(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 234 ☆
आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान…
बालीवुड ने बाम्बे टू गोवा, एन इवनिंग इन पेरिस, लव इन टोकियो, बाम्बे टू बैंकाक, एट्टी देज एराउन्ड दि वर्ल्ड, आदि अनेक यात्रा केंद्रित फिल्में बनाई हैं.
शिक्षा में नवाचार के समर्थक विद्वान यात्रा के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कहते हैं कि पुस्तकों में ज्ञान मिलता है पर उसे समझने के लिये शैक्षणिक यात्राये पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिये. मिडिल स्कूल तक के बच्चों को शिक्षक या अभिवावकों को समय समय पर पोस्ट आफिस, रेल्वे रिजर्वेशन, पोलिस थाना, बैंक, संस्थान, आसपास के उद्योग, आदि का भ्रमण करवाने से वे इन संस्थानों से प्रायोगिक रूप से परिचित हो पाते हैं. यह परिचय उन्हें इनके जीवन में अति उपयोगी होता है. विज्ञान के वर्तमान युग में जब हम घर बैठे ही टी वी पर दुनिया भर की खबरें देख सकते हैं, तब भी उस वर्चुअल वर्ल्ड की अपेक्षा वास्तविक पर्यटन प्रासंगिक बना हुआ है. टूरिज्म, चाहे वह स्पोर्टस को लेकर हो, कार्निवल्स पर केंद्रित हो, बुक फेयर, एम्यूजमेंट पार्क, नेशनल फारेस्ट पर आधारित हो या अन्य विभिन्न कारणों से हो, बढ़ता जा रहा है.
यात्राओं का साहित्यिक अवदान भी बहुत है.
यात्रावृत्त एक प्रकार का मानवीय इतिहास है, जिसमें घटनाओं के साथ-साथ व्यक्तिचेतना, संस्कार, सांस्कृतिक जीवन, सामाजिक और आर्थिक क्रियाएँ, राजनीतिक और भौगोलिक स्थितियाँ, विचार तथा धारणायें समाहित होती हैं. ‘कालिदास’ और ‘बाणभट्ट’ के साहित्य में भी आंशिक रूप से यात्रा वर्णन मिलता है.
एक विधा के रूप में यात्रा वर्णन स्थापित हो चुका है.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख –“सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 152 ☆
☆ आलेख – “सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
जीवन में सफलता और असफलता दोनों आती है। सफलता का आनंद लेना और असफलता से सीखना दोनों ही महत्वपूर्ण है। लेकिन, सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखना सबसे महत्वपूर्ण है।
हंसना एक शक्तिशाली दवा है। यह तनाव को कम करने, मूड को बेहतर बनाने और प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाने में मदद कर सकता है। हंसना हमें कठिन परिस्थितियों में भी अनुकूल होने में मदद कर सकता है।
सफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और जीवन का अधिक आनंद लेने में मदद मिल सकती है। जब हम सफल होते हैं, तो हम अक्सर खुश और उत्साहित महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने सफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही आराम कर सकते हैं और आगे बढ़ना बंद कर सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने सफलता का जश्न मनाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
असफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें कठिन परिस्थितियों से उबरने और मजबूत होने में मदद मिल सकती है। जब हम असफल होते हैं, तो हम अक्सर निराश और हताश महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने असफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही हार मान सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने असफलता से सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं:
अपने दृष्टिकोण को बदलें। सफलता और असफलता को एक पैमाने के दो छोर के रूप में देखें। सफलता केवल एक मंच है, असफलता केवल एक कदम पीछे है।
अपने आप को माफ़ करना सीखें। हर कोई गलतियाँ करता है। अपनी गलतियों से सीखें और आगे बढ़ें।
दूसरों की मदद करें। दूसरों की मदद करने से आपको अपनी त्रासदी को भूलने में मदद मिल सकती है।
अपने जीवन का आनंद लें। सफलता और असफलता दोनों जीवन का एक हिस्सा हैं। इन दोनों का आनंद लें और आगे बढ़ते रहें।
सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने से हम एक अधिक संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
🍁 शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” और “डॉ. विजया स्मृति अंतरराष्ट्रीय अनुवाद एवं अनुसंधान केंद्र” द्वारा “प्रकाश-पर्व” गौरव ग्रंथ लोकार्पित🍁
“शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” और “डॉ. विजया स्मृति अंतरराष्ट्रीय अनुवाद एवं अनुसंधान केंद्र, मुंबई” की ओर से आयोजित “प्रकाश-पर्व” गौरव ग्रंथ का लोकार्पण समारोह “मुंबई प्रेस क्लब” में संपन्न हुआ l इस समारोह का अध्यक्ष स्थान श्री दाजी पणशीकर जी (महाभारत के भाष्यकार व ज्येष्ठ चिंतक) ने विभूषित किया तो समारोह के प्रमुख अतिथि एवं वक्ता के रूप में श्री दिनकर गांगल जी (ज्येष्ठ पत्रकार, थिंक महाराष्ट्र आंदोलन के प्रर्वतक व “ग्रंथाली” के संस्थापक) उपस्थित थे तथा इस समारोह के प्रमुख आकर्षण अनुवाद-तपस्वी श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर जी थे l
