(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है डॉ लालित्य ललित जी के व्यंग्य संग्रह “पांडेय जी सर्वव्यापी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 43 ☆
व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी सर्वव्यापी
व्यंग्यकार – डॉ लालित्य ललित
प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स
पृष्ठ १२०
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी सर्वव्यापी – व्यंग्यकार – डॉ लालित्य ललित ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
मुक्त कापी राइट एक्ट के वे युग पुराने प्रतीत हो रहे हैं जब कुछ दशको के बाद किताबें कापी राइट एक्ट से मुक्त हो जाती थीं. महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की मानस व अन्य साहित्य, ऐसे ही जाने कितने महान रचनाकारों सहित मुंशी प्रेमचंद जो स्वयं आजीवन अभावों में जीते रहे आज उनकी किताबें छाप छाप कर जाने कितने प्रकाशक धनाढ़्य हो रहे हैं.
इलेक्ट्रानिक संसाधनो और इंटरनेट के इस सुपर फास्ट युग में सामान्यतः प्रकाशक व लेखक दोनो ही किताबों की पीडीएफ प्रति सहजता से सुलभ करवाने में डरते हैं कि जो थोड़ी बहुत किताब बिकने की संभावना हो वह भी समाप्त न हो जावे. पर मैं मुक्त कंठ प्रशंसा करता हूं इस ग्रुप के सदस्य और स्वयं कवि व लेखक श्री संजीव कुमार जी की तथा श्री लालित्य जी जैसे हम लेखको का जिनके चलते हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है. यह इस व्हाट्सअप समूह की सफलता का अलिखित सोपान है.
हर सीमा के बंधन को लांघ सर्वव्यापक बनना वायु से, सर्वव्यापक बनना गन्ध से, सर्वव्यापक बनना ताप से, सर्व व्यापक बनना वैचारिक भाव से, सीखना ही चाहिये हम सब को. अदृश्य अणु का ब्रम्हांड सा विस्तार है पांडेय जी की सर्वव्यापकता. इस कृति के लेखक का मैत्रेय स्वभाव भी सर्वव्यापकता लिये हुये है. उन्होने पांडेय जी के कैरेक्टर की रचना की है.
अनेक जाने माने साहित्यकार हैं जिनके रचे बुने हुये केरेक्टर बड़े पाप्युलर हुये हैं. लहनासिंह चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा का था का अमर नायक बन चुका है. किसी न किसी स्वरूप में मिकी माउस के कार्टून पढ़े बिना शायद ही कोई बच्चा बड़ा होता है. प्रायः व्यंग्यकार किसी न किसी कल्पना चरित्र की रचना कर, उसके अवलंबन से अपनी बात सहजता से कह पाते हैं. इंस्पैक्टर मातादीन की रचना करते वक्त शायद ही परसाई जी ने सोचा रहा हो कि जाने कितने मंचो पर मातादीन चांद का सफर करेगा. एक सफल कथा नायक का चरित्र कथा को लेखक को तथा रचना को अमर बना देता है.
मैंने ललित जी के पाडेय जी से मुलाकात की है. यद्यपि लेख बहुत लम्बे हैं और मोबाईल या टैब पर पढ़ने की मेरी अपनी सीमायें हैं, पर जो एक तथ्य मैं इस केरेक्टर में ढ़ूंढ़ सका वह है पाडेय जी का साधारणीकरण. सचमुच पाण्डेय जी हम सब के आस पास बिखरे पड़े हैं. आस पास क्या हम सब में थोड़े बहुत पांडेय जी विद्यमान हैं. यही सरलीकरण उन्हें सर्व व्यापक बना रहा है. इतना अधिक लिख पाना कि १२० पृष्ठ केवल ग्यारह व्यंग्य से भर जायें ललित जी की खासियत है. किताब का मर्म समझने के लिये राजेशकुमार जी की विशद व्यापक विवेचना करती हुई भुमिका पढ़ लेना ही पर्याप्त है.
