हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 199 ⇒ नींद हमारी, ख्वाब हमारे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नींद हमारी, ख्वाब हमारे।)

?अभी अभी # 199 नींद हमारी, ख्वाब हमारे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वे रोज हमारे ख्वाबों में आते हैं, फिर भी उन्हें पता ही नहीं होता, क्योंकि नींद भी हमारी है और ख्वाब भी हमारे ! और उधर वो बेचारे, रात भर करवटें बदलते, अनिद्रा के मारे।

पहले ऐसा नहीं होता था, क्योंकि हमें इतनी गहरी नींद आ जाती थी, कि हमें ख्वाबों का ही पता नहीं होता था। आज यह आलम है कि, ख्वाबों को नींद का, मानो इंतजार सा रहता है, इधर नींद आई, उधर से ख्वाबों का मच्छरों की तरह हमला शुरू। इन बिन बुलाए मेहमानों का आप ऑल आउट से मुकाबला भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये तो ख्वाब ही हैं, कोई हकीकत नहीं।।

ख्वाब और खर्राटे दोनों ही हमेशा नींद का इंतजार करते रहते हैं, ख्वाब देखे जाते हैं और खर्राटे लिए जाते हैं। आपके ख्वाब कोई दूसरा नहीं देख सकता और आपके खर्राटे आप ही नहीं सुन सकते।

खर्राटे को कुछ लोग शुद्ध हिंदी में साउंड स्लीप कहते हैं। कहीं कहीं तो यह साउंड स्लीप इतनी डंके की चोट होती है, कि सबकी नींद हराम कर देती है। हमारे ख्वाब, हमारे रहते, कभी किसी और को परेशान नहीं करते। कभी कभी तो, जब हम ही अपने ख्वाबों से परेशान हो जाते हैं, तो ख्वाब टूट जाते हैं और हम जाग जाते हैं।

सपने तो सपने, कब हुए अपने ! यानी हमारी जाग्रत अवस्था ही जिंदगी की सच्चाई है, चाहे कितनी भी कड़वी हो। सपना कितना भी मीठा हो, उससे कभी मधुमेह नहीं होता। फिर भी न जाने क्यों, इंसान सपनों में जीना नहीं छोड़ता। सोते जागते जो लोग एक ही सपना देखते हैं, कभी कभी उनके सपने सच भी हो जाते हैं। और अगर नहीं होते, तो बस इतनी सी शिकायत ;

मेरा सुंदर सपना टूट गया

मैं प्रेम में सब कुछ हार गई

बेदर्द ज़माना जीत गया …।।

एक स्वस्थ शरीर और मन के लिए छः से आठ घंटे की गहरी नींद जरूरी है। पुराने समय में सभी दैनिक कार्यकलाप, बिजली के अभाव में, सूरज की रोशनी में ही संपन्न कर लिए जाते थे। खेती बाड़ी, मेहनत मजदूरी, चक्की पीसना, पनघट और कुएं बावड़ी से पानी भरने जैसे पापड़ बेलने वाले काम एक व्यक्ति को इतने थका देते थे, कि बिस्तर में पड़ते ही ऐसी नींद आती थी, कि सुबह केवल मुर्गे की बांग ही सुनाई देती थी। पौ फटते ही सभी फिर काम में जुट जाते थे।

स्कूल में पाठ भी कैसे पढ़ाए जाते थे, श्रम की महत्ता, सत्यवादी हरिश्चंद्र और मेरे सपनों का भारत।

हमने अपने सभी सपनों को परिश्रम और पुरुषार्थ से सच किया, और आज हम हमारा देश सफलता, संपन्नता और आधुनिक तकनीक के जिस मजबूत और विकासशील धरातल पर खड़ा है, वह हमें विश्व में सिरमौर और विश्व गुरु बनाने के लिए पर्याप्त है। दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए।।

आज भी अगर हर व्यक्ति सप्ताह में 70 घंटे काम करे, तो कई सपने सच हो सकते हैं। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:। तगड़ी मेहनत, तगड़ी भूख और घोड़े बेचकर सोने वाली नींद। जब ख्वाब हकीकत बन जाते हैं, तब ही तो इंसान चैन की नींद सो पाता है।

शेखचिल्ली के सपने और दिवा स्वप्न देखना भी किसी मानसिक रोग से कम नहीं। अत्यधिक काम का दबाव भी मानसिक तनाव का कारण बनता जा रहा है। मोटिवेशनल स्पीच का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है स्ट्रेस मैनेजमेंट। अगर नींद हमारी है, तो ख्वाब भी तो हमारे ही होने चाहिए।

सच्चा सुख निरोगी काया

तो ही सच में कोई दुनिया को जीत पाया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 154 ☆ # उत्सव # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# उत्सव  #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 154 ☆