विश्व अनुवाद दिवस अर्थात 30 सितंबर के दिन इस कार्यक्रम का आयोजन मुंबई में किया गया था l
प्रमुख वक्ताओं के रूप में प्रा. सुहासिनी कीर्तिकर (मुंबई मराठी साहित्य संघ की अक्षरदालन की प्रमुख) तथा डॉ. सतीश पांडेय (अधिष्ठाता, कला शाखा, सोमैया कॉलेज, मुंबई) उपस्थित रहे l डॉ. सुहासिनी कीर्तिकर ने सांस्कृतिक दृष्टि से श्री. प्रकाश भातंब्रेकर ने सशक्त अनुवाद करने पर उन्हें बधाईयाँ दी l प्रमुख वक्ता डॉ. सतीश पांडे ने अपने व्याख्यान में कहा कि आदर्श अनुवाद के लिए रचना की भाषा में निहित समाज की मानसिकता को समझना जरूरी होता है l वरिष्ठ लेखक और कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री. दाजी पणशीकर ने साहित्य शाश्वत मूल्यों का होना आवश्यक है यह बताकर अनुवाद में भावानुवाद को सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादित किया l सभी वक्ताओं ने “साहित्यिक अनुवाद” पर अपने विचार व्यक्त करते हुए अनुवाद तपस्वी श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर जी से जुड़े अपने अनुभव साझा किए l अनुवाद-तपस्वी श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर जी ने अपने मनोगत द्वारा अपनी “जीवनयात्रा व साहित्ययात्रा” पर प्रकाश डालते हुए अनुवादकों का मार्गदर्शन किया l
“शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” के संस्थापक-अध्यक्ष व “प्रकाश-पर्व” के प्रमुख संपादक प्रा. डॉ. मनोहर जी समारोह में प्रकृति अस्वास्थ्य के कारण उपस्थित नहीं रह पाए l उनके “संपादकीय मनोगत” का प्रस्तुतिकरण “शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” के न्यासी-कार्याध्यक्ष प्राचार्य मुकुंद आंधळकर जी द्वारा किया गया l
अनुवाद तपस्वी श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर जी के मौलिक लेखन, साहित्य क्षेत्र के विद्वान व पारिवारिक सदस्यों द्वारा लिखित संस्मरण (हिंदी-मराठी-अंग्रेजी में) तथा उनके द्वारा अनूदित रचनाओं के अंश व उन रचनाओं की समीक्षा और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर कुछ विशेष लेख, आदि रचनाओं के साथ “शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” की न्यासी व मानद सचिव सुश्री आशा रानी जी द्वारा विस्तृत “जीवन-परिचय”, आदि का प्रकाश-पर्व इस गौरव ग्रंथ में समावेश किया गया है l
इस गौरव ग्रंथ का प्रकाशन “शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” तथा “शब्द ग्राफिक्स” की ओर से किया गया l इसका मुख्य संपादन डॉ. मनोहर जी तथा संपादन सहयोग सुश्री आशा रानी, डॉ. उषा मिश्र और प्राचार्य मुकुंद आंधळकर जी ने किया l
इस ग्रंथ के निर्माण की संकल्पना प्रा. डॉ. मनोहर जी की थी. इसके फलस्वरूप अनुवादक-लेखक श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित प्रस्तुत ग्रंथ का निर्माण किया गया l इसके पूर्व अक्तूबर 2022 में हिंदी विभाग, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय, पुणे में “श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर गौरव विशेषांक के डिजिटल संस्करण का लोकार्पण हुआ था l
“शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” के न्यासी-कार्याध्यक्ष प्राचार्य मुकुंद आंधळकर जी ने अपने प्रास्ताविक वक्तव्य में “शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” की आज तक की गतिविधियों और आगामी आयोजनों के संदर्भ में जानकारी प्रस्तुत की l
“शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” की सहसचिव व पत्रिका की संपादक तथा “डॉ. विजया स्मृति अंतरराष्ट्रीय अनुवाद व अनुसंधान केंद्र” की सहनिदेशक डॉ. प्रेरणा उबाळे जी ने समारोह का कुशल संचालन किया. इस समारोह का संयोजन “शब्दसृष्टि प्रतिष्ठान” की सहसचिव सुश्री ज्योति कुलकर्णी जी तथा कार्यकारी सदस्य प्रा. विजय मोहिते जी ने किया l समारोह की सफलता के लिए प्रतिष्ठान के कार्यालय सहायक श्री घन:श्याम जोगळेकर जी व श्री रवींद्र महाडिक तथा तकनीकी टीम के सदस्य श्री प्रेम विश्वकर्मा जी व श्री रिषभ विश्वकर्मा ने विशेष प्रयत्न किए l इस समारोह में मराठी, हिंदी, गुजराती व अंग्रेजी के लेखक-कवि तथा मुंबई के विविध महाविद्यालयों के छात्र-छात्राएं उपस्थित थे l
साभार – डॉ. प्रेरणा उबाळे
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर, पुणे ०५
‘प्रज्ञा ‘हा शब्द आपल्या ऐकण्यात, बोलण्यात, वाचण्यात नेहमी येतो. पण त्याच्या अर्थाविषयी अनेकजण अनभिज्ञ असतात. भारतीय मानसशास्त्रात ‘प्रज्ञा’ही संकल्पना अतिशय सुंदर रित्या स्पष्ट केलेली आहे. प्राचीन काळात ऋषिमुनींनी निर्माण केलेले साहित्य ही आपली अशी संपत्ती आहे की त्यामुळे आज भारताचे नाव जगाच्या नकाशावर कोरले गेले आहे. जगाच्या कल्याणासाठी त्याचा वापर सुरू झाला आहे. अशा भारतीय मानसशास्त्रातील एक संकल्पना’प्रज्ञा’. याविषयीचे विचार येथे व्यक्त केले आहेत.
