मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ दृष्टिकोन ☆ संग्राहक – सौ.अस्मिता इनामदार

सौ.अस्मिता इनामदार

? इंद्रधनुष्य ?

☆ इंद्रधनुष्य ☆ दृष्टिकोन ☆ संग्राहक – सौ.अस्मिता इनामदार ☆ 

दृष्टिकोन किती महत्वाचा पहा……..गणित तर समजून घ्या…”मस्त आयुष्य जगण्याचा स्वस्त फंडा – एक मजेशीर गणित”  पहा, सोडवा किंवा सोडून द्या,  पण आनंद जरूर घ्या.*

आपण असे मानू या की….

A, B, C, D, E, F, G, H, I, J, K, L, M, N, O, P, Q, R, S, T, U, V, W, X, Y, Z = अनुक्रमे 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23, 24, 25, 26.

म्हणजेच A=1, B=2, C=3 

असे मानले तर माणसाच्या कोणत्या गुणाला पूर्ण शंभर गुण मिळतात हे पाहू या….

आपण असे म्हणतो की, आयुष्यात  “कठोर मेहनत/ HARDWORK” केले तरच आयुष्य यशस्वी होते.

आपण “HARDWORK चे गुण पाहु या. H+A+R+D+W+O+R+K = 8+1+18+4+23+15+18+11 = 98% आहेत पण पूर्ण नाहीत.

दुसरा महत्त्वाचा गुण म्हणजे  “ज्ञान” किंवा ‘Knowledge’.

याचे मार्क्स पाहु या

K+N+O+W+L+E+D+G+E = 11+14+15+23+12+5+4+7+5= 96% हे पहिल्या पेक्षा कमी. 

काही लोक म्हणतात  “नशीब”/ LUCK हेच आवश्यक. तर लक चे गुण पाहु या.

L+U+C+K = 12+21+3+11 = 47%,–“नशीब” तर एकदमच काठावर पास.

काहींना चांगले आयुष्य जगण्यासाठी  “पैसा/MONEY” सर्व श्रेष्ठ वाटतो. तर आता “M+O+N+E+Y=किती मार्क्स?

 13+15+14+5+25= 72%, पैसा ही पूर्णपणे यश देत नाही.

बराच मोठा समुदाय असे मानतो की,  “नेतृत्वगुण/ LEADERSHIP” करणारा यशस्वी आयुष्य जगतो.  नेतृत्वाचे मार्क्स =

12+5+1+4+5+18+19+8+9+16= 97%, –बघा लीडर ही शंभर टक्के सुखी, समाधानी नाहीत, आनंदी तर अजिबात नाहीत.

मग आता आणखी काय गुण आहे, जो माणसाला १००% सुखी, समाधानी आणि आनंदी ठेऊ शकतो?  काही कल्पना करू शकता?…… नाही जमत?—-

मित्रांनो, तो गुण आहे, आयुष्याकडे पाहण्याचा “दृष्टिकोन/ATTITUDE” 

आता एटिट्यूड”चे आपल्या कोष्टका नुसार गुण तपासू… 

A+T+T+I+T+U+D+E = 1+20+20+9+20+21+4+5= 100%.— पहा– आयुष्यातील सर्व समस्यांचे निराकरण करून सुखी, समाधानी आणि आनंदी आयुष्य जगण्याचा स्वस्त फंडा आहे, ‘आपला आयुष्याकडे पाहण्याचा दृष्टिकोन’. तो जर सकारात्मक असेल तर आयुष्य  १००% यशस्वी  होईल आणि आनंदी ही होईल.

“दृष्टिकोन बदला आयुष्य बदलेल”

संग्राहक : अस्मिता इनामदार

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आयुष्याचे गणित ☆ प्रस्तुति – कालिंदी नवाथे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ आयुष्याचे गणित ☆ प्रस्तुति – कालिंदी नवाथे ☆ 

आयुष्याचे गणित चुकले असे कधीच म्हणू नये.

आयुष्याचे गणित कधीच चुकत नसते, चुकतो तो चिन्हांचा वापर.

बेरीज,वजाबाकी, गुणाकार,भागाकार ही चिन्हं योग्य पद्धतीने वापरली  की  उत्तर मनासारखे येते.

आयुष्यात कुणाशी बेरीज करायची, कुणाला केंव्हा वजा करायचे, कधी कुणाशी गुणाकार करायचा आणि भागाकार करताना  स्वतः व्यतिरिक्त किती लोकांना सोबत घ्यायचे हे समजले की उत्तर मना-जोगते येते.

आणि हो,  मुख्य म्हणजे जवळचे नातेवाईक, मित्र, आप्तेष्ट यांचा हातचा एक समजू नये, त्यांना कंसात घ्यावे ! कंस सोडविण्याची हातोटी असली की गणित कधीच चुकत नाही.