☆ # उत्सव  #

जगतू फूला नहीं समा रहा है

उसके चेहरे पर चमक देख

चांद भी शरमा रहा है

उसके झोपड़पट्टी में

खूब रेल पेल है

नये नये रंग, खूशबू के

किस्म किस्म के

अलग-अलग परिधानों के

लोगों की ठेलमठेल है

बस्ती में चारों तरफ जगमगाहट है

खुशियों के आने की

छुपी हुई आहट है

बस्ती में नयी सड़क और

नाली बन रही है

पीपल पेड़ के नीचे

चबूतरे पर

कहीं चिलम का सूट्टा तो कहीं

भांग छन रही है

जगतू की पत्नी

रोज नयी साड़ी बदल रही है

बच्चों के हाथों में

कहीं फटाके तो कहीं

फुलझड़ी जल रही है

बस्ती के हर झोपड़ी में

अलग-अलग झंडे लगे हैं

इस बस्ती के वासियों के तो

शायद भाग जगे हैं 

रात के अंधेरे में

कहीं अंगूरी

तो कहीं मिठाई बटी है

बस्ती वालों की रात

मदहोशी में कटी है

बिचौलिए क्या क्या चाहिए

लिख रहे हैं 

कहीं कहीं ठंड से बचने

बांटतें कंबल दिख रहे हैं

सुबह-शाम

चाय नाश्ता मुफ्त मिल रहा है

कुछ पल के लिए

चिपका हुआ पेट

अर्ध नग्न शरीर

धँसी हुई आंखें

क्लांत चेहरा

खिल रहा है

कहीं कहीं स्वादिष्ट आहार है

तो कहीं  कहीं मांसाहार  है

लक्ष्मी जी की कृपा

हर परिवार पर हो रही है

कुछ दिनों के लिए ही सही

उनकी गरीबी

दूर हो रही है

 

मैंने जगतू से कहा – भाई !

तुम्हारे तो मज़े ही मज़े है

बस्ती के सभी परिवार 

सजे धजे है

जगतू बोला – साहेब !

यह उत्सव हम गरीबों के

जीवन में खुशियां

पांच साल में

एक बार ही लाता है

फिर अगले पांच साल तक

हमें देखनें या पूछनें

कोई नहीं आता है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – श्री राजीव गजानन पुजारी – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

श्री. राजीव गजानन पुजारी

💐अ भि नं द न 💐

विशेषतः वैज्ञानिक विषयांवर अतिशय माहितीपूर्ण आणि उत्तम लेख लिहिणारे आपल्या समूहातील लेखक श्री. राजीव पुजारी यांना “मराठी विज्ञान परिषद“ या मान्यवर संस्थेने आयोजित केलेल्या विज्ञान निबंध स्पर्धेत दक्षिण महाराष्ट्र विभागात द्वितीय क्रमांक प्राप्त झाला आहे. या स्पर्धेसाठी “पंचाहत्तर वर्षातील भारताची वैज्ञानिक प्रगती“ हा मोठा आवाका असणारा विषय देण्यात आला होता. श्री. पुजारी यांना मिळालेल्या या यशाबद्दल ई-अभिव्यक्ती समूहातर्फे त्यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि त्यांना उत्तरोत्तर असेच यश मिळत रहावे यासाठी हार्दिक शुभेच्छा.

यावर्षीच्या  ई-अभिव्यक्ती दिवाळी विशेषांकात त्यांचा हा निबंध लेखस्वरूपात प्रकाशित करण्यात आलेला आहे. 

कृपया क्लिक करा 👉 ई-अभिव्यक्ती दिवाळी विशेषांक – २०२३

💐 श्री राजीव गजानन पुजारी यांचे ई अभिव्यक्ती मराठी समुहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा ! 💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संसार… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संसार☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

मंदिरांना जंगलांचा लाभला आधार होता

वादळाने आज तेथे घुमवला ओंकार होता

सूर्यतेजाने नव्याने वाटले चैतन्य होते

जागृती आल्या धरेने सोडला हुंकार होता

काळजीची रात्र होती भोवताली दाटलेली

तेज ल्यालेल्या प्रभेने संपला अंधार होता

पांखराना जाग आली निर्झराच्या बोलण्याने

कोकिळीने सुस्वरांचा छेडला झंकार होता

दूर कोठे वाजणारा नाद घंटांचाच होता

जाहला दाही दिशांना मोद अपरंपार होता

संकटे सारून मागे सौख्य थोडे भोगण्याला

ध्येयवादी माणसांनी सजवला संसार होता

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 149 ☆ अभंग…मंगल कारक, श्रीकृष्ण समर्थ.!! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 149 ? 

☆ अभंग…मंगल कारक, श्रीकृष्ण समर्थ !!

मंगल कारक, श्रीकृष्ण समर्थ

सर्वज्ञ सर्वार्थ, शक्तियुक्त.!!

द्वापर युगीच्या, शेवट चरणी

आला मोक्षदानी, महादानी.!!

कंस वधुनिया, धर्माचे स्थापन

स्वतःचे वचन, सिद्धकरी.!!

उद्धव देवाला, चार कळी-केचे

दातृत्व प्रेमाचे, करी कृष्ण.!!

गंध कुब्जीकेचा, चंदन स्वीकार

ऐसा उपहार, स्वीकारीला.!!

अर्जुनास दावी, चतुर्भुज रूप

भव्य ते स्वरूप, चक्रधारी.!!

कवी राज म्हणे, बत्तीस लक्षणी

मूर्त सुलक्षणी, मज दिसो.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?…. स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? काव्यानंद ?

☆ विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?… स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆

विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?... स्व. वि. दा. सावरकर ☆

पौर्वात्य खंड अवघें जित यत्प्रतापें

दारिद्रय आणि भय कांपति ज्या प्रतापें

नाशासि पारसिक तेहि पलांत गेले

विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?

 

तें जिंकी पारसिक, दे जगता दरातें

जें दिग्जयी बल तुझेंहि शिकंदरा, तें

ध्वंसीत रोम तव राजपुरीं रिघालें

विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?

 

साम्राज्य विस्तृत अनंत असेंचि साचें

त्याही महाप्रथित रोमपत्तनाचें

हूणें हणोनि घण चूर्णविचूर्ण केलें

विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?

 

हा उन्नती अवनतीस समुद्र जातो

भास्वान् रवीहि उदयास्त अखंड घेतो

उत्कर्ष आणि अपकर्ष समान ठेले

विश्वांत आजवरि शाश्वत काय झालें?

