हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #211 – पुस्तक चर्चा – श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) – रचनाकार – श्री शिव मोहन यादव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी श्री शिव मोहन यादव जी द्वारा रचित पुस्तक “श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) पर पुस्तक चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 211 ☆

☆ पुस्तक चर्चा – श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) – रचनाकार – श्री शिव मोहन यादव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

पुस्तक: श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध (खंड-काव्य) 

रचनाकार: शिव मोहन यादव 

प्रकाशक: अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली

प्रथम संस्करण: 2024

पृष्ठ संख्या: 102

मूल्य: ₹160

समीक्षक: ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ समीक्षा – लुप्तप्राय परंपरा को नया जीवन देता खंड-काव्य ☆

 

शिव मोहन यादव द्वारा रचित श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध एक अनूठा खंड-काव्य है, जो भारतीय साहित्य में प्रबंध-काव्य की लुप्तप्राय परंपरा को नया जीवन देता है। यह रचना न केवल एक पौराणिक कथा को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करती है, बल्कि आधुनिक पाठकों को भारतीय दर्शन, संस्कृति और आध्यात्मिकता के गहन आयामों से जोड़ती है।

कथावस्तु और थीम

श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध का शीर्षक पहली नजर में आश्चर्यजनक लगता है, क्योंकि श्रीकृष्ण और अर्जुन, जो महाभारत में सखा और गुरु-शिष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं, को युद्धरत देखना असंभव-सा प्रतीत होता है। रचनाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस संदेह को संबोधित करते हुए बताते हैं कि यह कथा एक कम प्रचलित पौराणिक प्रसंग पर आधारित है। यह कथा श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए एक प्रतीकात्मक युद्ध की गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत करती है, जो आध्यात्मिक, नैतिक और दार्शनिक प्रश्नों को उजागर करती है।

काव्य पुस्तक ग्यारह खंडों में विभाजित है। मंगलाचरण, अर्घ्य खंड, चिंतन खंड, ब्रह्मलोक भ्रमण खंड, बैकुंठ भ्रमण खंड, कैलाश भ्रमण खंड, इंद्र-लोक भ्रमण खंड, व्यथा खंड, नारद-चित्रसेन संवाद, अभयदान खंड, नारद-श्रीकृष्ण संवाद और युद्ध खंड। प्रत्येक खंड कथानक को क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ाता है। नारद और चित्रसेन जैसे प्रसिद्ध पात्र कथा को दार्शनिक गहराई प्रदान करते हैं। कथा का आधार गुरु-पूर्णिमा और आध्यात्मिक जागृति से जुड़ा है, जैसा कि लेखक ने गुरु-पूर्णिमा 2024 को रचना के पूर्ण होने का उल्लेख किया है। यह कृति केवल युद्ध का वर्णन नहीं करती, बल्कि गुरु-शिष्य संबंध, आत्म-चिंतन और ईश्वरीय कृपा जैसे विषयों को भी समेटती है।

लेखन शैली और काव्य सौंदर्य:

शिव मोहन यादव की लेखन शैली सरल, लयबद्ध और प्रभावशाली है। खंड-काव्य के रूप में यह रचना छंदबद्धता और भावप्रवणता का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है। मंगलाचरण और नारद-चित्रसेन संवाद जैसे अंशों में दोहा और चौपाई का प्रयोग पाठक को पारंपरिक हिंदी काव्य की स्मृति दिलाता है। उदाहरण के लिए, मंगलाचरण में लिखा गया: 

“प्रथम पूजते आपको, श्री गणपति-विघ्नेश।

विधिवत काज सँवारिए, हरिए सभी कलेश॥” 

यह पंक्ति काव्य की शास्त्रीयता और आध्यात्मिकता को दर्शाती है।

लेखक ने कथा की रोचकता को बनाए रखने के लिए संवादों का सहारा लिया है, जो पात्रों के मनोभावों को उजागर करते हैं। नारद-चित्रसेन संवाद में गुरु-पूर्णिमा की महत्ता और आध्यात्मिक अनुष्ठानों का वर्णन कथानक को आगे बढ़ाता है और पाठक को सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ता है। काव्य की भाषा सरल होते हुए भी भावनात्मक गहराई लिए हुए है, जो सामान्य और विद्वान पाठकों दोनों को आकर्षित करती है।

पुस्तक की संरचना और प्रभाव:

ग्यारह खंडों में विभाजित यह संरचना कथानक की गहराई, सुगमता और भावनात्मक प्रभाव को बढ़ाती है। प्रत्येक खंड एक विशिष्ट उद्देश्य को पूरा करता है, जो पाठक को कथा की आध्यात्मिक, दार्शनिक और भावनात्मक परतों से परिचित कराता है।

क्रमिक कथानक जो मंगलाचरण से शुरू होकर, एक श्रद्धापूर्ण स्वर स्थापित करता है, संरचना उत्सुकता जगाती है। अर्घ्य खंड और चिंतन खंड दार्शनिक और भावनात्मक आधार तैयार करते हैं, जबकि ब्रह्मलोक, बैकुंठ, कैलाश और इंद्र-लोक भ्रमण खंड कथा को ब्रह्मांडीय आयाम देते हैं। ये खंड श्रीकृष्ण-अर्जुन के युद्ध को व्यक्तिगत संघर्ष से अधिक, सार्वभौमिक महत्व प्रदान करते हैं।

विषयगत विभाजन: प्रत्येक खंड एक विशिष्ट थीम पर केंद्रित है। उदाहरण के लिए, व्यथा खंड संभवतः पात्रों की भावनात्मक पीड़ा को उजागर करता है, जबकि नारद-चित्रसेन संवाद दार्शनिक चिंतन का अवसर देता है। यह विभाजन पाठक को कथा के भावनात्मक और बौद्धिक भार को सहजता से ग्रहण करने में मदद करता है।

लयबद्ध गति: खंडों की संरचना भारतीय महाकाव्य परंपरा की मौखिक शैली को प्रतिबिंबित करती है। प्रत्येक खंड एक पड़ाव की तरह है, जो पाठक को रुककर चिंतन करने का अवसर देता है। यह गति काव्य की लयबद्धता के साथ सामंजस्य रखती है और पाठ को संतुलित बनाती है।

चरमोत्कर्ष और समापन: अंतिम खंड—अभयदान, नारद-श्रीकृष्ण संवाद और युद्ध खंड—कथा को चरमोत्कर्ष तक ले जाते हैं। युद्ध को अंतिम खंड में रखकर रचनाकार पाठक को भावनात्मक और बौद्धिक रूप से तैयार करते हैं। समापन में चित्रसेन का “कोटि प्रणाम” और सभी का अपने धाम लौटना एक सामंजस्यपूर्ण समाधान दर्शाता है।

सांस्कृतिक प्रतिबिंब: संरचना गुरु-पूर्णिमा जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक अवसरों को प्रतिबिंबित करती है। ग्यारह खंड एक आध्यात्मिक यात्रा के समान हैं, जिसमें मंगलाचरण, चिंतन, दैवीय भ्रमण और समाधान शामिल हैं। यह संरचना रचनाकार के उद्देश्य—बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रेरणा—को साकार करती है।

 साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व:

श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध’ का सबसे बड़ा योगदान यह है कि यह प्रबंध-काव्य की परंपरा को पुनर्जन्म देता है। रचनाकार की यह टिप्पणी कि कई दशकों से इस विधा में उल्लेखनीय रचनाएँ सामने नहीं आई हैं, इस कृति के महत्व को रेखांकित करती है। यह रचना हिंदी साहित्य में एक नया मानदंड स्थापित करती है, जो आधुनिक और पारंपरिक तत्वों का संतुलन बनाए रखती है। साथ ही, यह पाठकों को भारतीय संस्कृति और दर्शन से जोड़कर आध्यात्मिक चेतना को प्रोत्साहित करती है।

 पाठकों पर प्रभाव:

यह कृति सामान्य पाठकों से लेकर साहित्य प्रेमियों और आध्यात्मिक खोज करने वालों तक, सभी के लिए आकर्षक का केंद्रबिंदु है। इसकी सरल भाषा और लयबद्ध शैली इसे सुगम बनाती है, जबकि गहन थीम और दार्शनिक संवाद विद्वानों को भी प्रभावित करते हैं। रचनाकार की ईमानदार प्रस्तावना, जिसमें वे अपनी लेखन यात्रा और प्रेरणा साझा करते हैं, पाठक के साथ एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित करती है।

 निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण-अर्जुन युद्ध’ एक ऐसी काव्य रचना है, जो अपनी अनूठी कथावस्तु, लयबद्ध काव्य शैली और संरचनात्मक सुंदरता के कारण हिंदी साहित्य में विशेष स्थान रखती है। यह न केवल एक पौराणिक कथा को जीवंत करती है, बल्कि पाठकों को आध्यात्मिक और बौद्धिक यात्रा पर ले जाती है। शिव मोहन यादव की यह कृति उन पाठकों के लिए अवश्य पढ़ने योग्य है, जो साहित्य, संस्कृति और दर्शन के संगम का आनंद लेना चाहते हैं। लेखक का यह आह्वान कि पाठक पत्र लिखकर अपनी प्रतिक्रिया साझा करें, इस रचना की आत्मीयता को और बढ़ाता है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 180 ☆ “ज्ञान गंगा में गधों का आचमन” – व्यंग्यकार… श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित  ज्ञान गंगा में गधों का आचमनपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 180 ☆

☆ “ज्ञान गंगा में गधों का आचमन” – व्यंग्यकार… श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति –  ज्ञान गंगा में गधों का आचमन

लेखक – श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव

प्रकाशक – ज्ञानगंगा प्रकाशन भोपाल

पाठक व्यंग्यकार के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त विसंगतियों के प्रवाह के सर्वथा विपरीत दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के व्यंग्य विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। व्यंग्य रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को व्यंग्य रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डॉक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से व्यंग्यकार को भी रचना सुख मिलता है। व्यंग्यकार समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबालब बना रहता है। सच्चे व्यंग्यकार को हर सुबह अखबार पलटते ही नजरों के सामने विषय तैरते नजर आते हैं।

