हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 27 ☆ गीत – वाम से इतर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  की एक गीत  वाम से इतर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 27 ☆ 

☆ गीत – वाम से इतर ☆ 

आओ! कुछ काम करें

वाम से इतर

 

लोक से जुड़े रहें

न मीत दूर हों

हाजमोला खा न भूख

लिखें सू़र हों

रेहड़ीवाले से करें

मोलभाव औ’

बारबालाओं पे लुटा

रुपै क्रूर क्यों?

मेहनत पैगाम करें

नाम से इतर

सार्थक भू धाम करें

वाम से इतर

 

खेतों में नहीं; जिम में

पसीना बहा रहे

पनहा न पिएँ कोक-

फैंटा; घर में ला रहे

चाट ठेले हँस रहे

रोती है अँगीठी

खेतों को राजमार्ग

निगलते ही जा रहे

जलजीरा पान करें

जाम से इतर

पनघटों का नाम करें

वाम से इतर

 

शहर में न लाज बिके

किसी गाँव की

क्रूज से रोटी न छिने

किसी नाव की

झोपड़ी उजाड़ दे न

सेठ की हवस

हो सके हत्या न नीम

तले छाँव की

सत्य का सम्मान करें

दाम से इतर

छोड़ खास, आम वरें

वाम से इतर

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१४-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) 

शेरू का बलिदान

अब तक आपने पढ़ा कि – शेरू अचानक एक दिन मिला था, उसका मिलना मजबूरी भूख  संवेदना तथा प्रेम निवेदन की कथा बनकर रह गई।  वहीं दूसरे भाग में उस अबोध जानवर की कहानी पढ़ी जिसकी संवेदना को मानवीय संवेदनाओ से कहीं भी कमतर नहीं ‌आका जा सकता।  अब आगे पढें उसके त्याग व बलिदान की कथा जो किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख देगी। आज जब इंसान लोभ मोह तथा स्वार्थ के दलदल में जकड़ा पडा़ है, तब शेरू बाबा का बलिदान हमें अवश्य ही कुछ सोचने पंर मजबूर करता है। शेरू का निष्कपट प्रेम तथा बलिदान मानव समाज को झकझोरने के लिए प्रर्याप्त है। इस कथा को पढ़ते कहीं मुंशी प्रेमचंद की कथा कहानियों की याद आ जाये,  तो आश्चर्य नहीं। अब आगे पढ़ें ——-

समय धीरे धीरे अपनी मंथर गति से ‌चल रहा था। उसकी जवानी अपने पूरे उफान पर थी। ऐसे में वह अपनी बिरादरी के चार चार लोगों पर अकेला भारी‌ पड़ता। किसी की क्या मजाल जो पास भी फटक जाय। वह जिधर से निकलता शान से आगे बढ़ता चला जाता बेख़ौफ़ और बिरादरी के लोग गुर्राते ही रह जाते।

अब बरसात का मौसम आ गया था।

अचानक से एक दिन शेरू गंभीर रूप से बीमारी से जकड़ गया था।  उसे पतले दस्त आ रहे थे। मुंह से झाग भी निकल रहा था। इसके चलते वह कुछ भी खा पी नहीं पा रहा था। बस वह घर के अंधेरे कोने में पड़ा सूनी-सूनी आंखों से मेरी राहें तकता रहता। जब मुझे देख लेता तो वहीं पड़े पड़े धीरे-धीरे सिर उठा अपनी पूंछ हिलाता।

मेरे प्रति अपना प्रेम प्रकट करता, मैंने उसे पशू डाक्टर को दिखाया बहुत सारा इलाज चला।  लेकिन कोई आशातीत सफलता नहीं मिली। उसका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता चला जा रहा था। जिससे मेरा मन काफी विचलित था। आज उसने पानी भी नहीं पिया था। जब मैं पाही पर चला था तो शेरू  भी मेरे पीछे पीछे लड़खड़ाते कदमों से मेरे पीछे पीछे चला आया।

मैंने उसे अपने पीछे आने से उसे बहुत रोका लेकिन मेरे लाख प्रयासों के बाद भी वह नहीं माना और पीछे चलता हुआ आकर हर रोज की भांति दरवाजे पर बैठ गया। शायद उसे अपने जीवन के आखिरी पलों का आभास हो चला था।

