हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #45 – नवगीत – कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’  ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम नवगीतकहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ

? रचना संसार # 45 ☆

नवगीत – कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

उदासीन मन मूक हैं सब दिशाएँ।

कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ।।

 *

धुआं चिमनियों से निकलने लगा है।

लपट आग की है हृदय में दगा है।।

बिके खेत सारे न चुकता उधारी।

हुए बंधुआ पर न भरती तगारी।।

कटी शाख बरगद तड़पती लताएँ।

 *

बुने जाल मकड़ी समाधान कैसा।

शपथ भूलते सत्य भगवान पैसा।।

हिरण काँपते अब सजी हैं मचानें।

मुनादी हुई बंद हैं सब दुकानें।।

हुए आज लाचार हैं आपदाएँ।

 *

समाधान कैसा करे काँव कागा।

विदेशी चलन है स्वदेशी न जागा।।

बिना पंख उड़ने चली देख मैना।

क्षितिज से गिरी रो रहे खूब नैना।।

परीक्षा घड़ी मौन हैं सब शिलाएँ

 *

न गंगा बची है न यमुना नदी भी।

बहे मैल नित मौन नव ये सदी भी।।

शरद रश्मियों के छिपे हैं उजाले।

बहुत भूख हैं पर न मिलते निवाले।।

चले चूर मद देख पछुआ हवाएँ।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #272 ☆ भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 272 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

पंछी मन -मन डोलता, आ जाओ प्रिय पास।

चैन नहीं है रात दिन, बीत रहा  मधुमास।।

*

तेवर देखो ग्रीष्म के, जीवों से संग्राम।

बढ़ते उसके पाँव है, मिले नहीं आराम।।

*

कहे चिरैया सुन अभी, मेरे मन की बात।

जगह – जगह पर बाज है, रहें कहाँ दिन रात।।

*

कहते जिसको भारत ये, गौरैया का देश।

गौरैया दिखती नहीं, नहीं बचा अवशेष।।

*

 देखे पोखर राह तो, आए बारिश शाम।

प्रभु! अब बरखा कीजिए, दुष्कर जल बिन काम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #254 ☆ बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 254 ☆

☆ बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है☆ श्री संतोष नेमा ☆

बात जरा सी समझ ने पा रये का हुई है

सच्चाई  को  तुम  झुठला  रये का हुई है

*

आपहिं आप  खूब फेंक  रये  झूठी  सच्ची

झूठ  बोल  खें आँख  दिखा  रये का हुई है

*

कभू   कोउ   की  मदद  करी  ने तुमने भैया

बेमतलब   एहसान   जता   रये  का हुई है

*

कर्जा   बनिया  को   मूढ़े   धरत  फ़िरत  हो

कै  कै  थक  गए  कहां  पटा  रए  का  हुई है

*

सीधी गैल कभू  ने चल ख़ें तुम हो आए

अब  काहे  खो  तुम  चिल्ला  रए का हुई है

*

पी  लओ  खूब   घाट- घाट  को  तुमने पानी

खुद  को  घाट  खुदई  बिसरा  रए का हुई है

*

खुद  पै   कभू   लगाम  धरी   ने  तुमने बबुआ

देख  सूरतिया  जी  ललचा  रए  का हुई है

*

बात  सयानों  की  “संतोष” कभू ने तुमने मानी

हाथ  धर   खे  अब   पछता   रए  का हुई है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखने की दुकान।)

?अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो ईश्वर ने हर इंसान को जन्म से ही तीन-तीन दुकानों का मालिक बनाकर भेजा है, मनसा, वाचा और कर्मणा ! यानी मन, वचन और कर्म की दुकान से ही उसका और उसके परिवार का कामकाज चल जाता है, रोजी रोटी का सुगमता से बंदोबस्त हो जाता है लेकिन संसार का प्रपंच उसे और कई अन्य दुकानों से भी जोड़ देता है।

दुकान वह स्थान है जहाँ कुछ लेने के बदले कुछ दिया जाता है। लेन-देन ही व्यवहार है, दुकानदारी है। दाल रोटी और नून तेल खरीदने के लिए भी किसी दुकानदार का मुँह देखना पड़ता है। कई दुकानें प्रकृति ने भी खोल रखी हैं, जहाँ कोई ताला नहीं, कोई मालिक नहीं, बस भंडार ही भंडार है। कोई चौकीदार नहीं, कोई रोकटोक नहीं, राम की चिड़िया, राम का खेत ! सुबह प्रकृति की दुकान खुलती है, भरपूर ताज़गी, धूप ही धूप, हरियाली ही हरियाली। प्राकृतिक जल स्रोतों का भंडार, हर पल आपके द्वार।।

