☆ सुंदर दृष्टांत ☆ संग्रहिका: श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆
एक संन्यासी फिरत फिरत एका दुकानावरून जात होता. त्याचे सहज लक्ष गेले त्या दुकानात बरेच लहान मोठे डबे, बरण्या होत्या.
त्या संन्याशाच्या मनात सहज एक विचार आला आणि त्याने त्या दुकानदाराला एक डबा दाखवून विचारले की “ यात काय आहे? “ दुकानदार म्हणाला, “ त्यात मीठ आहे.” संन्यासी बुवांनी आणखी एका डब्याकडे बोट दाखवून विचारले, “ यात काय आहे? “ दुकानदार म्हणाला, “ यात साखर आहे.“—असे करत करत बुवांनी शेवटच्या डब्याकडे बोट करून विचारले, “ आणि यात काय आहे? “ दुकानदार म्हणाला, “ यात श्रीकृष्ण आहे.”
संन्यासी अचंबित झाला आणि म्हणाला, “ अरे या नावाची कोणती वस्तू आहे ? मी तर कधी ऐकली नाही. हे तर देवाचे नाव आहे.”
दुकानदार संन्यासीबुवांच्या अज्ञानाला हसून म्हणाला, ” महाराज तो रिकामा डबा आहे, पण आम्ही व्यापारी रिकाम्या डब्याला रिकामा नाही म्हणत. त्यात श्रीकृष्ण आहे असे म्हणतो.”
बुवांचे डोळे खाडकन उघडले आणि त्यांच्या डोळ्यात पाणी दाटून आले.
ते ईश्वराला म्हणाले, “अरे कोणत्या कोणत्या रूपाने तू ज्ञान देतोस. ज्या गोष्टीसाठी मी एवढा भटकलो, घरदार सोडून संन्यासी झालो, ती गोष्ट एका दुकानदाराच्या तोंडून मला ऐकविलीस.
परमेश्वरा मी तुझा शतशः आभारी आहे “— असे म्हणून त्याने त्या दुकानदाराला साष्टांग नमस्कार केला.
जे मन-बुद्धी- हृदय, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, ईर्षा, द्वेष, चांगले-वाईट आणि सुख-दुःख, अशा लौकिक गोष्टीने भरले आहे, तिथे श्रीकृष्ण म्हणजेच भगवंत कसा राहील? जे रिकामे आहे– म्हणजेच एकदम स्वच्छ आहे, अशाच ठिकाणी, म्हणजे अशाच मन, बुद्धी व हृदयात परमेश्वर वास करतो.
लोकांना दाखवायला गीता व ज्ञानेश्वरी वाचली, किंवा एकादशीला आळंदी-पंढरपूरची वारी केली, तरी मन-बुद्धी-हृदय जोपर्यंत रिकामे होत नाही– म्हणजे स्वच्छ होत नाही, तोपर्यंत परमेश्वर तिथे वास करणार नाही..
संग्रहिका: श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई
सांगली
मो. – 8806955070
≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈
☆ प्रारब्धाचा हिशेब ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
एक दिवस एक माणूस पूर्वसूचना न देता कामावर गेला नाही.
मालकाला वाटलं ह्याचा जर पगार वाढवला तर हा काम मन लावून करेल ….
म्हणून पुढच्या वेळेस मालकाने पगाराव्यतिरीक्त त्याला पैसे वाढीव दिले ….
तो काही बोलला नाही , त्याने चुपचाप मिळालेले पैसे ठेवून दिले ….
काही महिन्यानंतर परत तसंच घडलं—तो पूर्वसूचना न देता गैरहजर राहिला …
मालकाला त्याचा खूप राग आला , आणि त्याने विचार केला की ,
याचा पगार वाढवून काय फायदा झाला ??? हा काही सुधारणार नाही …..
पुढच्या वेळेस मालकाने त्याला वाढवलेला पगार कमी करून त्याच्या हाती पगार दिला ….
त्याने कुठलीही तक्रार न करता चुपचाप पगार घेतला …
मालकाला खूप आश्चर्य वाटलं.