संस्कृत मध्ये ‘प्रज्ञा’असा मूळ शब्द वापरतात. याला पूरक असे ‘प्राज्ञ’व ‘प्राज्ञा’ असेही शब्द आहेत. व्यक्तीचे शुद्ध आणि उच्च विचार युक्त शहाणपण, बुद्धिमत्ता आणि आकलन म्हणजे ‘प्रज्ञा ‘. ही शहाणपणाची अशी पातळी आहे की तर्काने आणि निष्कर्षाने मिळवलेल्या ज्ञानापेक्षा उच्च आहे. प्रज्ञ= प्र +ज्ञ . प्र म्हणजे परिपूर्ण आणि ज्ञ म्हणजे माहीत असणे किंवा संकल्पनेचा अत्यंतिक जवळून अभ्यास करणे. प्रज्ञा या संकल्पनेविषयी वेद , उपनिषद व योगशास्त्रात संदर्भ सापडतात.
ऐतरेय उपनिषदात प्रज्ञेविषयी खालील श्लोक सापडतो.
तत्प्रज्ञानेत्रम प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञानं ब्रम्ह (iii. i. 3).
जे अस्तित्वात आहे ते म्हणजे शारीरिक व आध्यात्मिक ज्ञान. या ज्ञानाचे मूळ प्रज्ञा आहे म्हणजे स्वजाणीव किंवा सुषुप्ती. कौशितकी उपनिषदामध्ये इंद्राने मृत्यूचे वर्णन करताना प्राण आणि प्रज्ञा शरीरात एकत्र राहतात व मृत्यूचे वेळी एकत्रित निघून जातात असे म्हटले आहे. प्रज्ञेशिवाय ज्ञानेन्द्रिये काम करू शकत नाहीत. पंचेंद्रियांची कार्येही प्रज्ञेशिवाय होऊ शकत नाहीत. तसेच प्रज्ञेशिवाय विचार यशस्वी होऊ शकत नाही.
वेदांत सार मध्ये प्रज्ञा या विषयी म्हटले आहे की,
अस्य प्राज्ञात्वम स्पष्टोपाधि तया नती प्रकाशत्वात॥४४॥.
आत्मा हा निर्गुण असतो. ईश्वर मात्र सर्व गुणांनी युक्त असतो व चराचरावर राज्य करत असतो पण प्रत्येक व्यक्तीच्या आत्म्याच्या अज्ञानाचा एक भाग म्हणजे सदोष बुद्धिमत्ता. सुषुप्ति अवस्थेतील आत्मा जेव्हा आनंदमय विज्ञानघन असतो तेव्हा त्याची बुद्धिमत्ता ही प्रज्ञा असते.
मांडुक्योपनिषदात प्रज्ञा या विषयी म्हटले आहे की,
आनंदभुक चेतोमुखःप्राज्ञः॥
प्रज्ञा म्हणजे जागृती अवस्थेत साधन लाभलेल्या(असलेल्या)आशीर्वादाचा आनंद घेणारा उपभोक्ता.
उपनिषद रहस्य या पुस्तकात प्रज्ञाचे इत्यंभूत वर्णन केले आहे. प्रज्ञा ही जगाचे चक्षु असून जगाचा आधारही आहे. प्रज्ञा प्रत्यक्ष ब्रम्ह आहे. सर्व स्थावर जंगम, वस्तू, पृथ्वीवर चालणारे सर्व प्राणी व आकाशात उडणारे सर्व पक्षी, सर्व पंचमहाभूते व देवता हे सर्व प्रज्ञेतच अंतर्भूत होतात व प्रज्ञेमुळे जिवंत राहतात असे उपनिषद्काराचे मत आहे.
पतंजली योगसूत्रामध्ये प्रज्ञेचा उल्लेख खालील श्लोकात केलेला आढळतो.
ॠतंभरा तत्र प्रज्ञा ॥
निर्विचार समाधी विषयी स्पष्टीकरण करताना असे म्हटले आहे की, ज्ञान हे जेव्हा निष्कर्षाच्या आणि ग्रंथांच्या पलीकडे जाते तेव्हा ते फक्त सत्यानेच भरलेले असते. मन हे शुद्ध असते अशावेळी असलेल्या स्थितीत प्रज्ञा जागृत असते.
संस्कृतीकोष मध्ये व काही वेबसाईटवर( संदर्भामध्ये दिलेल्या आहेत) प्रज्ञा या संकल्पनेविषयी लिहिताना असे म्हटले आहे की , प्रज्ञा म्हणजे बुद्धी, ज्ञानाचे किंवा जगण्याचे इंद्रिय स्वरूप. प्रज्ञा हे प्राचीन संस्कृत नाम असून त्याचा सखोल अर्थ शहाणपण हाच आहे . प्रज्ञा हे देवी सरस्वतीचे नाम आहे . सरस्वती ही कलेची व वादविवादाची देवता आहे. ऋग्वेदामध्ये प्रज्ञा म्हणजे संकल्पनेचे आकलन, ज्ञान व संकल्पनेशी अत्यंत जवळीक असणे असेम्हटले आहे तर महाभारतानुसार, प्रज्ञा म्हणजे संकल्पनेचे अध्ययन, संकल्पनेचा शोध असे म्हटले आहे . शतपथ ब्राह्मण व सांख्यायन श्रोत-सूत्र यांच्या नुसार शहाणपण, ज्ञान, बुद्धी, तर्क , आराखडा मांडणे, साधन वापर या गुणधर्मांसाठी प्रज्ञा हा शब्द वापरला आहे.
