हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 7 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)

? यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 7 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ?

ताकतवर ₹ है या $

इकानामिक्स भी पूरा राकेट साइंस है । जाने किन किन कारणों से करेंसी की क़ीमत कम ज्यादा हो जाती हैं, बजट आते ही शेयर का केंचुआ नीचे ऊपर होने लगता है ।

किसी शक्ति शाली देश की सरकार बदले तब तो दुनियां भर में अर्थशास्त्री अनुमान के गणितों की हेडलाइंस बनाते ही हैं। ब्रिटेन में उसी पार्टी की सरकार है, केवल प्रधान मंत्री बदले हैं, वहां की करेंसी पौंड्स £ के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य ही बदल गए । कभी लगभग 100 भारतीय रु का पाउंड पिछले दो चार दिनों से 87 रु का हो गया है। मतलब लगभग डालर की कीमत पर ।

बहरहाल मैं आम आदमी की दृष्टि से रुपए और डालर की ताकत समझना चाहता हूं। कल शाम मैं पत्नी के साथ कुछ सामान लाने जर्सी के एक एशियन मार्केट गया था। दो चार दिनों के लिए, तीन व्यक्तियों के उपयोग लायक फल सब्जियां और किचन के कुछ अन्य सामान खरीदे , तीन कैरी बैग में सामान आ गया । बिल बना लगभग 100 डालर । अर्थात कोई आठ हजार रुपए । इतने रुपयों के बिल से भारत में मैं ट्राली भरकर महीने भर का राशन ले आता हूं ।

हंसते हुए मैंने यह बात बेटे से कही , तो उसने कहा की आप करेंसी कनवर्ट करके सोचना बंद कर दीजिए अन्यथा जब दस डालर में एक प्लेट समोसे और कोक लेंगे या तीस चालीस डालर में सामान्य सा भोजन करेंगे तो आप परेशान हो जायेंगे ।

जेएफके एयरपोर्ट से जर्सी सिटी तक का टैक्सी का किराया 150 $ होता है अर्थात कोई बारह हजार रुपए , यात्रा कोई एक डेढ़ घंटे में पूरी होती है , वह भी तब जब यहां पेट्रोल सस्ता है , गैलन में मिलता है , महज लगभग 80 रु लीटर ।

अब आप ही तय करिए की आम आदमी के लिए रुपया ताकतवर हुआ या डालर ?

विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 110 ☆ ॐ – शारद स्तुति… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ॐ – शारद स्तुति…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 110 ☆ 

☆ ॐ – शारद स्तुति… ☆

माँ शारदे!

भव-तार दे।

 

संतान को

नित प्यार दे।

 

हर कर अहं

उद्धार दे।

 

सिर हाथ धर

रिपु छार दे।

 

निज छाँव में

आगार दे।

 

पग-रज मुझे

उपहार दे।

 

आखर सिखा

आचार दे।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२५-९-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #142 ☆ मैं गंगा मां हूं – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 142 ☆

☆ ‌एक आत्म कथा – मैं गंगा मां हूं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हां हां पहचाना मुझे! मैं गंगा मां हूं।

मैं गंगा मां ही बोल रही हूं, क्या सुनाई दे रही है तुम्हें मेरी आवाज़?

मैं गंगा के किनारे पूर्णिमा के दिन रात्रि बेला में धवल चांदनी से युक्त निस्तब्ध  वातावरण में गंगा घाट पर अपनी ही धुन में खोया हुआ बैठा था, गंगा में चलने वाली नावों के चप्पुओं की गंगा जल में छप छप करती लहरों से अठखेलियां करती  आवाजों तथा गंगा की धाराओं से निकलने वाली कल-कल ध्वनियों में खोया हुआ था कि सहसा किसी नाव पर रखे रेडियो पर आकाशवाणी विविध भारती से बजने वाले गीत ने मेरा ध्यान आकर्षित किया————

*मानो तो मैं गंगा मां हूं,ना मानो तो बहता पानी*

और ये गीत मेरे मन की अतल गहराइयों में उतरता चला गया और उस चांदनी रात की धवल  जल धारा से एक आकृति प्रकट होती हुई जान पड़ी जो शायद उस मां गंगा की आत्मा थी। और अपने पुत्र भीष्म पितामह की तरह मुझसे  भी संवाद करने के लिए व्यग्र दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर चिंता और विषाद की अनगिनत रेखाएं झलक रही थी। उनके दिल में जमाने भर का दर्द समाया हुआ था। जो बातों बातों में दिखा भी।

