(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – मधुमालती।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी…“।)
अभी अभी # 654 ⇒ निःशुल्क श्री प्रदीप शर्मा
निःशुल्क कहें या मुफ़्त ! क्या कोई फर्क पड़ता है। मुफ़्तखोर पहले तो मुफ्त का माल ढूँढते हैं और बाद में निःशुल्क शौचालय तलाश करते हैं। 25 %डिस्काउंट और बिग बाजार के महा सेल में एक के साथ एक फ्री को आप क्या कहेंगे। वहाँ छूट भी है, मुफ्त भी है और शुल्क भी। लेकिन निःशुल्क कुछ भी नहीं है।
हमारे घर अखबार आता है, उस पर शुल्क लिखा होता है। वही अखबार अगर आप पड़ोसी के यहाँ अथवा वाचनालय में पढ़ते हैं, तो निःशुल्क हो जाता है।।
गर्मी में दानदाता और पारमार्थिक संस्थाएँ जगह जगह ठंडे पानी की प्याऊ खोलते थे, वे निःशुल्क होती थी लेकिन उन पर ऐसा लिखा नहीं होता था, क्योंकि तब पीने के पानी के पैसे नहीं लिए जाते थे। जब से पीने का पानी बोतलों में बंद होने लगा है, वह बिकाऊ हो गया है।
घोर गर्मी और पानी के अभाव में नगर पालिका पानी के टैंकरों से निःशुल्क जल-प्रदाय करती थी। लोग पानी के टैंकर के आगे बर्तनों की लाइन लगा दिया करते थे। सार्वजनिक स्थानों के नल और ट्यूब वेल की भी यही स्थिति होती थी। लेकिन पानी बेचा नहीं जाता था।।
समय के साथ पानी के भाव बढ़ने लगे। नई विकसित होती कालोनियों के बोरिंग सूखने लगे। पानी बेचना व्यवसाय हो गया। प्राइवेट पानी के टैंकर सड़कों पर दौड़ने लगे। अब पानी निःशुल्क नहीं मिलता।
शहरों में चिकित्सा बहुत महँगी है ! एलोपैथी के डॉक्टर कंसल्टेशन फीस लेते हैं, वे मुफ्त में इलाज नहीं करते। आयुर्वेदिक चिकित्सा में निःशुल्क परामर्श उपलब्ध होता है। पातंजल औषधालय हो अथवा कोई आयुर्वेदिक दुकान, निःशुल्क चिकित्सा के बोर्ड लगे देखे जा सकते हैं। बस दवाइयों की कीमत मत पूछिए।।
कुछ नागरिक, समाजसेवी संस्थाओं को अपनी स्वैच्छिक सेवाएँ प्रदान करते हैं। मुफ़्त सलाह और निःशुल्क सेवाएं देने वाले को मानद भी कहते हैं। उनकी निःशुल्क सेवाओं को सम्मान प्रदान करने के लिए अंग्रेज़ी में एक शब्द गढ़ा गया है, ऑनरेरी।
समाज की विभिन्न विधाओं में निःस्वार्थ सेवाएं प्रदान करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों को ऑनरेरी डॉक्टर ऑफ लॉज़ की डिग्री से विभूषित किया जाता है। इनमें ललित कलाओं में पारंगत विद्वानों और कलाकारों को बिना डिग्री के डॉक्टर बना दिया जाता है। किसी भी सेलिब्रिटी को ऐसा डॉक्टर बनने में ज़्यादा वक्त नहीं लगता।।
क्या मनुष्य जीवन हमें माँगने से मिला है, या फिर हमने इसकी कोई कीमत चुकाई है ? मुफ़्त में कहें, या निःशुल्क मिली यह ज़िन्दगी कितनी अनमोल है। अक्सर लोग बड़े शिकायत भरे लहजे में कहते हैं, हमने पूरी ज़िंदगी निःस्वार्थ सेवा और त्याग में बिता दी और बदले में हमें क्या मिला।
वे भूल जाते हैं, इतना बहुमूल्य मानव जीवन उन्हें बिना कौड़ी खर्च किये मिला है। जिसने आपको यह जीवन दिया है, यह उसकी अमानत है। इसमें खयानत न करते हुए, कबीर की तरह इस चदरिया को ज्यों की त्यों रख देंगे तो यही एक बड़ा अहसान होगा। जो ज़िन्दगी आपको मुफ्त में मिली, आप उसकी क़ीमत लगा रहे हैं। मुझको क्या मिला।।
कुछ लोग निःशुल्क खुशियाँ बाँटते हैं। कितनी भी परेशानियां हों, हमेशा मुस्कुराहट उनके चेहरे पर नज़र आती है। दो शब्द मीठा बोलने में पैसे नहीं लगते।
व्यक्तित्व की महक, तड़क-भड़क और महँगे प्रसाधनों से नहीं होती। प्रसन्नता travel करती है। बस में यात्रा करते समय, किसी माँ की गोद में खिलखिलाता बच्चा, बरबस सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। वह जिसकी ओर मुस्कान फेंकता है, वह मुग्ध हो जाता है। यह सब बस किराये में शामिल नहीं होता। निःशुल्क होता है।
गर्मियों में जब सुबह ठंडी हवा चलती है, और आप सैर के लिए निकलते हैं, तो वातावरण में रातरानी की खुशबू शामिल होती है। प्रकृति ने यह सब व्यवस्था आपके लिए निःशुल्क की है। आप इसकी कीमत केवल खुश रहकर, प्रसन्न रहकर, और औरों को प्रसन्न रखकर ही चुका सकते हैं। जो निःशुल्क मिला है, उसे अपने पास नहीं रखें, निःशुल्क ही आपस में बांट लें।।
पदनाम: उप महाप्रबंधक (सिविल) भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण, भोपाल
शिक्षा: (1) सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक (2) जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन में डिप्लोमा (3) M. A. (हिन्दी साहित्य)
अन्य रुचि: कहानीकार, लघुकथाकार, कवि, स्तम्भकार, समाजसेवक,पर्यावरणविद.
☆ आलेख ☆ आज की सुविधा कल की दुविधा…📱☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆
ट्रेन में बैठी “सुनीता” ने अपने काम को निपटाने के लिए है पास ही बैठे तीन साल के अपने छोटे बच्चे “तक्ष” को मोबाइल दे रखा है सुनीता चाहती है कि वह अपने ऑफिस का काम ट्रेन में बैठकर ही निपटाले, इस दौरान उसका बच्चा उसे परेशान ना करें इसके लिए उसने अपना एंड्राइड मोबाइल भी उसके हाथ में पकड़ा दिया है। बेटा तक्ष खुशी से झूमता है और सुनीता के गाल पर पप्पी देते हुए कहता है “मम्मी आई लव यू”।
एक मुस्कुराहट के साथ सुनीता अपने ऑफिस के काम में लग जाती है फिर ट्रेन में स्टेशन के बाद स्टेशन आते जाते हैं तक्ष अपने मोबाइल में अपनी पसंद का गेम खेलने लग जाता है। थोड़ी देर में तक्ष की यस यस की आवाजें आने लगती है बीच-बीच में वह सुनीता को बस इतना ही कहता” मम्मी देखो मैंने छटा लेवल पार कर लिया है अब मेरा लेवल आठ निकल गया है”। और सुनीता मुस्कुराते हुए कहती है ठीक है बेटा खेलो पर मुझे डिस्टर्ब ना करो।
ऐसी ही एक कहानी दुकान पर बैठे “सुमित” की भी है सुमित की तीन बच्चे हैं सबसे छोटी बेटी छः महीने की है उसे संभालने और घर के काम में लगी उसकी पत्नी “सुमित्रा” को ऐसे में अपने ढाई साल की मंझली बेटी”ईशा की देखभाल भी सुमित को ही करनी रहती है इसलिए वह दुकान में बैठे-बैठे कई बार ग्राहकों से बातें करने की जल्दी में बेटी ईशा को मोबाइल पकड़ा देता है।
ईशा मोबाइल लेते ही एकदम खुशी से झूम उठती है”थैंक यू पापा” और उसके बाद वह अपना मनपसंद कार्टून टीवी देखती रहती है।
सुमित अपनी दुकानदारी में लग जाता है।
यह छोटी-छोटी घटनाएं बाजार में हमारी आंखों के सामने से अक्सर गुजरती हैं और हम उन बच्चों को हल्का सा मुस्कुरा कर देखते है फिर उनके पेरेंट्स को कहते हैं “आपका बच्चा बहुत स्मार्ट है”।
पैरेंट्स भी मुस्कुरा कर कहते हैं जी शुक्रिया।
इक्कीसवीं सदी की यह नए पढ़े – लिखे मां-बाप की अक्सर इकलौती या दो संतानों में से एक हुआ करती है।
जहां दंपति अक्सर अपनी रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं जैसे प्रोन्नत विकास, आर्थिक लाभ, महंगी कार या फिर महंगे सामान से घर भर लेने की तीव्र चाह से जूझते हैं।
कई बार हम खुद भी इन्ही की तरह जाने अंजाने में अपने हिस्से की जिम्मेदारियां कुछ इसी तरह निभा रहे होते है।
हमें लगता है कि बच्चों को मोबाइल पकड़ा देने से समस्याएं तात्कालिक रूप से बेहद कम या खत्म हो जाती हैं, और बहुत आसान हो जाता है बच्चों को संभालना और साथ में अपने रोजमर्रा के काम करना भी।
यह मानवीय प्रवृत्ति है कि अक्सर वह छोटे तात्कालिक लाभ के लिए कई बार और दूरगामी संभावित दुखों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है।
तात्कालिक आर्थिक लाभ को समाज में लालच कहते हैं, इक्कीसवीं सदी की युवा अभिभावक अक्सर अपनी सुविधाओं के लिए बच्चों को मोबाइल में बिजी कर देना आसान माध्यम समझते हैं।
बाहर खेलने में सुरक्षा का अभाव, साथ ही अपने काम से ध्यान हटाकर बच्चे पर ध्यान लगाए रखने की एक, स्वाभाविक आवश्यकता, शारीरिक उठापटक, बच्चों के झगड़े, और न जाने क्या- क्या संभावनाएं है तो वहीं मोबाइल एक सुविधाजनक, सुरक्षित, एवम सीमित जगह पर बिना अतिरिक्त खर्च के बच्चों पर कम ध्यान देने से भी काम चलने के सुखद भाव से परिपूर्ण एक व्यवस्था है।
सभी अभिभावक जो काम कर रहे हैं, वह या तो आजीविका के लिए कर रहे हैं, या अपनी अगली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित करने के लिए।
अपनी सुविधा के लिए बच्चों को दिए मोबाइल पर तेजी से चलती उंगलियों और घूमती आंखों से बच्चा एक विशेष खेल के एक विशेष खिलाड़ी को बचाने के लिए तो तेजी से बटन तो दबा कर बचा सकता है, मगर क्या वो बच्चा सड़क पर, सामने से आने वाली साइकिल से अपने आप को बचा पाएगा?क्योंकि साइकिल से बचना एक प्रायोगिक प्रक्रिया है जो प्रयोग से ही सीखी जा सकती है।
जबकि मोबाइल गेम में वह बच्चा अपने मोबाइल के हीरो को सिर्फ बटन दबाने मात्र से बचाता है।
उसका दिमाग और शरीर एक विशेष रूप की प्रक्रिया करने का आदी हो जाता है, जो कि बटन दबाने तक ही सीमित होकर रह जाती है, भौतिक रूप से सभी अंगों को एक साथ लेकर चलने को ही शरीर की प्रतिक्रिया कहा जाता है। अंगूठा या उंगली चलाने को नही और न ही उससे सामने से आ रही साईकल ही रुकेगी।
साईकल से बचने के लिए पूरे शरीर को काम करना होगा क्या हम अभिभावकों को इस बात का अहसास है?