बुद्ध संप्रदायानुसार प्रज्ञा किंवा पन्ना( पाली )म्हणजे शहाणपण . याचा अर्थ वास्तवातील सत्याबद्दल असलेली मर्मदृष्टी . प्र म्हणजे जागृती, ज्ञान किंवा आकलन आणि ज्ञ म्हणजे उत्स्फूर्त ज्ञानाची उच्च, व्यापक, जन्मजात बहरलेली अवस्था होय.
प्रज्ञेचे एकूण तीन प्रकार आहेत.
श्रुतमय प्रज्ञा
चिंतनमय प्रज्ञा
भावनामय प्रज्ञा
श्रुतमय प्रज्ञा म्हणजे असे ज्ञान की जे फक्त ऐकलेले किंवा वाचलेले आहे. हे ऐकिवज्ञान अनुभूतीच्या स्तरावर उतरलेलं असेलच असे नाही . श्रुतमय ज्ञान प्रेरणा घेण्यासाठी गरजेचं असतं. ज्ञान ऐकल्यानंतर पुढचा टप्पा असतो ज्यात चिंतनाची आवश्यकता असते. या प्रज्ञेला चिंतनमय प्रज्ञा म्हणतात आणि चिंतन झाल्यानंतर प्रत्यक्ष अनुभूती घेतली जाते. अनुभूतीनंतर जे ज्ञान होते त्याला भावनामय प्रज्ञा म्हणतात. भावनामय प्रज्ञा सर्वात महत्त्वाची असते. एखादी व्यक्ती श्रुतमय प्रज्ञेचा साक्षात्कार करेलही व चिंतन ही करेल पण त्याचा अनुभव घेईलच असे नाही म्हणून प्रज्ञा म्हणजे प्रत्यक्ष ज्ञान म्हणजे स्वानुभवाच्या बळावर जे जे काही उतरते त्याला ‘प्रज्ञा ‘असे म्हणतात.
या संकल्पनेचा एवढा विचार करणे ही सध्याच्या काळातील प्राथमिक गरज आहे. मुलांना कसे वाढवावे याविषयी पालकांना तसेच विद्यार्थ्यांना किती सखोल मार्गदर्शन करावे याविषयी शिक्षकांना मार्गदर्शन मिळते. प्रत्येक मुलातील ‘प्रज्ञा’जागृत झाल्याशिवाय त्याचा विकास परिपूर्ण होणार नाही व मुले आयुष्यात समाधानी होणार नाहीत म्हणून भारतीय मानसशास्त्रातील संकल्पना सर्वांनी अभ्यासल्या पाहिजेत.
☆ नंदू आणि आनंद (अनुवादीत कथा)– भाग १(भावानुवाद) – डॉ सुधा ओम ढींगरा ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर☆
डॉ सुधा ओम ढींगरा
टेक लेफ्ट..’ तो कार डावीकडे वळवून दूरवर घेऊन गेला. ‘नव टेक राईट ऑन स्टॉप साईन. …’ त्याने स्टॉप खुणेशी गाडी उजवीकडे वळवली आणि ड्राईव्ह करत तो त्याच जागी पुन्हा आला, जिथून त्याने सुरुवात केली होती. दिशा निर्धारित यंत्राच्या निर्देशांचा, तो गेले अर्धा तास पालन करत होता आणि शहरात वसलेल्या घरांच्या समूहाला तो प्रदक्षणा घालत होता. पण अजूनही त्याला हव्या त्या घरापाशी तो पोचला नव्हता.
‘अरे यार, तू मला किती फिरवणार? मला हव्या या घराशी पोचवणार की नाही? ‘ नेव्हिगेटरकडे बघत तो चिडून म्हणाला.
दिशा निर्धारित यंत्राच्या निर्देशांनुसार तो त्या सब-डिव्हिजनमध्ये पोचला होता॰ त्याला हवं ते घर तिथेच, त्याच सब-डिव्हिजनमध्ये होतं. त्याचा पत्ता त्याला दिला गेला होता आणि आता तिथे तो निघाला होता, पण गेले दहा-बारा मिनिटे नेव्हिगेटर त्याला कधी डावीकडे, तर कधी उजवीकडे फिरवत होता. पण कुठल्याही घराशी थांबायला मात्र संगत नव्हता. एरिया नवीन होता. काही घरं नुकतीच तयार झाली होती. काही तयार होत होती. त्यामुळेच कदाचित ती गुगल मॅपमध्ये नव्हती आणि त्यामुळे नेव्हिगेटर दिशा निर्देश देऊ शकत नव्हता. ज्या रस्त्यावर त्याला हवं ते घर होतं, तो रस्ताही कळत नव्हता.