अक्षर ब्रह्म है ! श्रुति, स्मृति से चलकर आए पुराण को गीताप्रेस ने आज धरोहर बना दिया है। गीता प्रेस की दुकान ने बहुत कुछ लिखा हुआ प्रकाशित कर जन-मानस की सेवा ही की है। आज कितने ही लेखक, प्रकाशक, समाचार पत्र-पत्रिकाएं लेखनी के महत्व को चरितार्थ कर रहे हैं। आज मैं भी फेसबुक के ज़रिए इसी लेखनी की दुकान का एक हिस्सा हूँ।।

माँग और आपूर्ति के इस युग में भोजन के अलावा भी कई क़िस्म की भूख जिजीविषा को जाग्रत करती रहती है। उपभोक्ता संस्कृति की यह विशेषता है कि आज आपके पसंद की वस्तु आसानी से हर दुकान पर उपलब्ध है। ऐमज़ॉन ने तो इंटरनेट पर ही अपनी दुकान खोल ली है। जो चाहो सो पाओ। एक भूख पढ़ने की भी है जिसने लिखने की कई दुकानों को स्थापित कर दिया है। एक पाठक के लिए लेखक को दुकान सजानी ही पड़ती है। उसकी पसंद का सामान प्रदाय करना ही पड़ता है।

लिखने की दुकान में सिर्फ़ लेखक, एक कलम और कोरा कागज़ होता है और बाहर भीड़ लगी रहती है विचारों की, कल्पना, किस्से, कथा और संस्मरणों की। विचार एक कतार में नहीं आते। उन्हें बड़ी ज़ल्दी होती है लेखनी में समा जाने की। कुछ विचार तो भीड़ देखकर ही लौट जाते हैं। फिर कभी नहीं आते। कुछ को लेखक समझा-बुझाकर वापस ले आता है और एक रचना का सृजन होता है।।

लेखक और लेखनी का तालमेल ही लेखन है। लेखनी लेखक से क्या लिखवा ले, कुछ नहीं कह सकते। वेदव्यास और श्रीगणेश के संयुक्त प्रयास से ही एक महाकाव्य की रचना सम्भव हुई। लेखनी की दुकान में किस्से, कहानियाँ, निबंध, उपन्यास, कविता, शोध-ग्रंथ, आत्म कथा, संस्मरण सभी उपलब्ध होते हैं।

लेखनी कालांतर में गौण हो जाती है और लेखक स्थापित हो जाता है। नाम, पैसा, प्रसिद्धि, पुरस्कार, सब लेखक के हवाले। एक दो पैसे की लेखनी की क्या औकात ! लेखक बता देते अपनी जात/औकात। सरस्वती के सच्चे पुजारी ही जानते हैं एक लेखनी का कमाल, लेखक का कमाल, और शास्वत, सार्थक लेखन का कमाल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 246 – आरसा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 246 – विजय साहित्य ?

☆ आरसा…!

माया ममता जिव्हाळा,

एकमेका लावी लळा.

वाटे सहवास ओढ.

आठवांनी दाटे गळा…! १

*

स्नेह,सौहार्द ओलावा,

आपुलकी अनुबंध.

नाते जपता कळती,

जिव्हाळ्याचे रंगढंग ..! २

*

रक्ताहून बळकट,

नाते जिव्हाळ्याचे थोर.

प्रेम मैत्री विश्वासात,

हवा जिव्हाळ्याचा दोर..! ३

*

सम विचारांची मोट,

आहे जिव्हाळ्याचा मळा.

माणसात शोधी देव,

उरी ज्याच्या कळवळा…! ४

*

पैसा फक्त व्यवहार,

करीतसे देणे घेणे.

हृदी जपतो जिव्हाळा,

भाव भावनांचे लेणे….!५

*

नसे जिव्हाळा आसक्ती,

नसे मागणे लालसा.

माणसाच्या मानव्याचा,

असे जिव्हाळा आरसा…!६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ उंबरा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ. सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

🍃 उंबरा 🍃 डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

पाहिले मी जेव्हा त्याला

पापण्या नकळत झुकल्या

ढगाआड लपला सूर्य

पाकळ्या अलगद मिटल्या

*

व्याकूळ नजरेने मी

शोधत होते शब्द

बोलणे सुचले तरी,

विचार मनात स्तब्ध

*

तो मुक्त विवेकी होता

मज दडपण गहिरे होते

तो स्वच्छंद माणूस मोठा

मी उंबरा सोडत नव्हते.

*

ओठावर शब्द फुटेना

नजरा बोलत होत्या

अमाप साठून देखील

अबोल संवाद होता..

*

मानवी मनाला कसे

कोड्यात कुणी टाकले

निर्धोक भाव मनीचा

काळाने विपरीत लुटले

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “तुळस…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “तुळस…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

  

तुळशीचं बीजं लावलं मातीत

उगवून आली ती माझ्या अंगणात…

*

माझी हिरवी तुळस भराभरा वाढली

गळ्यात विठूच्या शोभाया लागली…

*

नैवेद्याचं ताट वाढून तयार केलं

तुळशीचं पान अलगद भातावर ठेवलं….