प्रस्तुति –  कालिंदी नवाथे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति  पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य ,साहित्य की वह महत्वपूर्ण विधा है.जो मानवीय और सामाजिक सरोकारों से सबसे अधिक नजदीक महसूस की जाती है. व्यंग्य ही समाज में व्याप्त विसंगतियांँ, विडंबनाएँ पाखंड, प्रपंच, अवसरवादिता, ठकुरसुहाती अंधविश्वास आदि विकृतियों, कमियों को उजागर करने में सक्षम विधा है। वैसे साहित्य में कहानी, उपन्यास और कविता आदि अन्य विधा भी उक्त विकृतियों को अनावृत करती है, किंतु उसका प्रभाव समुचित ढंग से समाज में नहीं दिखता, जितना कि व्यंग्य विधा के माध्यम से. इसके पीछे व्यंग्य का फॉर्मेट, भाषा,शिल्प और विषय है. जो उसको मुकम्मल रूप से  जिम्मेदार ठहराता हैं. व्यंग्य की प्रकृति अपनी बुनाव, बनाव से सीधे-सीधे जनमानस पर प्रभाव डालता हैं. समाज और राजनीति में व्याप्त विसंगतियाँ  समाज में घुन की तरह काम करती हैं. यदि  समय रहते इसे उजागर ना किया जाए तो वह समाज में नासूर बन जाती हैं. कभी-कभी यह भी देखा गया है. कि अनेक व्यक्तियों में पाई जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी समाज की नैतिकता चाल-ढाल रहन सहन जीवन शैली आदि को प्रभावित करती है. यह प्रवृत्तियाँ  सामाजिक, मानवीय पतन की ओर सीधे-सीधे संकेत करती हैं. यहाँ एक बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत कमजोरियाँ भी हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं. इन प्रवृत्तियों का मानवीय और सामाजिक जीवन में परोक्ष रूप से तो नहीं पर अपरोक्ष रुप से प्रभाव गहन होता है. इसे कमतर नहीं आँका जा सकता है. पूर्व के व्यंग्यकारों ने तो प्रवृत्तियों पर धड़ल्ले से लिखा है. उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए समकालीन व्यंग्यकार भी प्रवृत्तियों पर प्रमुखता से लिख रहे हैं. यह प्रवृत्ति मूलक लेखन ने व्यंग्य को नई दिशा देने का काम किया है. प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य ने पाठक को चकित तो किया है और चमत्कृत भी. इस प्रकार की लेखन ने बरसात के प्रारंभिक दिनों की झड़ी से भींगी मिट्टी की सौगंध का अनुभव दिया है. यह प्रवृत्ति निंदा की हो सकती है. ठकुर सुहाती की हो सकती है. अन्याय, प्रपंच के पक्ष में चुप रहने की भी हो सकती है. इस प्रकार की प्रवृत्ति अन्याय प्रपंच निंदा आदि करने वालों से अधिक खतरनाक होती है. इनके पक्ष में चुप रहना .इन को प्रोत्साहित करने के समान होता है. इससे उन शक्तियों को बल मिलता है और वे बल पाकर अधिक दमदार होकर समाज को ऋणात्मक रुप से  प्रभावित करती है. अगर प्रारंभ में ही इन विकृति जन्य  प्रवृत्तियों को कुचल दिया जाए तो समाज और मनुष्य को बचाने में अधिक कारगर हुआ जा सकता हैं. इस कारण  प्रवृति पर बहुतायत से व्यंग्य लिखा जा रहा है पाठक इसे पसंद भी कर रहे हैं. इसका लाभ यह दिख रहा है कि पाठक विकृतियों से अपने को बचाकर भी रखना चाह रहे है.

प्रवृत्ति में व्यंग्य लेखन कब से प्रारंभ हुआ. यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है. पर हरिशंकर परसाई ने प्रचुर मात्रा में लिखा और इस प्रकार के व्यंग्य को सामाजिक संदर्भ में जोड़कर देखने का नया आयाम दिया. इसमें पाठक की भी रूचि बढ़ी. पत्र-पत्रिकाओं ने इसे हाथों हाथ लिया है .पाठक और पत्र-पत्रिकाओं में इस नई दृष्टि को आधारशिला के समान गंभीरता से लिया. जो प्रवृत्ति पर लेखन के लिए सहायक सिद्ध हुई. इस कारण अधिकांश व्यंग्य लेखकों ने अन्य विषयों की अपेक्षा इसे सहज सरल और प्रभावशाली माना. इसे प्रवृत्ति मूलक लेखन का प्रभाव ही कहा जा सकता है. हरिशंकर परसाई जी की चर्चित रचना “पवित्रता का दौरा “से अच्छे से समझ सकते हैं. वे लिखते हैं..