इस किताब के जरिये ललित जी ने बहुत नई शैली के साथ व्यंग्य जगत में जोरदार दस्तक दी है. एक साथ ही ये लेख व्यंग्य भी हैं, संस्मरण भी हैं, आत्मकथ्य भी हैं, कहानी भी हैं, व्यंग्य तो हैं ही. कविता भी समेटे हुये हैं. जो भी हैं पढ़ने लायक हैं, रोचक हैं चित्रमय वर्णन हैं. कभी पूरी किताब हार्ड कापी में पढ़ी तो फिर लिखूंगा और विस्तार से. फिलहाल यदि आप समकालीन व्यंग्य के संग चल रहे हैं तो आप सबको इसे अवश्य पढ़ने का आमंत्रण दे रहा हूं.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आज प्रस्तुत है वरिष्ठ मराठी साहित्यकार, ई-अभिव्यक्ति ( मराठी ) की सम्पादिका एवं हमारी मार्गदर्शक श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी का एक अप्रतिम ललित लेख “स्पर्श”. हम जीवन में ऐसे कई शब्दों से परिचित होते हैं। किन्तु, उन शब्दों की गहराई में जाने की चेष्टा कभी नहीं करते। एक छोटा सा शब्द “स्पर्श” किन्तु, उसका हमारे जीवन में कितना गहरा सम्बन्ध है , यह आप इस आलेख को पढ़ कर ही जान पाएंगे। ऐसे विचारणीय आलेख के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी का ह्रदय से आभार।)
☆ आलेख ☆ स्पर्श (ललित लेख) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
स्पर्श तरह तरह के… स्पर्श प्यारे… प्यारे… स्पर्श न्यारे…न्यारे … स्पर्श कोमल… वत्सल.. स्पर्श अधीर… उत्सुक… स्पर्श आक्रामक… उत्तेजक. स्पर्श स्निग्ध मलाई जैसे, स्पर्श नाजुक फूल की पंखुडी जैसे … स्पर्श कठोर, कडक ठूठ की खाल जैसे … स्पर्श आकर्षक मयूरपंख के पर जैसे… स्पर्श फिसलते… स्पर्श दबोचते… कंटीले स्पर्श, मुलायम स्पर्श… जानलेवा स्पर्श… संजीवक स्पर्श. कभी स्पर्श न होते हुए भी होने का आभास दिलाते है. कभी स्पर्श होते हुए भी न होने का अहसास दिलाते है.
माँ के गर्भाशय में भ्रूण अपने लिए जगह बनाता है. वहाँ वह पनपता है. विकसित होता है. उसका वहाँ हिलना, डुलना, हाथ-पांव चालाना, माँ के शरीर और अंतस को कितना सुख, कितना आनंद देता है! उसी स्पर्श से वह कितनी रोमांचित होती है! कभी कभी मन ही मन भयभीत भी होती है.
एक दिन वेदना के आग में झुलसते हुए माँ बच्चे को जन्म देती है. दोनों जीवों को बांधनेवाला बंधन टूटता है. एक जीव दूसरे को स्पर्श करते हुए बाहर आता है. अलग हो जाता है. अपने से ही बाहर आयी यह गठरी माँ अपने हृदय से लगाती है. उसे अपने गोद में सुलाती है. बच्चे का वह नरम-गरम स्पर्श माँ की सारी वेदनाओं को मिटा देता है. अपने सुकोमल होठों से स्तनपान करनेवाले बच्चे का स्पर्श माँ को स्वर्गसुख का आनंद दिलाता है.
अपनी माँ के स्निग्ध, स्नेहील स्पर्श का अनुभव करते हुए शिशु बढने लगता है. उस की टट्टी, पेशाब, उसे नहलांना-धुलाना, उस के कपडे बदलना, उसे खिलाना, सुलाना कितने ही काम …किंतु माँ के लिये ये काम, काम थोडे ही है? उस के लिये तो ये काम आनंद ही आनंद है. ममतामयी स्पर्श का माँ और बच्चा दोनों अनुभव करते है.
शिशु करवटे बदलने लगता है. घुटनों के बल पर आगे बढता है. बैठने लगता है. खडा होता है. ठुमक – ठुमक कर चलने लगता है, तो पाँव तले की जमीन उसे सम्हालती है. आत्मविश्वास देती है. अब आगे चलकर जिंदगी भर उस जमीन का साथ रहेगा, मांनो वह उस की दूसरी माँ हो.