क्या हम जानते हैं इस सदी की नई पीढ़ी को हम मोबाइल के साथ खेलने दिए जाने वाले अवसर के साथ-साथ अपनी सुविधाओं को भविष्य में एक बहुत बड़ी दुविधा के रूप में विकसित कर रहे हैं। यह कोई छोटी – मोटी घटना नहीं है अगली पीढ़ी के सार्वभौमिक विकास की आवश्यकता को देखते हुए, ये चिंता का गंभीर विषय है।
धीरे-धीरे 21 वीं सदी अब 24वें साल में प्रवेश कर चुकी है।
जिसका मतलब है नए – नए बन रहे मात-पिता भी, 20वीं सदी के अंतिम दशक या 21 वीं सदी में ही पले बढ़े हैं 21 वीं सदी विकास की सदी रही है, इस युवा पीढ़ी ने अपने साथ-साथ देश को परिवर्तित, होते हुए देश और समाज को कृषि प्रधान देश से तकनीकी प्रधान देश की तरफ विकसित एवं अग्रसित होते हुए देख रहा है।
यह वह पीढ़ी है जिसने अपने माता – पिता को खेतों में काम करते हुए भी देखा है पढ़ लिख कर नई सदी के नए भारत को बनाने में अपना योगदान भी दे रहे हैं। इन्होंने संभवतः यह भी सीखा है कि जो संसाधनों की कमी उन्होंने खुद के जीवन में महसूस की है वह अपनी अगली पीढ़ी को न होने देंगे।
लेकिन यहां एक छोटा सा प्रश्न इस नवयुवा पीढ़ी के लिए है कि जिन संसाधनों की कमियों ने उन्हें नए रास्ते सोचने के लिए मजबूर किया था क्या उन संसाधनों की पूर्ति के लिए इन्होंने नए-नए रास्ते निकालने की युक्तियां नहीं लगाई थी? जिसके चलते 21वीं सदी की इस युवा पीढ़ी ने आज अपने आप को शारीरिक रूप से सुदृढ़ एवं मानसिक रूप से बहुत समृद्ध पाया है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है यह पुरानी कहावत है जब आवश्यकता आई ही नहीं होगी तो अविष्कारी सोच कहां से आएगी?, बाहर खुले मैदान में खेलना, पेड़ पर चढ़कर एक छोटा सा आम तोड़ना खेत में जाते वक्त गीली मिट्टी में पैर का धंसना, साइकिल की चेन उतरना हैंडल का मुड़ जाना दोस्त की साइकिल पर बैठकर घर तक आना जीवन को तराशने के औजार थे न की सिर्फ संसाधनों की कमी।
यह सच है कि हर व्यक्ति की अपनी अपनी ज़रूरतें और समस्याएं होती है जिनका हल भी उसी व्यक्ति को अपने, संसाधन एवं परिस्थितियों को देखते हुए निकलना होता है।
आज घर-घर में हो रही अनजानी गलतियों की तरफ ध्यान दिलाते हुए यहां पिछले दस वर्षों के आंकड़ों का विवरण करना आवश्यक है
वर्ष 2011 से 2019 के बीच नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ (NIH) अमेरिका द्वारा 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर मोबाइल के प्रयोग से हुए प्रभावों पर कराए गए 25 अध्यनों में से 16(64%) में मोबाइल का बच्चों के मानसिक विकास पर बेहद खतरनाक, 5 (20%)में खतरनाक एवम 4 (16%)में कम खतरनाक बताया गया है .इस तरह कुल 84%बच्चों पर खतरनाक से बेहद खतरनाक स्तर के लक्षण जैसे आंखें खराब होना, शरीर के अंगों का सामंजस्य न होना, अल्प विकसित दिमाग, भूख न लगना, उल्टियां होना, कंपकपी आना, अत्यधिक डरना, झगड़ालू होने से लेकर मानसिक रूप से विक्षिप्त होने जैसे गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसे में आज के समय में बच्चो को मोबाइल से पूरी तरह दूर तो नही रखा जा सकता परन्तु कुछ नियंत्रित नियमों के तहत सीमित जरूर किया जा सकता है अथवा कहें कि किया जाना चाहिए।
थोड़े से साकारात्मक प्रयास ओर सोच से बच्चों की इस आदत का सदुपयोग भी किया जा सकता है जैसे – उन्हे निश्चित अवधि के लिए ही मोबाइल पर खेलने की अनुमति देने के बदले में स्कूल का होम वर्क करवाना, उन्हे नई नई तकनीकियों से परिचित कराना। उन्हे इंटरनेट से जानकारी परक खगोल, विज्ञान, स्पेस जैसे विषयों पर जानकारी परक कंटेंट के लिए प्रोत्साहित करना। उनसे खुदके लिए कुछ उपयोगी सामग्री निकलने के लिए कहना, आदि। साथ ही अभिभावकों को अपनी प्राथमिकता में बच्चों से बात करना, उनसे समसामयिक विषयों पर विचार जानना अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बच्चों को बताना आदि भी दिनचर्या का आवश्यक अंग होना चाहिए न कि वैकल्पिक।
अपने घर के दरवाजे पर खड़ी इस भयानक त्रासदी के लिए, अपनी आज की सुविधाओं को देखते हुए बच्चों के हाथ में सिर्फ मोबाइल पकड़ा कर अपनी जिम्मेदारियां से इति श्री करने की सरलता के बजाय युवा अभिभावको को किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर ध्यान देना समय की आवश्यकता है, जिनमें विकल्प के रूप में घर के बाहर आँगन में खेलना है, पार्क आदि में खेलते हुए बच्चों को खेलने के लिए प्रेरित करना जिससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ इम्यूनिटी भी बढ़ती है। , यदि बाहर खेलना संभव न हो तो बच्चों के साथ ताश खेलने, कॉमिक्स पढ़ाने, अंताक्षरी खेलना, छोटे-छोटे चिड़िया उड़, तोता उड़ जैसे खेल, किसी सुरक्षित पालतू जानवर को रख कर भी मोबाइल जैसी चीजों से बच्चों को दूर रखा जा सकता हैं। साथ ही ऑनलाइन समान मंगाने के बजाए बच्चो को दुकान पर भेज कर समान मंगवाने की आदत डालने से, बच्चे अनजान लोगों से बात करना सीखेंगे, खरीदी हुए चीज की कीमत समझेंगे, मोल भाव करना सीखेँगे और खराब और सही चीज का फर्क करना सीखेंगे, पैदल या साइकिल पर चलेंगे, इसलिए उनसे घर के छोटे छोटे काम करवाकर भी बिजी रखा जा सकता है।
दिन रात मेहनत करने के साथ बच्चों को सिर्फ सुविधा ही नही समय भीं देंने को भी प्राथमिकता रखेंगे ज्यादा अच्छा होगा। प्रतिस्पर्धा का कोई अंत नहीं है न ही संसाधनों को एकत्र करने की ही कोई सीमा है ये सच हमें ध्यान में रखकर अपनी प्रतीकताएं निर्धारित करनी होंगी।
अक्सर अभिभावक एक बात कहते है “हम जो कुछ भी कर रहे है इन बच्चों के लिए ही तो कर रहे है” एक बार सोचना चाहिए क्या सच में हम सिर्फ बच्चों के लिए कर रहे है ? या अपने दिखावटी स्वभिमान और स्टेटस की प्रति पूर्ति के लिए ? कितने बच्चे है जो अपने पिता या मां को ज्यादा कमाकर लाने को कहते है? जिस उम्र में हम इनकी इच्छाएं पूरी कर रहे होते है उन्हे पता भी नही होता वो जिद किस चीज के लिए कर रहे है, ये बात अभिभावकों को खुद समझना होगा की आज अपनी सुविधा के लिए बच्चों को मोबाइल देकर उन्हें मोबाइल की आदत डालना एवम उनके कीमती बचपन को निष्क्रिय करने से उनके और परिवार के लिए भविष्य में मानसिक विकास की कमी, कमजोर सेहत, जैसी समस्याओं का सामना करते हुए उनके आने वाले कल को खराब तो नही कर रहे!