अखेर न राहवून त्याने त्याला विचारलं , ” मागच्या वेळेस तू गैरहजर राहिलास, तरी तुझा पगार वाढवला—तेव्हा सुद्धा तू काही बोलला नाहीस , आणि ह्या वेळेससुद्धा तू पूर्वसूचना न देता गैरहजर राहिलास, म्हणून तुझा वाढवलेला पगार कापला. तरीही तू काही बोलत नाही,,,, असं का ??? ”
त्यावर त्याने दिलेलं उत्तर मनाला भिडणारं होतं—-
तो म्हणाला ,“ मालक पहिल्या वेळी मी गैरहजर राहिलो त्यावेळी मला मुलगा झाला होता …
तुम्ही माझा पगार वाढवलात, तेंव्हा मी विचार केला , देवाने माझ्या मुलाचा पालनपोषणाचा हिस्सा पाठवला …. दुस-यांदा जेव्हा मी गैरहजर राहिलो तेंव्हा माझ्या आईचं निधन झाले होते.
आणि तुम्ही माझा वाढवलेला पगार कापलात —- मी मनाशी विचार केला माझी आई तिचा वाटा तिच्या बरोबर घेऊन गेली . मग मी ह्या पगाराबद्दल चिंता का करू, ज्याची जबाबदारी खुद्द देवाने घेतली आहे … ?
तात्पर्य –
जीवनात काय मिळवलसं आणि काय गमावलसं असं जर कुणी विचारलं तर,
बेशक सांगा,
जे गमावलं तो माझा अविचार होता आणि जे कमावलं ती सद्गुरू कृपा होती.
?.
”खूप सुंदर नाते आहे माझ्यात व देवामध्ये ….”
“जास्त मी मागत नाही आणि कमी देव देत नाही … ?
यालाच प्रारब्ध म्हणतात…
जीवन खूप सुदंर आहे, कष्ट करा अन आनंदाने जगा …. ?
प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर
176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण गीतिका “हम जो समझ रहे अपना है…”। )
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सिर्फ हंसने के लिये है.
बहुत दिनों के बाद असहमत की मुलाकात बाज़ार में चौबे जी से हुई, चौबे जी के चेहरे की चमक कह रही थी कि यजमानों के निमंत्रणों की बहार है और चौबे जी को रोजाना चांदी की चम्मच से रबड़ी चटाई जा रही है. वैसे अनुप्रास अलंकार तो चटनी की अनुशंसा करता है पर चौबे जी से सिर्फ अलंकार ज्वेलर्स ही कुछ अनुशंसा कर सकता है. असहमत के मन में भी श्रद्धा, ?कपूर की भांति जाग गई. मौका और दस्तूर दोनों को बड़कुल होटल की तरफ ले गये और बैठकर असहमत ने ही ओपनिंग शाट से शुरुआत कर दी.
चौबे जी इस बार तो बढिया चल रहा है,कोरोना का डर यजमानों के दिलों से निकल चुका है तो अब आप उनको अच्छे से डरा सकते हो,कोई कांपटीशन नहीं है.
चौबे जी का मलाई से गुलाबी मुखारविंद हल्के गुस्से से लाल हो गया. धर्म की ध्वजा के वाहक व्यवहारकुशल थे तो बॉल वहीँ तक फेंक सकते थे जंहां से उठा सकें. तो असहमत को डपटते हुये बोले: अरे मूर्ख पापी, पहले ब्राह्मण को अपमानित करने के पाप का प्रायश्चित कर और दो प्लेट रबड़ी और दो प्लेट खोबे की जलेबी का आर्डर कर.
असहमत: मेरा रबडी और जलेबी खाने का मूड नहीं है चौबे जी, मै तो फलाहारी चाट का आनंद लेने आया था.
चौबे जी: नासमझ प्राणी, रबड़ी और जलेबी मेरे लिये है, पिछले साल का भी तो पेंडिंग पड़ा है जो तुझसे वसूल करना है.
असहमत: चौबे जी तुम हर साल का ये संपत्ति कर मुझसे क्यों वसूलते हो, मेरे पास तो संपत्ति भी नहीं है.
चौबे जी: ये संपत्ति टेक्स नहीं, पूर्वज टेक्स है क्योंकि पुरखे तो सबके होते हैं और जब तक ये होते रहेंगे, खानपान का पक्ष हमारे पक्ष के हिसाब से ही चलेगा.