लेखक शारदा दयाल श्रीवास्तव ने अपने पहले व्यंग्य संग्रह ‘ज्ञान गंगा में गधों का आचमन’ की पाण्डुलिपि पढ़ने और उस पर कुछ लिखने का अवसर मुझे दिया। पाण्डुलिपि 41 सम सामयिक व्यंग्य लेखों का संग्रह है। मैने आद्योपांत सभी रचनायें पढ़ीं। जहां कुछ लेखों में ब्याज स्तुति है, वहीं कई लेखों का कलेवर अभिधा में वर्णनात्मक भी है। वाक्य विन्यास और भाषा ग्राह्य है। वाक्यों में व्यंग्य का संपुट है। विषयों का चयन रचनाकार के परिवेश के अनुरूप और समसामयिक है। अभिव्यक्ति का सामर्थ्य लेखक की कलम में है। लेख छोटे और सारगर्भित हैं। रचनाकार का अध्ययन उनकी अभिव्यक्ति में परिलक्षित होता है। प्रासंगिक संदर्भों में उन्होंने लोकोक्तियों, कहावतों, फिल्मी गीतों के मुखड़ो और साहित्यिक रचनाओ से उद्धवरण भी लिये हैं। सामाजिक बदलाव तथा राजनीति के प्रति जागरुक श्रीवास्तव जी ने उनको नजर आती विसंगतियों पर लिख कर अपना आक्रोश पाठको के सम्मुख रखा है। रचनाओ के शीर्षक छोटे और प्रभावी हैं। किसी रचना का शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है। शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से आकर्षित करता है। शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासावर्धक होना चाहिये। वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अपने पूर्व अनुभवों के अनुसार एक अनुमान लगा लेते हैं। धारणा निर्माण की यह अव्यक्त मौन प्रक्रिया अप्रत्यक्ष स्वयमेव होती है। ठीक इसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में पाठक एक अनुमान लगा लेता है। सामान्य सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए। मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ो को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस किताब के प्रायः लेखों के शीर्षक निर्धारण में मुझे यह गुणवत्ता दृष्टिगत हुई।

किताब के पहले ही व्यंग्य ‘मेरा देश मेरा भेष’ में ब्याज स्तुति का प्रयोग कर विदेशों के प्रति अनुराग पर कटाक्ष करने में रचनाकार सफल रहे हैं। सड़को के स्पीड ब्रेकर को लेकर वे लिखते हैं ‘जनता के, जनता के लिये, जनता द्वारा निर्मित कूबड़ की तरह उभरे स्पीड ब्रेकर हैं’। मुझे नहीं पता कि श्रीवास्तव जी ने व्यक्तिगत रूप से अमेरिका यात्रा की है या अपने अध्ययन के आधार पर वे लिखते हैं ‘यदि अमेरिका पूछे कि मेरे पास सैन्यबल है, हथियार हैं, रोजगार हैं, इकोनॉमी है, टेक्नोलॉजी है,,,,, क्या है तुम्हारे पास ???’

दो टूक जवाब है- ‘मेरे पास भारत माँ है।’

भविष्य की कल्पना करने में श्रीवास्तव जी पारंगत प्रतीत होते हैं ‘सम्भव है कल को चंद्रयान के लैंडिंग स्पाट शिवशक्ति पाइंट पर भव्य शिव महालोक का निर्माण हो, फिर हमारे नेता मतदाताओ को वहां की मुफ्त यात्रा की रेवड़ी बांटते दिखें’।

पेंशनधारियों के लिये जीवन प्रमाणपत्र एक अनिवार्य सरकारी वार्षिक प्रक्रिया है, इस विसंगति पर कई व्यंग्यकारों ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार व्यंग्य किये हैं। ‘जिंदगी से लिपटा जीवन प्रमाण’ में श्रीवास्तव जी ने भी इस मुद्दे को उठाया है ‘पेंशनर हार कर अफसर से पूछता है, तुम्हीं बताओ कि मुझे लिविंग मेटेरियल कैसे मानोगे? अफसर जबाब देता है कि साथ में लाईफ सर्टिफिकेट लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम’ वे लेख में जावेद अख्तर के फिल्मी गीत ‘दिलों में अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम, नजर में ख्वाबों की बिजलियाँ लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम’ का भी प्रासंगिक उपयोग कर विषय बढ़ाते हैं।

खिचड़ी पर उन्होंने एक धारदार व्यंग्य लिखा है। ‘हिंदी में अँग्रेजी मिला दो तो भाषा की खिचड़ी बन जायेगी, … चुनाव में बहुमत न मिले तो मिली जुली सरकार की खिचड़ी’।

संग्रह का सबसे छोटा लेख आलस्य महोत्सव है। उन्होंने आलस्य को समृद्धि की कुंजी बताया है।

ताश के पत्तों पर साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है, ताश के पत्ते तो खुशनसीब हैं यारों बिखरने के बाद कोई उठाने वाला तो है। श्रीवास्तव जी लिखते हैं ‘ताश की गड्डी पूरा मुल्क है, बादशाह, बेगम, गुलाम, विधानपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इक्का जनप्रतिनिधि है। चारों बादशाहों के चार दल हैं। कटाक्ष देखिये ‘जोकर निर्दलीय है जो किसी की भी सरकार बना सकता है। ‘जोकर पानी की तरह है जिस बर्तन में डालो उसका आकार ग्रहण कर ले।’

विवाह हमारे समाज में हमेशा से एक बड़ा आयोजन रहा है। ब्याह चालीसा, नृत्य विवाहिका, दही हांडी और सरकारी गोविंदा, आदि रचनाओ में लेखक ने अपने तरीके से व्यंग्य के पंच चलाये हैं। माल, माया और मुहब्बतें, दो पैग जिंदगी के प्रभावी रचनायें है। स्वप्न का सहारा लेकर …. निठल्ले की परलोक यात्रा का बढ़िया प्रयोगवादी कल्पना व्यंग्य वर्णन है। लंदन ठुमकदा, बेशर्म रंग आदि लोगों की जुबान पर चढ़े हुये फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर रचे गये व्यंग्य हैं।

कुछ लेखों की पंच लाइने पढ़ें ‘मनुष्य में मस्तिष्क का विकास होते ही उसकी रीढ़ कमजोर होने लगी’, सब मिथ्या है यह जगत भी, जन्म पत्री भी और मुहूर्त भी,’ विदेश यात्रा के प्रति मध्यवर्ग के अतिरिक्त अनुराग पर व्यंग्य करते हुये कटाक्ष करते हुये वे लिखते हैं ‘चैक इन लगेज में लगी स्लिप तो जैसे अटैची का सुहाग है।’

जब कोई प्रभावी नेता कुछ कहता है तो उसे बहुत सोच समझ कर बोलना चाहिये, क्योंकि समाज पर उसके दीर्घगामी परिणाम होते हैं। जैसे ‘आपदा में अवसर’ की टैग लाइन से समाज में संवेदना का हास हुआ दिखता है। इसी तरह लेखकीय दायित्व भी है कि रचनाओ में बड़ी जिम्मेदारी से कुछ लिखा जाये, क्योंकि साहित्य दीर्घ जीवी होता है। श्रीवास्तव जी के लेखों में यह जिम्मेदारी दिखती है। आपदा में अवसर का अवलंब लेकर उन्होंने ‘उत्सव मेंअवसर ‘रचना लिखी है। पंच लाइन देखिये राष्ट्रीय दिवसों की उत्सव धर्मिता पर वे लिखते हैं ‘फेसबुक पर डी पी तिरंगी कर लें… भारत माता को इससे ज्यादा क्या चाहिये?’ समाज में व्याप्त शो बिजनेस पर अच्छा कटाक्ष है।

शीर्षक लेख ‘ज्ञान गंगा में गधों का आचमन ‘में उन्होंने ‘नौ नकद न तेरह उधार’ के समानांतर मुहावरा ‘लेना एक न देना दो ‘का प्रयोग कर उनकी प्रखर बुद्धि का परिचय दिया है।

कुल जमा मेरा अभिमत है कि व्यंग्य जगत को शारदा दयाल श्रीवास्तव के इस प्रथम व्यंग्य संग्रह का स्वागत करना चाहिये। अध्ययन तथा समय के साथ निश्चित ही उनका अनुभव संसार और विशाल होगा। अभिव्यक्ति क्षमता में लक्षणा तथा व्यंग्य की शैलियो के नये प्रयोग एवं विषय चयन में व्यापक कैनवास से उनकी लेखनी में और पैनापन आयेगा। वे संभावनाओ से भरपूर व्यंग्यकार हैं। मेरी समस्त शुभ कामनायें उनके रचना कर्म के साथ हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ सुधारवादी दृष्टिकोण के संवेदनशील कवि श्री आशुतोष तिवारी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

☆ कवि और पुस्तक चर्चा ☆

सुधारवादी दृष्टिकोण के संवेदनशील कवि श्री आशुतोष तिवारी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

शिक्षक के रुप में राष्ट्र निर्माता के दायित्व का बखूबी निर्वाह करने वाले श्री आशुतोष तिवारी सुधारवादी दृष्टिकोण के संवेदनशील कवि हैं । अध्यापक होने के कारण वे अपने प्रिय छात्रों को ही नहीं बल्कि समाज को भी अपनी कविताओं के माध्यम से  प्रेरणा देते हुए नजर आते हैं । उनकी कविताओं में समाज के लिए चुनौतियों का सामना करने के लिए एक सशक्त मार्गदर्शन शामिल है ।भाई आशुतोष तिवारी के काव्यसंग्रह विहान की सारी कविताएं पूरे मनोयोग से पढ़ने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि उनके अंदर एक सिद्धहस्त कवि के सारे गुण मौजूद हैं।उनकी  कविताएं रस , छंद, अलंकार की कसौटी पर खरी उतरती हैं। उनके काव्य सृजन में जो विविधता है वह इस बात की परिचायक है कि समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा है उस पर उनकी पैनी नजर है। उनकी कविताओं में एक ओर जहां पर्व का उल्लास है वहीं दूसरी ओर शोषित वंचित वर्ग की पीडा भी महसूस की जा सकती है। अपने प्रथम काव्य संग्रह से ही उन्होंने खुद को यश अर्जन का अधिकारी बना लिया है। विहान में शामिल एक कविता की निम्नलिखित पंक्तियां  कवि आशुतोष तिवारी का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं –

शब्दों के मोती से अनगढ़,

चित्रित होते मन विचार हैं।

वर्तमान के संग संग चलते,

और भविष्य का समयसार हैं।

कृति के संबंध में वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपनी प्रतिक्रियायों में संग्रह की रचनाओं को रोचक और पठनीय बताया है । देश के सुप्रसिद्ध कवि आचार्य श्री भगवत दुबे जी ने लिखा है कि आशुतोष ने अनेक विषयों को छुआ है।इनका भाव पक्ष प्रबल‌ है, शैली सरल है, वैविध्य की व्यापकता ही इस कृति का सुफल है । शिक्षाविद डा. अरुणा पांडेय का मत है कि सरल शब्दों में सहजता से आशु ने विभिन्न भावों पर , विषयों पर अपनी बात, अपने विचार रखे हैं जानकी रमण कालेज के प्राचार्य डा. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी का सोचना है कि यह काव्य संग्रह दर्शन, उल्लास और नव शिल्प का कोष है सुप्रसिद्ध महिला साहित्यकार और शिक्षाविद डा. संध्या जैन श्रुति लिखती हैं कि कर्तव्य के प्रति सजग रचनाकार ने जो लिखा है वह आज सभी के लिए चिंतन का विषय है

मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान पाथेय ने लगभग चार दशक पूर्व श्रेष्ठ हिन्दी साहित्य के प्रकाशन की जो श्रंखला प्रारंभ की थी उसे साहित्य प्रेमियों ने भरपूर सम्मान और स्नेह प्रदान किया है।  इस श्रृंखला की नवीनतम कड़ी के रूप में साहित्य साधक एवं समर्पित शिक्षाविद श्री आशुतोष तिवारी की काव्य कृति ‘विहान’ के प्रकाशन के लिए भी वह निसंदेह साधुवाद का  अधिकारी है। मुझे विश्वास है कि पाथेय के सभी प्रकाशनों की  भांति यह कृति भी साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान अर्जित करने में सफल होगी।

(काव्य कृति विहान के विमोचन अवसर पर)

© श्री यशोवर्धन पाठक

पूर्व प्राचार्य, राज्य सहकारी प्रशिक्षण संस्थान, जबलपुर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 179 ☆ साहित्य की गुमटी” – व्यंग्यकार… श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री धर्मपाल महेंद्र जैन जी द्वारा लिखित  साहित्य की गुमटीपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 179 ☆

☆ “साहित्य की गुमटी” – व्यंग्यकार… श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक : साहित्य की गुमटी

लेखक: धर्मपाल महेंद्र जैन

प्रकाशक.. शिवना प्रकाशन, सीहोर

पृष्ठ 158, मूल्य 275 रु

चर्चा: विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

धर्मपाल महेंद्र जैन का व्यंग्य-संग्रह साहित्य की गुमटी, समकालीन भारतीय समाज, सत्ता, भाषा और डिजिटल संस्कृति पर तीखी किन्तु सुसंस्कृत टिप्पणी करता है। इसे पढ़ते हुए विनोद के साथ-साथ चित्त में चुभन का भी अनुभव होता है। धर्मपाल जी के  व्यंग्य की सार्थकता हँसाते हुए सोचने को विवश करना कही जा सकती है।

यह किताब 48 व्यंग्य रचनाओं का ऐसा संकलन है जहाँ हर रचना एक नए सामाजिक विषय पर यथार्थ के दरवाजे खोलती है। इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर कहा जा सकता है कि वे रहते भले ही कैनेडा में हैं पर वे भारतीय समाज से मुकम्मल तौर पर जुड़े हुए हैं।

‘ज़हर के सौदागर’ से लेकर ‘रेवड़ी बाँटने वाले मालामाल’ तक लेखक ने जिस पैनेपन से समाज की नब्ज़ पर उंगली रखी है, वह उन्हें एक सफल व्यंग्यकार के रूप में स्थापित करती है।

व्यंग्य के विषयवस्तु की विविधता परिलक्षित होती है। व्यंग्य का तेवर प्रत्येक रचना में बरकरार रखा गया है।

‘ज़हर के सौदागर’ जैसी शुरुआती रचना से ही लेखक पाठक को अपने तीखे हास्य और प्रतीकात्मकता के भँवर में खींच लेता है। ‘ज़हर’ यहाँ केवल रसायन नहीं बल्कि वह मानसिक, सांस्कृतिक, भाषाई, राजनीतिक विष है जो धीरे-धीरे हमारी चेतना को ग्रस रहा है। लेखक न केवल ज़हर बेचने वाले की दुकान को केन्द्र में रखकर पूँजीवाद, अपराध, अफसरशाही और समाज के विकृत होते मूल्यों पर वार करता है बल्कि उन संरचनाओं की भी आलोचना करता है जहाँ “पिछवाड़े से धंधा” करने को शिष्टाचार समझा जाने लगा है।

‘किनारे का ताड़ वृक्ष’ एक प्रतीकात्मक रचना है, जहाँ सत्ता में बढ़ती महत्वाकांक्षाएं, विरासत को छोड़कर आत्म-महत्व के शिखर की ओर भागती जटाएँ एक विडंबनात्मक यथार्थ रचती हैं। वटवृक्ष और ताड़ वृक्ष का यह बिंब भारतीय राजनीति और साहित्यिक जगत की एक यथार्थ कथा बन जाता है।

डिजिटल समाज नया युग बोध है। ‘वाट्सऐप नहीं, भाट्सऐप’ में सोशल मीडिया पर साहित्यिक व्यक्तित्वों की ऊलजलूल प्रशंसा की झड़ी, समूहों की राजनीति और आत्ममुग्धता पर कटाक्ष है। लेखक जिस प्रकार से “भाटगिरी” शब्द का प्रयोग करता है, वह आज के डिजिटली सक्रिय साहित्यिक समाज पर तीखा व्यंग्य है । यह रचना हमारे आज के ‘वर्चुअल’ समाज की एक मज़बूत विडंबना है, जहाँ प्रशंसा अब ‘पारस्परिक लेन-देन’ का व्यापार बन चुकी है। सत्ता और व्यवस्था पर तीखा वार करता उनका व्यंग्य ‘बम्पर घोषणाओं के ज़माने में’ है। राजनीतिक पाखंड, खोखली योजनाओं और “बिना पैरों वाली घोषणाओं” का ऐसा विस्फोट किया गया है कि पाठक मुस्कराते हुए देश की विकास यात्रा पर सोचने को मजबूर हो जाता है। सत्ता द्वारा की जाने वाली घोषणाएँ किस तरह प्रचार का साधन बनती जा रही हैं, इसका वर्णन जितना मनोरंजक है, उतना ही मर्मांतक भी।

‘तानाशाह का मकबरा’ एक और रचना है जो सत्ता के जाने के बाद की उपेक्षा, विस्मरण और जनता के बदलते सरोकारों पर टिप्पणी करती है। यह व्यंग्य केवल किसी मृत शासक का पोस्टमॉर्टम नहीं करता बल्कि यह दर्शाता है कि स्मृति को कैसे राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता ने धूमिल कर दिया है।

भक्ति और प्रसिद्धि का गठजोड़ आज की विसंगति है।

‘आज के भक्तिकाल में’ और ‘लाइक बटोरो और कमाओ’ जैसे व्यंग्य आज के ‘डिजिटल भक्ति आंदोलन’ पर गहरी चोट करते हैं। एक ओर लेखक यह दिखाते हैं कि कैसे “प्रसिद्धि प्रसाद” जैसा पात्र साहित्य की विधाओं को छोड़ सरकारी कविता की भक्ति में लग जाता है, वहीं दूसरी ओर फेसबुक पर ‘लाइक्स’ की दौड़ में लगे ‘प्रसिद्धि प्रसाद’ की छवि डिजिटल भिक्षुक की हो जाती है।

धर्मपाल महेंद्र जैन की विशेषता उनकी भाषा है। वे संस्कारों से बँधे लेकिन समकालीन मुहावरे में ढले हुए शब्दों से रचना को सजाते हैं। उनकी भाषा का व्यंग्य न केवल चुभता है बल्कि भीतर तक व्याप्त होता है। उनका शिल्प परिष्कृत है, वाक्य गठन में कसावट है, और हास्य में अर्थ की बहुलता है।

‘राजा और मेधावी कंप्यूटर’ जैसी रचना में तकनीक के युग में सत्ता की मानसिकता पर शानदार व्यंग्य है। कंप्यूटर की ‘बुद्धिमत्ता’ और राजा की ‘मूर्खता’ का तालमेल एक उत्कृष्ट विडंबना का उदाहरण है।

‘भाषा के हाईवे पर गड्ढे ही गड्ढे’ लेखक की  आत्मालोचनात्मक रचनाओं में से एक है। यह समकालीन आलोचना-पद्धति पर गहरा कटाक्ष करती है। ‘मित्रगण’ और ‘अमित्रगण’ के बीच की विभाजन रेखा और आलोचना को रचना की बजाय लेखक के चरित्र पर केंद्रित करना—यह सब कुछ ऐसा सच है जिसे हम जानते तो हैं, पर कहने का साहस धर्मपाल जी जैसा व्यंग्यकार ही जुटा पाता है।