जब माँ की उंगली पकड कर बच्चा, घर की देहरी लांघ कर आंगन में आता है, तब उस की आंखों के सामने एक नई दुनिया का नजारा प्रगट होता है. इस नई दुनिया को वह आपनी आंखों के स्पर्श से देखना, जानना, पहचानना चाहता है. माँ से पूछने लगता है, ये क्या है… वो क्या है…. इधर क्या है… उधर क्या है… कितने प्रश्न… अनगिनत प्रश्न…. बच्चा अब और बडा होता है. स्कूल जाने लगता है. शुरू में माँ को छोड कर स्कूल में बैठना उसे असुरक्षित, नामुमकिन–सा लगता है. उसे रोना आता है. बाद में आदत-सी हो जाती है. यहां हमउम्र अन्य बच्चो से दोस्ती होती है. स्कूल में, खेल के मैदान में, समवयस्क दोस्तों के साथ हाथ मिलाना, गले लगाना, धक्कामुक्की, हाथापाई कितने तरह के स्पर्श… तरह – तरह की भावना व्यक्त करनेवाले स्पर्श… प्यार, आत्मीयता, आधार, आश्वासन, नफरत, अवहेलना, शत्रुभाव…
भविष्य में जहां…तहां… ऐसे स्पर्श मिलते ही रहते है॰
बाल्यावस्था, किशोरावस्था की सीढियां चढते चढते अब व्यक्ति जवानी की सीढ़ी पर खड़ी होती है. शिक्षा-दीक्षा पूरी होने के बाद वाह नौकरी-व्यवसाय में जुट जाती है. घर में अब उस के विवाह को लेकर बातों का दौर चलने लगता है.
कुछ भाग्यवान ऐसे होते है, जो विवाह के पूर्वं ही प्यार की डोर में बंध जाते है. बाद में विवाह की रस्म पूरी की जाती है. बहुतेरे लोग विवाह वेदी पर ही ’एक दूजे के’ होने का वादा करते है. पंडित और अन्य लोगों के सामने वचनबद्ध होते है. पति-पत्नी का रिश्ता बाजे-गाजे के साथ जुड जाता है.
लोगों के सामने दोनों में सिर्फ नयनस्पर्श ही होता है. यह स्पर्श दोनों दिलों में मधु मधुर संवेदनाओं को जगाता है. एकांत में हस्तस्पर्श, देहस्पर्श का दौर शुरू होता है. शुरू शुरू में ये स्पर्श लजीले, सुकोमल नाजुक होते है. धीरे धीरे स्पर्श ढीठ हो जाते है. उत्कट, उन्मुक्त होते जाते है. मन कहता है, यह क्षण यहीं रुक जाय लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसा कुछ होता नहीं. देखते देखते दोनों नींद की आगोश में समा जाते है.
स्पर्श जीवन का अहं हिस्सा है किंतु एकमात्र नही. जीवन अपनी गति से बहता रहता है. समय आगे आगे निकलता है. बच्चों का जन्म होता है. बच्चे, पत्नी, माँ-बाप सभी के प्रति अपना दायित्व होता है. जिम्मेदारीयाँ निभानी पडती है. रोजमर्रा की जिंदगी में रोजी रोटी के जुगाड में नौकरी, उद्योग, व्यवसाय पर जाना अपरिहार्य होता है. वहां दिन भर निर्जीव वस्तुओं का ही स्पर्श. अलिप्त, भावहीन स्पर्श … जैसे कागज, फाईल्स, संगणक … दिन भर उन का ही साथ…. उनकी ही स्पर्शसंवेदना.
शाम को थके-मांदे घर लौटने के बाद, जब बच्चे दौडते दौडते पास आते है, गले लगते है, झप्पी देते लेते है, कंधे पकड कर उछल कूद करते है, तब इन का मधुर स्पर्श सारी थकान मिटा देता है. उन का यह स्पर्श नई संजीवनी प्रदान करता है. अधेड उम्र और वृद्धावस्था में यही सुख, यही आनंद पोते –पोतियों पर प्यार-दुलार लुटाने से प्राप्त होता है किंतु आज-कल के टूटते परिवार या एकल परिवार संस्कृति के कारण बहू – बेटे साथ रहते ही कहां है कि उन्हें उन के सहवास का सुख मिल जाय. स्पर्श तो दूर की बात! अगर साथ रहते भी हो, तो इस गतिमान युग में न तो बहू-बेटे- बेटियों को पास बैठकर दो बातें करने की फुरसत है न पोते-पोतियों को. सब कुछ होते हुए भी ये लोग अपने आत्मीय जनों के ममता भरे, प्यार भरे स्पर्श के लिए तरसते रहते है… तरसते ही रहते है…