विज्ञान की अन्य विधाओं में भारतीय ज्योतिष शास्त्र का अपना विशेष स्थान है। हम अक्सर शुभ कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त, शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम कुंडली मिलान आदि करते हैं। साथ ही हम इसकी स्वीकार्यता सुहृदय पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं। हमें प्रसन्नता है कि ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के विशेष अनुरोध पर साप्ताहिक राशिफल प्रत्येक शनिवार को साझा करना स्वीकार किया है। इसके लिए हम सभी आपके हृदयतल से आभारी हैं। साथ ही हम अपने पाठकों से भी जानना चाहेंगे कि इस स्तम्भ के बारे में उनकी क्या राय है ?
☆ ज्योतिष साहित्य ☆ साप्ताहिक राशिफल (14 अप्रैल से 20 अप्रैल 2025) ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
जय श्री राम। हिंदी का एक फिल्मी गाना है-
काल का पहिया घूमे भैया
लाख तरह इन्सान चले
ले के चले बारात कभी तो
कभी बिना सामान चले
राम कृष्ण हरि …राम कृष्ण हरि
यह गाना जीवन की वास्तविकता को बताता है और कहता है कि हमें सदैव ईश्वर को याद करना चाहिए क्योंकि कभी हमारे अच्छे दिन रहेंगे कभी सामान्य तो कभी बुरे। इन्हीं अच्छे सामान्य और बुरे दिनों के बारे में बताने के लिए हम आपके पास हर सप्ताह साप्ताहिक राशिफल लेकर आते हैं। इस सप्ताह में पंडित अनिल पांडे आपको 14 अप्रैल से 20 अप्रैल 2025 तक के सप्ताह के अच्छे बुरे और सामान्य दिनों के बारे में बताऊंगा।
इस सप्ताह सूर्य मेष राशि में, मंगल कर्क राशि में बुध मीन राशि में, गुरु वृष राशि में, शुक्र शनि और राहु मीन राशि में गोचर करेंगे। आई अब हम राजकुमार राशिफल की चर्चा करते हैं।
मेष राशि
इस सप्ताह उच्च का सूर्य आपके लग्न भाव में विराजमान है। जिसके कारण आपका स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। समाज में आपकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। आपका क्रोध की मात्रा में भी थोड़ी वृद्धि हो सकती है। कचहरी के कार्यों में आपको सफलता प्राप्त होगी सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी आ सकती है। माता जी का स्वास्थ्य थोड़ा खराब हो सकता है। इस सप्ताह आपके लिए 14 और 15 अप्रैल किसी भी कार्य को करने के लिए शुभ है 16 और 17 तारीख को आप दुर्घटना से बच सकते हैं। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करें और मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में जाकर कम से कम तीन बार हनुमान चालीसा का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन मंगलवार है।
वृष राशि
इस सप्ताह आपको कचहरी के कार्यों में सफलता मिल सकती है। धन आने का योग भी है। व्यापार उत्तम चलेगा। आपका, आपके माता जी और पिताजी का स्वास्थ्य सामान्य रहेगा। आपके जीवनसाथी को 16 और 17 तारीख को थोड़ी समस्या हो सकती है। उनका ध्यान रखें। इस सप्ताह आपको प्रतिदिन सतर्क रहकर के ही कार्य करना है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन भगवान शिव का दूध और जल से अभिषेक करें। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
मिथुन राशि
इस सप्ताह आपका आपके पिताजी का और आपके जीवन साथी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। माता जी के स्वास्थ्य में मामूली समस्या आ सकती है। कार्यालय में आपकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। धन आने की पूरी उम्मीद है। आपके धन के खर्चे में भी वृद्धि होने की संभावना है। नीच का मंगल धन भाव में बैठकर नीच भंग राजयोग बना रहा है। जिसके कारण अगर आप प्रयास करेंगे तो आपके पास इस सप्ताह अच्छा धन आ सकता है। इस सप्ताह आपके लिए 18 और 19 अप्रैल कार्यों को करने के लिए उपयुक्त है। 20 तारीख के दोपहर के बाद आपको कोई भी कार्य करने के पहले पूरी सावधानी बरतना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन गाय को हरा चारा खिलाएं। सप्ताह का शुभ दिन शुक्रवार है।
कर्क राशि
इस सप्ताह आपके पिताजी और जीवनसाथी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। माता जी और आपके स्वास्थ्य में थोड़ी बहुत समस्या हो सकती है। इस सप्ताह भाग्य आपका भरपूर साथ देगा। कार्यालय में आपकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। सामान्य धन आने की उम्मीद है। इस सप्ताह आपके लिए 14, 15 और 20 की दोपहर तक का समय कार्यों को करने के लिए अनुकूल है। 18, 19 और 20 की दोपहर तक का समय आपके लिए थोड़ा कठिन है। इस समय में कोई भी कार्य पूर्ण सावधानी पूर्वक करें। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन रुद्राष्टक का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन सोमवार है।
सिंह राशि
इस सप्ताह आपका आपके माताजी और पिताजी का तथा आपके जीवनसाथी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा। पिताजी को थोड़ी पेट की समस्या हो सकती है। इस सप्ताह भाग्य आपका भरपूर साथ देगा। दुर्घटनाओं से भी आप बच जाएंगे। कचहरी के कार्यों में प्रयास करने पर सफलता मिल सकती है। कार्यालय में आपकी स्थिति सामान्य रहेगी। इस सप्ताह आपको सतर्क रहकर कार्य करने की आवश्यकता है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन शिव पंचाक्षर स्त्रोत का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन मंगलवार है।
कन्या राशि
अविवाहित जातकों के लिए यह सप्ताह अत्यंत उत्तम रहने वाला है। उनके विवाह के अच्छे-अच्छे प्रस्ताव आएंगे। व्यापार उत्तम चलेगा। आपके माता-पिता का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। आपके जीवनसाथी को शारीरिक कष्ट हो सकता है। इस सप्ताह आपके पास धन आने की उम्मीद है। आप थोड़ा सा प्रयास करेंगे तो आपके पास अच्छी मात्रा में धन आ सकता है। इस सप्ताह आपके लिए 18, 19 तथा 20 अप्रैल कार्यों को करने के लिए लाभप्रद हैं। सप्ताह के बाकी दिन भी ठीक-ठाक हैं। 16 और 17 तारीख को आपका अपने भाई बहनों के साथ संबंध सुधर सकता है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन शिव पंचाक्षर मंत्र का जाप करें। सप्ताह का शुभ दिन शुक्रवार है।
तुला राशि
यह सप्ताह आपके जीवन साथी के लिए उत्तम रहेगा। उनके प्रयासों को सफलता प्राप्त होगी। आपके दुश्मनों की संख्या में वृद्धि हो सकती है। आपको अपने संतान से सहयोग नहीं मिल पाएगा। पिताजी का स्वास्थ्य खराब हो सकता है। कार्यालय में आपको सावधान रहकर कार्य करने की आवश्यकता है। आपको अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। इस सप्ताह आपके लिए 14 और 15 और 20 तारीख परिणाम दायक हैं। 16 और 17 तारीख को आपके पास धन आने की उम्मीद है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन शुक्रवार है।
वृश्चिक राशि
इस सप्ताह आपको अपने संतान से सहयोग प्राप्त होगा। छात्रों की पढ़ाई उत्तम चलेगी। माता जी और पिताजी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। आपका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। जीवनसाथी के पेट में कोई समस्या हो सकती है। आप प्रयास करके अपने शत्रुओं को पराजित कर सकते हैं। भाग्य से इस सप्ताह आपको कोई मदद प्राप्त नहीं हो पाएगी। आपको कोई भी काम करने के लिए परिश्रम करना पड़ेगा। इस पूरे सप्ताह आपको सतर्क रहकर कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
धनु राशि
इस सप्ताह आपके प्रयासों के कारण आपकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो सकती है। जनता में आपका सम्मान बढ़ सकता है। आपके संतान को अच्छे फल की प्राप्ति हो सकती है। संतान का आपको सहयोग प्राप्त होगा। आपके सुख में वृद्धि होगी। अगर आप प्रयास करेंगे तो आप कोई बड़ी चीज खरीद सकते हैं। दुर्घटनाओं से आप बचेंगे। इस सप्ताह आपके लिए 18 और 19 का 20 तारीख लाभप्रद हैं। 16 और 17 तारीख को आपको कचहरी के कार्यों में सही ढंग से प्रयास करने पर सफलता मिल सकती है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
मकर राशि
इस सप्ताह आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। क्रोध की मात्रा में वृद्धि होगी। लंबी यात्रा का योग बन सकता है। भाई बहनों के साथ अच्छे संबंध रहेंगे। आपके प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। माता जी का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। कार्यालय में आपको सावधान रहकर कार्य करना चाहिए। संतान का आपको सहयोग प्राप्त होगा। छात्रों की पढ़ाई ठीक चलेगी। इस सप्ताह आपके लिए 14 और 15 अप्रैल कार्यों को करने के लिए उपयुक्त हैं। 18, 19 और 20 तारीख को आपको सावधान रहकर कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन गायत्री मंत्र की एक माला का जाप करें। सप्ताह का शुभ दिन बुधवार है।
कुंभ राशि
इस सप्ताह आपका, आपके पिताजी का और आपके जीवनसाथी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। व्यापार आपका ठीक चलेगा। इस सप्ताह आपको धन की प्राप्ति होगी। अगर आप प्रयास करेंगे तो आप शत्रुओं को पराजित कर सकते हैं। भाई बहनों के साथ अच्छे संबंध रहेंगे। कार्यालय में आपको सावधान रहकर कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपके लिए 18 और 19 तारीख कार्यों को करने के लिए लाभदायक हो सकती है। 16, 17 और 20 तारीख को आपको सावधान रहकर कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन लाल मसूर की दाल का दान करें और मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में जाकर हनुमान चालीसा का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन शनिवार है।
मीन राशि
अविवाहित जातकों के लिए यह सप्ताह अच्छा रहेगा। विवाह के प्रस्ताव आएंगे। प्रेम संबंधों में वृद्धि होगी। आपके जीवन साथी को थोड़ा कष्ट हो सकता है। व्यापार में प्रगति होगी। धन लाभ होगा। आपके संतान को अच्छे फल की प्राप्ति हो सकती है। संतान का आपके सहयोग प्राप्त होगा। भाग्य इस सप्ताह आपका साथ दे सकता है। इस सप्ताह आपके लिए 18, 19 और 20 तारीख कार्यों को करने के लिए लाभदायक हैं। 14 और 15 तारीख को कोई भी कार्य करने के पहले पूरी प्लानिंग करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन काली उड़द का दान दें तथा शनिवार को सायंकाल के बाद शनि मंदिर में जाकर शनिदेव का पूजन करें। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
ध्यान दें कि यह सामान्य भविष्यवाणी है। अगर आप व्यक्तिगत और सटीक भविष्वाणी जानना चाहते हैं तो आपको मुझसे दूरभाष पर या व्यक्तिगत रूप से संपर्क कर अपनी कुंडली का विश्लेषण करवाना चाहिए। मां शारदा से प्रार्थना है या आप सदैव स्वस्थ सुखी और संपन्न रहें। जय मां शारदा।
☆ क्रांतीसुर्य महात्मा ज्योतिराव फुले… ☆ डॉ गोपाळकृष्ण गावडे ☆
एवढे अनर्थ एका अविद्येने केले
विद्येविना मती गेली,
मतीविना नीती गेली,
नीतीविना गती गेली,
गतीविना वित्त गेले,
वित्ताविना शूद्र खचले,
एवढे अनर्थ एका अविद्येने केले!”