‘साहित्य की गुमटी’ समकालीन व्यवस्था की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषाई तस्वीर को व्यंग्य की नजर से रेखांकित करने वाला दर्पण है। इसमें ‘ईडी है तो प्रजातंत्र स्थिर है’, ‘विदेश में परसाई से दो टूक’, ‘सबसे बड़ा प्रोफेसर, हिंदी का’ जैसी रचनाएँ न केवल वर्तमान की समस्याओं को उभारती हैं बल्कि पाठक को भाषा, व्यवस्था और साहित्य पर सोचने को प्रेरित करती हैं।

लेखक ने व्यंग्य को गुदगुदी का माध्यम नहीं, झकझोरने का औज़ार बना कर प्रस्तुत किया है। यह संग्रह बताता है कि व्यंग्य केवल हास्य नहीं है, यह अपने समय की तीव्र प्रतिक्रिया है, और धर्मपाल महेंद्र जैन इसके सजग व्याख्या कर्ता हैं।

जो पाठक व्यंग्य को केवल मनोरंजन नहीं, सृजनात्मक प्रतिरोध मानते हैं, उनके लिए यह किताब महत्वपूर्ण संग्रह है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 178 ☆ “शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें” – व्यंग्यकार… श्री अरविंद मिश्र ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरविंद मिश्र जी द्वारा लिखित  शिष्टाचार आयोग की सिफारिशेंपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 178 ☆

“शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें” – व्यंग्यकार… श्री अरविंद मिश्र☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा

कृति … शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें

व्यंग्यकार …अरविंद मिश्र

पृष्ठ … १५२

मूल्य २२५ रु

आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

अरविंद मिश्र द्वारा लिखित व्यंग्य की कृति शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें, एक रोचक और विचारोत्तेजक कृति है, जो भारतीय समाज और व्यवस्था में व्याप्त औपचारिकता, दिखावे और विरोधाभासों पर तीखा कटाक्ष करती है। यह पुस्तक व्यंग्य की शैली में लिखी गई है, जो पाठक को हंसाने के साथ-साथ गहरे सामाजिक संदेशों पर चिंतन करने के लिए प्रेरित करती है। मिश्र का लेखन सहज, चुटीला और प्रभावशाली है, जो उनकी भाषा पर मजबूत पकड़ और समाज को गहराई से समझने की क्षमता को दर्शाता है।

पुस्तक का केंद्रीय विषय एक काल्पनिक “शिष्टाचार आयोग” के इर्द-गिर्द घूमता है, जो शिष्टाचार के नाम पर हास्यास्पद और अव्यवहारिक सिफारिशें प्रस्तुत करता है। यह आयोग समाज के विभिन्न पहलुओं-जैसे नौकरशाही, सामाजिक रीति-रिवाज, और व्यक्तिगत व्यवहार-को अपने निशाने पर लेता है। लेखक ने इन सिफारिशों के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे शिष्टाचार के नाम पर अक्सर सतही नियमों को थोपा जाता है, जो वास्तविकता से कोसों दूर होते हैं। उदाहरण के लिए, यह विचार कि हर बात में औपचारिकता को प्राथमिकता दी जाए, भले ही वह कितनी भी बेतुकी क्यों न हो, पाठक को हंसी के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करती है।

शीर्षक व्यंग्य से यह अंश पढ़िये … ” समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो खूब इधर-उधर करते है,

लेकिन उनकी दाल आसानी से नहीं गलती। नीचे निगाह करके रास्ता पार करने से भी राह चलतों को दाल में काला नजर आने लगता है। समाज में बहुत से जन-जागरण के लिए समर्पित सदाचारियों का काम केवल आते-जाते लोगों पर निगाह रखना होता है। आस-पड़ोस, मुहल्ले के निवासी यदि बहुत समय तक सुख से रहते हैं तो इन चौकीदारों को अजीर्ण हो जाता है। इस प्रकार के समाज सेवी बंधुओं को अपना मुँह दर्पण में देखने की फुर्सत नहीं होती। जहाँ तक शिष्टाचार आयोग की कार्य प्रणाली का प्रश्न है तो यह अशिष्ट व्यक्तियों से सदैव सावधान रहता है। “

“भ्रष्टाचार निवारण मंडल में कार्यरत् कर्मचारी इस बात की भरसक कोशिश करते हैं कि जनता का आचरण शुद्ध न रहे। भला उन्हें अपने विभाग को जीवित जो रखना है। यह उन कर्मचारियों की निष्ठा का उदाहरण है। अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी कौन मारना चाहेगा। “

अरविंद मिश्र की शैली में एक खास बात यह है कि वे जटिल मुद्दों को सरल और हल्के-फुल्के अंदाज में पेश करते हैं। उनकी भाषा में हिंदी की मिठास और लोकप्रिय मुहावरों का प्रयोग देखने को मिलता है, जो व्यंग्य को और भी प्रभावी बनाता है। हालांकि, कुछ जगहों पर पाठक को लग सकता है कि व्यंग्य की गहराई या मौलिकता थोड़ी कम हो गई है, खासकर जब विषय पहले से चर्चित सामाजिक समस्याओं की ओर मुड़ता है। फिर भी, लेखक की यह कोशिश सराहनीय है कि उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी से उदाहरण चुनकर पाठकों से सीधा संवाद स्थापित किया।

कुल मिलाकर, शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें एक मनोरंजक और विचारशील पुस्तक है, जो व्यंग्य के प्रेमियों के लिए एक सुखद अनुभव प्रदान करती है। यह न केवल हल्के-फुल्के पठन के लिए उपयुक्त है, बल्कि समाज के उन पहलुओं पर भी प्रकाश डालती है, जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। अरविंद मिश्र ने इस कृति के जरिए अपनी लेखन कुशलता का परिचय दिया है और इसे पढ़कर पाठक निश्चित रूप से मुस्कुराएंगे और सोच में डूब जाएंगे।

किताब फेडरेशन आफ इण्डियन पब्लिशर्स से पुरस्कृत प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल से छपी है। मैं इसे व्यंग्य में रुचि रखने वाले अपने पाठको को पढ़ने की संस्तुति करता हूं।

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 177 ☆ “मैं कृष्ण हूँ” – उपन्यासकार… श्री दीप त्रिवेदी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री दीप त्रिवेदी जी द्वारा लिखित  “मैं कृष्ण हूँपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 177 ☆

“मैं कृष्ण हूँ” – उपन्यासकार… श्री दीप त्रिवेदी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा

दीप त्रिवेदी का उपन्यास “मैं कृष्ण हूँ”

प्रकाशक आत्मन इनोवेशन, मुंबई

मूल्य रु 349

चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव

कृष्ण भारतीय संस्कृति के विलक्षण महानायक हैं। वे एक मात्र अवतार हैं जो मां के गर्भ से प्राकृतिक तरीके से जन्मे हैं। इसीलिए कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है, रामनवमी की तरह कृष्ण अष्टमी नहीं। कृष्ण के चरित्र में हर तरह की छबि मिलती है। दीप त्रिवेदी का यह उपन्यास कृष्ण के बचपन पर केंद्रित एक अनूठा और विचारोत्तेजक साहित्यिक प्रयास है उपन्यास भगवान कृष्ण के जीवन को एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। उपन्यास न केवल कृष्ण के चरित्र की गहराई को उजागर करता है, बल्कि उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को आधुनिक संदर्भ में समझने का अवसर देता है। दीप त्रिवेदी, एक प्रख्यात लेखक, वक्ता और स्पिरिचुअल साइको-डायनामिक्स विशेषज्ञ माने जाते हैं। इस उपन्यास में कृष्ण को एक अलौकिक व्यक्तित्व के बजाय एक मानवीय और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया गया है।

कथानक

“मैं कृष्ण हूँ” पुस्तक कृष्ण की आत्मकथा के रूप में लिखी गई है, जिसमें वे स्वयं अपने जीवन की कहानी सुनाते हैं। यह आत्म कथा मथुरा के कारागृह में उनके जन्म से शुरू होती है, जहां वे कंस के अत्याचारों के बीच पैदा होते हैं, और गोकुल में यशोदा और नंद के संरक्षण में उनके बचपन तक ले जाती है। इसके बाद, कथा उनके जीवन के विभिन्न चरणों—कंस का वध, मथुरा से द्वारका तक का सफर, और महाभारत में उनकी भूमिका—को समेटती है। उपन्यास पारंपरिक धार्मिक कथाओं से हटकर कृष्ण के मन की गहराइयों को खंगालता है। लेखक ने उनके हर निर्णय, हर युद्ध, और हर रिश्ते के पीछे की मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।

 कृष्ण का बचपन, युवावस्था और परिपक्व जीवन विस्तार से वर्णित है। इससे पाठक को कृष्ण के व्यक्तित्व के विकास को क्रमबद्ध तरीके से समझने में मदद करती है।

लेखन शैली

दीप त्रिवेदी की लेखन शैली सरल, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है। उन्होंने हिंदी भाषा का उपयोग इस तरह किया है कि यह आम पाठक के लिए सहज होने के साथ-साथ विद्वानों के लिए भी गहन वैचारिक सामग्री प्रदान करती है। उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को ऐसा लगता है जैसे वे कृष्ण की अंतरात्मा से सीधे संवाद कर रहे हों।

पाठकों को यह शैली थोड़ी उपदेशात्मक लग सकती है, क्योंकि लेखक समय-समय पर कृष्ण के जीवन से सीख देने की कोशिश करते हैं। यह दृष्टिकोण कथा के प्रवाह को कभी-कभी धीमा कर देता है, लेकिन यह किताब के उद्देश्य—जीवन के युद्धों को जीतने की कला सिखाने के लिए जरूरी है।

चरित्र-चित्रण

 त्रिवेदी ने उपन्यास में कृष्ण को एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया है। एक चंचल बालक, एक प्रेमी, एक योद्धा, एक रणनीतिकार, और एक दार्शनिक। कथा वाचकों की पारंपरिक कथाओं में जहां कृष्ण को चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों के साथ जोड़ा जाता है, वहीं इस पुस्तक में उनकी मानवीयता और बुद्धिमत्ता पर जोर दिया गया है। उदाहरण के लिए, कंस के खिलाफ उनकी रणनीति को चमत्कार के बजाय उनकी बुद्धिमत्ता के रूप में वर्णित किया गया है।