‘इधर ही मोहल्ले में सिनेमा बनने वाला था तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया. शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ  शरीफ स्त्रियां रहती हैं. और यहाँ सिनेमा बन रहा है. गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरतें सिनेमा देखने गुंडों के बीच में जाएँ. मुहल्ले में एक आदमी कहता है. उससे मिलने की एक स्त्री आती है. एक सज्जन कहने लगे – ‘यह शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ  यह सब नहीं होना चाहिए. देखिए फलां के पास एक स्त्री आती है.’ मैंने कहा – ‘साहब शरीफों का मुहल्ला है. तभी तो वह स्त्री पुरुष मित्र से मिलने की बेखटके आती है. वह क्या गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती है.’

इस शरीफ दिखने दिखाने का ढोंग करने वाले व्यक्ति सब जगह मिल जाएंगे. जो सदा दूसरों से बेहतर दिखने का नाटक करते हैं. यहाँ पर प्रवृत्ति अनावश्यक रूप से द्वेष पैदा करती है. इस प्रवृत्ति वाले हर जगह अड़ंगा दिखाते मिल जाएंगे. शरद जोशी की एक अद्भुत रचना है ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’, शासकीय कार्यालयों में खुशामदी प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग्य है. वैयक्तिक प्रवृत्ति पर प्रभावशाली व्यंग्य है. यह सीधे-सीधे मानवीय प्रवृति पर चोट करता है इस प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य से समाज प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होता है, पर खुशामदी प्रवृत्ति शासकीय व्यक्ति या अफसरों के निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करने में सक्षम होती है. जिसका प्रभाव बाद में समाज में परिलक्षित होता देख सकते है. आरंभ में प्रवृत्तियां प्रत्यक्ष रूप में समाज को प्रभावित करने वाली नहीं दिखती है. पर शनैः शनैः इसका प्रभाव ऋणात्मक रूप से सामने आ जाता है. शरद जोशी की इस रचना ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं.’ में वे लिखते हैं

वे सचिवालय के तबादलों की ताजी खबरें सुनाते दुकान में घुस गए

सोमवार को फाइल बगल में दाबे  छोटा अफसर बड़े अफसर के कक्ष में घुसा और ‘गुड मॉर्निंग’ करने के बाद बोला- कल की पिक्चर कैसी रही! सर.

बड़ा अफसर एक मिनट गंभीर रहा. सोचता रहा क्या कहें फिर उसने कंधे उचकाए और बोल’ इट वाज ए नाइस मूवी’! ऑफ कोर्स !

दोपहर को छोटे अफसर ने अगासे को बताया कि बड़े साहब को पिक्चर पसंद आई. वह कह रहे थे कि’ इट वाज ए नाइस मूवी’

दोपहर बाद एकाएक सभी लोग ‘हु इज अफ्रेड आफ वर्जिनिया वूल्फ’ की तारीफ करने लगे .

क्यों भाई! कल की पिक्चर कैसी लगी. ‘इट वाज ए नाइस मूवी’ जवाब मिला

यह अफसरों में खुशामदी का बढ़िया उदाहरण है. यह ठकुरसुहाती की प्रवृत्ति अफसरों के निर्णय को प्रभावित करती है. जिससे अपरोक्ष रूप से समाज प्रभावित होता है. आज यह प्रवृत्ति  राजनीति क्षेत्र में बहुत आसानी से देखी जाती है. राजीव गांधी के समय में यह कहा जाता था कि वे काकस से घिरे रहते थे.