एवढ्यात त्या ला रस्त्यावरून, म्हणजे साईडवॉकवरून चालत जाणारा एक भारतीय दिसला. त्याने आपली कार त्याच्याजवळ नेऊन थांबवली आणि खिडकीची काच खाली केली. आपल्या हातातला पत्ता त्याच्यापुढे करत विचारलं, ‘सर, हे घर कुठे आहे, आपण सांगू शकाल?’ दक्षिण भारतातली ती एक प्रौढ व्यक्ती होती. पत्ता बघून ते म्हणाले, ‘ मी इथे मुलाकडे आलोय. नवीन आहे इथे मी. मला काहीच माहीत नाही…. त्यांना विचारा.’ त्यांनी समोरच्या घरातील, एका गोर्या माणसाकडे बोट दाखवलं. तो आपल्या बागेला पाणी देत होता.
त्याने कार तिथेच थांबवली आणि पत्ता घेऊन तो त्या माणसाकडे गेला.
‘हॅलो ….’
‘हाय…’
‘कॅन यू टेल मी वेयर इज दीज हाऊस?’
त्या गोर्या माणसाने त्याच्या हातातून पत्ता घेतला आणि हसत म्हणाला, ‘ तू घराच्या अगदी जवळ आला आहेस. तू घरासाठी चकरा मारताना मी पाहिलं तुला.’ त्याने आपल्या एका हाताच्या तळव्यावर दुसर्या बोटाने रेघा काढत त्याला रस्ता समजावला. ‘ थॅंक्स’ म्हणत तो कारपाशी आला. रस्ता दाखवण्याची ही पद्धत त्याला खूप आवडली. आत्ता त्या माणसाने दाखवलेल्या रस्त्यानुसार तो पुढल्या गल्लीत उजवीकडे वळला. गल्लीच्या शेवटी ते घर त्याला दिसलं. घर नव्याने तयार झालेलं होतं आणि त्याच्याशेजारी एक नवीन घर बनत होतं. त्याने थोड्या आंतरावर कार पार्क केली.
तो योग्य जागी आला होता खरा, पण कारमधून उतरण्याची त्याची हिंमत होत नव्हती. त्याच्या मस्तकाच्या आखाड्यात वर्तमान आणि भूतकाळ यांच्यात कुस्तीच चालली होती जशी. त्यामुळे त्याच्या डोक्यात गोंधळ चालला होता. त्याला आश्चर्य वाटलं, अचानक मागे सरलेल्या वर्षांनी त्याला असं कसं बांधून ठेवलं.
भूतकाळाचा त्याच्यावर इतका दबाव पडला होता की तो त्याला कारसीटपासून हलूच देत नव्हता. कसा जाणार तो त्या घरात? तो जसा काही कारच्या सीटला जखडला गेला होता.
भूतकाळाचा हाच तर वैताग असतो. त्याचे पापुद्रे सुटू लागले की सुटतच जातात. आठवणी पिंगा घालू लागल्या की पाठ सोडतच नाहीत. त्याच्याबाबतीत हेच तर होतय. गेले दोन दिवस घालवलेला वेळ वर्तमानावर दबाव आणतोय. स्वत:ला सामान्य करण्यासाठी त्याने कार सीटवरच मागच्या बाजूला डोके टेकले आणि डोळे मिटून घेतले.
एका फोन कॉलवरील स्नेहाळ आवाजाने त्याला भावूक बनवलं होतं…. ‘हॅलो…’
‘इज दिज मिस्टर आनंद.’
‘यस.’
‘मिस्टर आनंद आपल्याशी कोणी तरी बोलू इछितय. घ्या. बोला.’
तो हैराण झाला होता. कुणाला त्याच्याशी बोलायची इच्छा होती? एवढ्यात मधात घोळलेला एक मधुर आवाज त्याच्या कानावर पडला. – ‘नंदी…’ फोनच्या या बाजूला आणि त्या बाजूला आवेगाच्या पावसाचे थेंब झरझरू लागले. दोन्ही बाजूला तन-मन भिजून चिंब झालं. कामाची घाई होती, तरीही आनंद तासभर त्या आवाजाशी बोलत राहिला. तो त्याला भेटायला उत्सुक झाला. कधी एकदा त्याला भेटतो, असं आनंदला होऊन गेलं. एका प्रोजेक्टचा शेवटचा दिवस उद्या होता, त्यामुळे दोन दिवसांनंतर भेटायचं नक्की ठरलं. दोन दिवस तो अशा बागेत फिरत होता, जिथे सप्तरंगी फुले फुलली होती. त्यांचा सुगंध तो ऑफीस, घर, बिछाना, इतकच काय, आपल्या श्वासातही अनुभवत होता. एक अजबशी खुमारी चढत होती. मधुर मधुर आवाज, ‘नंदी… नंदी…’ म्हणत त्याला बोलावत होता. हा आवाज लहानपणी तो देवघरातून ऐकत होता.
लहानपणाचा त्या घराचा सुगंध त्याच्या आत आत अजूनही वसलाय. बनारसी, बालदेव आणि हरी त्यांच्याकडे कामाला होते, पण ते त्याचे मोठे काका- छोटे काका होते. त्याने घरात प्रेम आणि मधाळ आवाजच ऐकला होता. कामगारांच्या बरोबरही कोणी मोठ्या आवाजात बोलत नसत. त्याला नेहमीच वाटतं, लहानपणी त्याच्या आत सामावलेला स्नेहाचा सुगंध त्याला इतका सुगंधित करत राहिला, की तो कुणाचा तिरस्कार करूच शकत नाही. तिरस्काराची बीजे अनेकदा रोवली गेली, पण प्रेमाच्या छायेत ती वाढू शकली नाहीत.