फर्क सिर्फ इतना था कि महाभारत कालीन भीष्म अपने हृदय की पीड़ा मां गंगा से कहते थे, लेकिन आज  मां गंगा स्वयं अपने धर्मपुत्र यानि मुझ लेखक सेअपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करने को आतुर दिखी थी। वे मुझे ही संबोधित करते हुए बोल पड़ी थी।

लो सुन लो तुम भी मेरी व्यथा कथा,ताकि मेरे हृदय का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।

हां अगर तुम मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता हुआ पानी हूं।

लेकिन मेरा दोनों ही रूप जनकल्याणकारी है। यदि मैं एक मां के रूप में आस्थावान लोगों से पूजित हो लोगों को अपनी ममता  प्यार  और दुलार देकर तारती हूं, औरउनके द्वारा पूजित हूं तो , नास्तिक लोगों के अनुसार बहते हुए जलधारा के रूप में इस मानव समुदाय को पीने के लिए शुद्ध जल  अन्न फूल फल भी उपलब्ध कराती रही हूं। इस तरह मेरा दोनों रूप लोक-मंगल कारी था।

 यूं तो मेरा जन्म पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार भगवान श्री हरी के चरणोदक से हुआ है। लेकिन रही मैं युगों-युगों तक ब्रह्मा जी के कमंडल में ही। उन्हीं दिनों परमपिता ब्रह्मा ने राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयत्न से प्रसन्न होकर मुझे उनके पूर्वजों के तारने का लक्ष्य लेकर ब्रह्म लोक से अपने कमंडल से मुक्त कर दिया। जब प्रबल वेग से हर-हर करती पृथ्वी की तरफ चली तो सारी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था।मेरा वेग रोकने की क्षमता सृष्टि के किसी प्राणी में नहीं थी। इसी लिए घबरा कर राजा भगीरथ एक बार  भगवान शिव की  शरण में चले गए, उस समय भगवान शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो मुझे अपनी जटाओं में उलझा लिया था। तथा राजा भगीरथ के आग्रह पर कुछ अंशों में मुझे मुक्त कर दिया था। मैं गोमुख से प्रकट हो गंगोत्री से होती हुई  उनके पुरखों (राजा सगर की) संततियों को तारने हेतु भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी थी। और उनका तारन हार बनी  ऐसा पुराणों का मत है तथा इतिहास की गवाही।

उसके बाद से  अब तक मैंने  अच्छे-बुरे बहुत समय देखें, मैंने लोगों का श्रद्धा विश्वास और भरोसे से भरा हृदय देखा मैंने देखा कि किस प्रकार लोग अपना इहलोक और परलोक संवारने हेतु मुझमें  गोते लगाते और मेरा पावन जल पात्रों में भर कर देवताओं का अभिषेक तथा आचमन करने हेतु ले जाते थे। एक विश्वास ही उनके भीतर था, जो उन्हें अपने परिजनों के चिता की राख  को उनके तारण हेतु मुझमें प्रवाहित करने हेतु विवश करता था। लेकिन आज़ मैं विवश हूं। मुझे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जीवन और मृत्यु की जद्दोजहद में इस आशा विश्वास और भरोसे के साथ जी रही हूं कि भविष्य में शायद इस मानव कुल में कोई महामानव भगीरथ बन पैदा हो और मेरा पूर्वकालिक स्वरूप वापस देकर मुझे नवजीवन दे दे। आज मैं मानवीय अत्याचारों से दुखी अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही हूं।

मुझे खुद के भीतर की गंदगी और खुद का घिनौना रूप देख खुद से घृणा  तथा उबकाई आने लगी है। और इस सबका जिम्मेदार सामूहिक रूप से तुम्हारा मानव समाज ही  है।  कोई समय था जब मैं गोमुख से  अपनी धवलधार संग राजा भगीरथ के पीछे पीछे जड़ी बूटियों का सत  लेकर मंथर गति से चलती हुई मैदानी इलाकों से गुजर कर सागर से जा मिली थी और गंगासागर तीर्थ बन गई थी।उस समय हमारा मिलन देख देवता अति प्रसन्न हुए थे। तथा सागर ने अपनी बाहें पसार कर अपनी उत्ताल तरंगों से मेरा स्वागत किया था।अपनी उत्ताल तरंगों तथा मेरी कल कर की ध्वनि  सुनकर सागर भी सम्मोहित हो गया था तथा मेरे साथ छाई छप्पा  खेलते हुए एक दूसरे में समाहित हो मैंने अपना अस्तित्व गंवा दिया था और सागर बन बैठी थी।