*

तुळस पाहिली की कृष्ण सखा आठवतो

एका पानाचं मोलं सांगून जातो…

*

तुळशीची माळ वारकरी घालतो

अभिमान संस्कृतीचा मनी जाणतो

*

झालं झाड मोठं आल्या तुळस मंजिरी…

हळुचं बीजं काढा पुढच्या झाडाची तयारी…

*

वाळलेल्या काड्या नीट जपून ठेवू

त्याचीच काडवात देवा पुढे लावू….

*

अशी ही तुळस घरोघरी असू दे ग बाई

जपा वारसा संस्कृतीचा ती शिकवून जाई….

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “कल्पवृक्ष…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “कल्पवृक्ष…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

अस्मादिकांच्यां जन्मदात्यांनी बाहेरुनच आल्या आल्या तोफ डागली…

गध्येपंचवीशी पर्यंत तुमच्या शिक्षणात गुंतवणूक केली आहे..

तीला आता चांगली भरभरून फळं आणून दाखवा बरं..

म्हणजे पिताश्रींचे या जन्मीचे पांग फेटलेच म्हणून समजा..

कुठे ते दिनानाथ निस्वार्थपणे आपल्या लेकीसाठी गाण्याचा कल्पवृक्ष लावून गेले…

आणि कुठे आमच्या घरातले…

थर्ड क्लास मधे इतिहास घेऊन बी. ए. च्या पदवीच्या भेंडोळीला…

चणेफुटाणे वाला सुद्धा बाजारात किंमत देत नसताना..

तिथं वरावरा नोकरीच्या दारात हिंडून नकाराचा कटोरा भरलेला घेऊन..

मुळातच बुद्यांकाचा अभाव असलेली माझी मस्तकपेटी…

पिताश्रींच्या अवास्तव अपेक्षेच्या ओझ्याखाली चपटी झाली…

त्यांनी मलाच आपला कल्पवृक्ष मानून घेतला होता की कोण जाणे…

अहो इथे साधे नैसर्गिकरित्या लागणारे नारळ लागण्याची वानवा…

आणि पिताश्रींची तर नारळच काय तर कल्पिलेल्या सगळ्याच फळांची अपेक्षा धरलेली…

छान नोकरी… सुशील सुन… वन बिच एच के.. सायकलच्या ठिकाणी स्पेलंडर… वगैरे.. वगैरे..

इतनो साल कि जो इन्व्हेस्टमेंट की थी उसका मुनाफा लेना तो पडेगाही ना…

सगळीकडे सगळं त्याचंच चाललेलं…

पण मला काय वाटतं तिकडे…

तुला काय लेका कळतंय याच प्रश्नात मला अडवलेला..

पण देवाची करणी नि नारळात पाणी तशी

किमया घडली नि अस्मादिकांना पोस्टमनची नोकरी मिळाली..

दोनवेळेच्या जेवणाची भ्रांत मिटली.. नि आयुष्याची चिंता..

पिताश्रींना जरा हायसं वाटलं पोरगं हाताशी आलं..

तसं दोनाचे चार हात वेळेसरशी झाले तर लेकराचा संसार रांगेला लागेल..

पण कल्पवृक्ष त्यांच्या हयातीत मोहरला नाहीच…

खूप उशीराने सारं सुरळीत पार पडत गेलं..

… पोस्टमास्तरचं प्रमोशन.. घराला घरपण आणणारी पत्नी… दारी मध्यमवर्गीय श्रीमंतीची इलेक्ट्रॉनिक दुचाकी.. ओसंडून वाहणारी घरातली सुखाची अनेक साधनं.. आणि वंशाचं नाव पुढे नेणारा दिवटा…

बस्स यही थी तमन्ना माझ्या पिताश्रींची…

एक दिवस दिवट्या चिरंजीवांनी शाळेतून एक चित्र रेखाटून आणलेलं दाखवलं…

कल्पवृक्षाच्या झाडाला नारळाबरोबर केळीचे घड लगडलेले दाखवले..

अरे वेड्या नारळाच्या झाडाला फक्त नारळच लागतील… केळी कशी येतील…

… पप्पा हा तर कल्पवृक्ष आहे. आंबा, फणस सुध्दा त्यासोबत काढणार होतो..

अरे वेड्या नुसत्या कल्पना करून आपल्याला हवं ते मिळत नसतं.. तुला कोणी सांगितलं हे..