प्रथम तर त्याचा विश्वासच बसला नाही. इथे विदेशात येऊन कुणी, जे बर्याच दिवसांपूर्वी हरवलं होतं, ते विश्वासाने त्याला शोधून काढेल, त्याला फोन करेल, या खात्रीने फोन करेल की त्यांच्याविषयीची त्याच्या मनातली प्रेमाची ठिणगी विझलेली नसणार आणि खरोखरच नंदीच्या मनातली, जी प्रेमाची ज्योत त्यांनी लावली होती, ती अजूनही जळतेच आहे. विदेशात आल्याबरोबरच तो आनंदाचा नंदी झालाय आणि खरोखरच आपल्या आतली ती प्रेमाची ज्योत त्याने कधीच विझू दिली नव्हती. तो त्यांना कधीच विसरला नव्हता. त्याच्या बालपणीची दहा वर्षे त्यांच्याशी जोडलेली होती. इथे आल्यावर तर तो स्वत:ला त्यांच्या अधीकच जवळ आल्याचं अनुभवत होता. इथे आठवणींच्या आधारेच तर माणूस आपली सुख- दु:खे भोगत असतो. हां! आनंद बनून तो काही वर्षे त्यांच्यापासून दूर राहिला. आता नंदी बनून तो त्यांच्याजवळ आलाय.
नंदी आणि आनंदचं अंतर्द्वंद् कधीपासून सुरू झालं? मम्मीने नंदीला आनंदपासून हिसकावून घेतलं आणि आनंद एकटा झाला. आनंदसाठी तो मोठा कठीण काळ होता. अवघा दहा वर्षाचा होता तो तेव्हा, पण तो जसजसा मोठा होईल, तसतसा त्याने आपल्या आतल्या नंदीला संभाळून जीवंत ठेवला होता.
आठवणींचे पक्षी फडफडू लागले. डोक्यात गोंधळ माजला. आठ्ठावीस वर्षापर्यंत तो ज्या परिवेशात वाढला, तिथे प्रचंड विरिधाभास होता. तो जसा जसा मोठा होत गेला, तसतशी त्याला समज येऊ लागली. आता तर त्याला खूप गोष्टी स्पष्ट झाल्या आहेत. परदेशातील वातावरण आणि कार्यप्रणाली याने त्याचा विवेक जागृत झालाय. बुद्धिमत्ता अनेकांमध्ये असते, पण बुद्धिमान कमी असतात. या देशाने त्याची अंतर्दृष्टी व्यापक बनवलीय. गोष्टींकडे बघण्याच्या दृष्टीत परिवर्तन आलय. भिन्न भिन्न देशातील भिन्न भिन्न लोकांसोबत काम करण्याने एक वेगळ्याच प्रकारची सजगता त्याच्या ठायी आलीय.
तो आपल्या वडलांना सांगू इच्छित होता की वयाच्या त्या थांब्यापर्यंत ते जे काम करू शकले नाहीत, ते काम करायला तो निघालाय. परंतु त्याने जेव्हा जेव्हा आपल्या पप्पांना फोन लावला, तेव्हा तेव्हा, त्याच्या मम्मीनीच तो उचलला, त्यामुळे तो काहीच बोलू शकला नाही. मम्मीला कळणं, म्हणजे घरात वाद-विवाद, क्लेश. इथे आल्यानंतर त्याने मम्मीच्या अनेक गोष्टींना विरोध केला होता. मम्मी त्याला काही म्हणायची नाही, पण घरात पप्पांची धडगत नसे. त्यांना मम्मीचं तिरकस बोलणं ऐकून घ्यावं लागे-
‘तुमचा मुलगा तुमच्यावर गेलाय. मोठा चलाख आहे. मनमानी करणारा. माझी पर्वा तुम्ही कधी केलीत, म्हणून तो करेल. एक मुलगीच तेवढी आहे, जी मला समजून घेते. ‘
कधी काळी तो आपल्या आईवर खूप प्रेम करायचा. पण दिल्लीला आल्यानंतर, तो आणि त्याचा भाऊ दोघेही आपल्या पाप्पांच्या निकट आणि मम्मीपासून दूर होत गेले. छोट्या छोट्या बाबीत, त्याची मम्मी, पप्पांना खाली बघायला लावायची, त्यांचा अपमान करायची, ते भावाभावांना मुळीच आवडत नसे. प्रत्येक वेळी त्याचे पप्पा मान खाली घालून मम्मीची प्रताडना सहन करायचे. त्यांच्या डोळ्यात समुद्र उसळताना त्याने पाहिलय. जेव्हा तो कोपर्यातून वाहू लागेल, असं वाटे, तेव्हा ते आपल्या खोलीत निघून जात. त्याला अनेक वेळा आपल्या पप्पांचा राग येई. वाटे, ते बोलत का नाहीत?
वयाची दहा वर्षे होईपर्यंत त्याने आपल्या मम्मीचं अतिशय सुंदर रूप पाहिलं होतं. नंतर त्याने जे पाहिलं, त्यामुळे तो घाबरूनच गेला.