 

जे मत्त फारचि बलान्वित गर्ववाही

उद्विग्न- मानस उदासहि जे तयांहीं

हें पाहिजे स्वमनिं संतत चिंतियेलें

विश्वात आजवरि शाश्वत काय झालें?

     कवी – वि दा सावरकर

रसग्रहण

ही कविता ‘वसंततिलका’ या अक्षरगणवृत्ते बांधलेली आहे. एकवीस मात्रा व १४ अक्षरांच्या ओळी असणारे हे वृत्त वीर रस व शौर्य भावनेला पोषक आहे. प्रत्येक ओळीच्या शेवटी दोन गुरू (प्रत्येकी दोन मात्रांची दोन अक्षरे) येत असल्यामुळे कोणताही विचार, वाचक अथवा श्रोत्यांवर ठसविण्यासाठी ही वृत्तरचना उपयुक्त आहे. सावरकरांची ‘माझे मृत्युपत्र’ ही कवितादेखिल याच वृत्तात निबद्ध आहे. जाता जाता सावरकर निर्मित ‘वैनायक’ वृत्ताचा उल्लेख केल्याशिवाय राहवत नाही. त्यांनी अंदमानात असतांना रचलेल्या ‘निद्रे’, ‘सायंघंटा’, ‘मूर्ती दुजी ती’, ‘मरणोन्मुख शय्येवर’ यासारख्या कांही कविता तसेच ‘कमला’ व ‘गोमंतक’ (उत्तरार्ध) ही दीर्घ काव्ये त्यांनी स्वनिर्मित ‘वैनायक’ वृत्तांतच रचलेली आहेत. एखाद्याच्या प्रतिभेचा संचार किती विविध प्रांतात असावा! अलौकिक!!

प्रस्तुत कविता सावरकरांनी, पुणे येथे फर्ग्युसन कॉलेजमध्ये शिकत असताना, १९०२ साली ‘आर्यन विकली’ साठी रचली. कालांतराने ती ‘काळ’ मध्येही प्रसिद्ध झाली. त्यावेळी त्यांचं वय होतं अवघं १९ वर्षांचं! खरं तर हे वय, निसर्गात भरून राहिलेल्या सौंदर्याचं वर्णन करणार्‍या कविता किंवा शृंगाररसाने युक्त प्रेमकविता करण्याचं! पण सावरकरांनी मातृभूमीलाच मन वाहिलेलं असल्यामुळे, तिच्या स्वातंत्र्या शिवाय दुसरा कोणताच विचार त्यांच्या मनात येत नसावा. प्रखर बुद्धीमत्ता घेऊन जन्माला आलेल्या या तरूणाने, आपलं तारुण्य स्वातंत्र्य देवतेच्या चरणी अर्पण केलं होतं. अफाट वाचन, चिंतन, मनन यामुळे त्यांच्या या बुद्धीमत्तेला तेज धार आलेली होती. त्यामुळेच कोवळ्या तरूण वयात ते शाश्वत/ अशाश्वत यासारख्या विषयावर भाष्य करू शकतात. ते म्हणतात या विश्वात कोणतीच गोष्ट शाश्वत नाही. मग ती चांगली असो वा वाईट, हवीशी असो वा नकोशी! याच्या पुष्ट्यर्थ ते निरनिराळी उदाहरणे देतात.

आपल्या पराक्रमाने ज्यांनी अवघ्या पौर्वात्य खंडावर राज्य केलं, ज्यांच्या राज्यात सुखशांती व सुबत्ता नांदत असे अशा पारसिक म्हणजेच पारशांचं साम्राज्य सिंकंदराने नष्ट केले. म्हणजेच त्यांना जिंकून, त्यांचं शिरकाण करून तसेच धर्मांतर करायला लावून आपलं मुस्लीम साम्राज्य स्थापन केलं. अशा जगज्जेत्या सिकंदराचं जे सत्ताकेंद्र होतं, त्या ग्रीसवर कालांतराने रोमन लोकांनी कब्जा केला. परंतु पुढे जाऊन हूणांच्या रानटी टोळ्यांनी या अजिंक्य समजल्या जाणाऱ्या रोमन साम्राज्याचे तुकडे तुकडे केले. अशा प्रकारे उन्नती पाठोपाठ अवनती येतेच. जे जे म्हणून निर्माण होते, ते ते कालांतराने नष्ट होतेच. जे उदयाला येते त्याचा अस्त होणार हे ठरलेलेच आहे. हे ठसविण्यासाठी ऐतिहासिक दाखल्यांपाठोपाठ कवी, समुद्राची भरती ओहोटी, सूर्याचा उदयास्त असे निसर्गातले परिचित दाखले देतात आणि विचारतात, या विश्वात काय चिरंतन राहिलं आहे? ही गोष्ट बलवान, गर्विष्ठ, उन्मत्त यांच्याप्रमाणेच उदास, उद्विग्न असणाऱ्यांनी देखिल लक्षात ठेवली पाहिजे. कोणतीच स्थिती वा परिस्थिती, मग ती ऐहिक असो वा भावनिक, कायम रहात नाही. ती बदलतेच.

या कवितेतून सर्व भारतीयांना कवी विश्वास देऊ इच्छित असावेत की, भारतमातेची ही दुःस्थिती बदलणार व स्वातंत्र्याचा सूर्योदय होणार हे निश्चित!

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “ह्या वयातले चंद्र (मुखी) अभियान…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “त्या वयातले चंद्र(मुखी) अभियान…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

कसं आहे नं, आकाशातला चंद्र हा…. तो चंद्र असतो…….. पण भूतलावर आपल्याला आवडणारा चंद्र मात्र ती…… असते. त्याला चंद्रमूखी असंही म्हणतो……

भारतान आपल चंद्रयान ३ चंद्राच्या दक्षिण ध्रुवावर यशस्वीपणे उतरवल आणि इतिहास रचला. आणि यामुळेच याच्याही आधीचा आमच्या त्या वयातल्या अनेक (फसलेल्या) चंद्र(मूखी) अभियानांचा इतिहास आठवला. हा इतिहास माझ्यासह अनेकांचा आणि आपला असू शकतो.

