ठान की।
सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।
नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है। यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।
व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।
पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।
नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं जिनमें इस परिक्रमा के तौर-तरीकों और परिक्रमा मार्ग का विवरण विस्तार से मिलता है।
इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ’’सौंदर्य की नदी‘‘ नर्मदा तथा ’’अमृतस्य नर्मदा‘‘ नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है । श्री वेगड की ये दोनों पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं । यद्वपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बांध से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल एतिहासिक महत्व की ही रह गई है, परन्तु फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है । नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ’अमरकण्टक से अमरकण्टक तक‘ (2006) भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है ।
पतित पावनी नर्मदा की विलक्षणता यह भी है कि वह दक्षिण भारत के पठार की अन्य समस्त प्रमुख नदियों के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है । इसके अतिरिक्त केवल ताप्ती ही पश्चिम की ओर बहती है परन्तु एक वैज्ञानिक धारणा यह भी है कि करोडों वर्ष पहले ताप्ती भी नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र केकिनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं । कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं । नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और शंख तथा सीपों के जीवाश्मों की बडी संख्या में मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि यहां समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी । यहां मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खरे पानी के आस-पास उगने वाले पेड-पौधों के सम्मिलित होने से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि यह क्षेत्र करोडों वर्ष पूर्व भू-भाग के भीतर अरब सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था । नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था । यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी । कुछ विद्वानों का मत है कि धार जिले में बाघ की गुफाओं तक समुद्र लगा हुआ था और संभवतः यहां नर्मदा की खाडी का बंदरगाह रहा होगा।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-रेवा : नर्मदा -6 – श्री सुरेश पटवा

रेवा : नर्मदा – 6 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

लोग अक्सर नर्मदा को सतपुड़ा की बेटी कह देते हैं जो पूरी तरह सही नहीं है। भारत के भूगोल को जानने वाले समझते हैं कि विंध्याचल और सतपुड़ा दो पर्वत श्रेणियाँ मध्यभारत में पूर्व से पश्चिम की तरफ़ पसरी हुईं हैं। आज के रीवा संभाग में सीधी से एक पर्वत श्रंखला रीवा सतना पन्ना छतरपुर दमोह सागर रायसेन सिहोर देवास इंदौर झाबुआ होते हुए गुजरात निकल जाती है। वही विंध्याचल पर्वत शृंखला है। जिससे हिरन, टिंदोली, बारना, चंद्रकेशर, कानर, मान, उटी और हथनी, ये आठ नदियाँ आकर माँ नर्मदा में मिलतीं हैं।

 

 

रेवा कुंड अमरकण्टक

 

 

मैकल पर्वत से निकलकर नर्मदा के साथ सतपुड़ा की पर्वतश्रेणियाँ डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा से होकर गुज़रती है। इस तरफ़ से बरनार, बंजर, शेर, शक्कर, दूधी, तवा, कुंदी, देव और गोई, ये नौ नदियाँ नर्मदा में मिलतीं हैं।

इस प्रकार कुल 17 बड़ी नदियाँ नर्मदा को सही मायने में नर्मदा बनातीं हैं। हम पलकमती जैसी छोटी तो कई नदियाँ हैं जो सीधी माता के चरणों में विश्राम पाती हैं। सारी छोटी नदियों का जल ओंकारेश्वर में पहुँचकर ॐ के आकार में मिलकर एकसार होता है। थोड़े आगे एक जगह है बड़वाह के नज़दीक जहाँ भारत का एक अत्यंत प्रतिभाशाली सैन्य निपुण प्रशासक बाज़ीराव पेशवा पूना के चितपावन ब्राह्मणों के षड्यंत्रों के चलते अकाल मृत्यु का ग्रास बना था। वह अपने जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारा था परंतु घरेलू प्रपंचों से मस्तानी से दूर होकर ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश खो चुका था। वह ज़िंदा रहता तो शायद हिंदुस्तान अंग्रेज़ों का ग़ुलाम न हुआ होता। उसने दिल्ली को जीतकर मुग़ल बादशाह को सुरक्षा प्रदान की थी। शिवाजी के बाद वह ही प्रतिभाशाली व्यक्ति मराठा साम्राज्य में था जिसका नज़रिया अखिल भारतीय था जो कूटनीति, सैनिक और प्रशासनिक बारिकियाँ समझता था। बाक़ी सब मराठा सरदार स्वार्थपरता और क्षेत्रीयता की चाशनी में पगे हुए थे।