वरील माहिती लहानपणी अनेक वेळा वेगवेगळ्या मार्गाने समोर आली होती. काल महात्मा ज्योतिराव फुलेंची जयंती होती. त्यानिमित्ताने ती परत समोर आली. त्यांच्या कार्याविषयी लिहावे असे दिवसभर वाटत होते. पण दिवसा व्यस्ततेमुळे ते शक्य झाले नाही. आता रात्री बसून हा लेख लिहितो आहे.
वरील ओळींमधून ज्योतिराव फुलेंना नक्की काय म्हणायचे होते ते लहानपणी कधी नीट कळले नाही. पण या ओळींनी मनात कुतूहल निर्माण केले होते. नंतर जरा वाचन वाढल्यावर या ओळी समजून घेण्याचा प्रयत्न केला. त्यातून काही गोष्टी उमगल्या. त्या तुमच्या समोर मांडतो आहे.
विद्या अर्थात शिक्षण नसल्याने मती अर्थात बुद्धी नष्ट होते. बुद्धी म्हणजे प्राप्त परिस्थितीचे योग्य आकलन करून चांगले दुरोगामी परिणाम देणारे निर्णय घेण्याची क्षमता.
दैनंदिन काम उत्तम दर्जाने आणि वेगाने करण्यासाठी नीती (रणनीती) आखावी लागते. पण त्यासाठी मति/बुद्धी/योग्य निर्णयक्षमता आवश्यक असते. पण मति तर आधीच अविद्येने नष्ट केलेली असते. अशा प्रकारे शिक्षणाच्या अभावामुळे दैनंदिन कामातील गती म्हणजे प्राविण्य नष्ट होते.
दैनंदिन कामातील गतीच आपल्याला वित्त अर्थात पैसे मिळवून देते. अशा प्रकारे अविद्येने (शिक्षणाच्या अभावाने) मनुष्याची आर्थिक परिस्थिती खराब होते.
तात्कालिक समाजव्यवस्थेत शूद्रांना शिक्षण देण्याची व्यवस्था नव्हती. त्या काळी शूद्रांनाही शिक्षणाची गरज वाटत नव्हती. शिक्षणाने मनुष्यात काय बदल होतात हेच मुळी त्यांना माहित नव्हते. शिक्षणाच्या अभावाने शूद्रांची आर्थिक परिस्थिती खराब झालेली होती. आर्थिक स्थिती खराब झाल्याने शूद्रांची सामाजिक स्थिती खराब झालेली होती. ज्योतीरावांनी तात्कालिक समाजव्यवस्थेचा सखोल अभ्यास करून वरील ओळींच्या स्वरूपात आजारी समाजव्यवस्थेचे निदान केलेले होते.
जगातील कुठल्याही समाजात बलवान आणि कमजोर असे दोन गट तयार झाल्यास बलवान गटाकडून कमजोर गटाचे शोषण सुरू होते हा इतिहास आहे. असे शोषण होऊ लागल्यास सामाजिक न्याय नष्ट होतो. समाजातील काही दुर्बल घटकांवर अन्याय झाल्याने त्यांच्यामध्ये बलवान गटाविरुद्ध आणि एकंदरीत समाजव्यवस्थेविरुद्ध चीड निर्माण होते. असा समाज गटातटात विभागाला जातो. भारतात तर जातीच्या मडक्यांची उतरंड मांडलेली होती. या उतरंडीतील प्रत्येक मडके वरच्या मडक्याकडून होणाऱ्या अन्यायामुळे त्याच्यावर चिडलेले होते मात्र त्याच वेळी आपल्यापेक्षा खालच्या मडक्याला हलके समजत त्याच्यावर अन्याय करत होते. जेव्हा समाजातील एक गट दुसऱ्या गटाला दुखावतो तेव्हा दुसरा गट प्रतिक्रियेत पहिला गट दुखावला जाईल असे काही तरी करतो. हिंसेच्या क्रिया आणि प्रतिक्रिया म्हणून हिंसाच परत मिळते. हा प्रकार चालू राहिल्याने गटागटामध्ये टोकाचे शत्रुत्व निर्माण होते. अशा गटातटात विभागलेल्या समाजातील प्रत्येक गट दुसऱ्या गटाला सत्ता मिळू नये म्हणून प्रयत्न करत असतो. गटागटामध्ये शत्रुत्व इतके टोकाला जाते की ते एक वेळ परक्या व्यक्तीची सत्ता स्वीकारायला हे गट तयार होतात पण आपल्याच समाजातील दुसऱ्या गटाला सत्ता मिळू द्यायला ते तयार नसतात. असा विघटित समाज ‘फोडा झोडा आणि राज्य करा’ नीती वापरणाऱ्या परक्या लोकांकडून सहज गुलाम होतो. म्हणून गटातटात विभागले जाणे ही गुलामांची मानसिकता आहे असे म्हणतात. परक्या लोकांकडून गुलाम झाल्यावर नव्या राज्यकर्त्यांकडून कुठल्या एका गटाचे नव्हे तर संपूर्ण समाजाचे शोषण चालू होते. प्रथम राजकीय सत्ता जाते. मग आर्थिक शोषण सुरू होते. शेवटी धार्मिक शोषण चालू होते. गुलामगिरीत गेलेला संपूर्ण समाज रसातळाला जातो.
अविद्येमुळे अर्थात शिक्षणाचा अभाव असल्याने इतका मोठा अनर्थ निर्माण होतो.
युगसुत्रानुसार अविद्येचा अर्थ वेगळा आहे. स्वतःचे खरे अस्तित्व आत्मा असताना स्वीकारलेले अहंकार /आयडेंटिटी यात आत्मभाव शोधणे म्हणजे अविद्या. देहधर्म आणि चरितार्थ चालवण्यासाठी आपण काही रोल/ भूमिका स्वीकारतो. आपल्या एखाद्या रोलची आपल्या मनात निर्माण झालेली प्रतिमा म्हणजे अहंकार. अहंकारात आत्मभाव ठेवणे म्हणजे अमिताभ बच्चनने आयुष्यभर विजय दीनानाथ चौव्हान होऊन जगल्यासारखे आहे. असत् म्हणजे अहंकारांना सत् म्हणजे आत्म/स्वयं समजणे म्हणजे अविद्या. योगसुत्रानुसार विद्येचा अर्थ शिक्षणाहून वेगळा असला तरी परिणाम तोच होतो. समाज गटातटात विभागाला जाऊन शेवटी गुलामगिरीत जातो.
ज्योतीरावां इतकी सामाजिक समस्यांची खोलवर जाण आजवर खचितच कुणाला झालेली असेल.
पण सामाजिक समस्येची नुसती जाण असून उपयोग नसतो. सामाजिक समस्येचे कारण समजल्यावर त्यावर उपाय करणे आवश्यक असते. कृतीविना वाचाळता व्यर्थ ठरते. पण मग कृती का घडत नाही? कळतंय पण वळत नाही असे का घडते?
समाजाचे रहाटगाडगे एक ठराविक वेग धरून चालू असते. समाजाच्या प्रत्येक घटकाला समाजाकडून काहीतरी फायदे मिळत असतात. समाजव्यवस्थेत बदल करायचा म्हटले की आपले हक्क हिरावले जातील या भीतीने समाजातील लाभार्थी त्याला विरोध करतात. फिरणाऱ्या चाकाची गती बदलायच्या प्रयत्न करणाऱ्या पहिल्या व्यक्तीला चाकाकडून सर्वात जास्त विरोध होतो. त्याप्रमाणे सर्वप्रथम जो समाज सुधारणेचा प्रयत्न करतो त्याला समाजाचा सर्वात जास्त विरोध सहन करावा लागतो. समाजाच्या दुरोगामी हितासाठी तात्कालिक समाजाचा विरोध पत्करून सामाजिक समस्येवर प्रत्यक्ष कृतीतून उपाय करणे हे म्हणजे दिव्य करण्याप्रमाणे असते. 19 व्या शतकाच्या सुरवातीचा भारतीय समाज तर आजपेक्षा खूप जास्त अशिक्षित आणि बुरसटलेल्या विचारांचा होता. तरी समाज सुधारणेचे दिव्य करायला सुरुवात करणारे पहिले समाज सुधारक म्हणजे जोतीराव गोविंदराव फुले (1827-1890).