 म्हणूनच आमच्या अभियानाचा इतिहास असं म्हटलं. नाहीतर माझा इतिहास म्हटलं असतं.

चंद्रावर यान पाठवण्यासाठी इतर देशांनी जेवढे प्रयत्न केले असतील तितकेच, कदाचित त्यापेक्षा थोडे जास्तच प्रयत्न आम्ही आमच्या चंद्र अभियानासाठी केले असतील.

यात काही जणांच हे अभियान अगदी पहिल्या किंवा कमी प्रयत्नात यशस्वी झाल. काहींच्या अभियानाला (चंद्र) ग्रहण लागल. तर काहींना त्याच चंद्रमूखीच्या मुलांनी मामा…. मामा…. म्हणत त्यांच्या मनापासून केलेल्या अभियानाचा आणि त्यांचा अक्षरशः मामा केला.

भारताने ज्या चंद्रावर यान पाठवल त्याच चंद्रावर इतर देशांनी देखील आपल्या आधी आपल यान पाठवल आहे. काही पाठविण्याच्या तयारीत असतील. पण कोणीही हा चंद्र माझा….. असा हक्क सांगायचा प्रयत्न केला नाही. पण आमच्या या चंद्रमूखी अभियानात मात्र तो चंद्र (मिळाला तर‌‌……. ) माझाच राहिल असा हट्ट होता. कारण त्याच चंद्रासाठी इतरांच्या देखील मोहीम सुरू आहेत याची जाणीवच नाहीतर पक्की खात्री होती. आम्ही सोडून दुसऱ्यांच हे अभियान यशस्वी झाल तर मात्र आमचं ते अभियान तिथेच आणि लगेच थांबवाव लागत होत. एक मात्र होत………..

आकाशातला चंद्र एकच असल्याने आणि अजूनतरी कोणाचा त्यावर हक्क नसल्याने, देशांनी आखलेली चंद्र मोहीम सफल झाली नाही तरी दुसरी, तिसरी, किंवा पुढची प्रत्येक मोहीम ही त्याच चंद्रासाठी असते. आमच मात्र तस नव्हत. मोहीम अपयशी झाली तरीही आमचे पुढच्या मोहिमेसाठी अथक प्रयत्न सुरू असायचेच.. फक्त…….. या मोहिमेसाठी आम्ही चंद्रच बदलत होतो. कारण…. कारण दुसऱ्या चंद्राचे पर्याय होते.

सर सलामत तो पगडी पचास….. याच धर्तीवर “एक चंद्र मिळाला नाही तरी, होऊ नको हताश….. ” असा आशादायी कार्यक्रम होता.

कोणत्याही अभियानासाठी गरज असते ती मदतीची, आणि तिथल्या एकूण परिस्थितीच्या अभ्यासाची. मित्रांकडून मिळणारी मदत कमी नव्हती. तसच या बाबतीत आमचाही अभ्यास काही कमी नव्हता. किंबहुना याच अभ्यासाचा ध्यास होता.

या अभ्यासात आमच्या या चंद्राची भ्रमणवेळ, भ्रमणकालावधी, भ्रमण कक्षा यांची काटेकोर माहिती घेतली जात होती. तसेच त्या चंद्राच्या आजुबाजुला असणारी शक्ती स्थळ, परिणाम करणारे घटक (नातेवाईक, भाऊ, वडील), वातावरण यांचा योग्य तो अभ्यास झालेला असायचा. या त्याच्या भ्रमण काळात त्याच्या भ्रमण कक्षेत आमच यान (मित्राची काही वेळासाठी घेतलेली दुचाकी) साॅफ्ट लॅंडींग करु शकेल का? आणि चंद्राच्या जास्तीत जास्त जवळ जाता येइल का? याचाही अंदाज घेतला जात होता. यात बऱ्याचदा एक तर आमच यान वेळेच्या अगोदरच त्या कक्षेत प्रवेश करायच, आणि साॅफ्ट लॅंडींगच्या सुरक्षित जागेच्या शोधातच योग्य वेळ टळून गेलेली असायची. चंद्र आमच्या कक्षेच्या बाहेर गेलेला असायचा.

काही चंद्रांना याची जाणीव झाली असावी. कारण अचानक त्यांची भ्रमणवेळ, भ्रमण कक्षा, भ्रमण काळ बदलायचा. मग त्यांच्या भ्रमण मार्गाचा शोध घेतांना आमच्या यानातल इंधन (पेट्रोल) किंवा ठरलेली वेळ संपण्याच्या भितीने कक्षा सोडून परत फिराव लागायच.

चंद्राचे पर्याय असलेतरी काही चंद्र मात्र केव्हा, कुठे, आणि कितीवेळ दिसेल हे सांगता येत नव्हत. पण तो दिसलाच तर.. त्याची माहिती मात्र एकमेका साहाय्य करू…… या तत्वावर लगेच मिळत होती. किंवा दिली जात होती. अगदी त्या वेळी मोबाईल नसतांना सुध्दा. यात आपापसात स्पर्धा नव्हती.