(श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता अनुभूतियाँ …।)
☆ कविता ☆ अनुभूतियाँ … ☆
उसके सजदे में बुदबुदाती, दुआयें, करती, वो बूढ़ी,माँ,
किसी के थरथराते, होटों में दबे, दर्द के वो, लफ्ज़,
दिल से निकले तरानों की एक लहर,
बच्चे के मुँह में पड़ी, घुलती मिश्री की डली,
गांव की पगडंडियों, मेड़ो, पे पसरी धूप की, वो गमक,
किसान के चेहरे पे चमकती, वो पकी फसल,
किसी के लंबे इंतजार में, बेचैन सा, वो मन,
अर्से बाद, किसी के, बेटे की, वो घर वापसी,
किसी के खयाल में, झुकी हुई, वो पलकें,
पत्तों फूलों, पर पड़ी, मदहोश सी, शबनम,
किसी के पाँवों में छन छन, छनकती वो पायल,
आँगन में तुलसी के बिरवे पे जलता, वो दीपक,
माँ के आँचल में हुमकते, बच्चे की वो किलकारी,
रोटी के लिए बच्चे की, वो मासूम सी, सिसकारी,
बिनब्याही लड़कियों, की बढ़ती उम्र में बिखरते से सपने,
☆ जीवनरंग ☆ समर्पण (अनुवादीत कथा) – क्रमश: भाग 2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
काल स्टीव्हचा रिपोर्ट पॉझिटीव्ह आला आणि त्याला हॉस्पिटलमध्ये नेण्यात आलं. आज तो गेला. काही न बोलता त्याचं असं निघून जाणं मन स्वीकारत नव्हतं. वाटत होतं आता एवढ्यातच त्या कापडाच्या भिंतीपालीकडूनावाज येईल, ‘ हे रोझ, सगळं ठीक आहे नं? चल, फिरायला जाऊ.’
‘पाच मिनिटानंतर जाऊ या.’
त्या पाच मिनिटात ती आपले केस सारखे करेल. कोरड्या ओठांवरून चॉपस्टिक फिरवेल आणि चप्पल घालून त्याच्याबरोबर बाहेर पडेल. मग ते दोघे खाली व्हरांड्यापर्यंत जातील. हवा चांगली असेल, तर आणखी थोडे पुढे जातील. त्यानंतर त्याच्या गमतीदार गोष्टींना हसत ती पत्ते खेळत बेसल. नंतर ते पेपर वाचतील आणि मग पुन्हा आपआपल्या खोलीत बंदिवान होतील.
अशा तर्हेने का कुणी जग सोडून निघून जातं? रोझासाठी हे केवळ एकाकीपण नव्हतं. खूप काही कष्टदायक होतं. त्या बरोबरच पडद्याच्या त्या हलत्या भिंतींकडे पाहता पाहता वाटू लागलं होतं, उद्या कुणाचा नंबर असेल, कुणास ठाऊक? आणखी किती लोक हॉस्पिटलसाठी नाही, तर आपल्या अंतीम यात्रेसाठी इथून प्रस्थान करताहेत. तसंच झालं. दुसर्या दिवशी सकाळी जवळ जवळ सगळे लोक गेले तरी होते किंवा मग आपापले उरलेले श्वास मोजत होते.
कदाचित जीवनातला तो सगळ्या दु:खद दिवस असेल, त्या दिवशी आस-पासचे सगळे ओळखीचे चेहरे निघून गेले होते. रोझा ना खाऊ शकली होती, ना झोपू शकली होती. रात्र सरता सरत नव्हती. ती अंधारी होती, इतकी अंधारी की वाटत होतं आज सूर्य उगवणारच नाही. तिलाही जाणवायला लागलं होतं की शरीरात काही तरी गडबड आहे. श्वास घ्यायला त्रास होत आहे. अजब अशी बेचैनी वाटतेय. सगळ्या प्रकारचं सामाजिक दूरत्व असतानाही सूर्य उगवता उगवता कोरोनाची सगळी लक्षणं रोझामध्ये दिसू लागली होती. तिलाही हॉस्पिटलमध्ये पाठवलं गेलं. अनेक मित्रांच्या हास्याने भरलेलं ते नर्सिंग होम आता मृत्यूचा अड्डा बनलं होतं. ते पलंग, जे दिवस –रात्र मदतीसाठी याचना करत होते, ते आता मूक होते. एकावेळी पस्तीस जणांचा झालेला मृत्यू आता छ्तीत्तीस आकडा पूर्ण करण्याच्या प्रतिक्षेत होता.