वह बहुत उदास था पुरवा हवाएँ काफी तेज चल रही थी। कमरे के बीच टिमटिमाती लालटेन की पीली रोशनी के बीच मैं अपने बिस्तर पर अननमना सा लेटा हुआ था। रह-रह कर फड़कते अंग और दिल की अंजानी बेचैनी घबराहट किसी अनहोनी का संकेत दे रहे थे। जो सोने में बाधक बन रहे थे। लेकिन तेज पुरवा हवा के ‌झोंकों ने कुछ देर बाद नींद से बोझिल आंखों को सुला दिया था। शेरू अगल बगल की झाड़ियों के बीच हल्की सरसराहट सी सुनता‌ तो सतर्क‌ हो उठता तथा चौकन्ना हो भौंकने गुर्राने लगता, जिससे बार बार मेरी नींद में खलल पड़ता। मैं बार बार उसे चुप कराता लेकिन वह फिर भौंकना चालू कर देता। मैंने उसे गुस्से में डंडा फेंक मारा, हालांकि उसे चोटें नहीं लगी लेकिन फिर भी मारे डर वह कूंकूं करता थोड़ी दूर भाग गया था और फिर वह तत्काल भौंकने लगा था। उसे आने वाले ‌संभावित खतरे का आभास हो चला था, जब कि मैं किसी भी खतरे से अनजान था। उसका बार बार भौंकना मुझे खल रहा था।

मेरी नींद बाधित हो रही थी। फिर भी मैं करवट बदल सोने का प्रयास कर रहा था। तभी एक भयानक काला कोबरा झाड़ियों से निकल मेरे ‌बिस्तर की तरफ बढ़ा था और उसे देखते ही शेरू के दिल में स्वामीभक्ति का‌ ज्वार उमड़ आया। अब शेरू और सांप के बीच धर्म युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अपनी-अपनी आन पे अड़े थे। जहां भूखा सांप ‌भोजन के लिए अंदर आने को आतुर था, वहीं शेरू अपना सब कुछ न्योछावर कर उसे बाहर रोकने पर आमादा था। इस महासंग्राम में जहां क्रोधित सर्प फुंफकार‌ भर‌‌ रहा‌ था, वहीं शेरू ‌अपनीं स्वामिभक्ति की‌‌ मौन साधना को पूर्ण रूपेण समर्पित था। पूरी ताकत से शेरू ने‌ सांप को भीतर आने से रोक‌ रखा था। सांप की फुफकार सुन मेरी नींद खुली थी और बाहरी दृश्य देख मैं घबरा उठा। पसीने से तर-बतर मेरा शरीर भी थर-थर कांप रहा था।  गला सूख गया जुबान तालू से जा चिपकी। भय के मारे मेरे गले से सिर्फ गों गों की फंसी फंसी आवाज निकल रही थी तथा मैं बदहवासी की हालत में अपने पांव जमीन पर  उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। ऐसे में मैं स्वास रोके शेरू और सांप का धर्मयुद्ध देखने के लिए विवश था। अगर कोई रास्ता होता तो न जाने मैं कब का भाग खड़ा होता। इस महासंग्राम में ना जाने कितने बार‌ उस सर्प ने शेरू को काटा होगा, लेकिन हर बार शेरू दूनी ताकत से सांप को अपने तीखे नाखूनों के प्रहार से विदीर्ण कर मौत के मुंह में सुला दिया तथा सांप के जहर से कुछ दूर जा अपनी मौत के गले मिल गया। मैं घबराहट में चेतना शून्य हो गया।

सबेरे मेरे मुंह पर पानी के छींटें मार बेहोशी से जगाया गया। सामने सांप की क्षत-विक्षत शरीर तथा कुछ दूरी पर शेरू का निर्जीव शरीर देख मेरे जेहन में रात की सारी घटना घूम गई।

उस दिन चार रोटियां तथा कटोरे भर दूध पिला शेरू की ठंड से प्राण रक्षा की थी, लेकिन आज शेरू जानवर होते हुए भी अपनी संवेदनशीलता के चलते अपनी जान देकर अपनी वफादारी का फर्ज निभा गया। उस समय जिसने भी शेरू की कर्म निष्ठा को देखा सुना सबकी नजरें तथा सिर शेरू के प्रति सम्मान में झुकती चली गई।

शेरू का इस तरह अचानक उस दुनियां से जाना मेरे लिए किसी सदमे से कम‌ नहीं था। मेरे भीतर बैठा एक संवेदनशील इंसान भीतर ही भीतर ‌टूट चुका था। उस समय मैं शेरू के साथ बिताए पलों की स्मृतियों तथा आंख में आंसू लिए उसे उसी बाग में दफना रहा था, जहां उसने कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे एक इतिहास रचा था। उसे दफन करते हुए मेरा मन अपनी कायरता पर आत्मग्लानि से भर उठा ‌था।

उसी स्थान पर कालांतर में कुछ स्थानिय लोगों ने एक मकबरा बनवा दिया था जिसके भीतर भित्तिचित्रों में शेरू बाबा की कर्मनिष्ठा की कहानी अंकित हो गई थी।