आजोबांनी… काल स्वप्नात आले होते.. मला म्हणाले, तुझ्या नजरेतून हा फळलेला फुलेला कल्पवृक्ष पाहून समाधान वाटलं… आता तू तुझ्या पप्पांचा कल्पवृक्ष झाला पाहिजेस… त्याची तेव्हा सत्यात न उतरेली स्वप्न तुलाच पूर्ण करून दाखवायची आहेत…

… दूरवरून

कल्पवृक्ष कन्येसाठी लावूनिया बाबा गेला…

लताचं भाव व्याकुळ गाण्याचे सुर…

अस्मादिकांच्यां कानावर आले… नि

क्षण दोन क्षणाची धुंदीत माझे तनमन हरवले

सारखं सारखं राहून मनात दाटून यायचं…

त्यांचा कल्पवृक्ष फळला फुलेला… यालं का हो बाबा बघायला…

आणि तो वंशाचा दिवा माझ्याकडे पाहून मंदस्मितात तेवत राहिला…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रोमांचक असे काही… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

?  विविधा ?

☆ रोमांचक असे काही… ☆ सुश्री त्रिशला शहा 

निवांत क्षणी काही ऐकलेल्या, अनुभवलेल्या, पाहिलेल्या अनेक गोष्टी मनात खिळून रहातात, मनावर अगदी अधिराज्य गाजवतात. त्याचा आनंद, दुःख त्या गोष्टीवर अवलंबून असले तरी त्या परतपरत आठवतात. मनावर मोहिनी घालतात. कधीकधी मनाचा अगदी ताबा घेतात. अशाच उत्कंठा वाढवणाऱ्या, रोमांचित करणाऱ्या अनेक गाण्यांमध्ये आपण हरवून जातो. अशाच काही रोमांचक वाटणाऱ्या, मनच नव्हे तर देहभान हरवून टाकणाऱ्या, मन उल्हसित करणाऱ्या अनेक आठवणीत रमायला आपल्यालाही नक्कीचं आवडते. मंडळी, हा आठवणींचा खजिना उलगडत जाताना आपल्यालाही मनस्वी आनंद वाटल्याशिवाय रहाणार नाही.

भारतीय संगीत म्हणजे एक अतिशय भावनाप्रधान आणि मन मोहवून टाकणारे, पिढीजात चालत आलेले अजब रसायन आहे, मनातील आनंद, दुःख, प्रेम, विरह यातील कोणत्याही भावनेवर गाणे गाऊन त्याचे प्रकटीकरण केले जाते. मनातील भावनांचा कल्लोळ गाण्यांच्या माध्यमातून मांडताना अभिनयाचा कस लागतो. म्हणूनचं ते गाणे सर्वच द्रुष्टीन अजरामर ठरते. अशीच काही अप्रतिम अशी गाणी आपल्यालाही रोमांचित करुन जातातच आणि परतपरत ते गाणे ऐकताना तोच अनुभव येत रहातो. निव्वळ काही विशिष्ट जागांसाठी ते गाणे पुन्हापुन्हा ऐकावेसे वाटते, अगदी त्यात हरवून जायला होते. अशीच काही गाणी त्यांच्या शब्दांमुळे, चालीमुळे किंवा त्यातील उत्कंठ अभिनयामुळे, भावभावनेतील तरंगामुळे मनात घर करुन बसतात. अशाच उत्कंठावर्धक अशा काही गाण्यांबद्दल, त्याच्या सुमधूर चालींबद्दल, त्यातू़न अजरामर झालेल्या भूमिकेमध्ये आपणही त्यात किती समरसून जातो त्याविषयी;-

एक अनाडी असलेला नावाडी असा नायक आणि शिकलेली नायिका यांच्या प्रेमकथेतून साकारलेला, सुनील दत्त आणि नूतन यांच्या सजग अभिनयाने नटलेला सुंदर चित्रपट म्हणजे मिलन. यातील सर्वच गाणी अप्रतिम आहेतच, त्यातीलच अतिशय सुंदर असे गाणे म्हणजे सावन का महिना पवन करे सोर. या गाण्याची सुरवात म्हणजे नायक नायिकेला गाणे शिकवित असतो असा प्रसंग पण गाण्याच्या सुरवातीचे शब्द म्युझिक शिवाय येतात. ‘सावन का महिना, पवन करे सोर, जियरारे झुमे ऐसे जैसे बनमां$नाचे मोर. या  नाचे मोर या शब्दांवर पडणारी तबल्यावरची थाप ऐकताना अवघा देह कानात गोळा होतो आणि अंगावर रोमांच उभे रहातात जणू बनात आता मोरच नाचतोय कि काय असे वाटावे इतका सुरेखसा गाणे आणि वाद्यांचा मिलाफ साधलाय त्या संगीताच्या माधुर्यात आपणही रममाण होऊन जातो आणि लता – मुकेशच्या आवाजातील गाण्याचा मनापासून आनंद घेत रहातो. 