या महामारीत हॉस्पिटलमध्ये जाणं आजार्याला अधीक आजारी बनवण्यासारखं होतं. ती जे बघू इच्छित नव्हती, तेच तिचे डोळे बघत होते. बाहेरच्या लॉबीत कुठे उलटी करण्याचा, कुठे थुंकण्याचा आवाज येत होता. चार-पाच तासांचा वेळ साईन-इन करण्यासाठी लागणार होता. कुणी भिंतींचा आधार घेऊन उभे होते. कुणी फरशीवरच झोपले होते. पलंगासाठी कॅरिडॉरमध्ये ही प्रतीक्षा होती. रूम रिकामी नव्हती. सगळ्या जागा, मग त्या डॉक्टरांच्या बसण्याच्या असोत, वा नर्सेसच्या, रूग्णांच्या वॉर्डमध्ये बदलल्या होत्या.
संपत जाणार्या संसाधंनाबरोबरच हॉस्पिटलच्या प्रशासकांना एकाच वेळी अनेक मोर्चांवर लढताना, रूग्णांच्या क्रोधालाही निपटावं लागत होतं. रागाने एका रुग्णाने जवळून जाणार्या एका डॉक्टरचा मास्क हिसकावून घेत म्हंटलं , ‘आम्ही आजारी आहोत, तर तुम्हीही आजारी पडा. एकदमच मरू सगळे!’
मूळ लेखिका – सुश्री हंसा दीप
भावानुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर
176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈
मिरजेच्या पासून जवळ असलेल्या आरग या रेल्वे स्टेशन वर माझं लहानपण गेल. आसपास काहीच नव्हतं. पण मागच्या बाजूचा गाई-म्हशींचा गोठा त्यांची लहान पिल्ल कुत्री मांजर अशा प्राणिसंग्रहालयाच्या सहवासातच लहानपण गेल. शिक्षणानिमित्त मिरजेला आलो. प्राणिमात्रांची आवड फक्त मांजरावरच भागवावी लागली. मी अभ्यास करताना आमची सोनाली मांजरी माझा अभ्यास होईपर्यंत मांडीवर जागत बसायची. माझ्या यशाचा वाटा माझ्या या मुलीला दिल्याशिवाय रहात नसे.
लग्नानंतर आमची गावाबाहेर पोल्ट्री आणि त्याला लागून घर होत. टॉमी आणि बंड्या दोन कुत्र्यांच्या आधारावरच आम्ही रहात होतो म्हणा ना! ओसाड परिसर साप विंचू गोम मुंगूस बेडूक आणि चोर अस चित्र होत. एकदा रात्री अकरा वाजेपर्यंत कोणीच घरी आले नाही. लाईट गेले काय कराव सुचेना. अखेर माझ्या बाळाला घेऊन मी बाहेर टॉमी आणि बंड्या यांच्याजवळ येऊन बसले. 100% खात्रीचे अंगरक्षक. बाळाला नवख्या कोणी घेतले आणि तो रडायला लागला की दोघे बेचैन व्हायचे. “बाळ रडतोय लक्ष आहे की नाही” अस नजरेतून मला सांगायचे. सकाळच्या कोवळ्या उन्हात बाळाला मीत्यांच्याजव,ळ ठेवायची. काम होईपर्यंत जबाबदारपणे दोघे त्याला सांभाळायचे. टॉमी, मी साडी बदललेली दिसली की, “मी पण येणार” असं म्हणून मागं मागं यायचा. दोघांच्या भुंकण्यातून साप आहे की चोर आहे की त्याला काही हवंय, हे बरोबर समजायचं. आठ नऊ वर्ष या मुलांनीच आम्हाला सांभाळलं म्हणायला हवं. टॉमीला कॅन्सर झाला. ऑपरेशन झाले. निमूटपणे तोंड वर करुन औषध घ्यायचा. दिवाळीचा सण साजरा झाला. दिवाळीचा लाडू थोडासा खाल्लान आणि दुसरे दिवशी स्वर्गवासी झाला. बंड्या ही किरकोळ दुखण्याने गेला. दोन मुलांची उणिव सतत भासू लागली. लवकरच आपण होऊन छानशी गोंडस कुत्री पिंकी आपण होऊन आली. आणि आमचीच झाली. पहिल्या वेळेला दहा पिल्ले झाली. तिला कोणीतरी पळवून नेल.