ओंकारेश्वर के संकुल में माँ नर्मदा ने हम बहनों को पहले रेवा फिर नर्मदा नाम से पुकारे जाने की कहानी सुनाई थी।

शब्द और नाम भी काल और परिस्थितियों के हिसाब से अर्थ ग्रहण करते और छोड़ते हैं। मुझे समझने के लिए आप लोग भाव और तत्व दोनो तरीक़े अपना सकते हैं। वैसे भाव भी तत्व में ही समा जाता हैं। जैसे आत्मा 1 है, तत्व 5 हैं, गुण 108 हैं। यहाँ जैसे ही 1, 5, 108 कहा तो भाव विलुप्त हो गया गणना आ गई। भाव गणनीय नहीं है, और तत्व खड़ा हो गया, विज्ञान आ गया, गौतम बुद्ध ने इसे ही विज्ञान कहा है। भाव को सहारा देने तर्क आ खड़ा हुआ। इसी विज्ञान पर महावीर और बुद्ध ने निरीश्वरवादी दर्शन खड़ा किया जो कि विश्व दर्शन की श्रेणी में आता है। सनातन विचारों की कोख से ही जैन और बौद्ध दर्शन आए हैं। सनातन की पराकाष्ठा महावीर और बुद्ध में परिलक्षित हुई है।

पहले भाव अभिव्यक्ति से रेवा और नर्मदा को समझें। भारत में किसी भी चीज़ का अस्तित्व अंततः भगवान विष्णु और शिव से जुड़ जाता है। गुप्त काल में रचित स्कन्द पुराण के रेवा खंड में वर्णित है कि विष्णु के कुल इक्कीस अवतार में से बीस अवतार के दौरान मानव हत्या के पाप से मुक्ति के लिए शिव के पसीने से राजा मैकल के घर में एक बारह वर्षीय कन्या उत्पन्न हुई। उसने वरदान माँगा कि उसका हरेक पत्थर शिवलिंग की मान्यता प्राप्त किया हो। उसे बिना किसी अनुष्ठान के शिव के रूप में पूजनीय माना गया। वह उछल कूद करते हुए सारी नदियों से उलटी दिशा में बह चली। 1312 किलोमीटर चलकर खम्बात की खाड़ी में जलधि में विलीन हो गई। उछल-कूद को रेवा भी कहा जाता है। वह डिंडोरी और मंडला जिले के पहाड़ी क्षेत्रों से उछल-कूद मचाते हुए गुज़रती है इसलिए उसे रेवा पुकारा गया। आज का रीवा उसी रेवा शब्द से बना है। अंग्रेज़ी में उसे आज भी Rewa लिखा जाता है। बघेलखंड के विंध्याचल पर्वत की एक श्रेणी मैकल भू-भाग से जो नदी निकलती थी वह पहले शहडोल जिले में था परंतु अब अनूपपुर जिले में आता है। वह सम्पूर्ण भू-भाग रेवा राज्य के नाम से जाना गया है। जिसमें रीवा सतना शहडोल उमरिया सीधी कटनी तक के इलाक़े आते थे। उसके परे दक्षिण में गोंडवाना लगता था। उत्तर में काशी और कारा राज्यों की सीमा थी।

इसमें एक बड़ा महत्वपूर्ण भाव छुपा हुआ है कि मानव धर्म सबसे बड़ा धर्म है। भले ही राक्षस ने मानवता के विरुद्ध काम किया हो और उसका वध करने के लिए विष्णु को अवतार लेकर मारना पड़ा हो लेकिन मानव हत्या का पाप भगवान विष्णु को भी लगा और उसकी मुक्ति की व्यवस्था सनातन दर्शन में रखी गई है। यह भाव ही मानवता के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है।

(कल आपसे साझा करेंगे श्री सुरेश पटवा जी एवं उनकी टीम की नर्मदा परिक्रमा (प्रथम खण्ड) की वास्तविक शुरुआत का प्रथम चरण )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व-5 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व-5

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

ऐतिहासिक तत्व दर्शन से भी नर्मदा को समझना उतना ही ज़रूरी है जितना भाव दृष्टि से है।

