मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “प्रेरणादायी पुस्तके” – लेखक : श्री सुबोध जोशी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “प्रेरणादायी पुस्तके” – लेखक : श्री सुबोध जोशी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

सर्वसाधारणपणे आपण एका वेळेला एक पुस्तक  वाचतो. काही लोकांना वेगळ्या विषयांवरील दोन पुस्तके आलटून  पालटून  वाचायची सवय असते. पण एकाच वेळेला, एकाच पुस्तकात नऊ पुस्तकांचा खजिना सापडला तर ? ही किमया  केली आहे सांगलीचे प्रा.सुबोध अनंत जोशी यांनी.

श्री.सुबोध जोशी सरांचे ‘प्रेरणादायी  पुस्तके ‘ हे पुस्तक  नुकतेच प्रकाशित  झाले व वाचायलाही मिळाले. आयुष्याला प्रेरणा देणा-या व व्यक्तिमत्त्व  विकासाला चालना देणा-या नऊ पुस्तकांचा परिचय   या एकाच पुस्तकात करुन देण्यात आला आहे. एका लेखमालेच्या निमित्ताने लिहीलेले हे लेख आता पुस्तकाच्या स्वरुपात आपल्यासमोर आले आहेत. भारतीय लेखकांनी इंग्रजीत लिहीलेल्या नऊ पुस्तकांचे सविस्तर  विवेचन या पुस्तकात करण्यात  आले आहे. मुख्यतः प्रेरणा देणारी व वाड्मयीन  मूल्य असलेली पुस्तके यासाठी निवडण्यात आली आहेत. ही पुस्तके  व त्यांचे लेखक खालीलप्रमाणे.:— 

1   You Can Win…. शिव खेरा 

2   You Are Unique…. डाॅ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम 

3   Smile Your Way To… Accomplishment and Bliss… कमरुद्दीन 

4   The Best Thing About…. You Is You…अनुपम खेर 

5 Count Your Chickens …  Before They Hatch… अरिंदम् चौधरी.

6 Secrets of Happiness… तनुश्री  पोडेर

7 “The Heads – We Win; ” The Tails – We Win”… कर्नल पी.पी.मराठे

8 Winners and Losers… उज्वल पाटणी

9 The Tao of Confidence… एरी प्रभाकर 

श्री.जोशी यांनी या नऊ पुस्तकांचा परिचय  करून दिला आहे. त्यांच्याच शब्दात सांगायचे तर हे पुस्तकांचे परीक्षण नाही, तर पुस्तकाच्या सर्व  अंगोपांगांचे  रसग्रहण आहे. या पुस्तकांच्या परिचयाशिवाय  पुस्तकातील वाड्मयीन सौंदर्यही त्यांनी दाखवून दिले आहे.

या पुस्तकाचे आणखी एक वैशिष्ट्य  म्हणजे लेखकाने आपल्या प्रस्तावनेत काही मुद्द्यांवर  चर्चा केली आहे. प्रेरणा किंवा प्रेरक शक्ती म्हणजे काय ? प्रेरणाविषयक सिद्धांत, फ्राईड यांचा जीवनप्रेरणा-मृत्यूप्रेरणा सिद्धांत, मॅस्लोने  यांची गरजांची क्रमवारी, अशा अनेक संकल्पनांचा उहापोह  प्रस्तावनेत केला असल्यामुळे, मूळ पुस्तकांतील विविध लेखकांचे विचार समजून घेण्यास मदत होईल  हे नक्कीच. उत्तम व्यक्तिमत्त्व  संपादन करून  परिपूर्तता गाठणे हे अंतिम ध्येय कसे गाठता येईल  याविषयी मार्गदर्शन  करणारी ही पुस्तके आहेत. ‘व्यक्तिमत्त्व विकास’ आणि ‘भारतीय  परंपरेतील आत्मशोधन’ यातील साम्यही लेखकाने दाखवून दिले आहे. प्रेरणादायी पुस्तक म्हणजे यशाचा शाॅर्टकट नव्हे हे लक्षात ठेवून जो याचे वाचन करेल त्याच्या व्यक्तिमत्त्वाचा विकास साधणे सहज शक्य  होईल, असा विश्वास  लेखकाने शेवटी व्यक्त  केला आहे.