तीन आठवड्यानी पोट खपाटीला गेलेलं, अंगावर गोमाशा भरलेल्या अशा अवस्थेत परत आली. सगळ्यांनाच खूप आनंद झाला. प्रथम पिलानी आईला ओळख ले नाही. नंतर मात्र आनंदाने नाचायला लागली. कोरडीच आचळ ओढायला लागली. नाईलाजाने एक पिल्लू ठेवून घेतलं. टोनी. दिसायला पिवळाबारीक, गोरा रंग ,उंच, कायम ताठ बसणारा असा टोनी नौ वर्षे साथ दिलीन त्यानं. त्याला फिरायला मीच न्यावं असा त्याचा हट्ट असायचा. “तूच चल” अस म्हणून माझ्या मागे लागायचा. मुलांबरोबर चेंडू खेळायचा. एकदा मुलांच्या मागे लागून शाळेत ही गेला. शेवटी त्याला घेऊन मुलं परत आली. किती अनुभव सांगावे तितके कमीच. चिमा मांजरी पिलांना शिकार शिकवण्यासाठी काहीना काही घेऊन यायची. एक दा तर जिवंत साप घेऊन आली. पिलांसाठी उंदीर पाली किडे सगळ्यांचा फडशा पाडायची. मागे बांधलेली जयू नावाची गाय ही एक मुलगी. तीच शिंगाचा ऑपरेशन झालं होतं. डॉक्टरांनी सांगितले की तिच्या जखमेवर रोज औषध घालायला हव ती माझ्याशिवाय कोणालाच घालून देत नव्हती. आपल्या सूक्ष्मातल्या भावभावना ही तिला कळत असाव्यात याची खात्री झाली. या सगळ्या मनाच्या नात्याच्या मुला-मुलींनी अनेक संकटांपासून चोर, विंचू, साप, यापासून वाचवलंयआम्हाला. आता आमच्याकडे चिंगी आणि गोल्डी ही श्वान जोडी काळूराम सुंदरी आणि टिल्ली हे मार्जार त्रिकूट मस्त मजेत राहून आम्हालाही खूप आनंद देतात. या मुलांशी मी गप्पा मारत असते. म्हणजे आपण त्यांच्याशी बोलायचं ,प्रश्न विचारायचे, आणि उत्तरही आपणच द्यायचं. बाहेरून घरी आलो की पहिलं स्वागत तेच करतात किती आनंद वाटतो ना! ही सगळी आमची मुलं आणि आम्ही त्यांचे आई वडील अस नातं आहे म्हणाना. रस्त्यात जखमी झालेल्या प्राण्यांनाही “राहत “,पीपल फॉर अनिमलच्या” मदतीने उपचार करतो. निपचित पडलेल्या बैलाच्या पोटाचे ऑपरेशन झाले. आणि चार बादल्या प्लास्टिक पिशव्या काढल्या. पिशव्यातून खरकटे टाकणाऱ्यांना काय सांगावे?बऱ्या झालेल्या प्राण्यांच्या डोळ्यातले भाव पहाताना जे समाधान मिळते ते शब्दात सांगता येत नाही. स्वामी विवेकानंदांनी सांगितलेलं “जीव सेवा हीच ईश्वरसेवा” हे तत्व मनोमन पटत.
कर्मयोग, ज्ञानयोग, आणि भक्ती मार्गाद्वारे आमची मुलं-मुली, (प्राणिमात्र )यांच्यामधील परमेश्वराच्या रूपात पोहोचण्याचा प्रयत्न करत असते. त्यांच्या सहजीवनाच्या धाग्यांच्या गुंफणीतूनच माझ्या जीवनाच सुंदर वस्त्र विणलं गेलंय. किती सुंदर म ऊ मुलायम उबदार आणि रंग बिरंगी.
ऐका सख्यांनो, ‘तिची’ कहाणी. ‘ती’ तुमचीच एक सखी. तिची कहाणी पण संसार, मुलं-बाळं, जिवलग, निसर्ग, कुटुंबाचे हीत, परमार्थ, व्रत,त्याग,साफल्य या भोवतीच फिरणारी.
तिचे माहेर छोट्याशा गावातले. घरी धार्मिक,अध्यात्मिक, पारंपारिक, आधुनिक अशा सर्व विचारांचा मेळ. सर्व देवधर्म, पूजाअर्चा, परंपरा श्रद्धेने जपणारे आई-वडील. इतरांच्या मदतीला धावणारे, सर्वांच्या उपयोगी पडणारे, गावाचा आधारस्तंभ होते. धार्मिक व्रतवैकल्यांबरोबर सामाजिक व्रताचा वसा तिला त्यांच्याकडूनच मिळाला. वारीची परंपरा, त्यातले मर्म समजले.