अब उस रास्ते से ‌आते जाते लोग शेरू बाबा की कर्म निष्ठा को प्रणाम करते हैं। न जाने कब व कैसे वह स्थान शेरू बाबा के मकबरे के रूप में चर्चित हो गया तथा यह किंवदंती प्रचलित हो गई कि शेरू बाबा हर आसंन्न संकट से सबकी प्राण रक्षा करते हैं। और आज लोग अपने तथा परिवार की हर संकट से रक्षा के लिए शेरू बाबा के मकबरे पर मन्नतें मांगा करते हैं और शेरू के त्याग बलिदान की कथा कहते सुनते नजर आते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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सूचना/Information ☆ निवेदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ निवेदन 

दीपावलीच्या प्रकाशपर्वाला अनुसरून काही लेख,कविता आमचेकडे यायला सुरुवात झाली आहे. या संबंधी सर्व लेखक लेखिकांना कळविण्यात येते की रविवार दि. 8/11/2020 पर्यंत येणार्या साहित्याचा विचार केला जाईल. त्यानंतर येणार्या दीपावली संबंधी साहित्याचा विचार करता येणार नाही,याची कृपया नोंद घ्यावी.

आभार 

सम्पादक मंडळ (मराठी) 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 94212254910

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “संधीप्रकाशात” ☆ स्व. बा. भ. बोरकर

स्व. बा. भ. बोरकर

दिनविशेष : आंनदयात्री कवी बा. भ. बोरकर – eNavakal

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ “संधीप्रकाशात” ☆ स्व. बा. भ. बोरकर ☆ 

(संधीप्रकाशात या कवितेचे रसग्रहण काव्यानंद मध्ये सौ अमृता देशपांडे यांनी केले आहे.)

संधीप्रकाशात अजुन जो सोने

तो माझी लोचने मिटो यावी

 

असावीस पास जसा स्वप्नभास

जीवी कासावीस झाल्याविना

तेव्हा सखे आण तुळशीचे पान

तुझ्याघरी वाण नाही त्याची

तूच ओढलेले त्या सवे दे पाणी

थोर ना त्याहुनि तीर्थ दुजे

रंभागर्भी वीज सुवर्णाची कांडी

तशी तुझी मांडी मज देई

वाळल्या ओठा दे निरोपाचे फूल

भुलीतली भूल शेवटली

जमल्या नेत्रांचे फिटू दे पारणे

सर्व संतर्पणे त्यात आली

 

कवी: बा. भ. बोरकर

या कवितेचे रसग्रहण काव्यानंद मध्ये दिले आहे. 

सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी, गोवा.

9822176170

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खोटी खोटी रुपे तुझी ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ खोटी खोटी रुपे तुझी ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

(मागे एकदा देशातील काही भोंदू रत्नांची नवे जाहीर झाली आणि मग आम्हालाही त्यांची अशी आरती करण्याचा मोह आवरला नाही.)

 

खोटी खोटी रुपे तुझी खोटे डेरे मठ सारे

कुठे कुठे ठोकू तुला, तुझे अघोरी कृत्य सारे ।।धृ।।

 

नीच गोष्टी ज्या ज्या काही, तिथे तुझा वास

तुझा आशीर्वाद देतो, गुंडांना निवास

चरा  चरा गंडविशी संग तुझा कशाला रे ।।

 

खरे रूप भोंदू बाबा कोणते कळेना

नको जामिनावरी तूच , तुरुंगी रहा ना

तुला अडकवाया घ्यावा, पिनल कोड कोणता रे ।।

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

मैफिल ग्रुप सदस्य

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मिलन ☆ सौ. मुग्धा कानिटकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ मिलन ☆ सौ. मुग्धा कानिटकर ☆ 

 

सरितेसी भेटावे अधीर निर्झराने

सागरी खळाळणे तिचे आतुरतेने

पवित्र संगम  असे  अवनीवरचे

या सम मिलन का न घडे आपुले?

 

पानोपानी सळसळे लहरींचे गाणे

लाटांमागून लाटांचे किनारी फेसाळणे

भेट ती आपुलकीने एकटेपण न उरले

या सम मिलन का न घडे आपुले?

 

सुंदर गोफ इंद्रधनुचे लेणे नभीचे

मोहक पूनवेचे जळी शोभे बिंब शशीचे

मिलन निसर्गाचे व्यर्थच  का ठरले

या सम मिलन  न घडे  जर आपुले?