असहमत: पर मेरे तो पिताजी, दादाजी सब अभी इसी लोक में हैं और मैं तो घर से उनके झन्नाटेदार झापड़ खाकर ही आ रहा हूं, मेरे गाल देखिये, आपसे कम लाल नहीं है वजह भले ही अलग अलग है.
चौबेजी: नादान बालक, पुरखों की चेन बड़ी लंबी होती है जो हमारे चैन का स्त्रोत बनी है. परदादा परदादी, परम परदादा आदि आदि लगाते जाओ और समय की सुइयों को पीछे ले जाते जाओ. धन की चिंता मत कर असहमत, धन तो यहीं रह जायेगा पर ब्राह्मण का मिष्ठान्न भक्षण के बाद निकला आशीर्वाद तुझे पापों से मुक्त करेगा. ये आशीर्वाद तेरे पूर्वज तुझे दक्षिणा से संतुष्ट दक्षिणमुखी ब्राह्मण के माध्यम से ही दे पायेंगे.
असहमत बहुत सोच में पड़ गया कि पिताजी और दादाजी को तो उसकी पिटाई करने या पीठ ठोंकने में किसी ब्राह्मण रूपी माध्यम की जरूरत नहीं पड़ती.
उसने आखिर चौबे जी से पूछ ही लिया: चौबे जी, हम तो पुनर्जन्म को मानते हैं, शरीर तो पंचतत्व में मिल गया और आत्मा को अगर मोक्ष नहीं मिला तो फिर से नये शरीर को प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करने लगती है तो फिर आपके माध्यम से जो आवक जावक होती है वो किस cloud में स्टोर होती है. सिस्टम संस्पेंस का बेलेंस तो बढता ही जा रहा होगा और चित्रगुप्तजी परेशान होंगे आउटस्टैंडिंग एंट्रीज़ से.
चौबे जी का पाला सामान्यतः नॉन आई.टी. यजमानों से पड़ता था तो असहमत की आधी बात तो सर के ऊपर से चली गई पर यजमानों के लक्षण से दक्षिणा का अनुमान लगाने की उनकी प्रतिभा ने अनुमान लगा लिया कि असहमत के तिलों में तेल नहीं बल्कि तर्कशक्ति रुपी चुडैल ने कब्जा जमा लिया है.तो उन्होंने रबड़ी ओर जलेबी खाने के बाद भी अपने उसी मुखारविंद से असहमत को श्राप भी दिया कि ऐ नास्तिक मनुष्य तू तो नरक ही जायेगा.
असहमत: तथास्तु चौबे जी, अगर वहां भी मेरे जैसे लोग हुये तो परमानंद तो वहीं मिलेगा और कम से कम चौबेजी जैसे चंदू के चाचा को नरक के चांदनी चौक में चांदी की चम्मच से रबड़ी तो नहीं चटानी पड़ेगी.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – पुनर्वास
(आगामी रविवार को लोकार्पित होनेवाले कवितासंग्रह क्रौंच से)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं। हमें प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी की अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा की अप्रतिम रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है दो भागों में आपकी एक संवेदनशील कथा ‘जलपत्नी‘ जो महाराष्ट्र के उन हजारों गांवों से सम्बंधित है, जहाँ पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है ।)
☆ कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी☆
फिर थोड़ी देर चुप्पी के बाद,‘संजीबा के घर का तोता ‘राम राम’ तो कहता है, मगर कितनी गाली बकता है! बापरे बाप! सब संजीबा की दादी से सीखा है। वह जो दिन भर संजीबा की आई को गाली बकती रहती है।’