अशा या चंद्र मोहिमेसाठी काहीवेळा गरज नसताना बाजारात गेलो. न आवडणाऱ्या कार्यक्रमांना सुध्दा हसत मुखाने हजेरी लावली. पण वेळ वाया गेल्याचच लक्षात आल. कारण नेमकं कोणीतरी मधे असायचं आणि चंद्र झाकला जायचा. आणि संपर्क करण्यात अडचण व्हायची. यासाठी गरज नसतांना लायब्ररी किंवा काॅलेजच्या रीडिंग रुम मध्ये मुक्काम ठोकला. आर्टस्, सायन्स, काॅमर्स अशा सगळ्या विभागातून फिरलो…….

आशी मोहीम काही काळ सुरुच होती. (आता ही मोहीम केव्हा थांबवली हे मात्र विचारु नका. पण ती केव्हाच आणि कायमची थांबली आहे हे खरं आहे. ) त्यातलेच काही चंद्र आता मात्र चंद्रकोर न राहता पौर्णिमेच्या चंद्रासारखे गोल गोल झाले आहेत. एखाद छान शिल्प किंवा चित्र ज्या बारकाईने पहाव तस ज्यांना पूर्वी बघत होतो तेच चंद्र आता पुस्तकाची पानं चाळल्यासारख (दिसले तरच) वर वर चाळले जातात. आता ते डोळ्यांना दिसले नाही तरी फरक पडत नाही. काही तर अमावस्येच्या चंद्रासारखे लुप्त झाले आहेत. पण त्यासाठी कोणतही अभियान नाही.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ आजीची माया… – भाग-२ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ आजीची माया… – भाग-२ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

(मुलं आता आपापल्या दुनियेत व्यस्त झाली. नोकरीही करत होते. कुणी सॉफ्टवेअर तरी कुणी कुठे. नात्यात ईर्ष्या आणि गैरसमजाचा कळी शिरला की त्यात दुरावा हा येतोच.) इथून पुढे —

दुपारची वामकुक्षी घेऊन संध्याकाळी सगळेच जण हॉलमध्ये चहाला एकत्र जमले. अनसूया एका टोकाला तर प्रियंवदा दुसऱ्या टोकाला बसते हे सरस्वतीच्या केव्हाच लक्षात आलं होतं. सगळेचजण गुपचूप बसले होते.

अनसूयेचा मुलगा चिन्मय लहानपणापासून भारी चुणचुणीत आणि चौकस. तो कुणालाही बोलकं करायचा. त्यानं सरस्वतीला विचारलं, “आज्जी, तुझी आणि आजोबांची भेट पहिल्यांदा कुठं झाली होती ग?” त्याचा हा प्रश्न अगदी अनपेक्षितच होता.

“तू कधीही काहीही विचारतोस रे? काय करणार आहेस ते ऐकून?” सरस्वतीनं दटावलं.

त्यानं हसतहसत सांगितलं, “अगं आता लवकरच माझं वधू संशोधन सुरू होईल ना! मग थोरामोठ्यांचा अनुभव नको का ऐकायला?” सगळ्याच मुलांनी सरस्वतीचा पिच्छा पुरवला.

सरस्वतीच्या डोळ्यांसमोर पंचावन्न वर्षापूर्वीचा तो प्रसंग उभा राहिला. ती म्हणाली, “आमच्या घराजवळच आमच्या दोन्ही कुटुंबियांचे परिचित असलेले एक शिक्षक दांपत्य राहत होते. पहिल्यांदा तुमचे आजोबा मला त्यांच्या घरीच पाहायला आले होते.

सुरूवातीची ओळखपरेड म्हणून त्या सरांनी उभयतांना नाव, शिक्षण आणि नोकरी याविषयी विचारून घेतलं. अर्थात त्यांनी आधीच एकमेकांविषयी ती जुजबी माहिती दिलेलीच होती.

 त्यानंतर सरांनी आम्हा दोघांना पेन आणि दोन चिठ्ठ्या दिल्या आणि ‘एका ओळीत तुमचा सर्वात चांगला गुण कोणता ते लिहून द्या’ असं म्हणाले.

तुमच्या आजोबांनी लिहिलं होतं, ‘मला कधीच कुणाविषयी असूया वाटत नाही कारण मी कधीच कुणाशी तुलना करत नाही. ’ आणि मी लिहिलं होतं, ‘माझ्याशी कुणीही कितीही वाईट वागलं तरी मी मनात काही न ठेवता त्यांच्याशी गोडच वागते, बोलते. ’ 

झालं, सर आनंदाने म्हणाले, ‘संसारात एकमेकांना सांभाळून घेण्यासाठी ह्यापेक्षा आणखी कसले गुण हवेत सांगा? छत्तीस गुणाने कुंडली जुळलीय, असंच समजायचं. ‘ त्यानंतर थेट लवकरच लग्नाची बोलणी झाली आणि लग्न ठरलं!” 

“वॉव, आजी तुझी स्टोरी खूप सिंपल आहे पण इंटरेस्टिंग आहे. मामांच्याविषयी, माझी आई आणि मावशीबद्दल काहीतरी सांग ना ग. ”

“आमचं लग्न झाल्यावर, तुझ्या मामांचा जन्म झाला. ‘आयुष्यात कसल्याही प्रसंगात न डगमगता धीर एकवटून राहणारा पुरुष यशस्वी होतो’, असं सांगत त्यांनी बाळाचं नामकरण सुधीर असं केलं. मामाने केलेली धडपड, कष्ट आणि त्याची प्रगती सगळ्यांच्या समोरच आहे. तुमचे आजोबा गेल्यानंतर तो किती धीराने आणि ठामपणे उभा राहिला. आज त्यानं त्याच्या कर्तबगारीवर आम्हा सर्वांना सुस्थितीत आणून ठेवलं आहे.

सुधीरच्या नंतर तुझ्या आईचा जन्म झाला. मी त्यांना म्हटलं की तुम्ही चिठ्ठीत लिहिलेला सदगुण आठवतोय का? तेच नाव हिला देऊ या. कुणाविषयी असूया वाटत नाही अशी ती ‘अनसूया’.