असाच छानसा परिणामकारक ठेका पडलाय देवदास या चित्रपटातील गाण्यात. माधुरी दिक्षीत, ऐश्वर्या रॉय आणि शाहरुख खान यांच्या दमदार अभिनयाने नटलेल्या या चित्रपटातील गाणीही त्यांच्या अविट चालींमुळे कर्णमधुर आहेत. या चित्रपटातील एका गाण्यात, प्रियकराची वाट पहात नायिका श्रुंगार करुन मैफिल सजवण्याच्या तयारीत असते पण प्रियकराच्या आगमनाशिवाय ती मैफिल खोळंबून ठेवते आणि त्याची चाहुल घेत असताना एकदम तो समोर दिसतो तेव्हा भावविभोर होऊन ती गाते, नाचते हमपें ये किसने हरा रंग डाला. रसिकहो यातील हम या शब्दावर पडणारी तबल्यावरची थाप केवळ अवर्णनीयच. हा ठेका आपल्याच काळजाचा ठोका चुकतोय कि काय, इतका परिणामकारक साधला गेलाय. इतका सुरेख मिलाफ या न्रुत्य, शब्द आणि वाद्यांचा साधलाय म्हणूनच तो नक्कीचं रोमांचकारी वाटतो. संगीतकाराच्या या कौशल्यपुर्ण ठेक्याला खरोखर मनपसंत दाद द्यावीशी वाटते. असाचं अतिशय मनोहारी, श्रवणीय नमुना म्हणजे गाईड या चित्रपटातील गाण्याचा. वहिदा रहेमान आणि देवानंद यांच्या बहारदार अभिनयाने परिपुर्ण असा, यातील असेच एक न्रुत्य संगीताचा सुरेख संगम साधणारे गीत म्हणजे पिया तोसे नैना लागे रे वहिदा रहेमानच्या अप्रतिम अशा न्रुत्याचा एक सुंदर आविष्कार. आपल्या लाडिक आवाजात ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ असे म्हणताना वाद्यांचा सुरेखसा पीस वाजतो आणि त्या तालावर अतिशय लालित्यपूर्ण असे वहिदाचे न्रुत्य आणि लतादिदींचा मधुर आवाज यांचा डोळ्याचे पारणे फिटणारा मनोहारी संगम पहायला मिळतो तेव्हा आपण स्वतःला हरवून त्या रमणीय कलेचा आस्वाद घेतो तोच खरा रोमांचकारी क्षण. यावेळी वहिदाच्या अदा पाहू कि लतादिदींचा स्वर मनात साठवू की एस्. डी. बर्मन यांचे संगीत ऐकू, प्राधान्य कोणाला देऊ असा प्रश्न नक्कीच पडतो. भारतीय संगीताचा असा मिलाफ पहाण्याचा आनंद आगळाच.

जुन्या चित्रपटांपैकी संगीताभिनयाने सजलेला आणखी एक चित्रपट म्हणजे मीनाकुमारी, राजकुमार आणि राजेंद्रकुमार यांच्या सम्रुध्द अभिनयाने, लतादिदींच्या अविट गाण्यांमुळे रसिकांच्या मनात अढळ स्थान मिळवलेला दिल एक मंदिर. 

आजारपणामुळे जन्म-म्रुत्युच्या उंबरठ्यावर असलेल्या नायकाच्या जीवनातील ती रात्र. उद्याच्या ऑपरेशनमध्ये काय होईल याची चिंता, त्यामुळे मनात दाटलेले काहुर आणि अस्वस्थता दाखवणारी पतीपत्नीच्या जीवनातील तगमग वाढवणारी ती बैचैनीची रात्र. गतजीवनातील घालवलेले पत्नीसमवेतचे आनंदाचे क्षण आठवताना आपल्या पत्नीला परतत एकदा नववधूच्या रुपात पहाण्याची इच्छा तो बोलून दाखवतो तेव्हा मनात चाललेल्या वादळाला थोपवून धरुन नायिका यासाठी तयार होते. आजची रात्र फक्त आपल्या दोघांची आहे. उद्याचा विचारच नको या भावनेतून नायिका, मीनाकुमारी सारा साजश्रुंगार करुन नववधूच्या वेशात येते आणि खिडकी उघडून निरभ्र आकाशातील चंद्रमालाच म्हणते रुक जा रात ठहर जा रे चंदा, बिते ना मिलन की बेला. 

आपल्या मनातील भावनांचा कल्लोळ डोळ्यातून चेहऱ्यावरुन साकारणाऱ्या या अभिनेत्रीला पहाताना आपल्याही अंगावर रोमांच आल्याशिवाय रहात नाहीत. राजकुमार, मीनाकुमारीचा अतिशय दर्दभरा उत्कट प्रेमाचा अभिनय आणि त्याला साजेसा लतादिदींचा करुण स्वर हे सारेच अतुलनीय, अवर्णनीय.