 उस यात्रा के दौरान अनेक ऐसे संयोग बने जब अनेकों नद नाले आकर मुझमें समा गए। तब मुझे ऐसा लगता जैसे वे अपने पावन  जल से मेरा अभिषेक करना चाह रहे हों। लेकिन अब मैं क्या करूं, किसके पास जांऊ अपनी फरियाद लेकर। कौन है जो सुनेगा मेरी पीड़ा ,  क्यौ कि अब तो मेरे पुत्रों की आने वाली पिढियां गूंगी बहरी तथा  पाषाण हृदय पैदा हो रही है। उनका हृदय भी भावशून्य है। अब उन सबको मेरा यह बिगड़ा स्वरूप भी आंदोलित नहीं करता। लोगों ने जगह जगह बांध बना मेरी जीवन रेखा की जलधारा को छीन लिया। मुझमें गन्दे नाले का मल जल तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहा कर  जिम्मेदार लोगों ने अवैध धन उगाही की मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। और मेरी सफाई के नाम पर  भ्रष्टाचार की एक नई अंतर्धारा बहा दी। मेरे सफाई के नाम पर अरबों खरबों लुटाए गए फिर भी मैं साफ नहीं हुई। क्योंकि मेरी सफाई के लिए जिस दृढ़ इक्षाशक्ति और इमानदार प्रयास की जरूरत थी वो नहीं हुआ उसके साथ ही अपनी मुक्ति का सपना संजोए मेरे पास आने वाली तुम्हारी पीढ़ियों के लोगों ने भी आस्था के नाम पर मुझे गंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि लगभग सवा अरब की आबादी वाली सारी औलादें नाकारा हो गई है।

मैं तो सदियों सदियों से चिताओं की राख  लेकर लोगों को मोक्ष देती रही तथा श्रद्धा से समर्पित फूल मालाओं की डलियां लेती रही लेकिन कभी भी इतनी गन्दी नहीं थी।

आखिर इस देश के नीति-नियंताओं के समझ में यह साधारण सी बात कब आएगी?, मेरी गंदगी का कारणबने नालों कचरे कब रोके जाएंगे? 

मेरी  जीवनजलधारा  को अनवरत जलप्रवाह कब प्राप्त होगा?

यदि मेरी जल धारा को मुक्त कर दिया जाए तथा नालों की गंदगी रोक दी जाए तो मेरी सफाई की जरूरत ही न पड़े।

तुम सब याद रखना यदि मेरी जलधारा मुक्त नहीं हुई तुम सबका राजनैतिक शह मात का खेल चलता रहा तो मैं तो एक दिन  अकालमृत्यु मरूंगी ही मेरी अंतरात्मा के अभिशाप  से तुम्हारी पीढ़ियां भी जल के अभाव में छटपटाते बिलबिलाते हुए मरेंगी। और मैं अतीत के इतिहास में दफन हो कर कालखंड के इतिहास का पन्ना बन कर रह जाउंगी। फिर तुम्हारी पिढियां मेरी मौत पर मातम मनाने का तमाशा करती दिखेंगी।

अब भी चेत जाओ ,हो सके तो मुझे जीवन देकर मौत से अपनी सुरक्षा कर लो। इस प्रकार संवाद करते हुए मां गंगा के चेहरे पर  आक्रोश छलकने  लगा कि सहसा गंगा घाट पर चलने वाले  प्रवचन पंडाल से यह ध्वनि सुनाई पड़ी——

जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।

तैसई नाथ पुरुष बिनु नारी।।

जो जीवन के यथार्थ समझा गई थी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ती… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ती💦 सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

आठवांचा पिंगा बाई

माझिया तनामनात

तिच्या असंख्य रुपांची

सजे आरास मनात

 

रणरागिणी, मायभवानी

शिवाची तू अर्धांगिनी

शौर्यासह माया नांदते

तू सुंदरा,गे ओजस्विनी

 

असुर माजले दुराचारी

भोग्य मानती ते नारी

त्यांचे करण्या निर्दालन

रुप घेई गे तूच विखारी

 

कठीण वज्रापरी,कधी

लोण्याहूनी मृदू अंतरी

रुप तिचे असेच ईश्वरी

तीच गे योगयोगेश्वरी

 

वेदानीही ना जाणिले

रुप तुझे अगम्य ऐसे

विश्वाची चैतन्य ऊर्मी

तेज सौदामिनी जैसे

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मी पण लहानच आहे नं?… भाग २ (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?जीवनरंग ?