प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य वैयक्तिक होते हैं पर उनका शिल्प और भाषा की संरचना ऐसा होती है कि वे सर्व सामान्य से दिखने लगती हैं. आजकल प्रवृति मूलक व्यंग्य रचनाओं में एक विसंगति उभर कर आ गई है. रचना वैयक्तिक व्यंग्य की होती  है. आजकल प्रवृत्ति लिखे जा रहे व्यंग्य में व्यक्तिगत विसंगतियां अधिक है.जिन्हें लेखक प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य कह रहा है. जबकि वह किसी व्यक्ति को केंद्र में लिखी गई हैं. कभी-कभी अनायास यह संयोग जुड़ जाता है कि व्यक्तिगत प्रवृत्तियां भी अनेक लोगों में संयोगवश  मिल जाती है.जिन्हें भी प्रवृति वाला व्यंग्य कह जाते हैं. जबकि वे व्यंग्य व्यक्तिगत खुन्नस वाले होते है. जो पढ़ने में रोचक लग सकते हैं. पर पाठक पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है जबकि प्रवृत्तिजनक व्यंग्य में सावधानी रखना जरूरी होता है. इस तरह का व्यंग्य का विषय/प्रवृत्ति  सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में दिखने वाला होना चाहिए. अनेक व्यक्तियों की कुछ आदतें ऐसी होती हैं जो अन्यत्र नहीं दिखती हैं. तब इस पर लिखा व्यंग्य वैयक्तिक हो जाएगा. पर परसाई जी की अनेक रचनाएं व्यक्तिगत परिपेक्ष में लिखी रचनाएं हैं. पर उनका प्रस्तुतिकरण आम प्रवृत्ति का रूप ले लिया है. उनकी एक रचना ‘वैष्णव की फिसलन’  वैयक्तिक प्रवृत्ति की रचना है.एक व्यक्ति की प्रवृत्ति पर लिखी गई है आज जब उसे हम पढ़ते हैं तो लगता है कि यह अनेक लोगों में अलग-अलग ढंग से देखी जा सकती है. यहाँ पर वैयक्तिक प्रवृत्ति समान्य  व्यक्ति में परिणित हो गई है. यह व्यंग्यकार और व्यंग्य का कौशल है जो उसे सर्वजन हिताय बना दे. प्रवृत्ति पर लिखा लेखन मूल रूप से समाज और मानवीय जीवन में पनप रही प्रवृत्ति/विकृति को उजागर कर मनुष्य और मनुष्यता को बेहतर करने का पहला कदम है.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 50 ☆ गीत – मुझे नही आता है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 49 ☆गीत – मुझे नही आता है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

लिखता तो हूँ । पर विवाद में पड़ना मुझे नही आता है

सीधी सच्ची बाते आती, गढ़ना मुझे नही आता है।

देखा है बहुतों को मैने पल-पल रंग बदलते फिर भी

मुझे प्यार अच्छा लगता है, लड़ना मुझे नहीं आता है।।

 

लगातार चलना आता है, अड़ना मुझे नही आता है

फल पाने औरो के तरू पर चढ़ना मुझे नही आता है।

देखा औरो की टांगे खीच स्वयं बढ़ते बहुतों को।

पर धक्के दे गिरा किसी को बढ़ना मुझे नहीं आता है।।

 

अपने सुख हित औरों के सुख हरना मुझे नही आता है

अपना भाग्य सजाने श्रम से डरना मुझे नहीं आता है।

देखा है देते औरों को दोष स्वयं अपनी गल्ती को

पर अपनी भूले औरों पर गढ़ना मुझे नही आता है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ग्लोब ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ग्लोब ?

ढूँढ़ो, तलाशो,

अपना पता लगाओ,

ग्लोब में तुम जहाँ हो,

एक बिंदु लगाकर बताओ,

अस्तित्व की प्यास जगी,

खोज में ऊहापोह बढ़ी,

कौन बूँद है, कौन सिंधु है..?

ग्लोब में वह एक बिंदु है

या

ग्लोब उसके भीतर

एक बिंदु है..?

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 10.11 बजे, 25.9.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…5”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” को संसार में बांधे रखने का काम मोह करता है परंतु यह जाने-अनजाने मन का एक विकार भी बन जाता है। जब लगाव गिने-चुने लोगों से होता है, हद में होता है, सीमित होता है, तब मोह सहायक रसों का नियामक होता है। जीवन में रस घोलता है। लेकिन हितों के अटलनीय संघर्ष में मोह घना होकर “मैं” को किंकर्तव्यविमूढ़ करके कर्तव्य पथ से विच्युत करता है।

जीवन के सबसे बड़े संघर्ष में अर्जुन की यही दशा है। अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने विरोध में खड़े सभी सगे-संबंधियों को देखकर हथियार डाल दिए हैं। उसका मोह ग्रसित “मैं” कर्मपथ पर अग्रसित हो उसे युद्ध नहीं करने दे रहा है। अर्जुन पितामह, गुरु, परिजनों को सामने देख मोहग्रस्त होकर अस्त्र डाल देता है। मूल्यों के संघर्ष में वह कुछ लोगों से सम्बंधों के वशीभूत मोहग्रस्त है। मानवता कल्याण हेतु नए मूल्यों की स्थापना में संघर्ष से हिचकिचाता है। नियत कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहता है।

जब “मैं” को जीवन का पहला खिलौना मिलता है तब उसमें स्वामित्व का भाव आता है। “मैं” का मेरा निर्मित होता है। यह स्वामित्व भाव ही मोह की प्रथम सीढ़ी है। फिर वह वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थान सभी से मोहग्रस्त होने लगता है। मोह के संस्कार “मैं” के चित्त में इकट्ठा होते रहते है, जिससे इसकी जड़ें पक्की हो जाती हैं और कई बार चाहकर भी वह मोह को नहीं छोड़ पाता। वह मोह को ही प्रेम मान लेता है, जैसे युवक-युवती आपस में आसक्ति को प्रेम कहते हैं, जबकि वह प्रेम नहीं, मोह है।