अन्य पात्रों जैसे यशोदा, राधा, अर्जुन, और द्रौपदी भी, कथा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन वे मुख्य रूप से कृष्ण के दृष्टिकोण से ही चित्रित हैं। यह उपन्यास के आत्मकथात्मक स्वरूप को बनाए रखने में सफल रहती है।

 संदेश

“मैं कृष्ण हूँ” का केंद्रीय संदेश यह है कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन को समझना और नियंत्रित करना होगा। लेखक ने कृष्ण के जीवन को एक प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत किया है, जो यह सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी हंसते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। पुस्तक में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि कृष्ण ने अपने जीवन में हर युद्ध—चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, या राजनीतिक हो—अपने मन की शक्ति से जीता।

इसके अलावा, यह उपन्यास आधुनिक जीवन से जोड़ने की कोशिश करता है। कृष्ण की साइकोलॉजी को समझकर पाठक अपने जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित हो सकता है। यह किताब धार्मिकता से अधिक आत्म-जागरूकता और आत्म-सुधार पर केंद्रित है, जो इसे एक प्रेरणादायक और व्यावहारिक रचना बनाती है।

दीप त्रिवेदी का “मैं कृष्ण हूँ” एक ऐसी पुस्तक है जो न केवल कृष्ण के जीवन को नए नजरिए से देखने का अवसर देती है, बल्कि पाठक को आत्म-चिंतन और आत्म-विकास के लिए भी प्रेरित करती है।

कृष्ण का चरित्र हर भारतीय का जाना पहचाना हुआ है, अतः उपन्यास में रोचकता और नवीनता बनाए रखने की चुनौती का सामना लेखक ने सफलता पूर्वक किया है और एक जानी समझी कहानी को नई दृष्टि दी है।

पुस्तक पठनीय तथा चिंतन मनन योग्य है।

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ पत्थर पर बुवाई – लेखक – श्री विजय सिंह चौहान ☆ समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार ☆

सुश्री शशि पुरवार

(सुश्री शशि पुरवार जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आप 100 Women Achievers of India की सूची में शामिल हैं। आप स्वतंत्र लेखन, स्तंभकार, व्यंग्यकार, कहानीकार, गीतकार एवं संपादन कार्य संपादित कर रहीं हैं। साथ ही दिल्ली प्रेस पत्रिका के लिए लेखन कार्य भी कर रहीं हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजय सिंह चौहान जी के लघु कथा संग्रह ‘पत्थर पर बुवाई’ की समीक्षा।)

? पुस्तक चर्चा –  पत्थर पर बुवाई – लेखक – श्री विजय सिंह चौहान  ? समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार ?

पुस्तक  – पत्थर पर बुवाई

लेखक – श्री विजय सिंह चौहान

प्रकाशक –  शिवना प्रकाशन 

पृष्ठ १३२   

मूल्य १७५  रु

समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार

विजय सिंह चौहान का लघुकथा संग्रह  पत्थर पर बुवाई शीर्षक से ही आकर्षित करता है। पत्थरों की बुवाई करके समाज की कई संवेदनाओं और कुरीतियों  पर उन्होंने अपनी क़लम चलाने का बेहतरीन प्रयास किया है।

लघुकथा कम शब्दों में तीव्र प्रहार कर अपनी बात पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम होती है। विजय सिंह की लघु कथाएँ उनके मानक मैं फ़िट बैठती है। फिर भी कहीं कहीं लघु कथाएं परिमार्जन चाहती है ।

कुछ लघु कथाओं में स्त्री विमर्श के तीव्र स्वर भी नज़र आते हैं।  वर्तमान परिपेक्ष में लिव इन संबंधों से जन्मी वेदना अनगिनत प्रश्न पीछे छोड़ देती है। स्त्री  पुरुष समागम से उत्पन्न परिस्थिति में सिर्फ़ इस स्त्री को ही मानसिक भावनात्मक और ज़िम्मेदारियों से जूझना पड़ता है यह समाज की कुरीति  पर एक  करारा तमाचा है। आख़िर स्त्री की क्यों छली जाती है।  पुरुष आत्मसंतुष्टि के बाद हर बंधन से आज़ाद हो जाता है और पीछे छूट जाती है उसके द्वारा दी गई जिम्मेदारियां।  कृत्य करने में स्वीकृति पुरुष की भी होती हैं लेकिन उसका फल अकेली स्त्री ही ढोती है। स्त्री स्वाभिमान , स्त्री अस्मिता के स्वर वेदना को पाठकों तक पहुँचाने में वे सक्षम रहे हैं।

बड़ी रोटी के माध्यम से संयुक्त परिवार के महत्व को बताया गया है। उसकी यादें ताजा हो जाती है  जो वर्तमान परिपेक्ष में अस्तित्वहीन हो  गया है। कई लघु कथाएं टूटी पगडंडी, तपता बदन, कटी बाज़ू ,गृहस्वामिनी, ब्लू टिक , निर्जला, बाँझ , शकुन , मौन प्रश्न, अनगिनत संवेदनाओं को व्यक्त करने में सफल रहे हैं। कथ्य अपने पीछे प्रश्न छोड़ ते है। मुहर में सार्थक संदेश है आज के समय में हो रही बर्बादी के लिए चेतना की आवश्यकता है।

मेरे ख्याल से लघुकथा और वन लाइनर दोनों अलग है उसे इस विधा में शामिल नहीं करना चाहिए हालाँकि विजय जी अपने नपे तुले शब्दों में समाज की वास्तविकता को उकेरने में सक्षम है। लेकिन कभी कभी पंक्तियां अपनी पूर्णता चाहती है। गद्य हो  या पद्य उसकी रवानगी पाठकों को जोड़ती है शब्दों का अकारण आना बिम्बो को उकेरना कभी कभी कथ्य में स्पीड ब्रेकर का काम करता है।

मुहावरों का प्रयोग करने का अच्छा प्रयास है लेकिन कहीं कहीं वे अनावश्यक प्रतीत हुए।

कुछ लघुकथाओं में शब्दों व शीर्षक का दुहराव हुआ है ।  इस तरह के शब्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

निर्जला, सुगंधित पुष्प दोनों ही एक ही तथ्य हैं लेकिन अलग शीर्षक के नाम से लिखी गई है हालाँकि इसकी संवेदना  सकारात्मक संदेश देती है। कई लघु कथाओं में व्यंग्य का तड़का भी है जो आज के राजनीतिक माहौल की पोल खोलता है।

तपता बदन  वर्तमान परिपेक्ष में विवशता का आइना है।उसी तरह मालकिन और स्वामी दोनों के कथ्य समान है किन्तु आवरण अलग। सहभागिता मित्रों के रिश्ते में पड़ी अवांछित सच्चई को बयां करती है।  लघुकथा का सुन्दर संग्रह है।

इस बात को इंगित करना चाहूंगी कि बिम्बो में कहना अच्छी बात है  लेकिन कई बार अकारण जन्मे बिम्ब या शब्द किरकिरी का काम भी करते है। कई बार ऐसे वास्तविक परिपेक्ष से भिन्न नजर आते हैं। इस तरह की शब्द की रवानगी में अकारण  बाधा उत्पन्न करते हैं। भाषा का सौंदर्य और उसके अलंकार  ही  किसी भी प्रस्तुति में चार चाँद लगाते हैं लेकिन भाषा की अशुद्धियां उसके सौंदर्य को कम करती  हैं।

कुछ शब्दों का कई लघु कथाओं में कई बार प्रयोग हुआ है जैसे खारापन, यह दोहराव कहीं कहीं पैबंद सा प्रतीत हुआ है।  उसकी आवश्यकता नहीं थी।इसी तरह  बात का हल लहलहाने लगा , भूख से लथपथपत्र की सिलवटें, सिलवटों का समंदर ,  इसमें विरोधाभास है इस तरह के शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए क्योंकि सिलवटों का समुन्दर नहीं होता है। भाषा अलंकार की त्रुटियों से  पठनीय गेयता में बिखराव नज़र आता है।  लेखक को टंकण त्रुटि  और उसके प्रस्तुतिकरण पर ध्यान देना चाहिए।

पत्थर पर बुवाई लघुकथा संग्रह वाक़ई में समाज की कुरीतियों पर जड़ से उखाड़ने में बुवाई का काम करेगा।सभी लघुकथाएं अपना संदेश देने में सफल रही है।विजय जी अधिवक्ता भी है।  उसकी छाप उनके लेखन में भी नजर आती है। यह संग्रह पाठको को जरूर पसंद आएगा। विजय सिंह चौहान को पत्थर पर बुवाई के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं।  आपकी कलम यूँ ही अनवरत चलती रहे।   नए संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई।

शुभकामनाओं सहित

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© सुश्री शशि पुरवार

ईमेल – shashipurwar@gmail.com मो 9420519803

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 176 ☆ “कुछ यूं हुआ उस रात” – लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री प्रगति गुप्ता  जी द्वारा लिखित कथा संग्रह “कुछ यूं हुआ उस रातपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 176 ☆

☆ “कुछ यूं हुआ उस रात” – लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा

कहानी संग्रह … “कुछ यूं हुआ उस रात”

लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता

प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली

पृष्ठ १३८

मूल्य २५० रु

आई एस बी एन ९७८९३५५२१८७२८

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी, भोपाल

कुछ यूं हुआ उस रात” प्रतिष्ठित तथा अनेक स्तरों पर सम्मानित कथाकार प्रगति गुप्ता की १३ कहानियों का संग्रह है। आधुनिक समाज में मानवीय संबंधों की जटिलताओं को उजागर करती प्रतिनिधि कहानी “कुछ यूं हुआ उस रात” को पुस्तक का शीर्षक दिया गया है। “यह शीर्षक स्वयं में एक रहस्य और अनिश्चितता का संकेत देता है। यह कहानी तिलोत्तमा नामक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है, जो रात को फोन पर एक लड़की से बात करती है। यह बातचीत उसके लिए एक तरह का आधार बन जाती है, जो उसके अकेलेपन को कम करने में मदद करती है। हालांकि, एक दिन वह पाती है कि उस लड़की का फोन बंद है, और वह सोचने लगती है कि क्या वह लड़की वास्तविक थी या केवल उसकी कल्पना का हिस्सा थी। यह घटना तिलोत्तमा को भावनात्मक रूप से विचलित करती है। कहानीकार ने नायिका के मनोभावों को गहराई से चित्रित करने में सफलता अरजित की है। जिससे पाठक मन कहानी की विषयवस्तु सेजुड़ जाता है। अकेलेपन और संबंधों की तलाश से जूझता आज का महानगरीय मनुष्य तकनीक का उपयोग करके अपने अकेलेपन को कम करने की कोशिश करता दिखता है। हाल ही भुगतान के आधार पर मन पसंद वर्चुअल पार्टनर मोबाईल पर उपलब्ध करने के साफटवेयर विकसित किये गये हैं। यह थीम आज के डिजिटल युग में बहुत प्रासंगिक है। आधुनिकता की चकाचौंध में लोग इतने एकाकी हो गये हैं कि मनोरोगी बन रहे हैं। आत्मीयता की तलाश तथा सच्चे संबंधों तक तकनीक से तलाश रहे हैं। कहानी में फोन को एक ऐसे माध्यम के रूप में दिखाया गया है जो संबंध बनाने में मदद करता है, लेकिन उसे टिकाऊ बनाने में असमर्थ होता है। इसी थीम पर मैने एक कहानी रांग नम्बर पढ़ी थी।

तिलोत्तमा के चरित्र के माध्यम से लेखिका ने भावनात्मक संवेदनशीलता को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है। उसका द्वंद्व और असमंजस पाठकों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ता है, और कहानी को विचारोत्तेजक रचना बनाता है।

प्रगति गुप्ता की लेखन शैली सरल और प्रभावशाली है। उनकी भाषा में सहजता है जो पाठकों को कहानियों के कथानक से जोड़ने में मदद करती है। अभिव्यक्ति संवादात्मक और प्रवाहमय शैली में है। वे कहानियों में सकारात्मक प्रासंगिक थीम्स उठाती है और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है। यह कहानी संग्रह पिछली पीढ़ी के प्रेमचंद जैसे पारम्परिक ग्रामीण परिवेश के लेखकों की कहानियों से तुलना में अधिक आधुनिक और तकनीक-केंद्रित प्रतीत होता है। संग्रह में “कुछ यूं हुआ उस रात” केअतिरिक्त, अधूरी समाप्ति, कोई तो वजह होगी, खामोश हमसफर, चूक तो हुई थी, टूटते मोह, पटाक्षेप, फिर अपने लिये, भूलने में सुख मिले तो भूल जाना, वह तोड़ती रही पत्थर, सपोले, समर अभी शेष है, और कल का क्या पता शीर्षक से कहानियां संग्रहित हैं जो एक अंतराल पर रची गई हैं। कहानियों के शीर्षक ही कथावस्तु का एक आभास देते हैं। प्रगति गुप्ता मरीजों की काउंसलिंग का कार्य करती रही हैं, अतः उनका अनुभव परिवेश विशाल है। उनके पास सजग संवेदनशील मन है, अभिव्यक्ति की क्षमता है, भाषा है, समझ है अतः वे उच्च स्तरीय लिख लेती हैं। उन्हें वर्तमान कहानी फलक पर यत्र तत्र पढ़ने मिल जाता है। चूंकि वे अपनी कहानियों में पाठक को मानसिक रूप से स्पर्श करने में सफल होती हैं अतः उनका नाम पाठक को याद रहा आता है। उनके नये कहानी संग्रहों की हिन्दी कथा जगत को प्रतीक्षा रहेगी।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ३ – पुस्तक चर्चा ☆ ~ विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर – लेखक – श्री पवन बख्शी ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ३ ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर – लेखक – श्री पावन बख्शी ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

क्या बात है आपने तो गागर में सागर भर दिया। एक बड़े समुद्र को ऐसे समेटा कि साहित्यिक नजरे उसे नाप लें । वरना आम नजरों की क्या औकात जो समंदर को ढाँप ले। श्री रामदेव धुरंधर, मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार, जिनकी कलम, न सिर्फ यथार्थ को बयाँ करती है, बल्कि ब्रह्मांड से भी यथार्थ भरी रचनाएं उतार लाती हैं।

मेरे सामने अब बारी थी कि उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में जन्मे हिमाचल को सिरमौर मान चुके, वर्तमान में सिरमौर हि.प्र. में निवास कर रहे हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ साहित्यकार श्री पवन बख्शी जी कृति “विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर” पर अपने मानोभावों को प्रस्तुत करने की।

श्री पवन बख्शी जी ने अब तक इक्कहत्तर पुस्तक लिखी है। जिनमे ग्यारह ऐसी पुस्तक लिखी जो कि हिंदी साहित्य के विद्वान् एवं विशेष लेखकों पर आधारित हैं।

मूर्धन्य लेखकों पर लिखी जाने वाली श्रृंखला को नाम दिया है विद्वन्मुक्तामणिमालिका। आज जो पुस्तक प्राप्त हुई है वह है विद्वन्मुक्तामणिमालिका -11। श्रृंखला की इस पुस्तक का शीर्षक है “विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार रामदेव धुरंधर”। अब यह पुस्तक मेरे हाथों में थी।

मुझे इस पुस्तक की समीक्षा लिखनी थी, जो कि अब मेरा मिशन था। ब्लू जे बुक्स प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर श्री धुरंधर जी का वही पुरानी शैली का चित्र था जिसे हम उनसे जुड़ी कई पुस्तकों में देखते हैं। यह चित्र धुरंधर जी के रुचिर साहित्य को व्याख्यायत करने वाला चित्र है।

पुस्तक के लेखक श्री पवन बख्शी जी के विचार पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर ही दिख जाते हैं, जब वह इस पुस्तक को श्री रामदेव धुरंधर के पूज्य पिताजी- माताजी एवं उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीय देवरानी जी को समर्पित करते हुए लिखते हैं कि-

“उस माता-पिता को नमन जिन्होंने रामदेव धुरंधर को जन्म दिया। उस पत्नी को नमन, जिन्होंने रामदेव धुरंधर को दुनिया के रंजो गम से दूर रखकर उन्हें भरपूर लेखन में सहयोग किया।”

लेखक, सम्मानित साहित्यकार श्री धुरंधर के विषय में लिखते हैं कि- “आपके भीतर बैठे परमात्मा को मेरा प्रणाम”। श्री पवन बख्शी जी, श्री धुरंधर जी के प्रति गजब का आदर भाव व्यक्त करते हैं। धुरंधर जी की शान में एक पंक्ति और भी लिखते हैं कि “आपके बारे में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।”

आदरणीय धुरंधर जी भी श्री पवन बख्शी जी के लिए लिखने से कहां चूकते हैं। वे अपने शुभकामना संदेश “पुस्तक : विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर” में लिखते हैं – “इस शीर्षक से मेरा मानना है कि पवन बख्शी जी ने मुझे इस तरह प्रेरित किया कि इस कृति के लिए सहयोग करता जाऊं। तब तो निश्चित ही दो नाम एक दूसरे के पूरक जाएंगे, वे नाम है पवन बख्शी एवं रामदेव धुरंधर।”

अंत में श्री धुरंधर जी जी लिखते हैं – पवन बख्शी ने एक नए अंदाज में मुझ पर आधारित इस कृति का प्रणयन किया है।”

अपने इस शुभकामना आलेख में – श्री धुरंधर जी, श्री पवन बख्शी जी के अतिरिक्त डॉ राम बहादुर मिश्रा जी, श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस (मेरी) की चर्चा करते हैं। इसके अलावा श्री रामदेव धुरंधर जी डॉक्टर दीपक पाण्डेय और डॉ नूतन पाण्डेय जी का जिक्र बड़े ही स्नेह और सम्मान भाव से करते हैं, साथ ही साथ उनके द्वारा सम्पादित ऐतिहासिक कृति रामदेव धुरंधर की रचनाधार्मिता का हवाला भी देते हैं।

इन नामो के अतिरिक्त श्री राम किशोर उपाध्याय जी, डॉ. हरेराम पाठक जी, डॉ जयप्रकाश कर्दम जी, की भी चर्चा करते हैं। श्री रामदेव धुरंधर जी का ऐतिहासिक उपन्यास पथरीला सोना भी इस लेख के केंद्र में है।

श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस (स्वयं) की खुशी यह है कि- “मैं इस पुस्तक का सारथी बना” शीर्षक से छपा मेरा यह लेख मेरे चित्र के साथ है। यह लेखक एवं साहित्यकार जिनके विषय में पुस्तक लिखी गयी है, दोनों की ही भावना को दर्शाता है। श्री श्रेयस (मै) बक्शी जी के विषय में लिखते हैं – जिस स्वभाव या प्रकृति का व्यक्ति होता है ईश्वर उसकी मिलन वैसे ही स्वभाव के व्यक्तियों से कर देता है।

“ऐसे ही मेरी मुलाकात स्वच्छ एवं साहित्यिक हृदय के साहित्यकार श्री बख्शी जी के साथ होनी थी”।

लेखक ने अपनी इस पुस्तक के पांच पृष्ठों में धुरंधर जी के लेखकीय कृतित्व और उनके सम्मानों की खूब चर्चा करते है। यह पृष्ठ शोधार्थियों के लिए अति उपयोगी होंगी, ऐसा मेरा मानना है।

अपने स्वयं के आलेख “खुशी के वो क्षण जब सपना साकार हुआ” में श्री बक्शी जी, भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं महामहिम पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे कलाम जी के साथ अपने चित्र को साझा करते हैं, जिसमें वह उनकी किसी एक कृति का विमोचन करते हैं।