 

© सौ. मुग्धा कानिटकर

सांगली

फोन 9403726078

23/10/2020

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रूखी ☆ सौ. स्मिता माहुलीकर

☆ जीवनरंग ☆ रूखी ☆ सौ. स्मिता माहुलीकर ☆ 

लघुकथा : रूखी

मी लग्न होऊन सासरघरी जेव्हा आले त्या वेळेस ती मला पहिल्यांदा भेटली, सावळा वर्ण,रेखीव नाक-डोळे आणि चुणचुणीत अंगकाठी अशी ती, ” भाभी, मैं रूखी. ”
असे म्हणत माझ्या समोर येऊन छानस हसली. रूखी, आमच्याकडे घरकामाला असलेली साधारण वीस एक वर्षाची राजस्थानी तरुणी. ” रूखी.. असले कसले नाव आहे तुझे! रूखी म्हणजे तर ओलावा नसलेली असा अर्थ होतो.” मी तिला म्हणाले. ” नाही खर तर माझं नाव रूखमणी (रुक्मिणी) असे आहे, मला पण रूखी म्हटलेले नाही आवडत पण माझी सासू मला आवर्जून ह्याच नावाने हाक मारते कारण मला काही मूलबाळ नाही आहे न… .हो, पण कोणी काही पण म्हणू दे. माझा नवरा शंकर मात्र मला रूखमणीच म्हणतो.” असे म्हणतांना नवर्‍यावरचे तीचे प्रेम तिच्या डोळ्यात दिसत होते. समवयस्क असल्याने कदाचित ती माझ्याशी मनमोकळेपणाने बोलायची. शंकरचे म्हणजे तिच्या नवर्‍याचे पण तिच्यावर खूप प्रेम आहे असे तिच्या बोलण्यातून जाणवायचे.
अशीच एके दिवशी कामं करायला आली तेव्हा जरा वैतागलेलीच होती। विचारल्यावर म्हणाली ” मला न शंकरचा रागच आला आहे आज. ऐकायलाच तयार नाही आहे माझं काही॰ मी त्याला दुसरी बायको आण असे सांगते आहे. ”

“ अग..पण असे तू  असताना दुसरं लग्न कसे शक्य आहे?” मीम्हणते.

” आमच्यात पंचायत बसते तिकडे आधीच्या बायकोचा होकार असला तर दूसरे लग्न करता येते.” ती म्हणते. मी निरुत्तर होते. ती बोलतच राहिली. “माझी लांबची बहिण आहे. आई-बाप कोणीच नाहीत तिला. दिसायला सुंदर आहे कोणीही तिच्या परिस्थितीचा गैरफायदा घेईल म्हणून मी विचार केला की शंकर सारख्या चांगल्या माणसाशी तीचे लग्न झाले तर बरेच होईल आणि आम्हाला पण तिच्यापासुन मूलं होतील. मी कसेही करून शंकरची समजूत घालेनच. ”

पंधरा दिवसांनी ती गावावरून आली बरोबर एक धप्प गोरी, सुमार नाकनक्षा असलेल्या तरुणीला घेऊन.

” भाभी, ही रूपा.. शंकरने हिच्याशी लग्न केले ..तुम्हाला भेटवायलाच इथे घेऊन आले. दोन दिवसानंतर गावी परत पाठवून देऊ.’

‘तुझ्या मनासारखे झाले न.. तू  खुश आहेस न, झालं तर मग..” मी दोघींना चोळी बांगड्यांचे पैसे देत म्हणाले.

चार- पाच महिन्या नंतर रुक्मिणी खुशीतच रूपाला दिवस गेल्याचे मला सांगू लागली. ” येथेच तिचे बाळंतपण करणार आहे, तिला जूळे होणार आहे असे डॉक्टर म्हणाले आहेत, म्हणून आम्ही घरच्यांनी असे ठरवले आहे की पहिले जन्माला येईल ते मूल रूपाचे आणि दूसरे माझे… म्हणजे मी पण आई होणार आहे..”

मी तिला साखर खाऊ घातली. ठराविक वेळी रुपाला दवाखान्यात नेले, तेव्हा रुक्मिणी पण तिच्या बरोबर गेली होती, मी दोन दिवसानंतर कामाला येईन असं म्हणून गेली. ती आज पंधरा दिवस झाले तरी तिचा काही पत्ता नाही..मला काळजी वाटायला लागली तशी मी एक दिवशी जवळच असलेल्या वस्तीत तिचे घर होते तिथे गेले. दारातच तिची सासू बसलेली होती. रुक्मिणी..रूखी आहे का असे विचारले. ” ती आता ईथे नाही रहात ” असे म्हणताच मी रूपा बद्दल, तिच्या मुलांबदल विचारू लागले, तशी रूपा आतून रागातच म्हणाली ” ती अपशकुनी आहे.. माझं बाळ किती गोंडस आहे आणि तिचं असलेल मूलं मेलेलच जन्माला आलं.  मला तिची भितीच वाटते माझ्या मुलाला पण खाऊन टाकेल ती म्हणून हाकलून दिले तिला. ” तेवढ्यात शंकर तिथे आला. ” शंकर ! तुझी रूखमणी कुठे आहे..” असे विचारल्यावर तो म्हणाला ” काहे की रूखमणी..वो तो रूखी.. है रूखी..” मी जेमतेम माझे अश्रू थोपवून तिथून परतले.