मां-बाप जब अपने बच्चे को प्रेम करते हैं तो वह भी मोह कहलाता है। मोह का मतलब होता है आसक्ति, जो गिने-चुने उन लोगों या चीजों से होती है जिन्हें हम अपना बनाना चाहते हैं, जिनके पास हम ज्यादा-से-ज्यादा समय गुजारना चाहते हैं। अपना स्वामित्व स्थापित करके उनकी आज़ादी छीनना शुरू कर देते हैं। पति पत्नियों में भी अक्सर ऐसा होता है।

मोह भेद पैदा करता है। मोह वहां होता है जहां हमें सुख मिलने की उम्मीद हो या सुख मिलता हो। वहाँ मैं और मेरे की भावना प्रबल रहती है। एक होता है “लौकिक प्रेम” यानी सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है “अलौकिक प्रेम” यानी ईश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और ईश्वरीय प्रेम साधना कहलाता है। संसारी प्रेम च्युइंग सा चिपकाव है, चबाते रहो तब भी मोह जैसा का तैसा बना रहता है। इसी मोह की वजह से व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता रहता है। जबकि ईश्वरीय प्रेम समर्पण द्वारा “मैं” की पूर्ण स्वतंत्रता।

मोह से “मैं” में संग्रह की प्रवृत्ति आती है वही प्रवृत्ति धीरे-धीरे परिग्रह में बदलने लगती है। “मैं”  ज़रूरत से अधिक संग्रह के प्रपंच में पड़ने लगता है। इस तरह “मैं” आसक्ति के चक्रव्यूह में फँस जाता है। व्यग्र बेचैन अस्थिर चित्त “मैं” की मोहग्रस्त प्रकृति हो जाती है।

मोह जन्म-मरण का कारण है क्योंकि इसके संस्कार बनते हैं, लेकिन ईश्वरीय प्रेम के संस्कार नहीं बनते बल्कि वह तो चित्त में पड़े संस्कारों के विनाश के लिए होता है। ईश्वरीय प्रेम का अर्थ है मन में सबके लिए एक जैसा भाव। जो सामने आए, उसके लिए भी प्रेम, जिसका ख्याल भीतर आए, उसके लिए भी प्रेम। परमात्मा की बनाई हर वस्तु से एक जैसा प्रेम। जैसे सूर्य सबके लिए एक जैसा प्रकाश देता है, वह भेद नहीं करता। जैसे हवा भेद नहीं करती, नदी भेद नहीं करती, ऐसे ही हम भी भेद न करें। मेरा-तेरा छोड़कर सबके साथ सम भाव में आ जाएं। अपने स्नेह को बढ़ाते जाओ। इतना बढ़ाओ कि सबके लिए एक जैसा भाव भीतर से आने लगे। फिर वह कब ईश्वरीय प्रेम में बदल जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। यही अध्यात्म का गूढ़ रहस्य है।

“मैं” के सामने प्रश्न उठता है कि मोह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा है, जैसे स्वयं की देह, देह के दैहिक सुख, मानसिक सुख, बौद्धिक सुख, सम्मान के सुख, धन की कामना के सुख, व्यक्ति और स्थान की चाहत के सुख इत्यादि। क्या इन सारे सुखों में सन्निहित मोह से मुक्त होकर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे के पड़ाव पर पहुँच सकता है।

जीवन निर्वाह हेतु इन सभी सुख कारक अवयवों की अनिवार्यता थी। मोह के बग़ैर जीवन सम्भव ही नहीं था। सनातन परम्परा में वानप्रस्थ मोह से निकलने की तैयारी का आश्रम होता है और सन्यास मोह को त्याग देने का।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – राम-लक्ष्मण ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा राम-लक्ष्मण। )

☆ लघुकथा – राम-लक्ष्मण ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

इस पावन पर्व पर एक नयी दृष्टि से लिखी ये लघुकथा, श्रीराम को प्रणाम करते हुए :-

राम जब वन में सीता को ढूंढ रहे थे तो उन्हें एक हार दिखाई पड़ा । उन्होंने लक्ष्मण से पूछा-” देखो, ये हार कहीं सीता का तो नहीं है ? ” इस पर लक्ष्मण ने कहा-” भैया, मैंने तो जीवनभर भाभी के चरण ही देखे हैं, मैं हार नहीं पहचान सकता। हाँ, पायल होती तो पहचान लेता। ” यह पौराणिक प्रसंग पढ़-सुनकर मेरा मन लक्ष्मण की इस पावन श्रद्धा के प्रति झुक गया ।

पर एक बात मन में बार-बार उठ भी रही थी कि राम का लक्षण से यह पूछना, क्या लक्ष्मण का अपमान नहीं है ? लक्ष्मण की पावनता को भला राम से ज्यादा कौन जानता होगा ?