त्यानंतर दोन वर्षाने तुझ्या मावशीचा जन्म झाला. यावेळी त्यांनी सुचवलं, ‘सरस्वती, ह्यावेळी तू चिठ्ठीत लिहिलेल्या सदगुणावर हिचं नाव ठेवू या. कुणीही कितीही वाईट वागलं तरी मनात काही न ठेवता त्यांच्याशी गोड वागणारी, बोलणारी अशी ती ‘प्रियंवदा’.

आता आणखी काय सांगू? तुम्ही मुलं सूज्ञ आणि संस्कारी आहात. नेमकं काय घडतंय ते तुमच्या पुढ्यातच आहे. माझं कोण ऐकतो आता? जशी ईश्वरेच्छा!” सरस्वतीने सुस्कारा टाकला.

चिन्मयनं सांगितलं, “आजी, तुला एक सिक्रेट सांगू? अगं, आम्ही सगळीच मुलं एकमेकांच्या सतत संपर्कात आहोत. अधूनमधून फोनवरून बोलत असतो. आम्हा सगळ्यांना सरस्वती आज्जींच्या मायेच्या घट्ट धाग्याने बांधून ठेवलंय. तो सहजासहजी नाही तुटणार. ” 

सरस्वतीनं चिन्मयच्या गालावरनं हात फिरवून कानशिलावर कडाकडा बोटं मोडली. “किती गुणी आहेस रे राजा. माझी सगळीच नातवंडं गुणी आहेत, संस्कारी आहेत. कुणाला काहीही वाटो. मला खात्री होती. माझी नातवंडं मार्कांच्या पलीकडे जाऊन आपलं स्वत:चं स्थान निर्माण करतील म्हणून. ” तणावाचं वातावरण थोडंसं निवळलं.

इतका वेळ दुसऱ्या टोकाला बसलेली प्रियंवदा उठून अचानक अनसूयेसमोर हात जोडून उभी राहिली आणि भरल्या डोळ्यांने पुटपुटली “ताई, मला माफ कर, माझी चूक झाली. ” 

अनसूया प्रियंवदेला मिठीत घेत म्हणाली, “वेडाबाई, चूक माझीच आहे. मीच तुझी माफी मागते. ” सगळ्या मुलांना हे अनपेक्षित होतं. सगळ्यांनी उत्स्फूर्तपणे टाळ्या वाजवल्या.

तितक्यात सुजाता ट्रे घेऊन बाहेर आली. गरम गरम लापशीचा घमघमाट सुटला होता. बाऊलमधला पहिला घास घेताच, प्रियंवदेचा मुलगा अभिराम बोलून गेला, “आजी, इतक्या वर्षानंतरदेखील तुझ्या हातच्या लापशीच्या चवीत काहीच फरक पडलेला नाही. व्वाह, मजा आ गया. थॅंक्स. ” 

 “तुझ्या मामीला थॅंक्स सांग. ती मला स्वयंपाकघरात पाऊलही टाकायला देत नाही. ” 

खरंतर, मामाची बायको सुजाता मामी सुगरण तर होतीच पण ती रोज रोज पोळी शिकरण करायची नाही. ती रोज वेगवेगळे पदार्थ करायची. महाराष्ट्रीयन पुरणपोळीपासून साऊथ इंडियन, गुजराती, पंजाबी, चायनीज असे एक ना अनेक पदार्थ बनवायची. 

मागच्या इतक्या वर्षात पडलेला गॅप विसरून मुलं एकमेकांच्या सहवासात रंगून गेली. कॅरम बोर्ड बाहेर निघाला. आता मामांनी खास मिनि-थिएटरच बनवून घेतलं होतं. अनेक वाहिन्यांवर अनेक चित्रपट हारीने मांडून ठेवलेले असतात. रोज एक दोन सिनेमे, कॅरम, पत्ते कुटणं ह्यात तीन दिवस भुर्र्कन उडून गेले. सुधीर आणि दोघ्या बहिणी पंचाहत्तरीच्या कार्यक्रमाच्या नियोजनात मश्गुल होते.

दुधात साखर म्हटल्यासारखं, कार्यक्रमाच्या दिवशी दोन्ही जावईही येऊन दाखल झाले. घर मंगल तोरणांनी, पताकांनी सजवलेलं होतं. सनईचे मंद सूर आसमंतात विरत होते. सरस्वती आसनावर बसताच “शतमानं भवति शतायु:.. ” असा धीर गंभीर मंत्रध्वनी होत असताना उपस्थितांनी तिच्यावर फुलांच्या पाकळ्यांची बरसात केली. त्यानंतर सरस्वतीनं भला मोठा केक कापला. सगळ्याच नातवंडांनी मिळून ‘तुम जियो हजारो साल’ या गाण्यांवर नाचत धमाल उडवून दिली.

वसंतरावांच्या आठवणीने सरस्वती क्षणभर हळवी झाली. ‘सरस्वती, आपण भाग्यवान आहोत. आपली मुलं गुणी आहेत. महत्वाचं म्हणजे वडिलधाऱ्यांचा आदर करणारी आहेत. ’ त्यांचे हे शब्द तिच्या कानांत घुमत होते. दिवाणखान्यातल्या वसंतरावांच्या तसबिरीकडे पाहून तिने आपसूकच दोन्ही हात जोडले तेव्हा वसंतरावांचा आधीच हसरा चेहरा आणखीनच उजळून गेला होता.