हिंदू दर्शन का काल निर्धारण इस तरह हुआ है कि सबसे पहले ईसा से दो हज़ार साल याने आज से चार हज़ार साल पहले चार वेदों की रचना पंजाब की पाँच नदियों व्यास सतलज झेलम रावी चिनाब और अफगानिस्तान की काबुल नदी लद्दाख़ से आती हुई सिन्ध में समाहित हो जाती हैं, उस क्षेत्र में हुई थी।

आज से तीन हज़ार पाँच सौ साल पहले वेदों के 108 उपनिषद गंगा और यमुना के मैदानी भू-भाग में रचे गए। वैदिक काल में कृषि और ऋषि, ये दो महान संस्थाएँ थीं। लोग कृषि से अवकाश पाकर ऋषि की कुटिया के पास बने चबूतरों के चारों तरफ़ पाल्थी मारकर हाथ जोड़कर बैठ जाते थे। उप+निष्ठत:=उपनिषद, जब प्रधान ऋषि गण बीच में मंच पर बैठ पर वेदों की गहनता और गूढ़ अर्थ पर चर्चा करते थे तब उनके शिष्य नीचे बैठ कर टिप्पणी या नोट लिख लिया करते थे वे ही बाद में संकलित होकर उपनिषद कहलाए। जहाँ वेदों का अंत वही हुआ वेदांत या उत्तर मीमांसा। जिसे विवेकानन्द ने शिकागो में दुनिया को बताया उसके पूर्व कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया।

तब तक आर्य अफ़ग़ानिस्तान से बंगाल तक फैल चुके थे और द्रविड़ विंध्याचल पर्वत पार करके दक्षिण की तरफ़ हिंदमहासागर तक फैल गए। पुराणों में एक कहानी कई जगह आती है कि अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पर्वत को हिमालय से नीचा रखने के लिए यह कहकर दक्षिण गए थे कि उनके आने तक वह वैसा ही बना रहे। यह प्रतीकात्मक कहानी एक बड़े रहस्य का उद्घाटन करती है कि आर्यों ने अपने दर्शन को दक्षिण में पहुँचाने के लिए अगस्त्य ऋषि का सहारा लिया था। इस प्रकार एक समावेशी अखिल भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ था।

जब अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पार कर रहे थे तब कपिल, जमदग्नि, मार्कण्डेय और भृगु ऋषि विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियाँ के सम्पर्क में आए। अमरकण्टक में कपिलधारा नर्मदा परिक्रमा का एक प्रमुख बिंदु है जहाँ से नर्मदा पहाड़ी बियाँबान में प्रवेश करती है। तब तक गंगा और यमुना का मैदान वनस्पति और जंगलों से साफ़ किया जा चुका था। वहाँ हिमालय पर हाड़फोड़ ठंड और मैदानी भाग में भयानक गर्मी का आलम शुरू हो गया था। उन्होंने डिंडोरी और मंडला जिलों से नीचे आकर अपने आश्रम बनाए। जिसे हम ऋषि भृगु के नाम से पहले भृगुघाट और कालांतर में भेड़ाघाट के नाम से जानते हैं। भृगु ऋषि स्वयं नर्मदा की परिक्रमा करते रहते थे। आगे बरमान और होशंगाबाद के बीच भारकच्छ और भरूच में भृगु मंदिर है।

उस काल में पूर्व के पहाड़ों से नदी तक का भू-भाग बारहों महीने पानी से भरा रहता था। घने जंगलों से जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा जिले की जलवायु वर्ष के बारह महीने नर्म रहती थी। इस कारण यहाँ की मृदा यानी मिट्टी भी नर्म होती थी। भृगु ऋषि अपने आश्रम के शिष्यों को “रमता जोगी बहता पानी” की सीख के तहत एक जगह स्थिर नहीं रखते थे। साधु को उसका नाम और स्थान का मोह त्यागना होता था। लिहाज़ा उन्हें चौमासा छोड़कर बाक़ी आठ माह वन विचरण ज़रूरी हो जाता था। विचरण के लिए पानी, फल-फूल भिक्षा और सुरक्षा की ज़रूरत भी नदी किनारे आसानी से पूरी हो जाती थी।

इस पूरे क्षेत्र में नम जलवायु के साथ नम मृदा याने नरम मिट्टी रहती थी जिस पर पैदल चला जा सकता था। इस प्रकार नर्म+मृदा = नर्मदा इस नदी का नाम उन ऋषियों मुनियों के वाचन में आ गया।