क्रमश: भाग १
मूळ हिंदी कथा 👉 ‘कभी देर नहीं होती…’- मूळ लेखिका – सुधा ओम ढींगरा
अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ कुणी जीव घेता का जीव???… भाग – 2 ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆
(तेव्हापासून मंदिरात मी देव शोधत नाही…. मंदिराच्या खाली गाडला गेलेला तो अव्यक्त दगड शोधतोय… !!!) – इथून पुढे —
भिजलेलं ते ब्लॅंकेट आणि कुजलेली ती पॅन्ट यांना मी आता मनोमन नमस्कार केला…. आणि काय जादू झाली … त्यातला दुर्गंध कुठल्या कुठे पळून गेला… !!!
आता बाबांच्या मी शेजारी बसलो…. ! चौकशी केली आणि सुरुवातीला सांगितलेली सर्व कर्म कहाणी समजली. मी त्यांना अत्यंत नम्रपणे विचारलं, “ बाबा मी तुमच्यासाठी काय करू ? “
ते सुद्धा हात जोडून तितक्याच नम्रतेने म्हणाले, “ तुम्ही माझा जीव घेता का जीव ? “
“ माझं काम जीवदान द्यायचं आहे बाबा “ मी म्हणालो.
ते क्षीणपणे हसले, म्हणाले, “ घ्या हो जीव… एखादं औषध द्या आणि मारून टाका…. कंटाळलो आहे मी आता…. आडबाजूच्या फुटपाथ वर एखाद्याला असं औषध दिलं तर कोणाला कळणार आहे ??? “
बाबांचं आयुष्यातलं मन उडून गेलं होतं …गाण्यातले सूर हरवतात तेव्हा फक्त ते गाणं बेसूर होतं, पण जीवनातलं मन हरवलं की ते आयुष्य भेसुर होतं… !
“ बाबा तुमची बायको तुमच्याशी अशी का वागली ?” मी चाचपले….
“ जाऊ द्या हो डॉक्टर… पाऊस संपला की छत्रीचं सुद्धा ओझं होतं…! “
“ म्हणजे ? “
“ अहो तिची माझी साथ तितकीच होती… “
“ तिच्या वागण्याचा त्रास नाही होत तुम्हाला ? “
“ अहो, तिने त्यावेळी जी साथ दिली ती मी प्रसाद म्हणून घेतली… प्रसादाची चिकित्सा करायची नसते… जे मिळालं ते समाधानाने ग्रहण केलं मी…. ! प्रसाद हा जीव शमवण्यासाठी असतो… भूक भागवण्यासाठी नाही… ! “
“ मला नाही कळलं बाबा… “
… “ माझ्या पडत्या काळात तिने मला खूप साथ दिली, खरं तर मी तिचा आभारी आहे डॉक्टर …
आपण मंदिरात जातो …. गाभाऱ्यात आपण किती वेळ असतो ? दोन पाच मिनिटं …परंतु तीच दोन पाच मिनिटं पुढे कितीतरी दिवस जगायला ऊर्जा देतात… तिची माझी साथ सुद्धा अशीच दोन पाच मिनिटांची…
गाभाऱ्यात जाऊन आपल्यासोबत कोणी देवाची मूर्ती घरी घेवून येत नाही… तिथं अर्पण करायची असते श्रद्धा आणि परतताना घेवून यायचा, “तो” सोबत असल्याचा विश्वास ! डॉक्टर माझी मूर्ती फक्त हरवली आहे… श्रद्धा आणि विश्वास नाही… ! “
माझ्या डोळ्यातून आता घळाघळा अश्रू वाहू लागले…
“ जाऊद्या हो डॉक्टर…तुम्ही जीव घेणार आहात ना माझा ?” विषय बदलत ते म्हणाले.
“ होय तर… मी तुमचा जीव घेऊन, तुमचे विचार सुद्धा घेणार आहे बाबा…” माझ्या या वाक्यावर कुडकुडणारे हात एकमेकावर चोळत ते गूढ हसले.
आता शेवटचा प्रश्न .. “ तुम्हाला तिचा राग नाही येत ? “
ते पुन्हा क्षीणपणाने हसत म्हणाले,.. “ डॉक्टर मी तिला “बायको” नाही, “मुलगी” मानलं… जोवर माझ्यासोबत होती, तोपर्यंत तिने माझी सेवा केली… आता ती दुसऱ्याच्या घरी गेली… मुलगी शेवटी परक्याचीच असते ना ? “
हे बोलताना त्यांनी मान दुसरीकडे का वळवली… हे मला कळलं नाही… ! मान वळवली तरी खांदयावर पडलेले अश्रू माझ्या नजरेतून सुटले नाहीत….
“ मी नवरा नाही होवु शकलो, पण मग मीच तिचा आता बाप झालो….” ते हुंदका लपवुन बोलले…. ! “ मी तिला माफ केलंय तिच्या चुकीसाठी…”
मी अवाक झालो… !
“ बाबा… ? अहो…. ?? तुम्ही …??? “ माझ्या तोंडून शब्द फुटेनात….“ इतक्या सहजी तुम्ही माफ केलं तिला ? नवरा होता होता, बाप झालात तीचे ??? “
“ डॉक्टर क्षमा करायला काहीतरी कारण शोधावंच लागतं ना हो ? “ ते हसत म्हणाले…
मी पुन्हा एकदा शहारलो… ! .. एखाद्याला दोषी ठरवण्यासाठी मुद्दामहून कारण शोधलं जातं… आणि ते माफ करण्यासाठी कारण शोधत होते… !
ते पुन्हा हसले…. ! त्यांचं हे एक हसणं,.. हजार रडण्याहून भीषण आणि भेसूर होतं…!