लग्नानंतर ती मोठ्या शहरात, मोठ्या गोतावळ्यात गेली. तिथले वातावरणही पूर्ण श्रद्धाळू, धार्मिक. तिच्या सासूबाई त्या काळाप्रमाणे कमी शिकलेल्या, सण-वार,परंपरांच्या धबडग्यातल्याच.पण तरीही अतिशय प्रगल्भ विचारसरणी असलेल्या. असंख्य पुस्तकांच्या वाचनाने विचारात, आचारात काळानुरूप बदल केलेल्या. जुन्या कालबाह्य गोष्टी त्यांनीच सोडून दिलेल्या होत्या. त्यामुळे सुनांना त्यांनी कसलीच बंधने कधी घातली नाहीत. ती घरात सर्वात लहान. त्यामुळे सासूबाई नंतर कुळधर्म मोठ्या घरी सुरू झाले. सर्वांनी आपापल्या घरी करण्याऐवजी एका घरी करताना सर्वांनी एकमेकांकडे जाणे, या निमित्ताने नाती जपणे हे तिने कटाक्षाने पाळले. घरामध्ये, नातलगांमध्ये मिळून-मिसळून, सर्वांना धरून राहण्याचे व्रत ती अखंडपणे जपते आहे. या व्रतवैकल्यांचा अंतिम उद्देशच सर्वांचे हित,कल्याण हा आहे. ‘एकमेकां सहाय्य करू अवघे धरू सुपंथ’ हे खरे आहे.
तिने पुढच्या पिढीला श्रद्धा जपायला शिकवले आहे. प्रथेचे अवडंबर न करता काळानुसार जे शक्य आहे ते मनोभावे करा. माणसातला, स्वत:च्या मनातला देव जपा. त्याच्याशी प्रामाणिक राहा. तो सदैव पाठराखण करतो हेच मनी बिंबवले आहे.
सण उत्सव, व्रतवैकल्ये हवीत. नियम, बंधने, संयम अवश्य हवा. पण या सर्वांसाठी निसर्गाला हानी पोहोचवू नये असे तिचे ठाम मत आहे. फुलं- पानं, फांद्या हव्यात म्हणून झाडांना ओरबाडायचे, निर्माल्य नदीत सोडायच्या निमित्ताने सगळा कचरा, घातक रंगांच्या प्लॅस्टरच्या मूर्ती पाण्यात सोडून जलप्रदूषण करायचे, उत्सवाच्या नावाखाली ध्वनिप्रदूषण करायचे ही कसली आलीय श्रद्धा ? यामुळे उत्सवांच्या मूळ उद्देशालाच दूर सारले जाते ही गोष्ट सर्वांनी लक्षात घ्यायला हवी. उत्सवाच्या निमित्ताने आत्मपरीक्षण करायला हवे असे तिला वाटते.
या सणावारांना ऋतू बदलानुसार योग्य खाद्य पदार्थ प्रसाद म्हणून केले जातात. ही गोष्ट आहारशास्त्राशी निगडित आहे. ती निश्चितपणे पाळावी. चातुर्मासाच्या निमित्ताने अनेक नेम धरले जातात. जे आरोग्यास योग्य ते अवश्य करावे. पण या जोडीला आणखी काही नवीन नेम धरता येतील. जास्ती समाजाभिमुख होऊन काही वेगळे संकल्प करावेत असे तिला वाटते.
असे उपक्रम म्हणजे — हॉस्पिटलमधील अॅडमिट पेशंटना भेटणे.एखादे फूल, फळ देऊन ‘लवकर बरे व्हा’ सांगत मानसिक उभारी देणे.
अनाथाश्रम, वृद्धाश्रमातील लोकांना भेटणे.त्यांना चांगली गाणी, गोष्टी ऐकवून मनमोकळ्या गप्पा मारणे.
शाळा-शाळांतील मुलांना चांगली गाणी, गोष्टी, कथा ऐकवणे. त्यांचे वेगवेगळे खेळ घेणे.
घराबाहेर पडू न शकणार्या ज्येष्ठांना आवर्जून जाऊन भेटणे.
दर आठवड्याला एका नातेवाईकाला जाऊन निवांतपणे भेटणे.जवळीक वाढवणे.
सर्वांनी मिळून देऊळ, बागा अशा सार्वजनिक ठिकाणांची स्वच्छता करणे.
झाडे लावून ती काळजीपूर्वक वाढवणे. यासारख्या कितीतरी उपयोगी गोष्टी करता येतील.