जब इस नदी के समुद्र मिलन तक की थाह मिल गई तो इसके उद्गम की तरफ़ साधुओं का कौतुहल जागा और वे चल पड़े उत्तर-पूर्व की तरफ़ और पहुँच गए अमरकण्टक। इस प्रकार नर्मदा की परिक्रमा और परिक्रमा पथ का निर्धारण एक-दो नहीं सौ-दो सौ सालों में हुआ था। जो कि अब तक जारी है। यह शुरुआत सनातन पुनर्जागरण याने गुप्त काल में हुई मानी जाती है। इसी नर्म मृदा के कारण सोहागपुर में उत्तम कोटि का पान होते हैं और सुराहियाँ बनाई जातीं हैं। पिपरिया से गाड़रवाडा तक की उत्तम स्वादिष्ट दालें और करेली का गुड प्रसिद्ध है।

नर्मदा 1312 किलोमीटर लम्बी है जाना और वापस आना 2624 किलोमीटर पैदल परिक्रमा पथ हैं। पहले तीन साल तीन महीने और तेरह दिन में यह दूरी तय की जाती थी। याने एक दिन में क़रीबन दो किलोमीटर। उस समय बियाबन जंगल होने से यात्रा कठिन थी। अब यह यात्रा चार से छः महीनों में पूरी की जा सकती है।

इस प्रकार इस नदी का नाम रेवा और नर्मदा पड़ा और परिक्रमा एवं परिक्रमा पथ की परम्परा विकसित हो गई। जो विश्व में अनूठी है।

सतपुड़ा से एक और नदी निकलती है जिसके बारे में बैतूल जिले से महादेव, चौरागढ़ और नाथद्वारा की जत्तरा करने आने वाले लोग बताया करते हैं। वह है ताप्ती नदी, जो कि मुल्ताई से उद्गमित होती है। इन जिलों में देवनागरी की मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में बहन को ताई पुकारा जाता है। नदी माँ-बहन के समान है। उसका मूल+ताई = मुल्ताई हो गया है। असीरगढ़ के पास महाराष्ट्र के अकोला ज़िला की सीमा पर देवी का एक सर्व कामना मंदिर है। साथ में शिव मंदिर भी है। लोग मुल्ताई से जल लेकर उस मंदिर की भी पैदल यात्रा करते हैं।

नर्मदा और ताप्ती क्रमशः बुरहानपुर और हरदा के हंडिया से समानांतर अरब सागर तक जातीं हैं जैसे दो सहेलियाँ जल भर कर बतियातीं चली जा रहीं हो मस्त चाल से। इन दो नदियों के बीच दस किलोमीटर से चालीस किलोमीटर की चौड़ी ज़मीन तीन सौ किलोमीटर याने खम्बात की खाड़ी तक चली गई है। यहाँ बाँस के घने जंगल हैं। इसी कारण पास में नेपानगर में काग़ज़ का कारख़ाना लगा है। पानी की बहुलता के कारण इस क्षेत्र में केले की भरपूर फ़सल होती है जिसे पूरा उत्तर भारत खाता है।

(कल आपसे साझा करेंगे रेवा : नर्मदा से संबन्धित विशेष जानकारी )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा की असफल प्रेम कथा-4 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा की असफल प्रेम कथा-4 

 

 

 

 

 

आर्यों के साहित्य में यह चीज़ बार-बार मिलती है कि उन्होंने अनार्यों से वैवाहिक सम्बंध बनाकर अपने में मिला लिया। यही बात नर्मदा के प्रेम प्रसंग में भी दिखती है। लोक कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल (महाकाल) की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। पड़ौसी राज्य के राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।

नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला ने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और धारण करके चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की नीयत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।

वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।

जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के कारा क्षेत्र में आज भी प्रचलित है।

यह कथा भी आर्य शोनभद्र-नर्मदा और अनार्य जुहिला के प्रेम त्रिकोण पर रच कर पुराणों में रख दी गई है। जुहिला नदी मंडला के सघन आदिवासी इलाक़ों से निकलती है जबकि नर्मदा और शोनभद्र अमरकण्टक से निकलती हैं जहाँ कि आर्यों के ऋषि मुनियों ने आश्रम बना लिए थे।

नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है। नर्मदा सा स्वाभिमान और स्वच्छता नर्मदा अंचल के निवासियों के जीवन में भी झलकता है।