इस सोच-विचार मैं मेरी आँख लग गई । और मैंने सपने में राम से पूछ ही लिया-” आपको तो पता ही होगा कि लक्ष्मण की नजरें सीता के चरणों के ऊपर नहीं होंगी, फिर भी हार के बारे में पूछना क्या उचित,था ? ”

राम बोले-” लक्ष्मण स्वयं को जितना नहीं जानता, उतना मैं उसे जानता हूँ । ये तो फ्लो में, टाइम पास के लिए, यूँ ही उस सहजता से पूछ लिया था। जैसे कि तुम लोग जब ट्रेन आने को ही होती है, तब प्लेटफॉर्म पर गर्दन झुकाये देखते ही रहते हो, और जैसे ही इंजन दिखा, आप उस गर्दन से भी कहते हो ट्रेन आ गई, जो गर्दन खुद इंजन को देख रही थी। बस उसी सहज भाव से लक्ष्मण से पूछा था। ” एक पल रुक कर राम पुनः बोले-” ये तो लक्ष्मण के बारे में कवि-भक्त की महानता थी, वैसे मैं बताऊँ, लक्ष्मण ने सिर्फ चरण ही नहीं, सीता का चेहरा भी कई बार देखा है। सम्भवतः मुझसे भी ज्यादा बार । “

राम के इस कथन पर मैं शंकित-सा लक्ष्मण के पास गया और पूछा-” राम का तुमसे पूछना व उनका कथन क्या उचित है ? “

लक्ष्मण ने कहा-” उन्होंने यूँ ही फ्लो में टाइम पास के लिए सहज पूछा होगा। जैसे ट्रेन आते…”

” बस-बस रहने दो। वो ट्रेन का किस्सा राम से सुन चुका हूँ ।आप तो यह बताइए कि क्या आपने सीता का चेहरा भी देखा है ? “

” क्यों नहीं, अनेक बार। सीता जैसा पावन सौन्दर्य युगों बाद धरती पर आता है। वो अभागा होगा, जो इस पावन सौन्दर्य को न देखे। “

” पर वो कवि-भक्त का तो कथन है कि आपकी नजरें सीता के चरणों के ऊपर कभी नहीं गई। “

वह कवि-भक्त की महानता है, कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण। मैं बताऊँ- पाप आँखों में नहीं, मन में होता है। तुम कवि हो । इसलिए कविता के जैसे समझता हूँ ।

” आँखों में जरा झाँकिए

दिल का राज

गहरा दिखाई देता है,

दिल में गर पाप हो

तो कदमों में भी

चेहरा दिखाई देता है। “

मैंने सीता के चरणों भी देखें हैं और सूरत भी। “

” दोनों देखते हो एक साथ। वो कैसे? “

वो ऐसे।कविराज कविता में सुनो-

” सीता के पावन सौन्दर्य में

मैं इतना खो जाता हूँ ,

जब चरण देखता हूँ

तो राम का भाई हूँ

सूरत देखते ही

पुत्र हो जाता हूँ । “

लक्ष्मण फिर बोले-” और सुनो,

” किसी स्त्री का चेहरा उसका पुत्र ही ज्यादा गहराई से पहचानता है, पति से भी ज्यादा। पति चेहरा कम, जिस्म ज्यादा पहचानता है। जबकि पुत्र सूरत, सूरत और सिर्फ सूरत पहचानता है। इसलिए राम ने हार के सम्बन्ध में मुझसे पूछा था। “

इसके बाद मेरी नींद खुल गई । और मेरा मन राम-लक्ष्मण-सीता के प्रति और अधिक श्रद्धा से भर गया । सिर अपने आप झुक गया । हाथ अपने आप जुड़ गए।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

नदी के तट पर एक भिक्षु ने वहां बैठे एक वृद्ध से पूछा “यहां से नगर कितनी दूर है?

सुना है, सूरज ढलते ही नगर का द्वार बंद हो जाता है।

अब तो शाम होने ही वाली है। क्या मैं वहां पहुंच जाऊंगा?’