“मनी वसो रामनाम, हात करो पुण्यकर्म” हेच तर ब्रीद असावे. पुढच्या पिढीला पण अशा विचारांची दीक्षा देऊन त्यांना या कामात सहभागी करून घ्यायला हवे. ज्याला ज्या मार्गाने जमते त्या मार्गाने त्याने समाजसेवा करावी.
तिने समाजसेवेचा वसा आई-वडिलांकडून घेतला आहे. तो ती वेगवेगळ्या मार्गाने अमलात आणते. आपण ‘समाजाचे देणे’ लागतो ते फेडायचा ती यथाशक्ती प्रयत्न करते. शेवटी समाज म्हणजे कोण? तुम्ही आम्हीच ना! म्हणून या चांगल्या कामांची स्वतःपासून सुरुवात करायला हवी असे तिचे मत आहे.
तिला ‘खुलभर दुधाची’ कहाणी फार आवडते. प्रत्येकाने आपल्या श्रद्धा जपत उत्सवाच्या निमित्ताने थोडा थोडा हातभार लावला तर समाज प्रबोधन, समाजरक्षण, पर्यावरण रक्षण यांचा हा गोवर्धन निश्चितपणे उचलला जाईल.
तेव्हा मैत्रिणींनो आनंदात समाधानात सण साजरे करूयात.धन्यवाद.
जून महिन्यातील असाच एक दिवस. संध्याकाळचे चार वाजून गेले असावेत . आज सकाळपासूनच आभाळ जड झालयं. काळंभोर, घनबावरं झालयं. कोसळू पाहतंय पण कोसळत नाहीय. इथं , कोईमतूर मध्ये मी घरी एकटीच . मुलगा आणि सून ऑफिसला गेलेत. नातूही दुपारचा झोपलाय . खिडकीतून दिसणारे काळे जडावलेले ढग बघत बसलेय मी . मोरही अगदी सहज फिरताना दिसतात या बाजूला . त्यानंही केकारव केला . अरे! हा तर थिरकू लागला !! बघता बघता पावसाचे टपोरे टपोरे थेंब येऊ लागले . थेंबांच्या सरी झाल्या . धो धो कोसळू लागल्या . मन तर बालपणीच्या अंगणात जाऊन गारा वेचून आलं . . . . परकरपोलक्यातून केंव्हाच सटकलं . . . मैत्रिणींच्या बरोबर नाचू लागलं. . .
सरींवर सरी कोसळू लागतात
आठवणींचे मोती सरीत गुंततात
अगबाई . . लग्नंही जूनमधलचं. . त्याही दिवशी असाच पाऊस . . . आता सरींचे हिंदोळे झाले . चांदणफुलांनी त्याची माझी ओंजळ भरली. . . थांब, थांब ना जरा. . .
आठवणींचे तरंगावर तरंग. पाण्यात दगड टाकल्यावर ऊठावेत तसे.
मनाच्या डोहात किती वलयं उठतायत. एकात एक, पुन्हा त्यात एक.. . एकाच केंद्राभोवती. . . की. . की प्रत्येकाचा केंद्र बिंदू निराळा? माझं मन हे केंद्र बिंदू प्रमाणं समजलं तर समकेंद्री . पण असंख्य जीवनाभुवानं वेगवेगळ्या क्षणी मला बहाल केलेल्या स्मृती . . विकेंद्री!!
आठवणी काही आनंदाच्या, काही माझ्याच जीवनवेलीवरील फुलांनी दिलेल्या समाधानाच्या. .
हे काय सरीतील मोती अजूनही ओघळतच आहेत. . . . स्वैर. . . . बेबंद. . . आणि हा वेडापिसा झालेला मोर तर , मान उंचावून; निळाभोर होऊन; आनंदघनात चिंब झालाय.
. . . . . . मी ही एक गिरकी घेतली. मीच मला टाळी दिली. गदिमांच्या थुई थुई नाचणारा निळा सवंगडी मनाच्या अंगणात पदन्यास करु लागला.. . . . .
तशी मी बाथरूम सिंगरही नाही. पण आज या आठवणींच्या सुरावटीनं माझं गाणं ही सुरेल झालंय. माझ्या नकळत माझ्या चेहऱ्यावर उठणारे तरंग आजूबाजूला ऊबदार, सुखद तशाच ‘Positive vibes’ पसरवताहेत. . . . माझं आनंदगान घननील नभापर्यंत उंच उंच झेपावतय.