शब्दप्रभू गजानन दिगंबर माडगूळकर म्हणजेच आधुनिक वाल्मिकी ग. दि. माडगूळकर. अनेक चित्रपट गीतांच्या माध्यमातून त्यांना आपण जाणत असलो तरी गीतरामायण या महाकाव्याची रचना करून त्यांनी मराठी माणसाच्या मनामनात अढळस्थान निर्माण केलयं. गदिमा आणि बाबुजी म्हणजेच सुधीर फडके यांच्या निर्मीतीतून साकारलेले गीतरामायण श्रवणीय, वंदनीयही आहेच. अनेक उपमा, अलंकारात्मक शब्दांची अक्षरशः उधळण करणारे गदिमा आणि अविट अशा चाली लावून स्वरबध्द करुन आकाशवाणीवर सादर करणारे बाबूजी यांची ही अजरामर कलाकृती. अनेक कलाकारांच्या माध्यमातून गायलं गेलेलं हे महाकाव्य जरासुद्धा कंटाळवाणे वाटत नाहीच उलट ते पुन्हापुन्हा ऐकावेसेच वाटते. गीतशब्दांची ही मोहिनी अनुपम्य अशीच आहे. म्हणूनचं गीतरामायणाच्या कार्यक्रमात कलाकारांकडून पहिलच गीत जेव्हा गायलं जात स्वये श्री रामप्रभू ऐकती कुशलव रामायण गाती या शब्दांबरोबर नकळतच श्रोते ठेका धरुन डोलायला लागतात आणि इथून पुढचे दोन तास या मैफिलीत आपण आकंठ बुडणार आहोत या जाणिवेतून मन रोमांचित झाल्याशिवाय रहात नाही. या अजोड आणि अनमोल कलाकृतीच्या माध्यमातून गदिमा आणि बाबूजी़नी एक महान ठेवा रसिकांसाठी निर्माण करुन ठेवलाय.

अनेक रागांवर आधारित असलेली ही आणि अशीच अनेकानेक गाणी चित्रपटांच्या, भावभक्ती गीतांच्या रुपाने आपण रोज ऐकतो, त्याला अभिनयाची जोड देऊन अनेक कलाकारांनी ती सम्रुध्द करुन ठेवलेली आहेत. त्यातून साकारलेल्या अशा कलाकृतींमुळे आपणही भावविभोर होऊन जातो. कान, डोळेच नव्हेतर अवघे तनमन रोमांचित करुन जातो हीच भारतीय संगीताची जादू म्हणता येईल यात शंकाच नाही. काल, आज आणि उद्याही या संगीताची जादू आपणा सर्वांच्या मनावर मोहिनी घालतच रहाणार आहे हे नक्कीच.

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज 

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ राजवैद्य — भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ राजवैद्य — भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

आनंदराव गाडीतून उतरून हॉटेलच्या पायऱ्या चढू लागले, तर शिर्के साहेब त्यांची गॅलरीत बसून वाट बघत होते. त्यांना पायऱ्या चढताना पाहून शिर्के साहेब म्हणाले ” गुड इव्हिनिंग आनंदराव, लॉन वरच बसू, हवा छान आहे.

“गुड इव्हिनिंग शिर्के साहेब, चालेल.” असं म्हणून दोघे हॉटेलच्या lawn मध्ये ठेवलेल्या खुर्चीत बसले.

“झाली का काम?” आनंदरावांनी शिर्के साहेबांना विचारले.

“अजून दोन दिवस लागतील, कारखान्याचे मुख्य डायरेक्टर दिल्लीला गेले आहेत, शनिवार पर्यंत येतील’.”

“हो, ते खासदार आहेत ना या भागातले, सध्या दिल्लीत अधिवेशन सुरू आहे, त्यामुळे ते शनिवारीच येतील.”

“बरं मग शिर्के साहेब, तुम्ही आमच्या गावात आलात, बोला काय घेणार? या हॉटेलला इम्पोर्टेड मिळते.”

“नाही आनंदराव, मी ड्रिंक घेत नाही. आश्चर्य आहे, तुमच्या व्यवसायानिमित्त तुम्हाला देशात आणि प्रदेशात फिरावे लागते. तरी पण तुम्ही ड्रिंक घेत नाही याचे आश्चर्य वाटते “.

काय आहे आनंदराव, पूर्वी मी ड्रिंक घेत होतो. पण गेली काही वर्षे मला लिव्हर चा त्रास सुरू आहे,.

“मग तुम्ही उपचार केलेत असतील!”

“उपचार? भारतातील सर्व लिव्हर स्पेशालिस्ट कडे आणि इंग्लंड मध्ये डॉक्टर स्टीफन कडे जाऊन उपचार घेतो आहे.”

“मग डॉक्टरांचे काय म्हणणे?”