इस पौराणिक कहानी का भौगोलिक-एतिहासिक संदर्भ है। हमने नदियों को व्यक्तित्व में गढ़ दिया है। नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर चलती है वहीं सोन भी वहीं से निकलकर उत्तर-पूर्व की तरफ़ चल पड़ती है। जुहिला नदी भी उद्गम से निकलकर थोड़ा दक्षिण-पूर्व की तरफ़ नर्मदा की ओर बढ़ती है लेकिन कबीर चौड़ा पहाड़ रास्ते में आ जाने से वह सोन की तरफ़ उत्तर-पूर्व की तरफ़ मुड़ जाती है। यही कहानी का आधार बन गया।

सोन नदी विंध्याचल और कैमोर पर्वत मालाओं के बीच से सीधी जिले से होकर अम्बिकापुर के पीछे से झारखंड होते हुए बिहार निकल जाती है। वह सासाराम होते हुए पटना के नज़दीक गंगा में मिल जाती है।

 

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व)

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व-3 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व – 3 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

सनातनी हिंदुओं के लिए नर्मदा नदी का धार्मिक महत्व है क्योंकि परम्परा में जल को देवता और नदियों को देवियाँ मानकर पूजा जाता रहा है। प्रकृति और पंचभूत अन्योनाश्रित हैं। प्रकृति है तो पंचभूत हैं और पंचभूत हैं तो प्रकृति है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश हमारे आभासी ब्रह्माण्ड में हैं और मानव देह समस्त ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए प्रथम कृति नियंता की प्र+कृति है। इसी में से आना है और इसी में समा जाना है। हिंदू मान्यता के अनुसार पुरुष का एक अंश आत्मा रूप में प्रकृति में जीव की संरचना करता है तब जीव जगत अस्तित्व में आता है।

प्रकृति के अंगों का अध्ययन प्राकृतिक भूगोल कहलाता है। भूगोल मनुष्य के खान-पान रहन-सहन सोच-विचार से संस्कृति का निर्माण करता है जैसे यूरोप में ईसाई संस्कृति, अरब में मुस्लिम संस्कृति, चीन-जापान में बौद्ध संस्कृति और भारत में हिंदू संस्कृति। संस्कृति के निर्माण के कई दौर चलते है उनमें आध्यात्म और राजनीति के घोर संघर्ष होते हैं। उन संघर्षों को हम इतिहास कहने लगे। इस प्रकार हम आज जो भी कुछ हैं अपने भूगोल और इतिहास की उपज हैं। हमारे पितरों में हमारा भूगोल और इतिहास अविच्छिन्न रूप से समाहित था इसलिए पितरों को पूज कर हम अपनी परम्परा को सम्मान देते हैं।

इसी सांस्कृतिक संदर्भ में जब हम नर्मदा घाटी का इतिहास देखते हैं तो विस्मयकारी जानकारी हमारे हाथ लगती है। करोड़ों साल पहले जब पृथ्वी सूर्य से आग के गोले के रुप में छिटक कर ठंडी होने लगी तब ऊपर की परत ठंडी होकर कड़क ज़मीन में बदल गई परंतु अंदर गहराई में गर्म लावा धधकता रहा। वह लावा कई जगहों से ऊपर आया, जिस कारण से पृथ्वी पर पर्वतों का निर्माण हुआ था। ऐसी ही प्रक्रिया में हिमालय, विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत अस्तित्व में आए। हिमालय से सात बड़ी नदियाँ काबुल, सिंध, रावी, चिनाब, झेलम, सतलज और व्यास पश्चिम की तरफ़ दौड़ चलीं और गंगा व यमुना पूर्व की तरफ़ चल पड़ीं थीं। बीच में असंख्य झरने, श्रोते और छोटी नदियाँ ने उनमें मिलकर पंजाब और दोआब का सबसे उपजाऊ इलाक़ा बना दिया। यहीं भारतीय संस्कृति का अभ्युदय और विकास हुआ।

अमरकण्टक के पठार से कैमोर से आता विंध्याचल पश्चिम की तरफ़ मुंड गया जो शहडोल उमरिया कटनी के किनारे से होता हुआ दमोह जिले को छूकर सागर रायसेन सीहोर देवास इंदौर झाबुआ से गुजरात में निकल गया। दूसरी तरफ़ सतपुड़ा पर्वत माला डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद हरदा खंडवा खरगोन होते हुए महाराष्ट्र निकल गई। इन दो पर्वत शृंखलाओं के बीच एक 1400 किलोमीटर लम्बी घाटी बन गई। जिसमें विंध्याचल-सतपुड़ा दोनों से चालीस बड़ी और असंख्य छोटी नदियों और झरनो से नर्मदा घाटी का निर्माण किया।