कहने के लिए तो देनगानमल की सपत्नियां सगी बहनों की तरह रहती हैं। मगर हर एक का कमरा और चौका बर्तन अलग ही होता है। ऐसा नहीं कि संयुक्त परिवार की तरह सब एक ही जगह खाना खाते हैं। तो सखाराम के आँगन में भी और एक कमरा बन गया। सखाराम दो एक रात वहीं खाना खाता, वहीं सोता। इससे तो रामारती के मन में और भी घृताहुति होने लगी। जिस तरह छुरी चाकू पर सान देने के लिए कुरंड पत्थर पर उन्हें रगड़ने से उनकी कुंद धार तेज हो जाती है, उसी तरह अपनी किस्मत से रगड़ खा खाकर रामारती के मुँह के शब्द भी तीर बनते चले गये।
शादी के दूसरे दिन ही सुबह सखाराम भागी को जगाने लगा,‘ऐ उठ। चल, तुझे आज कुआँ दिखा लाते हैं।’
एक तो नई जगह, ऊपर से दो दिन का कर्मकांड, फिर बीती रात का अहसास – भागी तो मुश्किल से आँख खोल पा रही थी। फिर वह उठ गयी और मुँह हाथ धो कर तैयार होने लगी। ऐसे तो देनगानमल में औरतें ऊपर लंबा ब्लाउज और नीचे छोटा घागड़ा जैसा कपड़ा पहन कर बाहर निकलती हैं, मगर आज वह साड़ी में ही लिपटी हुई थी। बस सिर के ऊपर उसने मजबूती से एक पगड़ी बाँध रक्खी थी। और उस पर दो बड़े और एक छोटे घड़े रख लिये। फिर कमर पर एक।
सखाराम नई दुलहन को लेकर निकल ही पड़ा था कि सचिनि भी आँख मलते हुए रामारती के कमरे से बाहर आँगन में आ गया,‘ए आई, मैं भी नई आई के साथ कुएँ पर चलूँगा ….।’
‘तू जाकर क्या करेगा? चुप मारकर लेटा रह।’ रामारती झुँझला उठी – देवा हो देवा! इस डायन ने जाने कौन सा मंतर फूँक दिया है मेरे लाल पर!
‘नहीं, मैं भी चलूँगा।’ वह अपना पैर पटकने लगा,‘अण्णा -’
‘चलने दो न दीदी। मेरा भी मन बहल जायेगा।’ भागी ने कहा तो रामारती झट से मुड़ कर अंदर चली गई।
सखाराम ने बेटे का हाथ थाम लिया। रास्ते भर सचिनि कभी बापू के पास रहता, तो कभी भाग कर भागी के पास चला जाता,‘नई आई, कबूतर तो सफेद और भूरे दोनों होते हैं, मगर कौवा सिर्फ काला ही क्यों होता है?’
गीता के प्रश्नों का उत्तर शायद विद्वानों के पास हों, मगर इस बालगोपाल के सवालों का जवाब भागी बेचारी कहाँ तक देती? भले ही घड़े खाली हों, मगर सर पर बोझ तो था ही। उन्हें सँभालना भी था। साथ ही लौटते समय सर पर के वजन की कल्पना से भी तो रूह काँप रही थी। हे सांईनाथ, घर का एक कोना पाने के लिए सारी जिन्दगी यह कीमत चुकानी पड़ेगी?’
छोटे छोटे पत्थर और कंकड़ों से भरे करीब ढाई तीन किमी. रास्ता चलकर वे तीनों गांव के कुँए तक पहुँचे। इधर उधर दो एक बबूल और जंगली नींबू के पेड़ वहाँ चुपचाप खड़े थे। कुएँ के पास। दोनों पेड़ उदास – किस दिन मिटेगी बोलो इंसानों की प्यास?
कुएँ की दीवार पर टूटी फूटी नंगी ईंटें झाँक रही थीं। सखाराम कुएँ की रस्सी से लगी बाल्टी को नीचे उतारने लगा। भागी ने ऊपर से कुएँ के अंदर झाँक कर देखा – वहाँ नीचे पानी के ऊपर जलकुंभी के पौधे तैर रहे थे। दो एक बार बाल्टी को पानी के अंदर बाहर करके उनको थोड़ा हटाना पड़ा। फिर भर लो पानी …….
एक एक करके चारों घड़े भर लिए गये। सखाराम ने एकबार पूछा,‘एक मैं ले लूँ?’