“भारतातील बहुतेक डॉक्टर्स माझे लिव्हर जन्मतः खराब आहे. त्यावर निश्चित असे बरे करण्याचे उपाय नाहीत. लिव्हर ट्रान्स प्लांट करणे अशक्य आहे. कारण ऑपरेशन करताना अमोनिया वाढण्याची शक्यता आहे. त्यामुळे सर्वच डॉक्टरांचे म्हणणे आहे लिव्हरची काळजी घेत चला. सध्या डॉक्टर स्टीफन यांच्याकडून आलेल्या इम्पोर्टेड गोळ्यांवर माझे चालू आहे. त्यामुळे कंट्रोल मध्ये आहे. माझ्या डॉक्टर्सनी सांगितले आहे, दारूचा एक थेंब जरी पोटात गेला तरी तरी खेळ खल्लास होईल.. म्हणून म्हणतो आनंदराव तुम्हाला काय हवं ते मागवा”. “नाही शिर्के साहेब, तुम्ही माझे पाहुणे आहात. तुम्ही ड्रिंक घेत नसताना मी मागवू शकत नाही. आपण लिंबू पाणी घेऊ.”. असं म्हणून आनंदरावांनी दोघांसाठी लिंबू पाणी मागवले.

आनंदराव शिर्के साहेबांना म्हणाले “तुम्ही एवढे उपचार केलेत, मग एकदा राजवैद्यांचा मत घेऊ. आमच्या राज्यवैद्यांकडे काही आश्चर्यकारक आयुर्वेदिक औषधे आहेत. तसं ते फारसे कुणाला माहित नाही. पण आम्ही दोघे एका कल्चरर क्लब मध्ये एकत्र असतो. त्यामुळे आमची मैत्री आहे.”

“राजवैद्य? कोण हे राजवैद्य?”

“शिर्के साहेब, आमचा हा जिल्हा म्हणजे पूर्वी संस्थान होते. राज घराण्याची गादी होती इथे. म्हणजे अजूनही आहे पण त्यावेळचा मान वेगळा होता. 60-70 वर्षांपूर्वी आमच्या महाराजांच्या पदरी हे राजवैद्य होते. महाराजांच्या खास मर्जीतले. त्याकाळी महाराजांना शरीरभर गळू आले होते. असह्य वेदना सुरू होत्या. अनेकांनी उपचार केले. अगदी मिशनरी डॉक्टर नी उपचार केले. मग कुणीतरी बातमी दिली मलकापूर भागात एक वैद्य आहे, त्यांचे कडे अनेक रोगांवरची औषधे आहेत. राज घराण्याने त्यांना बोलावले. त्यांनी पंधरा दिवसासाठी औषध लावायला व पोटात घ्यायला दिले. आश्चर्य म्हणजे आठ दिवसानंतर एक एक गळू फुटून साफ झाले. महिन्याभरात महाराज खडखडीत बरे झाले. त्या वैद्यांना महाराजांनी या शहरात आणले आणि राजवैद्य बनवले. त्या राज्यवैद्याने महाराजांची आणि महाराजांच्या कुटुंबाची अखेरपर्यंत सेवा केली. सगळीकडे नाव कमावले. महाराजांच्या शेवटच्या आजारपणात या वैज्ञानिक त्यांच्यावर उपचार केले. त्यामुळे या संस्थांच्या सर्व लोकांना त्यांचे बद्दल मोठा आदर होता.”

“आणि आता?” शिर्के साहेबांनी विचारले.

“आता राज्य वैद्य यांचे नातू आहेत. बापूसाहेब त्यांचं नाव. त्यांना पण आयुर्वेदाची चांगली माहिती आहे. पण आता काळ बदलला. इंग्लिश औषधे भारतात आली आहेत. डॉक्टर्स ऍलोपथी शिकून आले आहेत. ते ऍलोपॅथी औषधे वापरतात. त्यामुळे राजवैद्य मागे पडले.”

“पण आयुर्वेदिक डॉक्टर्स पण आहेत ना भारतभर?”

“आयुर्वेदिक डॉक्टर्स पण इंग्लिश औषधे वापरतात. ते शिकतात आयुर्वेदिक पण औषधे वापरतात ऍलोपॅथिक. अजून काही वैद्यपूर्ण आयुर्वेदिक औषधे वापरतात. पण आयुर्वेद मध्ये सुद्धा आता मोठ्या मोठ्या कंपन्या उतरले आहेत. त्यांच्याकडे मोठे कारखाने आहेत. आमचे बापूसाहेब वैद्यराज मात्र मागे मागे राहिले. ‘ कारण त्यांना पैशाचे पाठबळ नाही मी आमच्या वैद्य राज्यांना बोलावतो ते नाडी परीक्षा करतात. आणि मग औषध देतात”.