☆ मी पण लहानच आहे नं?… भाग (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर

आणखी एक गोष्ट आहे. मी लहान होतो, तेव्हा पप्पा माझ्यावर खूप प्रेम करायचे. सुट्टीच्या दिवशी तर मी किती तरी वेळ पाप्पांच्या पाठीवर, पोटावर खेळत राह्यचो. पप्पांचं पोट उलटी थाळी ठेवल्याप्रमाणे काहीसं फुगलेलं होतं. ते पलंगावर उताणं झोपून मला पोटावर बसवत आणि जोराजोरात श्वास घेऊन सोडत, तेव्हा मला वाटायचं मी उंटावरून फिरतोय. मम्मी पण सुट्टीच्या दिवशी तेल लावून अंगाला खूप मालीश करून आंघोळ घालायची. पण आज –काल या सगळ्या गोष्टींवर विनयने कब्जा केलाय. परवाच घडलेली गोष्ट सांगितली, तर त्यावरून आपण अंदाज बंधू शकाल. तर परवा काय झालं की मी मम्मीला म्हंटलं, ‘मम्मी माझी नखं काप ना1’ मम्मी म्हणाली, ‘पप्पांच्या शेव्हिंग बॉक्समध्ये नेलकटर आहे. ते काढून तू आपापलीच काढ ना! आता तू मोठा झालायस!’

‘हो, आणखी माहीत आहे का? आज-काल आमच्या घरी कुणी आलं की विनयबद्दलच बोलणं होतं. त्याने केव्हा कोणता खट्याळपणा केला, कुणाला काय सांगितलं, कधी काय खायला मागितलं, कधी काय खाल्लं नाही, त्याला काय आवडतं, काय आवडत नाही… इ. इ. आधी कमीत कमी माझ्या अभ्यासाबद्दल तरी बोललं जायचं, मला कुणाच्या पुढे, पोएम म्हणायला किंवा स्टोरी सांगायला सांगितलं जायचं, पण आज-काल माझ्यासाठी कुणाकडे वेळच नसतो. आता कालचीच गोष्ट. अनिकेत अंकल आणि आंटी आले होते. त्यांची बन्नी प्री-केजीमध्ये होती. आत्ता के. जी.त गेलीय. माझ्याच शाळेत आहे. तिच्या डिव्हिजनमध्ये ती सेकंड आली. अनिकेत अंकल आणि आंटीने बन्नीबद्दल किती सांगितलं, तिची टीचर हे म्हणत होती… ते म्हणत होती. मी सेकंड क्लासमध्ये, ए. बी, सी, डी. चारी डिव्हिजनमध्ये फर्स्ट आलो होतो. मी मम्मी-पप्पांकडे बघत होतो की ते माझ्याबद्दल अनिकेत अंकल आणि आंटीशी बोलले की मी माझी रिझल्ट –शीट काढून त्यांना दाखवेन. पण काही नाही. शेवटी मी मम्मीच्या कानात सांगायला तिच्याजवळ गेलो, तर तिने माझं म्हणणं न ऐकताच मला म्हणाली, ‘आम्ही मोठी माणसं  बोलतोय ना! जरा बाहेर जाऊन खेळ बरं!’ अनिकेत अंकल – आंटी खूप चांगले आहेत. के. जी. वनमध्ये माझा रिझल्ट पाहून त्यांनी मला  शंभर रुपये दिले होते.

आज-काल माझी केवळ एकच ड्यूटी असते. आमच्या घरी कुणी आलं की उठून त्यांना नमस्ते करायचं आणि कधी कधी त्यांना पाणी आणून द्यायचं त्यानंतर सारं घर, सारं वातावरण विनयचं होऊन जातं.

आज-काल मम्मी-पप्पा नेहमी विचारतात, मी अलीकडे गप्प गप्प का असतो? काय सांगू मी त्यांना? कितीदा वाटलं, ओरडून ओरडून या सगळ्या गोष्टी, ज्या आपल्याला सांगितल्या, त्या मम्मी-पप्पांना सांगाव्या. पण मला माहीत आहे, ते काय म्हणणार? ते हेच म्हणणार, ‘अनुनय बाळा, तू आता मोठा झालाहेस. तू समजूतदार व्हायला हवंस!’ म्हणून विचार केला की आपल्यालाच सांगावं. मानलं की विनय आल्यानंतर मी मोठा झालो, पण तरीही शेवटी मी पण लहानच आहे नं?