इसी आलेख में लेखक जब एक पुस्तक किसी विदेशी लेखक के कृतित्व व्यक्तित्व पर लिखना चाहता है तो फिर नाम आता है रामदेव धुरंधर जी का इसका जिक्र बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया हैं।

श्री धुरंधर जी पर लिखने की प्रेरणा के लिए वे मेरा और डॉ. राम बहादुर मिश्रा जी का नाम प्रोत्साहन कर्ता के रूप देते हैं। यह तो सिर्फ उनकी उदारता हुई वरना, ऐसे बड़े साहित्यकार  के लिए यह सामान्य सी बात है।

पुस्तक का पृष्ठ 19, 20, 21 और 22 श्री धुरंधर जी के जन्म से लेकर उनके लेखन की दुनिया की कहानी कुछ ही पन्नों में समेट देती है।

लेखक ने श्री रामदेव धुरंधर अन्य मित्रों से संपर्क भी किया और फिर धुरंधर जी के विषय में जो गूढ़तम और कुछ ऐसी बातें जो कि आम लोगों तक अभी तक नहीं पहुंची है उसको भी खोज निकाला, जो कि इस पुस्तक का एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मजबूत पक्ष है।

प्रख्यात समीक्षक एवं भुवनेश्वर में रहकर रचनाकर्म कर रहे विजय कुमार तिवारी जी का आलेख रामदेव जी की दिनचर्या और उनकी रचनाशीलता पर आधारित है।

किसी साहित्यकार के संस्मरण उस साहित्यकार के मन के भाव एवं उसके लेखकीय शैली को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।

लेखक ने कुछ पुस्तकों से, कुछ विद्वान् साहित्यकारों से बात कर के और ज्यादा से ज्यादा सीधे-सीधे श्री धुरंधर जी से संपर्क कर संस्मरण जुटाये है। यह श्री पवन बक्शी जी की इस पुस्तक को लाने के प्रति गहरी रुचि को दर्शाता है।

श्री रामदेव धुरंधर ने “मौत नामा”, “भुवन चाचा के बारे में”, “डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉक्टर शिवमंगल सिंह सुमन से संबद्ध एक भावभीना संस्मरण “एवं तुम्हें नमन मेरे पिता” जैसे संस्मरण देकर, इस पुस्तक की गरुता को बढ़ाया है।

श्री राम बहादुर मिश्रा जी ने श्री पवन बक्शी जी से कहा आप श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ जी से मिले रामदेव धुरंधर जी से जुडी बहुत सारी जानकारियां आपके पुस्तक के लिए मिल जाएगी। श्रेयस (मैने) भी इसे गुरबचन मान लिया। राजेश श्रेयस डॉ राम बहादुर मिश्र को अपना गुरु मानते हैं। अतः इस आदेश को उन्होंने माथे पर ओढ़ लिया। फिर क्या दो संस्मरण (मेरे लेखन का भगवान, एवं जब स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने मोटर रुकवा कर मुझे अपने साथ गाड़ी में बैठा लिया, जो श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस के शब्दों में है, इस पुस्तक के अंश बन जाते हैं।

श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस (मै) जो अक्सर उनसे संवाद करते रहते हैं उनके संवादों को सीधे सीधे शब्दों में पिरो कर साहित्य का स्वरूप दे देते हैं तो एक शीर्षक निकलकर आता है “हमारा साहित्य, भाषा, बोली और संस्कृति”।

श्री धुरंधर जी के साथ वार्ता के दौरान भोजपुरी की एक पंक्ति का जिक्र भी श्रेयस ने किया है कि – बात की बात में श्री धुरंधर जी मॉरीशस में अपने गांव की किसी घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि “फलनवा बड़ा अगरात रहल”।  

श्री धुरंधर जी के मुंह से भोजपुरी शब्द अगराना सुनकर श्रेयस आश्चर्य चकित होते है। श्री राजेश जी (स्वयं) का यह लेख बताता है कि श्री धुरंधर जी भाषायी रूप से किस प्रकार भारत से जुड़े है।

श्री रामदेव धुरंधर जी के अभिन्न मित्रों में एक नाम आता है श्री राम किशोर उपाध्याय जी का। श्री उपाध्याय जी श्री रामदेव धुरंधर जी के विषय में लिखते हुए अपने आलेख का शीर्षक देते हैं – “रामदेव धुरंधर की रचना के विषय और शिल्प दोनों के प्रति सतर्क है” अपने इस आलेख के माध्यम से श्री उपाध्याय जी ने श्री धुरंधर जी के रचना संसार के हर पक्ष को स्पर्श किया है।

भारत के श्रेष्ठ समीक्षकों में से एक श्री विजय कुमार तिवारी जी का आलेख “दुनिया में एक ही है रामदेव धुरंधर” के माध्यम से तिवारी जी श्री धुरंधर जी के ही शब्दों को उतारते हुए लिख देते हैं कि- अपने जीवन व लेखन के बारे में उन्होंने कहा कि “साधारण ग्राम्य अंचल में जन्म पाकर में यही उम्र की सीढ़ियां चढ़ता गया। “

मैंने अपने इस ग्रामीण मां की गोद में बैठकर अपने जीवन की धूप छांव को जाना है। श्री रामदेव धुरंधर के ये शब्द उनके गांव के प्रति प्रेम को दर्शाते हैं।

भारत में श्री रामदेव धुरंधर के साहित्य पर लिखा ऐतिहासिक ग्रंथ “रामदेव धुरंधर की रचना धर्मिता” सहित सर्वाधिक (पांच) साहित्यिक कृतियाँ देने वाले, एवं श्री रामदेव धुरंधर जी के अतिशय प्रिय साहित्यकार दम्पति डॉ. दीपक पाण्डेय एवं डॉ. नूतन पाण्डेय जी (सहायक निदेशक केंद्रीय हिंदी निदेशालय नई दिल्ली) ने इस पुस्तक के लिए अपना सर्वाधिक लोकप्रिय आलेख “लघु कथाएं- रामदेव धुरंधर की लघुकथाओं का वैशिष्टय को इस पुस्तक में समाहित करने की सहमति देकर इस पुस्तक की गरिमा को बढ़ा दिया है।

भोपाल मे रहकर साहित्य सृजन करने वाले विद्वान साहित्यकार श्री गोवर्धन यादव का श्री धुरंधर जी के साथ लिया गया साक्षात्कार, श्री रामदेव धुरंधर जी का व्यक्तित्व और कृतित्व धुरंधर जी के साहित्यिक एवं व्यक्ति का जीवन से जुड़े लगभग हर पक्ष को बेबाकी से रखने का सामर्थ्य रखता है।

श्री धुरंधर जी का ऐतिहासिक उपन्यास पथरीला सोना इस पुस्तक के अधिकांश हिस्सों में रमण करते हुए कहता है कि भारत से मॉरीशस पहुंचे भारतीयों की दास्तान साहित्यिक दृष्टि से दोनों देशों के साहित्यकारों के लिए कितना महत्व रखती है।

श्री रामदेव धुरंधर जी का यह सप्त खंडीय उपन्यास अतीत को वर्तमान से जोड़ने वाला, मारिशस में भारतीय संस्कृति और संस्कारों को संरक्षित रखने वाला सफलतम ऐतिहासिक और लोकप्रिय उपन्यास है।

अपनी इस पुस्तक में लेखक ने धुरंधर जी के दो लोकप्रिय कहानियों को यात्रा कराया है, जैसे -छोटी उम्र का सफर, ऐसे भी मांगे वैसे भी मांगे, किसी से मत कहना। इसके अतिरिक्त कई कहानी संग्रह के आवरण चित्र इस पुस्तक की शोभा बढ़ा रहे है, जैसे – विषमंथन, जन्म की एक भूल, अंतर मन, रामदेव धुरंधर संकलित कहानियां, अंतर्धारा, अपने-अपने भाग्य दूर भी पास भी, उजाले का अक्स।

श्री रामदेव धुरंधर की लघु कथाओं का संग्रह और उसके आवरण पृष्ठ के चित्र (प्रकाशन वर्ष के साथ) इस पुस्तक को और भी सजाते हैं, जैसे -चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आसमान, आते जाते लोग, मैं और मेरी लघु कथाएं।

इस पुस्तक में लेखक ने रामदेव धुरंधर की कुछ लघु कथाओं को भी सीधे सीधे डाला है। जैसे – कल्पित सत्य, कुछ पल के साथ ही, अपना ही भंजक, सोने का पिंजरा, चोर दरवाजा अनदेखा सत्य, आत्म मंथन, खामोश तूफान, महात्मा, जगमग अंधेरा।

श्री रामदेव धुरंधर सुधी व्यंग्यकार भी है। लेखक ने उनके लोकप्रिय व्यंग आलेख “अकेली दुकेली चिरैया को” इस साहित्यिक कृति के डाल पर बैठा कर इस कमी को पूर्ण किया है। श्री रामदेव धुरंधर के व्यंग कृतियों के कुछ आवरण चित्र भी इस पुस्तक में डाले गए हैं जिसमें – कलयुगी करम धरम, बंदे आगे भी देख, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, कपड़ा उतरता है।

श्री रामदेव धुरंधर के नाटक संग्रह प्रवर्तन और जहां भी आदमी का आवरण चित्र यह बताने के लिए काफी है कि धुरंधर जी ने नाट्यसाहित्य में भी अपनी बेजोड़ कलम चलाई है।

श्री रामदेव धुरंधर को गद्य क्षणिका का अन्वेषक माना जाता है।

आपकी गद्य क्षणिकाएं इतनी लोकप्रिय हुई, साहित्यकार मन की जुबान बन गयीं। श्री पवन बक्शी जी ने कुछ एक क्षणिकाओ को भी इस पुस्तक में उद्धरित किया है। कुछ गद्य क्षणिकाओ के संग्रह के आवरण पृष्ठ के चित्र जैसे – गद्य क्षणिका एक प्रयोग, छोटे-छोटे समंदर, तारों का जमघट को पुस्तक में डाले हैं।