भागी ने सर हिलाया,‘रहने दो।’
हाँ, अपने स्वार्थ के लिए इन्सानों ने धरती को भी तो नारी मान लिया है। तो बोझ तो भागी और धरित्री दोनों को ही ढोना है।
बस यही सिलसिला शुरू हुआ। तीन तीन चार चार घड़े में पानी भर कर इतना दूर लाना। दिन में दो बार, तो कभी कभी तीन बार।
सखाराम के घर के हरे रंग के दरवाजे के दोनों ओर रंगोली की तरह कुछ उकेरी हुई थीं, और एक तरफ दीवार पर बनी थी मछली। रामारती के कमरे की दीवार पर बीचोबीच पति पत्नी की फोटो टँगी हुई है। शादी के बाद संत तुकाराम जयन्ती की यात्रा के मेले में दोनों ने खिंचवायी थी। फोटो के दायें ब्रह्मा, विष्णु और महेश विराजमान हैं और उनके नीचे संत तुकाराम। बायें नीले रंग का फाग उड़ाते हुए डा. अंबेडकर।
दो घड़े पानी उस कमरे में रखकर भागी ने अपने हिस्से का एक घड़ा पानी अपने कमरे में एक बर्तन में उॅड़ेल दिया।
वैसे तो सिवाय सामाजिक सुरक्षा के जलपत्नियों को विवाह का और कोई सुख मिलता नहीं। फिर भी साल डेढ़ साल बाद भागी को एक लड़की हुई। स्वाभाविक है, रामारती को सिर पीट लेने का एक मौका मिल गया,‘अरे अब इसे कौन पार लगायेगा ? इसका मामा ?’
भागी चुप रही। उसने खुद को जिन्दगी की लहरों के हाथों सौंप दिया था। चाहे डूब जाये, चाहे उबर जाये।
मगर सचिनि को तो जैसे एक खिलौना मिल गया। वैसे भी उसे नईकी आई से शुरु से ही लगाव था। अब तो वह दिनभर उसीके यहाँ उठता बैठता और सोता। यद्यपि रामारती जल भुन कर रह जाती,‘अरे इस चुड़ैल ने तो जैसे मेरे बेटे पर जादू टोना कर दिया है रे!’ मगर मन ही मन खुश भी होती रही। रात में भागी के पास सचिनि के सोने से सखाराम को तो उसी के कमरे में लेटना है। तो उसके हिस्से के अमृत में जरा भी टोटा नहीं होता।
सचिनि और टुकी – दोनों भाई बहन सावन भादो के धान की तरह बड़े होते गये। सचिनि स्कूल भी जाने लगा था। मगर मा’ट्सा’ब के हाथों उसे नम्बर से ज्यादा बेंत मिला करती थीं। फिर भी इन हो हल्ले और ऊधम के बीच उसे कहीं अगर कच्चा आम या एक पका हुआ अमरूद दिख जाये, तो वह ढेला उठाकर निशाना लगाता और उसे उठाकर मुँह लगाये बिना तुरंत घर की ओर दौड़ता,‘टुकी – ई! नई अम्मां, टुकी कहाँ है? यह ले, थाम -!’
उसी साल भादों शुक्ला चतुर्थी के गणेश जन्मोत्सव के ठीक एकदिन पहले खबर आयी कि सखाराम का वो जीजा यानी ममेरी दीदी का पति बहुत बीमार है। वो अपनी बहन को एक बार देखना चाहता है। अब इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो स्वयम् विघ्नेश गणेश ही जाने, पर सखाराम की दीदी ने कुछ ऐसा ही कहकर उसे बुला भेजा। सखाराम भारी असमंजस में पड़ गया। खाना तो रामारती पका लेगी। मगर पानी ? खैर, माँ बेटे मिलकर कुछ सँभाल लेंगे। यही सोचकर उसने भागी को भाई के पास भेज दिया।
भागी शादी के बाद पहली बार मायके पहुँची …..
‘अरे अब क्या देखने आयी है?’ सखाराम की दीदी राम के बिछोह में तड़पते भरत की तरह ननद से लिपट कर रोने लगी। मानो भागी को देखे बिना उसके गले से पानी अब तक नीचे उतर नहीं रहा था,‘देख, खटिया पर लेटे लेटे कैसी दुर्दशा हो गयी है!’