वृद्ध ने कहा “धीरे चलो तो पहुंच भी सकते हो।” भिक्षु यह सुनकर हैरत में पड़ गया।

वह सोचने लगा कि लोग कहते हैं कि जल्दी से जाओ, पर यह तो विपरीत बात कह रहा है।

भिक्षु तेजी से भागा। लेकिन रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। थोड़ी देर बाद ही भिक्षु लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

किसी तरह वह उठ तो गया लेकिन दर्द से परेशान था।

उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी। वह किसी तरह आगे बढ़ा लेकिन तब तक अंधेरा हो गया।

उस समय वह नगर से थोड़ी ही दूर पर था। उसने देखा कि दरवाजा बंद हो रहा है। उसके ठीक पास से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने भिक्षु को देखा तो हंसने लगा। भिक्षु ने नाराज होकर कहा, “तुम हंस क्यों रहे हो?”

उस व्यक्ति ने कहा, ‘आज आपकी जो हालत हुई है, वह कभी मेरी भी हुई थी। आप भी उस बाबा जी की बात नहीं समझ पाए जो नदी किनारे रहते हैं।’

भिक्षु की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा “साफ साफ बताओ भाई।”

उस व्यक्ति ने कहा “जब बाबाजी कहते हैं कि धीरे चलो तो लोगों को अटपटा लगता है। असल में वह बताना चाहते हैं कि रास्ता गड़बड़ है, अगर संभलकर चलोगे तो पहुंच सकते हो

कथा का तात्पर्य

जिंदगी में सिर्फ तेज भागना ही काफी नहीं है। सोच-समझकर संभलकर चलना ज्यादा काम आता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (51-55) ॥ ☆

 

आघात लगते ही उस वन्य हाथी ने रख रूप मनहरण आकाश चारी

जिसकी प्रभा दिव्यतापूर्ण शोभा साश्चर्य गई सैनिको से निहारी ॥ 51॥

 

तब कल्प द्रुम – पुष्प पा दिव्यता से उसने सुमन कुँवर अज पर चढ़ाये

निज रदन प्रभा से बढ़ा हार श्शोभा, उस वाक्पटु ने वचन ये सुनाये ॥ 52॥

 

गंधर्वपति प्रियदर्शन का आत्मज मैं हूँ प्रियवंद था राजरूप शापित

मतंगमुनि ने दिया शाप था मुझ घमण्डी को जिससे था अब तक प्रभावित॥ 53॥

 

मेरी प्रार्थना पर व्यथित कुपित मुनि ने तजक्षोभ सब क्रोध अपना भुलाया

होता है जल अग्नि या धूप से उष्ण प्रकृति ने उसे तो है शीतल बनाया ॥ 54॥

 

लोहा लगे फाल के बाण से जब भेदेंगे ‘अज’ कभी मस्तक तुम्हारा

कहा था उन्होंने तभी मुक्त होगें निपट जायेगा शाप मेरा ये सारा॥ 55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १६ ऑक्टोबर  – संपादकीय  – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

? १६ ऑक्टोबर  – संपादकीय  – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ?

*सोपानदेव चौधरी – (१९०७-१९८२)

‘आली कुठूनशी कानी टाळ मृदुंगची धून’ हे गाणे ऐकले की आठवतात सोपानदेव चौधरी. अलौकिक प्रतिभेच्या निसर्गकन्या बहिणाबाई चौधरी यांचे, सोपानदेव सुपुत्र. ते रवीकिरण मंडळाचे सभासद होते. यातील सारे सभासद कवी आपल्या कविता गाऊन सादर करत. सोपानदेव चौधरीही आपल्या कविता गाऊनच सादर करायचे. काव्यकेतकी, अनुपमा, छंद , लीलावती इ. त्यांचे कवितासंग्रह आहेत. आचार्य अत्रे यांच्या सांगण्यावरून ते गद्य लेखनाकडेही वळले.

एकदा नागपूर येथे कविसंमेलनासाठी त्यांना निमंत्रण होते. त्या प्रमाणे ते गेले. त्यांनी आपल्या कविता गाऊन दाखवल्या. श्रोत्यांनाही त्या खूप आवडल्या. पण रिपोर्टमध्ये त्यांचे नाव नव्हते. ते उदास झाले. घरी गेल्यावर बहिणाबाईंनी त्यांना त्याचे कारण विचारले. त्यांनी संगितले. त्यावर बहिणाबाई म्हणाल्या, ‘कुणी प्राणी मारत होता. ते पाहून तिथून जाणार्‍या एका माणसाने त्याचा जीव वाचवला. ‘छापून येणार नाही, म्हणून त्याने तसे केले नसते तर ?’ पुढे त्यांचे उत्स्फूर्त उद्गार आहेत,

‘अरे, छापीसनी आलं ते मानसाले समजलं

छापीसनी राहिलं ते देवाला उमजलं’ किती हृद्य आहे त्यांचं हे समजावणं॰ त्या म्हणाल्या, ‘अरे, तुझी सेवा रुजू झाली ना? मग झालं तर!’