पुस्तकांचा परिचय  करुन देत असताना लेखकाने प्रत्येक  पुस्तकातील महत्वाचे मुद्दे वाचकासमोर ठेवले आहेत. त्यामुळे मूळ पुस्तकांतील मुद्देसूदपणा लक्षात  येतो. तसेच आपल्या मनातील अनेक संकल्पनांविषयी असलेला गोंधळ, गैरसमज  दूर होण्यास मदत होईल असे वाटते. त्यामुळे श्री.जोशी सरांच्या या पुस्तकाच्या वाचनानंतर  त्यांनी  सुचवलेली पुस्तके वाचणा-यालाच संपूर्ण  ‘फळ’ मिळेल, हे मात्र  नक्की.

या पुस्तकाचे आणखी एक वैशिष्ट्य  त्याच्या निर्मितीत दडले आहे. प्रा.सुबोध जोशी यांनी जी लेखमाला लिहिली होती, ती कल्याण येथील प्रा.मुकुंद बापट यांच्या वाचनात आली व या मालिकेचे रुपांतर पुस्तकात  व्हावे असे त्यांना वाटले. प्रा.जोशी यांनी तशी परवानगी देताच या पुस्तकाचा जन्म  झाला. परंतु विशेष असे की श्री. बापट सरांनी प्रकाशन खर्च स्वतः केला व लेखक प्रा.जोशी यांनी कोणतेही मानधन घेतलेले नाही. हे पुस्तक खाजगी वितरणाद्वारे  जास्तीत  जास्त  लोकांपर्यंत  पोहोचावे व लोकांना जीवन घडवण्यासाठी प्रेरणा मिळावी या एकाच  हेतूने हा ज्ञानयज्ञ प्रज्वलित केला आहे.

… हे सुद्धा प्रेरणादायीच नाही का ?

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #206 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 206 ☆

वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पगडंडी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पगडंडी  ? ?

कुछ राजपथ, कुछ स्वर्णपथ,

मद-भोग के पथ,

विलास के कुछ पथ,

चमचमाती कुछ सड़कें,

विकास के ‘एलेवेटेड’ रास्ते,

चमकीली भीड़ में

शेष बची संकरी पगडंडी,

जिनसे बची हुई हैं

माटी की आकांक्षाएँ,

जिनसे बनी हुई हैं

घास उगने की संभावनाएँ,

बार-बार, हर बार

मन की सुनी मैंने,

हर बार, हर मोड़ पर

पगडंडी चुनी मैंने,

मेरी एकाकी यात्रा पर

अहर्निश हँसनेवालो!

राजपथ, स्वर्णपथ,

विलासपथ चुननेवालो!

तुम्हें एक रोज़

लौटना होगा मेरे पास,

जैसे ऊँचा उड़ता पंछी

दाना चुगने, प्यास बुझाने

लौटता है धरती के पास,

कितना ही उड़ लो,

कितना ही बढ़ लो,

रहो कितना ही मदमस्त,

माटी में पार्थिव का क्षरण

और घास की शरण

हैं अंतिम सत्य..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 196 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश”।)

?अभी अभी # 195 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निकले तेरी तलाश में,और खुद ही खो गए! खोने और गुम होने का खेल यह अक्सर बचपन में ही होता है। मेलों और भीड़ में बच्चे खो जाते थे।

मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चों की अदला बदली और खोने की दास्तान जरा ज्यादा ही फिल्मी और भावुक हो जाती थी। अमीर का बच्चा खलनायक निकल जाता था, और गरीब का बच्चा नायक। अस्पताल में बच्चों की अदला बदली अब इतनी आसान भी नहीं। डीएनए का नाटक जो शुरू हो गया है। फिर भी असली जिंदगी में गुम होने और खोने की घटनाएं आम हैं।