© सौ. स्मिता माहुलीकर

अहमदाबाद

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ माझ्या डायरीतले एक पान ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी 

सुश्री संगीता कुलकर्णी

☆ विविधा ☆ माझ्या डायरीतले एक पान ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

सकाळची वेळ…टि.व्ही वर लागलेली जुनी गाणी …बाहेर सुटलेला वारा

वादळाची चाहूल देणारा..पण मन मात्र बैचेन घुसमटलेले..मनात विचारांचे वादळ घोंघावत होते. मनातले विचारांचे हे वादळ काही शमत नव्हते. तेवढ्यात हवेच्या झोक्यानी एक पान माझ्या पायाशी येऊन पडले. ते मी उचलून हातात घेतले. अरे !! हे तर माझ्या डायरीतले एक पान….

मान उंचावून बघितले तर समोरच्या टेबलावरच्या माझ्या डायरीतली पाने वा-याने फडफडीत होती त्यातलेच हे एक पान निसटून माझ्या पायाशी येऊन पडले होते..

कळत-नकळत… त्यातल्या दोन ओळी नजरेत पडल्या…जणू काही देवानेच माझ्या मनातले हे वादळ शमवण्याकरता ते पान माझ्या पायाशी पाडले असावे असे मला मनोमन वाटले…

माझे मन जरा स्थिरावत असतानाच माझ्या मनाने पुन्हा अनपेक्षित असे वळण घेतले व नव्या वाटेची साद घातली….पण हे अनपेक्षित वळण मात्रं माझ्या आयुष्यात” ओंजळीतले सोनेरी क्षण” बनून आले. तेच मी आता तुमच्या समोर उलगडते….

प्रत्येक दिवस हा उगवत असतो तसा तो मावळतही असतो. क्षणोक्षणी आपले वय कमी न होता वाढतच जाते. कितीतरी माणसे जन्माला येतात व मृत्यूही पावतात. पण असे कितीतरी लोक आपल्या मृत्यूला हुलकावणी देऊन परत मागे फिरतात आपले उरलेले आयुष्य व्यतित करण्यासाठी…आयुष्य म्हणजे काय? आपला जन्म कशासाठी झाला आहे? आपण काय करतो?आपले जीवन खरचं काय आहे? असे प्रश्न मनात सतत येत होते पण त्याचे उत्तर काही सापडत नव्हते.याचा सतत विचार करता करता मला त्याचे उत्तर मिळाले..

आयुष्य म्हणजे ” जीवनातील सोनेरी क्षण ” हे ओंजळीत भरून जगण्यासाठी आहे. सुंदर, आनंदी, निरागस जीवन जगण्यासाठी आहेत. आपले जीवन काय आहे? हे ख-या अर्थाने समजून घेण्यासाठी आहेत. जीवन हा एक अनंत सुखाचा झरा आहे. या सुखाला झुल्यावर बसून आपण आनंदाने त्यावर बसून झुलण्यासाठी आहे. तसेच जीवनगीत गाण्यासाठीही आहेत…

प्रत्येकाच्या जीवनात सुख, दुःख, वेदना, नशीबाचा निर्णय, चुकीचा निर्णय, सत्यता अशा अनेक गोष्टी येतच असतात पण त्यातून आपण शहाणं होणं अत्यंत आवश्यक असतं.

स्वतःमध्ये भावतरंगाचे अनेक पैलू असतात ते आपण स्वतः उलगडून पाहिले पाहिजे. त्यांचा अभ्यास केला पाहिजे. तसचं योग्य तो विचार- विनिमय सुद्धा केला पाहिजे.

“जीवन ही एक उदात्त उर्जा आहे व ती ईश्वराने आपल्याला दिलेली एक अमूल्य अशी देणगी आहे.”  असे मला विचाराअंती पटले. ते मी माझ्या मनावर पूर्णपणे बिंबविले व स्वतःमध्ये लगेचच अमुलाग्र बदल घडवायला लागले..

बुद्धिमत्तेच्या जोरावर जगाला दिसेल असं आपलं कर्तृत्व सिद्ध केले पाहिजे. आपण आपल्याला योग्य माणूस म्हणून घडविले पाहिजे. एक चैतन्य मूर्तीही बनलं पाहिजे. दुस-यांना मदत करण्यासाठी सदैव तप्तर ही रहायला पाहिजे. हे सर्व करत असताना आपल्या वैयक्तिक कटकटींना तिलांजली दिली पाहिजे. हे मी सर्व लक्षात ठेवले.