– समाप्त –

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ लेखक येता घरा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

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लेखक येता घरा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

 घरात कोणी पाहुणे आले की घराला आनंद होतो, घर खुश होतं असं मला वाटते ! घराचे घरपण हे माणसांमुळे असते आणि येणारा पाहुणा जर हवाहवासा वाटणारा असेल तर घर अधिकच आनंदित होतं ! तसं आज झालं !

रोजचा दिवस ” रंग उगवतीचे” सदराने आनंदमय करणारे लेखक श्री. विश्वास देशपांडे सर आणि त्यांच्या पत्नी, सौ श्रद्धा ताई देशपांडे आज आमच्या घरी सकाळच्या ब्रेकफास्टसाठी आले. अर्थातच त्यांच्या येण्याने चैतन्यमय वातावरणात गप्पा सुरू झाल्या. नाश्त्यासाठी इडली, सांबार, चटणी, रव्याचा लाडू असा साधाच मेनू होता. सौ. श्रद्धा वहिनींचा उपवास असल्याने फळे, कॉफी वगैरे होते. पण या सर्वांपेक्षा त्यांच्या नुकत्याच प्रकाशित झालेल्या पुस्तकांबद्दल अधिक उत्सुकता होती. त्यांची नुकतीच प्रकाशित झालेली 

” चांदणे शब्द फुलांचे “, “ अजूनही चांदरात आहे “ आणि “ आनंद निधान “ ही पुस्तके मी घेतली.. आता प्रत्यक्ष वाचेन तेव्हा त्यावर काही लिहिता येईल. त्यांच्या आधीच्या प्रकाशित झालेल्या “ अष्टदीप “ ह्या पुस्तकाची प्रत ही आत्ताच माझ्या हातात आली. त्यातील प्रत्येकाबद्दल माहिती असली तरी सरांच्या दृष्टिकोनातून या सर्व थोर व्यक्तींबद्दल चांगले वाचायला मिळणार आहे याची खात्री आहे.

रंग उगवतीचे सदर सुरू होऊन तीन वर्षे पूर्ण झाली हे पटतच नाही ! अरेच्चा, आत्ताच तर सुरू झालं हे सदर ! हे सदर इतकं नाविन्यपूर्ण असते की रोजचा रंग नवा ! सरांना विषय तरी इतके सुचतात की, ‘ साध्या ही विषयात आशय मोठा किती आढळे !’ याचा प्रत्यय ते लेख वाचताना येतो. सरांचा आणि माझा परिचय गेल्या तीन वर्षातला ! माझ्या ” शिदोरी” या पुस्तकाच्या प्रकाशनासाठी मी त्यांना आमंत्रित केले आणि त्यांनी ते मान्य करून आमच्या कार्यक्रमाला शोभा आणली. अतिशय मृदू स्वभाव, सावकाश शांतपणे बोलणे, चांगली निरीक्षण शक्ती ही त्यांची वैशिष्ट्ये आहेत. लेखनातील सच्चेपणा, साधी सरळ प्रवाही भाषा, यामुळे वाचकांशी त्यांना ‘या हृदयीचे त्या हृदयी’ असा संवाद साधता येतो. व्यक्तिचित्रण कोणतेही असो, साध्या कामगाराचे असो किंवा मोठ्या व्यक्तीचे, त्यातील बारीक-सारीक तपशीलही त्या लेखात येतात, आणि ते चित्रण मनाला भावते ! वेगवेगळ्या पुरस्कारांनी त्यांना सन्मानित करण्यात आले आहे, पण वाचकांचे प्रेम, आपुलकी मिळणे हा मोठा पुरस्कार त्यांना प्राप्त झाला आहे !

प्रथमतः मी सरांचे ” रामायण महत्त्व आणि व्यक्ती विशेष “ हे पुस्तक वाचले होते. रामायण आपणा सर्वांना परिचित आहेच, परंतु देशपांडे सरांनी ते अभ्यासपूर्ण लेखातून चांगले सादर केले आहे. त्यामुळे रावण असो वा मंदोदरी, प्रत्येक व्यक्ती-रेखा छान, वास्तव अशी लिहिली आहे. अशा या व्यक्तिमत्त्वाविषयी मला आदर आहे. यंदा त्यांना तितीक्षा इंटरनॅशनल चा पुरस्कार मिळाला आहे. या मान्यवर लेखकाचे स्वागत करताना स्वाभाविकच मला खूप आनंद मिळाला. देशपांडे सर आणि सौ. श्रद्धा वहिनींच्या सहवासात घालवलेला हा वेळ संस्मरणीय राहील, त्याची साक्ष हा त्यांच्यासोबत काढलेला फोटो देत आहेच !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “क्रौंचवध” – लेखिका – लेखिका : सुश्री शेफाली वैद्य ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलु साबणेजोशी 

?इंद्रधनुष्य? 

☆ “क्रौंचवध” – लेखिका – लेखिका : सुश्री  शेफाली वैद्य ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

काल देगलूरकर सरांच्या घरी एक अप्रतिम पेंटिंग पाहीले, त्यांना प्रख्यात चित्रकार वासुदेव कामत ह्यांच्याकडून भेट म्हणून मिळालेले. कालपासून हे पेंटिंग डोक्यातून जात नाहीये. ज्या घटनेतून संस्कृतमधल्या पहिल्या छंदोबद्ध कवितेचा आणि पर्यायाने रामायणासारख्या महाकाव्याचा जन्म झाला, त्या क्रौंचवधाच्या घटनेचे हे चित्र, वासुदेव कामतांसारख्या सिद्धहस्त चित्रकाराच्या कुंचल्यातून उतरलेले.