– समाप्त –

मूळ हिंदी  कथा – ‘ मैं भी तो छोटा ही हूँ न  ’  मूळ लेखक – भगवान वैद्य `प्रखर’

अनुवाद –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ नवीन फंडा… सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ ☆ प्रस्तुती – सुश्री दीप्ती गौतम ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ नवीन फंडा… सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ ☆ प्रस्तुती – सुश्री दीप्ती गौतम ☆

विरंगुळा म्हणून आजी आपल्या लेकाकडे राहायला आली.  आज रविवार, सगळे घरी एकत्र भेटतील या विचाराने  सुखावली.

सकाळी उठल्यावर पाहते तर तीन खोल्यात तीन माणसं बघून भांबावली. लेकाची आणि सुनेची खोली वगळून तिने नातीच्या रूमकडे पावलं टाकली. मोबाईलवर स्क्रोलिंग करत लोळत पडलेली नात आजीला पाहून, ‘ये बस’ म्हणाली. ‘नाश्त्याला काय करायचं, हे विचारायला आले होते’, असं म्हणत आजी मऊ गादीवर बसताच बेडमध्ये रुतून गेली. नातीने तिघांच्या फॅमिली व्हॉट्स अप ग्रुपवर आजीचा मेसेज फॉरवर्ड केला. स्वीगीने मागवून घेऊया, असा आईचा रिप्लाय आला. घरातल्या घरात मेसेजवर बोलणारे लोक पाहून आजी आश्चर्यचकित झाली. इथे हाकारे ऐकू आले नाहीत, तरी मेसेज पुढच्या क्षणाला रीड होतो, असं नात म्हणाली. गृह कलह टाळण्याचा नवीन फंडा बघून आजी इम्प्रेस झाली. नातीकडून मोबाईल शिकून घेत फॅमिली ग्रुपमध्ये टेम्पररी ऍड झाली. आजी तिच्या सेपरेट रूममध्ये मोबाईलसह दहा दिवस सुखाने राहिली. मुलाला-सुनेला आशीर्वादाचा इमोजी आणि नातीला gpay करून परत निघताना ग्रुपमधून लेफ्ट झाली.

लेखिका :सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ

संग्राहिका :सुश्री दीप्ती गौतम.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र – भाग 2 (मूळ संस्कृत स्तोत्र व त्याचा मराठी भावानुवाद) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र – भाग 2 (मूळ संस्कृत स्तोत्र व त्याचा मराठी भावानुवाद) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री  ☆

(रचैता : रामकृष्ण —-वृत्त : दुसरी सवाई) 

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके

कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।

कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥८॥

 

कंगण लखालख होत जयांचि धनूसह शोभत  युद्धभुमी 

शर कनकासह शोणित होती रुधीर तयांवर लाल मणी   

करुनि निनाद बटू बनवूनि असूर वधीसि रिपूस रणी 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||८|| 

 

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते

कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।

धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥९॥

 

तत ततथा थयि ताल घुमोनि पदे थिरकीत तुझीच रमे  

कुकुथ गडाद ददीक रमून मनातुनि मृदुंग ताल घुमे 

रंगुनि धुधूकुट धुक्कुट मृदुंग धिंधिमिता करितात  स्वरे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||९|| 

 

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते

झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।

नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१०॥ 

 

जयजयकार करीतच  विश्व समस्त तुलाच प्रणाम करी

झणझणझीझिमि नाद करोनी भुताधिपतीसि मुदीत करी

नटनटिनायक अर्धनटेश्वर तल्लिन होउनि  नृत्य करे 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||१०|| 

 

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते

श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।

सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥११॥ 

 

अग सुमने सुमनासह सूमन कांति तुझी लखलाति रणी 

रजनि तुझी रजनीधव जैसि रजनि प्रभा दिपवीत झणी  

भ्रमर जसे तव नेत्र पतीभ्रमरि भ्रमरास जशी भुलवी

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||११|| 

 

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते

विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।

शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१२॥ 

 

मुकुल जशी दिसशी अतिकोमल वा सुमनासम भिल्ल दिसे

सुमन जसे दिसते रुधिरासम वर्ण तुझा अरुणासम गे

मदत करीत तुझी शुर येउनि साथ रणांगणि देत तुला     

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||१२|| 

 

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्गजराजपते

त्रिभुवनभूषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।

अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१३॥ 

 