गटागटात विभागलेली मराठेशाही संपून आणि इंग्रजांचे संपूर्ण भारतावर राज्य प्रस्थापित होऊन केवळ 9 वर्ष पूर्ण झालेले असताना जोतीराव फुलेंचा पुण्यात जन्म झाला. ज्या काळी शिक्षणाला निरोपयोगी समजले जाई त्या काळात त्यांनी मिशन शाळेत जाऊन इंग्रजी शिक्षण घेतले. मुलाला इंग्रजी शिक्षण देण्यात त्यांच्या आई वडिलांचा सुज्ञपणा दिसतो. या शिक्षणामुळे केवळ भारतात नव्हे तर जगात घडलेल्या घटनांची ओळख ज्योतिरावांना झाली. अमेरिकन क्रांतीमध्ये मोलाचे योगदान देणाऱ्या थॉमस पेणच्या विचारांचा त्यांच्या मनावर विशेष प्रभाव पडला. अमेरिकेला ब्रिटिश सत्ते विरुद्ध उठाव करण्यासाठी प्रेरणा देणाऱ्या त्याच्या Common Sense (1776) या लेखाचा, फ्रेंच क्रांतीचे समर्थन करणाऱ्या त्याच्या The Rights of Man (1791) या पुस्तकाचा आणि धर्मातील अंधश्रद्धांवर टीका करणाऱ्या त्याच्या The Age of Reason या पुस्तकांचा त्यांच्या मनावर गहिरा परिणाम झाला. राजेशाही, धर्माधिकार आणि विषम सामाजिक रचना यांच्या दुष्परिणामांच्या विषयी त्यांच्या मनात गाढ समज निर्माण झाली. माणसाच्या नैसर्गिक आणि सामाजिक हक्कांचे समर्थन करणारे विचार त्यांच्या मनात जागृत झाले. विवेक, वैज्ञानिक दृष्टिकोन आणि नैतिकता यांचे समर्थन करणारे विचार पक्के झाले. सर्वात महत्वाचे म्हणजे ज्या शिक्षणा मुळे त्यांना इतके अफाट ज्ञान मिळाले होते त्या शिक्षणाचे महत्व त्यांना पटले. आपल्या प्रमाणे सर्वांना हे ज्ञान मिळावे आणि आपला गुलाम देश परत वैभवशाली व्हावा अशी इच्छा त्यांच्या मनात निर्माण झाली. पण त्यासाठी समाजात खुप बदल करणे आवश्यक आहेत याची जाणीव त्यांना झाली.
प्रथम स्वतः व्यवसाय करत त्यांनी आपली आर्थिक स्थिती सुधारली. पुणे नगरपालिकेत बांधकाम, रस्ते, पाणीपुरवठा आदी कामांची कंत्राटे ते घेऊ लागले. सोबत पिढीजात आलेला फुलांचा व्यवसाय आणि शेती सुद्धा होती. आपली वित्तीय स्थिती चांगली नसेल तर समाजात आपल्या शब्दाला आणि कृतीला काडीची किंमत नसेल याची जाणीव त्यांना होती. म्हणून त्यांनी आपली वित्तीय स्थिती सुधारली. परंतु त्यांच्या उत्पन्नाचा बहुतांश भाग नंतर समाजसुधारणेच्या कामावर खर्च होई.
शिक्षण मनुष्यात किती बदल घडवू शकतो हे जोतिरावांना स्वतःच्या अनुभवावरून समजले होते. संपूर्ण स्त्री जमात म्हणजे अर्धा समाज त्या काळी शिक्षणापासून वंचित होता. स्त्रिया फक्त चूल आणि मूल करत होत्या. अर्थ आणि संरक्षण यासाठी स्त्रिया पुरुषावर अवलंबून असल्याने त्या समाजाचा कमजोर घटक बनल्या होत्या. ज्या समाजात पुरुष प्रबळ आणि स्त्रिया दुर्बल असतील त्या समाजात स्त्रियांचे शोषण झाले नाही तर नवल!
त्या काळी प्रथम इंग्रजांची राजकीय आणि आर्थिक गुलामगिरी, मग जातिभेदाची सामाजिक गुलामगिरी आणि शेवटी प्रत्येक घरात स्त्री-पुरूष भेदातून निर्माण झालेली घरगुती गुलामगिरी सुरु होती. सर्वत्र अन्याय आणि शोषण सुरू होते. जोतिरावांनी सर्वप्रथम शिक्षणाचे आणि खास करून स्त्रीशिक्षणाचे महत्व ओळखले. पण त्या काळी मुलींना शिकवणार कोण? स्त्री शिक्षका अस्तित्वातच नव्हत्या. पुरुष शिक्षक असलेल्या शाळेत मुलींना पाठवेल इतका तात्कालिक समाज प्रगत विचाराचा नव्हता. मग त्यांनी स्वतःच्या बायकोला आधी घरी शिकवले. पहिली शिक्षिका निर्माण करून स्त्री शिक्षणाचा मार्ग मोकळा केला. 1848 साली बुधवार पेठेत तात्यासाहेब गोवंडेंच्या भिडे वाड्यात त्यांनी पहिली मुलींची शाळा सुरू केली. आपण ज्योतिबा फुलेंचे पोक्तपणातील फोटो पाहतो. पण ज्योतीरावांनी हे पहिले दिव्य वयाच्या अवघ्या 21 व्या वर्षी केले होते. अर्थात सावित्रीबाई तर त्याहून लहान होत्या. तात्यासाहेब गोवंडे तर स्वतः ब्राह्मण होते. तरी फुले दांपत्याच्या या समाजोपयोगी कामाचे महत्व समजून ते पुण्यातील कर्मट ब्राह्मणाच्या विरोधात गेले. सावित्रीबाई पहिल्या स्त्री शिक्षिका झाल्या. पुरुषांना आपले हक्क हिरावले जातील अशी भीती वाटू लागली. अशी भीती केवळ सवर्ण नव्हे तर सर्व जातीतील पुरुषांना वाटत होती. त्यामुळे या पहिल्या मुलींच्या शाळेला तात्कालिक पुरुषप्रधान समाजातील प्रत्येक स्तरातून टोकाचा विरोध झाला. जाता-येता लोकांकडून शेण-अंडे खात अतिशय तरुण फुले दांपत्याने निर्धाराने त्यांचे काम चालू ठेवले.
त्या काळी दलितांवर होणारे अन्याय समाज उघडया डोळ्यांनी पाहत असे. हे अन्याय पाहून ‘हे असेच चालायचे’ किंवा ‘हिच समाजाची रित आहे’ असे म्हणणारे तर समाजात होतेच, पण ‘यांची लायकीच ही आहे’ असे म्हणणारे निर्लज्ज पण तात्कालिक समाजात होते. त्यावर उपाय म्हणून जोतिरावांनी दलितांना शिक्षण देवून त्यांना सक्षम करण्याचे ठरवले. पण त्यात अस्पृश्यतेची मोठी अडचण होती. त्यावर तोडगा काढत त्यांनी 1852 साली बुधवार पेठेत फक्त दलित मुलांसाठी शाळा काढली. भारतात दलितांच्या शिक्षणाची मुहुर्तमेढ रोवली गेली.
ज्योतीरावांनी समाजातील जातीभेदावर कितीही टीका केली असली तरी ते ब्राह्मण वा सवर्ण विरोधी नव्हते. उलट समाजातील अनेक सुज्ञ ब्राह्मण वा सवर्णांच्या मदतीने त्यांनी ही चळवळ उभी केली होती. त्यांच्या टीकेचा रोख नेहमी भेदाभेद पाळणाऱ्यांवर असे. लिंग, पंथ, जाती, प्रांत, भाषा, खानपान, रूढी परंपरा यांच्या अहंकारातून असे भेदाभेद निर्माण होतात. ‘मनुष्याने सर्व प्रकारचे अहंकार सोडले पाहिजेत’ असे योगसुत्र, सांख्ययोग, गीता, वेदांत या सारखे हिंदू ग्रंथ ओरडून ओरडून सांगतात. सगळ्या जीवांचे खरे अस्तित्व केवळ आत्मा असल्याने सर्व जीव एकच आहेत ही मानवतावादी शिकवण भारतीय विसरून गेले होते.
कुठलाही अहंकार बाळगणे हा आत्मघात असतो. अहंकारातून अपेक्षा निर्माण होतात. अपेक्षांमधून चित्तविक्षेप निर्माण करणारे राग-द्वेष आदी व्यवधान निर्माण होतात. त्यातून हिंसेसारखे अधर्म घडतात. हिंसेची प्रतिक्रिया हिंसा असल्याने भय-चिंता निर्माण होऊन अजून चित्तविक्षेप निर्माण होतो. चित्तविक्षेप एकाग्रतेचा नाश करून कर्मनाश करतात. कर्मनाशामुळे वैयक्तिक हानी होते. लोकांच्या अहंकारामुळे समाज गटातटात विभागाला जाऊन धूर्त स्वकीय किंवा परकीय लोकांच्या गुलामगिरीत जातो. अशा प्रकारे अहंकार बाळगणे हा वैयक्तिक आणि सामाजिक आत्मघात आहे.