माझ्याशिवाय यांच्यावर प्रेम करणारं दुसरं-तिसरं कुणीही नसून फक्त मीच त्यांची आहे. मला त्यांना भरभरून सुख आनंद समाधान द्यायचा आहे. त्यांच्या चेह-यावर निरागस हास्य फुलवायचे आहे. असा विचार मी माझ्या मनावर पूर्णपणे ठसवला व या कामाला मी लगेचच सुरूवातही केली.. “ओंजळीतले सोनेरी क्षण ” मला सुखद अनुभवता आले. मनाला अतिशय आनंद झाला. या सर्व गोष्टी करत असताना मी माझं मन मात्रं निःस्वार्थी ठेवलं. फळाची अपेक्षा न करता सदैव मदतीचा हात पुढे केला. सगळ्यांशी प्रेमाने वागले -बोलले ..

थोरामोठ्यांचा सन्मान केला. आपण ज्या समाजात राहतो त्या समाजाचे आपण काही देणे लागतो आपण ते त्यांना दिले पाहिजे हे लक्षात ठेऊन निःस्वार्थी भावनेने समाजकार्य केले. दुस-यांना आनंद कसा देता येईल याचा सुद्धा विचार केला..

खरचं किती साध्या सोप्या या गोष्टी आहेत. आपल्या जवळ असून सुद्धा आपल्याला त्या कळत नसतात. पण मला त्या कळल्या म्हणून मी देवाचे मनोमन आभार मानले..

खरोखरचं एका अनपेक्षित वळणाने माझं आख्खं आयुष्याचं बदलून टाकलं…चेह-यावर आपोआपच हसू तरळलं…

किती वेळ गेला कुणास ठाऊक ?  मी  तंद्रीतून बाहेर आले व मनातल्या मनात खुदकन् हसत माझ्या कामाला लागले…

 

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

9870451020

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शशीबिंब उतरले धरेवरी ☆ सौ. उज्वला सहस्त्रबुद्धे

☆ विविधा ☆ शशीबिंब उतरले धरेवरी ☆ सौ. उज्वला सहस्त्रबुद्धे

शारदीय नवरात्रानंतर  येणारी ही शरद ऋतूतील पौर्णिमा ही सर्व पौर्णिमांचा जणू हिरेजडित मुकुट आहे! पावसाचे चार महिने संपल्यानंतर शरदाचे सुखद चांदणे आणि पूर्ण चंद्रासह ही पौर्णिमा येते तेव्हा सर्वांच्याच मनात नवचैतन्याचे वारे वाहू लागतात. पौर्णिमेचा चंद्र बघता बघताच मनातले की तसं तर प्रत्येक मराठी महिन्यात येणारी पौर्णिमा ही नवीन काहीतरी घेऊन येते आणि असा विचार मनात येताच माझे मन चैत्री पौर्णिमे कडे वळले.

चैत्र महिन्यात येणारी पौर्णिमा हा हनुमंताचा जन्मदिन आहे. बुद्धीमंत, शक्तिमान असा मारुती चैत्री पौर्णिमेला उगवत्या सूर्या बरोबरच जन्म घेतो आणि आपल्याला शक्तीची उपासना करण्यात प्रवृत्त करतो. चैत्रा नंतर वैशाखात सूर्याचे तापमान वाढू लागते आणि उन्हाचा चटका बसू लागतो. अशावेळी येणारी वैशाखी पौर्णिमा उत्तरेत पंजाब, दिल्ली या सारख्या भागात बैसाखी म्हणून साजरी होते. निसर्गात मिळणारी लिंबू ,कलिंगड, खरबूज यासारखी फळे व त्यांचे रस इथे मुबलक प्रमाणात वापरतात.

त्यानंतर येणारी ज्येष्ठ पौर्णिमा आपल्याला निसर्गाकडे नेते. पावसाची सुरुवात होऊन सृष्टी हिरवीगार होण्याचा हा काळ! या दिवशी स्त्रियांच्या वडपोर्णिमा व्रताचे नाते आपल्याला निसर्गाशी एकरूप होण्यास शिकवते !

आषाढी पौर्णिमा गुरुपौर्णिमा म्हणून साजरी केली जाते. आई ,गुरुजन, ग्रंथ असो वा निसर्ग आपल्या गुरुस्थानी असणाऱ्या प्रत्येका प्रती आपला कृतज्ञ भाव व्यक्त करणारी ही आषाढातील पौर्णिमा! कधीकधी चंद्राचे दर्शनही होत नाही या पौर्णिमेला! तरीही ही पौर्णिमा आपल्या मनाला एका वेगळ्या भावविश्वात घेऊन जाते.

श्रावणात येणार्या नारळी पौर्णिमेपासून पाऊस हळूहळू कमी होऊ लागतो. खवळलेला समुद्र शांत होऊन समुद्रावर कोळी लोकांना आपले व्यवहार करता यावे ,यासाठी समुद्राला नारळ अर्पण करून आपण आपली कृतज्ञता व्यक्त करतो!