शब्दांवर कोटी करण्याचा त्यांचा छंद होता. ‘मी कोट्याधीश’ आहे असे ते म्हणायचे.पुढे पुढे यांना कॅन्सर झाला. त्या काळात हॉस्पिटलमध्ये पडून पडूनही त्यांनी १०-१५ कविता लिहिल्या. एकदा शंकर वैद्य त्यांना भेटायला गेले आणि त्यांच्या अस्थिपंजर देहाकडे पाहून म्हणाले, हे काय हे आप्पा!’ त्यावर ते म्हणाले, ‘आता मी हाडाचा कवी झालो.’अशा त्यांच्या काही आठवणी डॉ. विठ्ठल प्रभू यांनी आपल्या लेखात  सांगितल्या आहेत.

*ना. सं इनामदार (१९२३ ते २००२) नागनाथ संताराम ईनामदार हे ऐतिहासिक कादंबरीकार म्हणून ओळखले जातात. त्यांनी १६ ऐतिहासिक कादंबर्‍या लिहिल्या. इतिहासातील उपेक्षित  पात्रांना न्याय देणारा लेखक अशी त्यांची ओळख आहे. संशोधन, इतिहासाचे सर्जनशील आकलन, प्रसंगातील नाट्यमयता, चित्रदर्शी शैली त्यामुळे ते लोकप्रिय कादंबरीकार ठरले. त्यांच्या सगळ्या कादंबर्‍यांमध्ये राऊ, झेप, शाहेंशाह, मंत्रावेगळा इ. कादंबर्‍या लोकप्रीय ठरल्या भारतीय ज्ञानपीठाने त्यांच्या राऊ कादंबरीचा राऊ स्वामी या नावाने हिंदीतील अनुवाद प्रकाशित केलाय.

*गो. पु. देशपांडे (१९३८ – २०१३) गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे यांनी मराठीत नाटके, कविता आणि निबंधही लिहिले. दिल्लीच्या जवाहर विद्यापीठातून चीन हा विषय घेऊन त्यांनी पीएच.डी. ही पदवी मिळवली व याच विषयावर हॉँगकॉँगयेथून पदविका मिळवली. पुढे दिल्ली विश्वविद्यालयातून राज्यशास्त्राचे प्राध्यापक म्हणून ते निवृत्त झाले.

त्यांनी मराठी आणि इंग्रजी दोन्हीमधून लेखन केले. त्यांनी वैचारिक, राजकीय, रंगभूमीविषयक, साहित्यविषयक, लेखन केले. प्रायोगिक नाट्यलेखनाच्या प्रवाहात विचारनाट्याची धारा त्यांनी पहिल्यांदा निर्माण केली. राजकीय जाणीवा ही त्यांच्या लेखनामागची प्रेरणा होती. अंधारयात्रा, उध्वस्त धर्मशाळा, चाणक्य विष्णुगुप्त, रस्ते, शेवटचा दिवस. सत्यशोधक इ. नाटके त्यांनी लिहिली. सत्यशोधक नाटकाचे हिंदीत रूपांतर झाले. याशिवात इत्यादी इत्यादी (कवितासंग्रह) ‘ चर्चक हे निबंधाचे पुस्तक २ भागात, राहिमतपूरकरांची निबंधमाला २ भागात, नाटकी निबंध हा लेखसंग्रह इ. लेखन त्यांनी केलेले आहे.

त्यांच्या साहित्याचे, इंग्रजी, कानडी, हिन्दी, तमीळ, अशाविविध भाषांमध्ये अनुवाद झाले आहेत. त्यांच्यावर बहुआयामी गो.पु.’या लघुपटाची निर्मिती झालेली आहे. त्यांनी, शिवाजी, महात्मा फुले, चाणाक्य इ. दूरचित्रवाणीवरील मालिकांसाठी लेखन केले आहे. चित्रपटांसाठी संवाद लेखनही त्यांनी केले आहे.

गो. पु. देशपांडे यांना जयवंत दळवी पुरस्कार, महाराष्ट्र फाऊंडेशनचा जीवन गौरव पुरस्कार, राज्य शासनाचा अनंत काणेकर पुरस्कार, संगीत नाटक अ‍ॅकॅडमीचा पुरस्कार व मरणोत्तर रूपवेध प्रतिष्ठानचा तन्वीर पुरस्कार लाभले आहेत. (हा पुरस्कार श्रीराम लागूंनी आपल्या मुलाच्या तन्वीरच्या स्मरणार्थ ठेवला आहे.)       

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(संपादक मंडळासाठी)

ई अभिव्यक्ती मराठी

संदर्भ :- १) कऱ्हाड शिक्षणमंडळ, “ साहित्य- साधना दैनंदिनी “ . २) गूगल गुरुजी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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