ज्योतिरावांचा समाजातील भेदाभेद सोडण्याचा आग्रह हिंदू धर्मग्रंथांच्या शिकवणीच्या अनुरूपच होता. पण तात्कालिक समाजातील जातीच्या उतरंडीतील प्रत्येक मडके इतके स्वार्थलोलुप झालेले होते की बहुतेकांना हे विचार कधी समजले नाही. किंबहुना आपल्या खालील मडक्याच्या शोषणातून मिळणाऱ्या स्वार्थाच्या आड हे विचार येत असल्याने त्यांना ते समजूनच घ्यायचे नव्हते. सगळे शिकले तर आमच्या शेतात आणि घरात कोण राबेल? त्यासाठी समजातील बहुतेक लोकसंख्येला शिक्षणाचा अधिकार नाकारला गेला. यात सवर्ण स्त्रियांचाही समावेश होता.
समाजातील काही स्वार्थी घटकांनी फुले दांपत्याला अनेक प्रकारे त्रास दिला. पण त्याच समाजातील काही सुज्ञ आणि निस्वार्थी लोकांनी त्यांना तितकीच मदत सुद्धा केली. तात्यासाहेब गोवंडे, कृष्णाशास्त्री चिपळूणकर, विष्णुशास्त्री पंडित, महादेव रानडे यांच्या सारखे ब्राह्मण, बहुजन समाजातील अनेक लोक आणि उस्मान-फातिमा शेख दाम्पत्या सारखे मुस्लिम लोक सुद्धा फुले दांपत्याच्या मागे खंबीरपणे उभे राहिले. काही चांगल्या इंग्रजांनी सुद्धा त्यांना मदत केली. अशा चांगल्या लोकांच्या मदतीने पुढे फुले दांपत्याने मुलींसाठी आणि दलित मुलांसाठी अनेक शाळा सुरू केल्या.
त्या काळी लहानपणी लग्ने होत. तसेच स्त्री आणि पुरुषाच्या लग्नाच्या वयात अंतर पण फार असे. अगदी लहान मुलींचे म्हाताऱ्या वरासोबत लग्न होई. वैद्यकिय सुविधा अभावी मृत्युदर प्रचंड होता. बायको मेली तर बाप्या लगेच पुढील लग्न करून मोकळा व्हायचा. पण नवरा मेला तर विधवेला पुर्णविवाह करण्याची परवानगी नसे. तिच्या शारीरिक गरजांशी कुणाला काही देणे घेणे नसे. पण प्रजातीच्या संवर्धनासाठी प्रकृतीने शारीरिक गरज हा निसर्गधर्म निर्माण केला आहे. जसे शरीर संवर्धन करणारे अन्न वा पाणी टाळल्यास व्याकुळता येते तसाच हा निसर्गधर्म टाळल्यास मनुष्य अगतिक आणि व्याकुळ होतो. त्यातून काही तरुण विधवांचे घरातील जवळच्या नातेवाईकांशी वा शेजारीपाजारील पुरुषांशी शरीरसंबंध येई. बऱ्याचदा घरातील जवळच्या लोकांकडून त्यांच्यावर जबरदस्ती सुद्धा केली जाई. असे जबरदस्तीचे प्रकार आजच्या समाजात सुद्धा सर्रास घडतात. त्या काळी गर्भनिरोधनाच्या कुठल्याही पद्धती उपलब्ध नसल्याने त्या बिचाऱ्या तरुण मुली गर्भवती होत. त्या काळी गर्भपाताची सुद्धा सोय नव्हती. काही दिवसांनी ती गर्भार असल्याचे समोर येई. मग जननिंदेच्या भितीने घरातील लोक तिलाच दोषी ठरवून तिच्यासोबत असलेले सर्व नाते संपवून टाकत. तिला घराबाहेर काढण्यात येई. अशा निराधार स्त्रीयांचे समाजात आणखी शोषण होई. तात्कालिक समाजात हे अतिशय विदारक चित्र अनेकदा पहायला मिळे. चांगल्या घरातील मुली रस्त्यावर येत आणि समाजातील कोल्हे-कुत्रे त्यांचे लचके तोडत. अशा बहुतेत स्त्रीया बाळ जन्मल्यावर त्याला टाकून देत. आई अभावी अशी मुले जगत नसत. सर्व जातीतील विधवा स्त्रियांचे असे हाल चालले होते. पण या समस्येवर कुणी बोलायला सुद्धा धजत नव्हते. जोतीरावांनी सर्वप्रथम याविरुद्ध आवाज उठवला. परिस्थितीने अगतिक झालेल्या अशा निराधार मुलींचे लचके तोडण्यासाठी टपून बसलेल्या कोल्ह्या-कुत्र्यां पासून त्यांचे रक्षण करण्याचा निर्णय फुले दांपत्याने घेतला. अशा स्त्रियांना होणाऱ्या बाळांना आधार दयायचे ठरवले. त्यांच्यासाठी फुले दांपत्याने 1863 मध्ये एक होस्टेल सुरू केले. ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ असे त्याचे नाव ठेवले. आपले बाळ रस्त्यावर टिकणे बालहत्याच आहे असा त्याचा अर्थ होता. त्यामुळे गर्भार स्त्रियांवर आपले बाळ रस्त्यावर न टाकण्याचे नैतिक दडपण निर्माण झाले. त्या या संस्थेत दाखल होऊ लागल्या. सावित्रीबाईंनी या निराधार मुलींचे रक्षण तर केलेच पण त्यांच्या डिलिव्हरी सुद्धा केल्या. बाळांना याच्या सानिध्यात ठेऊन या बाळांचे जीव वाचवले. यापैकी एका ब्राह्मण विधवा मुलीचा मुलगा त्यांनी दत्तक घेतला. त्याचे नाव त्यांनी यशवंत ठेवले. फुले दांपत्याच्या नावे हे एकमेव मूल आहे. हा यशवंत पुढे मोठा डॉक्टर झाला. जोतीराव आणि सावित्रीबाईंच्या कार्याचा वारसा पुढे मुलगा डॉ यशवंत आणि सून राधाबाईने चालवला.
जसे फुले दांपत्याचे वय आणि कार्य वाढत चालले तसे ज्योतिराव-सावित्रीबाईंना आपल्या कार्याचा वारसा पुढे चालवण्यासाठी पुढील फळी तयार करणे गरजेचे झाले. कार्य मोठे झाले तसे अनेक लोक त्यांच्या या कार्याशी जोडले गेले. ज्योतिराव-सावित्रीबाईंच्या क्रांतिकारी विचारांचा वारसा सांगणारी तरुणांची फळी निर्माण झाली. 1873 साली फुलेंनी तरुणांच्या या फळीला सत्यशोधक समाज असे नाव दिले. या दुसऱ्या फळीत 316 सदस्य तयार झाले होते. या संस्थेचे मुख्य उद्दिष्ट समाजातील विषमता दूर करणे, सर्वांना समान अधिकार मिळवून देणे आणि अंधश्रद्धा दूर करणे हे होते. दुसऱ्या फळीत 316 सदस्यांनी पश्चिम महाराष्ट्रात गावोगावी जाऊन सत्यशोधक समाजाचे कार्य सुरू केले. दुसऱ्या फळीने ज्योतिरावांचे प्रबोधनाचे कार्य खेड्यापाड्यापर्यंत नेऊन पोहचवले.
स्त्री शिक्षण, जातीभेद निवारण, अस्पृश्यता निवारण, दलितांसाठी पाणी पुरवठा, विधवा पुनर्विवाह, कुमारी गर्भवती आणि गर्भवती विधवांसाठी हॉस्टेल, अन्य जातीच्या मुलांना दत्तक घेणे, सत्यशोधक समाजाची स्थापना अशा क्रांतिकारी बदलांचा त्या काळात समाज विचारसुद्धा करू शकत नव्हता. मात्र अशा काळात समाजाचा सर्व प्रकारचा विरोध पत्करून जोतीराव आणि सावित्रीबाईंनी हे दिव्य केली.
एका मनुष्याच्या कार्याने त्याच्या आयुष्यात संपूर्ण समाजाला बदलण्याइतके किंवा समाजात दृष्य परिणाम समोर येण्या इतके मोठे बदल घडणे अवघड असते. ‘या जन्मात असा चांगला बदल घडणे शक्य नाही’ हा विचार मनात आल्यास बहुतेक जाणते लोक हातोत्साही होऊन निष्क्रीय होतात. बहुतेक लोक सुरुवात सुद्धा करत नाहीत. काही लोकांनी सुरुवात केली तरी इच्छित बदल लवकर न दिसल्याने त्यांचा उत्साह मावळतो. मग ते कार्य मध्येच बंद पडते. क्रांतिकारी बदल करण्याची सर्वप्रथम सुरुवात करणाऱ्यांवर समाजातील काही घटकांकडून सर्वात मोठा आघात होतो. तो सहन करण्याची ताकद भल्याभल्यांमध्ये नसते. सामाजिक अधःपतन झाल्याने नुकत्याच गुलामगिरीत पडलेल्या भारतात कुणीतरी कुठेतरी सुरुवात करून समाजसुधारकांच्या पुढील पिढ्यांसाठी प्रेरणास्रोत होणे गरजेचे होते. आपल्या नावाला जगात ज्योतीरावांनी क्रांतीची ज्योती पेटवण्याचे हे महत्वाचे काम केले. त्यांनी ही ज्योत नुसती पेटवली नाही, तर आयुष्यभर समाजाचे आघात सहन करत तिला तेवत ठेवली. याच ज्योतीच्या उजेडात भारतातील समाजसुधारकांच्या पुढील पिढ्यांनी आपले मार्गक्रमण केले. हळूहळू समाज सुशिक्षित होऊ लागला. या *विद्ये* मुळे समाजात योग्य निर्णय क्षमता म्हणजे *मती* आली. गटातटात विभागलेल्या समाजाने संघटीत होऊन गुलामगिरी विरुद्ध आंदोलन करण्याची *नीती* स्विकारली. भारतात अहिंसक आणि क्रांतिकारी असे दोन्ही आंदोलन उभे राहिली. सुशिक्षित लोकांच्या पाठींब्याने या आंदोलनाला खरी *गती* मिळाली. त्यातून शेवटी 1947 साली भारत स्वतंत्र झाला. जनतेच्या शिक्षणामुळे अर्थव्यवस्थेला *गती* मिळून भारताकडे आता पुन्हा *वित्त* जमा होते आहे. त्यामुळे अनेक वर्षे गुलामगिरी आणि शोषण सहन करूनही केवळ 70-80 वर्षात आज भारत पुन्हा आर्थिक महासत्तेच्या आणि विश्वगुरु होण्याच्या दिशेने समर्थपणे वाटचाल करतो आहे.