किसी की तलाश और खुद का खो जाना अगर कभी जीवन में एक साथ हो जाए,तो उसे आप क्या कहेंगे। यह तब की बात है,जब सड़कों पर चौपाया जानवर नजर आ आते थे। कोई गाय का बछड़ा जब अपनी मां से बिछड़ जाता था, तो उसकी पुकार दिल दहला देती थी। उधर और किसी जगह बेचारी गाय भी अपने बछड़े के लिए बदहवास सड़कों पर भटकती देखी जा सकती थी। बड़ा मार्मिक दृश्य होता था यह। इधर गाय का सतत रंभाना और उधर बछड़े का म्हां,म्हां पुकारते हुए इधर उधर भटकना।।

आज की तारीख में कोई इंसान अपनी मर्जी से नहीं गुम सकता। वह किसी परेशानी के चलते,बिना बताए घर से गायब अवश्य हो सकता है। मां बाप की मार के डर से,अथवा पढ़ाई के डर से कई बच्चे घर से बिना बताए भाग जाते थे।

बेचारे परिवार के लोग परेशान, कहां कहां ढूंढे,किस किससे पूछें।

सभी रिश्तेदारों और यार दोस्तों से पूछ लिया जाता था। तब कहां फोन अथवा मोबाइल की सुविधा थी।

थक हारकर,अखबारों में तस्वीर सहित गुमशुदा की तलाश का विज्ञापन दिया जाता था। प्रिय गुड्डू,तुम जहां कहीं भी हो, फ़ौरन चले आओ। मां ने तीन दिन से खाना नहीं खाया है,दादीजी की हालत भी नाजुक है,उधर बहन ने रो रोकर बुरा हाल कर लिया है।तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की जरूरत हो तो बताना। बस बेटा,जल्दी वापस घर चले आओ। लाने वाले अथवा बताने वाले को कुछ इनाम स्वरूप पारिश्रमिक देने की घोषणा भी की जाती थी।।

सबसे सुखद क्षण वह होता था,जब गाय के बछड़े को अपनी मां मिल जाती थी और माता पिता का खोया अथवा घर छोड़कर भाग बालक वापस घर चला आता था। अंत भला सो सब भला।

कहीं कहीं भाग्य और परिस्थिति बड़ी विचित्र और विपरीत ही दृश्य उपस्थित करती है। ऐसे बच्चों को बहला फुसलाकर गलत कामों में लगा देना,अमीर बच्चों के लिए पैसों की मांग करना,तो कहीं किसी दुर्घटना में बच्चे की जान गंवा देना भी उतना ही आम है।।

आज के बच्चों पर पढ़ाई का विशेष दबाव देखा जा रहा है। एक तरफ ऑनलाइन पढ़ाई और दूसरी ओर मोबाइल का अंधाधुंध शौक। हर बच्चा तो जीनियस नहीं हो सकता,पांचों उंगलियां कहां बराबर होती है,लेकिन पालक के भी अरमान होते हैं। बच्चों की आपस की प्रतिस्पर्धा भी कभी कभी बहुत भारी पड़ सकती है।

दूर गांव के बच्चे पढ़ने लिखने के लिए शहरों में आते हैं। कुछ यहां की चकाचौंध में खो जाते हैं,तो कुछ अपने मां बाप का नाम रोशन करते हैं। एक तरह से खोने और पाने का खेल ही तो है आजकल बच्चों का जीवन।।

बेचारे बड़े तो अपने अतीत और बच्चों के सुखद भविष्य के सपनों में ही खोए रहते हैं,लेकिन कहीं बच्चों का बचपना कहीं गुम ना हो जाए,कहीं खो ना जाए। अनुकूल वातावरण नहीं पाकर आज की पीढ़ी अपने साथ न्याय नहीं कर पाती। आज स्वार्थ,खुदगर्जी और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में कहीं बच्चा ,मेले की तरह भीड़ में गुम ना जाए,भटक ना जाए,यह जिम्मेदारी आज समाज से ज्यादा माता पिता की है।