आता माझे शब्द संपले होते… सर्व काही असूनही मी गरीब होतो, आणि .. आणि हातात काहीही नसलेले… रस्त्यावर पडलेले ते बाबा खरे श्रीमंत !
मनोमन त्यांना नमस्कार करून मी जायला उठलो.
मला त्यादिवशी पाणी मिळालंच नाही… पण बाबांच्या अश्रूत मी चिंब भिजून गेलो…. !
पाणी न पिताही माझी तहान शमली होती… गाडी जवळ आलो…. गाडी गपगुमान चालू झाली… अच्छा… म्हणजे हा सुध्दा कुणीतरी खेळलेला डाव होता तर….!
मी घरी आलो…. डोक्यात बाबांचेच विचार…
‘ प्रेम म्हणजे क्षमा… ! ‘ .. आज प्रेमाची नवी व्याख्या समजली….
‘ स्वतःसाठी काहीतरी मागणं म्हणजे प्रार्थना नव्हे… जे मिळालंय, त्याबद्दल आभार व्यक्त करणे म्हणजे प्रार्थना !’ .. आज प्रार्थनेचीही नवी व्याख्या समजली…
‘ जे हवंसं वाटतंय ते मिळवणं म्हणजे यश… परंतु जे मिळालंय ते हवंसं वाटणं म्हणजे समाधान !!! ‘
सर्व काही हरवूनही, समाधानी राहून, वर तिलाच दुवा देणाऱ्या बाबांचा मला हेवा वाटला !!!
जगावं तर सालं अस्स…. भरतीचा माज नाही आणि ओहोटीची लाज नाही…. !
त्यांच्या “मनात” सुरू असलेलं युद्ध “पानावर” कधीही लिहिले जाणार नाही…
इथं तेच दुर्योधन होते….तेच अर्जुन होते …आणि कृष्णही तेच होते…!
…. आयुष्याच्या रणभूमीवर आजूबाजूला सर्वजण असूनही ते बाबा एकटेच होते.
श्वास चालू असतात, तोपर्यंत एकट्यालाच चालावं लागतं…. श्वास थांबले की मगच लोक आपल्या आजूबाजूला रडत गोळा होतात… आणि आपल्या जाण्याचा हा “सोहळा” पाहायला आपणच शिल्लक नसतो…. ही खरी शोकांतिका !!!
आज २३ तारखेला शनिवारी सकाळी पाय आपोआप बाबांकडे वळले…
…. त्याच ओल्या गाठोड्यात ते तसेच पडले होते… भीष्मासारखे मौन धारण करून, थंडीनं कुडकुडत… !
त्यांचे डोळे बंद होते… मी गाठोड उघडलं…. अंगावरचं भिजलेलं एक एक कापड काढून टाकलं… आता मला ते ‘ दिगंबर ‘ भासले ! .. उघड्या फुटपाथवर, नागड्या आकाशाखाली मी त्यांच्यावर पाण्याचा अभिषेक केला… अंगावरचा मळ हाताने साफ केला….आता अजून कुठली पूजा मांडू ?? .. जखमेतले किडे काढले… दाढी कटिंग केली… पँटमध्ये केलेली मल-मुत्र-विष्ठा साफ केली…. आणि मीच खऱ्या अर्थानं सुगंधित जाहलो…. !
मग त्यांना लंगोट बांधला… उघड्या बंब त्या बाबांनी, माझ्या डोक्यावर मायेनं हात ठेवला आणि खऱ्या अर्थाने माझ्या स्टेथोस्कोपचा आज सन्मान झाला…!
उघडले डोळे जेव्हा त्यांनी, गाईच्या नजरेत मला वासरू दिसले…..
.. आणि नुकत्याच हातात आलेल्या या वृद्ध बाळामध्ये मला माझेच पिल्लू दिसले…. रस्त्यावरच मग त्याला न्हाऊ घातले….!
इतक्यात माझ्या कानावर ढोल ताशाचा अगडबंब आवाज आला… आमच्या बाळाच्या जन्माचा सोहळा कोण साजरा करतंय, हे बघायला मी मान वळवली…. पाच दिवसाच्या गणपतीची ती विसर्जन मिरवणूक होती !
इकडे बाबांचंही जुनं आयुष्य आम्ही विसर्जित करत होतो…!!! यानंतर त्यांना स्वच्छ पुसून नवीन पांढरे शुभ्र कपडे घातले. कपडे घालता घालता ते म्हणाले, “ डॉक्टर, आज पुन्हा इकडे कसे आलात ?”
आता मी हसत म्हणालो, “ अहो बाबा, तुमचा जीव घ्यायचा होता ना ? जीव घ्यायलाच आलोय…!”
यावर अत्यंत समाधानाने ते हसले….!
बाबांना ऑपरेशनसाठी एका हॉस्पिटलमध्ये शनिवार दिनांक २३ सप्टेंबर २०२३ रोजी ऍडमिट केलं आहे. ते पूर्णपणे बरे झाल्यानंतर त्यांना एखादा व्यवसाय टाकून देऊ किंवा त्यांना नोकरी मिळवून देण्याचा प्रयत्न करू… !
अरे हो… आता तुम्हाला सांगायला हरकत नाही… पण, बाबांच्या इच्छेनुसार शेवटी मी त्यांचा “जीव” घेतलाच आहे… ! आणि आता हा “जीव” मी माझ्या जिवात जपून ठेवला आहे…!!