राष्ट्राची कोसळली इमारत पुन्हा उभी करण्यासाठी पायाभरणी करणाऱ्या या क्रांतिसूर्याची काल जयंती होती!
रस्ते, अनेक असतात वाट वळणाचे वाकडे तिकडे सरळ दिशाभूल करणारे आपल्या नशिबी कोणता आहे, हे माहित नाही म्हणून गप्प बसायचे नसते, वाट जरी लहान असली तरी ती मुख्य रस्त्याला मिळणार आहे हे ध्यानी ठेवायचे असते…
पाहिजे ती दिशा दाखवणारेही भेटतात, नाही असे नाही, चांगुलपणा पार संपला असे मानण्याचेही कारण नाही, आमच्या पिढीत अशी चांगला रस्ता दाखवणारी महान माणसे होती, म्हणून मूठ मूठ धान्य जमवून वसतीगृहे काढून, घरादारावर तुळशीपत्र ठेवून कर्वे, व कर्मविरांसारख्यांनी अनेक रस्ते दाखवून उपकृत केले व साने गुरूजींसारखे महात्मे शिकून देशासाठी समर्पित झाले.
राजर्षी शाहू महाराजांनी सर्वधर्मियांसाठी वसतीगृहे स्थापन करून कागल सारख्या छोट्या रस्त्यावरून डॅा. आनंद यादव पुण्याच्या रस्त्याला लागून माय मराठीची सेवा करण्यासाठी पुणे येथे डीन झाले, अन्यथा रोज भाकरीची भ्रांत असणाऱ्या अशा कुटुंबातील किती मुले रस्ता चुकून त्यांचे काय झाले असते याची कल्पनाही करवत नाही.
म्हणून रस्ते लहान असले तरी त्यांना जोडणारे हमरस्ते असतात हे लक्षात घेऊन आपण चालत रहायचे असते म्हणजे आपण बरोबर इच्छित स्थळी पोहोचतो. ध्येय आणि निष्ठा मात्र प्रामाणिक हवी. वाट कितीही लहान असली तरी ती वाट असते सतत पुढे पुढे जाणारी व आपली ताकद संपली की चालणाऱ्याला महान रस्त्यावर सोडून महान बनवणारी त्या अर्थाने वाटही महानच असते ना?
ती सांगते, जा बाबांनो पुढे, माझे काम संपले, मी पुढचा मार्ग दाखवला आहे, तो थेट शिखरावर जातो, तुमच्या पायात मात्र बळ हवे, ते वापरा व इच्छित स्थळी पोहोचा. सारेच महान, लहान वाटेवरून चालतच महान झाले हे आपण विसरता कामा नये. आंबेडकरही आंबेवडीहून चालत(कोणी बैलगाडीत बसवेना)थेट संसदेत पोहोचत संविधान कर्ते झाले, “ आचंद्रसूर्य” तळपण्यासाठी. म्हणून आधी त्या वाटेला वंदन करा ज्यामुळे तुम्ही हमरस्त्याला येऊन मिळालात. रस्ते उपलब्ध असले तरी ते कसे वापरायचे याचे ज्ञान हवे नाहीतर सारीच गणिते फसतात. दिशाभूल करणाऱ्या पाट्या व चकवे ज्यांना ओळखता आले ते थेट मुक्कामी पोहोचतात बाकी मग आयुष्याची संध्याकाळ झाली तरी चाचपडत वेड्यामुलासारखे गोल गोल त्याच रस्त्यावर फिरत राहतात. रस्ते असले तरी अंगभूत शहाणपणा हवाच ना? तो नसेल तर शंभर रस्ते असले काय नि नसले काय? तुम्ही पुढे जाऊच शकत नाही. रस्ते दिशादर्शक व शहाण्या मुलासारखे असतात. विना तक्रार घेऊन जातात, काटेकुटे वादळवाऱ्याची पर्वा न करता न थांबता…
कारण.. ” रस्ता कधीही थांबत नसतो, क्षितिजा पर्यंत”…
☆ “अजून पहाट उगवायचीय….” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर☆
उगवतीला तांबड नुकतंच फुटू लागलं. कावळ्यांची काव काव, पक्ष्यांची किलबिल सुरू झाली. आणि आणि तेव्हढ्यात राजा कोंबडयानं एक खर्जातली धारदार बांग दिली. मग त्या वाडीवरच्या इतर कोंबडयांनी आपला सुरात सूर मिसळला. उषाचं कोवळं उन अंधाराच्या दुलईला गुंडाळून ठेवून लागलं. घराघरांतून चुली फुलू लागल्या. जागी झालेली वाडी हळूहळू आपल्या नेहमीच्या कामाला लागली.
चंद्राक्काला आज श्वास घ्यायलासुद्धा उसंत मिळणार नव्हती. आज तिच्या लेकीची सुंदरीची सुपारी फुटायची होती… सुंदरीनं नशीब काढलं तिला तहसीलदार नवरा मिळाला होता नि चंद्राक्काला स्वर्ग दोन बोटं उरला होता… घरची माणसं, पै पाव्हणं जमू लागली होती. संध्याकाळी चारच्या सुमारास तिकडची मंडळी येणार आहेत असा सांगावा आला होता. सकाळपासून चंद्राक्काचं घड्याळ आज जरा जोरातच पळत होतं… तयारी सुरु झाली आणि बघता बघता अर्धा दिवस संपला; तरी चंद्राक्काची लगबग चालूच होती.. संध्याकाळी पाव्हणं जेवुन जाणार; म्हणजे एक का दोन गोष्टी असणार होत्या.. गोडाधोडाचा स्वयंपाक त्यात जावयाला काय गोड आवडत असेल याचा अंदाज… डाव उजवं.. ताट कसं पंचपक्वानानं भरून गेलं पाहिजे यातच चंद्राक्का बुडून गेली.
दुपारचा सूर्य कलला… घरातल्या गणगोतांचा कलकलाट वाढत गेला. तशात पाव्हण मंडळीं खळयात उतरली. घरातल्या बायांनी जावयासाकट आलेल्या पाव्हण मंडळींचं औक्षण केले. पुरुष मंडळीं जावयासह सोप्याकडे निघाले. तेव्हढ्यात राजा कोंबडयानं आपला लाल तुरा असलेली मान उंचावून एक जोरदार बांग देत त्यांना सामोरा गेला. जणू काही तुमचं स्वागत करण्याची जबाबदारी माझ्यावर आहे अश्या थाटात तो डौलात चालत गेला.
पाव्हणं ते पाहून अचंबित झाली. जावयाचं लक्ष त्याच्यावर खिळून राहिले… कितीतरी जण वेगवेगळे बोलत होते. पण जावयाच्या मनात तो कोंबडा मात्र घर करून राहिला. शिष्टाचार झाला आणि कार्यक्रम सुरु झाला. काय द्यायचं, काय घ्यायचं. मानपान विषय रंगु लागला. तेव्हा जावई मधेच म्हणाला,
“ फक्त नारळ नि मुलगी एव्हढंच दया! आणि आजच्या जेवणाला तो कोंबडा घाला!” आपल्या बापाकडं बघत जावई पुढं म्हणाला,
“ मी काय म्हणतो आबा हे इतकचं असुद्या. आता ठरलं म्हणजे ठरलं. जास्त वेळ न दवडता सुपारी फोडा नि कधी आणायचा लग्नाचा घोडा ती तारीख ठरवा”.
जावयाचं हे बोलणं पाव्हण्या मंडळींनी उचलून धरले. पण ते ऐकून चंद्राक्काला धक्काच बसला.. देणं घेणं नाही, मानपान नाही, किती किती सालस माणसं म्हणावीत तरी. पण रितीप्रमाणं गोडधोड जेवण असतयं ते सोडून कोंबडं कापायला सांगितलं म्हणून खट्टू झाली. तसं तिनं एकदा आडून सांगून पाहिलं पण जावयाच्या पुढं पाव्हणं मंडळींचं काहीच चाललं नाही.
तशी चंद्राक्का म्हणाली,
“अवो एक का मस घरात धा कोंबड्या आहेत! करूया कि चमचमीत तुमच्या पसंती प्रमाणं मग तर झालं!”
“धा कोंबड्या राहू द्या बाजूला, तो समोर आलेला कोंबड्याचंचं झणझणीत जेवण होऊ द्या” अशी जावयानं पुष्टी दिली.
“करूया कि! त्या कोंबड्या परास आणखी बाजरीचं दुसरं कोंबडं असं करून घालते कि तुम्ही सगळी बोटं चाटत राहशिला!”चंद्राक्का म्हणाली…
“हे बघा मामी आम्हाला तोच कोंबडा हवाय. दुसरं घालणार असाल तर सुपारी फुटायची नाही. तेव्हा काय ते आताच सांगा.. नसलं जमत तर आम्ही माघारी निघतो”जावयानं निकराचं बोलणं केलं.
चंद्राक्काचे सगळे मार्गच बंद झाले.. एक-दोन जणांनी मध्यस्तीचा प्रस्ताव बुजुर्ग मंडळींपुढे ठेवून पाहिला, पण तोड निघण्याऐवजी तुटण्याची पाळी आली. नाईलाज झाला आणि तोच कोंबडा घालण्याशिवाय पर्याय उरला नाही…
मग घरातल्या मंडळींनी लेकीच्या भल्यासाठी राजा कोंबडा कुरबान केला तर बिघडलं कुठे असं चंद्राक्काला समजवून सांगू लागले.