जिसका जो गुम गया,वो उसे मिल जाए,जो गुमराह हैं,उन्हें सही राह नजर आ जाए,जिसको जिसकी तलाश है, उसे वह मिल जाए। यहां उन्हें समय व्यर्थ नहीं खोना है,कई रास्ते हैं,कई मंजिलें हैं। सबको अपनी मंजिल मिले। आमीन ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #206 ☆ भावना के दोहे … चाँद ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे … चाँद)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 206 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … चाँद  डॉ भावना शुक्ल ☆

चाँद देखता चाँदनी, लगी मिलन की आस।

मिलजुल कर कब साथ हो, आए दिन वह पास।।

देख रहा है चाँद तो, बस चकोर की ओर।

नजर नजर से कह रही, हुई सुहानी भोर।।

चंद्रमुखी को देखकर, चाँद हुआ बेचैन।

कब होगा अपना मिलन, कब आएगा चैन।।

शरद सुहानी आ गई, छाई पूनम रात।

रखना बाहर खीर तुम, रात अमृत बरसात।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #190 ☆ संतोष के दोहे – धर्म… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – धर्म आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 190 ☆

☆ संतोष के दोहे – धर्म ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मानवता सबसे बड़ा, इस दुनिया का धर्म

साँच दया मत छोड़िये, करें नेक हम कर्म

दीन-दया करिये सदा, कहते दीन दयाल

परहित से बढ़कर नहीं, दूजा कोई ख्याल

आज धर्म के नाम पर, हिंसा करते लोग

समझ सके ना  मूल को, लगा अजब सा रोग

एक चाँद सूरज बने, यही धर्म का सार

सब की गणना चाँद से, एक ईश  करतार

घृणा करें मत किसी से, रखें प्रेम व्यबहार

यही सिखाता धर्म भी, करिये पर उपकार

प्रथम पूज माँ -बाप हैं, जो हैं ईश समान

उनकी सेवा कीजिये, होंगे तभी सुजान

जिनके जीवन में रहें, काम, क्रोध, मद, लोभ

उनको कब संतोष हो, बढ़ा रहे बस क्षोभ

धर्म, पंथ, मजहब सभी, सबका प्रेमाधार

धर्म सनातन कर रहा, सबका ही उद्धार

सत्य, अहिंसा, दान, तप, श्रद्धा, लज्जा, यज्ञ

इंद्रियसंयम, ध्यान, क्षमा, लक्षण कहते प्रज्ञ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ 18 वाँ बहुभाषी नाट्य महोत्सव 2023 – उद्घाटन से समापन पुरस्कार वितरण समारोह तक – एक दृष्टि ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌸 18 वाँ बहुभाषी नाट्य महोत्सव 2023 – उद्घाटन से समापन पुरस्कार वितरण समारोह तक – एक दृष्टि ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“ 🌸

☆ निर्णायक की कलम से – भव्य प्स्तुति का आकलन – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“

☆ बहुभाषी नाट्य प्रतियोगिता का भव्य उद्घाटन संपन्न। 29/10/2023 ☆

विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन और सुप्रसिध्द नाट्य कला संस्था कला सागर के तत्वावधान में अठारहवां बहुभाषी सात दिवसीय नाट्य सम्मेलन का भव्य शुभारंभ संपन्न हुआ। अतिथि द्वय नागपुर और बालीवुड के सुप्रतिष्ठित फिल्म डायरेक्टर श्री रजनीश कॉलीन्स और आरोही बिजनेसमैन शिक्षा विद डॉ डी आर जैसवाल ने उद्घाटन किया। निर्णायक त्रयी हेमलता मिश्र “मानवी”, बुद्धिजीवी वरिष्ठ नाटककार शक्ति रतन और प्राध्यापक दीपक कडू ने आयोजन में विचार व्यक्त किए।