भाद्रपदात येणारे गौरी गणपतीचे सण साजरे करून येणारी भाद्रपद पौर्णिमा ही पुढे महालया चे दिवस सुरु करते.आपल्या पूर्वजांचे स्मरण या काळात केले जाते.

या काळात पाऊस कमी होऊन पिके, भाजीपाला याची नवनिर्मिती दिसू लागते.

अश्विन महिन्यातील कोजागिरी पौर्णिमा ही सर्व पौर्णिमांचा मुकुट मणी वाटतो मला! पाऊस संपल्याने सारी सृष्टी हिरवेगार झालेली! दिवाळीसारखा सण तोंडावर आल्याने सगळीकडे उत्साह भरलेला! आकाश निरभ्र होऊन चांदण्यांनी भरलेले तर त्यांचा सखा चंद्र,त्याच्या   शांत, स्निग्ध प्रकाशाने सृष्टीला सौख्य देणारा! या दिवशी चंद्राला दुधाचा नैवेद्य दाखवून आपण जागरण करतो. या पौर्णिमेला नवान्न पौर्णिमा असेही म्हणतात. कारण नवीन भात आले असल्याने पौर्णिमेला खिरीचा नैवेद्य केला जातो.

कार्तिक पौर्णिमा म्हणजे त्रिपुरी पौर्णिमा! संध्याकाळच्या शांत वातावरणात त्रिपुर लावून त्याची शोभा पहाण्याचा आनंद वेगळाच! त्रिपुरासुराचा वध केला तो हा दिवस म्हणून त्रिपुरी पौर्णिमेचे महत्व!

आल्हाददायक वातावरणात येणारी मार्गशीर्ष  पौर्णिमा! या पौर्णिमेचा चंद्र आकाराने थोडा मोठाच वाटतो. हळूहळू दिवस मोठा होत जाणार आणि रात्र लहान याची जाणीव करून देणारा! सर्व सृष्टीचे तारणहार ब्रह्मा, विष्णू आणि महेश यांचा दत्तावतार मार्गशीर्ष पौर्णिमेला होतो.

माघी   पौर्णिमेचे  वैशिष्ट्य जाणवते ते माघ स्नानात! या काळात, तीर्थक्षेत्री नद्यांच्या काठी मोठे मोठे मेळे भरतात आणि लोक पवित्र नदी स्नानाचा आनंद घेतात!

अशा तऱ्हेने वर्ष संपत येते आणि फाल्गुन पौर्णिमा येते.  सर्व वाईट गोष्टींचे अग्नि समर्पण करून चांगल्याचा उदय व्हावा म्हणून होळी पेटवली जाते!

यानंतर आपण पुन्हा नवीन वर्षाचे स्वागत करायला सज्ज होतो.

हिंदू संस्कृतीत निसर्गातील पंचमहाभूतांचा संबंध आपण सणांशी जोडला आहे. पृथ्वी ,आप, तेज, वायु ,.आकाश या सर्वांशी निगडीत असे आपले सण वार आहेत. पौर्णिमा हे भरतीचे प्रतीक आहे.कोणताही आनंद हा पौर्णिमेच्या चंद्रासारखा भरभरून घेता आला पाहिजे! भरतीनंतर ओहोटी हा निसर्ग नियमच आहे. जसे पौर्णिमेनंतर पंधरा दिवसांनी येणारी अमावस्या! अमावस्या नंतर दुसऱ्याच दिवसापासून कलेकलेने चंद्रकला वाढताना आपल्याला दिसते. मनावर आलेली अमावस्येची काजळी दूर होत होत होत पौर्णिमे कडे वाटचाल चालू होते. आपलं जीवन हे असंच असतं!सुखदुःखाच्या चंद्रकला नी व्यापलेले! कधी दुःखाचे क्षण येतात पण त्यांची तीव्रता काळाबरोबर कमी कमी होत जाते आणि सुखाची पौर्णिमा दिसू लागते. पण कायमच पौर्णिमा राहिली तर तिचे काय महत्त्व! तसेच पूर्णत्व हेही कायमचे नसते!’ पूर्णत्वाच्या पलीकडे नष्टत्त्वाचे  उभे कडे’ अशी एक उक्ती आहे. त्याप्रमाणे सुखदुःखाची भरती ओहोटी आयुष्यात येत राहते. पुर्ण चंद्राचे या भरती ओहोटीशी कायमचे नाते असते. असा हा पूर्ण चंद्र प्रत्येक पौर्णिमेला आपण बघतो पण निसर्गाच्या अत्युत्तम अविष्काराचा दिवस कोजागिरी ला आपण पहातो.या दिवशी चंद्रप्रकाशात आटीव दुधाचा नैवेद्य दाखवून दुधाचा आस्वाद घ्यावा.आणि चांदणी रात्र आपण आनंदात घालवू या असाच विचार कोजागिरी पौर्णिमा निमित्ताने मनात आला!