चंद्राक्का बिचारी दुःखी कष्टी झाली. तिच्या उरात कालवाकालव सुरू झाली… एकिकडे मुलीच्या लग्नाची सुपारी आणि ती फुटण्यासाठी घरच्याच जीवापाड प्रेमानं जतन केलेल्या कोंबडयाची कुरबानी. हे दु:ख तिच्या एकटीचंच असल्यामुळे इतरांना तिच्या भावना कळल्या नाहीत.
अखेर हो ना करता करता शेवटी तो निर्णय झाला आणि त्या कोंबड्याला धरून आणलं. आपल्या कशासाठी आणलय गेलंय हे त्या मुक्या प्राण्याला समजलं..
राजा कोंबड्याला धरून सोप्यातून परसात जाताना एकवार सगळ्या मंडळीकडे त्याने पाहताना चंद्राक्काची दयाद्र नजरेला त्याची नजर भिडली आणि शेवटचा सलाम करावा तसा त्याने एकदाच कॉक कॉक केलं…
आणि पुढे मानेवरून सुरी फिरवून घेतली. क्षण दोन क्षणाची तडफड मानेची आणि धडाची झाली. चंद्राक्काला वाटलं ती सूरी आपल्याच मांनेवरून फिरली गेलीय. तिच्या डोळ्यातूनं टचकन अश्रू ओघळले…
रात्री आठच्या सुमारास स्वयंपाक तयार झाला. अष्टमीचा चंद्र वर आकाशात लुकलुकणार्या चांदण्यासाह प्रकाशू लागला. पण आजा त्याचही तेज निष्तेज वाटत होतं. चांदण्यांच्या प्रकाशात खळयात ताटावर ताट फिरतं होते. हसणे खिदळण्याच्या दंग्यात कोंबड ओरपून खाणं चालल होत… त्यानं जेवणाची लज्जत वाढली होती. चंद्राक्का जरा दुरूनच ते पाहात होती. वरवर हासू दाखवत होती आणि आतून आपलंच काळीज शिजवून घातलं आहे या दुखात ती बुडाली होती…
रात्री उशिरापर्यंत जेवणावळ चालली आणि मध्यरात्रीच्या सुमारास जावई आणि पाव्हण मंडळीं निरोप घेऊन गेली. घरातले इतर नातेवाईक जेवून झोपी गेले. एकटी चंद्राक्का त्या रात्री जेवली नाही आणि चांदण्यांच्या प्रकाशात मुक्यान आपले अश्रु वाहू देत राहिली.
तोच तिच्या कानाशी कुणी बोलले,
‘चंद्राक्का नको रडूस! तसं माझं आयुष्य राहिलं होतं किती? अंग कुणी तरी मानेवर कधीतरी सुरी फिरवून मारण्यापेक्षा घरच्या माणसांच्या कामाला आलो यातच माझं सोनं झालयं! किती जिवापाड जपलंस मला आजवर.. मागे दोन-चार वेळा चोरांनी पकडून नेला होता पण माझ्या ओरडण्याने तू मला सोडवून आणलंस. राजाचा दिमाख तूच मला दिलास!’
चंद्राक्काला हुंदका आवरेना ती म्हणाली,
“असं होईल कधी वाटलं नव्हतं बघ!. तू दुपारी दिमाखात त्यांना स्वागतासाठी गेलास काय आणि त्याच रात्री त्यांच्या जेवणासाठी तुझी कुरबानी व्हावी काय? हि विपरीत लिला का दिसावी?”
‘आपल्या सुंदरीच्या लग्नाला माझाही हातभार लागायला हवा होता ना. मग तो असा आला त्यात काय बिघडल’ राजा कोंबड्यान समजूत घातली.
ती रात्र उसासे टाकत विलय पावत गेली. पहाटेचं तांबड फुटू लागलं. आज कितीतरी दिवसात ते नेहमी पेक्षा अधिकच लाल गडद दिसतं होतं. कावळ्यांची काव काव, पक्ष्यांची किलबिल सुरू झाली. आणि आणि…
चंद्राक्काचे जागराणाने डोळे जडावले होते तिला वाटतं होतं कि… राजाची बांग झाल्याशिवाय पहाट काही व्हायची नाही….
काल मला भारतातून एका मैत्रिणीचा फोन आला होता. “अगं, माझा मुलगा MS करायला अमेरिकेला येत आहे. न्यू जर्सीमधील एका कॉलेजमधे ॲडमिशन मिळाली आहे. तर कुठे रहावं हे जरा तू चौकशी करून सांगशील का?”
मी अमेरिकेत गेली पस्तीस वर्षे रहात आहे. पण मी न्यू जर्सीपासून तीन तासांच्या अंतरावर रहाते. त्यामुळे त्या भागातील माहिती मलाही गोळा करावी लागली. त्याच्या कॉलेजजवळील काही अपार्टमेंट कॅाम्प्लेक्सची लिस्ट केली. spotcrime या वेबसाईटवर जाऊन त्या भागात चोऱ्यामाऱ्या कितपत होत आहेत बघितले व एक चांगली जागा निवडून त्या अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्सच्या मॅनेजरबाईंना फोन केला..
“Are you looking for an apartment for a master’s student?” तिने विचारले. मी ‘हो’ म्हणून सांगितले.
“कुठल्या देशातून हा स्टुडंट इथे येत आहे?” तिने विचारताच मी ‘इंडिया’ असे उत्तर दिले..
“Boy का Girl?” हे तिने विचारलेले मला विचित्र वाटले.
“ओह! माझ्याकडे उत्तम जागा आहे. पण मी भारतातून येणाऱ्या बॉय स्टुंडटला माझी जागा देऊ शकत नाही. ” तिने शांतपणे सांगितले.
“का बरं? असा भेदभाव का? अतिशय चांगल्या कुटुंबातील व माझ्या माहितीतील मुलगा आहे हा!“ मला तिचं वाक्य अजिबात आवडलं नव्हतं.
“मॅम, प्लीज ऐकून घे.. भारतातून आलेल्या मुलांना कामाची अजिबात सवय नसते. ते खूप हुशार असतात. अगदी व्यवस्थित वागतात, polite असतात. पण जागा अजिबात स्वच्छ ठेवत नाहीत हा माझा अनेक वर्षांचा अनुभव आहे! भेदभाव करायला मलाही आवडत नाही. पण मुख्यत्वे भारतातील मुलगे बाथरूम साफ करणे, भांडी घासणे वगैरेमध्ये फार कमी पडतात. ” तिने शांतपणे सांगितले..
मला धक्का बसला. जसजसे मी इतर दोन-तीन अपार्टमेंट मॅनेजरांशी बोलले, तेव्हा त्यांनीही भारतीय मुलगे अभ्यासाव्यतिरिक्त घर साफ ठेवणे वगैरे कामे करत नाहीत, असे कळले. भारतीय मुली कामे करतात. त्यांना जागा द्यायला आम्हाला काही प्रॉब्लेम नाही असेही त्यांनी सांगितले.
मी एक दोन भारतीय स्टुडंटबरोबर याबद्दल बोलले.
“मी कधीच घरी असताना बाथरूम साफ केली नाही. कारण कामाला बाई होती.. माझी आई कायम म्हणे की, तू फक्त अभ्यास कर. बाकी काही करायची जरूर नाही. त्यामुळे मला सवय नाही. ” अशा प्रकारची उत्तरे मिळाली.
भारतातील अनेक घरात आई, हाताखालच्या बायका, नोकर माणसं ही कामं करतात. मुलींचा सासरी उध्दार व्हायला नको म्हणून मुलींना घरकाम कदाचित आजही शिकवले जात असेल, पण मुलांना साफसफाई, स्वयंपाक करायची वेळ भारतात असताना येत नाही असे मला वाटते. पण मी तिथे बरीच वर्षे राहत नसल्याने मला नक्की माहित नाही.
हा मुद्दा एवढा मोठा आहे का?, असे वाचकांना वाटेल. पण भारतातील प्रत्येकजण जेव्हा भारताबाहेर राहतो, तेव्हा तो भारताचे प्रतिनिधित्व करत असतो. ‘तुमच्या मुलांना जागा स्वच्छ ठेवता येत नाही’, हे वाक्य अमेरिकन माणसाने सांगितलेले, हा भारतीयांचा अपमान आहे असे मला वाटते.
बरेचदा पैसे वाचवण्यासाठी दोन-तीन स्टुडण्टस एक अपार्टमेंट शेअर करतात, तेव्हा आतील सर्व साफसफाई प्रत्येकाला करावी लागते. हे विद्यार्थी वेगवेगळ्या देशांचे असू शकतात.. दुर्दैवाने भारतीय मुलांना अशा कामाची सवय नसते. त्यामुळे त्यांच्यात भांडणं होऊ लागतात.
अभ्यासात उत्तम असणारा भारतीय विद्यार्थी जेव्हा बाथरूम साफ करू शकत नाही, तेव्हा भारताच्या प्रतिष्ठेचा प्रश्न येतो. आमच्या देशातील मुलांना बाकी सगळं जमतं, पण स्वच्छतेसारखी मूलभूत गोष्ट न यावी याचे काय कारण आहे? बाथरूम साफ ठेवणे, किचनमधील भांडी वेळच्या वेळी घासणे, प्लास्टिक, पेपरसारखा कोरडा कचरा आणि ओला कचरा सुटा करून गार्बेज पिक-अपच्या दिवशी घराबाहेर नेऊन ठेवणे ही कामे स्वतः करणे आणि व्यवस्थित करणे अत्यंत महत्वाचे आहे..
जी मुले बाहेरच्या देशात शिकायला जाणार आहेत, त्यांना त्यापूर्वी किमान सहा-आठ महिने वरील गोष्टींची सवय करावी. कारण they represent India when they live in another country.
लेखिका : सुश्री ज्योती रानडे
संग्राहिका : सुश्री स्नेहलता गाडगीळ
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