संस्थापक श्री पदमनायर अध्यक्ष श्री गिल्लूरकर सचिव डॉ श्री बारस्कर कोषाध्यक्ष श्री सुरेश सांगोलकर और सहसचिव डॉ श्रीमती कटोच की मुख्य उपस्थिति रही।

45 वर्ष पूर्व बीजरूप स्थापित कलासागर आज नाट्यकला के क्षेत्र में वट-वृक्ष बन चुका है संस्थापक ने प्रतिपादित किया। सुंदर बौद्धिक संचालन प्राध्यापक प्रीति दुबे हर्ष ने किया। वर्तमान संस्थापक ने प्रतिदिन आयोजन हेतु दर्शक दीर्घा को आमंत्रित किया। और संस्थापक स्वर्गीय उमेश बाबू की पुण्य स्मृतियों को सादर प्रणाम किया।

अत्यंत खूबसूरत मराठी नाटिका “नकोशी” मंचन हुआ। कलाकारों की संपूर्णता समर्पण और कला-संपन्नता मंच पर सहज साकारित हुई और आगामी नाटकों की झलक ही आकर्षित कर गयी इस संदेशप्रद नाटिका के साथ।

मैं हेमलता मिश्र “मानवी” पिछले अनेक वर्षों से कलासागर के अतिथ निर्णायक दायित्व से जुड़ी हूँ। बाबूजी उमेश चौबेजी और पदम नायर जी ने यह आत्मीय सद्भाव मुझे सौंपा था। सुधिजनों ने आयोजन में सक्रिय सहभाग लिया।

☆ सरस्वती आराधना के – – – वो सात दिन!! ☆

जी हां मित्रो। सात-दिवसीय बहुभाषी नाट्य प्रतियोगिता में सम्मानित निर्णायक दायित्व के साथ सामाजिक साहित्यिक सांस्कृतिक और शैक्षणिक मानस का आल्हाद भी तो साथ था। दीप प्रज्वलन के साथ ही प्रतिदिन तीन या चार नाटकों की प्रस्तुति और हम निर्णायक-त्रयी का आपसी मंथन–मनभेद नहीं कुछ मतभेद का चेहरा आंदोलित करता लेकिन सहमति बन ही जाती। प्रतिदिन नाट्य संध्या चलती रही और निर्णायक-त्रयी का निर्णय तैयार होता रहा। पूरे 18 नाटको के 17 पुरस्कार। सर्वश्रेष्ठ नाटक सर्वश्रेष्ठ निर्देशक सर्वश्रेष्ठ लेखक सर्वश्रेष्ठ कलाकार पुरुष सर्वश्रेष्ठ कलाकार महिला सर्वश्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य नाटक सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार और इन सभी के द्वितीय तृतीय पुरस्कार।

सिर्फ़ यही नहीं हरेक कलाकार को मोमेंटो और प्रमाणपत्र। सचमुच साधुवाद के पात्र हैं कलासागर के प्रणेता संस्थापक श्री पदम नायर जी।

☆ समापन की ओर::परिणाम जानने की चरम जिज्ञासा :पुरस्कारों की ललक ☆

दिनांक 04/11/2023 समापन समारोह और पुरस्कार वितरण की सुरमयी सुनहरी साँझ ने कहा– जीना इसी का नाम है। जी हाँ – -साथियों। – हर ओर एक अनूठा जोश उत्सुक उल्लास।। “क्या पाया” – – प्रतिभागी नाटक टीमों के चेहरों पर लिखे भाव बनते बिगड़ते प्रारूप।।

समस्त गहमागहमी के बीच प्रमुख अतिथियों और अध्यक्ष श्री विनोद गिल्लूरकर कलासागर के संस्थापक आदरणीय पदम नायर जी अतिथि निर्णायक और कलासागर के समस्त पदाधिकारी गणों के महिमामय सानिध्य में सरस्वती पूजन वंदन के साथ समापन समारोह का पावन शुभारंभ। कलासागर की परिचय पुस्तिका में आदरणीय बाबूजी स्व उमेश चौबेजी को भावपूर्ण श्रद्धांजली – – अभिभूत था हर स्नेही ह्दय। सरस्वती पूजन और स्नेह वंदन की अनूठी परंपरा तथा अतिथियों का अंग वस्त्र श्वेत उत्तरीय से स्वागत।