मूळ कथा अशी आहे की गंगेची उपनदी असलेल्या तमसा नदीच्या तीरावर ऋषी वाल्मिकींचा आश्रम होता. एकदा भल्या पहाटे नित्याची आन्हिके उरकायला ऋषी वाल्मिकी भारद्वाज ह्या आपल्या शिष्यासह तमसातीरी आलेले असताना त्यांना प्रियाराधनात गुंग असलेली क्रौंच म्हणजे सारस पक्ष्यांची जोडी दिसली. हे पक्षी आयुष्यात एकदाच जोडीदार निवडतात आणि त्याच्याशी एकनिष्ठ राहतात. त्यांचे प्रियाराधनाचे नृत्यही बघण्यासारखे असते. कितीतरी वेळ नर आणि मादी क्रौंच पक्षी स्वतःभोवती आणि एकमेकांभोवती गिरकी घेत नृत्य करत असतात. असेच नृत्य पहाटेच्या त्या धूसर, निळसर प्रकाशात ऋषी वाल्मिकींनी पाहिले असावे आणि त्या डौलदार, देखण्या नृत्याने ते क्षणभर हरवून गेले असावेत.

पण त्याच क्षणी कुणा व्याधाचा बाण वेगाने आला आणि एका क्रौंच पक्ष्याचा वेध घेऊन गेला. आपल्या जोडीदाराला पाय वर करून तडफडताना बघून मादी क्रौंच पक्षी करूण विलाप करू लागली. ते बघून ऋषी वाल्मिकींचे कवी हृदय द्रवले आणि त्यांच्या तोंडून अवचित शब्द उमटले,

‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।’

म्हणजे, “हे निषाद, तुला कधीच प्रतिष्ठा लाभणार नाही, कारण तू ह्या काममोहित अश्या क्रौंच पक्ष्यांच्या जोडीची अकारण ताटातूट केली आहेस. ” 

अतीव करुणेतून जन्मलेले हे संस्कृतमधले पहिले काव्य. स्वतःच्याच तोंडून निघालेला तो श्लोक ऐकून ऋषी वाल्मिकी भारद्वाजांना म्हणाले,

‘पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।

शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।।’

म्हणजे शोकातून जन्मलेला हा श्लोक आहे, ज्याचे चार चरण आहेत, प्रत्येकात समान अक्षरे आहेत आणि एक नैसर्गिक छंदोबद्ध लय आहे.

करुणेतून जन्मलेले हे काव्य ऐकूनच साक्षात ब्रह्मदेवांनी वाल्मिकी मुनींना आदिकवी अशी पदवी दिली आणि त्यांना सांगितले की त्यांनी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामाची कथा छंदोबद्ध काव्यातून जगाला सांगावी, जी जोपर्यंत या पृथ्वीतलावर नद्या वाहतील आणि पर्वत उभे असतील तोवर लोकांच्या मनातून नष्ट होणार नाही! 

यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।

तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति॥’

ह्या सुंदर आणि करुण कथेच्या त्या निर्णायक क्षणाचे हे चित्र आहे. पहाटेचा निळसर, धूसर, अस्फुट प्रकाश पसरलेला आहे, पण आभाळ अजून काळवंडलेलेच आहे. तमसेचा प्रवाहही निळसर, तलम, स्वप्नवत आहे. बाण वर्मी लागलेला क्रौंच पक्षी पाय वर करून पाण्यात पडलेला आहे, त्याच्या छातीवर रक्ताचा लालभडक डाग आहे, शेजारी मादी पक्षी चोच उघडून आक्रोश करते आहे. बाण लागल्यामुळे तडफडणाऱ्या पक्ष्याची पिसे वाऱ्यावर उडून गिरकी घेत खाली येत आहेत आणि ह्या विलक्षण करुण पार्श्वभूमीवर शुभ्र वस्त्रधारी तपस्वी ऋषी वाल्मिकी अर्घ्य देता देता थबकले आहेत. त्यांचा चेहरा वेदनेने विदीर्ण झालेला आहे. त्या वेदनेमागे सात्विक संतापही आहे आणि त्या भावनेतून जन्मलेला जगातला पहिला काव्यमय शोक श्लोकरूपात उमटत आहे असे हे चित्र! 

ऋषी वाल्मीकींच्या चेहऱ्यावरची रेषा न रेषा बोलतेय. त्यांचे दुःख त्या पहाटेच्या निळसर आभाळाइतकेच विशाल आणि सर्वसमावेशक आहे. चित्रकार वासुदेव कामत हे त्यांच्या पोर्ट्रेट्ससाठी जगभरात प्रसिद्ध आहेत. पोर्ट्रेट किंवा व्यक्तिचित्र काढताना केवळ ’हुबेहूब व्यक्तीसारखेच चित्र काढणे’ हा इतकाच निकष कधीच नसतो.

व्यक्तिचित्र काढताना ते तांत्रिकदृष्ट्या निर्दोष तर असावेच लागते, पण ज्या व्यक्तीचे चित्र ज्या क्षणी काढले गेले, त्या क्षणाची भावस्थिती अचूक टिपणे हे सोपे नसते आणि त्याहीपेक्षा महत्वाचा असतो तो त्या चित्राचा पाहणाऱ्या रसिकाच्या हृदयाला थेट भिडणारा अनुभवही, जो चित्र चांगले की अत्युत्तम हे ठरवतो. क्रौंचवधाच्या ह्या चित्रात हे तिन्ही घटक सुरेख जुळून आलेले आहेत. हे चित्र आणि त्याचा परिणाम दीर्घकाळ मनात रेंगाळत राहतो आणि चित्र पाहणा-या माणसाचे मनही ह्या चित्रातल्या अपार करुणेने ओलावल्याशिवाय राहवत नाही.

लेखिका : सुश्री शेफाली वैद्य

संग्राहिका : सुश्री सुलू साबणे जोशी

मो – 9421053591

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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