भागी यहाँ भी बीमार की तीमारदारी और घर का सारा कामकाज सँभालने लगी। सखाराम की बहन बीच बीच में बेबस भगवान को कोसती, रोती और सोती रहती। उसकी गृहस्थी चलती रही।
उधर सखाराम की गृहस्थी में फिर वही रोज की किचकिच, रोज का तूफान। अब तो सखाराम की आई रही नहीं, तो उसी को निर्णय लेना था। फिर से बाटली की ठेके पर नीलू फूले ने उसके पैसे से दारू पिया और नेक सलाह दे डाली,‘कैकेयी के बाद सुमित्रा का आना तो शास्तर में ही लिखा है।’
भागी घर पर थी नहीं। रामारती देखती रही। सुबह से गाली देती रही। शामतक सखाराम तीसरी बार दूल्हा बनकर निकल पड़ा। सचिनि और टुकी दोनों बारात में शामिल हो गये। अण्णा की शादी की मिठाई भी तो खानी है। अगले दिन सौन्ती ने इस आँगन में कदम धरा।
रामारती ने और चार औरतों के साथ मिलकर उसकी आरती उतारी। फिलहाल वह भागी के कमरे में ही रहने लगी। दूसरे दिन तड़के उसे सचिनि के साथ पानी भर लाने के लिए भेज दिया गया।
इधर बीच भागी का भाई भी जिन्दगी से लड़ते लड़ते चल बसा। भागी को लौटना पड़ा। उसकी भाभी उससे लिपट कर रोई और उससे कहा,‘जा भागी, अब यहाँ रह कर क्या करेगी? आखिर एकदिन अपने घर तो तुझे लौट जाना ही था।’
अजीब खेल है जग का, लगा है आना जाना, कौन किसका घर है यहाँ पर, कहाँ है ठिकाना ?
सौन्ती के बारे में भागी को तो पहले से सब कुछ पता चल ही गया था। वह आयी। सौन्ती की ठुड्डी पकड़ कर मुस्कुरायी और अगले दिन से फिर घड़े सिर पर लेकर कुएँ तक जाने लगी।
जब सौन्ती माँ बनी तो भागी पानी लाने के साथ साथ उसकी देखभाल भी करती। सौन्ती मन ही मन उसके प्रति अहसानमंद थी। अपनी सगी दीदी की तरह उसे प्यार करने लगी। वह अपने ढंग से भली भाँति समझती थी कि भागी के भाग में उस कुएँ की तरह सबकी प्यास बुझाते ही जाना है। भले ही उस कुएँ की तरह वह भी अंदर से जर्जर होती जा रही थी।
देनगानमल में कभी सूखा पड़ा, तो कभी बारिश हुई – साल बीत रहे थे। सचिनि को भी एक प्राइवेट बस में नौकरी मिल गई। गाँव में पानी की किल्लत होने के कारण कुछ मुश्किल से, पर उसकी शादी तय हो गई। वह भागी से कहने लगा,‘बस नई आई, अब देख लेना तुझे कुएँ से पानी लाना नहीं पड़ेगा। तेरी बहू आयेगी तो उसीसे सारा काम करवाना।’
भागी मुसकुराकर रह गयी। मगर उस कुएँ की दीवार की ईंटों की तरह उसकी पसलियाँ भी दिखने लगी थीं। शादी के पहले दिन कई दफे पानी लाने, फिर सबके लिए खाना बनाने में उसे खुद की सुध ही न थी। सौन्ती उसके हाथ बँटाती रही। मगर रात में जब सभी ने भोजन कर लिया तो सौन्ती ने उससे कहा,‘चलो दीदी, तुम भी खा लो न …..’
भागी ने सर हिलाया,‘नहीं रे। मेरी तबिअत ठीक नहीं लग रही है। बुखार भी है और मचली भी आ रही है। बस एक गिलास पानी पिला दे।’
सौन्ती खुद खाकर सो गई। रामारती की तेज आवाज से सुबह उसकी नींद खुल गई,‘अरे बात क्या है ?आज घर में ब्याह है और महारानी अभी तक सो रही है? पानी कौन लायेगा ?’
सौन्ती दौड़ कर भागी के कमरे में गई तो देखा वह बेसुध पड़ी हुई है। खाली पेट ऐंठन होने के कारण उसे शायद उल्टी भी हुई थी। पड़े पड़े वह कराह रही है,‘पानी……पानी…..’
सौन्ती भाग कर उसके घड़े के पास गई। मगर यह क्या? न किसी घड़े में, न किसी बाल्टी में – कहीं एक बूँद पानी नहीं है।
उधर सखाराम के मामा, मामी, भाऊ और जो रिश्तेदार आये हुए थे, सभी चिल्ला रहे हैं,‘अरे भागी, तू ने पानी भर कर नहीं रक्खा?’