श्री धुरंधर जी का गद्य क्षणिकाओ को लेकर एक और प्रयोग किया है, जिसमें 80 से कम शब्दों का प्रयोग किया गया है। लेखक ने इस पुस्तक में कुछ ऐसी क्षणिकाएं भी डाली हैं।

श्री पवन बख्शी जी ने रामदेव धुरंधर के पुरस्कार सम्मानो को नाम एवं वर्ष के अनुरूप न सिर्फ क्रमबद्ध तरीके से पुस्तक में छापा है बल्कि उन पुरस्कार और सम्मानों के चित्र भी प्रदर्शित किए हैं। ऐसा करके श्री पवन बख्शी जी ने साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले शोधार्थियों एवं साहित्यकारों के लिए श्री धुरंधर जी के साहित्य को समझने के लिए और भी आसानी प्रदान की है।

श्री धुरंधर जी की क्षणिकाएं अक्सर रामदेव धुरंधर जी के फेसबुक पेज पर आती है, तो उनके नियमित पाठक भी उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकते हैं।

“पुस्तक में सृजन के सेतु मित्रों के स्वर” शीर्षक से कुछ पाठकों की टिप्पणियों को भी स्थान दिया गया है जिसमे कुछ नियमित पाठकों में श्री राजनाथ तिवारी, श्री राम किशोर उपाध्याय, श्री महथा रामकृष्ण मुरारी, श्री राजेश सिंह, श्री वल्लभ विजय वर्गीय, श्री रामसनेही विश्वकर्मा, कुमार संजय सुमन श्री उपाध्याय, इंद्रजीत दीक्षित, दिलीप कुमार पाठक, सनत साहित्यकार, सौरभ दुबे, संजय पवार की टिप्पणीयाँ शामिल है।

श्री पवन बख्शी जी ने अपनी इस पुस्तक में श्री रामदेव धुरंधर जी को देश विदेश के बड़े बड़े साहित्यकारों के साथ चित्रों को भी दर्शाया है। इसकी अतिरिक्त श्री धुरंधर जी के पारिवारिक चित्रों को भी इस पुस्तक में खूब स्थान दिया गया है।

श्री धुरंधर जी अपनी पत्नी देवरानी जी को बहुत ही मान देते रहे हैं। उनसे जुड़े हुए संस्मरण पर आधारित लेख रामदेव की जुबानी रामदेव की देवरानी इस पुस्तक का अंश बनी हुई है।

भारत यात्रा के दौरान ताजमहल के सामने खड़े होकर श्री धुरंधर दंपति का चित्र भी इस पुस्तक को पूर्णता प्रदान कर रहा है।

साहित्यिक जीवन के सत्तर से अधिक सालों बाद का एक ऐसा शुभ संयोग जब मुझे रामदेव धुरंधर जी द्वारा साझा किया हुआ वह डाटा प्राप्त हुआ जिसमें उनके परदादा भारत के कोलकाता बंदरगाह से मॉरीशस आए थे। इस दस्तावेज के अनुसार धुरंधर जी के पूर्वजों की जन्मस्थली तात्कालिक जनपद गाजीपुर परगना बलिया जो वर्तमान जनपद बलिया, के गांव गंगोली में है का पता चलता है। राजेश श्रेयस (मेरे) द्वारा तैयार किए गए इस आलेख को “मॉरीशस साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर के पुर्वजों का गांव गंगोली बलिया उत्तर प्रदेश (भारत) राजेश सिंह की एक खोज” शीर्षक से इस पुस्तक में छापकर श्री पवन बख्शी ने इस बड़ी उपलब्धि को स्थायी मुकाम प्रदान कर दिया है।

पुस्तक के अंतिम चरण में डॉ जितेंद्र कुमार सिंह ‘संजय’ (लेखक एवं प्रकाशक ) ने श्री पवन बक्शी जी का बृहद परिचय कराया है। साथ ही साथ उनकी इक्कहत्तर कृतियों को आम पाठकों के सामने लाकर रख दिया है।

इस कृति के लेखन के बाद श्रेष्ठ साहित्यकार आदरणीय पवन बख्शी जी कहते हैं। अब जब कोई मुझसे मारीशस के  साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के बारे में पूछना या जानना चाहेगा, तो मैं कहूंगा कि लीजिए श्रीमान! 222 पृष्ठों की यह पुस्तक आपको सब कुछ बता देगी।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 11-04-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 652 ⇒ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य का एपिसेंटर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य का एपिसेंटर।)

?अभी अभी # 652 ⇒ पुस्तक चर्चा –  व्यंग्य का एपिसेंटर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह शीर्षक मेरा नहीं !

छप्पन भोग की तरह जहां छप्पन व्यंग्य एक जगह एकत्रित हो जाएं, वह वैसे भी व्यंग्य का एपिसेंटर बन जाता है। मेरे शहर में कई बाज़ार हैं, कई चौराहे हैं और कई सेंटर ! कपड़ों की दुनिया में जहां कटपीस सेंटर से लगाकर महालक्ष्मी वस्त्र भंडार तक मौजूद है। औषधि हेतु अगर भरा पूरा दवा बाजार है तो हर शॉपिंग मॉल में एक अदद बिग बाजार और ट्रेड सेंटर का तो मानो यत्र तत्र सर्वत्र साम्राज्य ही है।

पुस्तक और पाठक के बीच, लेखक ही वह मध्यस्थ है, जो दोनों को आपस में मिलाता है। बहुत कम ऐसा होता है कि पुस्तक तो पढ़ ली जाए और लेखक को भुला दिया जाए। कुछ कुछ पुस्तकें तो इतनी प्रभावशाली होती हैं कि जोर जबरदस्ती के बावजूद ( तीन चार वाक्य अगर अतिशयोक्ति न हो तो) और मन मारकर भी तीन चार पृष्ठों से आगे नहीं पढ़ी जाती। और हां, ऐसे लेखक हमेशा याद रहते हैं। ऐसे श्री कर्नल रंजीत को दूर से ही प्रणाम है। ।

रोटी, कपड़ा और मकान की ही तरह होता है, लेखक, प्रकाशक और पाठक। अगर लेखन प्रकाशित नहीं हुआ, तो पाठक तक कैसे पहुंचेगा। अतः जो छपता है, वही लेखक है। पहले समर्थ लेखक अखबार और पत्र पत्रिकाओं में छपता है, पाठक उसे पसंद करते हैं, जब उसकी पहचान बन जाती है तो एक पुस्तक का जन्म होता है। महाकाव्य, उपन्यास और गंभीर किस्म का लेखन वर्षों की मेहनत, लगन, और साधना के बाद ही एक पुस्तक का रूप धारण कर पाता है।

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक, विसंगतियां मुझे रास आ गई हैं। करें, जिनको संतन की संगत करना हो, यहां तो संगत, विसंगति की कर ले।।

सुश्री समीक्षा तेलंग

एक अच्छे लेखक को उसकी कृति ही महान बनाती है। एक वक्त था, जब पाठक केवल एक पाठक था, गंभीर अथवा साधारण ! लेखक से उसका आत्मिक और भावनात्मक संबंध तो होता था, लेकिन संवाद और साक्षात्कार संयोग और विशेष प्रयास से ही संभव हो पाता था। सोशल मीडिया और विशेषकर फेसबुक से वह सृजन संसार के और अधिक निकट आ पाया है, जहां अपने प्रिय लेखक से न केवल संवाद संभव हो सका है, अपितु दोनों परस्पर परिचय और मित्रता की राह पर ही चल पड़े हैं। मैं एक अच्छे लेखक को कभी दूर के ढोल सुहाने समझता था, अब तो मन करता है, जुगलबंदी हो जाए।

मेरे जैसे एक नाचीज़ औसत पाठक को जब फेसबुक ने कोरा कागज दिया, एक सजा सजाया की बोर्ड के रूप में मनमाफिक फॉन्ट उपलब्ध कराया और एक शुभचिंतक की तरह अनुग्रह किया, यहां कुछ लिखें, Write something here, तो एक अच्छे आज्ञाकारी बच्चे की तरह मैं भी कुछ लिखने लगा। मेरी भी कलम चलने लगी। फेसबुक पर कलम चलेगी तो दूर तलक जाएगी और मेरे हाथों अभी अभी का जन्म हो गया।।

फेसबुक एक बहती ज्ञान गंगा है। मैने इस बहती गंगा में ना केवल हाथ धोया है, बल्कि कई बार डुबकी भी लगाई है। गंभीर चिंतन मनन, अध्यात्म, कला, संगीत और साहित्य के साथ साथ सहज हास्य विनोद और व्यंग्य के एपिसेंटर तक पहुंचने का सुयोग मुझे समीक्षा तेलंग के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।

एक समर्थ व्यंग्यकार की जीभ भले ही अनशन पर हो, लेकिन उसकी लेखनी कभी कबूतर का कैटवॉक करती नज़र आती है तो कभी समाज के सम सामयिक विषयों पर वक्र दृष्टि डालने से भी नहीं चूकती। साहित्यिक गुटबाजी और महिला विमर्श जैसे लिजलिजे प्रलोभनों और प्रपंचों से कोसों दूर, केवल सृजन धर्म को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मान, प्रचार और प्रसिद्धि से दूर, अनासक्त और असम्पृक्त रहना इतना आसान भी नहीं होता। ।

समीक्षा जी को पढ़ने के बाद कुछ भी समीक्षा लायक नहीं रह जाता। बस मन करता है, पढ़ते ही जाएं, एक एक व्यंग्य को एक बार नहीं, कई कई बार ! साहित्य में कई नामवर आलोचक हुए, राजनीति में जो आलोचना का हथियार विपक्ष के पास था, भले ही आज उसे सत्ता पक्ष ने हथिया लिया हो, लेकिन

व्यंग्य की आज भी आलोचना नहीं हो सकती, सिर्फ समीक्षा हो सकती है। और जब समीक्षा जी खुद जहां मौजूद हों, वहां समीक्षा भी नहीं, सिर्फ तारीफ, बधाई और साधुवाद..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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