इस नर्मदा घाटी में सरीसृप के फ़ॉसिल्ज़ और आदिमानव की गुफाएँ मिलीं हैं। जिसका मतलब है कि आदिमानव के साथ ड़ायनासोर जैसे सरीसृप रहा करते थे। जब आर्य आए तो वे अफ़ग़ानिस्तान से घुसकर पंजाब से सीधे गंगा-यमुना के दोआब में बसते चले गए। नर्मदा घाटी सघन वन आच्छिदित थी। दोनों पर्वतों के बीच से चुपचाप बहती रही। जिसमें आदिवासी जंगली जानवरों के साथ रहते रहे। आर्य-द्रविड़ संग्राम के दौरान भी द्रविड़ नर्मदा घाटी के आजु-बाजु से दक्षिण की तरफ़ खिसक लिए। राम भी जब गोदावरी के तट पर आज के नासिक पहुँचे तो वे भी कौशल से आज के छत्तीसगढ़ होते हुए गए थे। कृष्ण भी मथुरा से टीकमगढ़ अशोकनगर उज्जैन से सीधे द्वारका चले गए थे। इस प्रकार नर्मदा घाटी में आदिवासियों का एकक्षत्र राज्य रहा आया। महाभारत काल में कई राक्षस राजाओं ने नर्मदा घाटी से आकर महायुद्ध में दोनों पक्षों की तरफ़ से भाग लिया था। लेकिन नर्मदा घाटी में तब तक कोई बड़ी बसावट नहीं हुई थी।

पुराणों में आर्य-अनार्य संघर्षों के प्रमाण मिलते हैं। जब आर्य भारत के मैदानी क्षेत्रों में आए तब अनार्य उत्तर से दक्षिण की तरफ़ खिसकना शुरू हुए थे। उन्हें अपनी आदिम संस्कृति पसंद थी। जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे। आर्य उन्हें परिष्कृत करके अपने जैसा बनाना चाहते थे।

बहुत से अनार्य उन जैसे बन कर उनमें घुलमिल गए लेकिन कुछ लोगों ने तय किया कि वे अपनी संस्कृति की रक्षा करेंगे। आर्यों ने उन्हें राक्षस कह कर सम्बोधित किया। राक्षसों में मानव बलि और नरमांस सेवन आम बात थी। भीम ने जब हिडिंबा से शादी करके घटोत्कच पैदा किया था तब बाक़ी चार पांडव कुंती के साथ पेड़ों पर घर बनाकर रात गुज़ारते थे। भीम ने उनकी राक्षसों से रक्षा हेतु सुरक्षित व्यवस्था कर रखी थी।

जैसे-जैसे आर्य मैदानी हिस्सों में अपने राज्य स्थापित करते चले गए वैसे-वैसे आदिवासी विंध्याचल-सतपुड़ा पर्वतों में आवासित होते गए। शिवपुराण में एक बांणासुर राक्षस का ज़िक्र आता है वह शोणितपुर को राजधानी बनाकर इन पहाड़ों में रहता था। जिसकी पुत्री का प्रेम प्रसंग कृष्ण के पुत्र से हो गया था तब कृष्ण ने उसका वध करके अपने पुत्र को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार आर्य धीरे-धीरे इन पहाड़ों में प्रवेश करते रहे थे।

दसवीं से बारहवीं सदी के बीच महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद उत्तर भारत और पश्चिमी भारत से हिंदुओं का पलायन हुआ तब उन्होंने इन पहाड़ों के बीच में नर्मदा घाटी में शरण लेना शुरू किया। यह दौर कई सौ सालों तक चला।

उत्तर से लोधी, रघुवंशी, पश्चिम से गूज़र, कन्नौज से ब्राह्मण, उत्तर से ही बनिया और उनके साथ तेली, लोहार, चमार, बसोड और अन्य जातियाँ नर्मदा के किनारे आकर बसने लगी थीं। तभी से नर्मदा घाटी आबाद होने लगी थी।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा की असफल प्रेम कथा। )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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