सचिनि बाहर निकल आया,‘मैं पानी ले आता हूँ।’
रामारती चिल्ला उठी,‘आज तेरी लगन है, और तू चला पानी लेने इतनी दूर? कहीं चोट वोट लग जाए तो ? उससे अशुभ होता है।’
टुली उतावली हो रही थी,‘आई, मैं जाऊँ ?’
सौन्ती ने उसे रोका,‘तू अपनी बड़की आई के पास रह। पहले मैं कुएँ से पानी भर कर लाती हूँ। फिर तू चलना।’
जबतक सौन्ती पानी लेकर वापस आने लगी सूरज भी मानो उसका इम्तहान लेने लगा था। टप टप ….उसकी पेशानी से पसीना चू रहा था।
घर पहुँचते ही घड़े को रखकर, उससे एक लोटे में पानी उँड़ेल कर वह भागी के पास जा पहुँची।
कमरे के अंधकार से बाहर निकलकर भागी की आँखें मानो किसी उजाले की तलाश कर रही थीं। उसके मुँह से निरंतर एक ही शब्द निकल रहा था -‘ पानी….पानी….पानी…..’
‘लो दीदी, पी लो पानी।’ सौन्ती ने एक हाथ में पानी लेकर उसके मुँह को पोंछा फिर उसका सर उठाकर पानी पिलाने लगी। मगर भागी के होठों के कोने से वह पानी सिर्फ बाहर जमीन पर चूने लगा ………
मधु मागशी माझ्या सख्यापरी, जन पळभर म्हणतील हाय हाय, नववधू प्रिया मी बावरते, कशी काळ नागिणी, तिन्ही सांजा सखे मिळाल्या… यासारख्या एकाहून एक सरस भावकवितांचे जन्मदाते राजकवी भास्कर रामचंद्र तांबे यांचा आज जन्मदिवस. मध्य भारतातील (म.प्र.) ग्वाल्हेर जवळील मुगावली येथे 1873 मध्ये त्यांचा जन्म झाला. अर्वाचीन मराठी कवींपैकी एक महत्त्वाचे कवी. आपल्या आयुष्यात त्यांनी युवराजशिक्षक, दिवाण, पोलीस सुपरिंटेंडंट, सरकारी वकील, न्यायाधीश अशा विविध पदांवर काम केले असले तरी त्यांचा पिंड हा कविमनाचा होता. तो त्यांनी आयुष्यभर जपला. हिंदी आणि उर्दू काव्य, गझल यांचा अभ्यास आणि शास्त्रशुद्ध वैदिक शिक्षण याचा त्यांना मराठी काव्यरचनेत खूप उपयोग झाला. शिवाय टेनिसन, ब्राउनिंग यासारखे पाश्चात्य कवी, जयदेव यांचे संस्कृत काव्य, रवींद्रनाथ टागोर यांचे साहित्य या सर्वांमुळे त्यांची कविता समृद्ध होत गेली. त्यांची कविता ही संदेश देणारी किंवा प्रचारात्मक नव्हे तर ती विशुद्ध आनंद देणारी भावकविता आहे. गेयता लाभलेली त्यांची कविता म्हणूनच गीतात रुपांतरीत झाली आणि मराठी माणसाच्या ओठावर जाऊन बसली. त्यांच्या कवितेतून त्यांच्या तृप्त, समाधानी जीवनाचे दर्शन घडते. सौंदर्यवादी दृष्टीकोनाबरोबरच परमेश्वरावरील श्रद्धा ही त्यांच्या सात्विक काव्य निर्मितीचे मुख्य गमक आहे.