तदनंतर महोत्सव का गीत-संगीतमय सफर–कलासागर के धीर-गंभीर मगर उत्साही अध्यक्ष मधुर गायकी के हरदिल अजीज रविशेखर गिल्लूरकर की टीम ने सरस गीतों की सुरीली फुहारों से हर ह्दय को मधुरिमा से भर दिया। एंकरिंग – – वाह क्या कहें कितना कहें – – सुशील तिवारी भारतीय रेल्वे के अधिकारी – – अपने नाटकों के लिए दिल्ली स्तर तक पुरस्कृत अभिनेता लेखक दिग्दर्शक – – गर्व है सुशील– अनुज हम लोगों की निगाह में नागपुर के गौरव हैं–निःसंदेह।

– – और वह चिरप्रतीक्षित क्षण पुरस्कार वितरण। सभी विजेता रहे हम निर्णायक-त्रयी की निगाहों में – – पर हाँ परंपरा का निर्वहण तो अवश्यंभावी है – अतः सर्वोत्कृष्ट नाटक से लेकर सर्वोत्तम बाल कलाकार तक लगभग 30 ट्राफी और 17 नाटकों के सौ से अधिक कलाकारों को खूबसूरत गरिमामय प्रमाणपत्र। वाह वाह कलासागर की संवेदनशीलता कि हर एक को सराहा हर एक को उसका दाय दिया – – कि हर एक “कलाकार” सच्चा कलाकार है जिसने इस मंच को अपनी कला का प्रतिदान दिया। हाँ प्रथम द्वितीय तृतीय की उन्नीसी-बीसी – – “चलता है भाई व्यर्थ दिमाग नहीं खपाने का।”

हर एक निर्णय के साथ दर्शक-दीर्घा से जोर से हे हे हुर्रे अहाहाहा। क्या समा–क्या खुशी भरी किलकारियाँ – – एक दूसरे की पीठ पर धौल जमते – – चल – -अरे मित्रा– दोस्त चल मंच पर।

सचमुच सारे एक से बढ़कर एक कलाकार जो एक दूसरे की खुशी में सरोबार हो रहे हैं। लाईट संगीत तथा तकनीकी भी पुरस्कृत। पुरस्कार लेकर अतिथियों और निणायकों के चरणस्पर्श करते ये सांस्कृतिक दूत से व्यक्तित्व – – साधुवाद है मेरे भारत की संस्कृति जहाँ गुरुजनों के प्रति ऐसा सम्मान और सहिष्णुता आज भी है।
कौन कहता है कि मेरा देश कहीं पिछड़ रहा है कहीं बिगड़ रहा है–नहीं मेरा भारत महान है विश्व गुरु है – – सदैव रहेगा। साहित्य संगीत और अपनी जीवंत कला-संस्कृतियों के साथ अजर-अमर है। आभार प्रदर्शन में विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रति आस्था और सम्मान – – कुर्सियां लगाने वाले कार्यक्रम से लेकर चाय बाँटने वाले तक सभी का आभार – – इसे कहते हैं रखो सबका स्वाभिमान करो अपना स्वयं का सम्मान।। साधुवाद कलासागर।

बहुत बहुत बधाईयाँ अभिनंदन और ढेरों शुभाकाँक्षा साधुवाद कलासागर ऐसे भव्य उर्वरा बहुपयोगी सांस्कृतिक महायज्ञ के आयोजन के लिए।