© सौ. उज्वला सहस्त्रबुद्धे

मो.नं . 8087974168

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अन्नपूर्णा ☆ सौ. मेधा सहस्रबुद्धे

☆ विविधा ☆ अन्नपूर्णा ☆ सौ. मेधा सहस्रबुद्धे ☆ 

आज ललिता पंचमी! म्हणूनच मी तुम्हाला हळदी-कुंकवाला बोलावते आहे. आज मी तुम्हाला आमच्या अन्नपूर्णेची ओळख  करून देते. तशी तर अन्नपूर्णा सर्वांबरोबर माहेरुनच आलेली असते, पण ही अन्नपूर्णा थोडी वेगळी आहे. पण आधी मस्त चहा घ्या.

“काकू, चहा फक्कड झाला आहे”. हो ना? तोही ह्या आमच्या अन्नपूर्णेनच बनवलेला आहे. तर ह्या आमच्या कडील कर्मयोगी! सौ चंदा  दिघे. आमची अन्नपूर्णा.

तशी त्यांची जन्मभूमी पुणे आणि कर्मभूमी पण पुणेच ! लहानपणी आपल्या आई बरोबर कर्मयोगच करत होत्या पण त्याच बरोबर शाळेतही जात होत्या. पुढे लग्न झाले आणि सुखावल्या. दोन मुले एक मुलगी, सासूबाई सर्वच कष्ट करत. छान मजेत होते. त्यावेळी त्या ब्युरोत सेवा कर्म करत होत्या. मुलीचे लग्न झाले. एका मुलाचे लग्न झाले. सर्व काही ठीक ठाक चालेले होते. घरात एक चिमुकली नात आली. चंदाबाई सुखाने कष्ट करत होत्या पण संसाराकडे पाहून विसरत होत्या. असेच दिवस चालले होते.

आणि एक वादळ आले. वादळात सगळेच कोलमडले. त्यांचा मोठा मुलगा पोहायला गेला असताना बुडाला आणि पाठचा तो त्याला वाचवताना बुडाला. काय हाहाकार! एकाच वेळी काळाने दोन्ही मुले हिरावली. दोघेही पती पत्नी खचले. खोल निराशेत गेले. सगळीकडे नुसता अंधार. पण काहीच दिवसात बागडणाऱ्या चिमुकलीकडे त्यांचे लक्ष गेले. तरुण सुंदर विधवा सून दिसली. आणि त्या अन्नपूर्णेने पदर खोचला. “पुनःश्च हरी ओम” करत कामाला सुरुवात केली. त्याच वेळी आमच्या सोसायटीत पोहोचल्या. सुविचारी अश्या ह्या दुर्गेने अजून एक निर्णय घेतला. तरुण सुनेचा पुनर्विवाह लावून दिला. आणि नातीची जवाबदारी स्वीकारली. तिला मोठी केली, शिकवली आणि तिचे लग्न करून ती नीट पार पडली.

केवढे मोठे मन !! पण मनातली ही सर्व दुःखे एका गाठोड्यात घरीच ठेवून येतात. जसे मन तसे अन्न  बनते. त्यामुळे नेहमी प्रसन्न. इथे फक्त कामाचाच विचार. त्यामुळे सगळे सुग्रास आणि राहणीमान पण तसेच. एवढी कामे करतात पण नेसलेल्या साडीला दिवसभर सुरकुती पण नसते. नवरात्री मध्ये तर रोज त्या त्या रंगाच्या साड्या नेसतात. सगळे सणवार आठवणीने साजरे करतात. आम्हालाही उत्साह देतात. अजून एक मोठी गोष्ट म्हणजे स्मार्ट फोन त्या सहजपणे वापरतात. वॉट्सअँप , फेसबुक वर त्या छान सक्रिय आहेत.

आमच्या सर्वांकडे येताना, प्रत्येक सणावारानुसार त्या काहीतरी घेऊन येतात. यात्रेला गेल्या की एखादा फोटो घेऊन येतील. नागपंचमीला वैदेहीला बांगड्या, मेहंदी आणतील . दुःखात सुद्धा सुख शोधायला ह्या माउलींकडून मिळते. १३५ कोटी लोकांचे सुख सारखेच असेल, दुःख मात्र वेगवेगळी !! अशा माउली प्रत्येकीकडे आहेत, त्यांची उणीव आपण lockdown मध्ये अनुभवली आहे . तर चला आज मी तुमच्या सर्वांसमवेत त्या माऊलीची साडी, खणा-नारळाने ओटी भरते.

तुम्ही पण घरी जाऊन तुमच्या तुमच्या माऊलीची ओटी भरा!

या देवी सर्व भूतेषु क्षुधा रुपेण संस्थितः, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

 

© सौ. मेधा सहस्रबुद्धे

पुणे

मो  9420861468

[email protected]

 ≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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