त्यांचा पहिला कविता संग्रह 1920 ला प्रकाशित झाला. नंतर 1935 मध्ये समग्र तांबे कविता प्रसिद्ध झाली. त्यात 225 हून अधिक कवितांचा समावेश आहे. त्यांनी काव्यविषयक गद्य लेखनही विपुल प्रमाणात केले आहे.रविकिरण मंडळातील कवींवर त्यांच्या साहित्याची छाप पडली होती.1926 साली मध्य भारतीय कवी संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. तसेच 1932 मध्ये कोल्हापूर येथे साहित्य संमेलनांतर्गत कवी संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. 1937 साली ग्वाल्हेर संस्थानने त्यांना राजकवी हा सन्मान दिला. महाराष्ट्र आणि मध्य प्रदेश सरकारने त्यांच्या नावाने अनेक पुरस्कार ठेवले आहेत. तसेच त्यांनाही सन्मानित करण्यात आले आहे. या काव्यभास्कराचे ग्वाल्हेर येथे 1941 मध्ये निधन झाले.
भास्कर रामचंद्र भागवत आणि श्रीधर कृष्ण शनवारे या दोन ज्येष्ठ साहित्यिकांचा आज स्मृतीदिन.
भास्कर रामचंद्र भागवत हे प्रामुख्याने बाल साहित्य क्षेत्रातील प्रसिद्ध साहित्यिक. त्यांनी अर्थ शास्त्रातील पदवी संपादन केली होती.परंतू त्यांना सुरूवातीपासूनच इंग्रजी साहित्य व विज्ञान अभ्यासाची विशेष आवड होती.तसेच त्यांनी काही काळासाठी पत्रकारिताही केली. आकाशवाणीच्या दिल्ली केंद्रात मराठी अनुवादक म्हणून काम केले. स्वातंत्र्य चळवळीतीही त्यांचा सहभाग होता. ‘खेळगडी’ या मासिकाचे संपादनही त्यांनी केले होते.
वैतागवनातील वाफाटे हे त्यांचे विनोदी लेखन, फास्टर फेणे या मध्यवर्ती पात्राभोवती गुंफलेले कथानक, साहसकथांचा अनुवाद, किशोरवीन मुलांसाठी अद्भूतरम्य कादंबरी लेखन त्यांनी केले. खजिन्याचा शोध, तुटक्या कानाचे रहस्य, भुताळी जहाज, साखरसोंड्या, जंगलबुकातील दंगल यासारखे अनेक बाल कुमार प्रिय साहित्य त्यांनी लिहिले. 1975च्या बाल कमार साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. या शिवाय ते नाट्य अभ्यासक व नाट्य समीक्षक ही होते. त्यानी मराठी नाट्यकोशाचे लेखन संपादनही केले. अशा या थोर साहित्यिकाचे निधन 27 /10/2001 ला झाले.
श्रीधर कृष्ण शनवारे हे विदर्भातील ज्येष्ठ साहित्यिक.त्यांनी धनवटे महाविद्यालयात 35 वर्षे अध्यापन केले. या संपूर्ण कालावधीत व अक्षरशः शेवटपर्यंत त्यानी लेखन, काव्यलेखन केले.त्यांचे लेखन विविधांगी आहे. नऊ काव्य संग्रह व समीक्षा, अनुवादात्मक सोळा पुस्तके त्यांच्या नावावर आहेत.’अतूट’ हे नाटक त्यांनी मूळ बंगाली साहित्यकृताीवरून लिहिले। उन्ह उतरणी, आतून बंद बेट, थांग अथांग, तळे संध्याकाळचे, तीन ओळींची कविता, सखा हे त्यांचे काही काव्यसंग्रह.राक्षसाचे वाडे हे बालसाहित्य, कथाकार वामन चोरघडे समीक्षाग्रंथ, कोलंबसाची इंडिया व पायावर चक्र ही प्रवास वर्णने, थेंब थेंब चिंतन हे चिंतनात्मक अशी समृद्ध साहित्य संपदा त्यांनी निर्माण केली आहे.उन्हं उतरणी याला केशवसुत पुरस्कार व थांग अथांग ला कुसुमाग्रज पुरस्कार प्राप्त झाला आहे.तर आतून बंद बेट हा काव्यसंग्रह नागपूर विद्यापीठात अभ्यासक्रमासाठी लावण्यात आला होता.
‘जातो माघारा’ हा कविता संग्रह प्रकाशनाच्या वाटेवर असतानाच त्यांचे दि 27/10/2013 ला दुःखद निधन झाले.
अशा या ज्येष्ठ साहित्यिकांना ही शब्दवंदना !
श्री सुहास रघुनाथ पंडित
ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ :- विकिपीडिआ साभार.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