अविरत वाहत मत्त गजा मद उल्हसिता जणु भाससि तू

बलरुप शोभित तीहि जगात कलावति शोभित राजसुते

मधुर सुहास्य अती तव  लाघवि सुतामदनासम  मोहविते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||१३|| 

 

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते

सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।

अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१४॥ 

 

कमलदलासम कोमल कांति विशाल सुभाल असून तुला

तव पदि डोलत  नाचत  हंस जणू भरुनी अति मोद भला

कमल  सुशोभित कुंतल मंडित साथ तयांस  बकूळ फुले  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति  सुकुंतले ||१४|| 

– क्रमशः भाग दुसरा

भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री 

९८९०११७७५४

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #159 – 45 – “ज़िंदगी हसीन है ग़र…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ज़िंदगी हसीन है ग़र …”)

? ग़ज़ल # 45 – “ज़िंदगी हसीन है ग़र…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ऐ-आदम तुमने अहल-ए-जहाँ में क्या-क्या देखा है,

ग़रीब अलमस्त मालदारों को बेवजह रोते देखा है।

काग़ज़ी है पैरहन तुम्हारा तराशा हुआ संदल बदन,

अच्छे-अच्छों नामचीनों को ज़मींदोज़ होते देखा है।

दिल में धड़कन है साँसों के आमद-ओ-सुद तक,

महामारी में लाखों की साँसों को घुटते देखा है।

देखो,बीमारी फैली है लोगों के मिलने-जुलने से,

कुम्भ मेले में लाखों भक्तों को उमड़ते देखा है।

आदमी को सिखाते रहे कि दो गज दूरी है ज़रूरी,

उन्ही को लाखों की रैली में नाक रगड़ते देखा है।

एक-एक साँस के हिसाब को तरसता है आदमी,

बेशुमार घने जंगलों की दौलत को लुटते देखा है।

कभी सुना था यहाँ ईमान व्यापार की कुंजी है,

अस्पतालों में दवाइयों का कालाबाज़ार देखा है।

बेशुमार माल-ओ-असबाब जमा करते लोग जहाँ में,

सिकंदर को दुनिया से ख़ाली हाथ रूखसत देखा है।

ज़िंदगी हसीन है ग़र अपने से हटकर सोच सको,

ख़ुदगर्ज़ नाख़ुदा को नाव सहित गर्क होते देखा है।

सुनो यार, होते होंगे सियासतदाँ बेशुमार ताकतवर

अटल इरादों को ‘आतिश’ एक वोट माँगते देखा है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 36 ☆ मुक्तक ।।मिट्टी का बदन और साँसें उधार की हैं।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।मिट्टी का बदन और साँसें उधार की हैं।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 36 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। मिट्टी का बदन और साँसें उधार की हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

मिट्टी   का   बदन   और   साँसे उधार   की    हैं।

जाने घमंड किस चीज़  का   बात विचार की है।।

आदमी बस इक  मेहमान  होता   कुछ दिन का।

नहीं उसकी हैसियत यहाँ पर जमींदार की   है।।

[2]

जिन्दगी  हमें  हर    मोड़    पर रोज़  आज़माती   है।

कुछ नया रोज़ हमें  बतलाती और   सिखलाती  है।।

सुनते नहीं हम बातअंतरात्मा की अपने ही स्वार्थ में।

ईश्वरीय  शक्तियाँ   भी  हमें   यह बात  जतलाती हैं।।

[3]

उम्मीद की ऊर्जा से अंधेरें   में भी रोशनी कर सकते हैं।

भीतर के उजाले से   हम  मन मस्तिष्क भर  सकते हैं।।

जो  कुछ  करते  हम  दूसरों    के   लिये   दुनिया      में।

उसी सरोकार से ही   हर   दर्द पर  हम लड़ सकते हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वध☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना (नवरात्र साधना)

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – वध ??

हँसी, खुशी, नेह

सब था भीतर,

फिर वह आई,

इन सब पर

वसंत आया,

फिर लौट गई वह,

पतझड़ की

सौगात देकर,

उसने आजीवन

संभाल कर रखी

उसकी सौगात,

अब वह लौट भी आए

तो आने से रहा वसंत,

उसकी साँसों में

उतर चुका है पतझड़,

तब भी कभी-कभी

सोचता है वह

क्या भूले से भी

दु:ख होता होगा उसे

वसंत के वध का..?

© संजय भारद्वाज

2 अगस्त 2022, प्रात: 7:07 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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