इतना इतना इतना न जाने कितना लिखना चाहती है – -भरे-भरे ह्दय के साथ मचल रही लेखनी के इस लेखन आग्रह को परे करते हुए समाप्त करती हूँ – – कि पाठकों की भी अपनी सीमाएं हैं अनदेखी अनकही कथाओं से आनंद पाने की— मानस की सद्भावी सुधियों के साथ जुडने की–इसलिए शेष फिर कभी – – –

प्रस्तुति –  श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी ” 

वरिष्ठ साहित्यकार नाटककार संपादिका

नागपुर, महाराष्ट्र 440010

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गझल ☆ श्री विनायक कुलकर्णी ☆

श्री विनायक कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ गझल ☆ श्री विनायक कुलकर्णी ☆ 

(वृत्त. . . वनहरिणी [मात्रा ८-८-८-८])

चाल पाहिली प्रत्येकाची सरळ कुठे ती तिरकी आहे

सुख दुसर्‍याचे पाहुन जळतो त्याची नियती सडकी आहे

तोंडावरती गोड बोलणे पाठीमागे माप काढणे

कोण बोलतो आपुलकीने बोलण्यात ही फिरकी आहे

काल कसा घालवला आपण तीच आजची मिळकत नक्की

कुणास नाही टळली सगळी कर्मफलांचीच गिरकी आहे

सुंदरतेच्या अवतीभवती वखवखलेल्या नुसत्या नजरा

मधुबाला बावरून जाते तिच्या उरी पण धडकी आहे

सहजासहजी पुण्य घडेना पापाचा मुडदाच पडेना

वरचा असतो पहात त्याची सदाच उघडी खिडकी आहे

© श्री विनायक कुलकर्णी

मो – 8600081092

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #196 ☆ भाऊबीज ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 196 – विजय साहित्य ?

☆ भाऊबीज ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

कार्तिकात द्वितीयेला

आली आली भाऊबीज

म्हणे बहिण भावाला

जरा आसवात भीज.. . . ! १

 

भाऊ बहीणीचा सण

औक्षणाचा थाटमाट

आतुरल्या अंतरात

भेटवस्तू पाहे वाट. . . . ! २

 

दोन घास जेवूनीया

आशिर्वादी मिळे ठेव

दीपोत्सव ठरे सार्थ

आठवांचे फुटे पेव. . . . ! ३

 

किती दिले किती नाही

हिशोबाचा नाही सण

ओढ नात्यांची करते

आयुष्याचे समर्पण. . . . ! ४

 

चंद्रा मानुनीया भाऊ

कुणी करी भाऊबीज.

बहिणीच्या सुखासाठी

भाऊ करे तजवीज…!  ५

 

अशी स्नेहमयी वात

घरोघरी  उजळावी.

मांगल्याची भाऊबीज

मनोमनी चेतवावी.. . ! ६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “सावळा…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “सावळा…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ना फिक्का पांढरा

ना गर्द काळा

कातरवेळेचा साथी

श्यामसुंदर सावळा

 

दैवी अलंकारांविना

दिसे खरे सौंदर्य

माणूस म्हणून जयाचे

वादातीत आहे कर्तृत्व

 

किती आले अन् किती गेले

कधी ना कधी स्वतःसाठी रडले

स्वतः जन्मून कुशीत मृत्यूच्या

त्याचे डोळे इतरांसाठीच ओले

 

कुणी पाजे दुध विषारी

कुणी बांधे झाडास

राधाही जाई सोडून तरी

हृदय फुलांचे कळे त्यालाच

 

उदास राजे अन् जनता

जिवंत चिखल हताश

तो कायम आशावादी जिथे

अर्जुना सारखा अर्जुन निराश

 

जीवनाचे इतके प्रेम

इतरांत दिसत नाही

स्वतःच असे तो ‘विजय‘

वैजयंतीमालेची त्याला गरज नाही

 

खरा मानव पुरोगामी

नाही दांभिक घमंडी

जयाच्या सेनेत घेई

लढायचा मान शिखंडी

 

जगणे त्याचे खरे

तलवारीस पाणी बुद्धीचे

रानात निराशेच्याही

सूर त्याच्या बासरीचे

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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