“हो बोलवा तुमच्या राज्य वैद्य ना, त्यांचे कडून काही फायदा होतो का पाहू.”

“दुसरे दिवशी आनंद रावांनी बापूसाहेब राजवैद्ययाना फोन केला. बापूसाहेब आले. त्यांची शिर्के साहेबांची भेट झाली. त्यांनी शिर्के साहेबांचे सोनोग्राफी रिपोर्ट पाहिले. नाडी परीक्षा केली. आणि यावर एक जालीम औषध मिळते का बघतो असे म्हणून ते गेले.

बापूसाहेबांच्या लक्षात आले, शिर्के साहेबांवर उपचार करण्यासाठी केरबाचे औषध मिळवणे आवश्यक आहे. नुसत्या आपल्या औषधाने शिर्के साहेबांची लिव्हर व्यवस्थित होणार नाही.

बापूसाहेब स्कूटर वरून निघाले ते 15 किलोमीटर वरील भडगाव या गावी पोहोचले. एका जंगलाजवळ त्यांनी आपली स्कूटर ठेवली. आणि लहानशा पायवाटेने जंगल चढू लागले. पंधरा-वीस मिनिटे चढण चढल्यावर त्यांना शिळ्यामेंढ्या चढताना दिसायला लागल्या. तसं त्यांनी “केरबा, केरबा” अशा हाका मारायला सुरुवात केली. दहा-बारा वेळा हाका मारल्यानंतर “जी जी” उत्तर मिळाले. आणि दोन मिनिटात त्यांच्यासमोर केरबा धनगर उभा राहिला.

“आव बापूसाब, तुमी सवता, सुरवं कुनिकडे उगवला मनायचं”.

“आर मित्रा, तुझी लय आठवण आली न्हवं” बापूसाहेब उदगारले.

“मित्र म्हणताय हे तुमच मोठेपण बापूसाहेब, तुमी कुठं आमी कुठं, तुमी आमचे राजवीद्य, तुमास्नी आमच्या महाराजणं पदवी दिली न्हवं”.

“आर पदवी दिली आमच्या आजोबांना, मला न्हवं”.

“बरं बापूसाहेब, का आला व्हता गरिबाकडं!”

 केरबा, आमचा एक दोस्त आहे आनंदराव, त्याचे साडू मुंबईचे शिर्के, ते इकडं आपल्या गावात आलेत कामासाठी, त्या शिर्केंच यकृत खराब झालंय, यकृत समजतय न्हवं (बापूसाहेबांनी पोटाजवळ हात ठेऊन लिव्हर दाखवले).

“समजलं कीं, कावीळ व्हते न्हाई का?’, पण तुमी काविली वर दवा देताय न्हवं”.

आर, नुसती कावीळ असती किंवा बारीक सारीक काय बी असत, तर मी इलाज केला असता, पर या पवण्याचं पूर यकृत खराब झालाय, त्यासाठी माझ्या कडे इलाज न्हाई बाबा, तेला तुझी मुळी हवी, माग दादा डॉक्टर साठी ती मुळी तू दिलेली ‘.

“दादा डागदार तसा भला माणूस, किती लोकांचे परान वाचवले त्याने, माझ्या आजा न दाखवलेली मुळी तुमच्या कडच्या औषतून दिली तुमी, पन माझ्या आज्यान मला बोलून ठेवलंय “या मुळीचा बाजार करू नको केररबा, म्हणून मी तस कुणला ह्या मुळी च सांगत न्हाई आणि पैस भी घेत न्हाई”.

“होय, मला माहित आहे ते, पण आनंदरावांचे हे पाहुणे भले माणूस आहेत. मी त्यांना शब्द दिला आहे, माझ्यासाठी एकदा तू ती मुळी मला दे”.

“होय बापूसाहेब, राजवीद्य हाय तुमी आमचे, आमच्या म्हरंजाचे राजवीद्य, तुमास्नी मी न्हाई म्हणु शकत न्हाई”.

“उद्या राती पर्यत मुळी पोच करतो, तुमच्या कविलीच्या दावंय मध्ये घालून द्या.”

बर, म्हणून बापूसाहेब घरी आले, दुसऱ्या दिवशी संध्याकाळी केरबाने ती मुळी आणून दिली. बापूसाहेबांनी ती मुळी आपल्या नेहमीच्या लिव्हर वरील औषधात मिसळली. त्यांच्या फॅक्टरीतल्या मुलीला सांगून त्याच्या दोन महिन्यासाठी च्या गोळ्या तयार केल्या आणि दुसऱ्या दिवशी शिर्के साहेबांच्या हवाली केल्या.

शिर्के साहेब मुंबईला जाताना बरोबर त्या गोळ्या घेऊन गेले आणि नियमित घेऊ लागले. त्यांची इतर पत्ते चालू होतीच.

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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